सोमवार, 17 अगस्त 2015



प्रसंगवश
कटे अंगूठे की बंदनवारें 
  डॉ. शिवमंगलसिंह   सुमन 
कुछ वर्षोपूर्व झाबुआ और अलीराजपुर के आदिवासी इलाके मेंमैं यह देखकर हैरान रह गया कि वहां के भील सर-संधान में अंगूठे का प्रयोग नहीं करते, केवल चार अंगुलियों से ही प्रत्यंचा खींचकर अचूक लक्ष्यवेध करने की उनकी क्षमता विस्मयकारी है । पूछने पर वे इतना ही बता पाए कि हमारे यहां अंगूठे का प्रयोग वर्जित है । सहसा मेरे मानस में वह गाथा कौंध - सी गई कि युगों पूर्व इनके पूर्वज एकलव्य का अंगूठा गुरू द्रोणाचार्य ने कटवा लिया था । तबसे आज तलक उनकी संतानोंने उसका प्रयोग ने करने का संकल्प किस धैर्य और साहस के साथ निबाहा है । अशिक्षित और असभ्य कहे जाने वाले सर्वहारा वर्ग का यह अप्रितहत स्वाभिमान देखकर मैं चकित रह गया । मुझे लगा कि सर्जक की दुर्धर्षता का इससे बढ़कर अन्य प्रतीक नहीं हो सकता । जब सर्जक नि:स्वभाव से रूढ़िग्रस्त समाज के अनाचारों और विभिषिकाआें को चुनौती देने का साहस संजोने में समर्थ होता है तब वह संवेदना की अखण्ड परम्परा को प्रवहमान करने का अधिकारी बनता है । 
भारतीय साहित्य (काव्य) के उद्गम की कहानी भी तो ऐसी ही एक चुनौती है । भारत जैसे धर्मप्राणा देश में पहली कविता न कोई स्त्रोत है न मंगलाचरण, वरन बहेलिए के बाण से बिद्ध छटपटाते हुए पक्षी को देखकर किसी महान संवेदनशील सह्वदय का अत्याचार के विरूद्ध अप्रयास फूट पड़ने वाला आक्रोश है ।         निश्चय ही साहित्य का उत्स, अवरोधों, विरोधों, बाधाआें के पहाड़ों के अंतस से ही प्रादुर्भूत हुआ है । कबिरा की वाणी की बुलंदगी का भी तो यही रहस्य है । 
काव्य के प्रयोजन परक यर्थाथवादी भूमिका को स्पष्ट करते हुए मम्मट ने भी तो यही कहा कि - 
काव्य यशसे%थेकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये । 
सद्य: परिनिर्वृतये कान्ता-सम्मिततयोपदेशयुजे ।।
अर्थात् - कीर्ति के लिए, धन के लिए, व्यवहार जानने के लिए, अमंगल (शिवेतर) के विनाश के लिए, और तत्काल परम आनंद की प्रािप्त् के लिए प्रेयसी प्रयुक्त प्ररोचना के समान ही काव्य का प्रयोजन है ।
सम्पादकीय
नीति आयोग बनाएगा गरीबी का नया पैमाना
 मोदी सरकार उस तरीके को खत्म करने जा रही है, जिसके तहत प्रति व्यक्ति मासिक उपयेाग व्यय के आधार पर गरीबी रेखा तय होती है । गरीबी रेखा तय करने का यह आधार थोड़े बहुत बदलाव के साथ पंडित जवाहरलाल नेहरू के जमाने से चल रहा है । 
गरीबी उन्मूलन पर नीति आयोग के टास्क फोर्स की रिपोर्ट शीघ्र आने की संभावना है, कहा जा रहा है कि इसमें गरीबी की एक व्यावहारिक परिभाषा भी होगी । फिलहाल गरीबी रेखा नेशल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण के आधार पर तय होती है । टॉस्क फोर्स विचार कर रही है कि क्यों न इस सर्वे की जगह सामाजिक, आर्थिक एवं जातिगत जनगणना के आंकड़ों को आधार बनाया जाए । क्या बहु-सूचको के आधार पर गरीबी का पैमाना तय किया जा सकता है ?
अब तक योजना आयोग गरीबी रेखा और गरीबों की संख्या तय करता था । लेकिन उसका उत्तराधिकारी नीति आयोग यह काम नहीं    करेगा । कुछ लोगों का मानना है कि नीति आयोग के अलावा कोई अन्य संस्था इस काम को कर सकती है, जैसे भारतीय सांख्यिकीय आयोग । सरकार के अलग-अलग कार्यक्रमों के लिए गरीबी का पैमाना भी भिन्न होगा और यह कई मानकों के आधार पर तय होगा । 
गरीबी रेखा तय करने की शुरूआत योजना आयोग ने १९६२ में एक कार्यकारी समूह बनाकर की थी । इसने प्रचलित मूल्यों के आधार पर प्रति व्यक्ति २० रूपये मासिक उपभोग व्यय का गरीबी रेखा माना था । वर्ष १९७९ में अलघ समिति ने गांवों में ४९ रूपये तथा शहरों में ५६.६४ रूपये प्रति व्यक्ति मासिक व्यय को गरीबी रेखा माना । वर्ष २००९ में तेंदुलकर समिति ने गांवों में ४४७ रूपये तथा शहरों में ५७९ रूपये की गरीबी रेखा तय की । वर्ष १९९३ में लकड़ावाला समिति ने गांवों में २०५ रूपये तथा शहरों में २८१ रूपये प्रति व्यक्ति खर्च को गरीबी रेखा माना था । 
सामयिक
शिक्षा के कारखानोंके घटिया उत्पाद 
चिन्मय मिश्र
पूरे भारत मेंं नया शिक्षा सत्र शुरु हो गया है । शिक्षा प्रणाली के मूलभूत कलेवर को बदलने संबंधी तमाम सुझाव, सलाह व पैरोकारी  हमेशा की तरह शोर मचाने के बाद पुन: जुलाई २०१६ तक के लिए कुम्भकर्णी नींद में चली गई है । 
कहते हैं कुम्भकर्ण वर्ष में दो बार उठता था और अपना भोजन, पानी आदि लेकर पुन: निद्रा में चला जाता था । परंतु भारतीय शिक्षा को तो पिछले तकरीबन सात दशकों से नींद की गोली देकर लगातार सुलाया जा रहा है । इसकी वजह यह है कि यदि शिक्षा में चेतना आ गई तो व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता खुल सकता है । सत्तर और अस्सी के दशक तक, जब शिक्षा उनींदी अवस्था को प्राप्त हो रही थी तब तक हमें अनेक सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन भले ही वह आधे- अधूरे से क्यों न हों, दिखाई पड़ते थे । नब्बे के दशक में उदारीकरण के नमूदार होने के बाद से शिक्षा को गहरी नींद में सुला दिया गया है । 
    अब हमारे सामने जैसे ही शिक्षा की बात होती हैं वैसे ही शौचालय और मध्यान्ह भोजन की उपयोगिता, आवश्यकता और निरर्थकता आँखों के सामने आने लगती हैं । शिक्षा की विषयवस्तु और विद्यार्थी इसमें कहीं भी शामिल नहीं किए जाते और शिक्षक से शिक्षण के अलावा अन्य सभी कुछ करने की उम्मीद की जाती है । जिला कलेक्टर से लेकर पटवारी तक से दुत्कार खाने की शिक्षक की सूची में अब सरपंच जैसे तमाम नए घटक और संस्थान जुड़ गए   हैं ।  
    इस सबके बीच अनेक ''प्रतिष्ठित'' गैर सरकारी संगठनों की रिर्पोट अखबारों के पहले पन्ने पर छपने लगती हैं कि छठी के बच्च्े को दूसरी का गणित नहीं आता । पर यह रिपोर्ट यह खुलासा नहीं करती कि गांव में छठी में पढ़ने वाला बच्च विश्वविद्यालयीन कृषि स्नातक से ज्यादा अच्छी तरह से बीजों की पहचान कर सकता है और खेत की मिट्टी को देखकर, सूंघ कर व हाथों में महसूस कर बिना किसी प्रयोेगशाला में परीक्षण किये बता सकता है कि इसमें कौन सी फसल लगाई जाए । मगर शिक्षा के सरकारी व गैर सरकारी ठेकेदार शिक्षा को रसोई में उबालकर और शौचालय में बंद करने से ज्यादा तवज्जो नहीं देना चाहते ।
     आज से करीब ११० वर्ष पूर्व रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा था, ''किसी भी तरह हमारे देश में ज्ञान के परिष्कार पर लगीं सीमाएं हटाई जानी चाहिए । राजनीतिक आंदोलनों आदि के जरिए हम ऐसा कर पाने में असफल रहे हैं, जो असंबद्ध रहे हैं और जिन्होंने हमारे उद्योग को बिखेर दिया है । अनेक शिक्षकों और अनेक प्रयोगों के जरिए हमें अपने देश में शिक्षा की धारा को जीवित करना होगा तभी शिक्षा हमारे देश की प्रकृति  के अनुकूल हो पाएगी । शिक्षा की किसी विशेष अवस्था को मात्र ''राष्ट्रीय'' नाम दे देने से जीवित नहीं किया जा सकता ।'' 
शिक्षा का अधिकार कानून निर्मित कर इसे मूल अधिकारों में शामिल करना एक उत्साहवर्धक कदम माना जा सकता है, लेकिन क्या उसका हश्र भी संविधान प्रदत्त अन्य मूल अधिकारों यथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक मत की स्वतंत्रता जैसा   होगा ? क्योंकि मूल प्रश्न तो बरकरार है कि हम अपना शासन व प्रशासन किस सीमा तक संविधान के दायरे में संचालित कर पा रहे   हैं ? 
    सी बी एस ई विद्यालयों की बढ़ती लोकप्रियता भारतीय संस्कृति की विविधता को पहचानने में रुकावटें पैदा कर रही है। दूूसरी ओर सारे विद्यालय विद्यार्थियों को ज्ञान के लिए नहीं बल्कि प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार कर रहे हैं । कोचिंग एवं ट्यूशन संस्थानों की गणना शिक्षण संस्थानों में होना किसी भी देश के लिए शर्मनाक है । परंतु भारत में कोटा जैेसे कोचिंग उद्योग चलाने वाले शहर ''एज्युकेशन हब'' कहलाने लगे हैं । जबकि दूसरी वास्तविकता यह है कि इस शहर में संभवत: सबसे ज्यादा विद्यार्थी आत्महत्या कर रहे हैं । 
इस बार आई आई टी की प्रवेश परीक्षा में सर्वोच्च् स्थान पाने वाले कुछ विद्यार्थी मध्यप्रदेश के इंदौर के कोचिंग संस्थानों में ट्यूशन करते थे । इससे प्रसन्न हो म.प्र. सरकार ने ऐलान कर दिया कि वह अब इन्दौर को ''एज्युकेशन हब'' बनाने में पूरी मदद करेगी । वैसे भी हवाई, सड़क व रेल यातायात की बेहतर ''कनेक्टिविटी'' इसे स्वमेव एक ''हब'' में परिवर्तन कर देती है । इस सबमें शिक्षा कहां है कोई भी ढंूढ नहीं सकता ।
    अमेरिकी शिक्षाविद गेट्टो का मानना है कि ''कारखाना शिक्षा प्रणाली (फेक्ट्री स्कूलिंग) बच्चें तथा समुदायों को भीषण नुकसान पहंुचा रही है।'' आज जब हम निजी विद्यालयों के विज्ञापन देखते हैं तो उसमें परिसर में उपलब्ध स्विमिंग पूल, वातानुकूलित क्लास रूम व बसें व तमाम अन्य गतिविधियोें जिसमें लजीज खाना भी शामिल है, को पाते हैं । लेकिन एक भी विद्यालय यह दावा नहीं करता कि उसके यहां अध्ययनरत बच्चें को कोचिंग में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी । सारे विद्यालय अब कोचिंग संस्थानों के  ''प्रिपरेयटरी स्कूलों या नर्सरी'' में परिवर्तन हो चुके हैं । पढ़ने के लिए वहां जाना अर्थहीन होता जा रहा   है । आई आई टी में प्रवेश हेतु बारहवीं के अंकों की गणना से शायद स्थिति सुधरे, लेकिन ''डमी स्कूल'' अभी भी शिक्षा जगत के सामने चुनौती बने खड़े हैं । 
एक अफ्रीकी कहावत है, ''एक बच्च्े को बड़ा करने के लिए पूरे गांव की जरुरत पड़ती है।'' मगर भारत में तो समाज का शिक्षा से नाता ही टूट गया है । इतना ही नहीं माता-पिता तक का बच्च्े से वैचारिक जुड़ाव भी लगातार कम होता जा रहा है । आइ आइ टी और आइ आइ एम जैसे संस्थानों को शिक्षा का सिरमौर माना जाने लगा है । जबकि वास्तविक शिक्षा तो विज्ञान, कला, साहित्य सामाजिक विषयों जैसे इतिहास, भाषा, राजनीति शास्त्र, समाजशास्त्र आदि से प्राप्त होती है । 
मगर भारत में अध्ययन और धनअर्जन को पर्यायवाची मानने की नई परंपरा अपना ली गई है । जिस तरह कारखानों में मजदूर के पास चुनाव की सुविधा नहीं होती, हां रोजगार छोड़ने की सुविधा अवश्य होती है, ठीक वैसा ही शिक्षा के साथ भी हो रहा है । शिक्षा से स्वयं को अलग करने वाले या ड्राप आउट केवल आर्थिक कारणों से नहीं होते बल्कि उसके पीछे और अनेक कारण होते है। परंतु सिवाए जुबानी जमा खर्च के यहां कुछ नहीं होता ।
     इस मेवाड़ी कहावत पर गौर करिए, ''वास्तविक लोकतंत्र अपने शासकों को चुनने से नहीं आता बल्कि वास्तविक लोकतंत्र अपने शिक्षकों को चुनने की योग्यता से आता है।'' दुर्र्भाग्यवश हमारे यहां कश्मीर से कन्याकुमारी तक के  बच्च्े सिर्फ धन कमाने की मशीन में परिवर्तित किए जा रहे हैं । रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी ''तोते की शिक्षा'' को भारत के प्रत्येक राजनीतिज्ञ, शिक्षाविद व प्रशासक को प्रतिवर्ष नए शिक्षा सत्र की शुरुआत से पढ़ाए जाने की जरुरत है । 
शायद करत-करत अभ्यास के कभी जड़मति सुजान हो जाए । वैसे इसकी सिर्फ  उम्मीद ही की जा सकती है और उम्मीदें हमेशा पूरी थोड़े ही होती हैं । चंद्रकांत देवताले ने लिखा भी है, 
    नकल अच्छी चीज नहीं
    नकल नहीं की जानी चाहिए
    पर की जाती है सदियों से 
   किसी कम्प्यूटर के स्मृति कोष में शायद हो 
   इसके उद्भव व विकास का लेखा।
ई-गवर्नेंास से एम गवर्नेंस तक पहुंचने की तैयारी में लगा भारत क्या वास्तव में शिक्षा को शासन प्रशासन से अलग रख उसके वास्तविक निहितार्थ तक पहुंचा पाएगा ?
हमारा भूमण्डल 
जलवायु परिवर्तन एवं स्वास्थ्य
जॉन क्वेली
जलवायु परिवर्तन की वजह से बढ़ते तापमान के चलते स्वास्थ्य विशेषज्ञोंद्वारा पिछली आधी शताब्दी में अर्जित लाभों पर पानी फिरता जा रहा  है । 
हमारे आसपास बीमारियों का शिकंजा दिनोंदिन मजबूत होता जा रहा है । जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु किया गया कोई भी प्रयत्न अंतत: मानव स्वास्थ्य के हित में ही होगा । 
बुरी खबर वास्तव में बहुत बुरी है । परंतु पहले एक शुभ समाचार । ''जलवायु परिवर्तन से निपटना इस शताब्दी की सबसे बड़ी स्वास्थ्य उपलब्धि हो सकती है । ब्रिटेन स्थित स्वास्थ्य जर्नल ''दि लांसेट'' द्वारा प्रकाशित एक विस्तृत रिपोर्ट में यह शुभ संकेत दिया है । इस रिपोर्ट में मानव स्वास्थ्य एवं जलवायु परिवर्तन के जटिल अंर्तसंबंधों की खोजबीन की गई है । 
''स्वास्थ्य एवं जलवायु परिवर्तन : सार्वजनिक स्वास्थ्य संरक्षण हेतु नीतिगत प्रतिक्रिया'' नामक इस विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा समीक्षित व्यापक रिपोर्ट में घोषणा की गई है कि मानव निर्मित वैश्विक तापमान वृद्धि के प्रभावों ने विश्व द्वारा पिछली आधी शताब्दी में अर्जित सर्वाधिक प्रभावशाली स्वास्थ्य लाभों को खतरे में डाल दिया है । इतना ही नहीं इसमें कहा गया है कि जीवाश्म इंर्धन के  सतत् उपयोग से मानवता को भविष्य में संक्रामक रोगों की नई प्रवृत्तियों, वायु प्रदूषण, खाद्य असुरक्षा और कुपोषण, जबरन पलायन, विस्थापन और सशस्त्र संघर्षों को भुगतना पड़ सकता है । जिसकी वजह से स्थितियां और भी बदतर हो जाएंगी । 
आयोग के सह अध्यक्ष डा.एंथोनी कोस्टेलो, जो कि एक शिशुरोग विशेषज्ञ हैंएवं लंदन यूनिवर्सिटी कालेज के वैश्विक स्वास्थ्य संस्थान के निदेशक हैं, का कहना है, ''जलवायु परिवर्तन में इतनी क्षमता है कि वह हालिया दशकों में आर्थिक विकास के  माध्यम से अर्जित स्वास्थ्य लाभों पर पानी फेर सकता है। ऐसा सिर्फ परिवर्तनीय एवं अस्थिरता की वजह से स्वास्थ्य पर पड़ रहे सीधे प्रभावों के माध्यम से ही नहीं होगा बल्कि कई अप्रत्यक्ष तरीकों जैसे बढ़ते पलायन एवं घटती सामाजिक स्थिरता द्वारा भी होगा । 
हमारा विश्लेषण स्पष्ट तौर पर बतला रहा है कि जलवायु परिवर्तन से निपटना हमारे स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है । जलवायु परिवर्तन से निपटना आने वाली पीढ़ियों को मानव स्वास्थ्य को लाभ पहंुचाने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवसर है ।''
नवगठित ''स्वास्थ्य एवं जलवायु परिवर्तन पर लांसेट आयोग'' को अन्तर्राष्ट्रीय जलवायु वैज्ञानियों एवं भूगोलवेत्ताआें, सामाजिक एवं पर्यावरण वैज्ञानिकों, जैवविविधता विशेषज्ञों, इंजीनियरों एवं ऊर्जा नीति विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों, राजनीति विज्ञानियों एवं सार्वजनिक नीति विशेषज्ञों एवं स्वास्थ्यकर्मियों का एक नया एवं व्यापक सहयोग निरूपित किया जा रहा है । इस रिपोर्ट को अब तक की अपनी तरह की सर्वाधिक तथ्यपरक एवं परिपूर्ण रिपोर्ट माना जा रहा है । हालांकि इस विषय पर अनेक अध्ययन हो चुके हैं, लेकिन आयोग का तर्क है कि ''जलवायु परिवर्तन द्वारा मानक स्वास्थ्य के सम्मुख प्रस्तुत प्रलयंकारी जोखिमों'' को अन्य लोगों ने कमोवेश ''कम करके आंका'' है । इस रिपोर्ट की निम्न चार प्रमुख उपलब्धियां हैं :- 
* जलवायु परिवर्तन के प्रभाव ने पिछली आधी शताब्दी में स्वास्थ्य के क्षेत्र में अर्जित लाभों के  समक्ष खतरा पैदा कर दिया है । इसके प्रभाव आज भी महसूस किए जा रहे हैं एवं भविष्य में मानव स्वास्थ्य के  समक्ष जो चुनौतियां प्रस्तुत कर रही हैंवह पूर्णतया अस्वीकार्य और अत्यंत विनाशकारी हैं ।  
* जलवायु परिवर्तन से निपटना २१वीं शताब्दी का महानतम वैश्विक स्वास्थ्य अवसर साबित हो सकता है ।
* कार्बनविहीन वैश्विक अर्थव्यवस्था प्राप्त करना और सार्वजनिक स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करना अब प्राथमिक रूप से महज तकनीकी अथवा आर्थिक प्रश्न नहीं बचा है, बल्कि यह अब एक राजनीतिक प्रश्न है ।
* जलवायु परिवर्तन मूलभूत तौर पर मानव स्वास्थ्य का एक विषय है और इससे निपटने की गति बढ़ाने और नीतियों को अपनाने में स्वास्थ्य कर्मियों की महत्वपूर्ण भूमिका है ।
आयोग के सहअध्यक्ष एवं यू सी एल इंस्टिट्यूट फॉर ह्युमन हेल्थ एवं परफॉरमेंस के निदेशक डा. ह्यूज माँटगोमरी का कहना है,''जलवायु परिवर्तन एक स्वास्थ्य आकस्मिकता या आपातस्थिति है और यह आपातकालीन प्रतिक्रिया की मांग करती है ।'' बढ़ते वैश्विक तापमान ने अत्यंत विपरीत मौसमी घटनाएं, फसलों की असफलता, पानी की कमी एवं अन्य संकटों में वृद्धि की  है । उनका कहना है रिपोर्ट स्पष्ट रूप से यह बताने का प्रयास है कि अब कोर एवं त्वरित निर्णय लिए जाने की आवश्यकता है । 
इस तरह की परिस्थितियों में कोई भी चिकित्सक वार्षिक चर्चाओं की श्रृंखला पर विचार नहीं कर रहा है और इसे लेकर उनकी उम्मीदंे भी अपर्याप्त हैं । ठीक इसी तरह जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक प्रतिक्रिया हमारे सामने आ रही है । आयोग के एक अन्य प्रपत्र में बताया है कि जलवायु परिवर्तन संबंधी व्यापक विमर्श मंे मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रभावों पर विचार करना क्यों आवश्यक है ।
जब जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को बजाए विशुद्धत: पर्यावरणीय, आर्थिक या तकनीकी चुनौती मानने के स्वास्थ्य के मुद्दे के रूप में ग्रहण किया जाएगा तब यह स्पष्ट होगा कि हम एक ऐसी दुर्दशा के साक्षी बन रहे है जो कि मानवता के ह्दय को चोट पहुंचा रही है। हमंे अभी जो कमोवेश दूरस्थ खतरा प्रतीत होता है, स्वास्थ्य उसे एक मानवीय चेहरा प्रदान करता है । इस स्तर के अल्पपोषण एवं खाद्य असुरक्षा में यह संभावना निहित है कि वह एक ऐसी राजनीतिक क्रिया को बढ़ावा दे सकता है जिसकी ओर हम सबका ध्यान महज कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन अकेला आकर्षित नहीं करा सकता । 
इस रिपोर्ट में निहित उपलब्धियों एवं चेतावनियों पर प्रतिक्रिया देते हुए फ्रेंडस आफ द अर्थ, ब्रिटेन के नीति विभाग के अध्यक्ष माइक चाइल्ड का कहना है विश्व के सर्वाधिक महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों में से एक ने जबरदस्त नए प्रमाण देते हुए तर्क दिया है कि जलवायु विनाशलीला के प्रवाह को रोकने के लिए तुरंत ही कुछ  क्रांतिकारी निर्णय लेने की आवश्यकता है । 
उनका कहना है, ''जब स्वास्थ्य कर्मी इसे ''आपातकाल'' (इमरजेंसी) कहकर पुकारेंगे तो दुनिया भर के राजनीतिज्ञों को इसके बारे में सुनना ही पड़ेगा ।'' इसके निदान व उपचार के संबंध में रिपोर्ट से संबंधित चिकित्सकों एवं वैज्ञानिकों द्वारा इसे पूर्ववर्ती चिकित्सकों द्वारा तंबाखू, एच आई वी/एड्स से जिस शिद्त से निपटा गया है उसी तेवर से जलवायु परिवर्तन की विनाशलीला से निपटने की बात कही गई है । उनका कहना है कि अब समय आ गया है कि हम (चिकित्सक) मानव और पर्यावरण स्वास्थ्य को लेकर चल रहे इस संघर्ष का नेतृत्व करंे ।
आयोग का तर्क है कि यदि हम जीवाश्म इंर्धन से मुक्ति पा लेगें तो मानव स्वास्थ्य में भी जबरदस्त सुधार आ सकता है । डा. कास्टेलो का कहना है, ''वास्तव में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए आप जो भी करेंगे वह स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद ही होगा । इससे हम हृदयाघात, लकवा एवं मधुमेह में भी कमी ला सकते हैं ।''
सुमन-शताब्दी 
मानवतावादी लोकनायक डॉ. सुमन
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित 
हिन्दी के शीर्षस्थ साहित्यकार प्रगतिशील विचारधारा के प्रख्यात कवि मानवतावादी लोकनायक डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन का जन्म शताब्दी का वर्ष चल रहा है । 
डॉ. सुमन की कविता बीसवींशताब्दी की साहित्य की सुदीर्घ परम्परा और सम-सामयिक इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज है । सुमनजी को सांसों के हिसाब के कवि के रूप में जानने का अवसर हमें मिला, लेकिन उनकी कविता में समय की धड़कनें हर युग में सुनी जाती रहेगी । सुमनजी की कविता और उनका विलक्षण व्यक्तित्व उनको कालजयी साहित्यकारों की पंक्ति में खड़ा करता है । 
हिन्दी की प्रगतिशील विचारधारा के प्रमुख कवि होने के साथ ही सुमनजी के काव्य मेंमानवतावाद और सामान्य जन की पीड़ा का मुखरता से वर्णन हुआ है । सुमनजी की लोकप्रियता में उनका मानवतावादी दृष्टिकोण भी था । 
उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले के झगरपुर गांव में परिहार ठाकुर घराने में ५ अगस्त (नागपंचमी) १९१५ को सुमनजी का जन्म हुआ  । राष्ट्र के लिये उत्सर्गशीलता और साहित्यिकता की परम्परा आपको विरासत में मिली  थी । आपके प्रपितामह ठाकुर चंद्रिकाबक्शसिंह ने सन् १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ते हुए अपने प्राणों की आहूति दी थी । आपके बड़े भाई रामसिंहजी ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे । इसी प्रकार बहन कीर्ति कुमारी की गिनती भी वरिष्ठ साहित्यकारों में होती थी । 
आपकी प्रारंभिक शिक्षा उत्तरप्रदेश में हुई । बाद में रीवा, ग्वालियर और बनारस शहर आपकी शैक्षणिक यात्रा के पड़ाव रहे । हिन्दी के महापुरूषों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बाबू श्यामसुन्दर दास, आचार्य केशव प्रसाद मिश्र जैसे मनीषियों का मार्गदर्शन आपको   मिला । ग्वालियर, बनारस और उज्जैन ऐसे नगर हैं जहां सुमनजी को जनता का भरपूर प्यार और लोकप्रियता मिली । उज्जैन में तो यह लोकप्रियता उस शिखर तक पहुँची जहां व्यक्ति लोकनायक हो जाता है । 
ग्वालियर नगर में ही सुमनजी को सुमन उपनाम मिला । ग्वालियर के कविरामकिशोर शर्मा किशोर ने सन् १९३४ में शिवमंगलसिंह नाम में शिव से सु, मंगल से म और सिंह के अनुस्वार से न लेकर सुमन उपनाम बनाया । सुमनजी शुरू में पत्रकार रहे लेकिन उन्हें अध्यापन का अवसर मिला तो अपनी रूचि के कारण वे उसी में रम गये, उनका पूरा जीवन लोक शिक्षण के लिये समर्पित रहा । ग्वालियर और उज्जैन में आपकी अध्यापकीय गौरव गाथा के उदाहरण देखे जा सकते हैं । ग्वालियर में अटल बिहारी वाजपेयी, रामकुमार चतुर्वेदी चंचल, वीरेन्द्र मिश्र तो उज्जैन में प्रकाशचंद सेठी, श्याम परमार, शरद जोशी और चिंतामणि उपाध्याय को आपके विद्यार्थी होने का गौरव मिला था । 
डॉ. सुमन जैसा वक्ता हिन्दी में दुर्लभ है । सुमनजी को शब्दों का जादूगर कहा जाता था, उनके भाषणों में घंटों श्रोता बंधे रहते थे । आपके काव्यपाठ में भी भाषण का पुट रहता था, भाषण कब कविता हो जाती थी और कविता कब भाषण बन जाता था पता ही नहीं चलता था । सुमनजी उन चंद सौभाग्यशाली कवियों में शामिल हैं, जिनको महात्मा गांधी और पं. नेहरू को अपनी कविता सुनाने का अवसर मिला था । नेहरूजी ने तो सुमनजी की डायरी में संदेश लिखा था अपने जीवन को एक कविता बनाना चाहिये यह छोटा सा वाक्य बाद में ऐतिहासिक दस्तावेज बन  गया । 
जिन लोगों को सुमनजी से मिलने का या उनका भाषणा सुनने का अवसर मिला, वे जानते हैं कि डॉ. सुमन से मिलना, चर्चा करना या उनका भाषण सुनना नये अनुभव के दौर से गुजरना होता था । सुमनजी का भाषण कभी समाप्त् नहीं होता उसे तो बंद करना पड़ता था । उनके ज्ञान के खजाने से शब्द दर शब्द भाषण का झरना बहता रहता और श्रोता अभिभूत होकर, समय को भूलकर सुनने में तल्लीन रहते थे । सुमनजी के एक भाषण में न जाने कितने संस्मरण पसाद-पंत, निराला, तुलसी सूर, टैगोर, गांधी, नेहरू और सरदार पटेल जैसे कितने ही महापुरूषों के जीवन की घटनायें, उनके विचार या मुलाकात के शब्द-चित्र होते थे । आपका पूरा भाषण एक डाक्यूमेंट्री फिल्म की तरह चलता था, जिसमें सब कुछ सजीव और जीवंत लगता  था । संक्षेप में कहें तो समूचा युग और उसके संदर्भ सुमनजी के भाषण मेंजीवंत हो उठते थे । 
अपने उम्र के नवें दशक में भी सुमनजी की दिनचर्या बड़ी ही अनुशासित और गीतशीलता लिये हुई रहती थी । बड़े सबेरे जग कर घूमने जाना उनका दैनिक क्रम था । देश के कोने-कोने से लोग उनसे मिलने आते थे, सभी से सुमनजी आत्मीयता से प्रसन्नतापूर्वक मिलते थे और यथासंंभव हरेक की सहायता करते थे, शायद ही कोई उनसे मिलकर निराश लौटा हो । लोगों से बाचतीत कर उनकी समस्या हल करने में सुमनजी को ऊर्जा मिलती थी, इससे वे अपने आपको तरोताजा महसूस करते थे । 
सामान्य पूजापाठ से भिन्न एक विशिष्ठ पूजा वे नियमित करते  थे । नियमित रूप से गीता-रामायण और अन्य कोई पुस्तक पत्रिका रोज निश्चित समय पर पढ़ना ही उनकी पूजा थी । सुमनजी चाहे घर में होते, देश में कहीं हो या विदेश में प्रवास पर हो, यह क्रम निरन्तर रहता था । इससे साहित्य, समाज और समकालीन राजनीति पर सुमनजी की सजग दृष्टि बनी रहती थी । युवा लेखकों की रचनाशीलता से सतत संपर्क के साथ ही सामाजिक सरोकारों में सार्थक हस्तक्षेप सुमनजी के व्यक्तित्व की विशेषता थी । यह पूजा इसकी आधार भूमि थी । 
सुमनजी का डायरी लेखन प्रसंग भी उल्लेखनीय है । कई बार जब कोई उनसे मिलता था तो आश्चर्यचकित रह जाता कि वे दस मिनिट पूर्व तक की डायरी लिख चुके होते थे । डायरी लेखन में इतनी नियमितता और गतिशीलता बहुत कम लोगों में देखने को मिलती हैं । सुमनजी व्यक्तिगत डायरी के साथ ही एक दूसरी डायरी भी रखते थे जिसमें किसी द्वारा कहीं गयी कोई बात कविता, संस्मरण या सुभाषित पसंद आने पर वे उसे संदर्भ सहित नोट कर लेते थे । इसी गुणग्राहकता और जिज्ञासा ने उन्हें हमेशा युवा बनाये रखा । 
युवा जगत में सुमनजी सर्वाधिक लोकप्रिय रहे । सुमनजी का आभामंडल इतना विस्तृत रहा कि उसने देश और काल की सीमा के बंधनों को तोड़कर युवाआें की कई पीढ़ियों को प्रभावित किया था । युवाआें के लिये सुमनजी की सीख स्वयं उनके शब्दों में  जीवन में कोई बड़ा स्वप्न संजोकर अवश्य रखना चाहिये, इसी स्वप्न के सहारे व्यक्ति, समाज या राष्ट्र फिर उठ खड़ा हो सकता है, चल दौड़ सकता है और लक्ष्य तक पहँुच सकता है,  हर युग में प्रासंगिक बनी रहेगी । 
उ.प्र. से अपनी जीवन यात्रा शुरू करने वाले सुमनजी के जीवन में मालवा का केन्द्र उज्जैन एक महत्वपूर्ण पड़ाव सिद्ध हुआ । यह भी सुखद संयोग है कि सुमनजी को मिलने वाले सम्मान और पुरस्कारों की शुरूआत उनके मालवा निवास के बाद से ही हुई थी । सुमनजी की लोकप्रियता देश ओर ओर विदेश में रही लेकिन मालवा को लेकर उनके मन में असीम प्रेम था । 
आज से पैतालीस बरस पहले मुझे नवीं कक्षा में पढ़ते हुए सुमनजी के प्रथम दर्शन का अवसर मिला  था । उनके स्नेह स्पर्श, आत्मीयता और आशीर्वाद की मुझे जैसे अनेकों तरूणों के जीवन में नया उत्साह और जोश भरने में महत्वपूर्ण भूमिका   थी । सुमनजी के साथ बिताये अनेक एतिहासिक क्षण मेरे जीवन की अनमोल थाती है । सुमनजी के निर्देशन में शोध कार्य करने में जो विशिष्ट अनुभव और गौरव मिला उसे शब्दों में व्यक्त कर पाना मुश्किल है । आज सुमनजी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके प्रेरणादायी विचार नयी पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे । महाकाल के उद्यान के प्रमुख सुमन की सुरभि अनेक शताब्दियोंतक हमारे वातावरण में व्याप्त् रहेगी । 
विशेष लेख
पर्यावरण संरक्षण : एक प्राथमिक आवश्यकता
कृष्ण कुमार द्विवेदी 
पर्यावरण शब्द का शब्द कोषीय अर्थ है - आस-पास, पर्यावरण उन सभी स्थितियों और प्रभावों का योग है जो जीव समुदाय के विकास एवं जीवन पर असर डालते हैं । इसकी रचना भौतिक जैविक एवं सांस्कृतिक  तत्वों वाले पारस्परिक क्रियाशील तन्त्रों से होती हैं, ये तंत्र अलग-अलग तथा सामूहिक रूप में परस्पर सम्बद्ध होते हैं ।
  पर्यावरण - भौतिक तत्व, स्थान, स्थलरूप, जलीय भाग, जलवायु, मृदा शैल खनिज, मानव निवास्थ क्षेत्र की बदली विशेषताआें, उसके सुअवसरों तथा प्रतिबंधक स्थितियों को निश्चित करता है तथा गतिशील रूप में मानव जीव-जन्तु पौधो सूक्ष्म जीव समूह और उसके गुणोंके बीच सम्बन्ध स्थापित करता है । वर्तमान मेंमनुष्य ने अपनी अति आर्थिक लोलपता की नीति के कारण पर्यावरण को नष्ट करने का कार्य अधिक किया है अति पश्चिमी प्रभाव से प्रकृति प्रदत्त संसाधनों के विनाशकारी दोहन के कारण समस्त परिस्थितिकीय संतुलन ही गड़बड़ा गया है, बढ़ते औद्योगिकीकरण एवं भयंकर जनसंख्या विस्फोट के फलस्वरूप मनुष्य में राक्षसी तृष्णा जाग उठी है, और इसी का परिणाम है कि दिन-प्रतिदिन धरती के तापमान में वृद्धि, ओजोन परत का क्षीण होना, अम्लीय वर्षा, अकाल, सूखा, इंर्धन, लकड़ी तथा चारे की कमी, वायु तथा जल प्रदुषण, रासायनिक विकीरण, भूमि विकृति, बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा का नष्ट होना, वन्य जीवों का वनस्पतियों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है । 
यहां यह उल्लेखनीय तथ्य है कि पर्यावरण की गुणवत्ता के बारे में चिन्तन समाज के सभी वर्गो में, व्यापक रूप से विचार विमर्श का विषय बन गया है । विगत कुछ वर्षौ से आम जनता में भी पर्यावरण संरक्षण की प्रति जागरूकता बढ़ी है, पर्यावरणीय समस्याआें के हल खोजने में रूचि आवश्यकता बनकर ही सभी के समक्ष आई है लेकिन अभी भी यह रूचि का प्रयास पर्यावरणीय गुणवत्ता को प्राप्त् करने के लिए पर्याप्त् नहीं है । अत: वर्तमान में बिगढ़ते पर्यावरण के सुधार के लिये आम जनों में अधिक से अधिक पर्यावरण संरक्षण जागरूकता का लाया जाना जरूरी है । 
वस्तुत: पर्यावरण संरक्षण जागरूकता एक राष्ट्रीय एवं प्राथमिक आवश्यकता है । पर्यावरण जागरूकता ही समस्त जैव-जगत को, उस पर आने वाली संभावित विपदाआें से निपटने तथा उन्हें सुखमय तरीके से जीवन जीने की व्यवस्था अपनाने का प्रयास कराता  है । तथा उन्हें इस योग्य भी बनाता है कि वे आगे और हो सकने वाली समस्याआें को पूर्व में ही जान सके और उनका हल खोजें जिससे पर्यावरण संकट समाप्त् किया जा  सके । इस परिप्रेक्ष्य में पर्यावरणीय संरक्षण की आवश्यकता निम्नानुसार अभिप्रमाणित होती है क्योंकि : सौर मण्डल में केवलपृथ्वी ही एक ऐसा गृह है जिस पर जीवन है और जीवन को नष्ट होने से बचाना है तथा उस पर बसने वाले मानव को सुखमय जीवन उपलब्ध कराना है । 
जनसंख्या में बढ़ती वृद्धि से समस्त प्रकृतिचक्र गड़बड़ा गया है । प्रकृति को पुन: सन्तुलित करने तथा भावी पीढ़ियों को विरासत में सुन्दर और व्यवस्थित भविष्य छोड़ने हेतु जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करना है ।
प्रकृति मेंसंसाधनों के विशालतम भण्डारों की भी सीमा है । उनका उचित एवं बुद्धिमतापूर्ण उपयोग हो  यह जन-जन को सिखाना जरूरी है । पेड़ और वनस्पति ही केवलकार्बन डाईऑक्साइड को प्राण वायु-ऑक्सीजन में परिवर्तित कर सकते हैं । औद्योगिक क्रान्ति तथा वैज्ञानिक उपलब्धियों के फलस्वरूप-सुख-सुविधाआें के उपकरणों ने चर्तुदिक विविध प्रकार के प्रदूषण भी फैलाया है उन पर समायोजनात्मक नियंत्रण आवश्यक है । 
पर्यावरण संरक्षण का वास्तविक उद्देश्य है कि प्राकृतिक संसाधनों का उचित उपयोग करें और बुद्धिमतापूर्ण करें, ऊर्जा की बचत करें, वनों की सुरक्षा करें उन्हें नष्ट होने से बचायें, प्रदूषण को रोके तभी हम अधिसंख्य-जनों को स्वच्छ पानी, स्वच्छ भोजन, हवादार आकाश और स्वच्छ वातावरण उपलब्ध कर   पायेगें । निष्कर्षत: कहा जा सकता है, पर्यावरण संरक्षण के प्रति आमजन की जागरूकता आज की प्राथमिक आवश्कता है । 
हमें इसकी उपादेयता को स्वीकार करना ही होगा, इसके लिए अभियानिक कार्य योजनाआें को पहलता से लागू कर जन-जन का सक्रिय योगदान लेना होगा । पर्यावरण संरक्षण जागरूकता ही अन्तत: समग्र को पर्यावरण की गुणवत्ता और जीवन की गुणवत्ता देने वाली है । 
पर्यावरण संरक्षण - जागरूकता हेतु क्या करें  ?
* जन-जन को पर्यावरण की सत्यता और तथ्यात्मक जानकारी देना । 
* नवीन खोजों के आधार पर संभावित प्रदूषण के कारणों का पता लगाकर प्रचारित करना । 
* पर्यावरणीय अपदाआें एवं भावी संकटों की जानकारी देना । 
* आम पर्यावरण संकट के हल खोजना और उनको जन सामान्य में प्रचारित करना । 
* पर्यावरण संकट को समझने और उससे निपटने एवं सहज व सरल उपाय खोजन हेतु जन-जन को अभिप्रेरित करना । 
* भावी पीढ़ी को भविष्य के पर्यावरणीय संकट से अवगत कराकर तदनुरूप कार्य करने की समझाइश देना । 
* विशुद्ध पर्यावरण में स्वयं जिये और दूसरों को भी शुद्ध पर्यावरण में जीने दें, वाली प्राकृतिक भावना को आत्मसात करने को प्रेरित   करना । 
वृक्षों केसंरक्षण में पर्यावरण संरक्षण 
* वृक्ष लगाओ करो विचार, वन करते कितना उपकार । 
* उजड़ी धरती करें पुकार, वृक्ष लगाकर करो श्रृंगार । 
* समय की यही पुकार, वृक्ष लगाकर करो उद्धार । 
* जन-जन का हो यही विचार, बच्च्े कम पेड़ हो हजार । 
* दस कूप बने एक ताल बने । 
* दस ताल बने एक पुत्र जने । 
* दस पुत्र जने एक वृक्ष  बने । 
* पौधा रोपण कार्य महान, एक वृक्ष दस पुत्र समान । 
* वन है धरती माँके रक्षक, करो न इनका नाश निरर्थक । 
* मांगती है धरा, एक वरदान, तुम अगर दे सको तो, वृक्ष का दान दो । 
स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
अविवादित मुद्दों से दूर हों विवाद
भारत डोगरा

कुछ बुनियादी समस्याओं से निपटना सभी राजनीतिकदलों एवं सामाजिक संगठनों की जिम्मेदारी   है । इस संदर्भ में सभी पक्षों से यह उम्मीद की जा सकती है कि जीवनमरण के इन प्रश्नों को विवादित न होने दिया जाए । इसके बाद ही इनका ठीक समाधान सामने आ सकता है ।
लोकतंत्र में पक्ष-विपक्ष में मतभेद होना और कई बार इनका बहुत तीखा हो जाना स्वाभाविकहै । इसके बावजूद राष्ट्रीय हित में यह जरूरी है कि कुछ बुनियादी मुद्दों पर व्यापक सहमति बना कर दीर्घकालीन नीति बनाई जाए । फिर चाहे सत्ता बदले या मंत्री, व्यापक सहमति के  इन मुद्दों पर कार्य तेजी से आगे बढ़ता रहना चाहिए ।
मातृ, शिशु व बाल मृत्युदर में महत्वपूर्ण कमी लाना एक ऐसा ही उद्देश्य है जिस पर व्यापक सहमति बनाना जरूरी है। इस उद्देश्य को सरकारी कार्यक्रमों में प्राथमिकता तो मिल चुकी है और इस वजह से कई जगह अच्छे परिणाम भी आने लगे  हैं । परन्तु कुल मिलाकर देखें तो इस उद्देश्य को प्राप्त करने में अभी कई बाधाएं हैं । इसके लिए स्वास्थ्य, पोषण, पेयजल व स्वच्छता कार्यक्रमों में जो बुनियादी आधार मजबूत करना है, उसे न कर शार्टकट अपनाए जा रहे हैं । स्वास्थ्य व पोषण के लिए बजट की कमी बनी रहती है । 
अधिकांश प्राथमिक व सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र बुरे हाल में हैं। पोषण कार्यक्रमों में भी कई बड़ी कमियां हैं। इन सब को ठीक किए बिना स्वास्थ्यकर्मियों पर दबाव बनाया जाता है कि आंकड़े ठीक रहने  चाहिए । इस कारण मातृ व बाल मृत्यु दर तेजी से कम करने का जो बुनियादी आधार चाहिए, वह देश के बड़े भाग में हम प्राप्त नहीं कर सके हैं । 
एक अन्य बड़ा मुद्दा है कि जो भी राष्ट्रीय धरोहरंे तेजी से लुप्त हो रही हैं, उसके लिए सब आपस में मिलकर प्रयास करें । यह ऐसा कार्य है जिसमें और अधिक देरी बहुत महंगी सिद्ध होगी । इसमें सबसे महत्वपूर्ण कार्य है परंपरागत विविधता भरे बीजों की रक्षा करना । जब भविष्य में किसी भी बुनियादी कृषि सुधार के लिए कार्य होगा तो परंपरागत बीजों पर आधारित जैव-विविधता की बहुत जरूरत पडेग़ी । केवल धान की ही ऐसी हजारों किस्में व उप-किस्में हमारे यहां थीं जो अब नहीं मिल रही हैं । इन्हें केवल जीन-बैंकों में बचाना पर्याप्त नहीं है किसानों के खेतों में भी इन्हें बचाना चाहिए । इनके साथ जो बहुत सा परंपरागत कृषि ज्ञान जुड़ा है उसे बचाना भी जरूरी है । इसके अतिरिक्त लुप्त हो रहीं अनेक प्रकार की दस्तकारियों व लोक कलाओं की रक्षा जरूरी है । अन्यथा न दस्तकारी बचेगी न कला ।
हाल के वर्षों में कुछ ऐसी तकनीकें व परियोजनाएं चर्चित हुई हैं  जिनसे भविष्य में गंभीर दुष्परिणामों की संभावना है । जीएम या जेनेटिकली मोडीफाइड (जीनसंवर्धित) फसलों की तकनीक का कड़ा विरोध विश्व के अधिकांश देशों में इस आधार पर हो रहा है कि इसके स्वास्थ्य व   पर्यावरण पर बहुत प्रतिकूल असर होंगे । देश की बहुत सी नदियों को आपस में जोड़ने की योजना के बारे में अनेक पर्यावरणविदों व नदियों के विशेषज्ञों ने कहा है कि इससे असहनीय क्षति होगी । 
इस तरह के  जो असहनीय व स्थाई दुष्परिणामों की संभावना वाले बड़े मुद्दे हैं, उनके बारे में जरूरी है कि जल्दबाजी में कोई निर्णय न  हो । सभी पक्षों की बात को बहुत सावधानी से सुना जाए व उपलब्ध जानकारियों को निष्पक्षता से देखा जाए ।
भूमंडलीकरण के दौर में अंतर्राष्ट्रीय समझौतों की भूमिका बढ़ती जा रही है, फिर चाहे यह व्यापार के समझौते हों या जलवायु बदलाव संबंधी मामले हों। इन समझौतों का हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता पर या जनहित के महत्वपूर्ण मुद्दों पर निर्णय लेने की क्षमता पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ना चाहिए । साथ में जो सही अन्तर्राष्ट्रीय जिम्मेदारियां हैं(जैसे ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन कम करना) वह हमें निभानी चाहिए । इस आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों पर व्यापक सहमति बननी चाहिए ताकि अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर राष्ट्रीय हित की बात मजबूती से रखी जा सके ।
सड़क दुर्घटनाओं सहित सभी तरह की दुर्घटनाओं को कम करने का मुद्दा एक ऐसा मुद्दा है जिस पर असरदार कार्य कर लाखों लोगों का जीवन प्रतिवर्ष बचाया जा सकता    है । यातायात की दुर्घटनाएं हों या कार्यस्थल की दुर्घटनाएं या अन्य दुर्घटनाएं, इनकी संख्या में ५० प्रतिशत कमी मात्र पांच वर्षों के  प्रयास से हो सकती हैं । 
विवाद तो चलते ही रहेंगे पर बाल व मातृ मृत्यु दर कम करने, सभी तरह की दुर्घटनाएं कम करने जैसे कई मुद्दे हैंजिन पर व्यापक सहमति बनाकर, आपस में सहयोग कर तेजी से आगे बढ़ना चाहिए । इस तरह के सहयोग से देश का राजनीतिक माहौल  ठीक करने में व जमीनी स्तर पर लोगों का आपसी सहयोग बढ़ाने में भी बहुत मदद मिलेगी ।
पर्यावरण परिक्रमा
पालतू जानवरों को भी नागरिक अधिकार 
कुत्ते, बिल्लियों और अन्य पालतू जानवरों से मनुष्य का सदियों पुराना है । इसी भावनात्मक रिश्ते की गांठ को और मजबूत करने के इरादे से स्पेन के एक शहर ने इन्हें इंसानों की तरह नागरिकता दे दी है । अब इस शहर में पालतू जानवरों को गैर मनुष्य नागरिक की श्रेणी में रखा जाएगा और उन्हें भी वह सारे अधिकार प्राप्त् होगे, जो इंसानों को   है । शहर के नागरिकों ने इस अनूठे कानून के पक्ष में वोट किया । 
स्पेन के वालाडोलिड प्रांत के कैस्टिला वाई लियोन में बसे त्रिग्युरोस के डेल वेल नाम का यह शहर ३७ वर्ग किमी में फैला है और इसकी आबादी महज ३३६ ही है । 
शहर के मेयर पेड्रो पेरेज इस्पिनोजा इस फैसले से बेहद खुश है । उनका कहना है कि उनकी जिम्मेदारी सिर्फ शहर के नागरिकोंके प्रति ही नही है बल्कि पालतू पशुआें के प्रति भी है । उनका कहना है, कुत्ते बिल्लियां पिछले एक हजार साल से भी ज्यादा समय से हमारे साथ है । मेयर को सिर्फ इंसानोंका ही नहीं बल्कि अन्य पालतू पशुआें का भी प्रतिनिधित्व करना चाहिए । 
दरअसल इस कानून के पीछे की मंशा स्पेन के सदियों पुरानी बुलफाइटिंग पर रोक लगाना है । बुलफाइटिंग के लिए स्पेन को पूरी दुनिया में जाना जाता है और अंत में एक बेजुबान बैल को इस लड़ाई में अपनी जान गंवाना पड़ती है । इस कानून के बाद शहर में बुलफाइटिंग पर रोक लगा दी गई है क्योंकि शहर में गैर मनुष्य नागरिक को नुकसान पहुंचाना या मारना गैर कानूनी है । 
हालांकि ऐसा नही है कि ऐसी अनूठी पहल करने वाला यह पहला स्पेनिश शहर है । भारत में २०१३ में कानून बना कर डॉल्फिन को गैर-मनुष्य नागरिक घोषित किया जा चुका है यानी डॉल्फिन को भी सभी नागरिक अधिकार प्राप्त् है और उन्हें मनोरंजन आदि के लिए कैद करके नहीं रखा जा सकता है । 
नलिनी के नाम पर होगा हिमालय की चोटी का नाम
हिमालय की एक चोटी का नाम प्रसिद्ध पर्वतारोही नलिनी सेनगुप्त के नाम पर रखा जाएगा । साठ साल से अधिक उम्र की नलिनी अब तक कई शिखरोंपर चढ़ाई कर चुकी है । 
पर्वतारोहण संस्थान गिरीप्रेमी के पर्वतारोहियोंने हिमालय के हमता दर्रा क्षेत्र में स्थित ५२६० चोटी पर चढ़ाई की, जिसके बाद संस्थान ने इसका नाम नलिनी के नाम पर माउंट नलिनी रखने का फैसला किया है । 
संस्थान ने नलिनी की १९७० के बाद से युवाआें को पर्वतारोहण के लिए प्रेरित करने की कोशिशों के सम्मान में यह कदम उठाया है । गिरीप्रेमी माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट के समन्वयक और इसके माउंट एवरेसट अभियान के नेता उमेश जिरपे ने कहा कि आमतौर पर पहली टीम जो किसी अनछुई चोटी पर पहुंचती है, उसे उसका नामकरण करने का सम्मान मिलता है । अब तक कई टीमोंने नई खोजें की है और नए पर्वतों पर चढ़ाई की है । उन्होंने अपन प्रिय ईश्वर, स्थानीय देवी देवताआें और गांवों के नाम उपर उनके नाम रखे है । 
जिरपे ने कहा कि हमता दर्रा क्षेत्र में स्थित पीक ५२६० खुद में एक चुनौती थी । हमने इसका नाम नलिनी सेनगुप्त के नाम पर रखा    है । पर्वतारोहण के प्रति उनका समर्पण एवरेस्ट की ऊंचाई से कम नहीं है । वह धन, उपकरणों और प्रोत्साहन की कमी जैसी बाधाआें को भी पार कर चुकी है । 
नलिनी यह खबर सुनकर बहुत खुश है । उन्होने कहा पर्वतारोहण उनके खून में है । नलिनी ने कहा कि वह एक सैन्य परिवार से है, जिसने पीढ़ी पर पीढ़ी देश की सेवा की है । मूल रूप से वह दार्जिलिंग के रहने वाले हैं । उनके मन में किसी साहसिक काम से जुड़ने की इच्छा  थी । इसलिए वह १९७० में उत्तरकाशी के नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग में पर्वतारोहण आधार शिविर पाठ्यक्रम से जुड़ गई । 
राजिम मेंमिला ढाई हजार साल पुराना कुंआ
छत्तीसगढ़ के प्रयागराज राजिम मेंढाई हजार साल पहले निर्मित एक विशाल कुंआ मिला । पुरातत्वविदों ने इसका निर्माण मौर्यकाल के समय होना बताया है । इससे पहले भी राजिम के सीताबाड़ी में चल रहे खुदाई में ढाई हजार साल पहले की सभ्यता के प्रमाण मिले  हैं । वहीं महाभारतकालीन कृष्ण-केशी की युद्धरत मुद्रा वाली मूर्ति भी मिली है । 
पुरातत्वविद् अरूण शर्मा के अनुसार, कुंए की दीवार बड़े-बड़े पत्थरों से बनी हैं । निर्माण कला से झलकता है कि वह मौर्यकाल में बना होगा । यह कुंआराजिम संगम के सीध में है । उनका कहना है कि अभी तक १० फीट तक ही खुदाई हुई है । कुंए की गहराई ८० फीट के आसपास होगी । 
पुरातत्वविद् अरूण शर्मा का कहना है कि इस कुंए का निर्माण भगवान के भोग व स्नान के लिए किया गया होगा, क्योंकि बरसात के समय नदी का पानी गंदा हो जाता   है । साथ ही पुरातत्वविद् शर्मा ने बताया कि पत्थरों की जुड़ाई आयुर्वेदिक मसालों से की गई है । गौरतलब है कि इन दिनों छत्तीसगढ़ के प्रयागराज राजिम के सीताबाड़ी में पुरातत्व विभाग द्वारा खुदाई की जा रही है । इससे पहले भी यहां खुदाई में ढाई हजार साल पहले की सभ्यता मिल चुकी है । 
सिंधुकालीन सभ्यता की तर्ज पर ही निर्मित ईटे भी मिल चुकी    है । यहां एक कुंड भी मिला है । कहा जाता है कि इस कुंड में स्नान करने से कोढ़ और हर किस्म का चर्मरोग दूर हो जाता है । वही खुदाई में कृष्ण की केशीवध मुद्रा वाली दो फीट ऊंची, डेढ़ फीट चौड़ी प्रतिमा भी मिली है । प्रतिमा के एक हाथ मेंशंख है, वही अलंकरण और केश विन्यास से पता चलता है कि यह विष्णु अवतार की प्रतिमा है । प्रतिमा में सिर नहीं है, लेकिन कृष्ण की हथेली घोड़े के मुंह में है, जिससे पता चलता है कि यह केशीवध प्रसंग पर आधारित है । यह प्रतिमा २५०० वर्ष पहले की है । मूर्तिकार की कल्पना देखकर सहज की अंदाजा लगाया जा सकता है कि मूर्तिकार को केशीवध की कहानी ज्ञात थी और साथ ढाई हजार साल पहले भी उत्कृष्ट कलाकार हुआ करते थे । 
घरेलू नौकर को भी देना होगा नियुक्ति पत्र
अब आपको डोमेस्टिक कंपनी वर्कर्स और ड्रायवर्स रखने पर काम के नियम और शर्तोकी जानकारी के साथ नियुक्ति पत्र भी देना पड़ सकता है । घरेलू वर्कर के अधिकारों की सुरक्षा और उन्हें बेसिक सोशल सिक्योरिटी देने के लिए श्रम मंत्रालय ऐसा प्रस्ताव तैयार कर रहा है । एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी से मिली जानकारी के मुताबिक सरकार अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर को मजबूत करने की इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन (आईएलओ) से प्रतिबद्धता के अनुसार ऐसा कदम उठाने जा रही है । देश की कुल वर्कफोर्स मेंअन-ऑर्गनाइज्ड सेक्टर की हिस्सेदारी ९३ फीसदी तक है । 
घरेलू कामगार को लेकर कोई भरोसेमंद आंकड़ा उपलब्ध नहीं है । विशेषज्ञों का अनुमान है कि देश में लगभग ५० लाख घरेलू कामगार है । इनके योगदान को अक्सर आर्थिक आंकड़ों में जगह नहीं मिलती है । देश में ३५ करोड़ असंगठित कार्यक्षमता में घरेलू कामगार की हिस्सेदारी लगभग १.५ फीसदी है । 
ये कामगार विशेषतौर पर शहरी इलाकों में बच्चें और बुजुर्गो की देखभाल, कुकिंग, ड्रायविंग, क्लीनिंग, ग्रॉसरी शॉपिंग जैसे काम करते है । नियुक्ति पत्र मिलने से इन कामगारों के सामने आने वाली कुछ मुश्किलों को हल किया जा    सकेगा । इन कामगारों के पास कम वेतन मिलने की शिकायत का कोई जरिया नहीं होता ।
इनके पास मूलभूत स्वास्थ्य सेवा, साप्तहिक छुट्टी, प्रसूता अवकाश जैसी सुविधाएं भी नहीं होती । इन्हें कई बार खराब व्यवहार का भी शिकार बनना पड़ता है । इसका विरोध करने पर काम से निकाले जाने का खतरा भी रहता है । 
म.प्र. में बाघ जहर व करंट से मरे
म.प्र. के वन मण्डलों में ६ साल से ६९ बाघों की अकाल मौत हुई । इनमें से १७ बाघ बीमारी से मरे वहीं ३ बाघों को जहर देकर मार दिया गया । सबसे ज्यादा १९ बाघों की मौत क्षेत्रीय लड़ाई में हुई है, जबकि बिजली के कारण ७ और दुर्घटना के कारण ४ बाघ मारे गए । 
भारत के महालेखा नियंत्रक द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है इसके अनुसार एक बाघ को शिकारियों ने अपना शिकार बनाया। स्वप्रजाति भक्षण के कारण ८ तथा प्राकृतिक रूप से तीन बाघों की मौत हुई है । सात बाघ अन्य कारणों से मारे गए । रिपोर्ट में कहा गया कि बीमारी, शिकार, विष प्रयोग, बिजली से मृत्यु ऐसे कारण थे, जिन्हें रोका जा सकता था । वन विभाग रोकथाम के लिए खास प्रयास नहीं किए जाने से वर्ष २००९ से २०१४ के बीच इन बाघों की मौत हुई । रिपोर्ट के अनुसार ६९ बाघों की मौत पर किए गए अध्ययन से बाद यह पाया गया कि बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व का क्षेत्रफल अपर्याप्त् था । वर्ष २०१० में बाघों की संख्या की गणना के अनुसार म.प्र. में २६२ बाघ थे । 
प्राकृतिक आपदा  
भूकम्प से बचाव के नवोन्मेषी प्रयास
इरफान ह्यूमन 
भूकंप आना पृथ्वी की भूगर्भीय गतिविधियों का एक प्राकृतिक भाग है, जो कभी भी और कहीं भी आ सकता है । 
भूकंप कई कारणों से आ सकता है, लेकिन अमूमन भूकंप तब आता  है जब पृथ्वी के नीचे की सतह पर मौजूद प्लेटें हैं जो, खिसकती रहती है । हमारी धरती मुख्य तौर पर चार परतों से बनी हुई है, इनर कोर, आउटर कोर, मैनटल और क्रस्ट । क्रस्ट और ऊपरी मैन्टल को लिथोस्फेयर कहते हैं । ये लगभग ५० किलोमीटर की मोटी परत, जिन्हें टैकटोनिक प्लेट्स (प्लेट विवतनिक) कहा जाता है । मुख्य रूप से ७ प्लेटे देती है भूकंप को अंजाम सामान्यतया इन प्लेटों में बड़ी प्लेटों की संख्या सात मानी जाती है । इसके अलावा  कुछ सामान्य और कुछ छोटे आकार की प्लेट्स भी होती है । ये प्लेट्स मुख्य रूप से अफ्रीकी प्लेट, यूरेशियाई प्लेट, उत्तर अमेरिकी प्लेट, दक्षिण अमेरिकी प्लेट, प्रशांत प्लेट, हिन्द-ऑस्ट्रेलियाई प्लेट, अंटार्कटिक प्लेट्स हैं । 
टैकटोनिक प्लेट्स अपनी जगह से हिलती रहती है लेकिन जब ये बहुत हिल जाती हैं तो भूकंप आ जाता है । ये प्लेट्स क्षैतिज और ऊर्धवाधार, दोनों ही तरह से अपनी जगह से हिल सकती है । इसके बाद वे अपनी जगह तलाशती हैं और ऐसे में एक प्लेट दूसरी के नीचे आ जाती है । 
भूकंप की तीव्रता का अंदाजा उसके केन्द्र (एपीसेंटर) से निकलने वाली ऊर्जा की तरंगों से लगाया जाता है । सैकड़ों किलोमीटर तक फैली इस लहर से कंपन होता है और धरती मेंदरारें तक पड़ जाती हैं । अगर भूकंप की गहराई उथली हो तो इससे बाहर निकलने वाली ऊर्जा सतह के काफी करीब होती है जिससे भयानक तबाही होती है । लेकिन जो भूकंप धरती की गहराई में आते हैं उनसे सतह पर ज्यादा नुकसान नहीं होता । समुद्र में भूकंप आने पर सुनामी का जन्म होता है, जिसकी त्रासदी हम झेल चुके हैं । 
दुनिया के साथ-साथ भारतीय उपमहाद्वीप में भूकंप का खतरा हर जगह अलग-अलग है, भारत को भूकंप के क्षेत्र के आधार पर चार हिस्सों में बांटा गया है जो जोन-२, जोन-३, जोन-४ और जोन-५ हैं जोन -२ सबसे कम खतरे वाला जोन है तथा जोन-५ को सर्वाधिक खतरनाक जोन माना जाता है । 
उत्तर-पूर्व के सभी राज्य, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्से जोन-५ में ही आते है । उत्तराखंड के कम ऊंचाई वाले हिस्सोंसे लेकर उत्तरप्रदेश के ज्यादातर हिस्से तथा दिल्ली जोन-४ में आते हैं । मध्य भारत अपेक्षाकृत कम खतरे वाले हिस्से जोन-३ में आता है, जबकि दक्षिण के ज्यादातर हिस्से सीमित खतरे वाले जोन-२ में आते हैं । 
भूकंप की तीव्रता मापने के लिए रिक्टर स्केल का पैमाना इस्तेमाल किया जाता है । इसे रिक्टर मैग्नीट्यूड टेस्ट स्कूल कहां जाता है । भूकंप को मापने के लिए रिक्टर के अलावा मरकेली स्केल का भी इस्तेमाल किया जाता है । पर इसमें भूकंप को तीव्रता की बजाए ताकत के आधार पर मापते हैं । इसका प्रचलन कम है क्योंकि इसे रिक्टर के मुकाबले कम वैज्ञानिक माना जाता  है । भूकंप की तरंगोंको रिक्टर स्केल १ से ९ तक के आधार पर मापता है । रिक्टर स्केल पैमाने को सन् १९३५ में कैलिफॉर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलाजी में कार्यरत वैज्ञानिक चार्लस रिक्टर ने बेनो गुटेनबर्ग के सहयोग से खोजा था । 
इस स्केल के अन्तर्गत प्रति स्केल भूकंप की तीव्रता ४० गुणा बढ़ जाती है और भूकंप के दौरान जो ऊर्जा निकलती है वह प्रति स्केल ३२ गुणा बढ़ जाती है । इसका सीधा मतलब यह हुआ कि ३ रिक्टर स्केल पर भूकंप की जो तीव्रता थी वह ४ स्केल पर ३ रिक्टर स्केल का १० गुणा बढ़ जाएगी । रिक्टर स्केल पर भूकंप की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ८ रिक्टर पैमाने पर आया भूकंप ६० लाख टन विस्फोटक से निकलने वाली ऊर्जा उत्पन्न कर सकता है । 
भूकम्प का पूर्वानुमान संभव नहीं हो सका है लेकिन आज दुनियाभर के वैज्ञानिक अपनी-अपनी तरह के भूकम्प के पूर्वानुमान के लिए प्रयासरत है ताकि भूकंप के दौरान जनहानि को कम किया जा सके । भूवैज्ञानिकों अनुसार पूर्व में आए भूकंपों से प्राप्त् हुए प्रमाणों का प्रयोग करके भविष्य की भूकंपीय क्षति का अनुमान लगाने में सहायता ली जा सकती है । ऐसा विकासशील देशों से किया जा सकता है क्योंकि उनके पास भूगर्भीय निगरानी की उतनी बेहतर व्यवस्था नहीं है, शोधार्थियों ने इन नवोन्मेषी प्रक्रियाआें का प्रयोग तंजनियां में म्बेया के पास जमीन का परीक्षण करने के लिए किया जहां पर लगभग २५,००० साल पहले एक बड़ा भूकंप आया था । विशेषज्ञों ने इन क्षेत्रों में मिट्टी को बालू के दलदल की तरह फ्लूइडिसेशन के लक्षण दिखाते हुए और पदार्थो का ऊपर की ओर विस्थापन होते हुए पाया जो कि महाद्वीपीय संरचना से असामान्य दिखाई पड़ता है । 
उधर फ्रांस की शोध संस्था सीईए के लॉरेंट बोलिंगर और उनके साथियों ने नेपाल में किए गए अपने फील्डवर्क के दौरान इस इलाके में आने वाले भूकंपों में एक ऐतिहासिक पैटर्न का पता लगा कर जियोलॉजिकल सोसायटी में अपने शोध के नतीजे प्रस्तुत किए । उन्होनें जब नेपाल में आने वाले भूकंपोंमें इस ऐतिहासिक पैटर्न की पहचान की तो उनके चेहरोंपर चिंता की गहरी लकीरें खिंच गई । बोलिंगर की टीम में शामिल सिंगापुर अर्थ ऑब्जरवेटरी के वैज्ञानिक पॉल टैपोनियर कहते हैं, हम देख सकते थे कि काठमांडू और पोखरा में भूकंप आने की प्रबल आशंका है, जहाँ दोनों शहरों की बीच आखिरी बार शायद वर्ष १३४४ में भूकंप आया था । जब भी बड़े भूकंप आते हैं तो एक भूकंप फॉल्टलाइन से दूसरे भूकंप फॉल्टलाइन की तरफ स्ट्रेन ट्रांसफर होना सामान्य बात है । ऐसा लगता है कि वर्ष १२५५ में यही हुआ था । 
उसके बाद अगले ८९ सालों में पडोसी पश्चिमी फॉल्टलाइंस क्षेत्र में स्ट्रेन बढ़ता गया और जिसकी वजह से वहॉं वर्ष १३४४ में भूकंप आया । इसी तरह इतिहास ने एक बार खुद को दोहराया है । वर्ष १९३४ में आए भूकंप की वजह से स्ट्रेन पश्चिम की तरफ खिसक गया जिसकी वजह से ८१ साल बाद ये भूकंप आया है । इस टीम को डर है कि भविष्य में भी ऐसे बड़े भूकंप आ सकते हैं । बोलिगंर के अनुसार, शुरूआती गणनाआें के अनुसार नेपाल में ७.८ तीव्रता वाला भूकंप शायद इतना ताकतवर नहीं था कि फॉल्टलाइन में पूरे स्ट्रेन को निकाल सके । अभी उसके अंदर और स्ट्रेन बचे होने की संभावना है । हो सकता है कि अगले कुछ दशकों में इस इलाके में पश्चिम या दक्षिण में एक और बड़ा भूकंप आए । 
हाल ही मे शोधकर्ताआें ने एक ऐसी मजेदार योजना के बारे में खुलासा किया है, जो पहली बार सुनने में किसी विज्ञान कथा से कम नहीं लगता । इस योजना के तहत भविष्य में घर के नीचे एक ऐसा प्लेटफार्म बनाया जाएगा जिससे कई चुबंक जुड़े होंगे और भूकंप आने पर घर अपने आप ऊपर उठ जाएगा । इस तकनीक में भूकंपरोधी आधार बनाया जाएगा और जमीन के अंदर होवर इंजन लगाए जाएंगे, जिससे कि घर को ऊपर उठाया जा सके । भूकंप की चेतावनी मिलते ही कम्प्यूटरीकृत होवर इंजन चालू हो जाएगा और यह सबकुछ बहुत ही त्वरित होगा । 
इस योजना पर काम कर रही आर्ट पैक्स कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और सहसंस्थापक ग्रेग हेंडरसन के अनुसार, कंपनी से इससे पहले पानी या गैस के इस्तेमाल से घरों को उठाने की तकनीक विकसित की और उसका करा चुकी है और अब वह ऐसी तकनीक विकसित कर रही है जिससे तरल पदार्थ के बजाय चुंबक का इस्तेमाल कर भूकंपरोधी घर बनाए जाएंगे । तीन मंजिला घर को औसत ९० सेकण्ड के भूकंप के दौरान ऊपर उठाया जाएगा, इसमेंपांच कार की बैटरी की ऊर्जा का इस्तेमाल होगा । 
आशा की जानी चाहिए कि आने वाले समय में हम भूकंप से और बेहतर बचाव कर सकेंगे । 
कविता
नंदा देवी
स.ही. वात्सायन अज्ञेय
नंदा,
बीस-तीस-पचास वर्षो मे
तुम्हारी वनराजियों की लुगदी बनाकर
हम उस पर
अखबार छाप चुके होंगे
तुम्हारे सन्नाटे को चीर रहे होंगे
हमारे धुँधुआते शक्तिमान ट्रक,
तुम्हारे झरने-सोते सूख चुके होंगे
और तुम्हारी नदियाँ
ला सकेगीकेवल शस्य-भक्षी बाढ़ें
या आँतों को उमेठने वाले बीमारियाँ
तुम्हारा आकाश हो चुका होगा
हमारे अतिस्वन विमानों के
धूम-सूत्रों का गुंझर ।
नंदा,
जल्दी ही-
बीस-तीस-पचास बरसों में
हम तुम्हारे नीचे एक मरू बिछा चुके होंगे 
और तुम्हारे उस नदी धौत सीढ़ी वाले मन्दिर में
जला करेगा 
एक मरूदीप । 
जल जगत
पिघलते ग्लेशियर और बढ़ता जल प्रदूषण
संजय गोस्वामी 
ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यन्त संवेदनशील और उसके सही सूचक होते हैं । जब जलवायु ठण्डी होती है तो वे फैलते हैं  और जब गर्म होती है तो सिकुड़ जाते हैं । एक अध्ययन के अनुसार दुनिया के लगभग एक लाख ग्लेशियरों का क्षेत्रफल सन् १९८१ से लगातार सिकुड़ता जा रहा है । 
हिमालय के  ग्लेशियर पिघलने से आस-पास के इलाके बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं । ५० करोड़ लोगों के लिए जीवनदायी हिमालय की नदियाँ अस्तित्व के संकट से जूझ रहीं हैं । इनसे निकलने वाली यमुना, गंगा, ब्रह्मपुत्रा और सिन्धु नदियाँ उत्तर भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान को अपने जल से सिंचित रखती हैं, लेकिन तेजी से पिघलते ग्लेशियर और बढ़ते प्रदूषण से नदियों के पानी की मात्रा और गुणवत्ता में कमी आ रही है । 
धरती पर ७० प्रतिशत हिस्से में पानी है जो अधिकतर महासागरों और अन्य बड़े जल निकायों का हिस्सा होता है इसके अतिरिक्त, १.६ प्रतिशत भूमिगत जल एक्वीफर और ०.०.१ प्रतिशत जल वाष्प और बादल (इनका गठन हवा मे जल के निलंबित  ठोस और द्रव कणों से होता है) के रूप मे पाया जाता है । खारे जल के महासागरों मे पृथ्वी का कुल ९७ प्रतिशत हिमनदों और रुवीय बर्फ चोटिओं मे २.४ प्रतिशत और अन्य स्त्रोतों जैसे नदियों, झीलों और तालाबों मे ०.६ प्रतिशत जल पाया जाता है । 
पृथ्वी पर जल की एक बहुत छोटी मात्रा, पानी की टंकिओं, जैविक निकायों, विनिर्मित उत्पादों के भीतर और खाद्य भंडार मे निहित है । बर्फीली चोटिओं, हिमनद, एक्वीफर या झीलों का जल कई बार धरती   पर जीवन के लिए साफ जल उपलब्ध कराता है । आई पी सी सी की   चौथी मूल्यांकन रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया में सर्वाधिक तेजी से पिघलने वाले हिमालय के ग्लेशियर हैं । यदि वे इसी रफ्तार से पिघलते रहे तो सन् २०८५ तक या तो लुप्त हो जायेंगे या शायद ५ लाख वर्ग किलो मीटर के वर्तमान क्षेत्रफल का केवल पाचवाँ हिस्सा ही बचा रह जायेगा । नतीजा यह कि आगे चलकर इस इलाके की सदानीरा नदियाँ बरसाती नाले में बदल  जायेंगी । 
       आई पी सी सी के ये अनुमान विवादों के घेरे में हैंऔर शायद इसमें त्रुटि भी हो, लेकिन यह तथ्य निर्विवाद है कि पिछले सौ सालों में हिमालय के साथ-साथ भारत के अन्य भागों का औसत तापमान ०.४५ से ०.५८ डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं । पिछले ६१ सालों में गंगोत्री ग्लेशियर हर साल १८.८ मीटर की दर से पिघल रहा है जिससे इसका क्षेत्रफल १.१४९ वर्ग किलोमीटर कम हो गया है। बर्फ पिघलने की तेज रफ्तार के कारण ही गंगा नदी ग्लेशियर के नीचे से नहीं, बल्कि सतह के ऊपर से प्रवाहित हो रही है । 
एक पौराणिक कथा के अनुसार भगीरथ ने अपने पूर्वजों का पाप धोने के लिए शिवजी से विनम्र निवेदन कर स्वर्ग की पुत्री गंगा को पृथ्वी पर अवतरित कराया था । आज उसी गंगा का पवित्रा जल प्रदूषण की चपेट में आकर पीने लायक भी नहीं रह गया है । गंगा के  किनारे बसे कारखानों का प्रदूषित जल और शहरों के गन्दे नाले बिना जल शोधन किये ही गंगा में बहा दिये जाते हैंजिससे यह गटर में बदलती जा रही है । और तो और, तीर्थ यात्रियों द्वारा गंदगी फैलाये जाने के कारण गंगा का मुहाना, गंगोत्री भी साफ-सुथरा नहीं बचा ।
अंधाधुंध और अनियंत्रित विकास के कारण जल स्त्रोतोंमें अत्यधिक अपशिष्ट पदार्थों के मिलने से जल स्त्रोतों का जल भारी मात्रा में प्रदूषित हुआ है । हिमालय की नदियों पर बन रहे बड़े-बड़े बाँधों के विशालकाय जलाशयों से पहाड़ों का संतुलन बिगड़ने लगा है, जिससे पृथ्वी के अन्दर उथल-पुथल की संभावना बढ़ती जा रही है । एक ओर यह पूरा इलाका भूकम्प संवेदी हो गया है, वहीं दूसरी ओर पाला मनेरी, लोहारी नाग और टिहरी के बाँधों ने हजारों एकड़ जंगल, खेत और चारागाह डुबोकर नष्ट कर दिए तथा स्थानीय लोगों को उजाड़कर विस्थापित कर दिया है । 
हिमालय की नदियों पर बन रहे बड़े-बड़े बाँधों के विशालकाय जलाशयों से पहाड़ों का संतुलन बिगड़ने लगा है, जिससे पृथ्वी के अन्दर उथल-पुथल की संभावना बढ़ती जा रही है । एक ओर यह पूरा इलाका भूकम्प संवेदी हो गया है, वहीं दूसरी ओर पाला मनेरी, लोहारी नाग और टिहरी के बाँधों ने हजारों एकड़ जंगल, खेत और चारागाह डुबोकर नष्टकर दिए तथा स्थानीय लोगों को उजाड़कर विस्थापित कर दिया है । जर्मनी जैसे कई देश बड़े बाँधों से परेशान हैं ।  इसके कारण वहाँ तलछट या गाद जमा होना एक विकट समस्या हैं जिसकी सफाई के दौरान मछलियाँ मर रही हैं । 
इसमें कोई संदेह नहीं कि बड़े बाँध विकास के मॉडल नहीं हो सकते हैं । इनका प्रबल विरोध हुआ और इनके खिलाफ बड़े-बड़े आन्दोलन भी हुए, लेकिन शासक वर्ग इसे लगातार बढ़ावा देकर विनाश को बुलावा दे रहे हैं । हिमालय की पहाड़ियों पर बर्फबारी कम होने के कारण पानी के चश्मे, झरनें और झीलें सूखती जा रही हैं । बड़े ग्लेशियरों की अपेक्षा छोटे ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे    हैं । 
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठ न (इसरो) के एक अध्ययन के मुताबिक हिमाचल प्रदेश में सन्१९६२ से २०१२ के बीच चेनाब, पार्वती और बास्पा की खाड़ी के ग्लेशियरों का पाँचवा भाग लुप्त हो गया, जिससे ४५६ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की बर्फ पिघलकर खत्म हो चुकी है । कम जाड़ा, हल्की बर्फबारी और खारदुंग ग्लेशियर का पतला होना लद्दाख में ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते दुष्प्रभाव की ओर संकेत कर रहे हैं। 
एक जमाना था, जब यहाँ की दुर्गम बर्फीली पहाड़ियों पर पहुँचना मौत को दावत देना था, जहाँ पहुँचते-पहुँचते शिराओं-धमनियों का खून जमने लगता था, जबकि आज वहाँ लोग आसानी से ट्रैंकिग कर रहे हैं । भारत और पाकिस्तान के लिए ये लक्षण शुभ नहीं हैं क्योंकि इन ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियाँ इन देशों के करोड़ों निवासियों की प्यास बुझाती  हैं। काराकोरम के ग्लेशियर १५-२० मीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से पीछे हट रहे हैं। यहाँ पर जल उपलब्धता १९४७ में ५६ लाख लीटर प्रति व्यक्ति थी जो घटकर सन् २०१४ में मात्रा ८ लाख लीटर रह गयी है । 
पाकिस्तान की ४५ नहरों की हालत खस्ता है और सिन्धु नदी के बाँधों के जलाशयों में गाद जमा होने के कारण उनकी जल-संचय क्षमता आधी रह गई है । पंजाब और हरियाणा में भूजल के अधिक दोहन से स्थिति काफी खराब है । ग्लेशियरों से मिलने वाले नहरी जल के अभाव में वहाँ दुहरी मार पड़ेगी । 
पहले लद्दाख में जौ, चुकन्दर, नोल-खोल और शलजम जैसी सब्जियाँ ही उगती थीं, लेकिन जलवायु गर्म होने के कारण यहाँ बैंगन, पहाड़ी मिर्च और टमाटर की खेती भी होने लगी है । यहाँ तक कि ९ हजार फीट की ऊँचाई पर     उगने वाले सेब और खुबानी अबलद्दाख के १२ हजार फीट ऊँचे पहाड़ों पर भी उगाये जा रहे हैं । उत्प्रवासी पक्षियों ने गर्मी बढ़ने के कारण यहाँ आने का समय बदल दिया है और कम बर्फबारी के कारण घास के मैदानों में लम्बी अवधि तक घास उपलब्ध होती है । एशिया के कुख्यात भूरे बादलों कारखानों से निकलने वाले धुएँ के काले और   छोटे कण होते हैं जो सूर्य की ऊष्मा को धरती से वापस लौटाकर अन्तरिक्ष में लौटाने के बजाय उन्हें रोक लेते   हैं । इससे जाड़े का मौसम गर्म हो जाता है और ग्लेशियर के पिघलने में सहायक होता है । 
नेपाल, भूटान और तिब्बत के बीच स्थित, कंचनजंगा की खूबसूरत पहाड़ियों से घिरा सिक्किम भी जलवायु परिवर्तन की विभीषिका से नहीं बच पाया है। सन् २००० से २००४ के बीच जब वहाँ सूखा पड़ा तो इलायची के पौधों की डालियाँ कमजोर हो गयीं और मौसमनम होने पर उन डालियों पर फफँूदियोंका प्रकोप हो गया । अंगमारी की इस बीमारी के चलते इलायची के  उत्पादन में ३० से ५० प्रतिशत तक गिरावट आयी । इलायची की खेती करने वाले किसान दर-बदर की ठोकर खाने और दिहाड़ी मजदूरी करने को विवश हो गये । 
पर्यटकों के लिए मनोरम प्राकृतिक छटा बिखेरने वाले सिक्किम की जैव विविधता आज खतरे में है । प्रकृति के सहचर सिक्किम निवासी लाचार हैं । 
सिक्किम के तापमान और सालाना बारिश में भारी उठापटक हुई है । २० साल पहले जस जगह एक फूट बर्फ  होती थी, आज वहाँ बर्फबारी का नामोनिशान नहीं है । वनस्पतियों पर इसका घातक प्रभाव पड़ रहा है । पहले धीरे-धीरे बर्फ पिघलकर मिट्टी को नम और उर्वर बनाती थी, लेकिन आज बर्फ की कमी, तेज हवा और भारी वर्षा के कारण भूक्षरण हो रहा है और मिट्टी की उर्वरता घटती जा रही है। वहाँ मक्के की बोआई और फूलों का मौसम भी बदल गया है । ठण्ड कम होने से ऊनी कपड़ों की माँग और उनके उत्पादन में गिरावट आयी है । नम और उ+ष्ण जलवायु का फायदा उठाकर वहाँ मच्छर भी आतंक मचा रहे हैं । इस तरह गर्मी बढ़ने से वहाँ की जीवन शैली, संस्कृति, उत्पादन कार्य और व्यापार भी प्रभावित हो रहा है ।
भविष्य में सिक्किम के तेजी से पिघलते जा रहे ८४ ग्लेशियर तबाही और बरबादी के सबब बन सकते हैं । १९९० में जेमू ग्लेशियर के पिघलने से आयी बाढ़ ने पूरी घाटी में तबाही मचायी थी । बढ़ते तापमान के कारण विश्व के ग्लेशियर पिघलने लगे हैं । ग्लेशियरों का तेजी से पीछे सिखकना ग्लोबल वार्मिंग का ८० प्रतिशत ग्लेशियर पिघल जाएंगे ।  हिमनदों के पिघलने से ५.७ करोड़ लोग प्रभावित हो सकते हैं। आर्कटिकमें बसने वाले समुद्री जीवों के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो सकता है । 
मानसून में नाटकीय ढंग से बदलाव आ सकता है । हमारे लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए कि हिमालय क्षेत्र के हिमनद विश्व के अन्य क्षेत्रों के हिमनदों से अधिक तेजी से पिघल रहे हैं । इसको देखते हुए स्पष्ट संकेत है कि आने वाले समय में पेयजल सबसे दुर्लभ संसाधन होगा और इस पर कब्जे के  लिए लोगों के बीच भयानक संघर्ष छिड़ेंगे ।
ज्ञान-विज्ञान
नन्हा सा कृत्रिम धड़कता दिल
वैज्ञानिकों ने एक सूक्ष्म ह्वदय बनाने में सफलता हासिल की है । वैसे तो तश्तरी में ये ह्वदय छोटे-छोटे बिन्दुआें जैसे दिखते हैं मगर सूक्ष्मदर्शी से देखने पर पता चलता है कि ये धड़कते भी हैं और इसमें मानव ह्वदय में पाई जाने वाली संरचना निलय भी है । गौरतलब है कि मानव ह्वदय में चार प्रकोष्ठ होते हैं  - दो आलय और दो निलय । आलयों में बाहर से खून आकर भरता है, फिर वह निलयों में जाता है और निलयों की धड़कन से उसे शरीर में भेजा जाता है । इस सूक्ष्म ह्वदय का निर्माण बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जेन मा की टीम ने किया है । 
वैसे तो इस तरह के कृत्रिम अंग पहले भी बनाए जा चुके है मगर उनको बनाने मं किसी ऐसे ढांचे का सहारा लिया जाता था जो पहले से मौजूद होता था । जैसे किसी दानदाता के ह्वदय की कोशिकाआें को पूरी तरह से हटाकर बचा कोलाजेन का ढांचा । मगर मा की टीम ने एकदम नए सिरे से सूक्ष्म ह्वदय का निर्माण किया है । 
मा और उनके साथियोंने मनुष्य की चमड़ी की कोशिकाएं लेकर उन्हें भ्रूणावस्था की कोशिकाआें जैसी कोशिकाआें में बदला - इन्हें प्ररित बहुसक्षम स्टेम कोशिकाएं कहते हैं । आम तौर पर इन कोशिकाआें को एक ऐसे माध्यम से रखा जाता है जिसमें वृद्धि के कारक मौजूद हो । मगर मा की टीम ने एक और करामात की । प्राकृतिक रूप से अंगोंकी वृद्धि के दौरान भ्रूण की कोशिकाआें पर कई भौतिक बल काम करते हैं जो उन्हें बताते है कि वे कहां वृद्धि कर सकती है और कहां नहीं । मा की टीम ने इस बलों की नकल करने के लिए संवर्धन माध्यम से रासायनिक धब्बों का उपयोग किया जो कोशिकाआें के लिए रूकावट का काम करते हैं । इन धब्बों की वजह से बढ़ती कोशिकाआें को सही जमावट में व्यवस्थित होना पड़ा । 
इस प्रक्रियासे हुआ यह कि कोशिकाआें की आकृतियां भी बदली जैसा कि भू्रण में विकसित होते ह्वदय के साथ होता है । परिणामस्वरूप केन्द्र में स्थित कोशिकाएं ह्वदय की धड़कने वाली कोशिकाएं बन गई । इनके आसपास की कोशिकाआें ने संयोजी ऊतक का स्थान ले लिया । उल्लेखनीय बात यह हुई कि बीच की धड़कने वाली कोशिकाएं ऊपर की ओर भी बढ़ी और उन्होनें एक गुंबद का आकार ग्रहण कर लिया । यह सूक्ष्म पैमाने पर ह्वदय के निलय जैसा था । 
सूक्ष्म ही सही, मगर यह ह्वदय बगैर किसी सहारे के बना है । अब कोशिश यह होगी कि पूरे आकार का ह्वदय इस प्रक्रिया से बनाया जाए । मगर जब तक वह करना संभव नहीं होता, तब तक यह नन्हा सा दिल भी काफी काम का है । आप इसके साथ प्रयोग करके देख सकते है कि कौन से रसायन या कौन सी परिस्थितियां भ्रूण मेंह्वदय के विकास में विकृति पैदा कर सकती है । अभी शोधकर्ता दल यह दर्शा पाया है कि थेलिडोमाइड की उपस्थिति मेंह्वदय का विकास ठीक तरह से नहीं     होता । गौरतलब है कि थेलिडोमाइड  वह दवा है जिसका सेवन महिलाआें ने गर्भावस्था के दौरान किया था और उनके बच्च्े विकृत पैदा हुए थे । 
हाथ पर उगा दिया कान
पेट पर नाक या पेर पर हाथ उगा देने और फिर उसे सही जगह लगा देने के बड़े ऑपरेशन्स की खबरें अक्सर विदेशों से आती रही है, पर ऐसा कमाल देश में भी हुआ है और इसे किया है दिल्ली के लोक नायक जय प्रकाश अस्पताल (एलएनजेपी) के प्लास्टिक एंड बर्न सर्जरी विभाग के डॉक्टरों ने । उन्होंने मरीज की छाती से चर्बी निकालकर उससे मरीज के ही हाथ कान उगाया है । कान पूरी तरह तैयार है और डॉक्टर अब इसे उचित जगह लगाने की तैयारी में   हैं । 
विभाग के सर्जन डॉ. पीएस भंडारी के मुताबिक यह आर्टिफिशियल कान है, जिसे हमने मरीज की बांह पर उसके ही शरीर के ऊतकों से विकसित किया हे । इसके लिए स्कीन के साथ छाती की पसली निकाली गई, फिर उसे तराश कर कान का फ्रेमवर्क बनाया । यह प्रयोग २२ साल के युवक पर किया, जिसके दोनों कान जल गए थे । इसके कान बनाने के लिए हमारे पास कच्च माल नहींथा । ऐसे में पांच-छह माह में कई चरणों में अब इसे पूरा कर   पाए । 
पहला चरण : छाती की कमानी से तीस पसलियां निकाली, जो कि मुलायम हड्डी की तरह होती है । फिर मशीन के जरिए इनसे कान का फ्रेमवर्क बनाया । 
दूसरा चरण : शुरू में कोशिकाआें को फैलाने वाला इंजेक्शन हाथ में डाला था । इससे गुब्बारे सा उभार आ जाता है । बाद में इसे निकालकर कान का फ्रेमवर्क डाला । 
तीसरा चरण : धीरे-धीरे गुब्बारे की जगह कान का आकार बन जाता है । फिर हाथ से इस कान को निकालकर सही जगह पर लगा दिया जाएगा । 
नर और मादा में दर्द की अलग अनुभूति
नेचर न्यूरोसाइंस में प्रकाशित अनुसंधान से पता चला है कि नर और मादा चूहों में दर्द की संवेदना का रास्ता अलग-अलग होता  है । इस अनंसुधान के परिणामों से यह भी स्पष्ट होता है कि क्यों कई दवाईयां इंसानों पर परीक्षण के दौरान कामयाब नहीं रहीं । 
लंबे समय तक बने रहने वाले जीर्ण दर्द के मामले में प्रतिरक्षा तंत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । खास तौर से प्रतिरक्षा तंत्र की माइक्रोग्लिया नामक कोशिकाएं इसमें प्रमुख होती हैं । माइक्रोग्लिया कोशिकाएं  एक रसायन का निर्माण करती है - बीडीएनएफ - जो मेरू रज्जू को संदेश देता है । चोट लगने या सूजन होने पर संदेश शरीर को दर्द के प्रति संवेदी बना देता है ओर हल्के से स्पर्श से भी दर्द होता है । 
अलाबमा विश्वविद्यालय के रॉबर्ट सोर्ज और उनके साथियोंने कुछ स्वस्थ नर व मादा चूहों की एक तंत्रिका को काटकर उनमें दर्द व सूजन उत्पन्न कर दिए । इसके एक सप्तह बाद उन्हें ऐसी दवा दी गई जो माइक्रोग्लिया की क्रिया को रोकती है । ऐसा करने पर पता चला कि जहां सारे नर चूहों में दर्द की संवेदना समाप्त् हो गई, वहीं मादा चूहों पर इस दवा का कोई असर नहीं हुआ ।
शोधकर्ताआें ने कुछ चूहों में जेनेटिक इंजीनियरिंग तकनीक की मदद से ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि उनमें किसी भी समय माइक्रोग्लिया में से बीडीएनएफ बनाने वाले जीन कोे निष्क्रिय किया जा सकता था । शुरू में तो सभी चूहों में दर्द की संवेदना एक-सी  थी । मगर एक सप्तह बाद इनके बीडीएनएफ जीन को निष्क्रिय किया गया तो नर चूहों में तो दर्द की अति-संवेदना खत्म हो गई मगर मादा चूहों पर कोई असर नहीं हुआ । इसका मतलब है कि मादा चूहों में दर्द का नियमन बीडीएनएफ के जरिए नहीं होता है । 
यह शोध इस मायने में महत्वपूर्ण है कि आम तौर पर दवाइयों का परीक्षण करते समय नर जंतुआें का ही उपयोग किया जाता है । इसलिए जो भी परिणाम मिलते हैं, वे इंसानों पर लागू नहीं हो पाते क्योंकि इंसानी परीक्षण में तो स्त्री-पुरूष दोनों होते हैं । इस शोध के आधार पर शायद अब शोधकर्ता परीक्षण के लिए जंतु चुनते समय सावधानी बरतेगें । 
सोर्ज की टीम अब यह पता करने का प्रयास कर रही है कि यदि मादा चूहों में जीर्ण दर्द का नियमन बीडीएनएफ के जरिए नहीं होता, ते उनमें दर्द के नियमन का का मार्ग क्या है । 
प्रदेश चर्चा 
म.प्र.: ग्रीन ब्रिज से होगी नर्मदा प्रदूषणमुक्त
मनीष वैद्य
मध्यप्रदेश में तेजी से प्रदूषित होती जा रही नर्मदा नदी को अब ग्रीन ब्रिज से साफ-सुथरा और प्रदूषणमुक्त बनाने की मुहिम शुरू हो चुकी है । जबलपुर में ३ संरचनाएं बन चुकी हैं तो अब १२ और नगर-कस्बों में ग्रीन ब्रिज बनाने का काम भी जल्द ही शुरू होगा । 
महंगे और बिजली से चलने वाले ट्रीटमेंट प्लांट की जगह अब सरकार ने नदी के पानी की सफाई के लिए आधुनिक, किफायती, सरल, पर्यावरण हितैषी, नवाचारी और प्राकृतिक तकनीक ग्रीन ब्रिज के इस्तेमाल पर जोर दिया है । यह भौतिक-जैविक पद्धति से पानी को शुद्ध करता है और उसके द्यातक प्रभाव को भी कम करता है । नर्मदा का सबसे अधिक प्रवाह क्षेत्र (करीब ८७ प्रतिशत) मध्यप्रदेश में ही है लेकिन प्रकृति से छेड़छाड़ और अनियोजित औद्योगिक विकास के चलते प्रदेश में कई जगह घातक रासायनिक पदार्थो और गंदे पानी के नदी प्रवाह में मिलने से नर्मदा तेजी से प्रदूषित हो रही है । 
प्रदेश की जीवनरेखा मानी वाली जाने वाली नर्मदा नदी में कई स्थानों पर गंदे नालों का पानी मिल रहा है तो कई जगह औद्योगिक इकाइयों के खतरनाक अपशिष्ट । इसके अलावा खेतों में उपयोग किए जाने वाले रासायनिक खाद और कीटनाशकों की वजह से भी नर्मदा दूषित होती जा रही है । इतना ही नहीं अब नर्मदा घाटी में जंगल भी काफी कम हो चले हैं और कई जगह तो नर्मदा के जल स्तर में भी भारी गिरावट आ रही है । 
नर्मदा के सदानीरा होने से यह गर्मियों में भी प्रदेश के कई शहरों और नगरों की प्यास बुझाती है, ऐसे में प्रदूषित पानी का हानिकारक प्रभाव बहुत बड़ी जनसंख्या को प्रभावित कर सकता  है । इस स्थिति में नर्मदा को अपने पुराने स्वरूप में लौटाने की जरूरत फिलहाल सरकार और समाज दोनों की ही प्राथमिकता है । 
नदी के प्रदूषित होने की लगातार खबरों के बाद म.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी हरकत में आ गया है । बोर्ड ने प्रदेश सीमा में नर्मदा किनारे बसे ३६० में से ३१० नगरीय निकायों (नगर निगम, नगर पंचायत और नगर पालिकाआें) को नदी में सीधे गंदे पानी छोड़े जाने पर आपत्ति जताते हुए अन्य व्यवस्था करने संबंधी नोटिस दिए हैं । इनके जवाब में अधिकांश नगरीय निकायों का मत था कि उनपके पास गंदे पानी का निकासी के लिए अन्य कोई व्यवस्था नहीं होने से ऐसा करना पड़ रहा है । उनके यहां ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के लिए पैसा नहीं है । ऐसी स्थिति में म.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का ध्यान पानी साफ करने की सरल-सहज तकनीकों पर गया । 
ग्रीन बिज तकनीक को पुणे की सृष्टि इका रिसर्च इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर संदीप जोशी ने विकसित किया है । इसमें नदी तल के क्षैतिज में पत्थरों की पालनुमा इनवर्टेड वी आकार की संरचना बनाई जाती है, जिसे नारियल की भूसी या किसी अन्य रेशेदार कपड़े आदि से ढंका जाता है । इस वी आकार के गड्ढेनुमा कुंड में पानी को शुद्ध करने के लिए कुछ सुक्ष्म जीवाणुआें और जैविक रसायनों को रखा जाता है । अब नदी प्रवाह के पानी से ठोस पदार्थ जैसे प्लास्टिक, पूजन सामग्री, हार-फूल, घरों का कचरा, पत्तियां आदि पहली ही पाल से अलग हो जाते हैं । 
इसके बाद घुलनशील अशुद्धि के साथ पानी कुंड से होकर गुजरता है तो यहां जीवाणुआेंऔर जैविक रसायनों के संपर्क में आने से अशुद्धि यहीं रूक जाती है और पूरी तरह से शुद्ध पानी आगे नदी प्रवाह के साथ बढ़ जाता है । यह तकनीक तेजी से लोकप्रिय होती जा रही है । इससे पहले भी राजस्थान में जब अहर नदी के गंदे पानी से उदयपुर की उदयसागर झील दूषित होने लगी, मछलियां और अन्य जलचर भी खत्म होने लगे और मानव जीवन के लिए हानिकारक औद्योगिक अपशिष्ट भी बहकर आने लगे, तब स्थानीय झील संरक्षण समिति ने इसी तकनीक का इस्तेमाल कर नदी क्षेत्र को साफ-सथुरा बनाया । इसी तरह अन्य कई स्थानोंपर भी इसके सफल प्रयोग हो चुके हैं । 
इस तकनीक के कई फायदे हैं । जैसे यह अपेक्षाकृत बहुत सस्ती और सरल तकनीक है । इसके संधारण में कोई खर्च नहीं आता । इसमें न तो बिजली का खर्च लगता है और न ही मनुष्य के श्रम की कोई खास जरूरत होती है । बस थोड़े-थोड़े दिनों में इसकी सफाई करना होती है। यह पूरी तरह से पर्यावरण के हक में है और किसी भी तरह से वहां के पारिस्थितिकी तंत्र को कोई नुकसान नहीं करती है । इससे मानव स्वास्थ्य पर बुरा असर डालने वाले पदार्थो और अशुद्धियों को दूर किया जाता है तो यह बीमारियों की आशंका को भी काफी हद तक कम कर देती है । यह पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाती है तथा आसपास के भूजल को भी दूषित होने से बचाती है । 
पहले पानी में घुलनशील घातक रसायनों और अशुद्धियों को दूर करने के लिए बहुत महंगी और जटिल प्रक्रियाआें से गुजरना पड़ता था । इसके बावजूद सीमित मात्रा में ही पानी शुद्ध हो पाता था । इससे नदी जैसे बड़े जल स्त्रोंतो की सफाई संभव नहीं हो पाती थी । यह नदी के पानी में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ा देता है जिससे मछलियों और अन्य जलचरों को रहने के लिए अनुकूल स्थितियां बन जाती है । 
यह नदी क्षेत्र से करीब ४० से ८० प्रतिशत तक सॉलिड कन्ट्रोल यानी बड़े कचरे की सफाई कर देता है जबकि ४० से ९० प्रतिशत तक प्रदूषण को भी रोक देता है । देखा जाता है कि कई जगह गांवों में लोग नदी किनारे ही शौच करते है । मानव मल में मौजूद कोलीफार्म जीवाणु स्वास्थ्य के लिए बहुत घातक होता है पर इस तकनीक से शुद्ध पानी में इसकी मात्रा करीब ५० से १०० फीसदी तक कम हो जाती है । 
नदी क्षेत्र के साफ-सुथरे हो जाने से जहां उसका प्राकृतिक सौन्दर्य बढ़ जाता है वहीं पेड-पौधों और वन्यजीवों की तादाद भी बढ़ जाती   है । इस तरह यह एक स्वास्थ्यप्रद और खुशनुमा वातावरण भी तैयार करता है । इसकी सबसे बड़ी खासियत है उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थो और अन्य रसायनों से पानी को शुद्ध करना । इससे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तत्वों जैसे लेड, आर्सेनिक और फ्लोराइड आदि से भी निजात मिलती है । नर्मदा नदी में शुरूआत के तौर पर जबलपुर के आसपास तीन संरचनाएं बनाई गई है । अब इसे आगे बढ़ाते हुए आेंकारेश्वर, महेश्वर, मण्डलेश्वर, नेमावर, धरमपुरी, डिंडौरी, मंडला और नरसिंहपुर में काम चल रहा    है । 
मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष नर्मदाप्रसाद शुक्ला ने बताया कि नर्मदा के पानी के दूषित होते जाने की खबरों के चलते बोर्ड ने नीरो और सीरी जैसे शोध संस्थानों से संपर्क किया है । प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए बोर्ड लगातार अध्ययन कर रहा है । अभी नर्मदा के उदगम अमरकंटक से म.प्र. की सीमा तक अलग-अलग २५ स्थानों से नर्मदा पानी के सेम्पल लिए हैं । इनकी जांच के बाद यह खुलासा हुआ है कि इनमें करीब ९० फीसदी सेम्पल में ए ग्रेड आया है यानी यह पानी बिना किसी उपचार के पीने हेतु मानव उपयोग में लाया जा सकता है । उन्होंने कहा कि नर्मदा हमारे लिए प्रकृति की सबसे अनमोल और अनुपम सौगात है, इसे हर हाल में सहेजने की जरूरत है ।