शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

ऊर्जा जगत

ऊर्जा नीति का वैज्ञानिक आधार क्या हो ?
भारत डोगरा

ऊर्जा नीति संबंधी विचारों मे हाल के समय में बहुत उतार-चढ़ाव देखे गए हैं । आज से लगभग पन्द्रह वर्ष पहले तक जो स्थिति थी, उसमें परमाणु ऊर्जा और बड़े बांधों के खतरों की ओर बहुत ध्यान दिलाया गया था । इस बारे में बहुत से प्रमाणिक तथ्य एकत्र किए गए थे व अध्ययन किए गए थे ।
इसका एक महत्वपूर्ण असर यह देखा गया है कि अनेक विकसित देशों ने अपने ऊर्जा कार्यक्रम में परमाणु ऊर्जा का महत्व कम कर दिया । जर्मनी जैसे महत्वपूर्ण देश ने यहां तक कहा कि वे निकट भविष्य में परमाणु ऊर्जा पर अपनी निर्भरता से पूरी तरह मुक्त हो जाएंगे । परमाणु संयंत्रों के लिए कंपनियों को नए आर्डर मिलने बहुत कम हो गए हैं । इस कारण से कुछ बड़ी कंपनियों में तो अपने को किसी तरह बचाए रखने का संकट उत्पन्न हो गया है ।
इसी तरह बड़े बांधों के विरूद्ध चले अभियान के कारण कुछ बहुचर्चित परियोजनाआें के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थाआें से सहायता मिलनी बंद हुई । ऐसी कुछ परियोजनाआें पर पुनर्विचार की मांग को स्वीकार किया गया है । संयुक्त राज्य अमरीका जैसे कुछ विकसित देशोंे में पहले से बनाए गए कुछ बांधों को हटाने की मांग ने जोर पकड़ा व ऐसे कई प्रयास आरंभ भी हुए । नदियों को बगैर किसी बड़ी बाधा के बहने देने की जो मांग पहले अवैज्ञानिक मानी जाती थी, नदियों के पर्यावरण की बढ़ती समझ के साथ इस मांग को वैज्ञानिक मान्यता प्राप्त् होने लगी है ।
बहस यहां तक पहुंचने के बाद उसने एक बडी उलटबाजी खाई है । यह तब हुआ जब जलवायु परिवर्तन का संकट सबसे बड़े पर्यावरणीय संकट के रूप में सामने आया । इस संदर्भ में यह कहा जाने लगा कि अब किसी भी अन्य पर्यावरणीय समस्या की अपेक्षा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना ज्यादा जरूरी है । अत: कोयले, तेल व गैस से चलने वाले ताप बिजली घरों में बिजली का उत्पादन कम करना सबसे जरूरी है । इस नई प्राथमिकता को ध्यान में रखते हुए बड़े बांधों व परमाणु बिजली घरों को नई मान्यता मिलने लगी । सबसे बड़ा आश्चर्य तो लोगों को तब हुआ जब पर्यावरण रक्षा अभियानों से जुड़े कुछ व्यक्तियों ने भी परमाणु ऊर्जा की वकालत करना शुरू कर दी ।
दूसरी ओर, अधिकांश अन्य पर्यावरणविदों ने कहा कि परमाणु संयंत्रों व बड़े बांधों के खतरों या दुष्परिणामों के बारे में जो तथ्य एकत्र किए गए थे वे आज भी अपनी जगह पर कायम है । बड़े बांधों के जलाशयों में वनस्पति गलने-सड़ने से जो मिथेन गैस उत्पन्न होती है, उससे भी जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ता है । परमाणु ऊर्जा प्राप्त् करने के लिए खनन से लेकर अवशिष्ट पदार्थ खपाने तक की तमाम प्रक्रियाएं गंभीर खतरों से जुड़ी हैं । इनमें से अनेक प्रक्रियाआें का जलवायु परिवर्तन पर प्रतिकूल असर पड़ता है, हालांकि बिजली उत्पादन के दौरान जीवाश्म ईधन न जलाने का कुछ लाभ जरूर मिलता है।
यह पूरी बहस तथ्यपरक इस कारण नहीं रह पाई क्योंकि परमाणु संयंत्रों व बड़े बांधो से जुड़े आर्थिक हितों की लॉबी ने जलवायु परिवर्तन के दौर मेंअपनी बढ़ती प्रासंगिकता का बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार किया । दरअसल, सब तरह के खतरों को देखते हुए ज्यादा जरूरी यह हो गया है कि ऊर्जा संरक्षण व ऊर्जा के वैकल्पिक व अक्षय स्त्रोतों की ओर ध्यान दिया जाए ।
यह सच है कि हाल के वर्षो में अक्षय ऊर्जा स्त्रोतों (जैसे सौर, पवन, बायोगैस आदि) की ओर पहले की अपेक्षा कहीं अधिक ध्यान दिया गया है, फिर भी जीवाश्म ईधन (कोयले व तेल) पर जितना खर्च होता है उसके मुकाबले में यह कहीं नहीं ठहरता है । यदि निजी व सार्वजनिक खर्च को मिलाकर देखा जाए तो भविष्य की ऊर्जा जरूरतों के इंतजाम में जितना खर्च हो रहा है, उसमें जीवाश्म ईधन के नए भंडार खोजने पर व पाइप लाइन बनाने आदि पर ही ज्यादा खर्च हो रहा है जबकि अक्षय ऊर्जा की नई व्यवस्था करने पर जो खर्च हो रहा है वह इसकी तुलना में बहुत कम है ।
अत: अक्षय ऊर्जा की बेहतर से बेहतर संभावनाआें को प्राप्त् करने के लिए अधिक संसाधन उपलब्ध करवाना बहुत जरूरी है पर इसका अर्थ यह नहीं है कि इन परियोजनाआें को भी विशाल बनाया जाएगा, तो इनसे कई तरह की पर्यावरणीय व सामाजिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती है । अत: जरूरत इन अक्षय ऊर्जा स्त्रोंतो के व्यापक स्तर के विक्रेन्द्रित उपयोग की है, न कि इनकी विशाल परियोजना बनाने की ।
इस तरह के वैकल्पिक विकास का एक उदाहरण यह हो सकता है कि किसी भी पंचायत या गांव का ऊर्जा नियोजन इस आधार पर किया जाए कि वहां जो भी स्थानीय ऊर्जा प्राप्त् करने की संभावनाएं है, उनका उपयोग पूरा किया जाए । इस तरह एक गांव या पंचायत की ऊर्जा आवश्यकताएं काफी हद तक सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा या बहुत छोटे स्तर के पनबिजली उत्पादन, बायोगैस आदि हो सकती है । इस तरह ट्रांसमिशन में होने वाला बहुत सा खर्च भी बचेगा । गांववासियों को गांव में ही रोजगार उपलब्ध होगा । स्थितियां अनुकूल रही तो पंचायत को अतिरिक्त ऊर्जा की बिक्री से कुछ आय भी प्राप्त् हो सकती है ।
चूंकि इस तरह की विकेंद्रित ऊर्जा का रास्ता अपेक्षाकृत नया है, अत: इसमेंआरंभ में कई कठिनाइयां आ सकती है और सरकार को आरंभ में ज्यादा खर्च भी करना पड़ सकता है, पर यदि कई स्थानों पर यह मॉडल सफल रहे तो अपेक्षाकृत कम खर्च पर इसकी प्रगति काफी तेजी से हो सकती है ।
पर्यावरण की रक्षा की दृष्टि से अक्षय ऊर्जा स्त्रोतों को बढ़ाना जरूरी तो है पर यह पर्याप्त् नहीं है । यदि उपभोगवादी जीवन शैली के प्रसार के कारण व्यापारिक ऊर्जा की मांग बहुत तेजी से बढ़ती रही तो इस बढ़ती मांग की आपूर्ति के लिए पर्यावरण पर बोझ असहनीय हद तक बढ़ सकता है और यह संभावना कम की जा सकती है । बिजली व ईधन का अपव्यय रोका जा सकता है । भवन बेहतर बनाए जा सकते है ताकि बिजली की जरूरत कम पड़े । उपकरणों व तकनीकों में सुधार हो सकता है ताकि वे कम ऊर्जा में बेहतर काम कर सकें । ये सारी संभावनाएं मौजूद हैं पर इनकी कुलउपलब्धि इतनी नहीं है कि वे उपभोगवादी जीवन शैली के तेज प्रसार के लिए आवश्यक ऊर्जा को सीमित रख सकें । अत: ऊर्जा संरक्षण व अक्षय ऊर्जा अपनाने के साथ उपभोगवादी जीवन शैली व सोच को नियंत्रित करना भी जरूरी है ।


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