बुधवार, 15 जुलाई 2015





अपने देश में जैव विविधता की अनदेखी
मुकुल व्यास, नई दिल्ली
दुनिया में जैव विविधता खतरे में है और इसमें भारत भी पीछे नहीं  है । हमारा ग्रह मूलत: एक नीला ग्रह है । हमारे समस्त नीले सागर और उनमें पनपने वाले जीव-जंतु हमारी जैविक विविधताआें के लिए बेहद जरूरी है । मनुष्य की कई बुनियादी आवश्यकताएं समुद्रों द्वारा पूरी की जाती है । हमारी सांसों के लिए ७० प्रतिशत ऑक्सीजन समुद्रों से मिलती है । 
कुदरत ने हमें भरपूर जैव विविधता दी थी । इसमें से बहुत कुछ हम गंवा चुके हैं। फिर भी हमारे सामने संरक्षण और हिफाजत के लिए अभी भी काफी कुछ  बचा हुआ है । हमारे यहां १८ ऐसे स्थान है, जो जैव-विविधता की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है । मसलन, हमारे पूर्वीहिमालय क्षेत्र में दुर्लभ किस्म के जीव जन्तुआें और वनस्पतियों का वास है, लेकिन मनुष्य की गतिविधियों के दबाव से इन दुर्लभ प्रजातियों के कुदरती पर्यावास को खतरा उत्पन्न हो गया है । पश्चिमी घाट हमारा सबसे बड़ा जैव विविधता वाला क्षेत्र है । इसका विस्तार कन्याकुमारी से गुजरात तक है । यह दुनिया के उन २५ क्षेत्रोंमें से है, जो जैव विविधता की दृष्टि से बहुत नाजुक माने जाते हैं । यहां ऊष्मा कटीबंधीय घने जंगल हैं, जहां बहुत ही दुर्लभ किस्म के पेड़-पौधे पाए जाते हैं । यहां किंग कोबरा, जैसे नाग, चट्टानी अजगर और दुर्लभ कछुए पाए जाते हैं । हमारे पूर्वी घाट हाथियों और औषधीय वनस्पतियों के लिए मशहूर है । हमारे समुद्री तट बहुत लंबे है । हमारे यहां द्वीपों, समुद्री झीलों, चट्टानी तटों, खारे दलदलों और रेतीले इलाकों की विविधता है । 
जैव संरक्षण में हमारा रवैया बहुत लचर रहा है । पश्चिमी घाट के संरक्षण पर ताजा विवाद उदाहरण है । दुनिया के इन अलौकिक जंगलों की जैव-विविधता को बचाने के बारे मेंयदि हमने अपनी नीति को अब तक अंतिम रूप दे दिया होता, तो हम आज जैव विविधता को बना कर रख सकते थे । पश्चिमी घाट के पर्यावास संरक्षण के बारे मेंमाधव गाडगिल की सिफारिशों और उनकी समीक्षा करने के लिए गठित कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट से मामला सुलझने के बजाय और उलझ गया है । 

संपादकीय 
अश्लील तस्वीरों पर गूगल का अहम फैसला 
आजकल ऐसी खबरें अक्सर पढ़ने को मिलती है कि किसी व्यक्ति की अश्लील तस्वीर इंटरनेट पर शाया कर दी गई है । उस व्यक्ति के लिए काफी त्रासदायक होता है । आम तौर पर ऐसी तस्वीरें बदले की भावना से शाया की जाती हैं । पीड़ित व्यक्ति इसके खिलाफ कानूनी लड़ाई में उलझा रहता है । 
इस तरह की विषयवस्तु से निपटने के प्रयास कई बार हुए हैं । रेडिट और टिव्टर जैसे मंच बदले की भावना से डाली गई सामग्री पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास कर चुके हैंऔर सरकारें भी अपने तई कोशिश करती रहती है । दिक्कत यह होती है कि एक साइट को बंद करने पर वही सामग्री किसी दूसरी साइट पर नजर आने लगती है । मगर पिछले दिनोंगूगल ने इस संबंध में एक महत्वपूर्ण फैसला किया है । 
गूगल ने ऐलान किया है कि यदि संबंधित व्यक्ति अनुरोध करें तो वह उसकी तस्वीर को अपनी खोज के परिणामों में से हटा देगा । गूगल की ओर से जारी वक्तव्य में कहा गया है, हमारा दर्शन सदा से यह रहा है कि खोज के परिणामों में पूरा वेब प्रतिबिंबित होना चाहिए । मगर बदले की भावना से प्रस्तुत अश्लील सामग्री  निहायत निजी और भावनात्मक रूप से नुकसानदायक होती है । ऐसी सामग्री पीड़ित व्यक्ति - अधिकांशत: महिलाआें - को शर्मसार करती है । लिहाजा, हम उन लोगों द्वारा उनकी ऐसी तस्वीरें गूगल खोज परिणामों में से हटाने के अनुरोध का सम्मान करेगे जिनकी नग्न या यौनिक रूप से प्रेरित तस्वीर उनकी सहमति के बगैर शाया की गई हैं। 
क्या गूगल का यह कदम कारगर साबित होगा ? तथ्य यह है कि विश्व स्तर पर सामग्री खोज के व्यापार में गूगल का हिस्सा ७० प्रतिशत है । यदि कोई पृष्ठ गूगल के खोज परिणामों में सामने नहीं आए, तो उसे खोज पाना मुश्किल हो जाता है । लिहाजा, गूगल का यह फैसला काफी महत्वपूर्ण है । इसका एक और भी असर होगा । अन्य खोजी कार्यक्रमों को भी गूगल के साथ कदम मिलाकर चलना होगा, अन्यथा उन्हें यह बताना होगा कि उन्हें बदले की भावना से शाया इन तस्वीरों को हटाने में क्या आपत्ति है ?
सामयिक
सहजीवन, संपोषण और समानता 
शुभू पटवा
भारत में भारतीय संस्कृति ने प्रकृति से एकात्म को अपना मूलमंत्र बनाया है । रेगिस्तान में पशुपालन को मुख्य व्यवसाय बनाने का चमत्कार संभवत: राजस्थान का जीवंत समाज ही कर सकता था ।
भारत की सबसे बड़ी दौलत अटूट जैव संपदा की अनू ठी विविधता और विपुलता है । यहां का लोकविज्ञान, पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली प्रकृति अथवा पर्यावरण के साथ एकसार रही है। प्रकृति पर नियंत्रण या विजय का मिथ्या अहंकार भारतीय परंपरा में कभी नहीं रहा । भारतीय परंपरा भोगवादी नहीं बल्कि प्रकृति के साथ सहोदर के रिश्ते रखने की रही है । वहीं दूसरी ओर हम तथाकथित आधुनिक विकास और प्रौद्योेगिकी की जकड़ में गहरे फंसते जा रहे हैं। शुक्र है, हमें अपनी संस्कृति व पर्यावरण के प्रति आदर और अनुशासन जैसी बातें पुन: याद आने लगी हैं ।  
     हमें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए । भोपाल गैस कांड से लेकर हमारी प्राकृतिक संपदा के लूटे जाने, कारखानों-खेतों में हर साल हजारों श्रमिकों के अपंग होते जाने या मर जानेे से लेकर आर्थिक उन्नति और वैज्ञानिक प्रबंधन के नाम पर किया जाने वाला शोषण बखूबी जारी है। आजादी के बाद प्राकृतिक संपदा को लेकर बने अनेक कानून, अनेक  प्रबंध संस्थान और सरकारी-गैर सरकारी विभाग इसके प्रमाण हैं । इनके चलते आम लोगों की आत्मनिर्भरता घटी है । जिस सामूहिक संपदा (कॉमन प्रॉपर्टी) के बल पर हमारा वृहद् समाज पीढ़ियों तक टिका रह सका, वह आज बदहाली के दौर से गुजर रहा है । जो खानाबदोश वर्ग हमारे समाज में अपने हुनर, व अपनी अलमस्ती में ही मस्त था, उसे विकास के कुछ ऐसे सपने दिखा दिए गए कि उसे अब कहीं ठौर नहीं मिल रही है ।
पशुधन के मामले में हमारा देश बड़ा धनी है। रकबे के आधार पर भारत का विश्व में चालीसवां स्थान है । दुनिया के कुल पशुधन में से आधा हमारे यहां हैं । गाय-बैल, भैस,-बकरी, ऊंट इत्यादि की संख्या भी करोड़ों में है । देश की राष्ट्रीय आय मेें पशुपालन का सीधा योगदान छ: प्रतिशत है । परोक्ष योगदान तो बेहिसाब है । वहीं राजस्थान की इस विपुल पशु संपदा से १९ प्रतिशत आय होती है । पशुपालन बहुल प्रदेश और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की धुरी पशुधन होने के कारण राजस्थान में गांव-गांव में गोचर और ओरण यानि परंपरागत चरागाह आरक्षित रखने की परंपरा रही है। इन्हीं को सामुदायिक संपदा स्त्रोत कहा जाता है। राजस्थान और खासकर यहा स्थित थार मरुस्थल क्षेत्र में इनका सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व रहा   है ।  
चरागाहों की उपयोगिता एवं उपादेयता के प्रति भी सरकार का नजरिया बदला है । इसके बावजूद मई १९९३ में सरकार ने कानून में संशोधन कर जिला कलेक्टरों को चरगाहों या सामुदायिक भूमियों को अन्य कामों के लिए आवंटित करने तथा उसके 'वर्ग' में परिवर्तन करने का अधिकार दे दिया है । पहले यह अधिकार चार एकड़ तक ही था । अब इसे दस एकड़ तक बढ़ा दिया   है । इस संशोधन से तो जिला कलेक्टरों को मनमानी करने की और अधिक छूट मिल गई है । दूसरी ओर राज्य शासन ने तो अब अपरिमित अधिकार हासिल कर लिए हैं । परंतु ऐसे गैरकानूनी आबंटन आम तौर पर न्यायाधीशों ने रद्द किये हैं ।
    विपुल पशुधन के लिए चरागाह तो होने ही चाहिए । दुर्भाग्यवश चरागाहों का विनाश हुआ है। राजस्थान में भी विशेषत: पश्चिमी राजस्थान और उसका भी थार-मरुस्थल वाला क्षेत्र सर्वाधिक पशुधन वाला क्षेत्र है। यहां वर्षा अत्यल्प (अत्यन्त कम) है । यह अत्यल्प वर्षा, सर्वाधिक पशुधन की मौजूदगी और कम वर्षा में पैदा होने वाली वनस्पतियां और उनका टिका रहना वास्तव में प्रकृति का अपना अनूठा संतुलन है । यही थार का पर्यावरण   है । थार के इस पर्यावरण को समझने की जो चूक आधुनिक ज्ञान- विज्ञान ने की है, उसके नतीजे भी सामने हैं । 
थार मरुस्थल के  गोचर-ओरण की परंपरा और बरसाती पानी के संभरण-संचयन की पुख्ता संपदा आधुनिक तकनीक के हाथों नष्ट होती जा रही हैं । मेरे स्वयं के कतिपय अध्ययन इस जमीनी चाई को सिद्ध करते हैं, पर दुर्भाग्य से इन अध्ययनों पर तथाकथित 'विशेषज्ञता' की छाप नहीं है । इसलिए राज में बैठे नीति नियोजकांे के लिए ये अध्ययन किसी प्रकार के बीजाक्षर नहीं बन पाए ।
थार मरुस्थल में वर्षा के अभाव और वर्षा चक्र की अनिश्चितता के कारण कृषि यहां मुख्य आधार नहीं अपितु सहायक धंधा है। खेती व पशुपालन पर आधारित जीवन ही 'थार' का संतुलित जीवन माना जाता है । अकेले पश्चिमी राजस्थान के ग्यारह जिलों में ८ लाख ४६ हजार हेक्टेयर क्षेत्र परंपरागत गोचर के रूप में हैं । यह क्षेत्र सामुदायिक संपदा है और इसका संरक्षण समाज के हाथ में होना चाहिए । लेकिन यह सब शासन के सहयोग से ही संभव है । राजस्थान में चरागाहों को लेकर एक चेतना अवश्य फैली है । गोचर-ओरण तथा मरुस्थल की परंपरागत वनस्पतियों को लेकर सन् १९८४ में हुए भीनासर आंदोलन की व्यापकता और अनुगूंज अब राजस्थान में नजर आने लगी है।
पशुधन के लिए चराई के क्षेत्र की कमी का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण है फसल चक्र । इस फसल चक्र ने खेतों को वर्ष में किसी भी समय के लिए खाली नहीं छोड़ा है । एक समय था जब किसान घुमंतू पशुपालक, बंजारा या खानाबदोश लोगों की राह देखता था कि कब भेड़ें-बकरियों आयें और उनके खेतों में बसेरा करें । पर अब ? राजस्थान के घुमंतू पशुपालकों व किसानों के बीच अदालती कार्रवाईयों से लेकर सशस्त्र बल और होमगार्ड की तैनाती की घटनाएं बताती हैंकि अब किसान और घुमंतू पशुपालकों के रिश्ते बदल चुके हैं ।   
     इस बदलाव से पैदा हो रही विषमताएं भी सामने आने लगी हैं । हरित क्रांति की बात वैसी ही है जैसी सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को मार कर एक साथ सारे अंडे ले लेना । गांधी ने कहा था 'यह धरती सबका पेट भर सकती है, पर किसी एक का भी लालच पूरा नहीं कर सकती ।' वहीं आधुनिक विकास की तथाकथित नीतियों ने भुखमरी बढ़ाई है और खनन, भू-जल का दोहन, जंगलों के शोषण में भी वृद्धि हुई है ।  
पानी के मामले में हमारा देश बड़ा सौभाग्यशाली है । पर तब भी हमारे पास क्या पूरा पानी है ? नद-जल, हिमालय और सूखा-मरुस्थल जैसे कुछ रूप हैं- पानी की उपलब्धता के । भू-जल के मामले में भी बहुलता और न्यूनता से लेकर पीने योग्य और 'बिरायीजणा' (खारा-कसैला) पानी भी इस धरती में है । भू-जल के पानी का क्षरण और पुनर्भरण का अनुपात भी हमारे सामने है । यह तस्वीर ऐसी नहीं कि हम पानी के प्रति निश्चिंत हो जायें । पानी के प्रति हमारी चिंता वास्तविक होनी चाहिए । बरसात के पानी के भंडारण पर ध्यान देना जरुरी है । थार मरुस्थल में वर्षा के पानी के संभरण की तकनीक उस लोक-विज्ञान की देन है, जो आज भी किसी भी उन्नत प्रौद्योगिकी के सामने सिर ऊंचा लिए खड़ी है। पानी की अल्पता को ध्यान में रखते हुए हमें और वैज्ञानिकोंदोनों को इसके संरक्षण पर विचार करना चाहिए ।   
आजादी के बाद बराबरी और विकास को लेकर चली लंबी बहस में मैंएक बुनियादी बिंदु ''संपोषण'' जोड़ना चाहता हंू । आज समानता और संपोषण वाले विकास की जरुरत है । क्या हमारी इतनी इच्छाशक्ति है कि हम तथाकथित आधुनिक विकास के इस जुए को अपने सिर से उतार फेंके ? भारतीय समाज की यह इच्छाशक्ति अभी मरी नहीं है । पिछले कुछ वर्षोसे देश में चल रहे पर्यावरण आंदोलनों ने यह भी सिद्ध किया है कि अध:पतन की स्थितियों के होते हुए भी हमारा सामाजिक चरित्र अभी भी ऊर्जावान है । जरुरत है, राजनीतिक नेतृत्व को इस ओर ढालने की ।
वर्तमान परिस्थिति में हमें 'विकास' का अपना ऐसा मॉडल अपनाना होगा, जो शहरी आत्मनियंत्रण और ग्रामीण पर्यावरण को समृद्ध करने वाला हो । हमारा पारंपरिक लोक विज्ञान, हमारा  ज्ञानविज्ञान और आज की उन्नत प्रौद्योगिकी मिल कर जो रूप ग्रहण करेंगे वही सही मानों में आधुनिक विकास होगा । पर्यावरण का अर्थ करीने से लगाये कुछ पेड़, व्यवस्थित या संरक्षित अभयारण्य, हवा और पानी भर तक ही सीमित नहीं है। असल में पर्यावरण पर ही हमारा समूचा अस्तित्व टिका है । उसकी रक्षा परस्पर सहजीवन, संपोषण और समानता पर ही आधारित है ।
हमारा भूमण्डल 
मछुआरों ने बचाई 'हडसन'
मीनाक्षी अरोड़/पॉल गैले 
अमेरिका के सबसे बड़े शहर न्यूयार्क के किनारे बहने वाली ''हडसन नदी'' का पुनरुद्धार उस नदी पर निर्भर मछुआरों ने अपने सतत् संघर्ष से किया । 
आज भारत में गंगा, यमुना, नर्मदा जैसी तमाम नदियां जबरदस्त प्रदूषण का शिकार हैंऔर इस पर निर्भर व  इससे लाभान्वित होने वाले समुदाय मौन हैं। जाहिर सी बात है बिना जनभागीदारी के सिर्फ कानूनी लड़ाई से नदी साफ नहीं हो सकती । क्या हम हडसन नदी को इस उपलब्धि से सबक लेंगे ?
डच जहाजी 'डेविड हडसन' लाल-भारतीयों (रेड इंडियन) के देश अमेरिका में जिस नदी के रास्ते घुसे थे, उस नदी का नाम 'हडसन' है। हडसन नदी भारत की गंगा और नर्मदा जैसी बड़ी नदी नहीं है । इसकी लंबाई सिर्फ ५०७ किलोमीटर है और यह एडिरौंडेक पर्वत श्रृंखला से निकलती है और न्यूयार्क सिटी, न्यूजर्सी जैसे कई बड़े शहरों के किनारे होती हुई अटलांटिक सागर में गिरती है । इसकी गहराई और प्रवाह इतना है कि इसमें जहाज चलते हैं। पानी इतना साफ है कि बिना फिल्टर किए सीधे न्यूयार्क वासियों के घरों में हडसन का पानी पहुंचता है । 
ऐसा नहीं है कि यह नदी हमेशा से इतनी शुद्ध रही है । नदी ने काफी बुरे दिन देखे हैं। १९४७-७७ तक के दौर को नदी के सबसे प्रदूषित कालखण्ड के रूप में याद किया जाता है । विभिन्न औद्योगिक  कारखानों और 'जनरल इलेक्ट्रिक' के कारखाने से निकला कचरा 'पोलीक्लोराईनेटेड बाईफिनाइल' हडसन के प्रदूषण में सबसे ज्यादा जिम्मेवार था । साथ ही शहरों के सीवेज हालात को और बद से बदतर कर रहे थे । नदी का बढ़ता प्रदूषण जलीय-जीवों के लिए खतरा तो था ही, हडसन की मछलियों को खाने वाले भी बुरी तरह से बीमार हो रहे  थे । इन्हीं कारणों से यह सीवर का गंदा नाला समझी जाने लगी थी । प्रदूषण और बदबू से लोेग नदी से दूर रहने लगे और यह लगने लगा था कि हडसन अब महज कहने के लिए एक नदी रह जाएगी ।
लेकिन नदी का यह दर्द हडसन के मछुआरों से देखा नहीं  गया । उनका दर्द इस गाने के रूप में सामने आता है, कहां गए हमारे सारे फूल,' जो लड़कियां फूल उठाती थीं, वे कहां गई, वो नौजवान कहां गए, जो फूलोंके आसपास घूमते थे। मछुआरों का दिन-रात का रिश्ता हडसन से था । उन्हें अपने अस्तित्व पर खतरा दिखने लगा । मछुआरे खड़े हुए । यह नदी की ही नहीं उनकी रोजी-रोटी की लड़ाई भी थी, लड़ाई धीरे-धीरे अमेरिका के न्यायालयों से लेकर मैदान तक में हुई । इसी संघर्ष के दौरान एक विश्वप्रसिद्ध गीत 'हम होंगे कामयाब (वी शैल ओवरकम)' की रचना हुई ।
मैदान में लड़ रहे मछुआरों को न्यायालय में बहादुर वकीलों की जरुरत थी, क्योंकि लड़ाई बड़े कॉरपोरेट्स जाइंट 'जनरल इलेक्ट्रिक' जैसी कंपनियों से थी । कंपनियों के पैसे, पैरोकारों के आतंक का जवाब देने के लिए आगे आए अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ' जान एफ कैनेडी' के पोते और वकील जूनियर कैनेडी । हडसन की लड़ाई के लिए मछुआरों और वकीलों की एक समर्पित टीम बनी, जिन्हें हडसन का समाज 'रिवरकीपर (नदी-प्रहरी)' नाम से जानता है । हडसन के जल-जीवों के अधिकार और उन पर आश्रित समाज की ओर से न्यायालय में मुकदमा दायर किया गया । अमेरिकी इतिहास में यह पर्यावरण को लेकर यह पहला कानूनी मुकदमा था ।
अदालत में लोगों ने सरकारी नीतियां खासकर सीवेज नीति के खिलाफ गुहार लगाईर् । हडसन के  इस सामुदायिक संघर्ष का देशव्यापी असर पड़ा । सरकार नेशनल इनवायरमेंट पालिसी रिव्यू एक्ट (नीपा) पारित करने पर मजबूर    हुई । इसी के साथ सन् १९७२ में क्लीन वाटर एक्ट (सीडब्लूए) पारित हुआ । इस कानून के चलते परमिट के बिना, प्रदूषण करने वाले तत्वों को, चाहे वे  ठोस हों या द्रव, नदी में प्रवाहित करना गैरकानूनी करार कर दिया गया । 'रिवर मंे सीवर किसी कीमत पर मंजूर नहीं था । इस फैसले का लब्बो-लुआब यह है किइस फैसले और कानून ने कमाल कर दिया । कानूनी सख्ती के कारण हडसन और उसकी सहायक नदियों में निर्बाध रूप से कचरा डालने पर लगाम लगी । कई प्रदूषक कारखाने बंद हुए । उद्योगों और नगरपालिकाओं को नदी में गंदे पानी का प्रवाह बिल्कुल रोकना पड़ा । यह हडसन के समाज की बड़ी जीत थी ।
गंदा नाला बन चुकी हडसन एक बार फिर चमक उठी और हडसन में दोबारा जान आ गई । मछलियों की संख्या तेजी से बढ़ी । मछुआरों की आजीविका की रक्षा   हुई । मछुआरे, केवट और नहाने वाले लोग फिर नदी का आनंद लेने उतर पड़े । लेकिन असली सवाल था इस उपलब्धि को बचाए रखने का । हडसन का समाज 'हाथ-पर-हाथ' रखकर बैठा नहीं रहा, वह चौकस   है । नदी ने जो कुछ हासिल किया है वह बचा रहे, इसके लिए लगातार चौकसी जारी है । 
हडसन का समाज जानता है कि शहरी इलाकों से बहने वाला नदी का हिस्सा अभी भी खतरे की जद में है । वजह साफ है कि उन इलाकों में अंधाधुंध विकास हो रहा है । भरोसा नही विकास कब विनाश का रूप ले ले और नदी उसकी जद में आ   जाए । यह खतरा ऐसे में और बढ़ जाता है, जब राज्य और संघीय सरकारों के स्तर पर पर्यावरण कानूनों के पालन में लगातार उदासी और निकम्मेपन का भाव बढ़ता जा रहा हो । रिवर-वालंटियर्स अपनी नौकाएं लेकर अभी भी दिन-रात नदी में ही रहते हैं। 
वहीं नावों पर ही उन्होंने 'रिवर वाटर क्वालिटी' लैब बना रखे हैं । कहीं से भी लगा कि नदी में कोई प्रदूषण आ रहा है, तो तुरंत उसकी जांच करना और गड़बड़ी पकड़े जाने पर मैदान से माननीय अदालतों तक की कार्यवाही में जुट जाना, उनका रोजमर्रा का काम है । हडसन के रिवर-वालंटियर्स का एक महत्वपूर्ण अभियान है 'फिशेबल रिवर कैंपेन' । इस अभियान के तहत कार्यकर्ता लगे हैं कि जिन मछलियों के लिए हडसन पहचानी जाती है उनकी घटती तादाद को रोक जा सके । अभियान उन तमाम विपरीत परिस्थितियों को ठीक करने में लगा है जो कि मछलियों के खिलाफ हैं जैसे कि उनकी आवासीय स्थितियों का क्षरण, सीवेज का ओवरलो, बिजलीघरों से निकलने वाला प्रदूषण, हमलावर प्रजातियों का बढ़ना, नदी में मछलियों का अंधाधुंध शिकार ।
हडसन के नदी-स्वयंसेवक हर साल एक बड़ा जलसा करते हैं । हजारों की संख्या में हडसन नदी-स्वयंसेवी इकटठा होते हैं। 'क्लीयर वाटर फेस्टिवल' नाम से होने वाले जलसे का मकसद है कि नदी लोगों के ह्दय में जिदा रहे । हडसन के  लिए खूब गीत रचे गए हैं। पीट सीगर के गानों एक एलबम है 'क्लीयर वाटर'। इस उत्सव के दौरान लोगों को हडसन की मदद हेतु आगे आने के  लिए प्रेरित किया जाता है । पीट सीगर द्वारा शुरु किया गया 'क्लीयर वाटर फेस्टिवल' आज अमेरिका का सबसे बड़ा 'पर्यावरणीय समारोह' बन चुका है। पीट सीगर का ख्वाब था कि 'हडसन और मेरे देश की हर नदी में साफ पानी बहे ।'
जाहिर है हडसन जैसी तमाम नदियांे की बहाली और सुरक्षा के लिये समाज की सक्रियता ही सबसे अहम चीज है ।
वन महोत्सव पर विशेष
पेड़ पौधों से सुख-समृद्धि
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित 
हमारे देश में वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उनकी पूजा की परम्परा प्राचीनकाल से रही है । भारतीय संस्कृति वृक्ष पूजक संस्कृति है । वैदिक काल में प्रकृति के आराधक भारतीय मनीषी अपने अनुष्ठानों में वनस्पतियों को विशेष महत्व देते थे । 
वेदों और आरण्यक ग्रंथों में प्रकृतिक की महिमा का सर्वाधिक गुणगान है । उस काल के अनेक लोक देवताआें में वृक्षों को भी देवता कहा गया है । मोहन जोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई में मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्तिपूजा के साथ ही पेड़ पौधों और जीव जन्तुआें की पूजा की परम्परा भी थी । 
भारतीय साहित्य, चित्रकला और वास्तुकला में वृक्ष पूजा के अनेक प्रसंग मिलते है । यहां शाल भंजिका का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा जिसमें प्राय: अशोक, चम्पा, पलाश और शाल वृक्ष के नीचे विशेष मुद्रा में वृक्ष की टहनी पकड़े हुए नारी का चित्रण रहता है । अंजता में गुफा चित्रों और सांची के तोरण स्तंभों की आकृतियों में वृक्षपूजा के दृश्यों का आधिक्य है । जैन और बौद्ध साहित्य में वृक्ष पूजा का विशेष उल्लेख है । पालि साहित्य में अनेक विवरण है, जिनमें कहा गया है कि बोधिसत्व ने रूक्ख देवता बनकर जन्म लिया  था ।
हमारा प्राचीन ग्रंथ वेद में प्रकृति की परमात्मा स्वरूप में स्तुति है । इसके साथ ही वाल्मिकी रामायण, महाभारत और मनुस्मृति में वृक्ष पूजा के विविध विधानों का विस्तार से वर्णन मिलता है । नारद संहिता में २७ नक्षत्रों के नक्षत्र वनस्पति की जानकारी दी गयी है, हर व्यक्ति के जन्म नक्षत्र का वृक्ष उसका कुल वृक्ष है यही उसके लिए कल्पवृक्ष भी है जिसकी आराधना करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती है । पीपल, गूलर, पलाश, आम और वट वृक्षों के पत्ते पंच पल्लव कहलाते हैं, सभी धार्मिक आयोजनों और पूजा पाठ में इनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है । 
हमारे प्राचीन साहित्य में जिन पवित्र एवं अलौकिक वृक्षों का उल्लेख किया गया है, इनमें कल्पवृक्ष प्रमुख है । मान्यता है कि समुद्र मंथन में निकले १४ रत्नों में एक कल्पवृक्ष भी था । पुराणों में वर्णन है कि कल्पवृक्ष को देवताआें का वृक्ष कहा गया है, इसे मनवांछित फल देने वाला नंदन वृक्ष भी माना जाता है । यह भी मान्यता है कि समुद्र मंथन में निकले १४ रत्नों में एक कल्पवृक्ष भी था । पुराणों में वर्णन है कि कल्पवृक्ष को श्रीकृष्ण देवराज इन्द्र से जीतकर लाए थे । पांडवों द्वारा अपने अज्ञात वास के दौरान किसी अन्य द्वीप से इसे लाने का भी उल्लेख आता है । महाभारत, रामायण, जातक ग्रंथों और जैन साहित्य में कल्पवृक्ष की चर्चा आयी है लेकिन वेदों में इसका उल्लेख नहीं मिलता है । 
वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार बाम्बोकेसी कुल के अडनसोनिया डिजिटेटा नामक पेड़ को भारत मे कल्पवृक्ष कहा जाता है इसको फ्रांसीसी प्रकृति प्रेमी वैज्ञानिक माइकल अडनसन ने सन् १७५४ में अफ्रीका के सेनेगल में सर्वप्रथम देखा था, इसी आधार पर इसका नामकरण अडनसोनिया डिजिटेटा हो गया । हमारे देश में कल्पवृक्ष का नाम गुरू गौरखनाथ से भी जुड़ा हुआ है । उज्जैन के निकट उन्होनें इसी वृक्ष के नीचे तपस्या की थी । बाद में उज्जैन के तत्कालीन राजा भृतहरि गुरू गोरखनाथ के शिष्य हो गए इसलिए इसका नाम गौरखइमली भी है । 
पादप जगत का कोई भी वृक्ष इसकी विशालता, दीर्घजीविता और आराध्यता में बराबरी नहीं कर सकता है । यह धीरे-धीरे बढ़ता है और सेकड़ों साल तक जिंदा रहता है, इसका बेहद मोटा तना धीरे-धीरे पतला होता जाता है । सर्दियों में जब इसकी पत्तियां झड़ जाती है, तब मोटा तना नीचे और पतली-पतली शाखाएं ऐसी लगती है, मानों धरती पर किसी पेड़ को उल्टा रख दिया गया हो । 
इन वृक्षों के आसपास का वातावरण सुगंधमय रहता है, इसके पत्र, पुष्प एवं छाल दुधारू पशुआेंको खिलाने से वे दूध अधिक देने लगते हैं इसकी लकड़ी से कलात्मक घड़े, लोटे, सुराही और गुलदस्ते बनाए जाते हैं, इसके गूदे को सूखा कर आटा बनाया जाता है, जो कागज बनाने के काम आता है । इसमें सुंगध विहिन सफेद मनोहारी पुष्प लगते हैं, इन अधोमुखी फूलोंमें एक ही पेड़ पर नर व मादा दोनों पुष्प होते हैं । इसकी गहरे रंग की पत्तियों में समानांतर रेखाएं होती हैं, ये पांच और सात के छत्रक में होती है । कल्पवृक्ष के पल्लव और पुष्प को शुभ मानकर विद्यार्थी अपनी पुस्तकों में, व्यापारी बही-खातों में, तथा पंडित पुजारी लोग अपनी पूजा में रखते हैं ।
प्राचीन काल में धरती के उपर आकाश को २७ बराबर भांगों में बांटा गया है जिसके हर एक भाग को एक नक्षत्र कहते हैं । इन नक्षत्रों की पहचान आसमान के तारों की स्थिति विन्यास से की जाती है । इन २७ नक्षत्रों की वनस्पति का नारद संहिता में विवरण है जो निम्नानुसार है :- 
क्रं. नक्षत्र वृक्ष का नाम  
१. अश्विनी कुचिला
२. भरणी आवंला
३. कृतिका गुलर
४. रोहिणी जामुन
५. मृगशीरा खेर
६. आद्रा शीशम
७. पुनर्वसु बांस
८. पुष्य पीपल
९. अश्लेषा नागकेसर
१०. मघा बरगद
११. पूर्वा फाल्गुनी पलास
१२. उत्तर फाल्गुनी पाकड़
१३. हस्त रीठा
१४. चित्रा बेर
१५. स्वाति अर्जुन
१६. विशाखा कटाई
१७. अनुराधा मोलश्री
१८. ज्येष्ठा चीड़
१९. मूल साल
२०. पूर्वाषाढ़ा जलवेतस
२१. उत्तराषाढ़ा कटहल
२२. श्रवण आंकड़ा
२३. धनिष्ठा खेजड़ी
२४. शतभिषक कदम्ब
२५. पूर्वा भाद्रपक्ष आम
२६. उत्तर भाद्रपक्ष नीम
२७. रेवती महुआ
पृथ्वी से आकाश की ओर देखने पर आकाश मेंस्थिति बदलने वाले पिण्डों को ग्रह कहते हैं । ग्रह का अर्थ है पकड़ना । भारतीय ज्योतिष में ग्रहों की संख्या नौ मानी गई है । नौ ग्रह वनस्पतियों की सूची निम्नानुसार है :-  सूर्य - आक, चन्द्र - पलाश, मंगल - खेद, बुध - अपामार्ग, बृहस्पति - पीपल, शुक्र - गुलर, शनि - खेजड़ी, राहु - दूब, केतु - कुश । इसमें प्रथम सात तो पिण्डी ग्रह हैं और अंतिम दो राहु और केतु पिण्ड रूप में नहीं बल्कि छायाग्रह हैं।
पांच पवित्र छायादार वृक्षों के समूह को पंचवटी कहते हैं । पौराणिक ग्रन्थ स्कंन्द पुराण के अनुसार पीपल, बेल, बरगद, आवंला व अशोक इन पांच वृक्षों के समूह को पंचवटी कहा गया है । 
इनकी स्थापना पांच दिशाआें में करना चाहिए । पीपल पूर्व दिशा में, बेल उत्तर दिशा में, बरगद पश्चिम दिशा में, आवंला दक्षिण दिशा में और अशोक को आग्नेय कोण (दक्षिण पूर्व) में लगाया जाना चाहिए। पुराणों में दो प्रकार की पंचवटी का वर्णन किया गया है । 
भगवान बुद्ध के जीवन की सभी घटनाएँ वृक्षों की छाया में   घटी ।  जन्म शालवन में एक वृक्ष की छाया में । प्रथम समाधि जामुन वृक्ष की छाया में । बोधि प्रािप्त् पीपल वृक्ष की छाया में तथा महानिर्वाण साल वृक्ष की छाया में हुआ । भगवान बुद्ध ने बौद्ध भिक्षुआें के साथ भ्रमण काल में अनेकों वनों एवं बागों में प्रवास किया था । ऐसे वनों की संख्या अनगिनत है जिनमें वैशाली में आम्रपाली का आम्रवन, मिथिला का मखादेव आम्रवन, नालंदा का प्रावारिक आम्रवन व अनुप्रिय का आम्रवन उल्लेखनीय है । इसके साथ ही राजगृह, किम्बिला और कंजगल के वेणु वनों का संबंध भगवान बुद्ध से आया है । 
पृथ्वी पर पाये जाने वाले जिन पौधों का नाम पवित्र कुरान-मजीद में आया है उन पेड़ों को अन्य वृक्षों में विशिष्टता प्राप्त् है । इन पवित्र पेड़ों में खजूर, बेरी, पीलू, मेहंदी, जैतून, अंगूर, अनार, अंजीर, बबूल और तुलसी मुख्य हैं । 
सिख धर्म में वृक्षों का अत्यधिक महत्व है । वृक्ष को देवता के रूप में देखा गया है । इसमें गुरू से जुड़े वृक्ष निम्न है :-  नानक मता का पीपल वृक्ष, रीठा साहब का रीठा वृक्ष, टाली साहब का शीशम, बेर साहब प्रमुख है । 
सामाजिक पर्यावरण
स्वस्थ भारत का सपना
डॉ. एस.एन. सुब्बराव
भारत में मानसिक परेशानियों के बढ़ने के कारण मानसिक विकार भी बढ़ते जा रहे  हैं । आधुनिक उपभोेगवादी संस्कृति की बढ़ती पैठ कहीं न कहीं इस मुसीबत की जड़ में है । यदि हमारे देश की १० प्रतिशत आबादी बीमारी मानसिक तौर पर विचलित है तो यह खतरे की घंटी है । हमें विकास के अपने मॉडल पर पुनर्विचार कर ऐसी जीवनशैली अपनाना होगी जो कि हमें शांति प्रदान कर सके ।
पुराने या नए मित्र जैसे ही मिलते हैंपहला प्रश्न पूछते हैं:- ''स्वास्थ्य कैसा है ?'' वस्तुत: मेरा स्वास्थ्य अच्छा कहने जैसा तो नहींहै परंतु मैं जबाव देता हँू ''भारत माता के स्वास्थ्य से मेरा स्वास्थ्य अच्छा   है ।'' आजकल कड़वी खबरों की भी कमी नहीं है । 
कुछ बैचेन करने वाली खबरें जैसे ११ वर्ष के एक बालक ने मात्र इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसकी माँ ने उसे डांट दिया था, सुनाई देती हैं । आज की भाषा में एक शब्द चल निकला है -''ट्रामा'' (ढीर्रीार) । मैं सोचता हॅूं मेरे छुटपन में मेरी माँ ने मुझे न जाने कितनी बार डांटा होगा, शायद कभी चाँटा भी मारा होगा, पर यह ट्रामा क्या बला है हम जानते ही नहीं थे । मैं सिर्फ इतना जानता था कि वेमेरी माँ हैं, मुझे प्यार करती हैं और इस उसी प्यार के चलते उन्होंने मुझे डांटा है ।
आतंकवादी तो दुनियाभर में विध्वंस कर ही रहे हैं । पर अभी थोड़े दिन पहले खबर आई कि जर्मनी का एक विमान चालक इतने तनाव में था कि उसने अपने वरिष्ठ चालक को काकपिट से बाहर करके विमान को दुर्घटनाग्रस्त कर दिया जिससे कि १५० यात्रियों की जान चली गई । ऐसी तमाम खबरंे आ रहीं हैं । इसी के साथ अभी जानकारी मिली है कि १० प्रतिशत भारतीय तनावग्रस्त (डिप्रेस्ड) हैं । इतना ही नहीं तनावग्रस्त समझने के कुछ लक्षण भी बताए गए हैं जैस :-
* वे बात-बात में नाराज होने लगते हैं । 
* किसी बात में रुचि नहीं लेते ।
*पहले जिन बातों से लगाव दिखाते थे वह कम होने लगता है ।
*वह अधिकांशत: आलस से घिरे रहते है ।  
* स्वयं को एवं वस्तुओं को भूल जाते हैं । 
१० प्रतिशत याने करीब १३ करोड़ भारतीय इस बीमारी के  शिकार हो गए हैं । समझना पड़ेगा कि इतने लोग इस बीमारी से क्यों ग्रस्त हैं और अंतत: इस बीमारी का इलाज क्या है ?
वैसे मनोविज्ञान शास्त्र में इसके इलाज का कुछ प्रयास होता   है । इसमें डाक्टर मरीज के साथ खूब वार्तालाप करते हैं और मरीज भी इससे कुछ लाभ होना बताते हैं। पिछले दिनों अमेरिका के एक राज्य मिशिगन के हाईस्कूल शिक्षकों से पूछा गया था कि छात्रों को पढ़ाने में उनके सामने क्या समस्या आती है ? ९० प्रतिशत शिक्षकों ने कहा कि चंूकि घर में बच्चें को माता पिता का प्यार नहीं मिलता इसीलिए बच्च्े शाला में समस्या पैदा करते हैं । 
मैं और आप या आम भारतीय नागरिक और हमारे बच्च्े शायद उन १० प्रतिशत भारतीयों में भले ही नही होंगे जो अशांत या मानसिक रोगी हों, पर कभी कभार हमारा चित्त भी थोड़ा अशांत तो हो ही जाता है । जीवन में निराशा तो होती रहती है । क्या इसका इलाज   है ? हां गोली और सूई तो है ही । लेकिन सदियों से भारत दुनिया को कहता आया है कि मनुष्य सुखी रह सकता है और वह इसलिए कि सुखी रहना हर मनुष्य का स्वभाव है और अधिकार भी है । तो मनुष्य से उसका यह अधिकार कैसेछीना जा सकता  है ? हमारे एक मित्र श्रीकुमार पोद्दार, जो छह महीने अमेरिका रहते हैं, का कहना है कि आज इसीलिए लोग रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) और कैंसर जैसे बीमारियों के शिकार हो रहे हैं क्योंकि कि वे सब जहर खा रहे हैं । श्रीकुमार के हिसाब से जो जैविक खाद्यपदार्थ नहीं हैं वे सब जहर हैं । 
जहां रासायनिक खाद का उपयोग हुआ वहां जहर आ गया । उसके साथ आए प्रदूषण के कारण जहर बुझी वायु हमारे फेफड़े में जा रही है । इन सबके ऊपर हमारे ईद गिर्द सबकुछ कितना कुछ विषयुक्त हो रहा हैं ऐसी खबरों  से अखबार भरे रहते हैं । जब हम ऐसी दुनिया में रहते है तो क्या फिर भी हम हमारे मन को प्रफूल्लित रख सकेगें? भारत के हजारों ऋषि-मुनिजन, साधू संत इसके बावजूद इस विषय पर 'हां' बोलते हैं । पवित्र ग्रंथ गीता बोलती है कि युद्ध लड़ते समय भी मन शांत और क्रोध रहित रह सकता है। भगवान बुद्ध के सामने क्रोधी  अंगुलीमाल उनको मारने की तैयारी से आया तब भी उन्होंने प्यार से उसका स्वागत किया । महात्मा गांधी दिखाते हैं कि चारांे ओर सांप्रदायिक हिंसा, आगजनी के बीच ''सबको सन्मति दे भगवान'' का संदेश मन को शांति दे सकता है । आचार्य विनोबा ने दिखाया कि बंदूकधारी खंूखार माने जाने वाले डाकू-बागियों को भी अपना प्यारा भाई बनाया जा सकता है । 
जब गांधी बेरिस्टर मोहनदास गांधी से, महात्मा नहीं बने थे तब उन्होंने सन् १८९३ में दक्षिण अफ्रीका की अंग्रेजी हुकूमत को चेतावनी दी और लोगों ने पूछा कि पुलिस, सेना, बंदूकधारी हुकूमत का मुकाबला कैसे कर सकेंगे ? तो उन्होंने कहा कि ''मैं अंग्रेजों की शक्ति को पहचानता हँू ।  वे मुझे मारेंगे तो मार सहन कर लूंगा, जेल भी ले जाएं तो खुशी से चला जाऊँगा, जान से मार भी दंे तो मर जाऊँगा । फिर भी मेरी अहिंसक लड़ाई जारी रहेगी क्योंकि मेरे अंदर सत्य और न्याय की एक ऐसी शक्ति है जो बंदूक की शक्ति से कई गुना अधिक बलवान है । 
महात्मा गांधी का मानना था कि वह आध्यात्मिक शक्ति मुझमें, आप में और प्रत्येक मनुष्य में है । एक छोटा बालक एक बड़े हाथी को चलाता है । इसका अर्थ है उस छोटे से बालक में कोई एक बड़ी शक्ति है जो उस बलवान हाथी में नहीं है । आवश्यकता इस बात की है कि हमारे बच्चें को अपने अंदर छिपी शक्ति का पहचान होंं । सभी    धर्म बोलते हैं कि प्रत्येक मनुष्य ईश्वर ही है ।
भारत  में  ऋषियों ने कहा ''अहम बृहास्मि'' मैं साक्षात ब्रह्म   हँू । भगवान बुद्ध ने कहा, ''आप्प दीपो भव'', अपने दीपक स्वयं    बनो ।
ईसा मसीह कहते है, ''ढहश घळसिविा षि हशर्रींशि ळी ुळींहळि ूिीर्'' आपके अंदर ही स्वर्गलोक मौजूद    है । सिख गुरूओं ने कहा, ''मन तू ज्योत पहचान'' यानि पहचानों कि आपके भीतर वह दिव्य ज्योति विद्यमान है । इस्लाम के सूफी संतो ने गाया कि यदि अपने आपको पहचाना तो खुदा को पहचान    लिया । जैन धर्म तो किसी दूसरे भगवान को मानता ही नहीं, उसके अनुसार मनुष्य ही अपने सुविचार, सद्वचन व सदाचार से ईश्वर बनता है । 
हमारे बच्चें को किसी अपने बचपन से यह सबक मिले कि वह कमजोर नहीं, शक्तिशाली हैं,  चरित्रवान हैं और महान व पवित्र हैं ताकि वह एक शक्तिशाली चरित्रवान नागरिक बनें तो वे गलत सोच, गलत बात एवं गलत काम कर ही नहीं पाएंेगे । 
 स्वास्थ्य
पुत्र जीवक वटी बनाम पुत्रदायी बीज 
डॉ. किशोर पंवार
आयुर्वेद को जीने की कला कहा गया है । इसमें मनुष्य, पशु एवं पौधों को बीमारी से मुक्त रखने का ज्ञान है । इस परंपरागत चिकित्सा पद्धति में मानव कल्याण के साथ पशुआें और पेड़-पौधों के स्वास्थ की कामना भी की गई है । पशु आयुर्वेद और ऋषि पाराशर के वृक्षायुर्वेेद ग्रंथ इसके उदाहरण है । 
आयुर्वेद में स्पष्ट लिखा है कि औषधि देने में बड़ी सावधानी बरतनी चाहिए । बिना जाने औषधि का उपयोग करने से और गैर जरूरी औषधि देने से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर होता है । आयुर्वेद में मेडिकल एथिक्स पर बड़ा जोर है, परन्तु वर्तमान में हम इसे भूल चुके हैं । जो दवाइयां जानकार वैद्यों के माध्यम से दी जानी चाहिए, वे अब बाजारों में किराने के सामान की तरह बिक रही है । इन दिनों पूरे देश में ऐसी दुकानों, संस्थाआें, आयुर्वेद आचार्यो की बाढ़ सी आई हुई है । इस स्थिति पर गहरे मंथन की जरूरत है । 
पुत्रंजीवा बूटी पर आगे बढ़ने से पहले जरा चरक संहिता (प्रथम अध्याय) की इन बातों पर गौर कर लें :- 
* संसार में प्रत्येक वस्तु औषधीय गुण रखती है । 
* यदि चिकित्सा शास्त्र के नियमों का पालन न किया जाए तो अधिकांश औषधियां स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल सकती है । 
*बढ़िया औषधि बिना कारण उपयोग की गई हो तो विष समान होती है । 
* और सबसे महत्वपूर्ण बात नीम हकीम से औषधि लेने से बेहतर है पिघला सीसा निगल लेना । 
उपरोक्त संदर्भ में देखें तो वर्तमान में व्यावसायिक गला-काट स्पर्धा के चलते आयुर्वेद के सिद्धांतों की तो खिल्ली उड़ाई ही जा रही है । आयुर्वेद के नाम पर यह सब कुछ बेचा जा रहा है, जो नहींबिकना चाहिए ।
आचार्य बालकृष्ण द्वारा लिखित पुस्तक औषध दर्शन, जो वस्तुत: दिव्य फार्मेसी का केटलॉग है, में पृष्ठ २४ पर दिव्य स्त्री रसायन वटी का वर्णन है । यह पुत्र जीवक व शिवलिंगी के साथ चंदन, शिलाजीत, आंवला, नागकेशर वगैरह २१ औषधि का सम्मिश्रण है । यहां पर कहीं वन्ध्यत्व निवारण का जिक्र नहींहै ।
पृष्ठ ५० पर वन्ध्यत्व (बांझपन) के लिए उपचार दिया गया है - 
  दिव्य शिवलिंगी बीज - १०० ग्राम
  दिव्य पुत्रजीवक गिरी - १०० ग्राम
यहां भी कहीं नहीं लिखा है कि इसके सेवन से पुत्र प्राप्त् होगा । यानी कुल मिलाकर दो महत्वपूर्ण औषधियों की बात है - पहली शिवलिंगी बीज और दूसरी पुत्रजीवक गिरी की । 
चूंकि विवाद पुत्रजीवक बीज को लेकर है, पहले इसकी चर्चा कर लेते हैं । आयुर्वेद का एक प्रमुख ग्रंथ है भावप्रकाश निघंटु । दवा निर्माता अक्सर इसका हवाला देते हैं । भावप्रकाश निघंटु के पृष्ठ क्रं. ५३०-३१ पर पुत्रजीवक पौधे का वर्णन दिया गया है -
पितौजिया अथ: पुत्रजीव: वस्य नामानि गुणांश्चाह । 
इसका वानस्पतिक नाम पुत्रंजीवा राक्सबर्गीहै । इसके गुण हैं स्वादिष्ट, कटु, लवण रस युक्त, वीर्यवर्धक, गर्भदायक, रूक्ष और शीतल । यह कफ और वात नाशक भी है । 
इसके गुण एवं प्रयोग के अन्तर्गत लिखा है - ज्वर एवं प्रतिश्याय में इसके पत्र एवं फलों का क्वाथ पिलाते हैं । शिर-शूल में गुठलियों (बीजों) को घिसकर लगाया जाता है । फोड़ों आदि पर लेप लगाने से वेदना कम होती है । 
यह भी स्पष्ट रूप से लिखा है कि जिनके लड़के पैदा होकर मर जाया करते हैंवे लोग इसकी गुठलियों की माला पहनते हैं । यानी बच्च पैदा होने के बाद, उसकी दीर्घायु के लिए इसके बीजोंका प्रयोग किया जाता है । वह भी गले में माला के रूप में । इसके बीजों  का प्रयोग पुत्र प्रािप्त् के लिए किए जाने का उल्लेख भावप्रकाश में नहीं है । अर्थात् इसकी बिक्री में एथिक्स को ताक पर रखकर व्यवसाय का पुट जरूर है ।  । 
एक बड़ी चर्चित एवं प्रसिद्ध किताब है पेड़ों के बारे में । बॉटनिकल गार्डन कोलकाता के पूर्व अधीक्षक एवं वनस्पति शास्त्री फादर एच. सांतापाऊ लिखित कॉमन ट्रीज । इसे नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया है । इस पुस्तक में इसे पुत्रजीवा राक्सबर्गी वाल लिखा है । इसे लक्की बीन ट्री, मराठी में पुत्रवन्ति, जीव पुत्रक एवं बंगाली में पुत्रजीवा के नाम से पुकारते हैं । फादर सान्तापाऊ के अनुसार इस सुन्दर सदाबाहर पेड़ का वर्णन फ्लोरा इंडिका खंड ३ पृष्ठ ७६७ पर है । इसके नाम का अर्थ है पुत्र यानी लड़का जीवा यानी जीवन । रॉक्सबर्गी विलियम राक्सबर्ग के नाम पर है जो रॉयल कोलकाता वनस्पति उद्यान के प्रथम अधीक्षक  थे । 
पुत्रंजीवा पूरे देश मेंसड़क किनारे लगाया जाता है । इसकी छाया घनी, ठंडी एवं सुखद होती है । पूरा पेड़ अपनी चमकदार पंखनुमा पत्तियों के कारण बड़ा सुन्दर दिखाई देता    है । भोपाल में सड़कों के किनारे इसे बड़ी मात्रा में लगाया गया है । इसकी कटाई-छंटाई करके बागड़ भी बनाई जाती है । 
हॉर्टीकल्चर का यह एक बड़ा उपयोगी वृक्ष है । इन्दौर के होल्कर कॉलेज के प्रांगण में इसके कइ्र बड़े-बड़े पेड़ है जिन पर कोयल, बुलबुल एवं धनेश ने बसेरा बना रखा है । ये पक्षी इसके फल बड़े मजे से खाते है । पेड़ों के नीचे चमकदार सफेद लगभग गोल बीजों के ढेर पड़े रहते हैं । 
ऐसी मान्यता है कि यह बुरी नजर से बचाता है । विशेषकर बच्चें के संदर्भ में । मद्रास के डॉ. बेरी के अनुसार इसके बीजों की माला बनाकर बच्चें के गले में डाली जाती है । ताकि वे स्वस्थ रहें । यही इसके वानस्पतिक नाम पुत्रंजीवा राक्सबर्गी का आधार है । 
पूरे प्रकरण में बीजों को खाने का कहीं जिक्र नहीं है । बीजों का उपयोग बुरी नजर से बचाने के लिए पुरातन काल से किया जाता रहा है । परन्तु यह टोटका कितना कारगर है और ये बीज कब गले की माला से निकलकर निगले जाने लगे यह शोध का विषय है । पुत्र जीवक बीज यदि वाकई बंध्यत्व एवं शुक्र विकार एवं स्त्री विकारों में लाभदायक है जैसा कि दिव्य फार्मेसी के पैकेट पर लिखा है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए । इस पर शोध किया जाना चाहिए । और यदि दिव्य फार्मेसी द्वारा इस पर कोई शोध किया गया हो   तो जनहित में उसका प्रकाशन किया जाना चाहिये ।   
दिव्य स्त्री रसायन का दूसरा घटक है शिवलिंग बीज । उसका नाम है ब्रायोनिया लेसिनिओसा । यह कद्दू कुल की एक जंगली बेल है जो पूरे भार में जंगलों में अन्य वनस्पतियों पर लिपटी पाई जाती है । इसमें लाल रंग के छोटे-छोटे खरबूजे जैसे फल आते है जिन पर सफेद रंग की धारियां पड़ी रहती है । फलों के अंदर लसलसे पदार्थ से ढके बहुत सारे बीज पाए जाते हैं । इसका नाम शिवलिंगी इसके बीजों के रचना एवं आकार पर पड़ा है । प्रत्येक बीज बिल्कुल शिवलिंग जैसा है जिसके चारों तरफ जलाधारी जैसी सुन्दर नक्काशीदार रचना पाई जाती है । बीजों को अगर हैंडलेंस से देखा जाए तो कुदरत का करिश्मा ही लगते हैं । 
उल्लेखनीय है कि गंगासहाय पाण्डेय एवं कृष्ण चन्द्र चुनेकर द्वारा रचित भावप्रकाश निघंटु में इसका कोई जिक्र नहींहै । अत: यह कोई महत्व की औषधी नहीं है । कहीं-कहीं इसके बीजों को रोज निगलने का प्रावधान है पुत्र प्रािप्त् के लिए । 
पुत्र प्रािप्त् के लिए इसका प्रयोग लगता है डॉक्ट्रीन ऑफ सिग्नेचर (समरूपता का सिद्धांत) से प्रभावित है । सिद्धांत यह कहता है कि कुदरत ने उस चीज पर उस अंग की छाप बना दी है जो उस विशेष अंग के उपचार में काम आती है । जैसे आंखों के उपचार में आंखों जैसी बादाम की गिरी, दिमाग के लिए दिमाग जैसा अखरोट और पूरे शरीर के उपचार के लिए मानवाकृति जिनसेंग की जड़े । यह सिद्धांत संयोगवश कहीं-कहीं काम करता भी नजर आता है । 
जैसे हाल ही में इंटरनेशनल जनरल ऑफ इम्पोटेन्स रिसर्च में सागर विश्वविघालय के औषधि विभाग के डॉ. एन.एस. चौहान एवं वी.के. दीक्षित ने बताया है कि शिवलिंगी के बीजों का सत्व नर चूहों को देने पर उनके वूषण का वजन, शुक्राणु संख्या एवं टेस्टोस्टेरॉन का स्तर बढ़ा । उल्लेखनीय है कि यह आर्युर्वेदिक दवा स्त्री रतिवल्लभ पाक का एक घटक है । मगर जब शिवलिंगी से टेस्टोस्टेरॉन एवं शुक्राणुआेंमें वृद्धि होती है तो फिर स्त्रियों को क्यों दिया जाता है । कहीं यह टोटका तो नहीं है ?
कुल मिलाकर पुत्रजीवक बीज एवं इससे उपजे विवाद से शोध का बढ़ावा मिले तो यह एक शुभ संकेत होगा । 
 विशेष रिपोर्ट 
पूणे का सर्पोद्यान व प्राणि संग्रहालय 
सीताराम गुप्त 
मुला और मुथा नदियों के किनारे बसा पूणे आज से दो-ढाई सौ वर्ष पूर्व पेशवाओं के समय में शनिवारवाडा और पर्वती कें इलाकों तक ही सीमित था लेकिन आज यह एक महानगर की सूरत इख्त़ियार कर चुका है । 
बड़े-बड़े शहरों की तरह पूणे में भी अनेक नये व पुराने भवन, संग्रहालय व स्मारक तथा अनेक शैक्षिक संस्थान हैं । मराठा शासन के अवशेष अनेक पर्वतीय दुर्ग हैं, पेशवाओं द्वारा निर्मित शनिवारवाडा तथा पर्वती देवदेवेश्वर संस्थान है, प्रसिद्ध आगा़खाँ पैलेस है, राजा दिनकर केलकर संग्रहालय है तथा केसरी वाडा में स्थित नवनिर्मित तिलकसंग्रहालय है, खडकवासला में नेशनल डिफेंस एकेडमी है, अयंगर योग संस्थान है तथा अध्यात्म पथ के जिज्ञासुआें के लिए विश्व प्रसिद्ध ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिजॉर्ट है, सिंहगड में फोर्ट के अवशेष व तानाजी की समाधि है व पानशेत में तानाजी जलाशय और बाँध हैं और सबको आकर्षित करने वाला एक चिड़िया घर भी पूणे में है ।
     पूणे महानगर पालिका द्वारा संचालित ''राजीव गाँधी प्राणी संग्रहालय व वन्यप्राणी संशोधन केन्द्र्र`` नामक यह प्राणिउद्यान पूणे रेलवे स्टेशन से दस-बारह किलोमीटर की दूरी पर है । पूणे से सतारा की ओर जाने वाले मुंबई-बैंगलौर नेशनल हाइवे पर बाएँ हाथ पर स्थित है कात्रज झील । इसी कात्रज झील के किनारे पर यह प्राणिउद्यान निर्मित   है । कहने को तो यह चिड़ियाघर है लेकिन यहाँ पर पशु-पक्षियों की संख्या काफी कम है । यहाँ दस-बारह प्रकार के जंगली जानवर तथा कुछ पक्षी ही देखे जा सकते हैं । 
पक्षियों के नाम पर कुछ भारतीय मोर तथा सफेद मोर हैं । सफेद मोर मूल रूप से बर्मा का निवासी है । जानवरों में बंदर, भालू, तेंदुआ, चीतल, सांभर, कृष्णमृग, नीलगाय तथा चौसिंगा के अतिरिक्त जो महत्वपूर्ण प्राणी है वह है पांढरा वाघ अर्थात् सफेद शेर (व्हाइट  टाइगर) । मरा ठी मेंे पांढरा का अर्थ है सफेद । सफेद शेर एक अत्यंत दुर्लभ प्रजाति है जो सिर्फ दुनिया के विभिन्न प्राणिउद्यानों में ही बसती    है । बहुत पहले रीवाँ के  जंगलों से प्राप्त एक सफेद शेर के बच्च्े से इस प्रजाति को विकसित किया गया है ।
     वस्तुत: कुछ साल पहले तक यहाँ इन प्राणियों का अस्तित्व ही नहीं था । यहाँ कात्रज झील के किनारे पर जो स्थान था वह था स्नेक पार्क अथवा सर्पोद्यान । यहाँ तरह-तरह के साँपों के अलावा कुछ अन्य सरीसृप या रेंगने वाले जंतु ही मौजूद थे लेकिन अभी कुछ साल पहले सारसबाग स्थित पेशवे प्राणी उद्यान के सभी जंतुओं को यहाँ स्थानांतरित कर इसे चिड़ियाघर का रूप दे दिया गया । पूणे महानगर पालिका तथा महाराष्ट्र ऊर्जा विकास अभिकरण द्वारा संयुक्त रूप से स्थापित इस ऊर्जा उद्यान में ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतोंयथा जल-ऊर्जा, पवन-ऊर्जा, सौर-ऊर्जा तथा बायोमास द्वारा प्राप्त ऊर्जा के दोहन के विषय में अच्छी जानकारी दी गई है । यहाँ चलने वाली रेलगाड़ी तथा परिसर में लगे स्ट्रीट लैंप सौर-ऊर्जा से ही कार्य करते हैं ।  
     सर्पोद्यान में न केवल विभिन्न प्रजातियों के साँप और दूसरे सरीसृप प्रदर्शित हैं अपितु इन जीवों के विषय में पर्याप्त जानकारी भी यहाँ उपलब्ध कराई गई है । साँप मनुष्य का बहुत अच्छा मित्र है अत: साँप को मारना नहीं चाहिये । साँप मुख्य रूप से चूहों और छिपकलियों जैसे जीवों को अपना आहार बनाते हैं । यदि साँपों की कुछ प्रजातियाँ नष्ट हो जाएं तो चूहों की संख्या इतनी अधिक बढ़ जाए कि जीना दूभर हो जाए । 
     सभी साँप जहरीले नहीं होते । हाँ कुछ साँप ही जहरीले होते हैं । जहरीले साँप का विष ही औषधि है । सर्पविष से न केवल कई जीवनरक्षक दवाओं का निर्माण किया जाता है अपितु साँप के काटे के उपचार के लिए ''एंटी स्नेक वेनम`` भी साँप के विष से ही तैयार किया जाता है । देश में कई स्थानों पर स्नेकपार्क इसीलिए स्थापित किये गए हैं कि उनसे विष प्राप्त कर उपयोगी औषधियों का निर्माण किया जा सके । वहाँ सिर्फ विषैले साँपों को ही पाला जाता है ।
सर्पोद्यान का पहला बाड़ा धामन साँपों का है । एक दूसरे से लिपटे असंख्य साँप यहाँ सूखी टहनियों पर रेंगते रहते हैं । आठ  फूट तक लंबे होने वाले इस साँप को अंग्रेजी में रैट स्नैक (उर्श्रिीलशी र्ाीलिीीर्ी) कहते हैं । यह विष रहित साँप किसानों का सबसे बड़ा मित्र है क्योंकि यह सप्ताह में कम से कम तीन-चार चूहों को अवश्य ही उदरस्थ कर जाता है । साँप चिकनी सतह तथा सीधी दीवारों पर नहीं चल सकता । यहाँ खुले साँपों के बाड़ों में चारों ओर चिकनी ऊँची दीवारें बनाई गई हैं ताकि साँप बाहर न आ सकेंं और दर्शक साँपों को प्राकृतिक परिवेश में देख सकें ।
धामन साँपों के बाड़े के बाद मगरमच्छ, गोह तथा घड़ियालों के कुछ बाड़े हैं । ये सभी सरीसृप छिपकली की जाति के हैं । कुछ छोटे बाड़ों में जालियों के पीछे साँप, कछुवे तथा मगर के छोटे-छोटे बच्च्े रखे गए हैं । इसके बाद एक प्रदर्शनी कक्ष है जिसमें काँच के अलमारीनुमा अपेक्षाकृत छोटे बक्सों में कई प्रकार के साँप प्रदर्शित किये गए हैं । एक साँप है कॉमन वुल्फ स्नेक । दो फूट लंबा यह साँप विष रहित होता है तथा घरों के आसपास रहता है । कच्च्े घरों तथा खेत-खलिहानों में चूहों की तलाश में घुस आने वाला यह साँप खतरनाक नहीं होता । दूसरा साँप एक विषधर है जिसका नाम हैं सॉ स्केल्ड वाइपर (एलहळी उरीळर्रिींीी) । तटीय क्षेत्रों में पाये जाने वाले इस साँप की लंबाई कम होती है । लगभग एक फूट लंबा यह साँप बच्च्े देता है । इन क्षेत्रों में ज्य़ादातर लोग इसी साँप द्वारा काटे जाते हैं । 
     बच्च्े देने वाला एक अन्य साँप है रेड सैण्ड बोआ (एीूु गहिळळि) । तीन फूट लंबा यह सर्प विषैला नहीं होता तथा इसके मुँह और पूँछ का आकार एक जैसा होता है अत: इसे दुमुही भी कहते हैं । एक मान्यता प्रचलित है कि यह साँप छ: महीने एक मुँह की तरफ चलता है तो छ: महीने दूसरे मुँह की तरफ लेकिन ये सच नहीं है। इसका मुँह एक ही होता है और उम्र भर उसी और चलता या रेंगता है । हाँ, एकाध बार ऐसे साँप भी दिखलाई पड़ जाते हैं जिनके दो मुँह पाए जाते हैं लेकिन ये एक ही तरफ होते हैं और ये किसी विकृतिकी वजह से होते हैं, ऐसी कोई प्रजाति नहीं है ।
     सॉ स्केल्ड वाइपर की तरह पिट वाइपर भी अत्यंत विषैला होता है लेकिन इसका रंग हरा होता है । रेड सैण्ड बोआ की तरह कॉमन सैंड बोआ विष रहित होता है और उसी की तरह बच्च्े देता है लेकिन इसकी लंबाई उससे कम होती है जो दो फूट तक होती है। एक अन्य साँप बैंडेड रेसर (आीसूीसिशरि ऋरलळश्रिर्रींीी) । कोबरा की तरह दिखता है लेकिन होता है मात्र तीन फूट का हल्का-सा । यह अण्डे देता है । कॉमन करैत (र्इीसिर्रीीी उरर्शीीश्रर्शीी) एक अत्यंत विषैला सर्प है । स्टील ब्ल्यू रंग के इस साँप पर सफेद धारियाँ हाती हैं । चार फूट लंबा यह साँप अण्डे देता है और रात्रि में अधिक सक्रिय होता है । प्राय: रात्रि में आदमी पर हमला भी कर देता है । पानी के निकट पाये जाने वाले साँप (दशिलिहीिर्हिीी झळीलरींिी) विषैले नहीं होते । ये उथले पानी में पड़े रहते हैं लेकिन मुँह पानी से बाहर निकाले रहते हैं । 
     साँपों के बारे में भ्राँतियाँ बहुत  हैं। एक तो सभी साँप विषैले नहीं  होते । कुछ साँप अण्डे देते हैं तो कुछ बच्च्े । दोनों ही तरह के साँप विषैले या विषहीन हो सकते हैं । कुछ साँप ज़मीन पर रहते हैंतो कुछ पानी में । समुद्रों में भी बड़े-बड़े साँप पाए जाते हैं । साँप के रहने के स्थान से भी उसके विषैले या विषहीन होने का संबंध नहीं है । निष्कर्षत: साँप के  रहने के स्थान और प्रजनन संबंधी विशेषता से उसके विषैले या विषहीन होने का कोई संबंध नहीं । साँप की कुछ प्रजातियाँ, चाहे वे जल में रहें या ज़मीन पर, अण्डे दें या बच्च्े, आबादी से दूर रहें या पास, आकार में छोटी हों या बड़ी, ज़हरीली होती हैंजबकि ज्यादातर विषहीन होती है ।  
     साँप के काटने से कई बार इसलिए मृत्यु हो जाती है कि साँप का भय अधिक होता है चाहे वह विषहीन ही क्यों न हो । साँप के काटने पर रोगी को शीघ्र उपचार प्रदान कर अधिकांश मामलों में रोगी को बचाया जा सकता है ।
'अज्ञेय` अपनी एक कविता में पूछते हैं:
''साँप
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी
तुम्हें नहीं आया
फिर कैसे सीखा डसना
ये विष कहाँ से पाया ?``
संभवत: साँप के मुकाबले आदमी आदमी को अधिक चोट पहुँचा रहा है । पर्यावरण को नष्ट कर पूरी मानव जाति के भविष्य से खिलवाड़ कर रहा है ।
     साँपों के आकार-प्रकार में भी विविधता पाई जाती है । भारत में पाए जाने वाले सबसे छोटे साँप की लंबाई मात्र चार इंच हाती है जिसे ब्लाइंड स्नेक कहा जाता है । दुनिया का सबसे लंबा साँप एक अजगर होता है रेटीक्यूलेटिड पाइथन । ये तीस फूट से भी ज्य़ादा लंबा पाया जाता है। ऐनाकोण्डा से तुलना करके देखिए । फिल्म वाले ऐनाकोण्डा से कुछ कम नहीं लेकिन होता है थोड़ा सुस्त । तभी तो कहते हैं'अजगर करे न चाकरी`। 
अजगर का मुख्य आहार खरगोश तथा हिरन जैसे जानवर होते हैं ।  कभी-कभी यह बड़े जानवरों को सटक जाता है और परेशानी में पड़ जाता है। एक बार एक अजगर ने मगरमच्छ को निगल लिया । मगरमच्छ ने अपनी सख्त चमड़ी और तेज दाँतों से अजगर को भीतर से इतना घायल कर दिया कि  अजगर की मौत हो गई लेकिन बचा मगरमच्छ भी नहीं । अजगर अण्डे देता है । इन सभी प्राणियों को यहाँ के सर्पोद्यान में रखा गया है ।
यहाँ कई प्रकार के कछवे प्रदर्शित हैं । कछवे प्राय: तीन प्रकार के होते हैं : समुद्री कछवे, जमीन पर रहने वाले कछवे तथा ताजा पानी में रहने वाले कछवे । सॉफ्ट शेल्ड टर्टल्स पानी में रहते हैंतथा पर्यावरण की शुद्धि में उनका विशेष योगदान रहता है । जलीय वनस्पतियों के अलावा ये मृतमांस आदि को भी चट कर जाते हैं जिसमें जलीय पर्यावरण साफ बना रहता है । जल में इनकी वही भूमिका होती है जो जमीन पर गिद्धों की । यहाँ पहले एक बाड़े में एक गिद्ध भी था बहुत बूढ़ा सा । अब नहीं है । मराठी के सुप्रसिद्ध नाटककार विजय तेंदुलकर की कृति 'गिधाड़े` याद आ जाती है । 'गिधाड़े` अर्थात् 'गिद्ध`ं।
     यहाँ संग्रहालय या चिड़ियाघर देखने के बाद कई महंवपूर्ण तथ्यों का पता चलता है । एक तो ये कि कोई भी प्राणी चाहे वह हिसंक जंतु हो अथवा विषैला प्राणी मनुष्य का शत्रु नहीं है । साँप हों, कछवे हों अथवा गिद्ध हों सभी मनुष्य के मित्र और पर्यावरण के रक्षक  हैं। मनुष्य का अस्तित्व इन्हीं के अस्तित्व से जुड़ा  है । जीव ही दूसरे जीव का भोजन   है । प्रकृति में जो आहार- शृंखला बनती है वह सभी प्राणियों की संख्या को नियंत्रित करती है तथा प्राणियों और वनस्पित जगत में संतुलन बनाए रखती है । 
आज गिद्धों की घटती संख्या को लेकर पर्यावरणविद् और वैज्ञानिक चिंतित हैं । इस प्रकार के चिड़ियाघर या प्राणिसंग्रहालय हमारा मनोरंजन ही नहीं अपितु ज्ञानवर्धन भी करते हैं तथा साथ ही पर्यावरण के प्रति जागरूक भी करते है । जब भी पूणे आएँ या इस मार्ग से गुजरे कात्रज अवश्य आएँ और इस प्राणि संग्रहालय का अवलोकन अवश्य  करें ।
     यहाँ आकर्षण का एक अन्य केन्द्र है 'झील`। प्राणिसंग्रहालय परिसर के पिछवाड़े में स्थित है कात्रज झील । महाराष्ट्र पर्यटन विकास महामण्डल (एम.टी.डी.सी.) ने यहाँ जलक्रीड़ा केन्द्र स्थापित किया है। यहाँ आप बोटिंग का लुत्फ उठा सकते हैं। जलपान गृह पर नाश्ता भी उपलब्ध रहता हैं । यहाँ स्नेकपार्क है, बोटिंग है, स्नैक्स हैं। स्नेक एंड स्नैक्स । केरल में ओणम के अवसर पर स्नेकबोट रेस आयोजित की जाती हैं। विशेष रूप से अलेप्पी (अलापुषा) में साँप की आकृति की लंबी-लंबी नावें जिनमें कई-कई दर्जन लोग एक साथ बैठकर समुद्र से सटे बैकवाटर्स में नाव दौड़ाते हैं केरल की पहचान बन चुकी हैं । 
     चिड़ियाघर देखने तथा बोटिंग करने के बाद जब आप बाहर निकलते हैं तो यहाँ भी कम चहल-पहल नहीं मिलती । गेट के बाहर दुकानों पर खान-पान की व्यवस्था  है । चाय-कॉफी और सॉफ्टड्रिंक्स के साथ पेश है कांदा-भाजी, पाव वड़ा, मिसल पाव, उसल पाव, भेल तथा पानीपूरी अर्थात् गोलगप्पे । बच्चें के लिए झूले तथा घोड़े की सवारी का भी प्रबंध है । इस प्रकार प्रकृति के साथ-साथ महाराष्ट्रीयन लोक संस्कृति और क्षेत्रीय खान-पान    से भी पर्यटकों का परिचय होता  है । 
पर्यावरण परिक्रमा
गंगा सफाई और उद्योगों का कचरा 
नरेन्द्र मोदी सरकार की गंगा की अविरल एवं निर्मल धारा सुनिश्चित करने की पहल के समक्ष इस नदी के किनारे स्थित ७६४ उद्योग और उनसे निकलने वाले हानिकारक अवशिष्ट बहुत बड़ी चुनौती है । 
सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून के तहत जल संसाधन एवं नदी विकास मंत्रालय के राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण से प्राप्त् जानकारी के अनुसार गंगा नदी के किनारे कुल ७६४ उद्योग स्थत हैं जिनमें ४४४ चमड़ा उद्योग, २७ रासायनिक उद्योग , ६७ चीनी मिले, ३३ शराब उद्योग, २२ खाद्य एवं डेयरी, ६३ कपड़ा एवं रंग उद्योग, ६७ कागज एवं पल्प उद्योग एवं ४१ अन्य उद्योग शामिल हैं । 
विभाग से प्राप्त् जानकारी के अनुसार  उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में गंगा तट पर स्थित इन उद्योगों द्वारा प्रतिदिन ११२.३ करोड़ लीटर जल का उपयोग किया जाता है । इनमें रसायन उद्योग २१ करोड़ लीटर, शराब उद्योग ७.८ करोड़ लीटर, कागज एवं पल्प उद्योग ३०.६ करोड़ लीटर, चीनी उद्योग ३०.४ करोड़ लीटर, चमड़ा उद्योग २.८७ करोड़ लीटर, कपड़ा एवं रंग उद्योग १.४ करोड़ लीटर एवं अन्य उद्योग १६.८ करोड़ लीटर गंगा जल का उपयोग प्रतिदिन कर रहे है । 
विशेषज्ञों का कहना है कि गंगा नदी के तट पर स्थित प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग और गंगा जल के अंधाधुंध दोहन से नदी के अस्तित्व पर खतरा उत्पन्न हो रहा है । गंगा की सफाई हिमालय क्षेत्र में इसके उद्गम से शुरू करे मंदाकिनी, अलकनंदा, भागीरथी एवं अन्य सहायक नदियों में होनी चाहिए । 
साउथ एशियननेटवर्क ऑन डैम, रिवर एंड पीपुल के संयोजक हिमांशु ठक्कर का कहना है कि उत्तराख्ंाड में बड़े पैमाने पर बनने वाली जलविद्युत परियोजनाएं गंगा की अविरल धारा के मार्ग मेंबड़ी बाधा   है । इसके कारण गंगा नदी समाप्त् हो जायेगी क्योंकि नदी पर बांध बनाने की परियोजनाएं इसे  उद्गम पर ही अवस्थित है । आरटीआई के तहत प्राप्त् जानकारी के अनुसार, सरकार ने गंगा की सफाई के लिए राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के तहत कार्य योजना तैयार की है । इसे तहत तीन वर्षोंा की अवधि के लिये अल्पकालिक योजना पांच वर्ष की अवधि के लिये मध्यावधि योजना तथा १० वर्ष या इससे अधिक अवधि के लिये मध्यावधि योजना तथा १० वर्ष या इससे अधिक अवधि के लिये दीर्घावधि योजना शामिल है । मंत्रालय ने बताया कि पहले जिन परियोजनाआें को मंजूरी मिल चुकी है, उन्हें भी इसे कार्य योजना से जोड़ा गया है ।
मंत्रालय से प्राप्त् जानकारी के अनुसार, २०१४-१५ के केन्द्रीय बजट में समन्वित गंगा संरक्षण मिशन नमामि गंगे के लिये २१३७ करोड़ रूपये आवंटित किये गये थे जो अब २०३५ करोड़ रूपये हो गया    है । गंगा की सफाई से जुड़ी परियोजनाआें में इसका अध्ययन करना, अनुसंधान एवं शोध आदि गतिविधियां शामिल है । आरटीआई से प्राप्त् जानकारी के अनुसार, राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकार के तहत विदेशी वित्त पोषण के रूप में विश्व बैंक से ७००० करोड़ रूपये मदद को मंजूरी मिली है जिसका उपयोग गंगा नदी में प्रदूषण को समाप्त् करने के लिये विभिन्न योजनाआें के लिए वर्ष २०१९ तक किया जायेगा । 
इस बीच, नमामि गंगे योजना को अमलीजामा पहनाने के तहत सरकार ने प्रतिष्ठित संगठनों एवं एनजीओ को इस कार्य में जोड़ने का निर्णय किया है ताकि त्योहारों के मौसम और सामान्य दिनों में गंगा में फूल, पत्ते, नारियल, प्लास्टिक एवं ऐसे ही अन्य अवशिष्टों को बहाने पर नियंत्रण किया जा सके । मंत्रालय जिन प्रमुख शहरों एवं धार्मिक स्थलों पर गंगा पर ध्यान केन्द्रित करने पर विचार कर रही है उनमें केदारनाथ, बद्रीनाथ, ऋषिकेश, हरिद्वार, गंगोत्री, यमुनोत्री, मथुरा, वृन्दावन, गढ़मुक्तेश्वर, इलाहाबाद, वाराणसी, वैद्यनाथ धाम, गंगासागर शामिल हैं । 
अब रबड़ तथा स्टील से भी बन सकेंगे डैम
अब रबड़ - ईट, सीमेंट, सरिया आदि सामग्री से बांध के बजाए अब इसका निर्माण रबड़ और स्टील से भी हो सकेगा । बांध विशेषज्ञों का दावा है कि रबड़ और स्टील से बनने वाले बांध की लागत में करीब पांच गुना की कमी आएगी और उसकी उम्र भी अपेक्षाकृत अधिक होगी । 
रबड़ और स्टील से बांध बनाने का पहला प्रयोग उ.प्र. में गोमती नदी में प्रस्तावित है । गोमती नदी को निर्मल और स्वच्छ बनाने के लिए प्रस्तावित योजना के तहत करीब चार मीटर ऊँचा डेम बनाया जायेगा इसकी लागत करीब ७० करोड़ रूपये आने का अनुमान है जबकि सामान्य डैम में इस पर ३५६ करोड़ रूपए से अधिक खर्च हो जाता । सिंचाई मंत्री शिवपाल सिंह यादव ने बताया कि रबड़ और स्टील से बनने वाले डैम की उम्र करीब ४० वर्ष होती है । इसके मरम्मत में भीा आसानी होती है । उन्होंने बताया कि गोमती नदी में इस तरह का पहला डैम जनेश्वर मिश्र पार्क के पास बनाया जाएगा । यह प्रयोग सफल होने पर इसका निर्माण दूसरी नदियों में भी किया जाएगा । 
श्री यादव ने बताया कि इसमें प्रति डैम करीब ढाई सौ करोड़ रूपये से अधिक की बचत होगी । रीवर फ्रंट बनाने के लिए गोमती नदी की संास्कृतिक विरासत से छेड़छाड़ नहीं की जाएगी । उन्होंने बताया कि रीवर फ्रंट योजना के तहत गोमती नदी के दोनों किनारों को खूबसूरत बनाया जाएगा और हरियाली के साथ ही साइकिल ट्रैक का भी निर्माण कराया जाएगा । श्री यादव ने बताया कि आगरा में शुद्ध पेयजल आपूर्ति के लिए यमुना नदी में भी रबड़ और स्टील का डैम बनाने की योजना    है । आगरा में यमुना के अपर स्ट्रीम और लोवर स्ट्रीम में इस डैम को बनाने पर अध्ययन किया जा रहा    है । यदि सब कुछ सही रहा तो जल्द ही इस विधि से आगरा को शुद्ध पेयजल उपलब्ध हो सकेगा । इस डैम से नदी में पानी रोकने से बरसात में यह पानी ओवरफ्लो होकर नदी में चला  जाएगा । 
म.प्र. के कुछ शहरों में पोलिथिन पर रोक 
मध्यप्रदेश में धार्मिक और पर्यटन महत्व वाले शहरों में जुलाई से प्लास्टिक कैरीबैग पर प्रतिबंध लगाया है । यदि कोई व्यापारी पॉलीथिन बेचता है तो उस पर कानूनी कार्यवाही की जाएगी । 
इस संबंध में नगरीय विकास एवं पर्यावरण विभाग के प्रमुख सचिव मलय श्रीवास्तव ने एक दर्जन जिलों के कलेक्टरों को आदेश जारी किए हैं । 
धार्मिक एवं पर्यटन महत्व के शहरों में उज्जैन, ओरछा, महेश्वर, आेंकारेश्वर, अमरकंटक, मैहर, पचमढ़ी, मांडू, चित्रकूट, मण्डलेश्वर, दतिया व सांची शामिल है । राज्य सरकार द्वारा जारी आदेश में कहा गया है कि पॉलीथीन बैग पर्यावरण के लिए नुकसानदायक है । इसके उपयोग से मानव जीवन के स्वास्थ्य पर भी इसका प्रतिकूल असर होने से कई तरह की बीमारियां होती है । वहींपशु भी पॉलीथिन में रखी सामग्री खा लेते हैं, जिससे उनके जीवन पर संकट बन जाता है । इन सबको ध्यान में रखते हुए इन शहरों में पॉलीथिन को प्रभावी तरीके सेबेचने पर प्रतिबंध लगाएं । 
आदेश में साफ है कि कलेक्टर धारा १४४ का उपयोग कर अवैध तरीके से पॉलीथिन बैग बेचने वालोंपर कार्यवाही करें जिससे इन शहरों में पूरी तरह से पॉलीथिन बैग को प्रतिबंधित किया जा सके । 
धार्मिक एवं पर्यटन महत्व वाले शहरों में पॉलीथिन पर पूरी तरह से रोक लगाए जाने के बाद राज्य सरकार एक जनवरी २०१६ से पूरे प्रदेश में प्रतिबंध लगाया जाएगा । उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने नगरीय विकास एवं पर्यावरण विभाग की समीक्षा बैठक में पॉलीथिन बैग के उपयोग पर रोक लगाने के निर्देश दिए थे । इसी के चलते सरकार ने यह पहला आदेश जारी किया है । 
मरीजों को एटीएम से मिलेगी दवाइयां
मध्यप्रदेश में अभी तक एटीएम से सिर्फ पैसा निकलता था, अब दवाइयां भी निकलेगी । टेलीमेडिसिन के जरिए अब दूर-दराज के क्षेत्रों में दवाइयां उपलब्ध कराने केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय व राज्य सरकार मिलकर एटीएम (एनी टाइम मेडिसिन) मशीनें लगाने जा रही है । नजदीकी मेडिकल कॉलेज या बड़े अस्पताल में बैठे विशेषज्ञ डॉक्टर जैसे ही दवा प्रिस्क्राइव करेंगे एटीएम मशीन से वह दवा निकल आएगी । मरीज इन दवाइयों को लेकर डॉक्टर के बताए तरीके से सेवन कर    सकेंगे । 
एटीएम से दवाइयों की स्कीम पायलेट प्रोजेक्ट के तौर पर जल्द ही बैतूल के पांच प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में लगाई जाएंगी । इसके बाद पूरे प्रदेश में इन्हें लगाया जाएगा । यह काम नेशनल हेल्थ मिशन के अधीन आने वाले नेशनल हेल्थ सिस्टम रिसोर्स सेंटर द्वारा किया जा रहा है । अगले सप्तह इन मशीनें को स्वास्थ्य संचालनालय मेंे डिमांस्ट्रेशन के बाद इन्हें बैतूल जिले में लगाया जाएगा । एटीएम के संचालन के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के कम्पाउंडर व एएनएम को प्रशिक्षण दिया जा रहा है । 
एटीएम मेंजरूरी दवाइयां प्री-लोड रहेगी । डॉक्टर मरीज की बीमारी को सुनकर प्रिस्कृप्शन देगा और मशीन को कमांड देगा । इसके बाद जितने दिन की दवाइयां लिखी गई होगी, वह मशीन से बाहर निकल जाएंगी । दवाइयां तुरन्त मिलेगी, जिसके बाद मरीज डॉक्टर से दवाइयां खाने का तरीका पूछ सकेगा । सरकार कई साल से टेलीमेडिसिन सेवा संचालित कर रही है । लेकिन इसमें सबसे बड़ी समस्या दूर बैठे डॉक्टर द्वारा दवाइयों के प्रिस्क्रिप्शन के बाद आती है ।
कृषि जगत
फसल बीमा बन सकता है तारणहार
राजकुमार कुम्भज
मौसम की बढ़ती प्रतिकूलता के चलते किसान को आर्थिक परंतु रूप से दिवालिया होने से बचाने में फसल बीमा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है । फसल बीमा के  अब तक के अनुभव बहुत सकारात्मक नहीं रहे हैं । उम्मीद की जा सकती है कि केन्द्र की नई सरकार इस दिशा में ठोस कदम उठाएगी ।
क्या इस देश के किसानों को प्राकृतिक आपदा से पहली बार सामना करना पड़ रहा है ? क्या पहली बार प्राकृतिक आपदा से किसानों की फसल बर्बाद हुई है ? क्या पहली बार सूखे, बाढ़ आंधी, तूफान बेमौसम बारिश, ओले आदि ने भारतीय किसान की कमर तोड़ी है ? ऐसा अतीत में होता रहा है और बहुत संभव है कि आगे भी ऐसा ही होता रहे । यह सब प्रकृतिजन्य घटनाक्रम हैं और इन्हें रोक पाना संभव भी नहीं है । किन्तु कुछ मनुष्यजन्य उपायों से किसानों को होने वाले नुकसान को किसी हद तक कम किया जा सके इस दिशा में फसल बीमा की सुविधा एक बेहतर उपाय हो सकता है ।
भारतीय किसान के समक्ष मौसम और मूल्य दो ऐसे प्रमुख जोखिम हैं, जिनसे हमारी कृषि व्यवस्था दशकों से मुसीबतजदा रहती आई है । अच्छा मौसम रहने पर जब अच्छी फसल आ जाती है तो किसान को अच्छा मूल्य नहीं मिल पाता है, मौसम ने फसल बिगाड़ दी तो भी मार किसान पर ही पड़ती है । मौसम की तबाही और मूल्य की उठापटक से किसान का जीवन-चक्र अनिश्चितताओं के चक्रव्यूह में फस जाता है । तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो उद्योगों के बजाए किसानों की सुरक्षा का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है । यह आश्चर्यजनक है कि अभी भारत में बीमा सुविधा, बीस फीसदी से भी कम किसान तक ही पहुँच पाती है ।
फसल बर्बाद होने के बाद बीमा की रकम प्राप्त करने में किसान को कितनी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है, इसका अंदाजा शहरी लोग नहीं लगा   सकते । बिहार के पटना जिले में मसूर की खेती करने वाले किसानों की फसल वर्ष २०१३ में खराब हो गई थी उन्हें उसका मुआवजा अभी तक नहीं मिला है । अब कहा जा रहा है कि बिहार के किसानों को दो सीजन की फसलों के नुकसान की बीमित राशि शीघ्र ही दे दी जाएगी । फसल बीमा दावा निपटान की इस धीमी गति से परेशान किसान आखिर अपनी फसल का बीमा करवाने की इच्छा क्यों करे ?
केन्द्र सरकार ने बीमा कंपनियों को बेमौसम  बारिश और ओलावृष्टि से बर्बाद हुई फसलों के बीमा दावों का निपटारा ४५ दिन में करने का जो निर्देश दिया था, वह भी कारगार साबित नहीं हो पा रहा है । अगर बीमा कंपनियों की तरफ बीमित फसल का क्लेम अगर तुरंत नहीं तो कम से कम केन्द्र सरकार द्वारा तयशुदा समयावधि में भी मिल जाए तो भी किसान थोड़ी राहत महसूस कर सकता है । 
बीमा कंपनियों द्वारा लेटलतीफी और क्लेम देने में जिस तरह की अडंगेबाजी की जाती है वह भी एक सर्वविदित सच्चई है । उनकी दिलचस्पी किसानों की बीमा राशि तक हड़प जाने में ज्यादा पाई गई   है । ऐसे में किसानों के लिए फसल बीमा का क्या औचित्य रह जाता है जहां दो दो सीजन गुजर जाने के बाद भी क्लेम का भुगतान नहीं मिल पाता हो ?
शायद इसी वजह सेे केन्द्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने पिछले वर्ष संशोधित राष्ट्रीय कृषि आय बीमा योजना लागू करने की घोषणा की  थी । यह एक बाजार आधारित योजना है । इस योजना को निजी क्षेत्र की सहभागिता से लागू किया जाना है । मौजूदा कृषि बीमा योजनाओं की अपेक्षा इस योजना से फसल बीमा का निपटारा समयबद्ध तरीके से  होगा । संशोधित राष्ट्रीय कृषि आय बीमा योजना और मौसम आधारित कृषि बीमा योजना इन दोनों ही योजनाओं को कंंपोनेंट स्कीम के  तौर पर लाया गया है । 
कंपोनेंट स्कीम जाहिर है कि केन्द्र और राज्य सरकार की सहभागिता पर आधारित होती है । इससे किसानों की उपज से होने वाली आय का पचास फीसदी बीमा के तौर पर मिल सकेगा । किन्तु राज्यों ने इस नई कृषि आय बीमा योजना का विरोध शुरू कर दिया    है । हालांकि केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह कह चुके हैं कि किसानों के  लिए कृषि आमदनी बीमा योजना भी जल्द शुरू की जाएगी । इधर केन्द्रीय खाद्य विकास मंत्री राम विलास पासवान ने भी पीड़ित किसानों के  लिए राज्य सरकारों को धन उपलब्ध करवाने का भरोसा दिया है । किन्तु बीमा कंपनियों की ओर से अभी तक दावों का भुगतान नहीं हो पाने से किसान बुरी तरह से हताश और निराश हैं । 
इस सबके बावजूद भारतीय किसान अब भी खेती को ही प्राथमिकता देते हैं  । आजादी के  बाद से ही देश की कोई भी सरकार फसल मूल्यों को काबू में नहीं रख पाई है । इससे एक बात तो बिलकुल ही साफ हो जाती है किबाजार की ताकतों के विरुद्ध सरकार का हस्तक्षेप नितांत निरर्थक साबित होता रहा है । फसलों का नुकसान होने पर किसानों को राहत दिए जाने के जो मानदंड हैं वे भी अंग्रेजों के जमाने के ही चल रहे हैं  ।  
वर्तमान परिस्थितियों में यह मानदंड निहायत हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण प्रतीत होते है। इनकी बानगी आज भी १००, ५०, और ७५ रुपये के चेक से मिल जाती है। किसी भी रोते हुए किसान को जब राहत के नाम इतनी राशि का चेक मिलता है तो सब हंसने लगते हैं  । यह हंसी किसी भी राज्य सरकार के लिए शर्म का विषय होना चाहिए । लेकिन ऐसा नहीं होता और किसान खुदकुशी कर बैठता है । 
फसल की बर्बादी के साथ ही साथ किसान की गरीबी भी उसका सामान्य जीवन अनजानी अश्चितताओं से भर जाती है । यह भी सत्य है कि ऐसे में भारत का गरीब किसान फसल बीमा की मामूली प्रीमियम भी नहीं भर पाता  है । देश के अधिकांश किसान इसी श्रेणी में आते हैं । हमारे देश के सत्तर फीसदी किसान आज भी अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह से खेती किसानी पर ही अश्रित रहते हैं अर्थात इस बिंदु का एक आशय यह हुआ कि देश कि एक बहुत बड़ी आबादी अनायास ही अनिश्चितताओं से भरा जीवन जीने को विवश है । 
अगर कोई बीमा कम्पनी इन किसानों के लिए कम से कम प्रीमियम वाली कोई सामूहिक बीमा योजना प्रस्तुत करे तो कंपनी को बेहतर व्यवसाय मिल सकता है । एक अन्य सार्थक उपाय यह भी हो सकता है कि किसानांे के लिए फसल बीमा प्रीमियम का भुगतान खुद सरकार की ओर से कर दिया जाए । वर्तमान समय में सिर्फ वही राजनीतिक दल सत्ता में बना रह सकता है जो किसानों की समस्याओं का समाधान करने में साहस के साथ आगे बढ़े । आश्चर्य यह नहीं है कि हम ग्रामीण रोजगार सुरक्षा कार्यक्रम पर क्यों अरबों रुपये खर्च देते हैं  आश्चर्य यह है कि इतनी ही रकम हम फसल बीमा पर क्यों नहीं खर्च कर पाते ?
राहत की बात फिलहाल इतनी ही है कि सरकार ने पीड़ित किसानों से अगले तीन बरस तक कर्ज की किस्त और ब्याज वसूली पर रोक लगा दी हैं । इतना ही नहीं रबी फसल खराब हो जाने के बावजूद किसान खरीफ फसल के लिए नया कर्ज ले संकेगे और पुराने कर्ज का भुगतान सिर्फ चार फीसदी ब्याज पर कर सकेंगे । नई राष्ट्रीय कृषि आय फसल बीमा योजना के अंतर्गत यह व्यवस्था की जा रही है कि फसल बीमा प्रीमियम केन्द्र और राज्य सरकार मिलकर ५०-५० फीसदी वहन करेगी । इसमंे उपज की पैदावार की बजाय आय की गांरटी होगी । इससे किसान को उपज से होने वाली आय की ५० फीसदी राशि दावे बतौर मिल सकेगी । 
आवश्यकता इस बात की भी है कि किसान फसल बीमा के साथ ही साथ मौसम की मार से बचाए जाने और बाजार आधारित मूल्य मिलने की गारंटी भी हो । हमारे राजनीतिक दलों को वोट से अधिक कृषि संकट की फिक्र होना चाहिए ।
ज्ञान-विज्ञान
समुद्र में २ किलोमीटर की गहराई पर जीवन
पिछले दिनों अमेरिका में वॉशिंगटन प्रांत के तट से कुछ दूरी पर स्थित जुआन डी फुका रिज मेंसमुद्र के अंदर करीब २ किलोमीटर की गहराई पर फॉल्टी टॉवर संकुल नामक एक संरचना पाई गई है । 
इन्हें ब्लैक स्मोकर्स कहत हैं और ये अति-तप्त् और खनिज बहुल पानी उगलते रहते   हैं । यह गर्म पदार्थ इनके नीचे स्थित गर्म सुराखों में से निकलता है । यह तस्वीर एक पनडुब्बी उपकरण द्वारा खींची गई थी । इस उपकरण का संचालन रिमोट विधि से वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के एक दल द्वारा किया जाता है । इस परियोजना का मकसद समुद्र की गहराइयों में पर्यावरण का विवरण तैयार करना है। 
फॉल्टी टॉवर्स संकुल अपनी तरह का सबसे बड़ा संकुल है । इसमें १४ ऐसी चिमनियां हैं, जिनमें से कुछ तो २२ मीटर ऊंची है । तस्वीर के बाएं वाले हिस्से मेंआपको एक लट्ठा पड़ा दिख रहा है । यह वास्तव में किसी तने का हिस्सा नहीं बल्कि एक धराशाई हो चुकी चिमनी है । 
ऐसी समुद्री सोते आजकल खनन कार्य के लिए काफी लोकप्रिय हो चले हैं क्योंकि इनमें उच्च् श्रेणी के धातु अयस्क मिलते हैं । आश्चर्य की बात है कि ये चिमनियां जो पानी उगलती हैं उसका तापमान १०० डिग्री सेल्सियस तक हो सकता है मगर यहां भी कुछ असाधारण जीव पाए गए हैं । पृथ्वी पर जीवन की शुरूआत ऐसे ही स्थलों पर हुई थी । 
गर्माता हिंद महासागर मानसून को कमजोर करता है
पूणे स्थित भारतीय कटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकोंद्वारा किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि हिंद महासागर के तापमान मेंहो रही वृद्धि मानसून के कमजोर पड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है । 
संस्थान के वैज्ञानिक रॉक्सी मैथ्यू कोल और उने साथियोंने पिछले १०० साल से ज्यादा के मौसम वैज्ञानिक आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर यह बताया है कि जब हिंद महासागर का तापमान बढ़ता है तो जमीन व समुद्र के बीच तापमानमेंअंतर कम हो जाता जिसकी वजह से मानसून का प्रवाह धीमा पड़ जाता है और दक्षिण एशिया में कम बारिश होती है । 
     ऐसा माना जाता है कि गर्मियों से समुद्र और जमीन के बीच तापमान में अंतर समुद्र सतह का तापमान भारतीय मानसून की प्रमुख चालक शक्तियां है । जहां समुद्र और जमीन के बीच तापमान में अंतर की वजह से हवाएं उपमहाद्वीप की ओर बहती हैं, वहींं समुद्र का बढ़ता तापमान पानी के वाष्पीकरण को बढ़ावा देकर हवा में नमी की मात्रा को बढ़ाता है । तापमान अधिक हो तो हवा की नमी धारण करने की क्षमता भी बढ़ती है । कोल का कहना है सामान्य परिस्थिति में समुद्र और जमीन के बीच तापमान के अंतर और हवा में अधिक नमी होने से मानसूनी बरसात में वृद्धि होने की उम्मीद की जाती है । 
मगर पुणे संस्थान के वैज्ञानिकोंका अध्ययन दर्शाता है कि मध्य दक्षिणी एशिया-पाकिस्तन के दक्षिणी हिस्से से लेकर मध्य भारत और बांग्लादेश - में मानसूनी बरसात कम हो रही  है । मध्य भारत में हो रही कमी सबसे उल्लेखनीय   है। पिछली सदी में यहां बारिश की मात्रा में १०-२० प्रतिशत तक की कमी आई है । 
अध्ययन के मुताबिक बारिश मेंइस गिरावट में सबसे ज्यादा योगदान हिंद महासागर की सतह के तापमान में हो रही वृद्धि का नजर आता है । खास तौर से हिंद महासागर के पश्चिमी हिस्से में सतह का औसत तापमान पिछली सदी में १.२ डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है जो अन्य कटिबंधीय महासागरों से कहीं अधिक है । 
शोधकर्ताआें के मुताबिक जब समुद्र गर्म होते हैं तो भूमध्य रेखा पर स्थित समुद्रों में वाष्पीकरण बढ़ता है और गर्म नमी से भरी हवाएं ऊपर उठती हैं । इसका परिणाम यह होता है कि समुद्र से जमीन की ओर हवा के प्रवाह में बाधा पहुंचती है । इसका मतलब यह है कि अधिक से अधिक मानसूनी बारिश समुद्रों के ऊपर हो रही है और भारतीय महाद्वीप इसका खामियाजा भुगत रहा हे । 
इस अध्ययन से एक सवाल उठता है । पृथ्वी का तापमान तो बढ़ता जा रहा है और जलवायु के मॉडल्स बता रहे हैं कि हिंद महासागर का तापमान भी बढ़ता जाएगा । तो क्या मानसूनी बारिश में और कमी आएगी ? कोल और उनके साथियों का कहना है कि इस सवाल का जवाब तत्काल देना मुश्किल है क्योंकि मानसून एक जटिल प्रक्रिया है और समुद्र का बढ़ता तापमान एकामात्र कारक  नहीं हैं । 
दुनिया का पहला जलवायु परिवर्तन मुकदमा
पिछले दिनों नीदरलैण्ड सरकार जलवायु परिवर्तन सम्बंधी एक महत्वपूर्ण मुकदमा हार गई । यह मुकदमा सरकार द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन सम्बंधी योजना को लेकर एक पर्यावरण समूह ने दायर किया था । ग्रीनहाउस गैसें वे गैसें हैं जो धरती के तापमान को बढ़ाने में योगदान देती हैं और कई अंतर्राष्ट्रीय संधियों में इन गैसों का उत्सर्जन कम करने पर सहमति हुई है । 
पर्यावरण समूह अर्जेंडा ने ९०० नागरिकों की ओर से नीदरलैण्ड सरकार के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया था । मुकदमे की विषयवस्तु यह थी कि सरकार ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के जो प्रयास किए हैं वे निहायत नाकाफी हैं । लिहाजा सरकार जानबूझकर अपने नागरिकों को खतरनाक परिस्थिति में धकेल रही है । 
अर्जेंाडा ने हेग स्थित अदालत से अनुरोध किया था कि वह यह घोषित करे कि धरती के तापमान में २ डिग्री सेल्सियस से ज्यादा वृद्धि दुनिया भर के नागरिकों के मानव अधिकार का उल्लघंन होगा । सराकारें की समिति का मत है कि सरकारों को अपने-अपने देश में वर्ष २०२० तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन इतना कम करना होगा कि वह १९९० के स्तर से २५ से ४० प्रतिशत तक कम हो जाए । ऐसा करने पर ही इस बात की ५० प्रतिशत संभावना बनेगी कि धरती के तापमान में वृद्धि २ डिग्री सेल्सियस की सीमा में रहेगी । मगर युरोपीय संघ के देशोंने ४० प्रतिशत कटौती करने की सीमा २०३० तक रखी है । 
इस मुकदमे की सुनवाई कर रहे तीन न्यायाधीशों ने याचिकाकर्ताआें से सहमति जताई और निर्णय दिया कि २०२० तक उत्सर्जन के स्तर को १९९० के स्तर से मात्र १४-१७ प्रतिशत कम करना गैर-कानूनी है । फैसले में कहा गया है कि सरकार को इस दलील की आड़ में बचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए की वैश्विक जलवायु समस्या का समाधान मात्र नीदरलैण्ड के प्रयासों से संभव नहीं है । अदालत ने नेदरलैण्ड सरकार को यह आदेश भी दिया है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष २०२० तक कम  से कम २५ प्रतिशत की कमी   करे । 
कई कानून विशेषज्ञ मान रहे हैं कि अर्जेंाडा की जीत का विश्वव्यापी असर होगा और कई देशों में ऐसे मुकदमे दायर होने की संभावना है । बेल्जियम का एक पर्यावरण समूह इसकी तैयारी भी कर रहा है । लंदन स्थित कानून कंपनी क्लाएंट अर्थ के जेम्स एरंडेल का मत है कि इस मुकदमे का मुख्य मुद्दा यह है कि राष्ट्र संघ में जारी बातचीत का परिणाम जो भी निकले, सरकारें का कानूनी दायित्व है कि वे उत्सर्जन में कमी लाएं । इस संदर्भ में कुछ कानून विशेषज्ञों ने ओस्लो सिद्धांतों का प्रकाशन किया है जिनमें जलवायु की रक्षा को सरकारों का कानूनी दायित्व माना गया है  ।