मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

आवरण







सम्पादकीय

ग्लोबल वार्मिंग और हमारे प्रयास
विश्व के सबसे ठण्डे निवास स्थल अंटार्किटा में बर्फ तेजी से पिघल रही है । पृथ्वी के तापमान में आये इस बदलाव का कारण पिछले कुछ वर्षोंा से अत्यधिक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन माना जा रहा है । जो सौर ऊर्जा को परावर्तित कर वातावरण को गर्म कर देता है । ग्लोबल वार्मिंग की बढ़ रही इस समस्या से पूरी दुनिया चिंतित है । प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग को सबसे बड़ा खतरा मानने वाले देश इससे निपटने के लिये स्वयं की जिम्मेदारी नहंी मानकर दूसरे देशों पर डाल रहे हैं । वर्ष २००४ के आंकड़ों के अनुसार विश्व भर में ग्रीन हाउस गैसों में से एक कार्बनडाय आक्साइड का २७ अरब टन उत्सर्जन किया गया , जिसमें से ५.९ अरब टन तो केवल अमेरिका ने ही किया । इसके बाद ४.७ अरब टन का उत्सर्जन कर चीन दूसरे रूस १.७ और जापान १.३ अरब टन पर तीसरे स्थान पर है । भारत भी १.१ अरब टन कार्बन डाई ऑक्साईड ग्लोबल वार्मिक के लिये अहम जिम्मेदार माना गया । इसमें दूसरा पहलू यह भी है कि १९९७ में जिन ३८ औद्योगिक देशों ने ग्लोबल वार्मिंग के निराकरण के लिये क्योटो प्रॉटोकोल पर हस्ताक्षर किये थे उनमें से ५५ प्रतिशत देश ग्रीन हाउस गैसों को वातावरण में ज्यादा मात्रा में उत्सर्जित करने के लिए जिम्मेदार माने गये । सन् २००१ में हुए एक अध्ययन के अनुसार लगातार हो रहे इस वातावरण परिवर्तन के कारण तापमान औसतन ०.६ डिग्री बढ़ता जा रहा है । इसी वजह से आकर्टिंका की बर्फ तेजी से पिघल रही है । इसके साथ ही मुख्य नदियों के ग्लेशियर भी खत्म होते जा रहे हैं । विशेषज्ञ मानते हें कि असन्तुलित वर्षा और चक्रवाती तूफानों की तीव्रता में वृद्धि भी ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है । सन् २००७ में संयुक्त राष्ट्र के इंटर गर्व्हमेंट पैनल के अनुसार २१०० तक पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़कर ३.२ से ७.२ तक फेरनहाइट हो सकता है । इस रिपोर्ट के अनुसार जलवाष्प, कार्बन डाइ ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और ओजोन ग्लोबल वार्मिंग के लिये जिम्मेदार है । इनका ६० प्रतिशत उत्सर्जन मानवीय क्रियाआें के कारण होता है । वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के कुछ कृत्रिम उपाय किये जाये तो कुछ हद तक इस पर रोक लगायी जा सकती है । उनके अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के कारण बाधितप्रकाश संश्लेषण की क्रिया में इजाफा करने के लिये यदि समुद्र में लौह तत्व की मात्रा कृत्रिम रूप से बढ़ा दी जाये तो इससे समुद्री शैवाल को पोषण मिलेगा साथ ही उनकी उत्पत्ति बढ़ने से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में वृद्धि होगी वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में पौधे कार्बनडाइ आक्साइड ग्रहण करते हैं और ऑक्सीजन बाहर निकालते हैं । इसलिए ऐसा करने पर काफी हद तक वातावरण की कार्बन डाई आक्साइड को कम किया जा सकता है ।***

प्रसंगवश

दाँतों के दुश्मन है शीतल पेय
ऊर्जा और ताजगी के लिए पीया जाने वाला एनर्जी ड्रिंक आपके दाँतों को नुकसान पहुँचा सकता है । एक नए अध्ययन में दंत चिकित्सकों ने यह बात कही है । अध्ययन के दौरान बाजार में उपलब्ध पाँच ड्रिंक्स में एसिड के स्तर का परीक्षण भी किया गया । इसमें पाया गया कि हाई एनर्जी और स्पोर्ट्स ड्रिंक में सबसे ज्यादा एसिड की मात्रा होती है, जो दाँतों को खराब करने के लिए काफी है । उल्लेखनीय है कि सॉफ्ट ड्रिंक इन दिनों युवाआें और किशोरों के बीच काफी लोकप्रिय हैं । यही कारण है कि इस उम्र के लोगों में दाँतों की समस्या सबसे ज्यादा सामने आ रही है । अतिरिक्त ऊर्जा के लिए लोग अक्सर कोई न कोई एनर्जी ड्रिंक पीते हैं । ऐसे डिं्रक शरीर में ऊर्जा तो भर देते हैं लेकिन ये दाँतों को बेहद नुकसान पहुँचाते हैं । यहाँ तक कि दाँत कमजोर और खराब होकर निकल तक जाते हैं । इससे पहले के शोध भी यह चेतावनी देते आए हैं कि सोडा या अन्य एनर्जी ड्रिंक का पीएच स्तर दाँतों के लिए घातक है । ऐसे डिं्रक में मौजूद एसिड दाँतों की संरचना बिगाड़ सकते हैं और दाँतों में सड़न लगने लगती है । अध्ययन कहता है कि आइस टी, रूट बीयर ही नहीं बल्कि कुछ खाद्य पदार्थ जिनमें एसिड होता है भी हर दिन दाँतों को किसी न किसी रूप में नुकसान पहुँचाते हैं । हालाँकि अध्ययन की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि दाँतों में खराबी के लिए सिर्फ सॉफ्ट ड्रिंक के पीएच स्तर को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है । बल्कि ड्रिंक के एसिड को पचाने की क्षमता भी दाँतों के सड़न में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अमेरिकन डेंटल एसोसिएशन के प्रवक्ता रेमंड मार्टिन कहते हैं कि सोडा, स्पोर्ट्स डिं्रक और एनर्जी ड्रिंक्स से दाँतों में होने वाली सड़न का इलाज जल्द से जल्द करवाना चाहिए वरना बड़ी समस्या पैदा हो सकती है । इसके लिए सबसे पहले जरूरी है कि सॉफ्ट ड्रिंक वगैरह से दूरी बना ली जाए । यह शोध जनरल डेंटिस्ट्री, एकेडमी ऑफ जनरल डेंटिस्ट्री के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है । ***

१ सामयिक

रोजगार गांरटी कानून और पर्यावरण
सुश्री सुनीता नारायण
राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून १ अप्रैल ०८ से पूरे देश में लागू हो गया है इसे लागू किए जाने के साथ ही इसके अंतर्गत होने वाले कार्योंा की उपयोगिता का मूल्यांकन भी जरूरी है । महाराष्ट्र जो कि इस नई रोजगार योजना का आधार रहा है, के दर्शन का समावेश भी कार्ययोजना मेे होना चाहिए । साथ ही चुनी हुई पंचायती राज संस्थाआें की भूमिका में भी स्पष्टता होनी चाहिए । अस्सी के दशक के मध्य पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल जब महाराष्ट्र की रोजगार ग्यारंटी योजना के सूत्रधार की खोज में निकले तो मैं भी उनके साथ हो ली । इस खोज में हमने स्वयं को सचिवालय में फाइलों से अटे धूलभरे दफ्तर में पाया । वहां हमारी मुलाकात वी.एस.पागे से हुई, वे छोटी कद-काठी के बहुत ही मृदुभाषी इंसान थे । उन्होंने हमें बताया कि सन् १९७२ में जब राज्य में भीषण सूखा पड़ा था और लोग पलायन पर मजबूर थे तब यहां एक ऐसी कार्ययोजना तैयार की गई जिसकी मूल भावना थी ग्रामीण इलाकों मेंे रोजगार पैदाकर भुगतान के लिए बड़े शहरों के व्यवसाइयों पर दायित्व डालना । ये रोजगार कानूनन ग्यारंटी से युक्त थे । यह पहल गरीबी को हटाने के ध्येय को लेकर निर्मित रोजगार अधिकार सम्पन्नता की और पहला कदम थी । चूंकि काम स्थानीय स्तर पर ही उपलब्ध था अत: लोगों को रोजगार की तलाश में शहरों की ओर नहीं भागना पड़ा । संकट के ऐसे दौर मेंरोजगार निर्माण की इस पहल से तो अनिल न केवल उत्साहित थे ही बल्कि एक और बड़ा पर्यावरण पुननिर्माण का लाभ वे इसमें देख पा रहे थे । इसी दौरान हम अण्णा हजारे से मिलने रालेगांव सिद्धि गए थे । वहां उनके निर्देशन मेंे पहाड़ियों की परिधियों में पानी रोकने और जमीनी जल पुर्नभरण के उद्देश्य से छोटी खाईयां निर्मित की जा रही थीं । वहां हमें प्याज की भरपूर पैदावार देखने को मिली इसकी वजह थी सिंचाई की बढ़ी हुई मात्रा । पागे साहब भी अनिल के इसमें निहित पर्यावरण लाभ के विचार से सहमत तो थे किंतु उन्होंने बताया कि चूंकि योजना संकट के दौर का सामना करने के लिए बनाई गई थी, अत: जिला प्रशासन ने ज्यादातर मामलों मेें पत्थर तोड़ने, सड़कें बनाने और सार्वजनिक निर्माण के कार्य करवाकर अपना कर्तव्य पूरा कर लिया । अगले कुछ वर्षोंा में इस श्रमधन का उपयोग प्राकृतिक आस्तियो के निर्माण में किए जाने के विचार ने महाराष्ट्र में जोर पकड़ा, अब मिट्टी और पानी को बचाने की ओर ध्यान केन्द्रित हुआ । इस दिशा में चेक डेम निर्माण खेतों में मिट्टी उपचार, पहाड़ियों में खाई रचना और पौधारोपण के कार्य होने लगे । महाराष्ट्र रोजगार योजना की तर्ज पर बनाए गए केन्द्रीय रोजगार कार्यक्रम ने भी अनुसरण करते हुए कुछ मामलों में पर्यावरण पुननिर्माण की गरज से एक न्यूनतम प्रतिशत पौधारोपण पर ही खर्च करने की व्यवस्था अनिवार्य कर दी । इसी दौर में देश ने जीवित वाले सार्थक पौधारोपण या ऐसे तालाब निर्मित करने का कौशल भी सीखा जो हर बारिश में गाद से न भर जाएं । प्रशासक एन.सी. सक्सेना ने आकलन किया कि रोपा गया हर पौधा अगर जीवित रह पाए तो हर गांव मेें इतने पेड़ होंगे कि प्रत्येक गांव के नजदीक एक अच्छा खासा जंगल होगा, जो कि अब तक वास्तव में सिर्फ कागजों तक ही सीमित था । अनिल ने बाद में लिखा भी था कि ये सब किस तरह अनुत्पादक रोजगार निर्माण में सिद्धहस्त हो चुके हैं, जिसके अंतर्गत हर वर्ष सिर्फ पौधरोपण जो कि प्रतिवर्ष रोपों के पशुआें द्वारा खा लिए जाने या मर जाने के कारण उन्हीं गढ्ढों को बार-बार खुदवाए जाने से शाश्वत होता जा रहा था । इस प्रशासकीय खेल ने ग्रामवासियों को नई चेतना दी और उन्होंने नाजुक प्रकृति की सुरक्षा का जिम्मा खुद उठाने का प्रण लिया । स्थानीय लोगो की राय ली जाने लगी । इसके फलस्वरूप उन्हें इसके सीधे फायदे भी मिलने लगे । चरनोई पेेड़-पौधे, जल स्त्रोत आदि पुनर्जीवित हुए । प्रशासकीय अमला वन-विभाग, कृषि विभाग सिंचाई विभाग गांवों के लिए जो योजनाएं बनाता था वे उतनी उपयोगी नहीं होती थीं । यह वह दौर था जब विकास के लिए प्रयोगधर्मिता की शुरूआत हुई । मध्यप्रदेश में गांवों में वाटर शेड्स बनाने के लिए मात्र एक एजेंसी को माध्यम बनाने का प्रयोग हुआ । इस दौर के ही अध्ययनों से खुलासा हुआ कि भूमि और जल स्त्रोत के बेहतर उपयोग के द्वारा गांवों में आर्थिक उन्नति के द्वार खुल सकते है । लेकिन मैं आज इन बातो को फिर क्यों याद कर रही हूँ ? सीधी सी बात है । राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी भी इसी भवन में तैयार की गई है और इसमें पिछली योजनाआें की अपेक्षा बेहतर प्रावधान किए गए हैं जैसे प्राकृतिक आस्तियों के निर्माण (मिट्टी और जल के बचाव) पर खर्च के महत्व को प्रतिपादित किया जाना और इस हेतु ग्रामीण स्तर पर योजना बनाने को अनिवार्य किया जाना एवं चुनी हुई पंचायतों को लोक निर्माण कार्योंा के लिए शासकीय विभागों से वरीयता देते हुए उत्तरदायी बनाना । लेकिन योजना प्रारंभ होने के बाद भी एक सवाल मुंह बाए खड़ा है । क्या इससे स्थितियों में वास्तव में कोई परिवर्तन हुआ है ? तपती गर्मी के मौसम में राजस्थान प्रवास के दौरान मैंने महिलाआें के एक झुण्ड को ग्रामीण सौ दिनी योजना (स्थानीय लोग इसे यही कहते है) के अंतर्गत कार्य पर लगे पाया । वे तपते सूरज के नीचे तालाब की खुदाई कर रहीं थीं । देखरेख कर रहे इंजीनियर ने बताया कि पंचायत की सलाह पर तालाब मेें जमा मिट्टी को हटाकर दिवारों का निर्माण किया जाना है । हर महिला एक चौकोर गढ्ढा खोद रही थी । कारण पूछने पर सुपरवाईजर ने बताया कि इसी तरह से खुदाई के निर्देश मिले है । इसके पीछे कारण है एक वैज्ञानिक अध्ययन, जिसके मुताबिक एक व्यक्ति एक दिन में कितने क्यूबिक मीटर खोदता है इसका अंदाजा हो जाता हैै । उन महिलाआें को चौकोर गढ्ढे का लक्ष्य दे दिया जाता है और काम और मजदूरी का हिसाब उसी के द्वारा लगाया जाता है । मौके पर मौजूद मजदूर महिलाआें का कहना था कि इस कवायद का मकसद सिर्फ यह है कि हमें सप्तह या पंद्रह दिनों की अपनी मजदूरी का अंदाजा न लग पाए क्योंकि कार्य का आकलन व्यक्ति के रूप से किया जाएगा। मैंने महसूस किया कि दिल्ली में बैठे आका अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार से निपटने के चक्कर में व्यावहारिकता को भूल जाते हैं । किसी के पास इस सवाल की जवाब नही था कि इन चौकोर गढ्ढों से क्या तालाब बन पाएगा ? किसी को इस बात की फिक्र नहीं थी कि तालाब तक पानी लाने वाली नहरों की गाद निकाली भी गई है या नहीं । या कि इस सौ दिनी योजना में काम पूरा हो भी पाएगा या नहीं । इसी दौरान मैंने सुंदरवन शेर अभ्यारण्य के नजदीक स्थित एक गांव में देखा कि रा.ग्रा.रो.गा. योजना के अंतर्गत खोदी जा रही एक नहर के ग्रामीण अर्थव्यवस्था का किस तरह प्रभावित किया है । स्थानीय मछुआरों को अब मछली पकड़ने के लिए अवैध तरीकों पर निर्भर नही रहना पड़ रहा था । इसकी वजह से अब कृषक भी एक अतिरिक्त फसल ले पा रहे थे । योजना की इस उपादेयत से उत्साहित हेाकर मैंने पूछा कि क्या इसकी रूपरेखा पंचायत ने बनाई थी ? जवाब नकारात्मक था । स्थानीय निवासियों का कहना था कि अगर पंचायत के द्वारा काम हो रहा होता ता हमें भुगतान मिलने में कठिनाई होती क्योंकि पंचायतों के लिए भुगतान को जिला अधिकारियों द्वारा स्वीकृत करवाया जाना आवश्यक है । जिसके लिए अधिकारी कार्य पूर्णता का विस्तृत सबूत चाहते हैं । यह कार्यवाही इतनी जटिल है कि या तो भुगतान प्राप्त् ही नहीं होता या होता भी तो बहुत कम । इस कार्य को वन विभाग के माध्यम से सम्पन्न करवाया जा रहा है जिसके पास योजना बनाने और उसे सम्पन्न कराने के अधिकार हैं । राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की मूल भावना में कोई कमी नहीं है । लेकिन कार्य सम्पादन के स्तर पर इसमें कमी है । इसे अतिशीघ्र ठीक किए जाने की आवश्यकता है । पर्यावरणीय पुनर्चक्रीकरण के देवता भी यही चाहते हैं कि विस्तृत कार्ययोजना बने । ***

२ विज्ञान जगत

क्या हम इन्सान ही अक्लमंद हैं ?
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
हमें स्कूल-कॉलेज में पढ़ाया गया था कि सारे जानवरों में सिर्फ इन्सान ही सोचते समझते हैं । यानी हम ही सेपिएन्ट हैं । अब धीरे-धीरे समझ में आ रहा है कि यह दावा कितना मानव-केन्द्रित था । जो नाम हमने अपने-आपको दिया है, होमो सेपिएन्स, वह एक अहंकार का द्योतक है क्योंकि सेपिएन्स (यानी अक्लमंद) का विलोम बेवकूफ होता है । यह भंडाफोड़ तब हुआ जब चिंपैंजी का अध्ययन किया गया । चिंपैंजी हमारे ही कुल के हैं मगर हम उनसे चंद लाख साल पहले अलग दिशा में बढ़ गए थे । सवाल यह था कि क्या वे हमारी तरह संज्ञानशील हैं और सोचते हैं । हाल ही में क्योटो विश्वविद्यालय के डॉ. तेतसुरो मात्सुज़ावा ने दर्शाया है कि ५ साल के चिंपैंज़ियों ने याददाश्त के एक अभ्यास में कॉलेज विद्यार्थियों को पछाड़ दिया । उनका शोध पत्र करंट बायोलॉजी के अंक में पिछले दिनों प्रकाशित हुआ है । इसमें ५ साल के तीन चिंपैंजियों के प्रदर्शन का ब्यौरा दिया गया है । इन चिंपैंजियों को अरबी अंक १ से ९ का क्रम सिखाया गया था । अंकों का क्रम सिखाने के बाद उन्हें एक परीक्षण दिया गया जिसमें उन्हें ये अंक एक कम्प्यूटर के पर्दे पर दिखाए जाते हैं । जब वे पहले अंक को छूते तो शेष ८ अंक सफेद वर्गाकार डिब्बो में बदल जाते थे । परीक्षण यह था कि चिपैंजी इन आठों को उन अंकों के क्रम में छुएं जो डिब्बों में बदलने से पहले वहां थे । इन चिपैंजियों और कॉलेज के आठ छात्रों की प्रतियोगिता में चिपैंजी लगातार हर बार जीते और चिपैंजियों में भी अयुमु नाम का चिंपैंजी तो आइंस्टाइन साबित हुआ । वैज्ञानिकों का कहना है कि यह परीक्षण इस धारणा को चुनौती देता है कि इन्सान हर तरह के संज्ञान में चिंपैंजी से बेहतर होते हैं । संज्ञान थोड़ा भारी-भरकम शब्द है । इसका आशय जानने या प्रतीति के कार्य या प्रक्रिया से होता है । इसका संबंध विचार निर्माण या अमूर्तिकरण से भी होता है । अयुमु की हरकतें इस परिभाषा में पूरी तरह फिट होती हैं । और ४२ वर्षीय चिंपैंजी वाशो की हरकतें भी इस परिभाषा में फिट होती हैं, जिसकी मृत्यु कुछ ही दिनों पहले वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के परिसर में हुई। वाशो इतनी मशहूर हो गई थी कि उसका शोक संदेश एक पेशेवर शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ था । वाशो को वैज्ञानिक दंपति एलन व बीट्रिस गार्डनर ने दो वर्ष की उम्र से पाला था । गार्डनर दंपति इस बात का अध्ययन करने में जुटे थे कि क्या चिंपैंजी कोई भाषा सीखकर हमारे साथ संवाद कर सकते हैं । चूंकि चिपैंज़ियों के पास बोलने के लिए जरूरी स्वर यंत्र नहीं होता, इसलिए वैज्ञानिकों ने फैसला किया कि वे वाशों को अमेरिकन साइन लेंग्वेज (इशारों की भाषा) यानी ए.एस.एल. सिखाएंगे । खुद उसके एक शारीरिक हावभाव और हाथांे के इशारे (भुजाओें को पास-पास लाना) से शुरू करके वैज्ञानिकांें ने संकेत को इस तरह ढाला कि इसका अर्थ हुआ `अधिक' । जल्दी ही गार्डनर दंपत्ति ने पाया कि वाशो अपने आसपास के इन्सानोें को ए.एस.एल.के इशारे इस्तेमाल करते देखकर स्वयं वे इशारे सीख सकती है । यह रिपार्ट किया गया है कि धीरे-धीरे वाशो करीब २५० शब्द और मुहावरे काफी विश्वसनीय ढंग से इस्तेमाल कर सकती थी । और तो और, वाशो ने एक चिंपैज़ी बच्च्े लूलिस को अपने पुत्र के रुप में अपना लिया और उसे भी अपना कुछ ज्ञान सिखाया । ज़ाहिर है, लूलिस को ए.एस.एल. सिखाने के लिए चिंपैज़ी भाषा का उपयोग हुआ होगा । जैसी कि उम्मीद थी प्रोजेक्ट वाशो ने विज्ञान जगत में हलचल पैदा कर दी । यह हलचल अभी भी थमी नहीं है । चालीस साल पहले भाषा वैज्ञानिक नोम चोम्स्की ने सुझाया था कि दुनिया की सारी भाषाएं एक सार्वभौमिक व्याकरण से संचालित होती हैं । उनका दावा था कि हर शिशु इस व्याकरण के ज्ञान के साथ जन्म लेता है । दूसरे शब्दों में, भाषा की समझ एक जैविक विरासत है और संभव है कि भाषा का एक जिनेटिक आधार हो । यदि यह दावा सही है, तो हमें अपेक्षा करनी चाहिए कि सिर्फ चिंपैंजी ही नहीं बल्कि कुत्ते, बिल्ली और चूहों जैसे अन्य स्तनधारी भी अपने-अपने अनोखे अंदाज में भाषागत रूप से दक्ष होंगे और अमूर्त चिंतन व अभिव्यक्ति के भी काबिल होंगे । एम.आई.टी. के स्टीवन पिंकर जैसे अन्य भाषाविद् जन्मजात भाषागत समझ को शुद्धत: एक जिनेटिक तोहफे के रूप में देखने के आलोचक हैं । पिंकर का मत है कि भाषा जटिल व उपयोगी होने के अलावा अनुकूलनकारी भी है । ``यह विडंबना ही है कि लोग वनमानुषों को ऊंचा उठाने के लिए हमारी संप्रेषण प्रणाली उन पर थोपना चाहते हैं, गोया यही उनके जैविक महत्व का पैमाना हो ।'' इस तरह के चेतावनी भरे शब्दों के बावजूद जंतु संज्ञान संबंधी शोध विचार व अमूर्तिकरण के क्षेत्र मेंनित नए आश्चर्यजनक तथ्य उजागर कर रहा है । क्या हम पिंकर के `हमारी संप्रेषण प्रणाली उन पर थोपने' को त्याग कर यह अध्ययन कर सकते हैं कि क्या जंतु समूहीकरण कर सकते हैं और इन्सान की मदद के बगैर चित्रों के बीच भेद कर सकते हैं ? इस मुद्दे पर डॉ. फ्रेडरिक रेंज के नेतृत्व में वियतनाम के एक वैज्ञानिक समूह ने विचार किया है । उनका शोध पत्र एनिमल कॉग्निशन पत्रिका के नवम्बर २००७ के अंक प्रकाशित हुआ है । टच स्क्रीन विधि से किए गए प्रयोगों में पता चला कि सभी कुत्तेप्राकृतिक उद्दीपनों के चित्रों को वर्गीकृत कर पाते हैं । श्री रेंज के शोध पत्र के साथ उसी अंक में प्रकाशित एक अन्य शोध पत्र में डॉ. रोसी और डॉ. एडेस ने बताया है कि कुत्ते इन्सानों से संवाद करते समय सुसंबद्ध ढंग से कुछ संकेत ग्रहण कर सकते हैं और प्रदर्शित कर सकते हैं । (कुत्ते पालने वाले तो कहेंगे कि उन्हें तो यह बात हमेशा से पता थी ।) कुछ वर्ष पहले यू.के. के जीव वैज्ञानिकों ने दर्शाया था कि सामान्य कौए एक तार को हॉकी स्टिक के रूप में मोड़कर उसकी मदद से किसी गहरे बर्तन में से भोजन का टुकड़ा निकाल लेते हैं। इस तरह के औज़ार बनाने के लिए विश्लेषण, विचार निर्माण और अमूर्त सोच की ज़रूरत होती है । यदि कौआ ऐसा कर लेता है तो वह अक्लमंद उर्फ सेपिएन्ट है। प्राकृतिक उद्दीपनों के बीच भेद कर के कुत्ते भी सेपिएन्ट हैं, और संकेत भाषा सीखकर और सिखाकर और कम्प्यूटर गेम में कॉलेज के छात्रों को शिकस्त देकर चिंपैंजी भी सेपिएन्ट साबित होते हैं । तो वक्त आ गया है कि होमो सैपिएन्स पदवी को थोड़ा व्यापक तौर पर लागू किया जाए और इसमें अन्य जानवरों को भी शामिल किया जाए । कम से कम हम वनमानुषों से शुरूआत कर सकते हैं । इन्हें पैन सेपिएन्स कहा जा सकता है जैसा कि डॉ. मात्सुज़ावा ने अपनी किताब `प्राइमेट ओरिजिन्स ऑफ ह्युमैन कॉग्निशन एण्ड बिहेवियर' में लिखा भी है । ***

३ विशेष लेख

एक श्राप : मिथक या प्राकृतिक विपदा ?
के.एन. गणेशैया
कर्नाटक में गांव का बच्च-बच्च `तलकाडू के श्राप' के बारे में जानता है। १६वीं सदी से चले आ रहे लोकगीतों में भी इसका उल्लेख मिलता है । किंवदंति के अनुसार मैसूर घराने के राजा वाडेयार के हाथोंविजयनगर साम्राज्य के एक शासक की पराजय के बाद उसकी पत्नी ने श्राप देते हुए कहा था - `तलकाडू रेत में बदल जाएगा और वाडेयार घराने में कोई वंशज पैदा नहीं होगा ।' यह श्राप अगर आज एक मिथक बन गया है तो इसकी दो प्रमुख वजह हैं : एक, तलकाडू वाकई रेत के टीलों में दबता गया है और दूसरा, करीब चार सौ सालों से मैसूर राजघराने में कोई वारिस पैदा नहीं हुआ है । विभिन्न सूत्रों से मिली जानकारियों और क्षेत्र के अध्ययन के बाद मैंने इस `चमत्कार' की घटनाआें के संभावित कालक्रम का पता लगाया है । मेरा मानना है कि तलकाडू की यह घटना प्राकृतिक आपदा का परिणाम है जो इस शहर की जीवंत सभ्यता को लील गई । फिर इस घटना को बड़ी ही होशियारी से श्राप के साथ जोड़कर एक कहानी गढ़ ली गई । वैज्ञानिक आम तौर पर मिथकों या चमत्कारों से दूर ही रहते हैं, खास तौर पर उन मिथकों से जो पहली नज़र में ही असंगत या अतार्किक नज़र आते हैं । दरअसल, किसी मिथक की यही अतार्किकता उसे समाज में प्रतिष्ठित कर देती है और तमाम तर्को को ठेंगा दिखाते हुए यह मिथक लगातार अपनी जड़ें मजबूत करता जाता है । आश्चर्य की बात यह है कि अगर किसी मिथक या चमत्कार के पीछे कोई तर्क है तो वह धीरे-धीरे अपनी कुदरती मौत पर मर जाता है क्योंकि चमत्कार के साथ तर्क के जुड़ने से आम लोगों में उसका आकर्षण नहीं रहा जाता है । केवल कर्तहीन मिथक ही जिंदा रहते हैं; यानी जिन मिथकों का कोई स्पष्टीकरण नहीं है, वे ही टिके रहते हैं । ऐसे में मिथकों, खासकर लंबे समय से चले आ रहे मिथकों के फैलाव के पैटर्न को जानना बेहद रोचक होगा । तलकाडू का श्राप - कर्नाटक में पिछली चार सदियों से तकलाडू के श्राप का मिथक चला आ रहा है । इस श्राप की मुख्य तीन बातों में से दो साफ दिखाई देती हैं जो इसे `विश्वसनीय' बनाती हैं । पहली बात यह है कि यहां रेत का साम्राज्य फैला हुआ है । यहां के मंदिर बार-बार रेत से ढक जाते हैं । एक विशेष पूजा ओर और महत्वपूर्ण धार्मिक मेले के आयोजन के दौरान इन मंदिरों से रेत हटानी पड़ती है ।दूसरा प्रमुख संयोग मैसूर राजघराने के वारिस से संबंधित है । मैसूर के शासकों के दावानुसार वे २० प्रीढ़ियों से इस श्राप को झेलते आ रहे हैं और सार्वजनिक तौर पर इसे सच भी मानते हैं; यानी उनका भी विश्वास है कि इस श्राप की वजह से उनके यहां कोई वारिस पैदा नहीं हो रहा है । श्राप के इतने स्पष्ट परिणामों की वजह से कोई तर्कशील व्यक्ति भी इसे स्वीकार लेता है । अत: इसकी गहन समीक्षा जरूरी है ।श्राप कथा - तलकाडू राज्य के मैसूर के निकट कावेरी नदी के किनारे स्थित एक ऐतिहासिक स्थल है । मानव सभ्यता के विकास का यहां लंबा इतिहास रहा है। यह होयसला काल (१२वीं-१३वीं सदीं) में एक बहुत ही समृद्ध शहर था । यह गंग राजाआें के काल (छठीं सदी से नवीं सदीं) और चोल राजाआें के काल (दसवीं सदी का उत्तरार्द्ध) में एक महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्र भी रहा । १५वीं सदी की शुरूआत में यह विजयनगर साम्राज्य का हिस्सा बन गया जो १६वीं सदी के अंत तक बना रहा । यहां चार वर्ग किलोमीटर के छोटे से दायरे में ही करीब एक दर्जन मंदिर बने हुए हैं । इन मंदिरों की भव्यता बताती है कि इस क्षेत्र में एक जमाने में समृद्ध कला व संस्कृति और व्यापार व मानव गतिविधियों का अस्तित्व रहा होगा। किसी काल में व्यापार और संस्कृतिका यह जीवंत केन्द्र आज उजाड़ नजर आता है । केवल कुछ वर्षो के अंतराल पर होने वाले धार्मिक मेले के दौरान ही चहल-पहल होती है । इस शहर के उजाड़ होने के पीछे भी उसी श्राप को जिम्मेदार माना जाता है । माना जाता है कि यह श्राप १६१० में एक धार्मिक महिला ने उस समय दिया था जब मैसूर के वाडेयार राजा ने विजयनगर शासकों से श्रीरंगपट्टन छीन लिया था । उस दौरान विजयनगर साम्राज्य की ओर से श्रीरंगपट्टन में रंगराय शासन कर रहे थे । श्रीरंगपट्टन पर कब्जे के बाद मैसूर के राजा को सूचना मिली कि रंगराय की पत्नी अलामेलम्मा (कुछ लोग उसका नाम रंगम्मा भी बताते हैं) के पास हीरे-जवाहरात का खजाना है जो दरअसल एक प्रसिद्ध मंदिर की सम्पत्ति है । इस सूचना के आधार पर मैसूर शासक ने उन हीरे-जवाहरात को अलामेलम्मा के कब्जे से हासिल करने के लिए कुछ सैनिक भेजे । बताया जाता है कि अलामेलम्मा ने संपत्ति देने से इंकार कर दिया और भागकर श्रीरंगपट्टन से करीब ४० किलोमीटर दूर स्थित तलकाडू आ गई । सैनिकों ने उसका वहां तक पीछा किया । इससे कुपित होकर उसने तीन श्राप दिए और मालंगी गांव के निकट बह रही कावेरी नदी में कूद गई । उसने जो कहा, उसका अनुवाद इस प्रकार हैं :-१. तलकाडू रेगिस्तान में बदल जाए । २. मालंगी के पास बह रही नदी में भंवर बन जाए । ३. मैसूर राजाआें के घर कोई वारिस पैदा न हो । यह मिथक पिछले चार सौ सालों से अगर जीवित है तो इसकी तीन प्रमुख वजहें हैं :-१. मालंगी के निकट कावेरी नदी में भंवर है और अलामेलम्मा ने उसी भंवर में छलांग लगाई थी ।२. तलकाडू शहर और विशेषकर पुराने शहर पर रेत की १० से २० मीटर परत बिछी हुई है । होयसला काल में बने मंदिर तो २० मीटर गहराई में दबे हैं । इससे साफ है कि इन बीते चार सौ सालों में शहर पूरी तरह रेतमय हो चुका है । कुछ मंदिरों पर जमी रेत को सार्वजनिक पूजा कार्यक्रमों के दौरान हटाना पड़ता है । बाद में वे फिर रेत से ढक जाते हैं । नदी किनारे से उड़कर आती रेत को रोकने के लिए कई रेत-अवरोधक महान इंजीनियर एम.विश्वेश्वरैया ने खड़े किये थे । हाल के दिनों में रेत उड़ना कम हुई है और इसीलिए मंदिरों को रेत में से खोदकर बाहर निकालने की जरूरत भी अपेक्षाकृत कम पड़ने लगी है । ३. मैसूर का शाही परिवार १६वीं शताब्दीं से उचित वारिस की समस्या से जूझता आ रहा है और वह इस विपत्ति को सार्वजनिक तौर पर भी स्वीकारता रहा है। अगर परिवार की वंशावली पर एक सरसरी निगाह भी डाल ली जाए तो पता चल जाएगा कि समस्या वाकई गंभीर है । इन तीन बातों में से पहली यानी श्राप क्रमांक १ को नकारा जा सकता है क्योंकि अगर इस कहानी को एकदम सच मान लिया जाए तो जाहिर है कि नदी में पहले से ही भंवर था, अन्यथा शायद अलामेलम्मा आत्महत्या ही नहीं करती । लेकिन अन्य दोनों श्रापों के बारे में क्या कहा जाए ? इसीलिए मैंने पुरातात्विक आंकड़े व इलाके की भूगर्भीय विशेषताएं समझने की कोशिश की, क्षेत्र के रेतीले इलाके में बदलने के कारणों की पुरानी व्याख्याआें का अध्ययन किया और नदी से लेकर शहर तक पाई जाने वाली रेत के आकार के प्रोफाइल का आकलन किया। इसके बाद मैंने मैसूर के महल स्थित हेरीटेज विभाग से वाडेयार राजघराने की वंशावली की जानकारी हासिल की । इनसे प्राप्त् जानकारी से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि कथित श्राप की तीनों बातें उस जमाने में पहले से ही अस्तित्व मे थीं और इन तथ्यों को कुछ स्वार्थी ने अपने हिसाब से बड़ी ही चतुराई से `श्रापरूपी' सूत्र में पिरो दिया । मेरा यह भी मानना है कि तलकाडू में आने वाली प्राकृतिक विपत्ति के लक्षण भी पहले से ही दिख रहे थे और इसे भांपकर ही मिथक को बढ़ावा दिया गया । हालांकि यह ज्ञात नहीं हो पाया है कि आखिर इसकी वजह क्या थी, इसके पीछे किन लोगों के क्या स्वार्थ जुड़े हुए थे । अपने निष्कर्ष पेश करते हुए उस प्रक्रिया पर भी विचार कर रहा हूंू जिससे होकर मिथक बड़ी तेजी से आम जनता के बीच अपनी जड़ें जमा लेते हैं ।तलकाडू का रेत में बदलना - इसके तीन कारण हो सकते हैं :- १. भूवैज्ञानिक परिदृश्य : भूगर्भशास्त्री पहले ही बता चुके हैं कि मैसूर और होग्गेनेक्कल के बीच नदी के मार्ग के साथ-साथ एक छोटा लेकिन सक्रिय फॉल्ट जोन है जो शिवन समुद्र, बी.आर. हिल्स और माले मघेश्वर हिल्स तक फैला हुआ है । इसी वजह से नदी बड़ी तेजी से अपनी दिशा बदलती रहती है । कई जगहों पर नदी ने बड़े ही घुमावदार मोड़ ले रखे हैं । ऐसा ही एक घुमावदार मोड़ तालकाडू शहर के पास भी है । दरअसल, यहां नदी ने अर्द्ध वृत्ताकार रूप से शहर को घेर रहा है । इसलिए इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि मानसून में जब नदी में बाढ़ आती होगी तो उसे साथ बड़ी मात्रा में रेत भी तलकाडू तक आ जाती होगी । लेकिन दूसरी ओर नदी के लेटराइट निर्मित अपेक्षाकृत कठोर किनारे की वजह से मालंगी में रेत के ढेर नहीं लग पाए । हालांकि इस किनारे से नदी का तेज प्रवाह लगातार टकराता रहा है । ऐसे में मालंगी का भी कटाव होता जा रहा है । इसी के परिणामस्वरूप मालंगी के पूर्व में स्थित एक भव्य मंदिर अब क्षत-विक्षत हो चुका है । यहां एक अहम सवाल भी उठता है । भूवैज्ञानिक बदलाव की प्रकिया लाखों वर्षो से जारी है, जबकि तलकाडू में रेत के जमाव की प्रक्रिया कुछ सौ वर्ष पुरानी ही है । इसलिए यह भी संभव है कि इस रेत के जमाव की प्रक्रिया के कुछ स्थानीय कारण भी रहे हों और भूवैज्ञानिक बदलाव की सतत जारी प्रक्रिया ने बस उनकी गति में वृद्धि की हो ।२. एनीकट का निर्माण : कहा जाता है कि सन् १३३६ में विजयनगर साम्राज्य के एक मंत्री माधव मंत्री ने हेमिगे के पास तलकाडू के ऊपरी क्षेत्र में कावेरी नदी पर एक एनीकट (छोटां बांध) बनवाया था । इस वजह से नदी सूख गई होगी और उसकी रेत वर्षो हवा के संपर्क में खुली पड़ी रही होगी । तलकाडू में उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम से तेज हवाएं आती हैं । माना जाता है कि हवाआें के तेज झोंको में रेत के कण तलकाडू आते रहे होंगे । डी.वी. देवराज का आकलन है कि रेत के कण ७ से १० फीट प्रतिवर्ष की दर से तलकाडू की ओर बढ़े होंगे । इससे मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि तलकाडू की रेत कावेरी नदी से ही उड़कर आई होगी । तलकाडू के पास कावेरी में जो गहरे मोड़ हैं, उसकी वजह से नदी के मार्ग में भी रेत का जमाव अपेक्षाकृत अधिक हुआ होगा, जिसने तलकाडू में रेत जमाव की प्रक्रिया को और तेज़ किया होगा । पुरातत्वीय सर्वेक्षणों के साफ़ होता है कि तलकाडू में रेत का जमाव १६वीं सदी के उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ था । इसलिए इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि रेत के तलकाडू की ओर विचलन या रेत की जमाव प्रक्रिया का आगाज १६वीं सदी के पहले से हो गया होगा । जानकार व समझदार पर्यवेक्षक ने भावी परिणाम का अंदाजा लगा लिया होगा और इस प्रकार `श्राप' के रूप में भविष्यवाणी कर दी होगी । रेत जमाव की प्रक्रिया में तेजी आने पर जब लोग यहां से धीरे-धीरे जाने लगे और अंतत: तलकाडू को निर्जन कर गए तो यह `श्राप' आम लोगों के बीच मिथक के रूप में गहरे पैठ गया ।३. शहर का धंसना : तलकाडू के प्राचीन भवनों के सावधानीपूर्वक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि शहर खुद ही धीरे-धीरे ज़मीन के भीतर धंसता गया है । यहां की गई खुदाई में पुराना निर्माण कार्य नदी तल से काफी नीचे पाया गया जो बिल्कुल असामान्य बात हैं, क्योंकि कोई भी निर्माण जमीन के नीचे नहीं किया जाएगा, कम से कम उस जमाने में तो बिल्कुल ही नहीं । यानी उस समय किया गया निर्माण धीरे-धीरे धंसककर नदी तल से नीचे चला गया। उदाहरण के लिए कीर्तिनारायण मंदिर के नीचे बनाए गए ड्रेनेज पाइप मौजूदा नदी तल के काफी नीचे पाए गए । ड्रेनेज पाइप का तभी कोई मतलब है जब वे नदी तल से ऊपर लगाए जाएं । इससे साफ है कि ये ड्रेनेज पाइप निर्माण के समय तो नदी तल से ऊपर ही लगाए गए होंगे, लेकिन फिर वे धंसते-धंसते काफी नीचे चले गए। चंूकि यह क्षेत्र फॉल्ट जोन में आता है, इसलिए यह भी संवभावना है कि किसी भूगर्भीय घटना की वजह से यह क्षेत्र धंस गया होगा । जाहिर है कि इस निचली सतह की वजह से यहां नदी का बाढ़ क्षेत्र बढ़ा होगा । तलकाडू के पास नदी के पाट का विस्तृत होना इस संभावना को पुष्ट करता है ।वारिस की समस्या - मैसूर राजघराने की वंशावली पर नज़र दौड़ाने से साफ दिखाई देता है कि वारिस (पुत्र) की समस्या लगातार बनी हुई है । मैंने पाया कि इस राजघराने के कई राजाआें की एक दर्जन से भी अधिक रानियां रही हैं, लेकिन इसके बावजूद यहां कोई वारिस पैदा नहीं हो पाया । इसी वजह से शाही परिवार को हर बार बाहर से एक राजकुमार को गोद लेना पड़ा है । हालांकि अगर राजघराने की वंशावली का गहराई से विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि १९में से केवल १० पीढ़ियों के साथ ही वंश की समस्या रही और इसकी भी कई अन्य वजह हो सकती हैं, न कि अलामेलम्मा का श्राप । कुछ प्रमुख तथ्य इस श्राप के असर को निष्प्रभावी ठहराते हैं।१. इस कथित श्राप के कुछ ही वर्षो बाद मैसूर घराने के एक राजा के यहां पुत्र का जन्म हुआ था, लेकिन बाद में उसकी मृत्यु हो गई थी । इससे यह बात निराधार साबित हुई कि श्राप की वजह से शाही परिवार में वारिस पैदा ही नहीं होगा ।२. कम से कम तीन मामले ऐसे भी थे जिनमें परिवार का वंश आगे इसलिए नहीं बढ़ पाया क्योंकि विवाह से पहले ही वारिस की मृत्यु हो गई ।३. अधिकांश दत्तक निकट अनुवांशिक संबंधियों से ही लिए गए जिससे सगोत्र विवाहों को बढ़ावा मिला । संभवत: इस वजह से परिवार में निस्संतति की समस्या पैदा हुई । इस प्रकार तथ्यों के आईने में शाही परिवार में वंश की समस्या के कारण साफ नज़र आते हैं जिनका श्राप से कोई लेना-देना नहीं है ।प्राकृतिक विपदा - तलकाडू का प्रकरण प्राकृतिक विपदा का एक अद्वितीय उदाहरण है जो विकास गतिविधियों का नतीजा थी । नदी के ऊपर एक बांध के निर्माण ने एक अच्छे-भले सम्पन्न शहर को रेगिस्तान में बदल दिया जिससे धीरे-धीरे इसने व्यापारिक केन्द्र का दर्जा भी खो दिया और संस्कृति भी रेत में गहरे दफन हो गई । अंतत: सदियों से विकसित हो रही एक महान सभ्यता भी जमीदोज हो गई । आज इस निर्जन स्थल की पूर्व दिशा में एक छोटा सा गांव स्थित है जिसे एक जीवंत शहर की स्मृति माना जा सकता है। तलकाडू का श्राप एक अतार्किक मिथक (वैसे अधिकांश मिथक तर्कहीन ही होते हैं) के इतने सालों बाद भी जीवित रहने का अनूठा नमूना है । इसकी प्रमुख वजह यह है कि श्राप के रूप में जो भविष्यवाणियां की गई थीं, वे आज भी साकार नजर आती हैं । इसी कारण यह मिथक तर्कशील और वैज्ञानिक दिमाग रखने वाले लोगों के लिए एक बड़ी चुनौती था । मैंने यह साबित करने की कोशिश की है कि जो भविष्यवाणियां की गई थीं, उनकी तार्किक व वैज्ञानिक व्याख्या कर इस कथित श्राप को बेमानी ठहराया जा सकता है । किसी मिथक का अस्तित्व समाज विशेष के शिक्षा और वैज्ञानिक सोच के स्तर पर निर्भर करता है । हालांकि अत्यंत विकसित और शिक्षित समाज भी मिथक के चमत्कारों से बच नहीं सके हैं। जिस समाज में धार्मिक आस्था जितनी गहरी होगी, मिथकों का प्रभाव उतना ही अधिक व्यापक होगा, लेकिन यह भी सच है कि कम धार्मिक आस्था वाले समाजों में भी मिथक पाए जाते हैं । इस प्रकार मिथकों के निर्माण और उनके फैलाव के बारे में दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता । वे केवल मस्तिष्क की एक मनोदशा को प्रतिबिंबित करते हैं ।***

४ जनजीवन

नर्मदा घाटी में विस्थापन और पुनर्वास
रामास्वामी अय्यर
मेरी स्मृति में सन् १९५० की एक फिल्म `विनस्लो बाय' में राबर्ट डोनाट द्वारा ब्रिटिश न्याय इतिहास के गुंजायमान शब्द `उचित को होने दिया जाए' अभी तक प्रतिध्वनित होती रहते हैं । १० मार्च ०८ को मैं सर्वोच्च् न्यायालय में बैठा सुनवाई की लम्बी श्रृंखला में अपने कानो पर जोर देकर वहां के वातावरण में फैले शब्दों को पहचानने का प्रयास कर रहा था । मैं बहुत ही मुश्किल से हल्का-सा कुछ सुन पा रहा था । हालांकि न्यायालय न केवल बहुत ही प्रभावित कर रहा था बल्कि इससे मुझे विस्मयकारी प्रेरणा भी मिल रही थीं और मैं इस पर गर्व महससू कर रहा था कि मैं भारत के उच्च्तम न्यायालय में बैठा हँू । इसी के साथ मैं बहुत ही परेशानी का अनुभव करते हुए एवं हतोत्साहित होते हुए स्पष्ट तौर यह नहीं सोच पा रहा था कि कहां पर क्या गलत है । उस दिन न्यायालय के सामने नर्मदा घाटी में पुनर्वास के मोर्चे पर असफलता की दर्दनाक कहानी थी । याचिकाकर्ता कई बातों की ओर ध्यान आकर्षित कर रहे थे, जैसे कि बांध की पूर्व निर्मित ऊँचाई पर भी अभी तक पुनर्वास नहीं हुआ है । बिना पूर्व निपटारा किए विस्थापितों की संख्या में बढ़ोत्तरी, तथाकथित विशेष पुनर्वास पैकेज या एस.आर.पी. यानि भूमि के बदले नकद की अवैधानिक व बाध्यता हेतु बलप्रयोग की चर्चा जिसके अंतर्गत परियोजना प्रभावित परिवारों (पी.ए.एफ.) से कहा गया कि वे एस.आर.पी. के अंतर्गत सरकारी बंजर भूमि, असिंचित भूमि और नकद मेंसे चुनाव करें, इतना ही नहीं योजना का भ्रष्टाचार व नकली पंजीकरण से अनिष्टकारी होना, आदिवासी समुदाय से छलकपट, आदि-आदि । यह याचिका संविधान के अनुच्छेद-२१ के अंतर्गत प्रदत्त न्याय और मौलिक अधिकारों की प्रािप्त् हेतु दायर की गई थी । इसके पूर्व ८ जुलाई ०६ को प्रधानमंत्री ने अपनी पूरी सद्इच्छा से शुंगलू समिति की रिपोर्ट में पुनर्वास की स्थिति को तथ्यात्मक रूप से ठीक मानते हुए इस सद्इच्छा से वशीभूत होकर आगे की कार्यवाही की ओर संभवत: यह सोचते हुए कदम बढ़ाया था कि जो कुछ बाकी रह गया है वह मानसून के अगले उन तीन महीनों में पूरा कर लिया जाएगा, जिस दौरान परियोजना का निर्माण कार्य निलंबित रहता है । प्रधानमंत्री को दी गई जानकारियां त्रुटिपूर्ण थीं । थोड़े ही समय में यह स्पष्ट हो गया कि शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट बुरी तरह से दोषपूर्ण है । इसमें कुछ सच तो है परंतु गलतियों की भी भरमार है । जहां तक पुनर्वास में पिछड़ने की बात है तो इस संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि यहां इस मसले को तीन महीने में निपटाने की बात कही जा रही थी वहां दो साल बाद भी इसका निपटारा तो नहीं हुआ है बल्कि संभवत: इसमें वृद्धि ही हुई है । यहां तक तर्क दिया जा सकता है कि इस संबंध में दो विचार हैं, एक है याचिकाकर्ता का । यह पक्ष कहता है कि पुनर्वास का कार्य स्तरहीन और अधूरा है। वहीं दूसरा पक्ष मध्यप्रदेश सरकार का है, जो कहता है कि यह कार्य पूर्ण हो चुका है । अतएव न्यायालय के लिए यह तय कर पाना आसान नहीं है कि दोनों में से कौन सही है । वैसे इस संबंध में कुछ स्वतंत्र रिपोर्ट भी हैं । २००६ में ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, काउंसिल फार सोशल स्टडीज एवं कुछ अन्य संस्थानों के बुद्धिजीवियों के एक जांच दल ने अध्ययन के बाद जो रिपोर्ट दी थी उसमें और शुंगलू रिपोर्ट में काफी विसंगतियां पाई गई थीं । हाल ही में अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश व अन्य द्वारा जारी रिपोर्ट के बारे में कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि ये अत्यधिक विचलित करती हैं । अब कहीं पुनर्वास की स्थिति को लेकर कोई विवाद है तो वह केवल उसकी असफलता की सीमा को लेकर है एवं संख्या को लेकर है । इस मामले को संबंधित ग्राम सभाआें के माध्मय से सुलझाया जा सकता है और इसे इसी माध्यम से ही अनिवार्य रूप से सुलझाया भी जाना चाहिए । इसे चाहे जैसे समझा जाए पर दो बातें एकदम स्पष्ट है कि पुनर्वास का कार्य बुरी तरह से पिछड़ा हुआ है एवं एस.आर.पी. जैसी पूरक व्यवस्था ट्रिब्यूनल के फैसले और सर्वोच्च् न्यायालय के स्वयं के पूर्व फैसलेे से विचलन है । यह एक गैर कानूनी कार्य है जिस हेतु न तो कोई प्रयत्न ही किया जाना चाहिए था ना ही उसे प्रोत्साहित किया जाना था । ऐसे में क्या किया जाना चाहिए? सर्वप्रथम इससे संबंधित सरकारों को यह मानना होगा कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है । साथ ही यह कि अधिकारों का (विस्थापितों के) उल्लंघन हुआ है एवं ट्रिब्यूनल के अवार्ड एवं न्यायिक आदेशों के पालन में भी चूक हुई है । दूसरा, सरकारों को इन गलतियों को ठीक करना होगा । संक्षेप में कहें जो आगे का निर्माण कार्य प्रारंभ होने के पूर्व पहले की सभी गड़बड़ियों को दूर कर लिया जाए । जब तक पूर्व का बकाया पुनर्वास पूर्ण रूप से न हो जाए तब तक डूब क्षेत्र में व विस्थापन में कोई वृद्धि न की जाए । हालांकि न्यायालय में हमने जो कुछ सुना उसमें इस तरह की भावना परिलिक्षित नहीं हो रही थी । वहां की फिजां में क्लांति, अधीरता और चिड़चिड़ाहट का आभास हो रहा था । यह भावना भी उभर रही थी कि पुनरावर्ती हो रही है एवं यही सब कुछ बार-बार कहा जा चुका है । परंतु न्यायालय में बिंदुआें की पुनरावर्ती से यह साफ-साफ नजर आ रहा है कि जमीनी हकीकत यही है कि अभी भी गलत हो रहा है । ये सर्वोच्च् न्यायालय में न्याय की आकांक्षा के लिए आए हैं । शासकीय अधिवक्ता द्वारा अपीलकर्ताआें के प्रति की गई टिप्पणी कि ये तो लगातार एक ही बिंदु पर `राग अलापते' रहते हैं एवं `विकास' के रास्ते में रोड़ा बनकर खड़े हैं, सरकार की अधीरता ही दिखाई है । ऐसा मालूम पड़ रहा है कि न्यायमूर्ति भी इस मामले को निपटाने हेतु चिंतित हैं । वे भी न्याय व अधिकारों संबंधित अमूर्त अनुनय विनय से अधीर हो चुके है और सहज ही यह पूछने लगे हैं कि इस गतिरोध को ताे़डने के लिए आपके पास क्या व्यावहारिक समाधान है ? सुनने में यह बहुत ही यथोचित जान पड़ता है । परंतु वास्तव में क्या यह उन परियोजना प्रभावित परिवारों जिनमें से अधिकांश आदिवासी हैं और जो इस भूमि की सबसे बड़ी अदालत में न्याय व अधिकारों के लिए आए हैं के प्रति समुचित विचार का क्या कोई निष्कर्ष नहीं निकलेगा ? क्या उच्च्तम न्यायालय की मुख्य आकांक्षा बजाय न्याय देने के लिए समस्या की व्यावहारिक निष्पत्ति है ? इस अवसर पर कोई अंतिम निर्णय पारित नहीं किया गया । मध्यप्रदेश सरकार से एक रिपोर्ट मांगी गई है और मसला अंतिम सुनवाई के लिए आगे बढ़ा दिया गया है । अपीलकर्ता की न्याय के प्रति उम्मीद अभी भी देदीप्यमान है । हालांकि प्रक्रिया की मुख्य उद्विग्नता न्याय पर अवलम्बित उम्मीद है न कि व्यावहारिकता । ***

५ प्रदेश चर्चा

मालवा : बिगड़ता पर्यावरण और जलवायु

डॉ. ओ.पी. जोशी
कुछ वर्षो पूर्व यह बताया गया था कि हमारे देश में अन्य देशों की तुलना मेंसर्वाधिक जैव विविधता है जिसमें मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ प्रथम स्थान पर हैं । विश्व स्तरीय आकलन के मुताबिक भारत, मलेशिया, इंडोनेशिया, चीन और केन्या आदि निर्धन और विकासशील देश हैं लेकिन ये जैव विविधता से संपन्न है जबकि अमेरिका, इंग्लैड, कनाड़ा और फिनलैंड आदि धनी और विकसित देश हैं लेकिन जैव विविधता में निर्धन हैं । यह आकलन देश पर भी लागू होता है क्योंकि म.प्र. और छत्तीसगढ़ आर्थिक संदर्भ में भले ही पिछड़े हो परंतु जैव विविधता में सम्पन्न हैं। मध्यप्रदेश में भी जैव विविधता का अध्ययन किया जाए तो मालवा और निमाड़ निश्चित रूप से सिरमौर ही होंगे । इन क्षेत्रों में जैव विविधता की अधिकता का कारण अच्छी जलवायु और आदिवासियों की बहुलता है जिनका पूरा जीवन पेड़-पौधों और जीव-जंतुआें से जुड़ा रहता है । मालवा निमाड़ क्षेत्र में तेजी से हो रहे वन विनाश, मरूस्थलीकरण, भूमि जलस्तर में गिरावट, कृषि की नई विधियां और विभिन्न प्रकार के प्रदूषण आदि से जैव विविधता पर संकट गहरा रहा है । उस्मानिया विश्वविद्यालय हैदराबाद के वनस्पतिज्ञ डॉ. जाफरी ने कुछ वर्षो पूर्व मालवा की जलवायु पर अध्ययन कर बताया था कि यहां २५ वर्ष पूर्व लगभग ४५ प्रतिशत वनों की कटाई हुई और सर्वाधिक नीम-बबूल के पेड़ काटे गए जो यहां की जलवायु को समशीतोष्ण बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं । उत्तरप्रदेश के वन विशेषज्ञ डॉ. आर.ए. किदवई ने देश के २० प्रांतों में वन विनाश की दर का अध्ययन कर बताया था कि सर्वाधिक वन बस्तर और मालवा से गए । इनमें भी इन्दौर, देवास और झाबुआ जिले अव्वल रहे । लगभग एक करोड मालवी आबादी को समेटे ४७७६० वर्ग किमी क्षेत्र में फैले मालवा में कई स्थान भू-जलस्तर ६०० फीट नीचे पहुंच गया है । राजस्थान के झालवाड़ जिले से लगे मप्र के राजगढ़ में भूमि में रेतीलापन बढ़ा है । राजस्थानी रेगिस्तान एवं वहां से आने वाले पशु जाने-अनजाने मे मालवा का पर्यावरण बिगाड़ रहे हैं । मालवा निमाड़ का बिगड़ता पर्यावरण और जलवायु में धीरे-धीरे आ रहा परिवर्तन जैव विविधता के लिए खतरनाक है अत: जैव विविधता को बचाने के लिए हमें पर्यावरण को बचाना होगा । यहां स्थानीय प्रजातियों से वनीकरण, पड़त भूमि सुधार, भूजल, दोहन पर नियंत्रण, जैविक खेती का प्रसार, राजस्थान सीमा से लगे गांवों और शहरों में सघन पौधारोपण व पेड़ंा की कटाई पर रोक, वर्षा जल संचयन और वायु व जल प्रदूषण पर नियंत्रण आदि कुछ ऐसे प्रयास है जो ईमानदारी से किए जाएं तो पर्यावरण को बचाया जा सकता है । मालवा-निमाड़ सहित पूरे प्रदेश में जैव विविधता संरक्षण के प्रयास जारी है । राज्य जैव विविधता बोर्ड का भी गठन किया गया है । प्रदेश में सात इको रीजन बनाएं गऐ हैं । इन क्षेत्रों का अध्ययन कर विलुिप्त् की ओर अग्रसर प्रजातियों के संरक्षण के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन जिस गति से पर्यावरण और जलवायु में परिवर्तन आ रहा है तथा विलुिप्त् का खतरा बढ़ रहा है उसके मद्देनजर से प्रयास नाकाफी है । मालवा और निमाड़ में जैव विविधता संरक्षण हेतु विस्तृत कार्ययोजना बनाना होगी जिनमें जैव विविधता की अवधारणा और उसके महत्व को स्वीकार करते हुए उसमें आ रही कमी के संभावित कारणों की पड़ताल करना होगा । प्रदेश में लगभग हर संभाग में एक विश्वविद्यालय और कृषि महाविद्यालय है। इन संस्थाआें को अतिरिक्त आर्थिक मदद देकर इनके माध्यम से जैव विविधता की जानकारी एकत्र करवाई जा सकती है । राज्य का उच्च् शिक्षा विभाग, म.प्र. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद (मेपकास्ट) आदि को इसके लिए नोडल एजेंसी का कार्य करे जो एकत्रित जानकारी का अध्ययन, विश्लेषण और प्रकाशन करे । इस जानकारी से स्पष्ट होगा कि प्रदेश का कौन संभाग जैव विविधता के मामले संपन्न है और कौन निर्धन है । जिला स्तर पर भी अध्ययन संभव है क्योंकि हर जिले में शासकीय महाविद्यालयों में प्राणी शास्त्र और वनस्पति शास्त्र विभाग हैं । इनके प्राध्यापकों को अतिरिक्त अनुदान देकर उनकी मदद ली जा सकती है । इससे जैव विविधता की जिलेवार स्थिति स्पष्ट होगी जिससे संरक्षण की कार्ययोजना बनाने में सुविधा होगी । जिले की वनस्पतियों के हर्बेरियम भी तैयार कर विज्ञान महाविद्यालयों में रखे जा सकते हैं । महाविद्यालय के बगीचे में आसपास की वनस्पतियां विशेषकर जिन पर विलुिप्त् का खतरा मंडरा रहा है, लगाई जा सकती है । इससे न केवल उन वनस्पितयों के अध्ययन में सुविधा होगी बल्कि उनका संरक्षण भी होगा । कुछ वर्ष पूर्व भारत सरकार के वन और पर्यावरण मंत्रालय ने मालवा क्षेत्र की औषधीय वनस्पतियों का संरक्षण कर उनका व्यावसायिक उपयोग करने की मंशा जाहिर की थी ताकि आर्थिक लाभ हो लेकिन लगता है कि यह निर्णय भी व्यवस्था के मकड़जाल में फंसकर विलुप्त् हो गया है । आंध्रप्रदेश में १४० नागरिक संगठनों का समूह २३ जिलों में संरक्षण कार्य में सक्रिय है । महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में जैव विविधता के संरक्षण के लिए पीपुल बायोडायर्वसिटी रजिस्टर बनाए गए हैं जिनमें तमाम जानकारी वैज्ञानिकों और स्थानीय लोगों की मदद से दर्ज की गई है। इस संरक्षण कार्य में सभी लोगों को जोड़ना होगा । बिना जनसहयोग पर्यावरण संरक्षण संभव नहीं है ।***

६ खास खबर

नया वन कानून कहीं मखौल बनकर नहीं रह जाए
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)
आजादी के साठ बरसों बाद वन अधिनियम को लागू किया जाना आदिवासियों के हितार्थ एक सार्थक कदम के रूप में ही देखा जाना चाहिए । जंगल में रहने वाले अनुसूचित जनजाति के लोगों और अन्य पारम्परिक वनवासियों के लिए यह कानून थोड़ी-बहुत उम्मीद तो अवश्य ही जगाने में सहायक बनेगा यह आशा तो की ही जा सकती है । इस अधिनियम को देखते हुए तो लगता है कि वनवासियों के अधिकारों का कुछ तो संरक्षण मिल ही सकता है । लेकिन अधिनियम का लाभ इस पर निर्भर करता है कि इसे पाने के लिए सरकारी स्तर पर स्वयंसेवी संस्था के स्तर पर किस हद तक जागरूक होते हैं । क्योंकि सरकार द्वारा पारित कानून के लाभों को हासिल करने के लिए सबसे पहले तो आदिवासियों को संगठित होने की जरूरत होगी । इसके साथ ही स्वयंसेवी संस्थाआें को भी अहम भूमिका निभाने के लिए कमर कसकर तैयार होना पड़ेगा। इससे कानून की आड़ में आदिवासियों के साथ किसी किस्म का धोखा नहीं हो सकेगा । वैसे यह अलग बात है कि जब स्वयंसेवी संस्थाएं आदिवासियों के पक्ष में खड़ी होंगी तो उन्हें कानून में परिलक्षित लाभ मिलने की संभावनाएं बढ़ जायेंंगी । फिर चाहे इसके लिए आंदोलन का रास्ता ही क्यों न अपनाना पड़े लेकिन जहां आदिवासी संगठित नहीं होंगे वहां उन तक कानून के लाभ पहुंचने में कई साल भी लग सकते है । यह भी हो सकता है कि असंगठित और गैर आदिवासियों के नाम पर जो जमीन हैं उनके दुरुपयोग के मामले तो पहले ही सामने आ भी चुके हैं । ऐसी दशा में वन कानून को लागू करने के लिए सरकारी स्तर पर जनजागरण अभियान चलाये जाने की जरुरत को नकारा नहीं जा सकता है। ऐसा करने से जंगल में रहने वालो को भी कानून से मिलने वाले लाभों की जानकारी आसानी से मिल सकती है । सरकारी स्तर पर स्थानीय भाषा में अधिनियम आदिवासियों तक पहुचने की व्यवस्था तो करनी ही पड़ेंगी। जहां तक वन अधिनियम का ताल्लुक हैं तो इसे संसद ने वर्ष २००६ में ही पारित कर दिया था किन्तु इसके बावजूद केन्द्र सरकार ने इसे अधिसूचित करने में लम्बा समय लगा दिया और इसे लागू भी काफी दबाव के बाद दिया जा सका है । इसे लागू करने से पहले सरकार के पर्यावरण और आदिवासी मंत्रालय में लम्बी बहस हुई । यहां तक कि अधिनियम को पूरा राजनीतिक समर्थन भी नहीं मिला और वन्य जीव प्रेमियों की आपत्ति भी इसके देरी की वजह रही । जंगलों में रहने वालों को यह आशा है कि कानून के लागू हो जाने से वनों को संरक्षण मिल पाएगा और अधिकारियों द्वारा वनों में रहने वालों को प्रताड़ित करने की घटनाआें में भी कमी आ सकेगी । आदिवासियों को जमीन का अधिकार मिल पाएगा । साथ ही जंगलों में पाए जाने वाली वनोपज और अन्य उत्पादों के उपयोग का अवसर उन्हें मिल पाएगा । इन उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए जरूरी है कि इनका फायदा बाहरी तत्व न उठा सकें । इसके लिए सरकारी स्तर पर गंभीरता पूर्ण ध्यान देना पड़ेगा । इतना ही नहीं बल्कि इस कानून में पट्टा देने की निर्धारित की गई समय सीमा की आड़ में गलत लोग इसका लाभ नहीं ले सके इसको भी प्रमुख रूप से ध्यान रखने की जिम्मेदारी का निर्वहन करना पड़ेगा । क्योंकि राजनीति से जुड़े लोगों को यह कहते भी सुना गया है कि जंगल की जमीन पर कब्जा कर लो तो पट्टा दिलाने मेंउसका सहयोग होगा । वनों को बचाने के लिए वन विभाग और स्थानीय लोगों को मिलकर ही संरक्षण की जिम्मेदारी निभाने को आगे आना होगा । कोशिश तो यह होना चाहिये कि वन विभाग को मिलकर जंगल को बाहरी तत्वों से बचाने में सक्रियता दिखाना चाहिये । सरकार को आदिवासियों के छोटे-छोटे लाभों के लिए कठोर कदम उठाने की जरूरत को भी नकारा नहीं जा सकता । क्योंकि तभी वास्तविक लाभ सभी तक पहुंचाये जा सकते हैं । आदिवासियों को वनोपज का अधिकार दिये जाने से राज्यों को राजस्व की हानि होना तय है । यह हानि मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों को और भी अधिक उठाने को तैयार रहना होगा क्योंकि इन राज्यों की वन उपजों पर पूरी तरह से राज्य का अधिकार होता है लेकिन इसका बड़ा लाभ वनवासियों के उन्नयन के रूप में अवश्य ही सामने आएगा । इस कानून के लागू हो जाने से अब वनवासियों के वनोपज का शत प्रतिशत लाभ मिलने की उम्मीद है । लेकिन यह भी गौरतलब बात है कि राज्य सरकारें आसानी से वनोपज पर से अपने कब्जे को जाते देखती नहीं रहने वाली है । जहां आदिवासी और अन्य समाज के लोग मिलजुलकर रहते हैं वहां इस कानून को अमल में लाने में परेशानियां पैदा हो सकती हैं । ग्रामीण स्तर पर जिन समितियों का निर्माण किया जा रहा है वह इन समस्याआेंं से किस तरह निपट सकेंगी । यही अपने आप में मुख्य समस्या बने बिना रहने वाली नहीं है । बेहतर हो कि कानून लागू होने से उत्पन्न होने वाली समस्याआें के निदान का रास्ता भी तलाश लिया जाए ताकि यह अधिनियम मखौल बनकर ही नहीं रह जाएं और आदिवासयिों के उन्नयन की उम्मीदें आधे-अधूरे रास्ते में ही खो नहीं जाए । नये कानून का लाभ वास्तविक हकदार को मिलेगा । ऐसी आशा सभी क्षेत्रों में व्यक्त की जा रही है ।***

७ आवरण कथा

विकल्पहीन नहीं है खेती
डॉ. आर.एस. धनोतिया
मजबूत अर्थव्यवस्था ही सर्वांगीण विकास का परिचायक है । या यों कहें मजबूत अर्थव्यवस्था एवं सर्वांगीण विकास एक दूसरे के पूरक ही हैं । मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए अर्थशास्त्री एवं चिंतक अपने-अपने सुझाव एवं विकास का मॉडल प्रस्तुत करते रहे हैं । सरकारें उन पर अमल भी करती हैं और कुछ ही सालों में उस मॉडल के तथाकथित `विकास' हमारे सामने आने लगते हैं । विस्तार में जाने से पूर्व विवेकानंद के विचारों पर ध्यान देना समीचीन होगा, `नया भारत किसानों के हल, मजदूरों की भट्टी, झोपड़ियों, जंगलों, किसानों और मजदूरी से जन्म लेगा ।' किंतु वर्तमान में इसके विपरीत ही हो रहा है । किसानों के हल की जगह ट्रेक्टर ले रहे हैं, मजदूरों की भट्टी को बड़ी-बड़ी मशीनें विस्थापित कर रही है, जंगल नष्ट हो रहे हैं और मजदूर भूखे पेट सो रहे हैं। ऐसे में नया भारत कैसे जन्म लेगा ? हरे-भरे जंगल सीमेंट कांक्रीट के जंगलों में तब्दील हो रहे हैं । फूलों की महक का स्थान चिमनियों के धुएं एवं रसायनों की गंध ने ले लिया है । एकतरफा फसल उत्पादन की ओर भागता किसान न केवल फसल का उचित मूल्य प्राप्त् करने से चूक रहा है बल्कि अपना अस्तित्व ही मिटाता जा रहा है । बहुआयामी चुनौतियों का सामना करता ऋणग्रस्त किसान आखिर मनुष्य ही है । मुसीबत में वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भुलावे में फंस जाता है । ऊपर से वोट बैंक की तरह भी उसका इस्तेमाल भी होता आया है । किसान इन परिस्थितियों में रेडिमेड कृषि संसाधनों जैसे रासायनिक खाद, तथाकथित उन्नत बीज, कीटनाशकों और यहां तक कि ग्रोथ प्रमोटर एवं अधिक उत्पादन दिलाने वाले कई उत्पादों के चक्कर में फंस जाता है, परिणाम हमारे सामने है । कृषि पर लागत अनाप-शनाप बढ़ती गई एवं कर्ज में डूबते किसान सामाजिक पारिवारिक जिल्लतों को न झेल पाने के कारण आत्महत्या जैसा जघन्य मानवीय अपराध करने लगे । देश को विकसित करने के लिए जरूरी है कि गांवों का भी विकास हो । देश को विकसित राष्ट्र की पंक्ति में खड़ा करने के हमारे प्रयासों का केन्द्र बिंदु ये गांव ही होने चाहिए । अधिकांश गांवों में मूलभूत सुविधांए उपलब्ध नहीं है । जंगलों के कट जाने तथ अत्यधिक कुपोषण के चलते आदिवासी तो पलायन कर गुलामों जैसा स्थिति में काम कररने पर मजबूर हैं लेकिन क्या गांवो को मूलभूत सुविधाएं जैसे पक्के मकान, पक्की सड़कें उपलब्ध करा देने मात्र से गा्रमीणो के जीवन स्तर में आमूल चूल परिवर्तन आना संभव है? समय-समय पर विचारक व चिंतक समस्याआें से रुबरु कराते हुए विकल्प भी प्रस्तुत करते हैं । किंतु यंे सब एकांगी या आंशिक विकास को प्रतिपादित करते हैं । सर्वप्रथम हमें विकास को देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुरुप सही स्वरुप में परिभाषित करने की पुरजोर आवश्यकता है । हम जब तक एकात्म विकास को नही समझेंगे, स्वीकार नहीं करेंगे एवं अपनाएेंगे नहीं तब तक सर्वागीण विकास नही होगा । एकात्म विकास वस्तुत: सर्वागीण विकास ही है । ग्रामीण विकास पर आर्थिक विश्लेषकों, चिंतको, चिंतको, समाजिक कार्यकर्ताआें व राजनेताआें द्वारा अपने-अपने स्तर पर एवं समय-समय पर चिंतन प्रस्तुत किए गए । प्रथम हरित क्रांति का असर अब लगभग समाप्त् सा हो गया है और रासायनिक उर्वरकों के साथ कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग की वजह से हाल ही के वर्षो में भूमि की उर्वरा शक्ति अत्यधिक क्षीण होने से गेहूं उत्पादन और उत्पादकता दोनों में भारी कमी आ गई है। दूसरे हरित क्रंति के बीजों की तलाश शुरु हो गई है । सिंचित क्षेत्रों के साथ कृषि ऋणों का दायरा बढ़ाने पर भी जोर दिया जाने लगा है । कृषि ऋण ही तो किसान को पथभ्रष्ट कर रहे हैं और यें ही आत्महत्या के लिए उत्तरदायी भी हैं । बीटी कपास एंव बीटी धान की तरह ही गेहूं में भी ऐसा ही कोई प्रयोग करने की वकालत की जाने लगी है । किंतु बीटी प्रजाति अथवा जीएम प्रजाति से आसन्न खतरों की ओर या तो किसी का ध्यान नहीं जा रहा है या इस तरफ से जान बूझकर आँखें मूंद ली गई है । मर्ज कुछ और है और दवा कुछ और दी जा रही हैं । वस्तुत: इस विकराल समस्या का हल सिंचित कृषि क्षेत्र बढ़ाना, कृषि ऋण का दायरा बढ़ाना, बीटी प्रजाति, मेक्सिकन ड्वार्फ वेराईटी गेंहू अथवा रासायनिक उर्वरकों के चलन को बढ़ाना बिल्कुल नहीं है । ये सभी विकल्प तो इस समस्या को बढ़ाएेंगे ही । साथ ही इससे कभी न सुलझाने वाली समस्या का जन्म होगा । मेरे विचार से इस समस्या का एक हल है। नेच्युको कृषि । गेंहू की जिन प्रजातियों से हरित क्रांति संभव हुई है वह भरपूर पेट्रोलियम ऊर्जा, पानी, रासायनिक खाद एवं विद्युत आपूर्ति पर निभर है । एक बार में ही मिट्टी की समूची ऊर्जा का दोहन कर मिट्टी को निर्जीव बना डालने के बाद हमें यह सफलता प्राप्त् हुई है। हरित क्रंाति के चमत्कारिक परिणामों, मशीनीकरण एवं रासायनिक खेती से जितना आर्थिक लाभ किसान को मिला उससे कहीं अधिक उसने खोया है । इतना ही नहीं किसान ने इस दौरान अपनी संवेदनशीलता भी खोई है । कृषि को आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक नए वैज्ञानिक चिंतन की आवश्यकता है जिसमें जीवन के मूलभूत सिद्धांतोंकी अवहेलना न हो । स्थायित्व देने वाली सदाबहार कृषि क्रांति की बात हम तभी कर सकते हैं जब किसानों का संसाधनों, ऊर्जा भंडारण एवं बाजार पर नियंत्रण हो और यह तभी संभव हो सकता है जब प्रोज्यूमर (उत्पादक - उपभोक्ता) सोसायटी अस्तित्व में आ जाए । प्रथम हरित क्रांति के चालीस साल बाद आज भारतीय खेती विचित्र संकट के दौर से गुजर रही है । हरित क्रांति के सभी व्यावहारिक उद्देश्य आज ध्वस्त हो चुके है । एक ओर किसानो द्वारा आत्महत्याआें का दौर जारी है वहीं योजनाकार और कृषि वैज्ञानिक दूसरी हरित क्रांति की नीव रखने में व्यस्त हैं । लेकिन यह नींव किस और कैसी जमीन पर रखी जा रही है ? नींव रखने के संसाधनों की रुपरेखा में वही तत्व निहित हैं जो प्रथम हरित क्रांति में थे । बल्कि वे तत्व अब ओैर अधिक विराट रुप में सामने आने वाले हैं । हमारे देश में एक ओर कृषि भूमि को बचांए रखना मुश्किल होता जा रहा है, वही सबसे बड़ी चुनौती यह है कि छोटे और सीमांत किसानों के लिए कृषि के कैसे ज्यादा से ज्यादा आकर्षक बनाया जाए ताकि उनका रुझान खेती की ओर बढ़े । भारत के संदर्भ मेंयह एक सर्वमान्य तथ्य है कि कृषि पर बाजार कभी हावी नहीं रहा । ऐसे में कृषि पर नियंत्रण हासिल करे के लिए जैव तकनीक का सहारा लिया गया । जैव तकनीक अब बहुत तेजी से कृषि का बाजारीकरण तो कर ही रही है परंतु अतिरिक्त चिंताजनक तथ्य यह है कि इससे संपूर्ण मानवता पर ही संकट छा रहा है । तथ्यों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि हमारी अर्थव्यवस्था के स्त्रोत एवं दृंढ़ स्तंभ कृषि एवं काश्तकार दोनों का ही अस्त्वि खतरे में है । हमारी कृषि एवं कृषि संस्कृति पर आधुनिक रासायनिक खेती का बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से जो हमला हुआ है, का सामना करने के लिए हमें बाहरी विशेषज्ञों की कतई आवश्यकता नहीं है । जो घातक तत्व इस हमले में सम्मिलित हो गए हैं उन्हें हम अपने स्तर पर ही नेच्युको कल्चर संस्कृति के विकास , सामग्री चेतना एवं जनजागृति के द्वारा बिना विशेष प्रयासों एंव निवेश के दूर कर सकते है। किसानों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रलोभनों से बचकर रहने की आवश्यकता है । क्योंकि जब एक बार निर्जीव मिट्टी सजीव को जाएगी तो निश्चित है उत्पादन एवं उत्पादक्ता बढ़ने के साथ किसानो की समृद्धि भी बढ़ेगी ही । नेच्यूको कल्चर से न केवल रसायनोंपर होने वाला व्यय एवं ऊर्जा का अपव्यय बचेगा, बल्कि कई बहुआयामी लाभ, जैसे मानव स्वास्थ्य के लिए उत्तम कृषि उत्पाद, फल, सब्जियाँ आदि प्राप्त् होगी जिससे मानव में रोग प्रतिरोध क्षमता भी निश्चित ही बढ़ेगी । औषधियों पर खर्च में कमी आएगी साथ ही बायो एनर्जी का सदुपयोग मिट्टी की सजीवता के लिए संजीवनी सिद्ध होगा । इन सबसे सर्वोपरि कृषि लागत में कमी किसानों के लिए सुकून से जीने का सबब होगा । किसानों के पन में यह आशंका है कि इससे उत्पादन घट जायेगा । यदि हम इसे पूर्ण मनोयोग से करें तो यह आशंका निर्मूल सिद्ध होगी । यहां तक कि वर्तमान बोये जाने वाल रकबे से भी कम में हमारी खाद्य पूर्ति न हो सकती है । यह प्रश्न उठता है क्या इतना अधिक बिगाड़ हो जाने के बाद भी नेच्यूको कल्चर की कल्पना क्या प्रासंगिक एवं व्यवहारिक है ? उत्तर निश्चित ही हां में है । आवश्यकता है दृढ़ इच्छाशक्ति की । इस महायज्ञ में सामाजिक कार्यकर्ता, गैर सरकारी संगठन आगे आएं एवं सरकारी सहायता का मुंह न देखें । खेतो को ही प्रयोगशाला बना कर नूतन प्रयोगों से एक एकड़ जमीन से बोवाई के तीन से चार माह बाद ४० क्विंटल ज्वार या प्रतिवर्ष प्रति एकड़ १६ टन अंगूर का उत्पादन किसान कैसे लेंजैसे सफल प्रयोग करने की आवश्यकता है । ***

८ पर्यावरण परिक्रमा

पर्यावरण के लिये बदल रहे हैं अंग्रेज


जलवायु परिवर्तन के संभावित खतरोंको कम करने के प्रयासों में ब्रिटेन की सबसे बड़ी सफलता यह रही हैं कि आम लोगों ने इस चुनौती को स्वीकार किया है । लंदन में ९० फीसदी लोग पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग करने लगे है । पर्यावरण को लेकर लोग अपने व्यवहार में बदलाव ला रहे है । जबकि सरकार की तरफ से दो क्षेत्रों में बेहद अच्छा काम हुआ है, पहला कम ऊर्जा खपत वाली ग्रीन बिल्डिंगों का निर्माण और दूसरे पब्लिक ट्रांसपोर्ट में हाइब्रिड और स्वच्छ इंर्धन को बढ़वा देना । पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बेहतर बनाने के लिए सरकार ने भारी निवेश किया है । इन दोनों में सरकार को अगले कुछ साल में और अच्छे परिणामों की उम्मीद है । लेकिन अब सरकार के लिए असली चुनौती कोयला आधारित बिजलीघरों से होने वाले काबनडाई आक्साईड उत्सर्जन मेंे कमी लाने की है। ब्रिटिश सरकार के ताजा आंकड़ो के अनुसार अभी कार्बनडाई आक्साईड का सर्वाधिक ३५ फीसदी उत्सर्जन कोयला आधारित बिजलीघरोंसे होता है । जबकि वाहनों की हिस्सेदारी २२ फीसदी है । वायु एवं समुद्री परिवहन का उत्सर्जन करीब सात फीसदी है । इन क्षेत्रो में एक साथ कई प्रयास किए जा रहे हैं । वायु यातायात में कार्बन उत्सर्जन पर करों को दोगुना किया गया है । इसी प्रकार पेट्रोलियम पदार्थोंा की कीमतों में टैक्सों में बढ़ोतरी की गई जो ६४-६७ फीसदी तक पहुंच चुके है । डिपार्टमेंट ऑफ ट्रांसपोर्ट के लो कार्बन व्हीकल शोध विभाग के प्रमुख रोय कोलिन बताते है कि ब्रिटेन मेें २४ लाख कारें है जिनमें हाइब्रिड कारों की संख्या बढ़कर १७ हजार से भी ऊपर पहुंच चुकी है । हाईब्रिड कारों पर शोध जारी है । पहले चरण में इस पर २० मिलियन पौंड का बजट रखा गया था जिसे अब बढ़ाकर ५० मिलियन पौंड किया जा रहा है । इसी प्रकार यहां ग्रीन बिल्डिंगें तेजी से लोकप्रिय हो रही हैं । ग्रीन भवनों और हाइब्रिड वाहनों के लिए सरकार की तरफ से करों आदि में छोटी-बड़ी रियासतें भी दी गई हैं । लेकिन कोयले से बिजली उत्पादन को हतोत्साहित करने के मुद्दे पर ब्रिटेन सरकार को अहम फैसला लेना है । तमाम विकसित देश इसके खिलाफ है लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इस दिशा में अपना रूख स्पष्ट नहीं किया है । माना जा रहा है कि सरकार इस बारे में जल्द अपनी स्थिति साफ करेगी ।

नमूना तकनीक से बाघ संरक्षण को नई दिशा

सेंटर फार वाइल्ड लाइफ स्टडीज (बेंगलूर) के निदेशक और वन्य प्राणी विशेषज्ञ डा. उल्लास कारंथ का मानना है कि भारतीय वन्य प्राणी सस्थान (डब्ल्यू आई आई) ने पहली बार नमूना तकनीक से बाघों की सही आबादी का पता लगाया है । वन विभाग और पर्यावरणविद बरसों से बाघ के पंजो के निशानों (पगमार्क) से गणना किया करते थे, जिसमें अनेक गलतियों और फेरबदल की गुंजाईश रहती थी । कैमरा पद्धति के उपयोग और गहन अध्ययन की इस वैज्ञानिक तकनीक से ज्यादा सटीक परिणाम आने की संभावना रहती है । ठीक गिनती से बाघ संरक्षण की तकनीक उसमें किए जाने वाले निवेश और अधिकारियों-कर्मचारियों के प्रशिक्षण आदि में मदद मिलती है । दुनिया के पहले बाघ विशेषज्ञ जार्ज शेलर १९६३ में अमेरिका से भारत आए थे और उन्होंने डा. कारंथ को सौ साल पुरानी वाईल्ड लाइफ कंजरवेशन सोसायटी (न्यूयार्क) का प्रतिनिधि बनाया था । उनकी संस्था आजकल वन्य प्राणियों के संरक्षण और शोध में लगी है। वर्ष १९९५ में कान्हा और पेंच टाइगर रिजर्वोंा में पहली बार कैमरा ट्रेप के जरिए बाघों की गणना करने के अनुभव के बारे में डॉ. कारंथ ने बताया कि तब कान्हा में सौ वर्ग किलोमीटर में १२ और पेंच के इतने ही इलाके में चार बाघ पाए गए थे। बाघ के शिकार हिरण, चीतल गौर और सांभर जैसे जानवरो की संख्या और माहौल देखकर लगता है कि कान्हा में आज भी स्थिति बदली नहीं है । एक बाघ को आसपास के ५०० में से सालाना ५० जानवरों की जरूरत होती है । डा. कारंथ ने कहा कि नमूना तकनीक में तीन स्तरों पर काम किया जाता है । पहले चरण में वन प्रशासन के सबसे छोटे कर्मचारी बीट गार्ड अपने अपने क्षेत्रों में बाघ के रहन-सहन, शिकार आदि की जानकारी एकत्र करते हैं । फिर रिमोट सेंसिंग से इलाके का जायजा लिया जाता है और चरण में कैमरा ट्रेप के जरिए बाघों की आबादी का घनत्व मापा जाता है । इस तकनीक में गलती की संभावनाएं न्यूनतम रहती है । उन्होंने बताया कि देश में १९६६-६७ से बाघों के पंजों के निशानों (पगमार्क) के आधार पर गणना होती थी । इस्तेमाल से गणना करके अपनी रिपोर्ट दी है । इसमें पगमार्क पद्धति से गिनी गई बाघों की आबादी का एक तिहाई कम होना बताया गया है । डा. कारंथ ने कहा कि सुश्री सुनीता नारायण की अध्यक्षता में बने टाईगर टास्क फोर्स ने वैज्ञानिक पद्धति से गणना करने की सिफारिश की है । हालांकि वह इस रिपोर्ट के वन्य प्राणियों व इन्सानों के सहजीवन वाली सिफारिशों से सहमत नहीं है । उन्होंने कहा कि हमें बाघो की तेजी से घटती संख्या का पता चल गया है । ऐसे में उनके संरक्षण के प्रयास तत्काल शुरू करना चाहिए ।

चिड़ियाआें की ११८६ प्रजातियां विलुप्त् होने के कगार परपर

समूची दुनिया में चिड़ियाघरो की ११८६ प्रजातियां विलुप्त् होने के कगार पर है । नवीनतम शोध के अनुसार चिड़िया वर्ग की कुल १२ प्रतिशत अथवा आठ में से एक प्रजाति इसकी चपेट मेंे है । इनमें से १८२ प्रजातियां तो गंभीरतम खतरे की स्थिति में है । यू एन. मिलेनियम इको सिस्टम एसेसमेंट की परियोजना रिपोर्ट के अनुसार २०५० तक जलवायुपरिवर्तन एवं चिड़ियाआें के आवास स्थल उजड़ने से ४०० से ९०० प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में होने की आशंका है और इक्कीसवीं शताब्दी के अंत तक यह सूची लगभग दुगनी हो जाएगी । वर्तमान में चिड़ियाआें की जिन ११८६ प्रजातियों के लुप्त् होने का खतरा है उनमें से ३२१ प्रजातियां अत्यंत जोखिम की स्थिति में है । इसी तरह ६८० असुरक्षित अवस्था में है । इसके अलावा ७२७ प्रजातियों के लिए वैश्विक स्तर पर खतरा बढ़ गया है । चिड़ियाआें की विविधता और गतिशीलता से पर्यावरणीय परिवर्तन का पता लगाया जा सकता है । बर्ड लाइफ इंटरनेशनल के अनुसार जलवायु संबंधी परिवर्तन का आंकलन और भविष्यवाणी भी संभव है ।

जंगल की आग का पता देगा आईखाना

सघन जंगलों में लगी आग का पता लगाने के लिए नासा ने नया हाईटेक प्लेन तैयार किया है । इसका उपयोग घने जंगलों में छुपे दुश्मनों को खोजने में भी किया जा सकता है । नासा ने इसे `आईखाना'नाम दिया है । नासा के वैज्ञानिक इसे एक तरह का हथियार मान रहे हैं। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अक्टूम्बर २००७ में इस महत्वपूर्ण हथियार का परीक्षण पूरा कर लिया था । अब इसे अमेरिकी वायु सेना में शामिल किया जा रहा है । किसी सुपरसोनिक विमान की तरह नजर आने वाला यह हथियार मानवरहित है और यह जंगलों के ऊपर आकाश मार्ग से नजर रखने का काम करता है । पिछले दिनों सेन डिएगो और दक्षिण कैलिफोर्निया के जंगलो मेंे लगी आग की सूचना सबसे पहले आईखाना ने ही दी थी । थर्मल इन्फ्रारेड इमेज का उपयोग करके यह हादसे की वास्तविक जगह की सूचना देता है । अमेरिकी वन सेवा के स्पेशल प्रोजेक्ट गु्रप लीडर एवरेट हिंकले कहते हैं कि यह उपकरण केवल आग लगने की सूचना भर देता है, हाईटेक फायरफाइटर के रूप में यह कोई उल्लेखनीय काम नहीं करता । हालाँकि सुदूर और घने जंगलो में लगी आग के वास्तविक स्थान का पता लगाना काफी मुश्किल होता है। इसलिए इस लिहाज से आईखाना का उपयोग महत्वपूर्ण साबित होगा । इसकी दूसरी खूबी जंगलों में छुपे दुश्मनों को पता लगाने की भी है । इसलिए यह सेना के लिए बेहद काम की चीज है । आईखाना का मुख्य काम थर्मल इन्फ्रारेड इमेजनरी के जरिए जंगल की आग का करीब से फोटो लेकर सेंट्रल सर्वर पर भेजना है । यह सूचना होमलैंड सिक्यूरिटी विभाग और पेंटागन दोनों के पास जाएगी । इसमें दो हाईटेक सैटेलाइटों में सेंसर लगे हैं जो टेलीस्कोप और कैमरे की मदद से ३० मीटर की रेंज से पिक्चर लेते है । सेंट्रल सर्वर पर सूचना पहुँचते ही बचाव और राहत का काम तेजी से शुरू हो जाता है ।वैज्ञानिकों ने निकाले आर्सेनिक से निपटने के रास्ते आर्सेनिक नामक विषैला रसायन पदार्थ सिंचाई के माध्यम से खाद्य पदार्थोंा में पहुुच रहा है, जिसके सेवन से हजारों लोग कैंसर जैसी बीमारी के शिकार हो रहे हैं । अब राष्ट्रीय वनस्पति शोध संस्थान के वैज्ञानिकों ने एक शोध के दौरान इस समस्या से निजात दिलाने के रास्ते निकाल लिए हैं । संस्थान के वैज्ञानिकों ने ऐसे जीन का पता लगा लिया है जो सिंचाईर् के बाद आर्सेनिक के स्तर को कम करने के साथ साथ उसे अनाज व सब्जियों में पहुंचने से रोकने में सफल होगा । शोध के दौरान ऐसे जीन की जानकारी मिली जो धान के पौधे में पहुंचने वाले आर्सेनिक को दोबारा वातावरण में उत्सर्जित कर रहा था । वैज्ञानिकों का कहना है कि इस विधि से तैयार बीजों को बोने से आर्सेनिक की मात्रा अनाज तक नहंी पहुंच सकेगी । विशेषज्ञों के अनुसार इस रसायन का मानव शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है । इसके शरीर में जाने से त्वचा, यकृत, फेफड़े संबंधी बीमारियां हो जाती है ।***


९ स्वास्थ्य जगत

गरीब बनाती स्वास्थ्य सेवाएं
डॉ. राम प्रताप गुप्त
विश्व बैंक यह कह रहा है कि भारत में चिकित्सा की ऊंची लागतों के कारण २ प्रतिशत आबादी प्रतिवर्ष गरीबी रेखा के नीचे जाने के बाध्य हो रही है । अर्थात सिर्फ स्वास्थ्य सेवाआें के कारण प्रतिवर्ष २ करोड़ आबादी गरीबी रेखा के नीचे पहुंचती जा रही है । भारत में स्वास्थ्य पर निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र में कुल राष्ट्रीय आय के ६.१ प्रतिशत (सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से मात्र १.३ प्रतिशत ही खर्च होता है) के बराबर खर्च किया जाता है । यह तीसरी दुनिया के और मध्यम आय वाले अधिकांश राष्ट्रों की तुलना में अधिक है । इसके बावजूद शिशु मृत्यू दर एवं औसत आयु जैसे स्वास्थ्य मापदण्डों पर भारत की उपलब्धियां निम्नस्तरीय हैं । उदाहरण के लिए श्रीलंका एवं बांग्लादेश स्वास्थ्य पर राष्ट्रीय आय का मात्र ३.१ प्रतिशत अर्थात भारत की तुलना में आधा ही खर्च करते हैं । इसके बावजूद वहां शिशु मृत्युदर भारत ६३ की तुलना में क्रमश: १३ और ४६ हैं पाकिस्तान स्वास्थ्य पर राष्ट्रीय आय का ३.२ प्रतिशत ही खर्च करता है इसके बावजूद वहां शिशु मृत्युदर भारत से थोड़ी कम ही है । प्रश्न यह है कि जब भारत स्वास्थ्य पर राष्ट्रीय आय का अधिक भाग खर्च करता है फिर भी उसकी स्वास्थता के क्षेत्र में उपलब्धियां निम्नस्तरीय क्यों है ? अधिक व्यय के बावजूद निम्नस्तरीय उपलब्धियों के लिए जब जिम्मेदार कारकों की तलाश की जाती है तो जो प्रमुख कारण उभर कर सामने आता है वह यह है कि भारत में कुल स्वास्थ्य व्यय में सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा अन्य राष्ट्रों की तुलना में बहुत कम है । भारत के कुल स्वास्थ्य व्यय में सार्वजनिक व्यय का हिस्सा मात्र २० प्रतिशत ही है । विश्व के मध्यम और निम्न आय वाले राष्ट्रों में स्वास्थ्य व्यय का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि जैसे-जैसे कुल स्वास्थ्य व्यय में सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा बढ़ता जाता है, स्वास्थ्य सेवाआें की उपलब्धियां बेहतर स्तर की होती हैं और भारत के स्वास्थ्य व्यय में सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा विश्व के १७७ राष्ट्रों मे से केवल ८ को छोड़कर सबसे कम है । भारत मेें कुल स्वास्थ्य व्यय में सार्वजनिक क्षेत्र के हिस्से के अत्यंत कम होने का परिणाम यह हुआ है कि ग्रामीणों और गरीबों तक उनकी समुचित पहंंुच बन ही नहीं पाई । तृतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि बाह्य रोगियों में से केवल २० प्रतिशत और आंतरिक रोगियों में से ४० प्रतिशत ही सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाआें का लाभ लेते हैं, अन्य निजी क्षेत्र का आसरा लेने को बाध्य होते हैं और उनमें व्याप्त् गलत प्रक्रियाआें का शिकार होते है । अनेक सर्वेक्षणों में प्राप्त् आंकड़ें बताते है कि निजी चिकित्सक आवश्यकता से अधिक दवाएं लिखते है एवं अनावश्यक जांचे करवा कर, रोगियों को आकर्षित करने की दृष्टि से शानदार भवन बनाकर, अनावश्यक महंगे उपकरण लगाकर चिकित्सा सेवाआें की लागत में भारी वृद्धि कर देते है । सार्वजनिक अस्पतालों में भी रोगियों को दवाआें के व्यय, जांचों, डाक्टरों की फीस आदि पर भी खर्च करना पड़ जाता है ऐसे में गरीबों की निजी एवं सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों की स्वास्थ्य सेवाआें के गरीबों के लिए उनकी पहुंच के बाहर होने का परिणाम यह हो रहा है कि गरीबोंने स्वास्थ्य संबंधी छोटी मोटी तकलीफो को तो महसूस करना ही छोड़ दिया है । राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि उच्च् आय वर्ग के लोगो से जब रूग्णता के बारे में पूछा जाता है तो वे गरीबों की तुलना में अपने आपको अधिक रूग्णता शिकार बताते हैं । देश के १८-२० प्रतिशत लोग तो ऐसे हैं जिन्हें मृत्यु पूर्व तक समुचित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं । गरीब न केवल किसी प्रकार की भी स्वास्थ्य सुविधाआें तक अल्प पहुंच के शिकार तो होते ही हैं साथ ही जब भी वे स्वास्थ्य सुविधाआें का उपयोग करते हैं तो उन पर भारी व्यय उन्हें ऋणग्रस्त बना देती है । पिछले कुछ वर्षोंा में आम आदमी की ऋणग्रस्तता के पीछे के कारणों में चिकित्सा पर भारी व्यय प्रमुख कारण बन कर सामने आया है । भारतीय चिकित्सा सेवाएं अन्य विकृतियों का शिकार होने से भी ऊंची लागत वाली बन रही है । देश में प्रति हजार आबादी पर चिकित्सकों की संख्या एक और नर्सोंा की संख्या ०.९ ही है जबकि इन दोनों में विश्व औसत क्रमश: १.५ और ३.३ है । अर्थ यह हुआ कि भारत में चिकित्सकों की तुलना में भी नर्सोंा की संख्या विश्व औसत से काफी कम है । परिणामस्वरूप जो सेवाएं नर्सेंा आसानी से दे सकती है उनका भार भी चिकित्सकों पर आ पड़ता हैं और उन पर अनावश्यक दायित्व आ पड़ने से उनकी कुशलता कम हो जाती है । जिसका खामियाजा अंतत: मरीज को ही उठाना पड़ता है । आजादी के बाद भारत में मेडिकल कालेजों की स्थापना तो हुई परंतु चिकित्सकेतर कर्मचारियों के प्रशिक्षण संबंधी सुविधाआें के बढ़ाने पर कोई ध्यान नहीं दिया गया । उदारीकरण के बाद निजी क्षेत्र के मेडिकल कालेज की बाढ़ सी आई परंतु चिकित्सकेतर कर्मचारियों की प्रशिक्षण सुविधाआें में अपेक्षित वृद्धि नहीं होने से स्वास्थ्य मानव शक्ति का ढांचा विकृत हो गया है । चिकित्सकों द्वारा ही चिकित्सकेतर कर्मचारियों द्वारा दी जाने वाली सेवाएं दिए जाने से उनकी लागत में वृद्धि नहीं होने से स्वास्थ्य मानव शक्ति का ढांचा विकृत हो गया है । चिकित्सकों द्वारा ही चिकित्सकेतर कर्मचारियों द्वारा दी जाने वाली सेवाएं दिए जाने से उनकी लागत में वृद्धि स्वाभाविक ही है । आजादी के पूर्व भारत में चिकित्सा का त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम, एल.एम.पी. भी था और कुल चिकित्सकों की संख्या का दो तिहाई भाग एल.एम.पी. चिकित्सक भी अपेक्षाकृत सस्ते होते थे और गरीबों की उन तक आसान पहुंच भी । आजादी के बाद उस पाठ्यक्रम को समाप्त् कर दिया गया । अब चिकित्सक मात्र एम.बी.बी.एस की डिग्री लिए हुए भी होता है । प्राथमिक चिकित्सा का जो दायित्व आसानी से तीन वर्षीय पाठ्यक्रमवाले चिकित्सक संपादित कर सकते है, वे कार्य जब एम.बी.बी.एस. एवं स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त् चिकित्सकों द्वारा संपादित किए जाते हैं तो उनका महंगा होना स्वाभाविक है । ऐसे में बिहार सरकार ने एल.एम.पी. का त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम पुन: शुरू कर एक प्रशंसनीय कार्य किया है । यह इस गरीब राज्य में चिकित्सा व्यय में कमी लाने का प्रशंसनीय कार्य भी करेगा । चिकित्सा सेवाआें की उपलब्धता की दृष्टि से भारत में भारी क्षेत्रीय विषमताएं भी पाई जाती है । जो राज्य गरीब हैं उनमें कुपोषण एवं रक्त की कमी के कारण बीमारियों का प्रभाव अधिक होता है । अतएव उनमें सार्वजनिक सुविधाआें की उपलब्धता भी अधिक होनी थी । परंतु स्थिति इसमें ठीक विपरीत है । उदाहरण के लिए सन् १९९५-९६ में बिहार और मध्यप्रदेश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाआें पर क्रमश: ५७ और ६६ रू. प्रति व्यक्ति खर्च किए जाते थे वहीं केरल और पंजाब में यह आकार १३२ रू. एवं १२३ रू. अर्थात दुगुना था । केन्द्र सरकार को चाहिए था कि गरीब राज्यों को स्वास्थ्य सुविधाआें के लिए अधिक सहायता देकर गरीब एवं सम्पन्न राज्यों के मध्य की खाई को कम करती परंतु आंकड़े बताते हैं कि केन्द्र से प्राप्त् राशि गरीब राज्यों में कम और सम्पन्न राज्यों में अधिक होती है । इससे जहां स्वास्थ्य उपलब्धियों की दृष्टि से क्षेत्रीय विषमताआें में वृद्धि हो रही है । वही गरीब राज्यों का स्वास्थ्य मापदण्डो पर निम्न स्तर भारतीय औसत को भी प्रतिकूल प्रभावित कर रहा है । गरीब राज्यों की निम्न स्तरीय उपलब्धियों का ही परिणाम है कि विश्व आबादी में भारत के हिस्से १६.७ प्रतिशत की तुलना में तपेदिक से होने वाली मौतों में भारत का हिस्सा २८ प्रतिशत, टिटनेस में ४० प्रतिशत मीजल्स में २१.४ प्रतिशत और दस्त संबंधी रोगो में यह ३२.५ प्रतिशत है । ये सारे आंकड़े स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत की दयनीय स्थिति को उजागर करते हैं । भारत की स्वास्थ्य सेवाएं नाना प्रकार की विकृतियोें जैसे अत्यधिक निजीकरण व गरीबों की पहुंच के बाहर, निजी चिकित्सकों द्वारा अनावश्यक दवाएं लिखने तथा जांचे करवाने आदि की शिकार हैं । स्वास्थ्य सुविधाआें में क्षेत्रीय विषमताआें को कम करने के स्थान पर इन्हें बढ़ाने में मदद कर रही है । इन सब विकृतियों का ही परिणाम है कि राष्ट्रीय आय के प्रतिशत के रूप में स्वास्थ्य व्यय के काफी ऊंचे स्तर के बावजूद विभिन्न बीमारियों से होने वाली मौतों में भारत का हिस्सा विश्व आबादी में उसके हिस्सा विश्व आबादी में उसके हिस्से की तुलना में कही अधिक है । स्वास्थ्य की उपेक्षा के कारण भारतीय आबादी की गुणवत्ता पर पड़ने वाली प्रतिकूल प्रभावो की वर्तमान में नही, भविष्य में भी भारत को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। निम्नस्तरीय स्वास्थ्य भारत की गुणवत्ता को प्रतिकूल प्रभावित कर उसकी उत्पादकता को कम कर विकास दर को भी निम्नस्तरीय बना रहा है ।या यो कहें कि भारत की मानव सम्पदा की निम्न स्तरीय गुणवत्ता के चलते वर्तमान ऊंची विकास दर की निरंतरता संदेह में है ।**

१० ज्ञान विज्ञान

प्लास्टिक के कचरे से सड़क बनेगी


देश के राज्यों में सड़को की खस्ता हालत किसी से छुपी नहीं है । इसके लिए अक्सर किसी स्थान हालत किसी स्थान की भौगोलिक स्थिति और खराब कंस्ट्रक्शन को जिम्मेदारी ठहराया जाता है । लेकिन अब इसका हल खोज लिया गया है । केरल मेंे प्लास्टिक के कचरे से सड़क बनाने का प्रयोग किया गया है । इससे बनी सड़के न सिर्फ टिकाऊ होंगी बल्कि पर्यावरण संरक्षण में भी मददगार साबित होंगी । कोझीकोड स्थित नेशनल ट्रांसपोर्टेशन प्लानिंग एंड रिसर्च सेंटर (एनएटीपीएसी) ने प्रायोगिक तौर पर वतकारा कस्बे में प्लास्टिक के कचरे से ४०० मीटर सड़क तैयार की है । हालांकि यह प्रयोग पड़ोसी राज्यों तमिलानांडु समेत कुछ अन्य राज्यों में पहले ही किया जा चुका है, लेकिन केरल की पर्यावरणीय और मिट्टी की भिन्नता कारण यह प्रयोग सफल नहीं हो सका था । इस पर रिसर्च सेंटर के शौधकर्ताआें ने दोबारा काम शुरू किया और माना जा रहा है कि अब यह प्रयोग सफल हो गया है । केरल मेंे प्लास्टिक का कचरा बहुतायत मेंे निकलता है, जिसके निपटान की पूरी व्यवस्था नहीं होने से यह पर्यावरण के लिए बेहद नूकसानदायक साबित हो रहा है । सड़क निर्माण में कचरे का उपयोग हो जाने से पर्यावरण संरक्षरण की दिशा में भी महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया जा सकेगा और साथ ही सस्ती व टिकाऊ सड़क बनाना आसान हो जाएगा । एनएटीपीएसी के कोऑर्डिनेटर एन विजयकुमार कहते हैं कि थिरूवनंतरपुरम की हाइवे इंजीनियरिंग लैब में डेढ़ साल तक प्लास्टिक के कचरे से सड़क निर्माण के फार्मूले पर परीक्षण किया गया और अब प्रायोगिक तौर पर सड़क बना भी ली गई है । उम्मीद है प्रयोग सफल रहेगा ।वे कहते हैं कि केरल की जलवायु और मिट्टी में काफी भिन्नता होने के कारण एक फार्मूले को सभी जगह अमल में लाना संभव नहीं था, लेकिन अब सभी जगह के लिए यह प्रयोग सफलतापूर्वक कर लिया गया है । श्री विजयकुमार का कहना है कि प्लास्टिक के कचरे से सड़क बनाने पर १० प्रतिशत तक डामर की बचत होगी । एकटन प्लास्टिक कचरे से साढ़े तीन मीटर चौड़ी एक किलोमीटर सड़क बनाई जा सकती है । इसमेंे खर्चा भी पारंपरिक डामर की सड़कों की तुलना में काफी कम आता है । इस प्रक्रिया मेंे प्लास्टिक के टुकड़ों को पिघलाकर गिट्टी के साथ मिलाया जाता है । इसमें ध्यान रखने वाली बात यह है कि तापमान १६० से १७० डिग्री सेल्सियस के बीच ही होना चाहिए वरना मिश्रण के चिपकने की क्षमता प्रभावित होती है । केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल भी इस तकनीक को पर्यावरण हितैषी घोषित कर चुका है
धरती को रूला सकती है हँसाने वाली गैस


वैज्ञानिकों का कहना है कि `लाफिंग गैस' यानी हँसाने वाली गैस के नाम से मशहुर नाइट्रस ऑक्साइड जीवाणुआें की विभिन्न प्रजातियों द्वारा वातावरण में फैलाई जा रही है । वैज्ञानिक कार्बन मोना ऑक्साइड और मीथेन को तो ग्रीन हाउस गैसों में प्रमुख रूप से शुमार करते हैं, लेकिन लाफिंग गैस के खतरों की ओर ध्यान कम ही है । वैज्ञानिकों का कहना है कि जीवाणुआें की अनेक प्रजातियाँ नाइट्रस ऑक्साइड का प्रमुख स्त्रोत हैं । ये ऐसे जीवाणु होते है जो ऑक्सीजन की कमी होने पर नाइट्रोजन का उपयोग शुरू कर देते है । नाइट्रेट्स इन जीवाणुआें में श्वसन तंत्र के अनुकूल हो सकते हैं, और इस तरह जीवाणु एक विशेष प्रक्रिया के जरिए ऊर्जा हासिल करते हैं । इस प्रक्रिया को `डिनाइट्रिफिकेशन' और `अमोनिफिकेशन' कहा जाता है । जब जीवाणु ऐसा करते हैं तो वातावरण में नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जित करते हैं । ब्रिटेन में नार्विच की ईस्ट एंग्लिया यूनिवर्सिटी के प्रो. डेविड रिचर्डसन का कहना है कि अन्य गैसों की तुलना में नाइट्रस ऑक्साइड को ज्यादा गंभीरता से लिया जाना चाहिए । प्रो. रिचर्डसन के मुताबिक यह वातावरण में उत्सर्जित कुल ग्रीन हाउस गैसों में नाइट्रस ऑक्साइड ९ प्रतिशत होती है, लेकिन कार्बन डायआक्साइड की तुलना मेंे यह ग्लोबल वार्मिंग की ३०० गुना अधिक क्षमता रखती है । यह वातावरण में १५० साल तक टिकी रह सकती है और क्योटो संधि में इसे उन प्रमुख गैसों की सूची में रखा गया था, जिन्हें नियंत्रित रखा जाना जरूरी है । यह गैस मुख्यत: कचरा प्रसंस्करण संयंत्रों और खेती से उत्सर्जित होती है । इसका उत्सर्जन प्रतिवर्ष ५० अंश प्रति अरब (पीपीबी) या ०.२५ प्रश की दर स बढ़ रहा है । प्रो. रिचर्डसन का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग हर किसी को प्रभावित करती है और नाइट्रस ऑक्साइड के उत्सर्जन का जीव विज्ञान समझना ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव से निपटने की दिशा में पहला कदम होगा ।


बायोडीजल से अस्थमा का खतरा
पेट्रोल-डीजल, घासलेट, सीनजी आदि ईधन, जो गाड़ियों में प्रयुक्त होते हैं, उनसे पर्यावरण को नुकसान होता है । इसी गरज को बायो ईधन निकाले गए,जो पर्यावरण के मित्र कहे जा सकते हैं । परंतु अब विशेषज्ञों ने बायो इंर्धन पर भी आशंका जताई है । अब आदमी करे तो क्या करे । ब्रिटेन में सरकार बायो इंर्धन को सुरक्षित मान रही है, जबकि वैज्ञानिक इसे घातक बता रहे हैं । यहाँ तक कि इसके घातक होने की मोहर एक नोबल पुरस्कार विजेता भी लगा चुके हैं । ब्रिटेन में स्कूल बसों में पर्यावरण हितैषी इंर्धन का इस्तेमाल किया जाता है । परंतु विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के इंर्धन से बच्चे मेंे अस्थमा की शिकायत बढ़ सकती है । अमेरिका के विशेषज्ञों का कहना है कि बायो इंर्धन जो मक्का, गन्ने या रैपसीड के बने हो, सामान्य ईधन से ज्यादा नुकसान पहुँचाते हैं । उनका कहना है कि सकूल बसों में जब डीजल के साथ बायो ईधन मिलाया जाता है तो हवा में खतरनाक कण जाते हैं, जो सामान्य से ८० प्रश ज्यादा घातक होते हैं । इस वजह से अस्थमा होने की आशंका बढ़ती है । दूषित या खराब हवा के चलते स्वास्थ्य बुरी तरह से प्रभावित होता है । लंदन के मिरर के मुताबिक पर्यावरण संरक्षा समूह लेकॉर्स ने इस संबंध में पहल की है । सरकार में बैठे मंत्रियों से भी पत्र व्यवहार करते हुए कहा कि बायो ईधन से बच्चें का स्वास्थ्य खराब हो सकता है । दूसरी ओर सरकार का दावा यह है कि बायो इंर्धन के कारण प्रदूषण ५० प्रश तक कम हो जाता है । दूसरी ओर एक नोबल पुरस्कार विजेता पॉल क्रजन का कहना कुछ और ही है । १९९५ में नोबल पुरस्कार जीतने वाले इस वायुमंडल के जनकार केमिस्ट का कहना है कि बायो इंर्धन बनाने की चाह में उत्तरी अमेरिका और योरप में जो फसलें बोई जा रही है, वे धरती के लिए ज्यादा घातक है और इससे ग्लाबल वार्मिंग और बढ़ जाएगी । उन्होंने रेपसीड से बनने वाले इंर्धन के प्रति विशेष रूप से सजग किया । अध्ययन कहता है कि कुछ बायो इंर्धन वास्तव में ज्यादा ग्रीनहाउस गैंसे छोड़ते हैं । इसका खास कारण है खेती के दौरान प्रयुक्त उर्वरक । इन्होंने भी जैव-ईधन की विश्वसनीयता पर आशंका व्यक्त की है । उनका कहना है कि रेपसीड से बनने वाला बायो डीजल परंपरागत डीजल के मुकाबले १ से १.७ गुना ज्यादा ग्रीनहाउस गैसे छोड़ेगा । जहाँ तक मक्के की बात है तो वह परंपागत गैसोलीन के मुकाबले १.५ गुना ज्यादा ग्लोबल वार्मिंग करेगा ।


चमकते उद्यागों के काले पहलू

करियर और वेतन के लिहाज के आकर्षक माने जाने वाले बीपीओ, आईआी और इलेक्ट्रोनिक मीडिया जैसे नए क्षेत्र स्वास्थ्य के लिहाज से खतरनाक साबित हो रहे हैं । लेकिन अब इन चमकते उद्योगों के काले पहलू भी सामने आने लगे है । इन उद्योगो में कार्य के घंटे लंबे होते हैं, रात की शिफ्त लंबी अवधि तक चलती है , लक्ष्य कठिन होते हैं, अपनी होते हैं, अपनी पहचान स्थपित करने की कड़ी प्रतिस्पर्धा और नौकरी पर हमेशा असुरक्षा के बादल मँडराते रहते हैं । ये सभी पहलू यहाँ काम करने वालों को दिल के दौरे, हृदय रोग, पाचन की गड़बड़ियाँ, मोटापा, डिपे्रशन, तनाव, अनिद्र और जोड़ो में दर्द शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक सामस्याआें के शिकार बना रहे हैं । एक अनुमान के अनुसार बीपीओ उद्योग में १६ लाख युवा कार्यरत है । करीब इतने ही लोग आईटी एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया में काम कर रहे हैं । विशषज्ञों का कहना है कि इन उद्योगों में काम करने वाले युवाआें की स्थूल जीवन शैली, काम की लंबी अवधि, तनावपूर्ण कार्य स्थितियाँ और तीव्र प्रतिस्पर्धा के कारण इनमें उम्र में ही गंभीर बीमारियाँ पैदा हो रही है । मेट्रो हॉस्पिटल एवं हार्ट इंस्टीट्यूट के निदेशक हृदय रोग विशषज्ञ डॉ. पुरुषोत्तम लाल ने बताया कि लंबे समय तक तनाव में रहने अथवा लंबे समय तक विपरीत एंव तनावपूर्ण कार्य स्थितियों मेंकार्य करने के कारण रक्तचाप ब़़ढने, हृदय की रक्त नलियों में रक्त के थक्के बनने और दिल के दौरे पड़ने के खतरे बढ़ जाते है। उन्होने कहा कि पिछले कुछ वर्षो में पेशेगत कार्यो से संबंधित तनाव, काय्र के घंटे बढ़ने और गलत-गलत रहन-सहन एवं खान-पान, धुम्रपान फास्ट फूड और व्यायाम नहीं करने जैसे कारणों से युवाआें में दिल के दोरे एंव हृदय रोगों का प्रकोप तेजी से बढ़ रहा है । ***

११ कविता

वृक्ष बोलते हैं

प्रेम वल्लभ पुरोहित

`राही' वृक्ष बोेलते हैं

इतिहास रचा है इन्हांने

माँ कहती-कहती थक गयी

कि जन्म से मरण तक का

साथ रहा है

रहता है

मनुष्य से इनका ।

नाता ऐसा जुड़ा है

फिर भी नातेदार

थमाली कुल्हाड़ी से काटता है इन्हें

जन्म से आजीवन तक की सेवा

क्या-क्या कहें

अपने मुख से अपनी बड़ाई

अच्छी लगती नहीं

मृत्यु के दिन भी

घाट तक की यात्रा मेंे साथ रहते हैं

वृक्ष (लकड़िया)

यही नहीं -

पंचतात्विक शरीर को

भस्मकर मुक्ति देते हैं

स्वर्ग देते हैं ये वृक्ष

ऐसा नाता

जीवन मरण तक

साथ निभाता है जो विस्मयकारी है ।

मानव,

धरती माता को नग्न न रहने दो

लहलहाते हरित वृक्षों से करते श्रृंगार

धरती माता का ।***

१२ प्रकृति का क्रोध

सुंदरबन : ग्लोबल वार्मिंग का पहला शिकार
डेन मेक्डॉवल
बंगाल की खाड़ी में उठने वाले तीव्र ज्वार-भाटे दीपेन्द्र दास के रोजमर्रा के जीवन का अंग बन चुके हैं ।झुर्रियों भरी चमड़ी, हडि्डयों का ढांचा बाहें, शरीर पर जगह-जगह पर उभरे समुद्री खारे पानी से उपजे घाव इस ७० वर्षीय बूढ़े की दर्दनाक दास्तान खुद बयां कर देते हैं । दुनिया के सबसे बड़े मेनग्रोव जंगल सुदरबन डेल्टा पर स्थित इस दूरस्थ द्वीप के अपने छोटे से मकान को लहरों के थपेड़े से बचाने के प्रयास में इस बूढ़े इंसान को गीली मिट्टी में हर रोज ६ घंटे काम करना पड़ता है । दीपेन्द्र अकेला नहीं है, गोरामा द्वीप के कई ग्रामीणों जिनमें महिलांए भी शामिल हैं के लिए काली मिट्टी व रेती से तटबंध बनाना ही जीवनचर्या है । सुबह जागने पर वे पूवनिर्मित दीवारों को समुद्र की लहरों से ध्वस्त किया हुआ पाएंगे और एक बार फिर उन्हें बनाने के काम में लग जाएंगे । इस ग्रह के सबसे बड़े मेनग्रोव जंगल सुंदरबन में दीपेन्द्र का तीसरा मकान भी डूबने की स्थिति में जा चुका है । वहज है बढ़ते समुद्रा । सात बच्चें के इस दादा के लिए ग्लोबल वामिंग, मौसम विभाग के कम्पयूटर के आंकड़े नहीं बल्कि जीवन का सत्य है । सुंदरबन में अपनी तीन दीनी बोट यात्रा के दौरान चार द्वीपों में आधा दर्जन गांवो की स्थिति देखकर सहज अंदाजा हो गाया कि इस विकट स्थिति में सिर्फ दीपेन्द्र ही नहीं है । डेल्टा के भारतीय हिस्से में बेतहाशा मानसूनी वर्षा और समुद्री लहरों ने मिलकर घरों, खोतों और फलों के पेड़ो को तहस-नहस कर दिया है । सारा जीवन छिन्न-भिन्न हो चुका है । विशेषज्ञों की यह चेतावनी कि ग्लोबल वार्मिंग का सबसे ज्यादा उन पर होगा जिनका इसे बढ़ाने में सबसे कम योगदान है, यहां सच साबित हो रहा है । आज उनके पस उस आपदा से बचने का एकमात्र तरीका है लगातार अपने आस पास मिट्टी की दीवारें बनाना । सुंदरबन का एक तिहाई हिस्सा भारत और दो तिहाई नजदीकी बंग्लादेश में पड़ता है जहां एशीया की दो सबसे बड़ी नदियों गंगा और ब्रम्हपुत्र की विशाल जलराशि दुनिया के इस सबसे बड़े डेल्टा प्रदेश पर अपने पूरे वेग से बहती हैं । वैज्ञानिकों का मानना है कि गोरामा द्वीपवासियों का भविष्य दो हजार किलोमीट दूर स्थित गंगा के उद्गम में निर्धारित होता है । जहां हिमालय के ग्लेिश्यरों में हो रहे तेज पिघलाव का आधात इतनी दूर स्थित इस द्वीप पर जाकर होता है । गोरामा द्वीप से पूर्व की ओर दो किलोमीटर दूर स्थित लोहाचरा द्वीप जो कभी यहां से दिखाई पड़ता था, पांच वर्ष पहले ही समुद्र में समा चुका है । पर्यावरण परिवर्तन की भेंट चढ़ने वाला दूनिया का यह सबसे पहला आबाद द्वीप था जिसने सात हजार निवासियों को बेधर किया । गोरामा की भी कुल भूमि का एक तिहाई हिस्सा गत पंाच वर्षो के दौरान समुद्र में समा चुका है । इसके उत्तर में स्थित भारत के सबसे बड़े का एक तिहाई हिस्सा उत्तर में स्थित भारत के सबसे बड़े सुंदरबन द्वीप सागर में कोई २०००० समुद्री भरणार्थी अभी भी निवास कर रहे है । शरणार्थियों की लगातार बढ़ती संख्या ने सागर के मूल निवासियों और मोजूद न्यून संसाधनों पर अनावश्यक दबाव बना दिया है । हिमालय के ग्लेशियरों में बढ़ते पिघलव नदियों के जल की मात्रा में वृद्धि कर रहा है जिसके फलस्वरुप निचले डेल्टा प्रदेशों में यह पानी तीव्र घुसपैठ करता है। सुंदरबन और इसके भारतीय हिस्से में रहने वाले चालीस लाख निवासिंयों की स्थिति बहुत खराब है । गत कुछ दशकों में यहां का १८६ वर्ग किलोमीटर हिस्सा जलप्लावित हो चुका है । पूरा प्रदेश विनाशा के मुहाने पर है और आगामी घटनाआे की चेतावनी दे रहा है । पर्यावरण शरणार्थियों की स्थिति सबसे बुरी होती है क्योंकि उनके पास लौटने की कोई जगह नहीं होती । उनकी भूमि उनसे हमेशा के लिए छिन चुकी है और सरकारों के पास उनके पुनर्वास के लिए कोइ ठोस योजना नहीं होती । निरी कष्टभोगी - स्थानीय निवासियों के लिए रोज छोटे-छोटे काम ंभी बहुत कष्टसाध्य हो गए हैं । गोरामा के एक छोटे से टोले में रहने वाली गीता पंधार के घर तक पहुंचने के लिए समुद्री लहरों से बचने के लिए बनाई गई मिट्टी की उस दीवार के सहारे-सहारे कीचड़ भरे रास्ते से ही जाया जा सकता है । गीता के लिए द्वीप के एक मात्र बाजार तक पहुंचने के लिए रोज तीन किलोमीटर उसी कीचड़ भरे व फिसलने भरे रास्ते से गुजरना मजबूरी है । सुंदरबन में बाढ़ आना सामान्य बात है । यहां आने वाले पानी के ९२ प्रतिशत स्त्रोत भारत, तिब्बत, भूटान और नेपाल में स्थित हैं । जिनमें विश्व की तीन बड़ी नदियां गंगा, ब्रम्हपुत्र और मेघना भी शामिल है । मानसून के दौर तो यहां का एक तिहाई हिस्सा डूबा ही रहता है तूफान की बढ़ती तादात से रहने के लिए दूनिय की सबसे खतड़नाक जगह हो गई है । समुद्र रात में बहुत भयानक हो जाता है । स्थानीय निवासियों के अनुसार हमें ग्लोबल वामिंग के बारे में तो ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन यहां आने वाले वैज्ञनिकां का कहना है कि इसके जिम्मेदार पश्चिमी देश और प्रदूषण हैं । वैसे भी यह बहुत पिछड़ा हुआ स्थान हे । रहने वालों के पास अपना कहने को सिर्फ कुछ बरतन हैं । यहां न तो बिजली है, न रोशनी न टेलीविजन । मनोरंजन के नाम पर बस बैटरी से चलने वाला ट्रांजिस्टर है । अखबार भी यहां नही पहुंचता । सरकार से सम्पर्क का भी कोई जरिया नहीं है । इस तरह से ये ग्लोबल वामिंग के पहले शिकार हैं और दुर्भाग्य देखिए कि इन्हें उसकी जानकारी सबसे आखिर में हो रही है । जो प्रकृति खाना और फसल देती आ रही है । यह द्वीप सब्जी और अन्य फसलों के साथ-साथ अपनी उम्दा किस्म की मर्चा के लिए मशहूर था । अब खुद के खाने के इंतजाम के लिए घर की महिलाआे को उन्हीं खेतों मे मछलियों और झींगो की तलाश में भेजना पड़ता है । ठहरे पानी में मच्छरों ने अपने अड्डे बना लिए हैं । आसमानी लहरों के सामने बौनी पड़ती हिम्मत - रात होते ही इस द्वीप का दुर्भाग्य प्रकट होने लगता है । लहरों के चढ़ते ही पानी मिट्टी की दीवारों को दरकाते हुए जगह बनाता हुआ गांव मे घुसने लगता है । लहरों से सुर मिलातीं गहरे पानी की नदियां समुद्र को और विकराल रूप देती हैं । ज्वार के समय पानी जब मुख्य धरती तक पहुंचता है तो पेड़-पौधों का अस्तित्व ही खत्म हो जाता है । समुद्र के समक्ष कोई सुरक्षा साधन कारगर नहीं है । मिट्टी की दीवारें हमेशा ही टूटती रहती हैं । द्वीप के लगभग एक तिहाई लोगों की खेती खत्म हो चुकी है और उनमें से अधिकांश `सागर' की तरफ पलायन कर गए हैं । यहां रहने का मतलब है सतत संघर्ष । लेकिन यहां रहने वाले कोई अन्य काम भी तो नहीं कर सकते । जल्द ही यहां बूढ़ों और छोटे बच्चें के सिवा कोई नहीं बचेगा और वह भी कितने दिन ? यह द्वीप भी दूसरे द्वीपों की तरह डूब ही जाएगा। बिजली के अभाव में रोशनी करने के लिए तेल के दीपक जलाए जाते हैं । बच्च्े अपनी पढ़ाई भी इसी रोशनी में करते हैं । यहां के निवासियों को पिछले साल की वह रात याद आती है जब उनका घर और सारा सामान पानी में बह गया था । पानी जैसे ही घर को तोड़ता हुआ आ घुसा और यहां की दुनिया ही बदल गई । यहां के निवासियों को पानी ने बर्बाद कर दिया है । सबने सरकारी शिविर में जाने का मन बनाया । लेकिन वहां भी हालात अच्छे नहीं हैं । `सागर' में भी धरती की स्थिति ठीक नहीं है । सारा पानी खारा हो चुका है जो किसी काम का नहीं है । यहां भी दलदल नजदीक ही है । स्थानीय निवासियों का कहना है कि `लगता है समुद्र हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा ।'***

१३ पर्यावरण समाचार

वनों की कटाई में दूसरे स्थान पर है
फारेस्ट सर्वे आफ इंडिया की एक रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि म.प्र. में पिछले दो वर्षों में १३२ कि.मी. वन क्षेत्र से वृक्षों की कटाई कर दी गई और उसके स्थान पर नयें पौधे नहीं लगाये गये । इस कटाई से पर्यावरण संतुलन को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है । प्राप्त् जानकारी के अनुसार वर्ष २००५ से २००७ के बीच मध्यप्रदेश में वनों का जमकर विनाश हुआ । इन दो वर्षों में ही मध्यप्रदेश में १३२ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के वनों को काट दिया गया । अधिकारियों के अनुसार यह कटाई प्रदेश की सिंचाई व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए की गई है । इनकी बड़ी संख्या में वनों की कटाई तो हुई लेकिन उनके स्थान पर नए बन लगाए ही नहीं गए । मध्यप्रदेश के कुल ९४६८९.३८ वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में से बीते दो वर्षों में १३२ किलोमीटर क्षेत्र के वनों की कटाई हो गई है जिसमें निमाड चंबल बुंदेलखण्ड व महाकौशल इलाके की वनराशि को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है फारेस्ट सर्वे आफ इंडिया द्वारा जारी किए गए सर्वे रिपोर्ट यह तथ्य सामने आया है । रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश में काटे गए वन क्षैत्र से न सिर्फ जंगली जानवरों को बल्कि प्रदेश के पर्यावरणीय संतुलन को भी सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है । इतनी बड़ी संख्या में हुई वनों की कटाई को पया्रवरणविद् प्रदेश के लिए बहुत बड़ा खतरा बता रहे हैं । मध्यप्रदेश का नाम इस रिपोर्ट में दूसरे नंबर पर है जहां सबसे ज्यादा वनों का संहार हुआ है । मध्यप्रदेश से ज्यादा वनों की कटाई मणिपुर में हुई है । यहां १७३ वर्गकिलोमीटर क्षेत्र के वनों को काटा गया है । प्रदेश के वनों की अवैध कटाई से भी कई वन क्षेत्र केवल नाम के लिए वन क्षैत्र बनकर रह गए हैं क्योंकि यहां वनों की कटाई इतने बड़े स्तर पर हुई है कि वृक्षों का नाम तक नहीं बचा हैं इनमें वन परिक्षेत्र भोपाल और वन परिक्षैत्र इंदौर जैसे वन क्षेत्रों का नाम सबसे आगे है । वन विभाग के अधिकारी मानते हैं कि वनों की कटाई प्रदेश हित को ध्यान में रखकर की गई है । प्रदेश में नर्मदासागर व शिपुरी में सिंचाई परियोजना के लिए वनों को काटा गया है जिसके लिए केन्द्र सरकार व सर्वोच्च् न्यायालय से पूर्व में अनुमति भी ले ली गई है । ***

सोमवार, 14 अप्रैल 2008

आवरण



संपादकीय

आकाशगंगा में पृथ्वी जैसे और ग्रह
एक नए शोध के मुताबिक जिस आकाश गंगा में पृथ्वी है उसमें कई और ऐसे ग्रह हैं जिनमें जीवन के लिए अनुकूल परिस्थितियां है । अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि पृथ्वी के सौर मंडल के बाहर पृथ्वी की ही तरह कई और ग्रह भी हो सकते है । सौर मंडल में लगातार खोज-बीन कर रहे वैज्ञानिकों ने बॉस्टन के अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस यानी `एएएएस' में अपनी इस खोज के तथ्य पेश किए हैं । इस रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती के इस सौर मंडल के बाहर सैकड़ों ऐसे सूर्य हैं और उनके साथ उनका खुद का पूरा-पूरा सौर मंडल भी मौजूद है । वैज्ञानिकों का कहना है `इस खोज से हमें ये समझने में आसानी होगी कि पृथ्वी और दूसरे तमाम ग्रह किस तरह वजूद में आए ।' कुछ अंतरिक्ष वैज्ञानिक ये भी मानते हैं, `सौर मंडल के भीतर ही किसी कोने में पृथ्वी की तरह की सैकड़ों पृथ्वियां मौजूद हैं लेकिन ये बर्फ की तरह जमी हुई है ।' वैज्ञानिक हमारे सौर मंडल के `क्यूपर बैल्ट जोन' में ही प्लूटो के आकार के हजारों ग्रह होने का दावा कर चुके हैं । अमेरिका की एरिजोना विश्वविद्यालय के अंतरिक्ष वैज्ञानिक माइकल मेयर भी मानते हैं कि हमारे सौर मंडल में सूर्य की तरह के कई और तारे भी मौजूद हो सकते हैं । मेयर कहते हैं, `इस खोज के जरिए हम इस रहस्य से पर्दा उठा सकते हैं कि ब्रह्मांड में मौजूद तमाम ग्रह और हमारी पृथ्वी किस तरह बनी होगी ।' दरअसल, विज्ञान की भाषा में सूर्य को तारा कहा जाता है । मेयर और उनकी पूरी टीम ने अमेरिका अंतरिक्ष एजेंसी स्पिटजर स्पेस टेलिस्कोप की मदद से इस तरह के तारों को देखा है । अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने भी इस तरह की दूसरी पृथ्वियां खोजने के लिए एक पूरा अभियान चलाया हुआ है जैसे `कैपलर मिशन' के नाम से जाना जाता है । कैलीफोर्निया की सैन फ्रांसिस्को स्टेट यूनिवर्सिटी के काम कर रही वैज्ञानिक डेबरा फिश्वर कहती है, हमारे सौर मंडल के गोल्डीलाक्स जोन में कई ग्रहों के देखे जाने से भी वैज्ञानिक काफी उत्साहित हैं । नासा के वैज्ञानिक एलन स्टर्न कहते हैं हमें उम्मीद हैं कि हम बड़ी संख्या में ग्रहों को खोज लेंगे । स्टर्न ये भी कहते हैं कि हमारे सौर मंडल के एक कोने पर धुंए की तरह के मौजूद बादल ऊर्ट क्लाउड में पृथ्वी के द्रव्यमान के बराबर के ग्रह देखे गए हैं लेकिन ये बेहद दूर होने की वजह से जमे हुए हैं । पृथ्वी की तरह के इन ग्रहों और सूर्य की तरह के तारों की खोज से वैज्ञानिक काफी उत्साहित हैं । उनका मानना है कि इन ग्रहों पर धरती की ही तरह जीवन हो सकता है ।

१ पुण्य स्मरण

बाबा आमटे : आस्था की इबारत
कुमार प्रशांत
छोटी सी एक खबर छपी - बाबा आमटे नही रहे ! इसमें बड़ा छपने जैसा कुछ था भी नहीं । वैसे भी मौत की खबरों से हमारे अखबार व चैनल रोज-रोज इस कदर भरे-पूरे होते हैं कि एक और मौत को कितनी अहमियत दी जाये? और फिर एक ऐसे आदमी की मौत जिसके जीवन की खोज-खबर लेनी हमने कब की बंद कर दी थी । इसलिए अधिकांश अखबारों ने दो-चार गिने-चुने और करीब-करीब अर्थहीन हो चुके शब्दों को दोहरा कर अपना काम पूरा मान लिया और किस्सा खत्म ! लेकिन बाबा आमटे जैसे लोगोंकी यही खासियत है कि वे न कभी खुद खत्म होते हैं और न किस्सा खत्म होता है। ३० जनवरी को गोली मारने और उसके बाद हर दिन नए-नए तरह से मारने के बाद भी गांधी कहां खत्म हो रहे हैं ? इसलिए जरूरी हो जाता है कि हम बाबा आमटे जैसे लोगों के जीने और मरने दोनों का मतलब समझें । मुरलीधर देवीदास आमटे जैसे लंबे या बाबा आमटे जैसे छोटे-से नाम के जिस आदमी की मृत्यु हुई है वह जीवन का अथक साधक था । जीवन को उसकी पूरी ऊष्मा व आवेग के साथ जिया और इस जीने में दूसरों को साथ लेना, अगर इसे जीवन जीने की कोई कसौटी मानें तो बाबा आमटे जैसा कोई दूसरा आदमी खोजना बहुत कठिन होगा । उनके पास बैठा मैं कभी-कभार यही सोचता था कि यह आदमी कितना अदम्य है !! कोई दिक्कत, कोई परेशानी, कोई विफलता, कोई प्रतिकूलता जैसे उन पर असर ही नहीं करती थीं । बड़े-बड़े लोगों को परेशानी में घिरा देखा है पर बाबा आमटे को नहीं। पता नहीं वे किस कवच-कुंडल के साथ पैदा हुए थे कि प्रकृति व मानव निर्मित सारे-के-सारे बाण उनसे टकरा कर विफल हो जाते थे । सन् १९९२ के वे बहुत काले व कठिन दिन थे । मुम्बई में जैसे जहरीली हवाएं सांय-सांय करती थीं और हर तरफ पस्ती का माहौल था तथा सांप्रदायिकता से लड़ने वाली ताकतें हिम्मत खो रहीं थी। एक समय मुम्बई में गांधीजी का निवास रहा मणि भवन जहां आज उनका स्मृति संग्रहालय बना हुआ है, में देर रात तक ऐसे कुछ लोग विचार-विनिमय में लगे थे जिन्हें सांप्रदायिकता की आंधी हिला रही थी । तभी किसी ने कहा कि हम यह लड़ाई हार रहे हैं । मैंने कहा : हम अभी हारे नहीं हैं ! लड़ाई लड़ेंगे, सिपाही बनायेंगे... कह तो दिया लेकिन हाथ खाली थे और मुटि्ठयों में अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं था .... और ऐसे में अचानक ही बाबा आमटे ने खबर दी कि वे मुम्बई आ रहे हैं । जैसे किसी के कंधे पर हाथ रख दिया ! वे आये - बिस्तरे से बंधे । फिर क्या-क्या हुआ उस विस्तार में जाने का यहां कोई अर्थ नहीं है । अर्थ बस इतना ही कि वे जब तक रहे, लगातार लोगों के बीच जाते रहे, मोहल्लों में सभाएं करते रहे । कभी हाथ में हाथ लेकर, कभी कंधे पर हाथ रखकर कहते : कुमार, यह चलाते रहना होगा । उतनी शक्ति व आश्वासन भरे हाथ अब कहां मिलेंगे ? कुष्ठरोगियों की सेवा से उनका सार्वजनिक जीवन शुरू हुआ और आनंदवन नाम का आश्रम बना कर वे कुष्ठसेवा का काम करते रहे । आज जो एन.जी.ओ. नाम का एक नया जीव पैदा हुआ है वह संभवत: बड़ी आसानी से समझ-समझा लेता है कि बाबा आमटे उसके आदिपुरूष थे । लेकिन इससे बड़ी गलती हो ही नहीं सकती । क्योंकि बाबा आमटे उस गांधी-परंपरा के स्वयं सेवक थे जिसमें अपना जीवन जीने की व्यवस्था करने के लिए समाज सेवा की आड़ नहीं ली जाती । जीवन जीने की नई राह बनाने के लिए समाज में उतरते हैं समाज में उतरना यानि खुद से भी और समाज से भी लगातार टकराते हुए नये मूल्य सृजित करना और समाज में उसे स्थापित करने की लड़ाई लड़ना । गांधी जिस रचनात्मक काम की निरंतर पैरवी करते हैं उसकी कुंडली भी ऐसे ही बनती है । इसलिए बाबा आमटे कुष्ठरोगियों की सेवा करते हुए भी एक योद्धा बने रहते हैं । ऐसा योद्धा जो रोग से भी लड़ता है, रोगी से भी लड़ता है और ये दोनों जिस समाज में रहते हैं उस समाज से भी लड़ता है । घनघोर, बरसती काली, अंधेरी रात में असहाय पड़े कुष्ठरोगियोंको कंधों पर उठा कर अपने आश्रम में लाने वाले बाबा आमटे संस्था नहीं चलाते, वे एक लड़ाई रचाते हैं, जिसमें ध्वंस और रचना का अद्भुत मेल है । इसलिए हम देखते हैं कि बाबा आमटे अपने आश्रम में बंद होकर नहीं रह गए और न कुष्ठ सेवा तक सीमित रहे । उन्होंने देखा कि अलग-अलग प्रकार का कुष्ठ रोग कई स्तरों पर सारे समाज में फैला है और लड़ने के लिए मात्र एक आश्रम काफी नहीं है । इसलिए वे हमें कई मोर्चो पर एकसाथ खड़े मिलते रहे । आजादी के बाद भारत की भावात्मक एकता को उजागर करने और मजबूत करने की सबसे पवित्र व शुद्ध कोशिश तब हुई जब बाबा आमटे भारत छोड़ों यात्रा पर निकले । सांप्रदायिक व आतंकी वैमनस्य के उस दौर में किसी को भी बाबा आमटे की तरफ से ऐसी किसी पहल की अपेक्षा नहीं थी । ऐसा कुछ करने की उन्हें जरूरत भी नहीं थी। कुष्ठ सेवा से इसका कोई नाता भी नहीं था । सरकारों को भी उनकी इस पहल से कोई खुशी भी नहीं होनी थी । लेकिन स्नेह व करूणा का मरहम लेकर लोगों के बीच जाना उन्हें जरूरी लगा । वे पहचान गए थे कि एक दूसरे तरह की बीमारी सारे देश को डस रही है । कई लोग सवाल उठाते हैं : उनके इस प्रयास से भारत कितना जुड़ा? मुझे मालूम नहीं ऐसा सवाल पूछने के पीछे क्या मंशा होती है ? सामान्यत: तो यही कि हम अकर्मण्यता और स्वार्थ के जिस दलदल में फंसे रहते हैं उसमें एक बड़ी फिक्र यह होती है कि कोई दूसरा इससे बाहर निकल कर कैसे काम करता है, और अगर करता है तो उसे कैसे छोटा, व्यर्थ और महत्वहीन साबित किया जाये ! इस मानसिकता को छोड़ दें तो भारत जोड़ो यात्रा से दो बातें हुई । देश से गहरे भावात्मक प्यार की जरूरत होती है, यह बात नए सिरे से काफी ऊर्जावान ढंग से रेखांकित हुई तथा अनेकों नए युवा मन सामाजिक कार्यो से जुड़े । बाबा आमटे उन बिरले लोगों में थे जिनकी वजह से सामाजिक कामों में लोगों का खासकर युवाआें का जुड़ना संभव हुआ । राजनीतिक दलों की भट्ठी को जिस तरह इंर्धन बना कर इस्तेमाल किया जाता है यह उसके ठीक विपरीत है। ये ऐसी कोशिश है जिसके तहत युवाआें की उमंग, आदर्शवादिता और नएपन को खुलने व खिलने का वातावरण मिलता है। अनेकों युवा बाबा आमटे के कार्य, व्यक्तित्व और विचार से जुड़े, सक्रिय हुए और समाज में अलग-अलग स्तरों पर कार्य करने लगे । बाबा आमटे उन सबके संरक्षक-प्रेरक बने रहे । समाज सेवी बनाने की एक अलग ही सिफत थी उनमें ! बाबा आमटे बुनियादी तौर पर राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे । राजनीतिक विवादों और पक्ष-विपक्ष की खींचतान से भी अलग ही रहते थे । सरकारी व सत्ताधारियों का उनके पास आना-जाना लगा ही रहता था । उन्हें सरकारोंे ने पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित भी किया । उन्होंने वह सब स्वीकार भी कर लिया । यह सब तो लोगों को दिखाई भी दिया लेकिन वे कभी किसी सरकार या पार्टी के नहीं हुए । पद्मभूषण सम्मान वापस भी कर दिया और कई सरकारी नीतियों के खिलाफ लगातार लड़ते भी रहे, यह कम लोगों को ही दिखाई और उससे भी कम को समझ में आया । देश से छोटी किसी पहचान को उन्होंने कभी स्वीकार ही नहीं किया । विकास की दिशा और आदमी की दशा का सवाल ऐसा ही सवाल था जिसे लेकर वे सतत संघर्षरत रहे और अपनी आलोचना का स्वर कभी धीमा नहीं पड़ने दिया । मेधा पाटकर ने जब नर्मदा बचाआें आंदोलन शुरू किया तब उसका फलक भी छोटा ही था और उस बारे में हमारी समझ भी बहुत कच्ची थी। लेकिन बाबा आमटे ने एकदम शुरू से ही उसके समर्थन में आवाज उठाई । उसे शक्ति दी और फिर नर्मदा किनारे ही कुटिया बनाकर रहने लगे । असहमति की वैसी सख्त आवाज अब कहा सुनाई देगी ? शारीरिक असमर्थता उन्हें बहुत घेरे रही । विदा देने तो रक्त कैंसर सबसे नया दोस्त बन कर आया था । लेकिन बैठ सकने में एकदम असमर्थ वे सालों बिस्तर पर लेटे-लेटे सारी लड़ाईयां लड़ते रहे, यात्राएं करते रहे, धरना देते रहे, उपवास पर बैठते रहे । एक सत्याग्रही का जीवन कैसा हो सकता है वह बाबा आमटे के जीवन से समझा जा सकता है । जीवन का अपना अनुशासन उन्होंने खुद बनाया था । युवाआें में उनकी अटूट आस्था थी और इसलिए वे देश के भविष्य को लेकर कभी शंकित नहीं होते थे । नवीनतम विज्ञान की राक्षसी भूमिका के प्रति सतर्क भी थे, वे कवि भी थे । मराठी को उनका जो प्रसाद मिला है उसका कभी आकलन होगा । वे जब तक रहे नई दिशाआें का संधान करते रहे, नए अभिमन्यु तैयार करते रहे । जब तक शरीर गिर नहीं गया, वे न थके न हारे ! इच्छा हो तो रास्ते मिलते ही है इस बात के वे जीवंत उदाहरण थे। अब वे नहीं है तो इसी बात के वे प्रतीक बन गए हैं कि अगर तुम चाहते हो तो कुछ भी कर सकते हो - कहीं भी कभी भी ! यही वह छोटी सी आस्था है जिसकी आज हमें बड़ी जरूरत है । ***

२ विशेष रिपोर्ट

कोयला ऊर्जा और नई तकनीक
(डाउन टू अर्थ टीम)
मौजूदा समय में संसार की कुल प्राथमिकता ऊर्जा आवश्यकता की २५ प्रतिशत पूर्ति अकेला कोयला कर रहा है। संसार के धनी देश चूंकि अब तक अपनी कोयला अधोसंरचना गठित कर चुके हैं तो अब भारत और चीन में कोयले की बढ़ी हुई मांग पर नजर रखी जा रही है । धनी देश सन् १९८० में जहां संसार की कुल कोयला खपत का ६५ प्रतिशत उपयोग कर रहे थे वहीं सन् २००० में उनकी खपत ५० प्रतिशत और सन् २००५ में सिर्फ ३८ प्रतिशत रह गई है। वहीं चीन और भारत में विकास आवश्यकता हेतु इसकी खपत में वृद्धि हुई हैं । अखबार के पहले पन्ने की हेडलाईन चीख-चीख कर कह रही है कि चीन प्रतिदिन एक बिजली उत्पादन केन्द्र का निर्माण कर रहा है । पश्चिमी देशों में खासकर वहां के ग्रीन ग्रुप को इस पर बड़ा एतराज था कि वर्ल्ड बैंक जैसी एजेंसियां इन देशों में कोयला आधारित बिजली घरों के निर्माण के लिए धन मुहैया करवा रही है जबकि इस दौरान भी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में भी कोयले की खपत बढ़ी थी । अकेले अमेरिका मे क्योटो प्रोटोकॉल के बाद भी १५० कोयला परियोजनाएं निर्मित हुई है । न सिर्फ चीन बल्कि इंग्लैंड भी जिसने प्राकृतिक गैस का उपयोग कर पूर्व में बहुत से फायदे हासिल किए थे अब तेल की बढ़ती कीमतों की वजह से पुन: कोयले की ओर आकृष्ट हो रहा है । कोयला अपने उत्सर्जन और कचरे की वजह से हेय नजरों से देखा जाता है । कोयला बिजलीघरों में पानी का भी अपव्यय होता है, इसी वजह से कोयला क्षेत्र में ऐसी नई तकनीकों की दरकार है जिससे साफ कोयला प्राप्त् हो सके । तीन नई तकनीकी रास्ते इस समय उपलब्ध है । प्रथम है - मौजूदा तकनीक में ताप क्षमता बढ़ाना ताकि कोयले की खपत में कमी लाई जा सके । टर्बाइन में भरे जाते समय भाप के तापमान को बढ़ाकर और ज्यादा प्रेशर से छोड़कर ताप क्षमता बढ़ाई जा सकती है । मौजूदा दौर में तीन तरह के बिजलीघरों में सबसे आम सबसे निचले दर्जे से संयंत्र है जिनमें १६३ बार प्रेशर पर ५३८ डिग्री सेल्सियस ताप मिल रहा है जिनसे लगभग ३२ से ३६ प्रतिशत क्षमता ही हासिल हो पा रही है । दूसरे दर्जे के संयंत्र जिनकी संख्या १७० हैं, में २४४ बार प्रेशर पर ५५० डिग्री सेल्सियस ताप मिलता है । ऊंचे दर्जे के संयंत्र में३५० बार प्रेशर पर ६०० डिग्री सेल्सियस से ताप मिलने की वजह से ४५ प्रतिशत क्षमता हासिल होती रही है । ताप क्षमता वृद्धि की नई तकनीकों में दूसरी तकनीक को फ्ल्यूराईज्ड बेड कंबशन (एफीबीसी) एंड प्रेशराइज्ड एफीबीसी साइकल कहा जाता है जिसमें दहन के समय कोयला चूर्ण को एयरजेट की मदद से ऊपर की ओर फेंका जाता है जिसकी वजह से गैस एवं ठोस का एक तीव्र मिश्रण तैयार होता है जो रासायनिक क्रिया में तेजी लाता है, ताप संचालन में वृद्धि करता है और फलस्वरूप कोयले की ज्वलन क्षमता बढ़ाता है । तीसरी तकनीक है - इन्टीग्रेटेड गैसीफिकेशन कंबाइंड साइकल (आईजीसीसी) जो ५० प्रतिशत क्षमता देती है । ऊंची लागत और कोयले की कुछ किस्मों में कान न कर सकने जैसी अड़चने इस तकनीक के उपयोग में अभी भी बाधक है। इसमें हवा या ऑक्सीजन के साथ दबाव देकर कोयले को गैसीकृत कर नई गैस का निर्माण किया जाता है, फिर ऊर्जा उत्पादन हेतु उसे गैस टर्बाइन में जलाया जाता है । इससे दोहरा फायदा है क्योंकि टर्बाइन से निकली गैस के तापमान को स्टीम चेम्बर से गुजारकर पुन: बढ़ाया जा सकता है जिसकी वजह से ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि होती है । इस तकनीक पर आधारित सिर्फ ४ संयंत्र यूरोप और अमेरिका में चल रहे हैं । कोयला क्षेत्र का दूसरा नया तकनीकी रास्ता है नवीन कोयला तकनीक। इसमें कोयले को पारंपरिक तरीके से जलाने के बजाए या तो गैस में बदलकर उपयोग किया जाता है अथवा सतह से नीचे मौजूद कोयला में फंसी गैस को निकालकर उपयोग में लिया जाता है । इन गैसों को अपेक्षाकृत स्वच्छ तरीके से जलाया जा सकता है । तीसरा रास्ता है कोयले को मौजूदा तरीके से जलाया जाए किंतु उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साईड को सहेजकर, धनीभूतकर भूतल के नीचे संग्रहित कर लिया जाए । इस तकनीक से मौजूदा कोयला आधारित अर्थव्यवस्था जारी रख पाने की सुविधा की वजह से सर्वाधिक अपेक्षाएं है । दस लाख टन प्रतिवर्ष क्षमता वाले तीन बड़े कार्बन डाई आक्साईड संग्रहण संयंत्र इस वक्त दुनिया में मौजूद हैं। इस तकनीक को कोयला उद्योग और एनजीओ दोनों का समर्थन मिल रहा है । अक्टूबर २००७ में अमेरिकी ऊर्जा विभाग ने तीन नई कार्बन संग्रहण परियोजना के लिए १९ करोड़ ७० लाख डॉलर जारी करने की घोषणा की है । कोयला संपन्न ऑस्ट्रेलिया भी ऐसी ४ परियोजनाआे पर न सिर्फ काम शुरू करने वाला है बल्कि ऐसी परियोजनाआे के लिए लायसेंस देने और इन पर निगरानी के लिए कानूनी मसौदा भी तैयार कर रहा है । लेक्ट्रॉबवेली में स्वीकृत इनमें से सबसे बड़ी परियोजना के साझा प्रवर्तक उत्खनन क्षेत्र के प्रमुख एंग्लो अमेरिकन और तेल क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कंपनी शैल हैं । वे यहां सबसे पहले कोयले के तरह डीजल में बदलेंगे और कार्बन डाई आक्साईड को ऑस्ट्रेलिया में तस्मानिया को विभाजित करने वाली बास स्ट्रेट के रिक्त तेल क्षेत्र तक पहुचाएंगे । इस परियोजना की वजह से ५ करोड़ टन कार्बन डाईआक्साइड तो अलग की ही जा सकेगी, बास स्ट्रेट आरक्षित क्षेत्र में कचरा निपटान के लिए भी रास्ता खुल जाएगा । परंतु इस मामले में लागत और सुरक्षा के प्रश्न महत्वपूर्ण हैं । इस तकनीक के बड़े समर्थक आयईए के मुताबिक अब तक की सबसे कम लागत ग्रीनफील कोयला प्लांट में पाई जा सकी है जो कि ५० अमेरिकी डॉलर प्रति टन बैठती है । आयईए का कहना है कि एक बार सुधार की दिशा गति पकड़ ले तो यह लागत २०३० तक २५ डॉलर तक कम की जा सकेगी । इसके विरूद्ध विरोध के स्वर भी हैं । उनके मुताबिक कार्बन डाई आक्साईड जो दबाव पाकर तरल में परिवर्तित हो जाएगी, स्वभाव से अम्लीय होगी और यह ज्यादा सांसरोधी भी हो सकती है । अत: इस तरह की ईकाईयों में संभावित रिसाव खतरनाक सिद्ध हो सकता है । फिर भी पर्यावरण हित को देखते हुए इस पर भरोसा बढ़ रहा है । समस्या समय की कमी की है क्योंकि अब प्रयोग की गुंजाइश नहीं बची है । कचरे को जमीन में गाढ़ने से पर्यावरण बिगड़ेगा । योजनाकार भी कोयले की कम लागत और सहज उपलब्धता की वजह से इसे ही अपनाने पर जोर दे रहे हैं । देश में सन् २००५ में ७० प्रतिशत बिजली उत्पादन कोयल से हुआ । मौजूदा २.५ अरब टन का कोयला भंडार अगले ५० वर्षो तक हमारे लिए पर्याप्त् होगा । कोयले की मौजूदा सालाना खपत ४ करोड़ टन है जो सन् २०३० तक २० करोड़ टन हो जाएगी । कोयला बिजलीघरों की संख्या वर्तमान में ८१ है जिसमें लगातार वृद्धि हो रही है । भारत ने जो कि सन् २०३० तक ऊर्जा अधोसंरचना पर १२.५ अरब डॉलर का निवेश करेगा, उसे इस वक्त देखना चाहिए कि उसके निजी और पर्यावरण हित में कौन-सी तकनीक सर्वश्रेष्ठ है । भारत के ज्यादातर बिजलीघर निचली श्रेणी के हैं किन्तु अब वह ऊंचे दर्जे के संयंत्र में निवेश कर रहा है । एनटीपीसी एक संयंत्र छत्तीसगढ़ और दूसरा बिहार में स्थापित कर रहा है । अन्य संस्थान भी इस तकनीक पर आधारित नए विद्युत संयंत्र मध्यप्रदेश में शासन, छत्तीसगढ़ में अकलतारा, गुजरात में मंूदड़ा, महाराष्ट्र में गिरये और तादड़ी कर्नाटक में प्रारंभ करने जा रहे हैं । किंतु भारत में उपलब्ध कोयले की गुणवत्ता के मद्देनजर उससे ऊंचे दर्जे के प्लांट में भी अच्छी उत्पादकता पाना संदेहास्पद है । हमारे यहां एफबीडी तकनीक का इस्तेमाल भी छोटे केप्टीव विद्युत संयंत्रों में हो रहा है । इसकी वजह यह है कि इसमें कोयले से लगाकर नगरीय कचरे तक कुछ भी जलाया जा सकता है फिर इनमें उत्सर्जन भी सीमित है । ऊंचे दर्जे के संयंत्रों की अपेक्षा इनमें उत्पादकता कुछ कम होती है किंतु हमारा कोयला इन संयंत्रों के लिए बहुत मुआफिक है । इसमें क्षमता सबसे बड़ी बाधा है । संसार के सबसे बड़े एफबीडी संयंत्र की क्षमता है महज ३२० मेगावाट । भारत के संयंत्र सिर्फ १०० से २५० मेगावाट के हैं । फिर भी हमारे यहां पारेषण और वितरण हानि के बड़े स्तर को देखते हुए शहरी इलाकों के लिए ये एक अच्छा विकल्प है । आयजीसीसी भविष्य की तकनीक है जिसमें अभी ४५ से ५० प्रतिशत क्षमता प्राप्त् होती है और जल्द ही इसे ६० प्रतिशत तक पहुंचा दिया जाएगा । भारतीय कोयला अध्ययन बताया है कि इस तकनीक में कार्बन डाई ऑक्साईड उत्सर्जन उच्च् दर्जे के प्लांट की अपेक्षा १० प्रतिशत और दूसरे दर्जे के प्लांट की अपेक्षा २० प्रतिशत कम होता है । यह तकनीक विकास के स्तर पर अभी शैशव अवस्था में है इस पर इसकी लागत भी दुगनी है । तिरूचिरापल्ली, तमिलनाडु में ६.२ मेगावाट बीएचईएल के प्रथम प्रोजेक्ट की शुरूआत हुई है । इसमें ४० प्रतिशत राख छोड़ने वाले कोयले का उपयोग हो रहा है । ओरैया, उत्तरप्रदेश में एनटीपीसी भी इस तकनीक का १०० से १२५ मेगावाट क्षमता का संयंत्र लेकर आ रही है । इतिहास गवाह है कि उद्योग जगत में ज्यादातर ने प्रथमत: कम क्षमता वाली तकनीक जिसमें उत्सर्जन ज्यादा होता है में निवेश किया फिर उसमें समय के साथ गुणवत्ता में सुधार भी किया । चीन और भारत के पास तो इस समय बेहतर तकनीक चुनने का अवसर तो है किंतु इसमें सबसे बड़ी बाधा है इसकी लागत । वातावरण के नजरिए से देखें तो आयजीसीसी सबसे उपयुक्त तकनीक है जो उत्सर्जन में काफी कमी लाती है । अत: भारत के लिए इस समय विकल्प स्पष्ट है - यह अपने मौजूदा संयंत्रों की क्षमता बढ़ाने के लिए उन्हें ऊंचे दर्जे के संयंत्रोंमें बदले, नई परियोजना के लिए भी इसी तकनीक का इस्तेमाल करें और नए आयजीसीसी संयंत्र भी स्थापित करें। इसके लिए वैश्विक स्तर पर चर्चा करना होगी जिससे कि भारत का एक निम्न स्तरीय व्यवस्था, जिसमें उत्सर्जन स्तर कम नहीं हो पाएगा, में निवेदन करने के बजाए उच्च् दर्जे की व्यवस्था में निवेश कर पाए ।***