रविवार, 18 सितंबर 2011

संपादकीय

क्या सूरज से उठेगा सौर तूफान

सौरमंडल के मुखिया सूर्य की तेजी से बढ़ती गतिविधियां (सौर विकिरण तूफान) संचार उपग्रहों के लिए काल बन सकती हैं । सूर्य की गतिविधियां अभी अपेक्षाकृत काफी निष्क्रिय स्थिति में है, लेकिन वैज्ञानिक अनुमान लगा रहे है कि वर्ष २०१३-१४ के दौरान सौर गतिविधियां चरम स्थिति में होगी ।
खगोलशास्त्री की भाषा में इस स्थिति को श्रेणी पंाच (एक्स क्लास) सौर तूफान
कहा जाता है । इसी अवधि के दौरान भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) सूर्य की गतिविधियों के अध्ययन के लिए आदित्य-१ का प्रक्षेपण करेगा । भारतीय तारा भौतिकी संस्थान के पूर्व प्राध्यापक प्रो. रमेशचन्द्र कपूर का कहना है कि सूर्य की गतिविधियां में बदलाव एक सामान्य खगोलीय घटना है । सूर्य अपने कक्षा की परिक्रमा के दौरान एक बार काफी नगण्य गतिविधि की स्थिति में होता है तो एक बार अत्यधिक गतिविधि की स्थिति में । लेकिन, सौर तूफान जैसी स्थिति संचार उपग्रहों को नुकसान पहुंचा सकती है । ऐसे में संचार उपग्रह शार्ट सर्किट के शिकार हो सकते है, जिससे संचार और टीवी प्रसारण प्रभावित हो सकता है । वर्ष १८५९ और १९२१ में ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई थी, तब दुनिया के कई हिस्सों में टेलीग्राफ की तारों को नुकसान पहुंचा था । हर ११ वर्ष बाद सूर्य की गतिविधियां चरम पर पहुंच जाती हैं । इस दौरान सूर्य से काफी मात्रा में ऐसे पदार्थो का उत्सर्जन होता है, जो संचार उपग्रहों को नुकसान पहुंचा सकते हैं ।
हमारे देश में उपग्रहों की निगरानी कर्नाटक के हासन और मध्यप्रदेश के भोपाल स्थित मास्टर कंट्रोल फैसिलिटी केन्द्र से की जाती है अंतरिक्ष में खराब मौसम और अत्यधिक विकिरण के कारण कई बार उपग्रहों का नियंत्रण कक्ष से संपर्क टूट जाता है । वैज्ञानिकों की टीम हर पल इन उपग्रहों पर निगरानी रखती है, जैसे ही किसी उपग्रह का फैसिलिटी से संपर्क टूटता है अथवा अन्य कोई समस्या आती है, खतरे की घंटी बज उठती है । इसरो भी सौर तूफान जैसी स्थिति में संचार उपग्रहों की सुरक्षा को लेकर योजनाएं बना रहा है । सौर तूफान जैसी स्थिति के अलावा आम दिनों में भी अंतरिक्ष विज्ञानियों को उपग्रह की पल-पल की गतिविधियों की निगरानी रखनी पड़ती है ।




प्रसंगवश

मध्यप्रदेश में चीते का पुनरागमन
मध्यप्रदेश के राजस्थान से सटे श्योपुर जिले के कूनो-पालपुर व सागर जिले के नौरादेही अभयारण्य में विदेशी चीते के आगमन का प्रकल्प अच्छी खबर हो सकता है, बशर्ते यह प्राकृतिक पर्यावास उसे रास आ जाए तथा कृत्रिम पर्यावरण में उसका प्रजनन व बाद को जंगल में छोड़ने का प्रयोग सफल हो जाए । १९५२ में इंडियन बोर्ड आफ वाइल्ड लाइफ ने जिन १३ लुप्त्प्राय वन्य प्रजातियों की सूची जारी की थी, उनमें चीता (एसीनोनिक्स) शीर्ष पर था । चीता जिसका उल्लेख संस्कृत साहित्य में चित्रक के नाम से पाया जाता है, व्याघ्र (बाघ) और सिंह (लॉयन) से एकदम पृथक प्रजाति के रूप में वर्णित है ।
कैप्टेन जे. फारसामथ ने १८५८ से १८६५ तक म.प्र. के वनों का व्यापक भ्रमण करके द हाइलैड्स ऑफ सेन्ट्रल इंडिया नामक अपनी पुस्तक में जिस हंटिंग लैपर्ड का उल्लेख किया है वह तेंदुआ न होकर वास्तव में चीता ही है, क्योंकि उन्होनें १८८९ में पहली बार प्रकाशित इसी पुस्तक में लिख है कि हंटिंग लैपर्ड सामान्य लैपर्ड या पेंथर की भांति बस्तियों के पास झांकता तक नहीं है । १९०७ के सीई ल्यूनआई द्वारा संपादित रतलाम स्टेट गजेटियर में वहां चीता पाये जाने का उल्लेख है जिसने नरभक्षी हो जाने के कारण रियासत के बाजना क्षेत्र में १५ आदिवासियों को मार दिया था ।
चीते स्वभाव से तेज धावक होते हैं । अत: उन्हें घास के झाड़ी मिश्रित विशाल चरागाह चाहिए जिनमें काले हिरन, चिंकारे और चीतल हों । अब खेती व बस्तियों के कारण ऐसे विशाल प्राकृतिक पर्र्यावास कहीं भी उपलब्ध नहीं है । कोल्हापुर नरेश का अनुभव यह बताता था कि पालतू चीते अधिकाशंत: प्रजनन नहीं करते । कूनो- पालनपुर व नौरादेही में चीतों के आगमन, प्रजनन और संरक्षण को लेकर वही प्रश्न है जो कोल्हापुर नरेश ने वन्यप्राणीविद् गी के साथ चर्चा में उठाये थे । प्रयोगधर्मी वन्यप्राणी प्रबंध चीतों के पुनरागमन के प्रकल्प में सहायक हो सकते है । यक्ष प्रश्न यह है कि क्या इस तेजकदम बंजारा प्रजाति के लिये बुनियादी रूप से आवश्यक विशाल चरागाह और छोटे वन्य प्राणियों की शिकार हमारे यहां है ? हमारे वन्यप्राणी प्रबंध के बारे में स्वयं वन्यप्राणियों की क्या राय है, उसे लेकर निम्नांकित शेर सटीक बैठता है -
मजा तब था जो वे सुनते मुझी से दास्तां मेरी ।
कहां से लाएगा कोई बयां मेरी जुबां मेरी ।।
घनश्याम सक्सेना, भोपाल

शनिवार, 17 सितंबर 2011

सामयिक

मृग मरीचिका है, भूमि अधिग्रहण अधिनियम
राकेश कुमार मालवीय

प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून तो अंग्रेजों द्वारा सन् १८९४ में बनाए गए कानून से भी ज्यादा अमानवीय हैं । इस नए अधिनियम के अन्तर्गत इस बात का पुरजोर प्रावधान किया गया है कि निजी उद्यमियों को भूमि अधिग्रहण में किसी भी तरह की कोई परेशानी न आए । दूसरे शब्दों में कहे तो यह शहद के मुलम्मे मेंचढ़ी ऐसी कड़वी गोली है जिसे न तो निगला जा सकता है और न ही उगला जा सकता है ।
आजादी के बाद से भारत में अब तक सा़़ढे तीन हजार परियोजनाआें के नाम पर लगभग दस करोड़ लोगों को विस्थापित किया जा चुका है । लेकिन सरकार को अब होश आया है कि विस्थापितों की जीविका की क्षति, पुनर्वास-पुनर्स्थापन एवं मुआवजा उपलब्ध कराने हेतु एक राष्ट्रीय कानून का अभाव है । यानि इतने सालों के अत्याचार, अन्याय पर सरकार खुद अपनी ही मुहर लगाती रही है । तमाम जनसंगठन कई सालों से इस सवाल को उठाते आ रहे थे कि लोगों को उनकी जमीन और आजीविका से बेदखल करने में तो तमाम सरकारें कोई कोताही नहीं बरतती हैं । लेकिन जब बात उनके हकों की, आजीविका की, बेहतर पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना की आती है तो वहां सरकारों ने कन्नी ही काटी है । प्रशासनिक तंत्र भी कम नहीं है जिसने खैरात की मात्रा जैसी बांटी गई सुविधाआें में भी अपना हिस्सा नहीं छोड़ा है ।
इनके कई उदाहरण है कि किस तरह मध्यप्रदेश में सैकड़ों सालों पहले बसे बाईस हजार की आबादी वाले हरसूद शहर को एक बंजर जमीन पर बसाया गया । कैसे तवा बांध के विस्थापितों से उनकी ही जमीन पर बनाए गए बांध से उनका मछली पकड़ने का हक भी छीन लिया गया । एक उदाहरण यह भी है कि पहले बरगी बांध से विस्थापित हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी का एक झुनझुना पकड़ाया गया । बांध बनने के तीन दशक बाद अब तक भी प्रत्येक विस्थापित परिवार को तो क्या एक परिवार को भी नौकरी नहीं मिल सकी है ।
दरअसल जिस कानून के निर्माण का आधार और मंशा ही संसाधनों को छीनने और उनका अपने हक में दोहन करने की हो, उससे और क्या अपेक्षा की जा सकती है । लेकिन दुखद तो यह है कि सन् १८९४ में बने ऐसे कानून को आजादी के इतने सालों बाद तक भी ढोया गया । इस कानून में अधिग्रहण की बात तो थी, लेकिन बेहतर पुनर्वास और पुनर्स्थापन का सिरे से अभाव था । यही कारण था कि केवल मध्यप्रदेश में ही नहीं बल्कि भारत के सभी हिस्सों में भूमि अधिग्रहण अधिनियम विकास का नहीं बल्कि विनाश का प्रतीक बनकर आया ।
सरकार अब एक नए कानून का झुनझुना पकड़ाना चाहती है । इस संबंध में देश में कोई राष्ट्रीय कानून नहीं होने से तमाम व्यवस्थाआें ने अपने-अपने कारणों से लोगों से उनकी जमीन छीनने का काम किया है । देश भर में अब तक १८ कानूनों के जरिए भूमि अधिग्रहण किया जाता रहा है । यह बात भी सामने आई है कि एक बार जमीन ले लेने के बाद यह देश उनके इस बलिदान के बदले उनको एक सम्मानपूर्वक जिंदगी देने में विफल रहा है ।
प्रस्तावित कानून में भी जितना जोर जमीन के अधिग्रहण पर है उतना ही जोर प्रभावितों के पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन पर भी होनी चाहिए । लेकिन उस नजरिए से कानून में कोई भी ठोस प्रबंध दिखाई नहीं देते हैं । कानून में मुआवजा, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन के प्रावधान सैद्धांतिक रूप से तो हैं पर उन्हेंं जमीन पर उतारने की प्रक्रियाएं स्पष्ट नहीं हैं ।
आजादी के बाद से अब तक हुए विस्थापन के आंकड़े हमें बताते हैं कि सर्वाधिक विस्थापन आदिवासियों का हुआ है । नर्मदा नदी पर बन रहे सरदार सरोवर बांध से दो लाख लोग प्रभावित हुए, इनमें से ५७ प्रतिशत आदिवासी हैं। महेश्वर बांध की जद में भी बीस हजार लोगों की जिंदगी आई, इनमें साठ प्रतिशत आदिवासी हैं । आदिवासी समुदाय का प्रकृति के साथ एक अटूट नाता है । विस्थापन के बाद उनके सामने पुनर्स्थापित होने की चुनौती सबसे ज्यादा होती है । जाहिर है आदिवासी, उपेक्षित और वंचित समुदाय के लिए इस प्रस्तावित अधिनियम में सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए लेकिन इस मसौदे में इसी बिन्दु पर सबसे बड़ा अंतर दिखाई देता है ।
मसौदे में कहा गया है कि ऐसे सभी जनजातीय क्षेत्रों में जहां कि सौ से अधिक परिवारों का विस्थापन किया जा रहा हो वहां एक जनजातीय विकास योजना बनाई जाएगी । भारत की भौगोलिक संरचना में बसे जनजातीय क्षेत्रों में एक ही जगह सौ परिवारों का मिल पाना बहुत ही कठिन बात है । अतएव मजरे-टोलों में बसे आदिवासियों के लिए इस मसौदे में रखी न्यूनतम सौ परिवारों की शर्त को हटाया जाना चाहिए । ऐसा नहीं किए जाने पर आगामी विकास योजनाआें के नाम पर जनजातीय क्षेत्रों से लोगों का पलायन तो जारी रहेगा ही और उन्हें पुनर्वास और पुनर्स्थापन भी नहीं मिल पाएगा ।
प्रस्तावित अधिनियम में जमीन के मामले पर भी सिचिंत और बहुफसलीय वाली कृषि भूमि के अधिग्रहण नहीं किए जाने की बात कही गई है । जनजातीय क्षेत्रों में ज्यादातार भूमि वर्षा आधारित हैं और साल में केवल एक फसल ही ली जाती है । तो क्या इसका आशय यह है कि आदिवासियों की एक फसलीय और गैरसिंचित भूमि को आसानी से अधिग्रहित किया जा सकेगा ?
सरकार जिस तरह अब खुद कहने लगी है कि तेल की कीमतें उसकी नियंत्रण में नहीं है उसी तरह संभवत: इस तंत्र को सुधार पाना भी उसके बस में नहीं है । भूमि अधिग्रहण का यह प्रस्तावित कानून भी ऐसी ही बात करता है । किसी नागरिक द्वारा दी गई गलत सूचना अथवा भ्रामक दस्तावेज प्रस्तुत करने पर एक लाख रूपए तक अर्थदण्ड और एक माह की सजा का स्पष्ट प्रावधान किया गया है । गलत सूचना देकर पुनर्वास लाभ प्राप्त् करने पर उनकी वसूली की बात भी कही गई है, लेकिन मामला जहां सरकारी कर्मचारियों द्वारा कपटपूर्ण कार्यवाही का आता है तो इस पर कोई स्पष्ट बात नहीं हैं । वहां पर केवल सक्षम प्राधिकारी द्वारा अनुशासनात्मक कार्यवाही करने भर का जिक्र आता है ।
इस कानून को दूसरी योजनाआें के संदर्भ में भी देखा जाना जरूरी है । सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए कम दरों पर खाद्यान्न की उपलब्धता इस देश के गरीब और वंचित और उपेक्षित लोगों के पक्ष में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । मौजूदा दौर में इस व्यवस्था को कई तरह से सीमित करने की नीतिगत कोशिशें दिखाई देती हैं । विस्थापितों के पक्ष में इस योजना के महत्व को सभी मंचों पर स्वीकार किया जाता है । लेकिन भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास का यह प्रस्तावित कानून ठीक इसी तरह पारित हो जाता है तो तमाम विस्थापित लोग सार्वजनिक वितरण प्रणाली की इस व्यवस्था से बाहर हो जाएंगे ।
इस कानून के मसौदे में यह बात तो ठीक दिखाई देती है कि प्रभावित लोगों को ग्रामीण क्षेत्र और शहरी क्षेत्र के मापदंडों के मुताबिक पक्के घर बनाकर दिए जाएंगे । लेकिन इसका एक पक्ष यह भी होगा कि ये गरीबी की रेख से अपने आप ही अलग हो जाएंगे क्योंकि यह आवास गरीबी रेखा में आने वाले मकान के मापदण्डों से बड़ा होगा । ऐसे में उन्हें सस्ता चावल, सस्ता गेहूं और सस्ता केरोसीन उपलब्ध नहीं हो पाएगा । जबकि होना यह चाहिए कि ऐसे प्रभावित परिवार जो विस्थापन से पहले गरीबी रेखा की सूची में शामिल हैं उन्हें पुनर्वास और पुनर्स्थापन के बाद भी गरीबी रेखा की सूची में विशेष संदर्भ मानते हुए यथावत रखा जाए ।

हमारा भूमण्डल

स्वयं का विस्तार है ट्रस्टीशिप
डॉ. अवध प्रसाद

गांधीजी द्वारा ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को सार्वजनिक जीवन का आधार बनाया गया था । परन्तु निजी जीवन में अपनाए बगैर इसको व्यापकता प्रदान नहीं की जा सकती ।
प्रकृतिप्रदत्त सभी पदार्थ पर प्रकृति अर्थात ईश्वर का स्वामित्व मान कर स्वयं को उसका न्यासी (ट्रस्टी) मानना ट्रस्टीशिप है । अपने लिए आवश्यकता से ज्यादा लेने की इच्छा नहीं रहे और स्वयं में अनासक्त भाव बढ़े इसका प्रयास करना संरक्षक का गुण है । अनासक्ति युक्त न्यासिता (ट्रस्टीशिप) अहिंसक अर्थव्यवस्था का आधार है ।
गांधीजी ने गीता में स्थितप्रज्ञ को ट्रस्टीशिप का आधार मानकर इसकी व्याख्या की और इसे नियमित प्रार्थना का अंग बनाया । गांधीजी ने कौसानी में ७ दिनों तक रहकर श्रीमद्भगवद्गीता का अनुवाद पूरा किया और इस पुस्तक का नाम अनासक्ति रखा जो कि व्यक्ति के अनासक्त भाव को अपनाने में मददगार है । कौसानी का यह स्थान आज अनासक्ति आश्रम के नाम से जाना जाता है ।
ट्रस्ट या संरक्षा शब्द संपत्ति के स्वामित्व से जुड़ा हुआ है । ट्रस्टीशिप संपत्ति पर सामूहिक स्वामित्व को इंगित करता है । किसी वस्तु पर अधिकार स्थापित करने की वृत्ति मनुष्य में है । जबकि देखा जाए तो मनुष्य किसी वस्तु का स्वामी है ही नहीं क्योंकि हमने मूलत: किसी वस्तुत का निर्माण किया ही नहीं है । सभी वस्तुएं प्रकृति निर्मित हैं। तो स्वामित्व किसका है ? स्वामित्व का भाव एवं विचार लोभवश मनुष्य द्वारा स्थापित किया गया है । विश्व में अनेक विचारकों ने इस भाव को कम करने, उससे मुक्त होने का मार्ग बताया । इस प्रयास को मोटे तौर पर दो वर्गो में देख सकते हैं । एक, पाश्चात्य विचारों द्वारा व्यक्त विचार जिसमें स्वामित्व समाज या राज्य आधारित माना । इसमें मुख्य कार्ल मार्क्स एवं अन्य समाजवादी विचारक, चिंतक हैं । दो, भारतीय चिंतन जिसमें स्वामित्व भाव से पूर्ण मुक्ति का मार्ग बताया गया है । यह मार्ग परिग्रह से अपरिग्रह की ओर बढ़ने का है ।
अपरिग्रह एक आर्थिक व्यवहार है जो कि किसी वस्तु के निजी स्वामित्व को कम करता है - उससे मुक्ति का मार्ग बताता है । पिछली सदी में ट्रस्टीशिप का विचार मजबूती से सामने आया । इस विचार को मजबूती प्रदान करने में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का योगदान प्रमुख है । इसे वैचारिक आधार प्रदान करने में और एक सीमा तक लोक जीवन में स्थापित करने में आचार्य विनोबा भावे और प्रो.जे.सी. कुमारप्पा का भी मौलिक योगदान है । मेरी राय में गांधी विचार के संदर्भ मेंट्रस्टीशिप केवल संपत्ति की सामुहिक स्वामित्व की व्यवस्था नहीं है । इसके लिए स्व का विकास एवं अनासक्त जीवन आवश्यक है । इसका अभ्यास गांधी ने स्वयं किया । व्यक्तिगत अपरिग्रह एवं ट्रस्टीशिप दोनों साथ-साथ चलना चाहिए ।
भारतीय चिंतन में पांच महाव्रत माने गये हैं, सत्य, अहिंसा, ब्रम्हचर्य, अस्तेय और असंग्रह अपरिग्रह । गांधीजी ने आज की परिस्थिति में इसमें ६ व्रत जोड़े - शरीर श्रम, अस्वाद, निर्भयता, सर्वधर्म समभाव, स्वदेशी और अस्प्रश्यता निवारण । इस प्रकार सुन्दर मानव से सुन्दर समाज (सर्वोदय) की संपूर्ण व्यवस्था एकादश व्रत में समाहित है । यह व्यक्ति के निर्माण के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था का आधार है । ट्रस्टीशिप को स्वीकारना स्वामित्व मुक्ति की ओर बढ़ाया गया कदम है ।
गांधीजी ने सर्वप्रथम १९०९ में अपनी मौलिक पुस्तक हिन्द स्वराज में तत्कालीन आर्थिक एवं भौतिकवादी दौड़ की कड़ी टीका प्रस्तुत की थी ।
उन्होनें भारतीय दर्शन व आध्यामिक चिंतन की गहराई में जाते हुए गीता में में व्यक्त किये गये स्थितप्रज्ञ का अभ्यास प्रारंभ किया । प्रारंभ में दक्षिण अफ्रीका और बाद में भारत में हरिजन आश्रम, साबरमती एवं सेवाग्राम आश्रम की स्थापना की । इन आश्रमों में स्वयं को सर्व में समाहित करने, समर्पित करने का अभ्यास तो था ही साथ ही साथ संपत्ति के स्वामित्व भाव से मुक्ति का अभ्यास भी था । इसे आश्रम वासियों के दैनिक जीवन, नियम और आश्रम व्यवस्था मेंदेखा जा सकता था ।
ट्रस्टीशिप की दिशा में गांधी विचार आधारित प्रयास को तीन रूप में देख सकते हैं । पहला, गांधी एवं उनके प्रयोग से जुड़े व्यक्तियों द्वारा व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन में स्वामित्व मुक्ति अर्थात स्वयं को ट्रस्टी मानना । ऐसे लोगों में गांधी, विनोबा, जे.सी. कुमारप्पा, धीरेन्द्र मजूमदार और कुछ सीमा तक कृष्णदास जाजू, जमनालाल बजाज आदि का उल्लेख किया जाना चाहिए । दूसरा, सेवाग्राम आश्रम के नियम एवं व्यवस्था में स्व एवं स्वामित्व भाव से मुक्ति का प्रयास । तीसरा गांधीकाल में स्थापित संस्थाआें में ट्रस्टीशिप की व्यवस्था को स्थापित करना । इन संस्थाआें में अ.भा. चरखा संघ व अ.भा. ग्रामोद्योग संघ को याद कर सकते हैं ।
इन संस्थाआें को ट्रस्टीशिप के आधार पर स्वामित्व के सामाजिक दायित्व को स्थापित किया था । इन संस्थाआेंद्वारा आर्थिक गतिविधियां संचालित होती थी जिसमें आर्थिक कार्यो के स्पष्ट नियम बनाये गये थे जिसका पालन किया जाना आवश्यक था । आर्थिक व्यवस्था में संपत्ति एवं उसका स्वामित्व, आर्थिक प्रक्रिया (कच्च माल, उत्पादन, बाजार, लाभांश, पूंजीगत व्यवस्था, रोजगार, मजदूरी-मानदेय, तकनीकी सुधार एवं प्रशिक्षण आदि) के विभिन्न कार्यो के सामाजिक उत्तदायित्व संबंधी नियम थे।
गांधीजी के निधन के बाद आचार्य विनोबा भावे ने स्वामित्व विसर्जन का ऐतिहासिक कार्य किया । इसे ट्रस्टीशिप की व्यवस्था का उदाहरण मानना चाहिए । विनोबा ने दान को आधार मानकर भूदान मांगा और उसे भूमिहीनों में वितरित किया । विनोबा ने दान का जो अर्थ किया उसका विशेष महत्व है । उनके अनुसार दान अर्थात संपत्ति का, स्वामित्व का सम विभाजन है । इस अर्थ को उन्होनें स्वामित्व मुक्ति का प्रयास मान कर कहा सम्पत्ति रघुपति की अर्थात् सबैभूमि गोपाल की । विनोबा संत थे, अध्यात्म में उनकी पहुंच थी, गीता उनके लिए माता समान थी । उन्होनें सभी प्रकार की संपत्ति को ईश्वर को समर्पित करने का विचार रखा । इस कार्य के लिए १४ वर्षो तक पदयात्रा की । इस यात्रा में स्वेच्छा से ४१,७७,५७२ एकड़ जमीन का दान प्राप्त् हुआ और इसमें से २४,४९,१८३ एकड़ जमीन भूमिहीनों में वितरित की गई ।
इस प्रयास को संपत्ति विसर्जन का एक कदम माना जाना चाहिए । यह भी उल्लेखनीय है कि दान प्राप्त् जमीन जिस व्यक्ति को खेती के लिए दी गई उसे उस जमीन को बेचने का अधिकार नहीं है । उसे सिर्फ खेती करने का अधिकार है । यह जमीन स्वामित्व मुक्त मानी गई । विनोबा ने इस विचार को आगे बढ़ाया और ग्रामदान का विचार रखा जिसमें पूरे गांव की जमीन स्वामित्व मुक्त होता है । गांव की जमीन पर ग्राम समाज का स्वामित्व हो - स्वामित्व अर्थात ग्रामसभा धरती का ट्रस्टी हो उसका मालिक या स्वामी नहीं । किसी भी स्थिति में जमीन की बिक्री नहीं हो । ग्रामसभा एवं उसके सदस्य परिवार ट्रस्टी हैं, मालिक नहीं । यह उल्लेखनीय है कि भू-दान एवं ग्रामदान विचार को स्वीकार करते हुए अनेक राज्यों में भू-दान एवं ग्रामदान कानून बने और इस व्यवस्था को कानूनी माना गया । पूरे देश में ग्रामदान हुए । राजस्थान में २१० ग्रामदान गांव ग्रामदान कानून से संपुष्ट है । इसे ट्रस्टीशिप की दिशा में स्वैच्छिक प्रयास मानना चाहिए ।
भारतीय सांस्कृतिक की परम्परा में व्यक्तिगत एवं व्यवस्था के स्तर पर निजी स्वामित्व से मुक्ति एवं अपरिग्रही जीवन जीने को गंभीरता से स्वीकार किया गया है । इसे साधु, संत समाज, जैन मुनि, बौद्ध भिक्षु के जीवन में साफ तौर पर देखा जा सकता है । इनका जीवन अपरिग्रही होने के साथ-साथ निज स्वामित्व से मुक्त होता है । इसी परम्परा में संपत्ति एवं उसके उपयोग की व्यवस्था ट्रस्टीशिप आधारित है ।
धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्थाआें में संपत्ति का स्वामित्व ट्रस्ट में निहित माना गया है । स्वामित्व का स्वरूप की दृष्टि से भारतीय परम्परा में संपत्ति का स्वामित्व ईश्वर में निहित माना गया है । इनके मालिक ठाकुरजी हैं तथा इस प्रावधान को कानूनी मान्यता भी है । मंदिर की संपत्ति ठाकुरजी की है अर्थात स्वामित्व भगवान में निहित है । इसकी खरीद-बिक्री नहीं की जा सकती है । आवश्यकता है कि सेवा करने वाला इसका उपयोग अपरिग्रही होकर स्वयं की जीविका के लिए करे तथा भक्ति-भाव के निमित्त किए जाने वाले कार्य के साथ-साथ लोक कल्याण के लिए भी करें । ***

विशेष लेख

सर्पदंश : उपचार व रोकथाम
डॉ. वी.वी. पिल्लै

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि भारत में हर साल सर्पदंश की डेढ़ से दो लाख घटनाएं होती हैं और कम से कम २० हजार लोगों की मौत हो जाती है ।
मनुष्यों में सर्प के विष से बचने के लिए स्वयं में प्रतिरक्षा प्रणाली का अभाव होता है । अन्य जहरों के उलट सांप का जहर करीब २० घटकों का जटिल मिश्रण होता है और प्रत्येक तत्व का मानव शरीर पर अलग-अलग ढंग से घातक असर पड़ता है । अलग-अलग प्रजाति के सांपों में जहर के घटक भिन्न-भिन्न हो सकते हैं । सांप के जहर के खिलाफ कोई ऐसा अकेला अपने आप में संपूर्ण रासायनिक प्रतिविष नहीं है जिससे जहर के असर को खत्म किया जा सके । जब जहर रक्त संचार तंत्र में प्रवेश करता है, तब एंटीबॉडी का उत्पादन तो होता है, लेकिन यह प्रक्रिया बहुत धीमी होती है । यदि शरीर में पहुंचे जहर की मात्रा बहुत ज्यादा है तो वह घातक साबित हो सकता है ।
सांप के जहर का सामना करने के लिए आधुनिक विज्ञान ने प्रतिरक्षा पद्धति के माध्यम से एक विज्ञानसम्मत तरीके का आविष्कार किया है । यह इस तरह से है : घोड़े या भेड़ों को सर्प विष की सहन करने लायक मात्रा दी जाती है और उनके सीरम से एंटीबॉडी एकत्र कर ली जाती हैं । इन्हें परिशुद्ध एवं परिष्कृत करके एंटी-स्नेक वेनम (एएसवी) बनाया जाता है जिसे एंटीवेनिन के नाम से भी जाना जाता है । इसी पद्धति के उन्नत संस्करण के रूप में सांपों की कई प्रजातियों के जहर की एंटीबॉडी एक साथ उत्पन्न कर ली जाती है, ताकि एक ही सीरम का इस्तेमाल अनेक प्रजातियों के सर्पदंश के खिलाफ किया जा सके । इसे पॉलीवैलेंट एंटीवेनिन कहा जाता है ।
एंटीवेनिन कोई दवा नहीं, बल्कि एक प्रकार का टीका है । यह विभिन्न जैविक अणुआें का एक पैकेज होता है जो प्रतिरक्षी ढंग से सक्रिय होते हैं । एंटीवेनिन देते ही उसके अणु विष के स्वतंत्र अणुआें से जुड़ जाते हैं और उन्हें निष्क्रिय कर देते हैं । एंटीवेनिन जितना जल्दी दिया जाएगा, नतीजा भी उतना ही अच्छा होगा क्योंकि विष के अणु शरीर के अणुआें से मिलकर तुरन्त घातक असर दिखाने लगते हैं ।
पॉलीवैलेंट सीरम में करीब सौ जैविक घटक हो सकते हैं । इनमें से कुछ ही जहर को निष्क्रिय करने में काम आते हैं । बाकी का विपरीत असर पड़ सकता है । करीब २० फीसदी मामलों में विभिन्न विपरीत प्रभाव देखने में आते हैं । पॉलीवेनिन का इस्तेमाल जानलेवा विष से बचाने में किया जाता है । ८० फीसदी मामलों में बगैर किसी दिक्कत के जान बचा ली जाती है । केवल २० फीसदी मामलों में ही विपरीत असर होता है और वह भी बहुत हल्का । एंटीवेनिन से उपचार करते समय समुचित सावधानी बरतने से विपरीत प्रभावों से बचा जा सकता है ।
पूरी दुनिया के आंकड़े दर्शाते हैं कि एएसवी के आविष्कार के बाद सर्पदंश से होने वाली मौतों की संख्या में भारी गिरावट आई है । अब विकसित देशों में सर्पदंश से कभी-कभार ही मौत होती है । एएसवी से उपचार पूरी तरह से प्रमाणित है ।
तथ्य यह है कि ९९.९ फीसदी मामलों में मौत को टाला जा सकता है । इस भयावह स्थिति के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं, जैसे लोगों में जागरूकता का अभाव, गलत प्राथमिक चिकित्सा, उचित उपचार प्रदान करने में देरी, गलत उपचार इत्यादि । सांप के काटने पर भी कई बार डर की वजह से लोग सदमे में आ जाते हैं । दरअसल आंकड़े बताते है कि सर्पदंश के ७० फीसदी मामले विषहीन सांपों के काटने के होते हैं । शेष ३० फीसदी सर्पदंश की घटनाआें में भी करीब आधे मामलों में ही शरीर में इतना जहर पहुंच जाता है कि कोई विशेष शारीरिक समस्या पैदा होती है । इसका मतलब है कि सर्पदंश के ८५ फीसदी मामलों में केवल प्राथमिक देखभाल की जरूरत होती है और महज १५ फीसदी मामलों में ही विशेष उपचार आवश्यक होता है ।
यदि आप सर्पदंश की प्राथमिक चिकित्सा देने के लिए प्रशिक्षित नहीं है तो अच्छा यही होगा कि घटना स्थल पर आप कुछ न करें । रोगी को पास के ही किसी अस्पताल में ले जाएं । जितना संभव हो सके, रोगी को चलने-फिरने न दें । उसे आश्वस्त करें कि सांप जहरीला नहीं था । अस्पताल ले जाने के दौरान रोगी के शारीरिक लक्षणों (जैसे पलकों के भारीपन वगैरह) के बारे में चिकित्सक को बताएं ।
इलाज के समय सांप की पहचान की आवश्यकता नहीं होती है । एंटीवेनिन उपचार के शुरूआती दिनों में केवल मोनोवैलेंट एंटीवेनिन ही उपलब्ध था और इसलिए सांप की पहचान जरूरी होती थी । लेकिन आजकल पॉलीवैलेंट एंटीवेनिन बहुत प्रचलित है और यह सभी चार संभव जहरीली प्रजातियों के दंश में काम आता है । लिहाजा सांप की पहचान से अब कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता है । एक प्रशिक्षित चिकित्सक रोगी के लक्षणों के आधार पर ही इस बात की पहचान कर लेगा कि किस तरह का जहर शरीर में गया है । इसलिए सांप को लाना बिलकुल भी जरूरी नहीं रह गया है । सांप को पकड़ने को कोशिश न ही करें तो बेहतर होगा क्योंकि इस चक्कर में वह और लोगों को काट सकता है । इसके अलावा सांप के पीछे भागने से रोगी की चिकित्सा में भी अनावश्यक देरी होगी।
घटना स्थल पर मौजूद व्यक्ति रोगी को ढाढ़स बंधाने के लिए बहुत कुछ कर सकता है । विषहीन सांप के काटे अधिकांश रोगियों को केवल इसलिए भर्ती किया जाता है कि वे बहुत ज्यादा घबरा जाते हैं । भावनात्मक सहारा और आशावादी सोच सबसे ज्यादा जरूरी होता है । यहां तक कि विषधारी सांप के काटने की स्थिति में भी यदि रोगी हौसला बनाए रखे तो वह उतनी ही जल्दी ठीक हो सकेगा । रोगी को आश्वस्त करें कि दंश नुकसानरहित है। यदि आप जानते हैं कि जिस सांप ने काटा है, वह जहरीला है तब भी क्षणिक झूठ का सहारा लेना चाहिए । सारे लक्षणों पर नजर रखें और अन्य जानकारी (जैसे दंश का सटीक समय इत्यादि) नोट करें । यह काफी इलाज के समय उपयोगी हो सकता है।
बचाव एवं रोकथाम :-
बचाव को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए ।
गौरतलब है कि सर्पदंश की घटनाएं कुछ निश्चित गतिविधियों के आसपास, कुछ निश्चित क्षेत्रों में, कुछ निश्चित समयों पर होती हैं । अध्ययनों से ये तथ्य सामने आए हैं -
(१) घास की कटाई और निंदाई के दौरान सर्पदंश की घटनाएं ज्यादा होती है ।
(२) रबर, नारियल और सुपारी की बागवानी मेंखाद बिछाने के लिए पेड़ों के आधार की सफाई करते समय भी सर्पदंश की काफी घटनाएं होती हैं । (३) तड़के (३से ६ बजे सुबह) रबर एकत्र करने और सब्जियां काटने व फलों की तुड़ाई के दौरान भी सर्पदंश की घटनाएं ज्यादा होती है ।
(४) चाय और कॉफी बागानों के श्रमिक पत्तियां तोड़ते समय वाइपरों की शांति में विध्न डालने का खतरा उठाते हैं ।
(५) रात को टॉर्च के बगैर, नंगे पैर अथवा केवल सैंडल या चप्पल पहनकर घर के बाहर जाने की वजह से ।
(६) शाम के समय तालाबों, झरनों या नदियों में स्नान के दौरान भी सर्पदंश की घटनाएं होती हैं । आम धारणा यह है कि पानी में काटने वाले सांप जहरीले नहीं होते हैं, जबकि तथ्य यह है कि कोबरा और अन्य जहरीले सांप पानी में प्रवेश कर सकते हैं और वे काफी अच्छे तैराके भी होते है ।
(७) तालाब या नदी के किनारे भी सर्पदंश का खतरा होता है ।
रोकथाम के कुछ उपाय :-
(१) रात के समय जूते या बूट पहनकर ही बाहर जाएं और साथ में हमेशा टॉर्च रखें ।
(२) घास की कटाई अथवा फल या सब्जियों की तुड़ाई या पेड़ों का आधार साफ करने के दौरान अपने साथ एक डंडा रखें । सबसे पहले डंडे से घास या पत्तियों को हिलाएं । वहां सांप हो तो उसे भागने का मौका दें ।
(३) जमीन पर पड़ी लकड़ियां बीनते समय पत्तियों व डंठलों को ध्यान से देखें कि कहीं वहां सांप तो नहीं है ।
(४) मवेशियों का चारा या खाद्य सामग्री और कचरा अपने घर से दूर रखें । इससे चूहे आकर्षित होते हैं जिन्हें खाने के लिए अंतत: सांप भी आएंगे ।
(५) जमीन पर सोने से बचें ।
(६) घरों के दरवाजों और खिड़कियों के पास पौधे नहीं होने चाहिए । सांप छिपने की जगह चाहते हैं और पौधों के जरिए उन्हें खिड़कियों से घर के अंदर आने में मदद मिलती है ।

प्रदेश चर्चा

बिहार : विकास में पिसता गरीब
राजीव कुमार

बिहार की आर्थिक विकास की गति को लेकर पूरे देश में कसीदें गढ़े जा रहे हैं । वहीं दूसरी ओर सरकारी आंकड़ों के हिसाब से उड़ीसा के बाद गरीबी में सर्वाधिक वृद्धि बिहार में हुई है । यानि अब वहां विकास छनकर भी नीचे नहीं आ रहा है ।
अर्थशास्त्रियों का मानना है कि देश की अर्थव्यवस्था कुलांचे मार रही है लेकिन दुर्भाग्यवश उसी अनुपात में भूख भी आर्थिक विकास के साथ कदम ताल कर रही है । क्या यह उस विचार को चुनौती नहीं है कि आर्थिक विकास से गरीबी एवं भुखमरी मिटती है ? बिहार इसी का एक उदाहरण है । उदारीकरण के दो दशकों में देश में गरीबी एवं कुपोषण के दायरों के बढ़ने के साथ ही चमत्कारी रूप से देश मेंसबसे पिछड़े राज्य बिहार में सर्वाधिक विकास दर्ज किया गया है । यह अर्थशास्त्रियों के लिए भले ही आश्चर्य का विषय रहा हो, परन्तु यह चमत्कार तो कर ही दिखाया है बिहार की वर्तमान सरकार नें ।
बिहार सरकार एक ओर विकास को लेकर नित नए दावे पेश कर रही है तो दूसरी ओर बढ़ते गरीबों को लेकर भी केन्द्र से गुहार भी करती फिर रही है । नीतीश सरकार ने अपने आर्थिक सर्वेक्षण में बिहार की विकास दर को देश में सर्वाधिक बताते हुए कहा है कि १९९९-२००० से पहले पांच वर्षो के दौरान बिहार की अर्थव्यवस्था ३.५० प्रतिशत थी । वहीं आज २००४-०५ से २०१०-११ तक अर्थव्यवस्था स्थिर मूल्य के हिसाब से १०.९३ प्रतिशत की दर से बढ़ी है । यह देश के विभिन्न राज्यों में अपेक्षाकृत सर्वाधिक है ।
देश के नामचीन कलमकारों ने अपने-अपने कालमों में इस विकास दर की शान में कसीदे काढ़े । दूसरी ओर कुछ विद्धानों का मानना है कि मुट्ठी भर लोगों के विकास को आम लोगों का विकास नहीं माना जा सकता है । बीते छ: वर्षो में पिछड़े बिहार में सड़के बनी, लेकिन विकास की प्रतीक इन चिकनी सड़कों के बावजूद गरीबी और भुखमरी का भी विस्तार हुआ है । बिहार में गरीबी, भुखमरी और बीमारी का घना कुहरा छंटने के बजाय अधिक घनीभूत होने का अकारण नहीं माना जा सकता है ।
कृषि प्रधान बिहार के खेत अनाज के बजाय भूख उपज रहे है । पिछले दस वर्षो के अन्दर बाढ़ों के चार दौर से हुए नुकसान तथा पिछले तीन वर्षो में लगातार सुखाड़ की मार ने इस कृषि प्रधान प्रदेश की खेती किसानों को अनिश्चितता के अंधे सुरंग मेंढकेल दिया है । गौरतलब है कि बिहार के ८८ प्रतिशत गांवों की करीब ७५ आबादी पूर्णत: खेती किसानी पर ही निर्भर है, लेकिन बीते छ: सालों में न तो कृषि विकास को लेकर सिंचाई के साधनों का विकास हो पाया और न ही विघुतीकरण की दिशा में काम हो पाया।
ग्रामीण विद्युतीकरण के क्षेत्र में एक प्रतिशत भी वृद्धि नहीं हो पाई है । ऐसे में मानसून पर आधारित बिहार की खेती लगातार सुखाड़ की मार झेल रही है । यहां सबसे कम विकास दर १.५ प्रतिशत खेती में दर्ज की गयी है । औद्योगिकरण के क्षेत्र में निवेश शून्य है और पलायन भी थमा नहीं है । तो फिर विकास को लेकर किए जा रहे दावे की हकीकत क्या है ? सवाल उठता है कि क्या खेती के विकास के बगैर बिहार का विकास संभव है ? प्रदेश में प्रचुर संसाधनों के बावजूद मात्र साठ प्रतिशत कृषि क्षेत्र में ही कुल सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध हैं । सिंचाई सुविधाआें में ८३.८ प्रतिशत नलकूप हैं जो कि सिंचाई के फैलाव में बड़ा अवरोध है । बिजली का अभाव तथा भूगर्भ जलस्त्रोतों के अत्यधिक नीचे चले जाने के फलस्वरूप नलकूपों को डीजल से चलाना होता है जो किसानों के लिए महंगा सौदा है ।
आंकड़ों के अनुसार प्रदेश की कुल आबादी का ७७ प्रतिशत दलित खेत मजदूरों का है इनमें महादलितों की संख्या करीब ९० प्रतिशत है, जो पूर्णत: कृषि पर आश्रित है । लेकिन कृषि पर संकट आने से अब ये बेरोजगार हैं और अंतत पलायन को विवश हैं । उड़ीसा के बाद गरीबों की संख्या में सबसे अधिक वृद्धि बिहार में हुई है । यह किसी और का नहीं बल्कि बिहार की वर्तमान सरकार का ही कहना है । बिहार की कुल दस करोड़ की आबादी में गरीबों की संख्या सात करोड़ है । राज्य सरकार केन्द्र सरकार से इन गरीबों के लिए अनाज आवंटन कराने की मांग भी करती रही है । जबकि केन्द्र सरकार का मानना है कि प्रदेश में ६५ लाख परिवार ही गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं । इस लोक कल्याणकारी देश में हास्यास्यद तौर पर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के बिना गरीबी रेखा की सूची निर्धारण जैसा प्राथमिक काम भी पूरा नहीं हो पाता है ।
बीपीएल सूची में अनियमितताआें से सर्वाधिक प्रभावित दलित ही हुए हैं । बिडंबना यह है कि आज भी प्रदेश सरकार का केन्द्र के साथ लड़ाई का मुख्य मुद्दा यही है और अब यह समस्या के समाधान के बजाय राजनैतिक लड़ाई ज्यादा प्रतीत हो रहा है । दोनों सरकारें गरीबों की लड़ाई लड़ने की राजनीति में पीछे नहीं है । इसके बावजूद गरीबों को न तो भरपेट भोजन मिल रहा है और न ही घर । देश में सबसे अधिक बेघर परिवारों की संख्या जो कि ४२ लाख बिहार के दलितों की है जो गरीबी, भुखमरी एवं कुपोषण के भी शिकार हैं ।
सरकार के पास सस्ते अनाजों के जरिये भुखमरी एवं कुपोषण मिटाने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं है। मनरेगा एवं पोषाहार की योजनाआें में भ्रष्टाचार की दीमक लग चुकी है । स्थिति दिन ब दिन सुधरने के बजाय बिगड़ रही है । गरीबी एवं कुपोषण के दायरे बढ़ रहे हैं । वर्ष २००७ में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की एक रिपोर्ट में यह बताया गया कि राज्य में कुपोषित बच्चेंकी संख्या ५४ प्रतिशत से बढ़कर ५८ प्रतिशत हो गयी है । यह संख्या वर्ष २००६ में ५४ प्रतिशत थी जो एक साल बाद ही ५८ प्रतिशत हो गई । यह एक गंभीर विषय है ।
इनमें से १० प्रतिशत बच्चें की मौत एक साल के अंदर ही हो जाती है । तमाम रिर्पोटों में इसको लेकर चिन्ता प्रकट की जाती रही है । मातृ मृत्यु दर एवं शिशु मृत्यु दर के पीछे कुपोषण एक बड़ी वजह होती है । यद्यपि प्रदेश सरकार के अपने आंकड़े भी हैं जिसमें शिशु मृत्युदर एवं मातृ मृत्युदर में कमी बताई गई है, लेकिन कल्याणकारी योजनाआें की लचर स्थिति तथा इस दिशा में ठोस पहल की कमी को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि दो-तीन वर्षो में इतनी बड़ी खाई पाट ली गई होगी ।
गौरतलब है बिहार में बढ़ रही गरीबी एवं कुपोषण को देखते हुए यह नहीं लगता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के उन सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों को हम निकट भविष्य में हासिल कर पाऐगें जिसमें भूख एवं गरीबी को वर्ष २०१५ तक मिटाने पर खास जोर दिया गया है । भूख और कुपोषण के बढ़ते दायरे को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि हमारे आर्थिक विकास के वर्तमान ढांचे मेंस्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ रही है और समाज के सबसे निचले पायदान के बीच विकास की रोशनी पहुंचाने के सभी प्रयास बेमानी साबित हो रहे हैं ।

स्वास्थ्य

मधुमेह से लड़ने की अधूरी तैयारी
दिनसा सचान

भारत में मधुमेह का फैलाव जिस तेजी से हो रहा है उससे निपटने के लिए ऐसा कार्यक्रम बनाना चाहिए जो कि पूर्णतया इसी बीमारी पर एकाग्र हो । सभी प्रमुख असंक्रामक रोगों की एक साथ एक ही कार्यक्रम के अन्तर्गत पहचान व उपचार की योजना इस पूरे अभियान को पटरी से उतार सकती है।
केन्द्र सरकार का मधुमेह (डायबिटीज) पर नियंत्रण के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम की शुरूआत हिचकिचाहट भरी थी । इससे भी बुरी बात यह है कि इसे राष्ट्रीय केंसर, मधुमेह, हृदयरोग एवं हृदयघात निवारण एवं नियंत्रण कार्यक्रम (एनपीसीडीसी एस) के एक हिस्से के रूप मेंप्रारंभ किया गया है ।
मधुमेह नियंत्रण कार्यक्रम का प्रथम चरण जुलाई २०१० में प्रारंभ हुआ था और इसे अप्रैल २०१२ में पूरा किए जाने की योजना है । इसके तीन लक्ष्य हैं जागरूकता, चिन्हित करना एवं उपचार । चिन्हित करने के अभियान को शुरू करने में ही सरकार को एक वर्ष लग गया । केन्द्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्री गुलाब नबी आजाद ने चिन्हित करने के अभियान का उद्घाटन इस वर्ष ३० जून को किया । वर्ष २०११ के अंत तक २१ राज्यों के ३० जिलों में मधुमेह की पहचान कर मुफ्त उपचार किया जाना है । आशंका है कि सरकार की कछुआ चाल से यह कार्य समयावधि में पूर्ण नहीं हो पाएगा ।
सरकार ने एनपीडीएसीएस पर १२५० करोड़ रूपए का निवेश किया है। इसमें से ५०० करोड़ रूपए मधुमेह और हृदयरोग हेतु आवंटित किए हैं । सरकार ने इस हेतु अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी अब्बॉट से ६००० ग्लूकोमीटर (रक्त में शर्करादेखने का यंत्र) और १.२ करोड़ पटि्टया (स्ट्रिप) खरीदी है । श्री बचानी जो कि इस पहल की अगुवाई कर रहे हैं, का कहना है कि बाकी की राशि राज्यों को दे दी गई है । वे स्वास्थ्य मंत्रालय में अंसक्रामक रोग विभाग के उप निदेशक जनरल हैं । परन्तु तय जिलों में अभी तक धन पहुंचा ही नहीं है । महाराष्ट्र के वाशिम जिला अस्पताल के सुपरवाइजर वैंकट क्षीरसागर ने इस बात की पृष्टि की है । जबकि आंध्रप्रदेश के स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख सचिव पी.वी. रमेश ने आश्वासन दिया है कि राज्य के जिलों में अगस्त तक धन पहुंच जाएगा ।
चिकित्सकों द्वारा परियोजना की आलोचना :-
नई दिल्ली स्थित मेक्स हॉस्पिटल के एंडोक्रिनोलॉजी विभाग के विभागाध्यक्ष डाँ. सुजीत झा का कहना है कि चिन्हित करने पर बहुत अधिक ध्यान दिया गया है । यदि मरीजों की पहचान हो गई हो तो उनका तुरन्त उपचार होना चाहिए । दिल्ली मधुमेह शोध केन्द्र के अध्यक्ष ए.के. झिंगन का मत है कि वितरण के लिए जिन दवाइयों का चयन किया गया है कि वे पुराने मिश्रण की है । जबकि अधिक प्रभावकारी दवाईयों का वितरण किया जाना चाहिए ।
भारत में विश्व के सर्वाधिक ५.०८ करोड़ मधुमेह रोगी हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार सन् २०३० में इनकी संख्या बढ़कर ७.९४ करोड़ हो जाएगी । श्री झा उपचार के संबंध में सरकारी तैयारियों की पर्याप्त् पर प्रश्न उठाते हुए कहते है क्या हमारे पास समुचित संख्या में प्रशिक्षित कर्मी हैं ? भारतीय मधुमेह शोध संस्थान के अध्यक्ष ए. रामचंद्रन इससे सहमति जताते हुए कहते है स्वास्थ्य केन्द्रों में पेशेवर व्यक्ति होना चाहिए जो कि मरीजों को जीवनशैली में आवश्यक परिवर्तन के संबंध में प्रशिक्षित कर सकें ।
मधुमेह जीवनपर्यन्त चलने वाली बीमारी है । अतएव सिर्फ मुफ्त दवाइयां दे देना ही काफी नहीं हैं । वहीं झा का कहना है भारत में मधुमेह रोगियों के पैदल चलने संबंधी जागरूकता की अत्यन्त आवश्यकता है । इस हेतु ढांचागत निवेश सहायता प्रदान करेगा । लोगों को शिक्षित करना होगा और ध्यानपूर्वक अगले १० वर्षो तक निगरानी रखनी होगी ।
इस तरह की मिशन आधारित परियोजनाएं भारत में नई नहीं है । सन् १९८७ में मधुमेह नियंत्रण का राष्ट्रीय कार्यक्रम तमिलनाडु, जम्मु कश्मीर और कर्नाटक में आरंभ किया गया था । धन की कमी से इसकी हवा निकल गई । सन् २००८ में भी मधुमेह, हृदयरोग और हृदयघात निवारण एवं नियंत्रण हेतु एक पायलेट परियोजना प्रारंभ की गई थी । रामचन्द्रन का कहना है इसकी शुरूआत तो अच्छी हुई लेकिन शीघ्र ही इसका उत्साह ठंडा पड़ गया ।
गतवर्ष प्रारंभ हुए एनपीसी डीएसीएस को पूर्व में मिली असफलताआें का अध्ययन कर लेने के बाद ही शुरू किया जाना था । पर ऐसे कोई आंकड़े ही मौजूद नहीं है कि इस तरह के कार्यक्रम मददगार सिद्ध होते भी हैं या नहीं । पूर्ववर्ती परियोजनाआें के बारे में पूछे जाने पर श्री बचानी का कहना था अब वे अतीत की बात बन चुकी है । रामचन्द्रन का कहना है कि इस कार्यक्रम को केंसर, हृदयरोग व हृदयघात के साथ जोड़ने से उन्हें निराशा हुई है । उनका मानना है बीमारी का बोझ के देखते हुए पूरी तरह से इसी बीमारी को समर्पित एक स्वतंत्र योजना बननी चाहिए ।
यह बीमारी चुपके से विकासशील विश्व में प्रवेश कर गई है । भारत और चीन को इसकी वजह से सन् २००५ से २०१५ के मध्य ९०० अरब अमेरिकी डॉलर की आमदनी से हाथ धोना पड़ सकता है । यह बीमारी अब युवाआें के लिए भी खतरा बन गई है । अंधेपन, किडनी के खराब होने और और पैरों में घाव जैसी जटिलताआें के चलते उपचार की लागत भी बहुत बढ़ गई है । बीमारी की गंभीरता से परेशान होकर गोवा जिसकी कि इस परियोजना में अनदेखी की गई है, ने जून में मधुमेह रोगियों का नामांकन प्रारंभ कर दिया । इसके अन्तर्गत सभी सरकारी एवं निजी अस्पतालों में रोग पहचान की नि:शुल्क सुविधा उपलब्ध होगी । सभी मरीजों को पहचान पत्र जारी किए जाएंगें और उन्हें नि:शुल्क स्वास्थ्य सेवा, दवाईयां और इंसुलिन उपलब्ध कराए जाएंगे ।
इस मूक हत्यारे ने अब अपने विषदंत पूरे देश में फैलालिए हैं । परन्तु सरकार कोई भी अभेद्ध योजना बनाने से कतरा रही है । कम से कम २० वर्ष देरी से ही सही लेकिन यह परियोजना इस दिशा में उठा एक सकारात्मक कदम तो माना जा सकता है ।

कविता

कैसापानी कैसी हवा
चन्द्रकान्त देवताले

किस तरह होती जा रही है दुनिया
कैसे छोड़कर जाऊँगा मैं
बच्चें तुम्हें और तुम्हारें बच्चें को
इस काँटेदार भूलभुलैयाँ में
किस तरह और क्या सोचते हुए
मरूंगा में कितनी मुश्किल से
साँस लेने के लिए भी जगह होगी या नहीं
खिड़की से क्या पता
कब दिखना बंद हो जायें हरी पत्तियों के गुच्छे
हरी पत्तियों के गुच्छे नहीं होेगे
तो मैं कैसे मरूँगा
मैं घर में पैदा हुआ
घर पेड़ का सगा था
गाँव में बड़ा हुआ
गॉव खेत-मैदान का सगा था
पर अब किस तरह रंग बदल रही है दुनिया
मैं कारखाने में ँसी आवाजों के बिस्तर पर
नहीं मरूँगा
कारखाने जरूरी है
कोई अफसोस नहीं
आदमी आकाश में सड़के बनाये
कोई दिक्कत नहीं
पर वह शैतान
उसके नाखून भयानक जबड़े
वह शहरों - गांवों पर मँडरा रहा है
और हमारी परोपकारी संस्थाएँ
हर घर से उसके लिए
जीवित मांस की व्यवस्था कर रही हैं
घरों की पसलियों पर
कारखानों की कुहनियों का बोझ
गलत बात है
स्याह रास्ता अन्तहीन अन्त-जैसा
और जुगनुआें-सी टिमटिमाती
भली आत्माआें के दो-चार शब्द
हरी पत्तियों का गुच्छा होगा
तब भी दिक्कत आयेगी
सोच-सोचकर
तुम्हारे बच्चें के बच्च्े किस तरह
रास्ता बनायेंगे
कैसा पानी कैसी हवा
ईधन का पता नहीं क्या करेगें ?
सच मरते वक्त अपने को माफ नहीं
कर पाऊँगा मैं

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

पर्यावरण परिक्रमा

हरियाणा के किसान ने कचरे से बना ली बिजली

आवश्यकता आविष्कार की जननी है, इस कहावत को आपने जरूर सुना होगा । लड़कपन से ही कुछ न कुछ नया सोचने की आदत रखने वाले रायसिंह को भी इसी कहावत ने कुछ नया करने का हौंसला प्रदान किया ।
आज साधारण किसान से इंजीनियर कहलाये जा रहे है । विधिवत् रूप से कोई डिग्री न होने के बावजूद उन्होनें कचरे से चलने वाला ऐनरसोल गैसीफायर बना डाला, खास बात यह है कि इस गैसीफायर से बिजली भी पैदा की जा सकती है । हनुमानगढ़ जिले के थालड़का के रायसिंह आज इस गैसोफायर के निर्माता है जो कि खेतों में पानी सींचने से लेकर बिजली पैदा करने के कामआ रहा है ।
वर्ष १९९९ में रायसिंह ने बिना तेल व बिजली के इंजन को चलाने पर अपनी रिसर्च शुरू की तथा इस कार्य मेंअथक मेहनत के बाद २००१ में सफल हो गया । सबसे पहले रायसिंह ने पांच केवी का इंजन बिना डीजल के चलाया । इसके परीक्षण के लिए, उसने किसानों को इस तरह के इंजन तैयार करके दिए ताकि इंजन सेट में आने वाली दिक्कतों का पता चल सके । समय के साथ-साथ उसमें सुधार होता गया ।
एक बार सफलता मिलने पर रायसिंह के कदम नहीं रूके और उसने जल्द ही १५ केवी का एक ऐसा गैसोफायर बना दिया है जो कचरे से चलता है । इस गैसोफायर से जनरेटर चलाकर बिजली भी बनाई जा सकती है तथा खेतों में ट्यूबवेल भी चलाए जा सकते है । बुलंद हौसले के साथ रायसिंह ने अपने गैसोफायर को भारत के विभिन्न प्रांतों के अलावा दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी व कीनिया में भी भेजे हैं । रायसिंह के अनुसार इस वक्त भी अमेरिका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, कीनिया, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका आदि से गैसोफायर को लेकर चर्चाएं चल रही है ।
वह चाहता है कि सरकार यदि इस प्रोजेक्ट को बड़े स्तर पर शुरू करे तो न केवल हम बिजली व डीजल की बचत कर पाएंगे बल्कि गैसोफायर का निर्यात कर देश को आर्थिक लाभ भी पहुंचा सकते है । खेतों में पड़ा कचरा करें प्रयोग रायसिंह का गैसोफायर जनरेटर सरसों का तूड़ा, गोबर, पेड़-पौधों के पत्तो, मूंगफली व मक्के के छिलके, चावल व गेहूं का भूसा, नारियल का छिलके आदि से बड़ी आसानी से चल सकता है ।

न्यूक्लियर प्लांट की जगह पर बना पार्क
अकसर पार्क ऐसी जगह बनाए जाते हैं जहां पर खुला वातावरण और हरियाली हो । न कि ऐसी जगह जो खतरे से भरी हुई हो । लेकिन जर्मनी के शहर कल्कर के समीप स्थित बने इस पार्क के बारे मेंसुनकर आप आश्चर्यचकित रह जाएंगे । ऐसा नहीं है कि यह खुले वातावरण में न बना हो, लेकिन न्यूक्लियर रिएक्टर प्लांट जैसी उस खतरनाक जगह पर बना है जहां कोई नहीं जाना चाहेगा । लेकिन ऐसा नहीं है । करोड़ों रूपए से बनने वाला यह न्यूक्लियर प्लांट शुरू होने से पहले ही बंद हो गया था । ८० हेक्टेअर में बने इस पार्क में हर साल करीब पूरी दुनिया से छह लाख पर्यटक यहां आते है ।
इस न्यूक्लियर पावर प्लांट के कूलिंग टॉवर में विशाल झूला लगाया गया है । १३० फीट ऊंची इसकी दीवार पर चढ़ने के लिए सीढ़िया लगाई गई है।
यह पार्क न केवल घूमने के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहां रहने के लिए कमरों से लेकर बार, रेस्टोरेंेट, गोल्फ कोर्स, टेनिस कोर्स म्यूजियम जैसी सुविधाएं भी मौजूद हैं ।
इस प्लांट को जर्मनी ने १९७२ में बनना शुरू किया था । करीब २१.३ करोड़ रूपये की लागत के बाद इसे बंद कर दिया गया । कारण था यहां के स्थानीय लोगों का विरोध करना ।
एक डच व्यापारी ने न्यूक्लियर प्लांट सहित इस पूरी जगह को खरीद लिया । हालांकि इसे उन्होनें कितने रूपए में खरीदा इसका खुलासा नहीं किया गया ।
जापान में हुए हादसे के बाद परमाणु बिजली घरों को लेकर दुनिया में नई बहस शुरू हुई है । इसमें इस प्रकार के कदम से नई रोशनी मिलेगी ।

अंटार्कटिका से बहने वाली नदियों का नक्शा तैयार

वैज्ञानिकों ने पहली बार अंटार्कटिका महाद्वीप की बर्फ के नीचे बहने वाली उन नदियों का नक्शा तैयार करने का दावा किया है, जो समुद्र में जाकर मिलती हैं । ये नदियां अपने साथ अंटार्कटिका की बर्फ बहाकर समुद्र में ले जाती है ।
इससे जलवायु परिवर्तन के संदर्भ मेंभविष्य में समुद्र के स्तर के घटने या बढ़ने के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है । वैज्ञानिकों के अंतराष्ट्रीय दल ने यूरोप, जापान और कनाड़ा के उपग्रहों से मिली जानकारी के आधार पर ग्लेशियर बनने की प्रक्रिया का भी पता लगाया है । इनमें यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के प्रोफेसर एरिक रिगनॉट का अहम योगदान है । उन्होने समुद्र तक बर्फ के पहुंचने का मॉडल तैयार किया है, जो कि इससे पहले कभी नहीं बनाया गया ।
ब्रिटिश अखबार डेली मेल ने प्रोफेसर रिगनॉट के हवाले से लिखा है कि हमारी यह उपलब्धि ग्लेशियोलॉजी के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है । हमने यह पहचाना है कि कैसे अंटार्कटिका से नदियां बहकर समुद्र में मिलती है । धरती पर अंटार्कटिका में ही बर्फ का सबसे बड़ा भंडार है और अंटार्कटिका से पिघलने वाली बर्फ समुद्र के स्तर पर बड़ा प्रभाव डालती है ।



विरासत

परम्परागत जलाशयों का संरक्षण
डॉ. किशोरीलाल व्यास

महात्मा गांधी व विनोबा भावे ने जिस आत्मनिर्भर ग्राम स्वराज्य की कल्पना की, उस ग्राम राज्य में अन्न, वस्त्र तथा कुटीर उद्योगों के साथ-साथ ग्राम वन तथा ग्राम जलाशय का महत्वपूर्ण स्थान है ।
सच पूछा जाये तो ग्राम राज्य के अवयव एक दूसरे से अलग-अलग न होकर एक दूसरे से आबद्ध हैं । इन में प्रकृतिकी तरह गहरा अंत: संबंध बना है तथा इनमें आंगिक पूर्णता अनिवार्य है। खेती-बाड़ी और घरेलू उपयोग के लिए पानी, ईधन के लिए लकड़ी, पशुआें के लिए चारा तथा चरागाह - ये सारी बातें जलाशयों या जल की उपलब्धि पर निर्भर है ।
जल के अभाव में न तो कोई सभ्यता पनप सकती है, न विकास हो सकता है । जल ही जीवन का मूलभूत आधार है । जल द्वारा ही प्राणियों की उत्पत्ति होती है, पोषण होता है और जीवन का विस्तार होता है । किसी भी प्राणी के शरीर का बहुत बड़ा प्रतिशत जल ही होता है । शरीर की समग्र रासायनिक क्रियाएं जल माध्यम में ही सम्पन्न होती है । जल वस्तुत: प्राण का आधारभूत तत्व है । विश्व की प्राचीनतम सभ्यताएं नदियों की गोद में ही विकसित हुई । कालान्तर में मनुष्य जाति ने जल-संसाधनों के समुचित व वर्षान्त उपयोग के तरीके इजाद किये । कुंए, बावड़ियाँ, ताल, तालाब, सरोवर झीलें तथा आधुनिक युग के विशाल बहुउद्देशीय बाँध मनुष्य के इन्ही प्रयत्नों का परिणाम है ।
भौगोलिक संरचना व जलवायु की दृष्टि से भारत के विविध प्रदेशों में बड़ी विविधता पाई जाती है । पूर्वी भारत के आसाम, बंगाल आदि प्रदेशों में अच्छी वर्षा के कारण जल की कमी नहीं होती, वहीं पश्चिमी भारत के राजस्थान, काठियावाड़ कच्छ आदि प्रदेशों में पानी एक बहुमूल्य वस्तुत है । जहाँ उत्तर भारत की नदियाँ सदानीरा बनी रहती है, वही दक्षिण की नदियाँ गर्मियों में सूख जाती है । ऐसे में, हमारे पूर्वजों ने अपने-अपने प्रदेश के जलवायु तथा भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप जल संग्रहण तथा जल संचयन के कुछ विधान बनाये तथा राजस्थान में, जहॉ कि वर्षा बहुत कम होती है, घर की छत पर गिरी हुई वर्षा का एक नल द्वारा सीधे घर के नीचे बने पक्के कूप में पहुंचा दिया जाता है, जिसका वे वर्षभर उपयोग करते है । कर्नाटक, तामिलनाडू आदि में वर्षाकाल में नदियों का बहुतायत में बहने वाला जल स्थानान्तरित कर उससे तालाब भर लिये जाते है । तेलँगाना व मराठवाड़ा की ऊबड़-खाबड़ जमीन व छोटे बाँध बाँधकर जलाशयों का निर्माण कर लिया जाता है । मध्यप्रदेश, व उत्तरप्रदेश व बिहार की समतल भूमि में, मिट्टी खोदकर बंड बनाया जाता है । खुदे हुए ग़़ढे में वर्षा का जल जमा हो जाता है ।
इस प्रकार गत पांच हजार वर्षो की हमारी सभ्यता में हमारे पूर्वजों ने जल संसाधनों के अत्यन्त संयमित उपयोग, वैज्ञानिक भंडारण व संरक्षण के जो उपाय किये उनमें बड़ी मौलिकता व विविधता पाई जाती है । जल संचयन व संरक्षण की हमारी देसी पद्धति पर संभवत: कोई विधिवत् अध्ययन नहीं हुआ है । इस अध्ययन की नितांत आवश्यकता है क्योंकि हमारी योजनाआें का प्रारूप प्रदेश विशेष की भौगोलिक संरचना, पर्यावरण विशेषता व जनता की आवश्यकताआें के अनुरूप तैयार किया जाना चाहिए ।
तेलंगाना में हर पांच मील पर एक तालाब मिल जाता है । प्रत्येक गाँव में अनिवार्यत: एक सरोवर होता ही है। पुराने हैदराबाद राज्य की आत्म-निर्भरता तथा समृद्धि का यही रहस्य है । ये जलाशय वर्षाकाल में पूरी तरह भर जाते हैं, जिनका उपयोग ग्रामवासी वर्ष भर खेती-बाड़ी, मत्स्य पालन तथा घरेलू उपयोग के लिए करते रहे है ।
दुर्भाग्यवश हमारी यह सुपरिचित - सुपरिक्षित प्राचीन देसी जल संचयन व संरक्षण की पद्धति को हम भुलाते जा रहे है । इसका स्थान विशालकाय बाँध लेते जा रहे हैं जिनकी अपनी ही समस्याएं है ।
शहरीकरण, औद्योगीकरण, गलत योजनाआें आदि के कारण पुराने जलाशयों का क्रमश: व तीव्र गति से विनाश होता जा रहा है जिसके परिणाम स्वरूप गाँव उजड़ रहे हैं, ग्रामवासी जीविका की खोज में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, तथा ग्रामीण अर्थ व्यवस्था टूट रही है । सच पूछा जाए तो ग्रामीण अर्थ व्यवस्था एक समग्र व्यवस्था है जिसमें जलाशय, वन, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी तथा मनुष्य पूर्णत: एक दूसरे आबद्ध हैं ।
मनुष्य इस प्रकृति चक्र का स्वयं एक हिस्सा है । प्रकृति के साथ न तो उसकी प्रतियोगिता है, न प्रकृति को जीतने का उसमें कोई अहंकार है । वह भी अन्य प्राणियों की तरह प्रकृति की गोद में खेलता, खाता-पीता और आनंदपूर्ण जीवन जीता है । प्रकृति में अन्तर्निहित इस गहन व सूक्ष्म अन्त: संबंधों को समझना अत्यन्त आवश्यक है । इस व्यवस्था में दृश्य व अदृश्य - सारे अवयव- जल, वायु, भूमि, पेड़, पशु, पक्षी, कीट-पंतगें व मनुष्य एक सूक्ष्म सूत्र से बंधे हैं इनमें से किसी एक को नष्ट कर देने पर सारी व्यवस्था बिखर जाती है, सारा क्रम टूट जाता है और इसके दुष्परिणाम सामने आने लगते हैं ।
हमारे पर्यावरण के आधारभूत तत्व वन व जलसंसाधनों का आज बुरी तरह से विनाश हो रहा है । वन-विनाश का प्रत्यक्ष प्रभाव वर्षा, वातावरण तथा जलस्त्रोंतों पर पड़ता है । करोड़ों रूपया खर्च कर, जिन बहुउद्देशीय विशालकाय बाँधों की अनुभावित जीवनावधि आधी से भी कम रह गई है । अत: आज की परिस्थितियों में छोटे जलाशय ही अत्याधिक महत्वपूर्ण है । ऐसे में पुराने जलाशयों की मरम्मत कर, उनके भीतर वर्षो से जमा मिट्टी निकालकर उनके बाँध को ऊँचा कर, उनकी गहराई को बढ़ाकर, उनके चारों ओर पेड़ लगाकर, उन्हें पुनरूजीवित किया जाना चाहिए ।
जलाशयों से न केवलकृषि, घरेलू कामकाज तथा उद्योगों के लिए प्रत्यक्ष जल प्राप्त् होता है, प्रत्युत निम्न लाभ होते है :-
- जलाशयों का पानी धीरे-धीरे मिट्टी में रिसकर अपने चारों और के भूमि अन्तर्गत जल की आपूर्ति करता है । आज की बढ़ी हुई जल की जरूरतों के कारण हम लगातार बोरवेलों, टयुबवेलों आदि के माध्यम से भूमि के भीतर से जल निकालते जा रहे हैं । जलाशय उस रिक्ति की आपूर्ति करता है । यदि जलाशय नष्ट हो जाएं तो अडोस पड़ोस के कुंए सहज ही सूख जाएंगे, भूम्यन्तर्गत जलस्त्रोत भी समाप्त् हो जाएंगे ।
- जलाशयों के कारण पेड़ों, पशु-पक्षियों तथा अन्य प्राणियों का अन्त: संबंध बना रहाता है ।
- भूम्यन्तर्गत जल-कणों के कारण पेड़ों व वृक्षों को जल प्राप्त् होता रहता है । इन वृक्षों का विकास इस जल सप्रािप्त् पर निर्भर करता है । जलाशय के नष्ट हो जाने पर, सूखी धरती में ये पेड़ पनप नहीं सकते, अत: मरूस्थलीकरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है ।
- जलाशयों की उपस्थिति में वातावरण में नमी व ठंडापन बना होता है । गर्मियों में भी ऊष्मा अनुकूलित बनी रहती है ।
- जलाशयों का पर्यावरण व मनुष्य के सौन्दर्य बोध पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है ।
- जलाशयों के तट पर उद्यान, क्रीडा स्थल, प्रार्थना-गृह, आमोद-प्रमोद गृह पर्यटन केन्द्र आदि बनाये जा सकते हैं ।
- जलाशय मत्स्य पालन जैसी आर्थिक प्रक्रिया में योगदान देते हैं ।
अंतत: जलाशय मनुष्य की भौतिक आवश्यकताआें की आपूर्ति ही नहीं करते प्रत्युत पर्यावरण संरक्षण में सहायक बनते हुए, मनुष्य के सौन्दर्य-बोध और आनंद-बोध का भी विकास करते हैं ।
केन्द्र सरकार व प्रान्तीय सरकारों का यह परम कर्तव्य है कि जलाशय-संरक्षण की एक राष्ट्रीय नीति बनाई जाए । जिस तरह से वन संरक्षण की नीति बनी है तथा कुछ वनों को संरक्षित वन घोषित किया गया है, उसी तरह प्रत्येक राज्य में महत्वपूर्ण जलाशयों का संरक्षण किया जाए ।
प्रत्येक राज्य जलाशय संरक्षण कक्ष का गठन कर जलाशयों की भूमि के गैरकानूनी अधिग्रहण, जलाशयों के प्रदूषण तथा उसके विनाश की प्रक्रिया पर रोक लगाए । जलाशयों के पुनर्नवीनीकरण की व्यवस्था करें । हमारे पूर्वजों द्वारा निर्मित जलाशय हमारी पारम्पारिक साँझी सम्पति है । इनका विनाश हमारी परम्परागत अर्थव्यवस्था व पर्यावरण व्यवस्था का विनाश है । अत: हर कीमत पर राष्ट्र भर के जलाशयों का संरक्षण, पुनर्नवीनीकरण व महत्व-मापन होना चाहिए ।

महानगर

दिल्ली में कचरा प्रबंधन की चुनौतियां
नील टेंगरी/धर्मेश शाह

कचरे से बिजली बनाने के लिए दिल्ली में बनाई जा रही परियोजना समाधान की बजाए समस्याएं अधिक खड़ी करेगी । इससे प्रदूषण, बेरोजगारी में वृद्धि तो होगी साथ ही संसाधनों का पुर्नचक्रीकरण न होने से प्राकृतिक संसाधनों पर भी भार बढ़ेगा ।
कचरा प्रबंधन का प्रमुख कार्यक्रम स्वच्छ विकास प्रबंध (सीडीएम) भारत में अपनी कारपोरेट झुकाव और तकनीक पर अत्यधिक निर्भरता के कारण धराशायी हो गया है । यह कार्बन क्रेडिट प्रणाली के मोर्चे पर भी असफल सिद्ध हुआ है जिससे कि जलवायु परिवर्तन में इस कार्यक्रम की भूमिका भी न्यूनतम हो गई है ।
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी को ध्यान में रखते हुए क्योटो प्रोटोकॉल में इसे लेकर लचीली व्यवस्था की गई थी । सीडीएम के अन्तर्गत उत्सर्जन में कमी (या समाप्त्) करने वाली परियोजनाआें के तहत विकासशील देश अधिमान्य उत्सर्जन में कमी हेतु क्रेडिट अर्जित कर सकते थे । इस क्रेडिट को औद्योेगिक देशों को बेचा जा सकता है जो कि इसका इस्तेमाल क्योटो प्रोटोकॉल के अन्तर्गत उत्सर्जन में कमी लाने की उनकी सीमा को प्राप्त् करने में करेंगे ।
बड़ते शहरीकरण की वजह से विकासशील देशों में कचरा प्रबंधन एक समस्या बन गया है और कचरे की मात्रा में दिनोंदिन वृद्धि हो रही है । इसी के साथ शहरी कचरे का स्वरूप भी बदल रहा है और इसमें प्लास्टिक व इलेक्ट्रॉनिक्स की बहुतायत होती जा रही है । भारत की राजधानी दिल्ली में प्रतिदिन ७००० टन कचरा निकलता है ।
यदि असंगठित क्षेत्र के माध्यम से कचरे को निपटाने की व्यवस्था नहीं होती तो स्थितियां और भी बद्तर हो जाती । इस कार्य में एक लाख कचरा बीनने वाले मदद करते हैं । वे कचरे में से काम में आ सकने वाले धातु, कागज, कार्ड बोर्ड और प्लास्टिक को अलग करते हैं । इन्हें साफ करके उद्योग को बेचा जाता है जो कि इसे अपनी नए उत्पाद हेतु कच्च्े माल की तरह इस्तेमाल करता है । दिल्ली की रिसायकलिंग (पुन:चक्रण) अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत १६०० टन कचरा प्रतिदिन प्रयोग में आता है । यानि कि कुल कचरे का करीब १५ से २० प्रतिशत । कचरा बीनने वालों की वजह से नगर निगम को अपनी परिचालन लागत में प्रतिदिन ६५८००० रूपये और वार्षिक करीब २४ करोड़ रूपए की बचत होती है । इस अनौपचारिक सियायकल क्षेत्र में कचरा प्रबंधन के सबसे बड़े हिस्से जैसे खाद्य सामग्री और अन्य जैविक पदार्थ काम में नहीं आते । इसे नगर निगम इकट्ठा कर भराव वाले क्षेत्रों में ले जाती है । परिणामस्वरूप बदबू, कीड़े-मकोड़े, आग और जहरीलेपन की समस्याएं सामने आती हैं । इससे जलवायु परिवर्तन को रोकने के प्रयासों को ठेस पहुंचती है । परन्तु दिल्ली का अनुभव बताता है कि कारपोरेट पहल वाला उच्च् तकनीक वाला कचरा प्रबंधन कमोवेश असफल ही सिद्ध हो गया है ।
नवम्बर २००७ में सीडीएम कार्यकारी बोर्ड ने करीब २०५० टन प्रतिदिन कचरा, जो कि दिल्ली का करीब एक चौथाई होता है, के निपटान के लिए तिमारपुर-ओखला वेस्ट मैनेजमेंट कंपनी का दो सुविधाआें हेतु पंजीयन किया । इसके अन्तर्गत कचरे को सुखा कर उसके टुकड़े करके उसे एक रेशे बनाने वाली प्रक्रिया के माध्यम से बायलर में ले जाकर उससे बिजली निर्माण की योजना थी । घोषणा के बाद स्थानीय निवासियों, कचरा बीनने वालों और पर्यावरणविदों के कान खड़े हुए क्योंकि यह कोई पहला भस्मक नहीं था जो कि तिमारपुर में स्थापित होने जा रहा था ।
इससे पहले सन् १९८७ में नवीनीकरण एवं रिन्युबल ऊर्जा विभाग तिमारपुर में २५ करोड़ की लागत से भस्मक सह बिजली संयंत्र प्रारंभ कर चुका था । जिसकी क्षमता प्रतिदिन ३०० टन कचरे से ३.७७ मेगावाट बिजली तैयार करने की थी । संयंत्र ने २१ दिन का परीक्षण संचालन भी किया लेकिन कचरे की गुणवत्ता ठीक न होने से संयंत्र को बंद करना पड़ा । भारत के कचरे में जैविक पदार्थ अधिक होते हैं और कागज, प्लास्टिक, कार्ड बोर्ड आदि कम। धनी देशों के मुकाबले भारत में इस तरह का कचरा भी कम ही उत्सर्जित होता है । परन्तु सरकारी अफसरों में इससे सबक नहीं सीखा ।
चार्टर के अनुसार सीडीएम केवल उन्हीं परियोजनाआें की सहायता करेगा जो कि सुस्थिर विकास में सहायक होगी । लेकिन इसकी निगरानी की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सरकारों की है और भारत में इसका जिम्मा पर्यावरण एवं वन मंत्रालय पर है ।
यदि परियोजना वास्तव में दिल्ली का एक चौथाई कचरे का निपटान करेगी तो राजधानी के अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत अनेकों रिसायकलिंग कर्मचारियों की जीविका ही छिन जाएगी क्योंकि इस भस्मक को चलाने के लिए बड़ी मात्रा में प्लास्टिक, कागज, कोर्डबोर्ड लगेगा । यही वह मूल्यवान वस्तुएं है जो कि अनौपचारिक क्षेत्र के काम आती है । इसके दृष्टिगत दिल्ली के कचरा बीनने वालों ने संघर्ष प्रारंभ कर दिया और पहली बार इनके अधिकारों के लिए कार्यरत समूहों व पर्यावरणविदों ने भी इनका साथ दिया ।
वहीं दूसरी तरफ भारत के बड़े कारपोरेट घराने इस परियोजना के माध्यम से सिर्फ कार्बन क्रेडिट बेच कर ३७० लाख अमेरिकी डॉलर की कार्बन क्रेडिट कमाएंगे । इस परियोजना से आई.एल.एण्ड एफ.एस. एवं जिंदल के साथ सार्वजनिक कंपनियां जैसे आंध्रप्रदेश तकनीक विकास केन्द्र भी लाभ कमाएंगे । लेकिन इन्हेंलाभ अंतत: कचरा बीनने वालों की हानि से ही होगा ।
अपनी ही गणना के अनुसार तिमारपुर ओखला परियोजना २६२७४१ टन कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन में कमी करेगी । दिल्ली से प्रतिवर्ष करीब ९६२१३३ टन कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन होता है । वास्तविकता यह है कि इससे तो उतनी ही कार्बन क्रेडिट प्राप्त् होगी जितनी की दिल्ली स्वयं उत्सर्जित करती है । अतएव सीडीएम ने बिना किसी गणना के बड़ी मात्रा में कार्बन क्रेडिट आवंटित कर दी । यूरोप कार्बन क्रेडिट का सबसे बड़ा खरीददार है और उनके अपने ही नियम है जो इस तरह की योजना के अनुकूल नहीं हैं । यदि इस प्रक्रिया में पुर्नचक्रण वाले ईधन की खपत बढ़ाई गई तो स्थितियां और भी बद्तर हो जाएंगी ।
बायो जैविक, उत्सर्जन की मात्रा में बढ़ोत्तरी से स्थितियां और भी खराब हो सकती है । सीडीएम साधारणतया कंपनियों के इस दावे को मान लेता है कि जैविक उत्सर्जन घातक नहीं है लेकिन वैज्ञानिकों की सोच इसके ठीक विपरीत है । यदि तिमारपुर की बात करें तो यहां जलने वाले कचरे में से मात्र १६ प्रतिशत से कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन बताया गया है और ८४ प्रतिशत को जैविक उत्सर्जन की श्रेणी में रखा गया है ।
सीडीएम को प्रस्तुत रिपोर्ट में कंपनी ने कहा है कि परियोजना में पड़ौसियों की भूमिका लाभ प्राप्त्कर्ता की होगी तथा इससे स्थानीय व्यक्तियों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिलेगा । परियोजना में किसी भी समुदाय को विस्थापित करने का कोई प्रयास नहीं है । जबकि वास्तविकता यह है कि यह कचरा बीनने वालों को विस्थापित करेगा । यह परियोजना स्थानीय निवासियों का भी तगड़ा विरोध का सामना कर रही है क्योंकि इसकी स्थापना नजदीकी निवास स्थानों से मात्र १०० मीटर की दूरी पर होगी और इसके आसपास तीन अस्पताल भी स्थित है । निवासियों की चिंता स्वाभाविक है क्योंकि भस्मक से जहरीली गैस निकलेगी । दिसम्बर २०१० में ब्रिटेन के वेल्स में ऐसे ही एक भस्मक को बंद करना पड़ा है और अमेरिका में भस्मक परिचालक उत्सर्जन कानून के उल्लघंन के आरोप में लाखों डॉलर का दंड भर रहे है ।
अनेक राष्ट्रीय कानूनों के उल्लघंन के बावजूद दिल्ली सरकार इसको बढ़ावा दे रही है । अंतत: पर्यावरण और वन मंत्रालय ने हस्तक्षेप कर इस परियोजना की समीक्षा हेतु एक विशेषज्ञसमिति का गठन भी किया है ।
कचरा क्षेत्र के निजीकरण के अलावा भी कई विकल्प मौजूद है । मुम्बई एवं पूणे में स्थानीय शासन की मदद से स्त्रोत पर छटाई की व्यवस्था में सफलता पाई गई है । कचरे में ७० प्रति जैविक पदार्थ हैं जिससे कि मिथेन गैस के उत्सर्जन से बचते हुए कम्पोस्ट खाद बनाई जा रही है । इससे आमदनी का नया जरिया भी सामने आ रहा है । इस तरह की संरचनाआें के निर्माण से स्थानीय निवासियों, नगरपालिका इकाइयों एवं शहरी गरीबों, सभी को फायदा मिलता है लेकिन विशाल बहुराष्ट्रीय फर्मो की भागीदारी की गुंजाइश बहुत कम हो जाती है ।

ज्ञान विज्ञान

सूरज और ग्रहों की निर्माण की नयी कहानी

ग्रहों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि सूरज और सौरमण्डल के ग्रहों का निर्माण भी अब तक की धारणाआें से अलग तरीके से हुआ होगा । कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल ने सूरज और ग्रहों में ऑक्सीजन और नाइट्रोजन के मामले में उनके अलग होने का खुलासा किया है ।
हमारे सौरमण्डल में यह दोनों गैसे प्रचुर मात्रा में है । नासा के २००४ जीनेसीस मिशन में प्राप्त् हुए नमूनों का विश्लेषण करने वाले वैज्ञानिकों के अनुसार यह अंतर बहुत कम है लेकिन इससे यह जानने में मदद मिल सकती है कि हमारा सौरमण्डल कैसेबना था । अध्ययन दल के नेतृत्वकर्ता केविन मैककीगन ने कहा कि हमने पाया कि पृथ्वी, चन्द्रमा और मंगल ग्रह तथा उल्कापिंड जैसे क्षुद्रगहों के नमूनों में ओ-१६ सूर्य की तुलना में कम मात्रा में है । उन्होने कहा कि आशय यह है कि हम सौर नीहारिका के उस पदार्थ को चिन्हित नहीं कर पाए जिससे सूरज बना है यह कैसे और क्यों हुआ, इस बात का पता लगाना अभी बाकी है गौरतलब है कि पृथ्वी पर वायु मण्डल ऑक्सीजन के तीन परमाणुआें के योग से बना है । इनमें मौजूद न्यूट्रॉनों की संख्या के आधार पर अंतर किया जाता है । सौरमण्डल में करीब १०० फीसदी ऑक्सीजन परमाणु ओ-१६ से निर्मित है लेकिन ओ-१७ और ओ-१८ नाम के ऑक्सीजन आइसोटोप बहुत कम मात्रा में उपलब्ध है । नमूनों के अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया कि सूरज में ओ-१६ की मौजदूगी का प्रतिशत पृथ्वी या अन्य ग्रहों की तुलना में थोड़ा अधिक है । अन्य आईसोटोप का प्रतिशत थोड़ा कम है । नाइट्रोजन तत्व के मामले में सूरज और ग्रहों के बीच अंतर होने का पता चला है । ऑक्सीजन की तरह नाइट्रोजन का भी एक आइसोटोप है जिसका नाम एन-१४ है ।
इससे सौरमण्डल में करीब १०० फीसदी परमाणु का निर्माण होता है लेकिन एन १५ बहुत कम मात्रा में है । इन नमूनों का अध्ययन करने वाले दल ने पाया कि पृथ्वी की तुलना में सूरज और बृहस्पति में मौजूद नाइट्रोजन एन-१४ से कुछ अधिक है लेकिन एन-१५ से कुछ कम है । सूरज और बृहस्पति दोनों ही में नाइट्रोजन की समान मात्रा प्रतीत होती है । अध्ययन के मुताबिक जहां तक ऑक्सीजन की बात है, पृथ्वी और शेष सौरमण्डल नाइट्रोजन के मामले में बहुत अलग है ।


डायनासोर काल के जीव स्तनधारी होते थे

अमेरिकी वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि डायनोसोर काल में समुद्र में रहने वाले कुछ जीव शावक को जन्म दिया करते थे । इससे पहले यही समझा जाता कि सरीसृप अंडो के जरिए ही नए जीवन का सृजन करते थे ।
अमेरिकी विज्ञान पत्रिका सांइस मेंप्रकाशित इस शोधपत्र में अमेरिका के मार्शल विश्वविघालय के प्रोफेसर फ्रैंक ओकी ने बताया कि दो वर्ष पहले पुरातत्वविदों ने मिसोजोइक कॉल के समुद्र में बसने वाले जीव प्लेसियोसोर के जीवाश्म को एक-एक हड्डी करके जोड़ना शुरू किया था ।
जब यह जीवाश्म पूरी तरह से बन गया तो उन्हें पता चला कि यह एक प्लेसियोसोर मादा और उसके गर्भस्थ शावक का जीवाश्म है । कीफ ने कहा कि यह बहुत ही अनूठी जानकारी थी । जब हमने इसे मौजूदा समय के समुद्री स्तनधारियों से जोड़कर देखा तो हमें पता चला कि प्लेसियोसोर बहुत सारे शावकों को जन्म देने के स्थान पर एक पूरी तरह से विकसित एवं स्वस्थ शावक को जन्म दिया करते थे ।
इससे पहले समझा जाता था कि प्लेसियोसोर आज के समय के कछुआें की तरह अंडे देने के लिए समुद्र के तट पर आया करते थे । वैज्ञानिकों ने इस बीच इस नन्हें प्लेसियोसोर शावक को मादा द्वारा खा लेने संबंधी आंशका को भी खारिज कर दिया । उन्होनें कहा कि इस नन्हें शावक की हडि्ड्यों पर कहीं भी चबाए जाने के निशान नहीं है और इसे देखकर पता चलता है कि यह गर्भ में विकास के चरणों में था जब इसकी मां की मौत हो गई हो । मीसीजोइक काल आज से करीब २५ करोड़ वर्ष पहले हुआ करता था । जुरासिक और मीसोजोइक काल के दौरान ही डायनोसोर और प्लेसियोसोर प्रजाति के जीवों का उद्भव हुआ था । डायनोसोर जंगलों में निवास करते थे और घोंसला बनाकर अपने अंडो को सेते थे । प्लेसियोसोर के बारे में भी अब तक कुछ-कुछ ऐसा ही समझा जाता था ।

आंतकवादी मंसूबे ताड़ने की मशीन

खबर है कि एक ऐसा यंत्र बनाया गया है जो यात्रियों के मन में पैदा हो रहे किसी भी दुर्भावना पूर्ण विचार को ताड़ लेगा । कहा जा रहा है कि इससे सुरक्षाकर्मियों को यह पता लगाने में मदद मिलेगी कि कहीं आप अपराध तो नहीं करने वाले हैं ।
नेचर पत्रिका के मुताबिक यू.एस. घरेलू सुरक्षा विभाग द्वारा आंतकवादी मंसूबों का पूर्वाभास करने वाले कार्यक्रम फ्यूचर एट्रिब्यूट स्क्रीनिंग टेक्नॉलॉजी (फास्ट) का प्राथमिक परीक्षण भी पूरा हो गया है ।
दरअसल फास्ट झूठ पकड़ने वाली मशीन की ही तरह काम करती है और व्यक्ति के विभिन्न शारीरिक लक्षणों को रिकार्ड करती है - जैसे हृदय गति, निगाहों की स्थिरता ताकि उसकी मानसिक स्थिति को अंदाज लगाया जा सके । मगर पोलीग्राफ टेस्ट और इसमें एक महत्वपूर्ण फर्क यह है कि फास्ट में व्यक्ति को स्पर्श किए बगैर ही ये सारी बातें जांचनी होती है, उदाहरण के लिए जब व्यक्ति हवाई अड्डे के गलियारे से गुजर रहा हो । इसमें व्यक्ति से पूछताछ की भी गुजाइश नहीं है ।
फिलहाल फास्ट का परीक्षण सिर्फ प्रयोगशाला में ही हुआ है और मैदानी परीक्षण का इंतजार है । परीक्षण का तरीका यह रहा है कि इस यंत्र के सामने से गुजरने से पहले कुछ व्यक्तियों को कहा जाता है कि वे कोई विध्वंसक कार्य करने की तैयारी करें । वैज्ञानिकों के सामने अहम सवाल यह है कि क्या इस तरह के व्यक्ति वास्तविक आतंकवादी के द्योतक है । इस बात को लेकर भी चिंता जाहिर की जा रही है कि जब लोगों को पता होगा कि ऐसा कोई यंत्र काम कर रहा है तो उनका व्यवहार बदल जाएगा । घरेलू सुरक्षा विभाग का कहना है कि प्रयोगशाला परीक्षणों में इस यंत्र की सत्यता ७० प्रतिशत आंकी गई है ।
इस संदर्भ में कई वैज्ञानिकों ने यह भी सवाल उठाया है कि क्या वास्तव में दुर्भावनापूर्ण मंसूबों का कोई अनूठा लक्षण होता है जिसे आप यात्रा के दौरान होने वाले सामान्य अफरा-तफरी से अलग करके देख सकें । देखा गया है कि यदि आप किसी के फिंगरप्रिंट भी लेना चाहेंतो सामान्यत: व्यक्ति की धड़कन बढ़ जाती है ।
फेडरेशन ऑफ अमरीकन साइन्टिस्ट के स्टीवन आफ्टरगुड का मत है कि इस टेस्ट में कुछ हासिल नहीं होगा, सिवाय इसके कि आपको खतरे की मिथ्या घंटियां सुनाई पड़ती रहेगी, जिनके चलते आम नागरिकों के लिए यात्रा करना एक दुखदायी अनुभव बन जाएगा । उनके हिसाब से यह मान्यता ही गलत है कि दुर्भावना का कोई शारीरिक या कार्यिकीय पहचान चिन्ह होता है । इस तथ्य के मद्देनजर यह कवायद एक नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं है ।

वानिकी जगत

वन हमारी धरोहर
जे.पी. पटेरिया

इन दिनों पूरी दुनिया में अन्तर्राष्ट्रीय वन वर्ष मनाया जा रहा है। विश्वभर में हो रही प्राकृतिक आपदाआें की पृष्ठभूमि में हमें पृथ्वी पर हो रहे पर्यावरणीय अत्याचार पर अत्यन्त गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है ।
प्राचीनकाल में मनुष्य एवं प्रकृति का संबंध अत्यन्त सौहार्द्रपूर्ण रहा है परन्तु धीरे-धीरे मानव की स्वार्थी नीतियों ने प्रकृति के अनमोल उपहार वनों का अनियंत्रित दोहन करना प्रारंभ कर दिया है जिसके फलस्वरूप जल एवं वायु के प्रदूषण ने विराट रूप धारण कर लिया है । विकास की इस अंधी दौड़ में परिस्थितिकीय कारकोंे की अनदेखी की गई जिसके कारण आज पर्यावरणीय समस्यायें सामने आ रही है । पर्यावरण के नाम पर अधिक से अधिक लोगों को जंगल की तरफ आकर्षित करने के क्रम में जंगल की घोर उपेक्षा हो रही है । मनुष्य एवं जानवर एक दूसरे के इलाके में घुसपैठ कर रहे है । इससे उनके बीच संघर्ष की स्थिति पैदा हो रही है । जंगल को अपने मूल रूप में बचाये रखने की जरूरत है । जंगल सरंक्षपण के लिए नियम बनाते समय हमें उभय संरक्षण के मुद्दों पर भी संवेदनशील रवैया अपनाना होगा ।
मध्यप्रदेश भारत वर्ष का ह्दय प्रदेश है । शरीर का ह्दय यदि स्वस्थ रहता है तो संपूर्ण शरीर स्वस्थ रहेगा । प्रदेश का स्वास्थ्य प्राकृतिक संसाधनों की सतत् निरन्तरता पर निर्भर है । देश का लगभग १२ प्रतिशत वन मध्यप्रदेश में उपलब्ध है जो कि मध्यप्रदेश की ३१ प्रतिशत के लगभग भूमि पर विद्यमान है । वन हमारे जीवन की बुनियाद है जो पर्यावरण के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक स्थिति को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । वनों का आशय सामान्य रूप से वृक्षों के समूह से होता है । लेकिन वास्तव में ये विभिन्न जीवों का जटिल समुदाय है । एक दूसरे पर परस्पर आश्रित अनेक पेड़-पौधे और जानवर वनों में निवास करते है, तथा वन के भूतल पर अनेक प्रकार के छोटे-छोटे जीव जन्तु जीवाणु एवं फंगस पाये जाते है जो मिट्टी और पौधों के मध्य पोषक तत्वों का आदान प्रदान करने में मदद करते है । वनों से मानव समुदाय को अनेक बहुमूल्य वस्तुएं प्राप्त् होती है जिनमें स्वच्छ जल, वन प्राणियों के रहने के लिए वास स्थान, लकड़ी, भोजन, सुंदर परिदृश्य सहित अनेक पुरातात्विक और एैतिहासिक स्थल शामिल है ।
वनों की सघनता के मामले में मध्यप्रदेश एक समृद्ध राज्य है । यह सम्पन्नता हमे विरासत में मिली है, लेकिन इससे अधिक यहां के लोगों ने इसकी महत्ता को समझा और संरक्षण किया है । वन आवरण की दृष्टि से मध्यप्रदेश देश में प्रथम स्थान पर है । मध्यप्रदेश का वनक्षेत्र ७६०१३ वर्ग किलोमीटर है, द्वितीय स्थान पर अरूणाचल प्रदेश जिसका वनक्षेत्र ६७७७७ किलोमीटर तथा तीसरे स्थान पर छत्तीसगढ़ जिसका वनक्षेत्र ५९७७२ वर्ग किलोमीटर है । मध्यप्रदेश में वृक्ष प्रजातियां साल तथा सागौन हैं इसके अलावा यहां के वनों में बीजा, साजा, धावड़ा, महुआ, तेंदू, ऑवला, बांस आदि महत्वपूर्ण प्रजातियां है । इसके साथ ही जंगल में अनेक तरह के औषधीय पौधे भी पाये जाते हैं । पौधे पर्यावरण संतुलन की दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ ही वनवासियों की आजीविका के प्रमुख साधन भी है ।
अन्य प्रदेशोंकी तुलना में मध्यप्रदेश के वनों की स्थिति बेहतर है लेकिन कालांतर में वनों पर बढ़ रहे जैविक दबाव के कारण निश्चित रूप से वन क्षेत्रों में कमी आई है एवं वनों की दशा बिगड़ी है । प्रदेश के वन क्षेत्रों में गरीबी की समस्या व्यापक रूप से विद्यमान है, गरीबी के कारण ही वनों पर अत्यधिक दबाव है, वनक्षेत्रों में रहने वाले विशेषकर आदिवासी लोग अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिये वनों पर ही काफी हद तक आश्रित है । आवास बनाने खाना पकाने के ईधन से लेकर पशुआें को चराने तक वे वनों पर ही आश्रित है
जिससे वनों का ह्ास तेजी से हो रहा है।
मध्यप्रदेश में पर्यावरण संतुलन और मानव जीवन के अस्तित्व की रक्षा के लिए वनों एवं पेड़ पौधो की महत्ता को प्रारंभ से ही स्वीकार किया है, सरकार ने एक जनोन्मुखी वन नीति भी बनाई है । वननीति में वन संसाधन के सतत एवं टिकाऊ प्रबंधन से समाज के आदिवासी एवं आर्थिक रूप से पिछड़े एवं गरीब वर्ग के लोगों की सुरक्षा की मंशा शामिल है । वनों के वैज्ञानिक प्रबंधन और विकास के लिये बिगड़े वन क्षेत्रों के वन आवरण में वृद्धि करने, भू एवं जल संरक्षण जैव विविधता का संरक्षण तथा बांस वनो के पुनरोत्पादन जैसी अनेक योजनाएं चलाई जा रही है।
मध्यप्रदेश में जैव विविधता के समृद्ध होने तथा अनेक महत्वपूर्ण नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र होने के कारण प्रदेश के वन अत्यन्त महत्वपूर्ण है । अत: देश के पर्यावरणीय परिस्थितिकीय संतुलन तथा जल संरक्षण में प्रदेश के वनों का विशेष योगदान है । वन्य जीवन संरक्षण में भी प्रदेश का अग्रणी स्थान है । प्रदेश के वनक्षेत्र का लगभग ११.४ प्रतिशत संरक्षित क्षेत्र (राष्ट्रीय उद्यान एवं अभ्यारण्य) वन्यप्राणी प्रबंधन के अधीन है । देश के बाघों के आबादी का लगभग २० प्रतिशत एवं विश्व का लगभग १० प्रतिशत मध्यप्रदेश में है ।
वनक्षेत्रों में गरीबी की समस्या के कारण निरक्षरता पनप रही है तथा वन क्षेत्रों में अतिक्रमण बढ़ रहा है । गरीबी के कारण ही वनवासियोंमें सामाजिक कुरीतियों का बोलबाला है । साक्षरता के अभाव में वनवासी, शासन द्वारा द्बारा चलाई जा रही विभिनन जन कल्याणकारी योजनाआें का फायदा उठाने से वंचित रहे है जिससे शासन के तमाम प्रयासों के बावजूद गरीबी की समस्या समाप्त् नहीं हो पा रही है ।
गरीबी के इस चक्रव्यूह को तोड़े वगैर वन एवं पर्यावरण संरक्षण के प्रयास सफल नहीं हो सकते है । अगर हमें प्रदेश के पर्यावरण का सुधार करना है तो विकास योजनाआें को गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों से जोड़ना होगा, तभी वन एवं पर्यावरण संरक्षण सुिशिचनत हो सकेगा । इसके लिए सरकारी प्रयास एवं जन आंदोलन के उचित समन्वय की आवश्यकता होगी ।

ऊर्जा जगत

ऊर्जा नीति का वैज्ञानिक आधार क्या हो ?
भारत डोगरा

ऊर्जा नीति संबंधी विचारों मे हाल के समय में बहुत उतार-चढ़ाव देखे गए हैं । आज से लगभग पन्द्रह वर्ष पहले तक जो स्थिति थी, उसमें परमाणु ऊर्जा और बड़े बांधों के खतरों की ओर बहुत ध्यान दिलाया गया था । इस बारे में बहुत से प्रमाणिक तथ्य एकत्र किए गए थे व अध्ययन किए गए थे ।
इसका एक महत्वपूर्ण असर यह देखा गया है कि अनेक विकसित देशों ने अपने ऊर्जा कार्यक्रम में परमाणु ऊर्जा का महत्व कम कर दिया । जर्मनी जैसे महत्वपूर्ण देश ने यहां तक कहा कि वे निकट भविष्य में परमाणु ऊर्जा पर अपनी निर्भरता से पूरी तरह मुक्त हो जाएंगे । परमाणु संयंत्रों के लिए कंपनियों को नए आर्डर मिलने बहुत कम हो गए हैं । इस कारण से कुछ बड़ी कंपनियों में तो अपने को किसी तरह बचाए रखने का संकट उत्पन्न हो गया है ।
इसी तरह बड़े बांधों के विरूद्ध चले अभियान के कारण कुछ बहुचर्चित परियोजनाआें के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थाआें से सहायता मिलनी बंद हुई । ऐसी कुछ परियोजनाआें पर पुनर्विचार की मांग को स्वीकार किया गया है । संयुक्त राज्य अमरीका जैसे कुछ विकसित देशोंे में पहले से बनाए गए कुछ बांधों को हटाने की मांग ने जोर पकड़ा व ऐसे कई प्रयास आरंभ भी हुए । नदियों को बगैर किसी बड़ी बाधा के बहने देने की जो मांग पहले अवैज्ञानिक मानी जाती थी, नदियों के पर्यावरण की बढ़ती समझ के साथ इस मांग को वैज्ञानिक मान्यता प्राप्त् होने लगी है ।
बहस यहां तक पहुंचने के बाद उसने एक बडी उलटबाजी खाई है । यह तब हुआ जब जलवायु परिवर्तन का संकट सबसे बड़े पर्यावरणीय संकट के रूप में सामने आया । इस संदर्भ में यह कहा जाने लगा कि अब किसी भी अन्य पर्यावरणीय समस्या की अपेक्षा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना ज्यादा जरूरी है । अत: कोयले, तेल व गैस से चलने वाले ताप बिजली घरों में बिजली का उत्पादन कम करना सबसे जरूरी है । इस नई प्राथमिकता को ध्यान में रखते हुए बड़े बांधों व परमाणु बिजली घरों को नई मान्यता मिलने लगी । सबसे बड़ा आश्चर्य तो लोगों को तब हुआ जब पर्यावरण रक्षा अभियानों से जुड़े कुछ व्यक्तियों ने भी परमाणु ऊर्जा की वकालत करना शुरू कर दी ।
दूसरी ओर, अधिकांश अन्य पर्यावरणविदों ने कहा कि परमाणु संयंत्रों व बड़े बांधों के खतरों या दुष्परिणामों के बारे में जो तथ्य एकत्र किए गए थे वे आज भी अपनी जगह पर कायम है । बड़े बांधों के जलाशयों में वनस्पति गलने-सड़ने से जो मिथेन गैस उत्पन्न होती है, उससे भी जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ता है । परमाणु ऊर्जा प्राप्त् करने के लिए खनन से लेकर अवशिष्ट पदार्थ खपाने तक की तमाम प्रक्रियाएं गंभीर खतरों से जुड़ी हैं । इनमें से अनेक प्रक्रियाआें का जलवायु परिवर्तन पर प्रतिकूल असर पड़ता है, हालांकि बिजली उत्पादन के दौरान जीवाश्म ईधन न जलाने का कुछ लाभ जरूर मिलता है।
यह पूरी बहस तथ्यपरक इस कारण नहीं रह पाई क्योंकि परमाणु संयंत्रों व बड़े बांधो से जुड़े आर्थिक हितों की लॉबी ने जलवायु परिवर्तन के दौर मेंअपनी बढ़ती प्रासंगिकता का बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार किया । दरअसल, सब तरह के खतरों को देखते हुए ज्यादा जरूरी यह हो गया है कि ऊर्जा संरक्षण व ऊर्जा के वैकल्पिक व अक्षय स्त्रोतों की ओर ध्यान दिया जाए ।
यह सच है कि हाल के वर्षो में अक्षय ऊर्जा स्त्रोतों (जैसे सौर, पवन, बायोगैस आदि) की ओर पहले की अपेक्षा कहीं अधिक ध्यान दिया गया है, फिर भी जीवाश्म ईधन (कोयले व तेल) पर जितना खर्च होता है उसके मुकाबले में यह कहीं नहीं ठहरता है । यदि निजी व सार्वजनिक खर्च को मिलाकर देखा जाए तो भविष्य की ऊर्जा जरूरतों के इंतजाम में जितना खर्च हो रहा है, उसमें जीवाश्म ईधन के नए भंडार खोजने पर व पाइप लाइन बनाने आदि पर ही ज्यादा खर्च हो रहा है जबकि अक्षय ऊर्जा की नई व्यवस्था करने पर जो खर्च हो रहा है वह इसकी तुलना में बहुत कम है ।
अत: अक्षय ऊर्जा की बेहतर से बेहतर संभावनाआें को प्राप्त् करने के लिए अधिक संसाधन उपलब्ध करवाना बहुत जरूरी है पर इसका अर्थ यह नहीं है कि इन परियोजनाआें को भी विशाल बनाया जाएगा, तो इनसे कई तरह की पर्यावरणीय व सामाजिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती है । अत: जरूरत इन अक्षय ऊर्जा स्त्रोंतो के व्यापक स्तर के विक्रेन्द्रित उपयोग की है, न कि इनकी विशाल परियोजना बनाने की ।
इस तरह के वैकल्पिक विकास का एक उदाहरण यह हो सकता है कि किसी भी पंचायत या गांव का ऊर्जा नियोजन इस आधार पर किया जाए कि वहां जो भी स्थानीय ऊर्जा प्राप्त् करने की संभावनाएं है, उनका उपयोग पूरा किया जाए । इस तरह एक गांव या पंचायत की ऊर्जा आवश्यकताएं काफी हद तक सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा या बहुत छोटे स्तर के पनबिजली उत्पादन, बायोगैस आदि हो सकती है । इस तरह ट्रांसमिशन में होने वाला बहुत सा खर्च भी बचेगा । गांववासियों को गांव में ही रोजगार उपलब्ध होगा । स्थितियां अनुकूल रही तो पंचायत को अतिरिक्त ऊर्जा की बिक्री से कुछ आय भी प्राप्त् हो सकती है ।
चूंकि इस तरह की विकेंद्रित ऊर्जा का रास्ता अपेक्षाकृत नया है, अत: इसमेंआरंभ में कई कठिनाइयां आ सकती है और सरकार को आरंभ में ज्यादा खर्च भी करना पड़ सकता है, पर यदि कई स्थानों पर यह मॉडल सफल रहे तो अपेक्षाकृत कम खर्च पर इसकी प्रगति काफी तेजी से हो सकती है ।
पर्यावरण की रक्षा की दृष्टि से अक्षय ऊर्जा स्त्रोतों को बढ़ाना जरूरी तो है पर यह पर्याप्त् नहीं है । यदि उपभोगवादी जीवन शैली के प्रसार के कारण व्यापारिक ऊर्जा की मांग बहुत तेजी से बढ़ती रही तो इस बढ़ती मांग की आपूर्ति के लिए पर्यावरण पर बोझ असहनीय हद तक बढ़ सकता है और यह संभावना कम की जा सकती है । बिजली व ईधन का अपव्यय रोका जा सकता है । भवन बेहतर बनाए जा सकते है ताकि बिजली की जरूरत कम पड़े । उपकरणों व तकनीकों में सुधार हो सकता है ताकि वे कम ऊर्जा में बेहतर काम कर सकें । ये सारी संभावनाएं मौजूद हैं पर इनकी कुलउपलब्धि इतनी नहीं है कि वे उपभोगवादी जीवन शैली के तेज प्रसार के लिए आवश्यक ऊर्जा को सीमित रख सकें । अत: ऊर्जा संरक्षण व अक्षय ऊर्जा अपनाने के साथ उपभोगवादी जीवन शैली व सोच को नियंत्रित करना भी जरूरी है ।


पर्यावरण समाचार

भोपाल गैस त्रासदी के लिये जांच आयोग गठित
मध्यप्रदेश सरकार ने भोपाल गैस कांड के २७ साल बाद एक जांच आयोग का गठन किया है । यह यूनियन कार्बाइड कारखाने में हुए भीषण हादसे के विभिन्न पहलुआें की जांच कर रिपोर्ट तैयार करेगा । हालांकि रिपोर्ट देने के लिए आयोग का कोई कार्यकाल तय नहीं किया गया है ।
आयोग का अध्यक्ष हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज एसएल कोचर को नियुक्त किया गया है । राज्य सरकार ने इसके गठन की अधिसूचना जारी कर दी है । वरिष्ठ वकील कोलिन गोंजाविल्स ने इस आयोग के गठन पर अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि राज्य सरकार का यह व्यर्थ का कदम है । पीपी राव ने कहा कि आयोग का गठन कुछ नहीं होने से तो अच्छा है भले ही यह कदम देर से उठाया गया है ।
ये सवाल होगें जांच के दायरे में :-
*हादसे के दौरान राज्य प्रशासन की भूमिका ।
*यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन प्रमुख वारेन एंडरसन को सुरक्षित भागने का मौका देने की जांच।
*क्या कंपनी ने सख्त सुरक्षा मानकों का पालन किया था ।
*क्या कारखाने में आवश्यक सुरक्षा उपकरण लगाए गए थे ।
*उद्योग द्वारा क्या खतरनाक रासायनिक कचरे के निस्तारण की उचित व्यवस्था की गई थी ।

इसी माह उड़ान भरेगा जुगनू
आईआईटी कानपुर द्वारा स्वदेशी पद्धति से निर्मित नैनो सैटेलाइट जुगनू का प्रक्षेपण सितम्बर के अंत तक श्रीहरिकोटा से किए जाने की उम्मीद है।
आईआईटी के रजिस्ट्रार संजीवन कशालकर ने बताया कि संस्था के ६२ छात्र-छात्राआें और फैकल्टी की मेहनत से स्वदेशी तकनीक से विकसित तीन किलोग्राम वजनी नैनो सेटेलाइट जुगनू प्रक्षेपण के लिए इसरो के वैज्ञानिकों को सौंपा गया है । मार्च २०१० में संस्थान के स्वर्ण जंयती समारोह में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल यहां आई थी और उन्होने स्वदेशी तकनीक से निर्मित इस सैटेलाईट की जमकर तारीफ की थी और इसके निर्माण में लगे छात्र-छात्राआें का हौंसला बढ़ाया था । इस सैटेलाइट का वजन तीन किलोग्राम है पूरी तरह से स्वदेशी टेक्नोलॉजी पर आधारित है । एक फीट लंबा, दस सेंटीमीटर चौड़ा यह सैटेलाईट पोलर लाच वेहिकल (पीएसएलवी) की मदद से श्री हरिकोटा से अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया जाएगा । आईआईटी के वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यह कम से कम एक साल तक अंतरिक्ष में रहेगा । जुगनू से मिलने वाली उच्च् क्षमता की तस्वीरों व आंकड़ों का प्रयोग सूखा, बाढ़ और भूकंप संबंधी जानकारी हासिल करने के साथ-साथ प्रदूषण और पर्यावरण की जानकारी में भी किया जाएगा । इसका नियंत्रण कक्ष और भूकेन्द्र आईआईटी कानपुर का मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग होगा ।

सीकर मेंकचरे से बिजली बनाने का पहला संयंत्र
राजस्थान के सीकर में ऐसा विद्युत उत्पादन संयंत्र स्थापित किया जा रहा है जो कचरे से बिजली पैदा करेगा । यह संयंत्र न केवल राज्य बल्कि पूरे उत्तरी भारत में अपनी तरह का पहला ऐसा संयंत्र होगा ।
निजी भागीदारी से बने इस संयंत्र पर १३ करोड़ की लागत आएगी और यह संपूर्ण खर्च मुम्बई की एक कम्पनी रोचेम सेपरेशन सिस्टम्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड वहन करेगी । इस संयंत्र की खास बात यह है कि पूरी तरह पर्यावरण के अनुकूल है तथा इससे किसी तरह का प्रदूषण नहीं होगा । इसके लिए कम्पनी यहां जर्मनी से आयातित कंकर्ड ब्लू वेस्ट एनर्जी सिस्टम नामक अति आधुनिक तकनीक का उपयोग करेगी ।
यह पद्धति पूरी तरह प्रदूषण रहित और एक वैज्ञानिक कचरा निस्तारण विधि है । यहां एक ग्रीन जोन विकसित करके कचरा एकत्र करने, उसके भंडारण से लेकर उसके निस्तारण की पूरी प्रक्रिया सुरक्षित और पर्यावरण के अनुकूल और दुर्गध रहित होगी । इसके लिए प्रतिदिन एक सौ टन कचरा सीकर में ही उपलब्ध हो होगा तथा यह इकाई वर्ष में ७५०० घंटे काम करेगी । इस प्रक्रिया के तहत एक मेगावट प्रति घण्टे के हिसाब से सालभर में कुल ७५०० मेगावट बिजली का उत्पादन होगा ।