एक जटिल समस्या है, जलवायु परिवर्तन
मार्टिन खोर
नोबल पुरस्कार प्राप्त् जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय सरकारों की पेनल (आय.पी.सी.सी.) की ताजा रपट का सार पढ़ लेने मात्र से पर्यावरण परिवर्तन के बारे में नवीनतम जानकारियां संक्षिप्त् और सटीक रूप में हम सबके सामने है। मात्र २३ पृष्ठीय यह रपट (विज्ञान पर प्रभाव, पर्यारण परिवर्तन के असर एवं पर्यावरण परिवर्तन को कम करने के लिए आवश्यक नीतियां) आय.पी.सी.सी. द्वारा पूर्व में जारी की गई हजारों पृष्ठों में फैली तीन अलग-अलग रपटों का निचोड़ है। यह गंभीर संकलित रपट हमें आसन्न चुनौतियों के बीच पृथ्वी पर जीवन को बचाए रखने के बारे में सुझाव भी देती है । उदाहरण के लिए पेनल अध्यक्ष राजेन्द्र पचौरी का कथन कि हम भले ही उत्सर्जन को बहुत सीमित कर लें और वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को इसी स्तर पर बनाए रखें तो भी समुद्री जलस्तर ०.०४ मीटर से १.४ मीटर तक बढ़ने की आशंका बनी रहेगी क्योंकि समुद्री जल के गर्म होने की क्रिया तो जारी रहेगी ही जिसके फलस्वरूप समुद्री क्षेत्र में फैलाव होना लाजमी है । उन्होंने बताया कि यह खोज बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी वजह से तटीय क्षेत्रों में बड़े परिवर्तन संभावित है जैसे निचले क्षेत्रों में जल प्लावन के खतरे होंगे और नदियों के डेल्टा प्रदेशों एवं निचले द्वीपों में भी इस वजह से बड़े दुष्प्रभाव प्रकट होंगे । इस कार्य में शामिल २५०० विशेषज्ञ वैज्ञानिक विश्लेषकों, १२५० लेखकों और १३० देशों के नीति निर्माताआें के साझा प्रयासों ने इसे इतना महत्वपूर्ण दस्तावेज बनाया है। इस रपट का मुख्य संदेश यह है कि तापमान में हो रही बढ़ोत्तरी में संदेह की गुंजाईश नहीं है और इस वजह से हवाआें की रफ्तार और समुद्री जल का तापमान भी साथ-साथ ही बढ़ेगा । जिसके परिणामस्वरूप समुद्रों का जलस्तर बढ़ेगा और बर्फबारी और पहाड़ों पर जमी बर्फ में और कमी आएगी । समुद्रों के जलस्तर की बढ़ती रफ्तार जो सन् १९६१ के १.८ मिलीमीटर प्रतिवर्ष की तुलना में सन् १९९३ में ३.१ मिलिमीटर प्रतिवर्ष तक जा पहुंची है इस समय सर्वाधिक चिंता का विषय है। इसकी मुख्य वजह है बढ़ते तापमान से हो रही घनत्व वृद्धि और ग्लेशियरों व पहाड़ी चोटियों पर जमी बर्फ और धु्रवों की बर्फ की चादरों का पिघलाव । अनुमान है कि २१वीं सदी के अंत तक समुद्री जलस्तर में वृद्धि का आंकड़ा १८ से ५९ सेंटीमीटर का स्तर छू लेगा । श्री पचौरी चेतावनी देते हुए कहते हैं कि तापमान में वृद्धि के कुछ असर आकस्मिक और अपरिवर्तनीय भी होंगे । उदाहरण के लिए ध्रुवों की बर्फ की चादर में हुआ थोड़ा-सा पिघलाव भी समुद्र के जलस्तर में कई मीटर की वृद्धि कर देगा। जिसके फलस्वरूप तटीय क्षेत्रों में बड़े परिवर्तन होंगे । निचले क्षेत्रों में जल भराव होगा, नदियों के डेल्टा प्रदेशों और निचले टापुआें में भी जलप्लावन की सी स्थितियां निर्मित होंगी । यह रपट तापमान वृद्धि के असर पर क्षेत्रवार प्रकाश डालती है । जैसे अफ्रीका में २०२० तक ७.५ करोड़ से लेकर २५ करोड़ लोगो को इसके दुष्परिणाम भुगतना होंगे । कुछ देशों में तो वर्षा आधारित कृषि घटकर ५० प्रतिशत रह जाएगी । एशिया में आने वाली मुख्य परेशानियां इस तरह है संभावना है कि २०५० तक मध्य, दक्षिण, पूर्व एवं दक्षिण पूर्व एशिया में खासतौर से बड़े नदी संग्रहणों में मीठे जल में भारी कमी होगी । दक्षिण पूर्व एवं दक्षिण पूर्वी एशिया के तटीय क्षेत्रों खास तौर से बड़ी आबादी वाले वृहद डेल्टा प्रदेशों में समुद्रों और नदियों की बाढ़ का सबसे ज्यादा खतरा होगा । संभावित जलवायु चक्र परिवर्तन की वजह से पूर्वी दक्षिण एवं दक्षिण पूर्वी एशिया में बाढ़ और सूखा जनित डायरिया की वजह से प्रदूषण और मृत्युदर में वृद्धि होगी । रपट चेतावनी देती है कि तापमान वृद्धि की शुरूआत हो चुकी है। सन् १९८० से अब तक के सर्वाधिक १२ गरम वर्षो की गणना करें तो हम पाएंगे कि सन् १९९५ से लेकर २००६ तक के बारह में से ग्यारह वर्ष पिछले १०० वर्षो में सर्वाधिक गरम थी, साथ ही पिछले १०० वर्षो में तापमान में ०.७४ डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हुई है । आर्कटिक की बर्फ का दायरा २.७ प्रतिशत प्रति दशक की दर से सिकुड़ता जा रहा है । गर्मियों में तो यह ७.४ प्रतिशत दशक की दर से सिकुड़ रहा है । पृथ्वी के दोनोंही गोलार्धो में ग्लेशियरों एवं बर्फ की मात्रा में कमी आई है । रपट लगातार चेताती है कि यदि अब भी अगर कदम न उठाए गए तो वैश्विक उत्सर्जन की मात्रा में सन् २००० और २०३० के बीच २५ से ९० प्रतिशत की वृद्धि होने की संभावना है । अगले बीस सालों में ०.२ डिग्री सेंटीग्रेड प्रति दशक की दर से तापमान वृद्धि की आशंका जताई गई है और अगर ग्रीन हाउस गैसों और एयरोसोल के घनत्व को सन् २००० के स्तर पर स्थित भी रख लिया जाए तब भी इसके ०.१ डिग्री सेंटीग्रेड प्रति दशक की दर से बढ़ने का आकलन किया गया है । उसके बाद के तापमान वृद्धि के आकलन उत्सर्जन के स्तर पर निर्भर करते हैं । रपट के अनुसार मौजूदा स्थिति आई.पी.सी.सी. द्वारा कुछ वर्ष पूर्व कराए गए आकलन से भी काफी खराब है । इसमें चिंता के पांच आधार बिंदु तय किए है । प्रकृति के लिए खतरा : १९८०-१९९९ के स्तर से तापमान का वैश्विक औसत अगर १.५ डिग्री सेंटीग्रेड से २.५ डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ता है तो वनस्पति और पशुआे की २० से ३० प्रतिशत प्रजातियों पर विलुप्त् होने के खतरे बढ़ जाएंगे । प्राकृतिक आपदाआे के खतरे : सूखा, गर्म हवाएं, बाढ़ में वृद्धि और अनेक अन्य दूरगामी परिणाम भी अनुमानित है । प्रभावों के प्रति सहनीयता: विभिन्न क्षेत्रों में असर भी भिन्न-भिन्न होगा, खासतौर से आर्थिक आधार पर पिछड़े लोगों पर पर्यावरण परिवहन का असर सर्वाधिक हुआ करता है । सामूहिक प्रभाव : कम गर्म होने वाले क्षेत्रों में पर्यावरण परिवर्तन के प्रारंभिक बाजार आधारित लाभ ज्यादा होने का अनुमान किया गया है जबकि ज्यादा गर्म होने वाले क्षेत्रों में सर्वाधिक नुकसान आकलित है । एक बड़ा कारण और उसके खतरे : सैकड़ों वर्षो से जारी तापमान वृद्धि के परिणाम स्वरूप हुई घनत्व वृद्धि की वजह से समुद्री जलस्तर में वृद्धि बीसवीं सदी की अपेक्षा बहुत ज्यादा आकलित है, जिससे तटीय क्षेत्रों में कमी होगी और इससे जुड़े अन्य प्रभाव भी सामने आएंगे। रपट समक्ष बड़े खतरे से निपटने के उपायों पर जिसमें - शमन (ऊर्जा, परिवहन, उद्योग आदि क्षेत्रों में निवारक उपाय अपनाकर स्थिति को बदतर होने से रोकना), अनुकूलन (दुष्प्रभावों को कम करने के उपाय) वित्त प्रबंध एवं तकनीक शामिल हैं पर चर्चा के साथ खत्म होती है । ***
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