संरक्षण और महिलाएँ
डॉ. रामनिवास यादव
पर्यावरण से हमारा अभिप्राय हमारे चारों ओर के परिवेश से हैं । स्थलमण्डल, जल मण्डल, वायु मण्डल एवं जैव मण्डल के विभिन्न घटकों से पर्यावरण का निर्माण होता है । पर्यावरण के विभिन्न घटक हमारे जीवन को प्रभावित करने में अहम भूमिका निभाते हैं । मानव जीवन के स्वस्थ्य रहने के लिए पर्यावरण का स्वच्छ एवं संतुलित होना अनिवार्य है लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि हमने भोगवादी संस्कृति के बहकावे में आकर अपने पर्यावरण में इतनी अधिक विकृति पैदा कर दी कि आज हमारा जीना ही दूभर हो गया है । मानव ने अपने क्रिया कलापों से पर्यावरण में अनेक प्रकार के प्रदूषणों को जन्म दिया है और वह प्रदूषण रूपी दानव न केवल मानव के लिए बल्कि समस्त जीवन जगत के लिए घातक सिद्ध हो रहा है । पर्यावरण संरक्षण से हमारा अभिप्राय हमें अपने चारों ओर के पर्यावरण को शुद्ध एवं स्वच्छ रखने से हैं। यदि मानव अपनी आर्थिक, सांस्कृतिक व सामाजिक प्रगति व उत्थान करता है और पर्यावरण के उक्त घटक अपने प्राकृतिक रूप में रहते हैं व उनकी चक्रीय व्यवस्था में कोई व्यवधान नहीं आता है अथवा प्राकृतिक संतुलन बना रहता है एवं उनकी गुणवत्ता में कोई हृास नहीं होता हैं तो कहा जाएगा कि पर्यावरण संरक्षित करते हुए वहां के लोग तरक्की कर रहे हैं । अत: पर्यावरण संरक्षण से तात्पर्य ऐसे विकास से हैं जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग हो तथा उनका नवीनीकरण बाधित न हो । पर्यावरण संरक्षण का लक्ष्य है विनाश रहित विकास। पर्यावरण संरक्षण में सभी वर्गो का सकारात्मक सहयोग होना अति अनिवार्य हैं । यदि हम यह कहें कि पर्यावरण संरक्षण के लिए विश्वव्यापी सहयोग की आवश्यकता है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । यूं तो भारत देश गांवों का देश हैं व इसकी ७० प्रतिशत से अधिक जनसंख्या ग्रामीण अंचलों में निवास करती हैं अत: जब तक हम गांवाों में पर्यावरण को संरक्षित नहीं करेंगे तब तक पर्यावरण संरक्षण की बातें करना बेमानी होगी । ग्रामीण अंचलों में महिलाएं पर्यावरण को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं । ग्रामीण क्षेत्रों में कूड़े करकट व गन्दगी की समस्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है । अतीत में ग्रामीण क्षेत्र स्वर्ग थे वे अब नरक में परिवर्तित हो रहे हैं क्योंकि अब वहां न तो पहले जैसी सफाई है व न ही सहयोग की भावना है। आमतौर पर ग्रामीण महिलाएं अपने घर का कूड़ा करकट निकाल कर गली में या किसी अन्य सार्वजनिक स्थल पर डाल देती हैं जिससे मक्खी मच्छर व बदबूदार वातावरण का निर्माण होता है । यह भी देखने में आया है कि ग्रामीण बहनें अपने पशुआें का गोबर गांव के जोहड़ के किनारे डाल देती हैं व जब वर्षा होती है तो वह गोबर बह कर जोहड़ में चला जाता है व जोहड़ का पानी प्रदूषित हो जाता है । जब उसी प्रदूषित पानी को गांव के पशु पीते हैं तो वे बीमार होकर मर जाते हैं । अत: ग्रामीण बहनों को चाहिए कि वे अपने घर का कूड़ा करकट व पशुआें का गोबर क्रमश: गली व जोहड़ के पास न डालें। कूड़े करकट व गोबर के लिए एक उपयुक्त स्थान का चयन करके व वहां गड्डा बनाकर डालें तो कई प्रकार के प्रदूषण से बचा जा सकता है । महिलाएं प्लास्टिक की थैलियों का भरपूर उपयोग करती देखी गई है । प्लास्टिक की थैलियों से सामान निकाल कर थैलियों को कूड़ें में या गली मोहल्ले में फैंक देना बहुत ही हानिकारक व घातक सिद्ध होता है । प्लास्टिक की थैलियां पर्यावरण की दुश्मन हैं व जहां एक ओर इनसे मृदा प्रदूषण बढ़ता है वहीं दूसरी ओर नाले एवं सीवर बंद हो जाते हैं जिससे प्रशासन को प्रवाह तंत्र साफ करने में काफी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है । अत: बहनों को चाहिए कि जहां तक हो सके वे प्लास्टिक की थैलियों का इस्तेमाल ही न करें व बाजार से समान लाने हेतु जूट या कपड़े के थैलों का इस्तेमाल करें। यदि किसी कारणवश उन्हें प्लास्टिक की थैलियों का इस्तेमाल मजबूरन करना भी पड़ता है तो वे खाली थैलियों को गली में ना फैंके बल्कि उनका एक स्थान पर संग्रह करलें व किसी कबाड़ी वाले को बेंच दें ताकि उनका पुन: किसी कार्य हेतु प्रयोग किया जा सके । ऐसा करने से न तो मृदा प्रदूषण होगा और न ही नालियां बाधित होंगी । बहनों का यह नैतिक दायित्व बनता है कि वे अपने बच्चें में भी प्रारंभ से ही ऐसे संस्कारों का निर्माण करें कि वे प्लास्टिक की थैलियों के प्रयोग से परहेज करें । बहनें इंर्धन के लिए लकड़ी या गोबर के बने उपलों का प्रयोग करती हैं। लकड़ी व उपलों के प्रयोग से जहां एक ओर हमारा पर्यावरण प्रदूषित होता है वहीं दूसरी ओर धूएं से बहनों को काफी बीमारियों हो जाती है । महिलाआें को चाहिए कि वे गैर पारम्परिक ऊर्जा स्त्रोतों का इस्तेमाल करें । रसोई के लिए बहनें बायोगैस का प्रयोग कर सकती हैं । बायो गैस के प्रयोग से न तो पर्यावरण ही प्रदूषित होता है और न ही इसके इस्तेमाल में धूएं की वजह से होने वाली कोई बीमारी होती है । आमतौर पर यह देखने में आता है कि इंर्धन का प्रबंध करना महिलाआें की ही जिम्मेवारी होती है क्योंकि खाना बनाने का दायित्व महिला का ही निर्धारित किया गया है । अत: महिलाएं ग्रामीण अंचलों में इंर्धन के लिए पेड़ों को काटती देखी जा सकती हैं । पर्यावरण की रक्षा हेतु बिश्नोई सम्प्रदाय की महिला अमृतादेवी का बलिदान अविस्मरणीय है । राजस्थान राज्य के जोधपुर जिले के खेजड़ली गांव की महिला अमृत देवी के नेतृत्व में विक्रम संवत १७८७ में ३६३ स्त्री, पुरूषों ने वृक्षों की रक्षार्थ अपने प्राणों की बलि दी थी। अमृता देवी की प्रतिमा संयुक्त राष्ट्र के पुस्तकालय हाल में लगी हुई इस बात का प्रतीक है कि भारतीय महिलाएं वृक्षों की रक्षा हेतु अपने प्राणों की आहूति भी दे सकती हैं । हमारी महिलाआें को अमृता देवी के बलिदान से प्रेरणा लेकर वृक्षों की तन-मन-धन से रक्षा करनी चाहिए ताकि पर्यावरणीय असंतुलन को दूर किया जा सके । उत्तरांचल में वृक्षों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन में भी महिलाआें की विशेष भूमिका रही । हिमालय क्षेत्र में पेड़ों की रक्षा के लिए वहां कि महिलाआें ने पेड़ों से चिपक कर पेड़ों की रक्षा की। वर्तमान में उत्तरांचल के टिहरी-गढ़वाल क्षेत्र में सहेली समितियों के माध्यम से जवान लड़कियाँ पेड़ों के रोपण एवं उनके संरक्षण में अह्म भूमिका निभा रही हैं । सहेली समितियों द्वारा उनकी किसी सदस्या की जब शादी होती है उस अवसर पर उस लड़की की ओर से गांव में कुछ पौधे रोपित किए जाते हैं व उन पौधों की देखरेख का अगले पांच साल का खर्च दूल्हे पक्ष की ओर से वसूल किया जाता है । इसी प्रकार देश के अन्य क्षेत्रों में भी सहेली समितियों के माध्यम से देश को हरा भरा बनाया जा सकता है । आज हम व्यर्थ लोलूपता व फैशन के कारण अन्य प्राणियों एवं प्राकृतिक वनस्पतियों का विनाश करने पर तुले हुए हैं । हम लोमड़ी की खाल की टोपी पहनने को प्रतिष्ठा का विषय मानते हैं, खरगोश जैसे भोले जीव के मुलायम बालों के दस्ताने धारण करने में अपनी शान समझते हैं, कमरों में शेर की खाल को लटकाने, मृगचर्म पर प्राणायाम या भक्ति करने हम पीछे नहीं हैं । जूतों, जैकेटों व दस्तानों में हम वन्य जीवों के उत्पादों का प्रयोग करके सभ्य कहलाने वाले जंगलीपन को दर्शा रहे हैं । ऐसा जान पड़ता है कि हमने ऋग्वेद में बताई गयी गायत्री एवं सविता की आराधना बन्द कर दी है जिससे मन मस्तिष्क में विकृतियों से परिपूर्ण अभिवृत्तियों का विकास हो रहा है और हमारा पर्यावरण संरक्षण का अभियान कछुए की चाल चलता हुआ प्रतीत हो रहा है। पर्यावरण संरक्षण के अभियान को गति प्रदान करने में महिलाएं ठोस भूमिका निभा सकती है । महिला वर्ग को यह प्रण लेना होगा व अन्य बहनों को भी प्रेरित करना होगा कि वे अपने जीवन में कभी भी वन्य जीवों की चमड़ी व फर से बने उत्पादों का प्रयोग नहीं करेंगी । यदि हमारी बहनें ऐसा प्रण लेती हैं तो सारे समाज में वन्य जीवों के प्रति संरक्षण की भावना का प्रचार-प्रसार होगा व हमारे पर्यावरण संरक्षण के अभियान को भी गति मिलेगी । आज हमारे किसान खेती में विभिन्न रसायनों का इस्तेमाल करके पर्यावरण संरक्षण के अभियान को ठेस पहुंचा रहे हैं । अत्यधिक मात्रा में कीटनाशकों के इस्तेमाल से हमारी मिट्टी विषाक्त होती जा रही है । हमारे किसान भाईयों को खेती में कीटनाशकों के इस्तेमाल पर रोक लगानी पड़ेगी । आज तो कीटनाशकों की मात्रा भोजन श्रृंखला के माध्यम से हमारे शरीर में भी प्रवेश कर गई है और इसके शरीर में प्रवेश करने से मनुष्य की प्रजनन क्षमता निरंतर कम हो रही है । महिलाआें द्वारा समय से पहले एवं अपंग बच्चें को जन्म देना भी शरीर में कीटनाशकों की बढ़ती मात्रा के कारण हो रहा है । महिलाआें की खेती कार्यो में विशेष सहभागिता होती हैं अत: उनका यह फर्ज बन जाता है कि वे अपने स्तर पर अपने परिवार वालों को इस बात पर राजी करें कि वे खेती में रासायनिक खादों की बजाय जैव खादों का इस्तेमाल करें व रासायनिक कीटनाशकों की जगह नीम व हल्दी आधारित कीटनाशकों का इस्तेमाल करें ताकि पर्यावरण में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न न हो । वर्तमान समय में विकसित तथा विकासशील देशों की महिलाआें ने पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में अपने सकारात्मक प्रयासों द्वारा मजबूत पकड़ बनानी शुरू कर दी है । पिछले २० वर्षो में दुनिया के विभिन्न देशों में महिलाआें ने पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करके अपना व अपने देश का नाम कमाया है । भारत में मेधा पाटेकर, वन्दना शिवा, सुनीता नारायन तथा सुमन सहाय का पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में योगदान सराहनीय रहा है । परिवार की जीविका की जिम्मेदारी निभाते हुए एक लम्बे समय से पीढ़ी-दर-पीढ़ी महिलाआें ने पर्यावरण का ज्ञान का एक कोष बनाया है । नारी यह सदा से जानती है कि किस क्षेत्र में किस फसल का उत्पादन करना है व किस पेड़ की लकड़ी का इस्तेमाल इंर्धन के लिए करना है व किस पेड़ की लकड़ी का औषधीय महत्व है । ऐसी स्थिति में नारी का यह परंपरागत ज्ञान एक महत्वपूर्ण एवं उपयोग अभिलेख के समकक्ष होगा । वर्ष १९९२ में पृथ्वी के सम्मेलन के दौरान जब संसार के विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने पर्यावरंण संरक्षण एवं सतत विकास का मुद्दा उठाया तब उन्होंने यह महसूस किया कि यदि पर्यावरण संरक्षण के कार्यो में महिलाआें को शामिल नहीं किया गया तो पर्यावरण संरक्षण की योजनाआें का सफल होना निश्चित नहीं है । अत: पर्यावरण सरंक्षण की विभिन्न योजनाआें में महिलाआें की भूमिका सुनिश्चित करना अनिवार्य है । तभी पर्यावरण संरक्षण अभियान को गतिशीलता मिल पाएगी । ***
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