कोयला ऊर्जा और नई तकनीक
(डाउन टू अर्थ टीम)
मौजूदा समय में संसार की कुल प्राथमिकता ऊर्जा आवश्यकता की २५ प्रतिशत पूर्ति अकेला कोयला कर रहा है। संसार के धनी देश चूंकि अब तक अपनी कोयला अधोसंरचना गठित कर चुके हैं तो अब भारत और चीन में कोयले की बढ़ी हुई मांग पर नजर रखी जा रही है । धनी देश सन् १९८० में जहां संसार की कुल कोयला खपत का ६५ प्रतिशत उपयोग कर रहे थे वहीं सन् २००० में उनकी खपत ५० प्रतिशत और सन् २००५ में सिर्फ ३८ प्रतिशत रह गई है। वहीं चीन और भारत में विकास आवश्यकता हेतु इसकी खपत में वृद्धि हुई हैं । अखबार के पहले पन्ने की हेडलाईन चीख-चीख कर कह रही है कि चीन प्रतिदिन एक बिजली उत्पादन केन्द्र का निर्माण कर रहा है । पश्चिमी देशों में खासकर वहां के ग्रीन ग्रुप को इस पर बड़ा एतराज था कि वर्ल्ड बैंक जैसी एजेंसियां इन देशों में कोयला आधारित बिजली घरों के निर्माण के लिए धन मुहैया करवा रही है जबकि इस दौरान भी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में भी कोयले की खपत बढ़ी थी । अकेले अमेरिका मे क्योटो प्रोटोकॉल के बाद भी १५० कोयला परियोजनाएं निर्मित हुई है । न सिर्फ चीन बल्कि इंग्लैंड भी जिसने प्राकृतिक गैस का उपयोग कर पूर्व में बहुत से फायदे हासिल किए थे अब तेल की बढ़ती कीमतों की वजह से पुन: कोयले की ओर आकृष्ट हो रहा है । कोयला अपने उत्सर्जन और कचरे की वजह से हेय नजरों से देखा जाता है । कोयला बिजलीघरों में पानी का भी अपव्यय होता है, इसी वजह से कोयला क्षेत्र में ऐसी नई तकनीकों की दरकार है जिससे साफ कोयला प्राप्त् हो सके । तीन नई तकनीकी रास्ते इस समय उपलब्ध है । प्रथम है - मौजूदा तकनीक में ताप क्षमता बढ़ाना ताकि कोयले की खपत में कमी लाई जा सके । टर्बाइन में भरे जाते समय भाप के तापमान को बढ़ाकर और ज्यादा प्रेशर से छोड़कर ताप क्षमता बढ़ाई जा सकती है । मौजूदा दौर में तीन तरह के बिजलीघरों में सबसे आम सबसे निचले दर्जे से संयंत्र है जिनमें १६३ बार प्रेशर पर ५३८ डिग्री सेल्सियस ताप मिल रहा है जिनसे लगभग ३२ से ३६ प्रतिशत क्षमता ही हासिल हो पा रही है । दूसरे दर्जे के संयंत्र जिनकी संख्या १७० हैं, में २४४ बार प्रेशर पर ५५० डिग्री सेल्सियस ताप मिलता है । ऊंचे दर्जे के संयंत्र में३५० बार प्रेशर पर ६०० डिग्री सेल्सियस से ताप मिलने की वजह से ४५ प्रतिशत क्षमता हासिल होती रही है । ताप क्षमता वृद्धि की नई तकनीकों में दूसरी तकनीक को फ्ल्यूराईज्ड बेड कंबशन (एफीबीसी) एंड प्रेशराइज्ड एफीबीसी साइकल कहा जाता है जिसमें दहन के समय कोयला चूर्ण को एयरजेट की मदद से ऊपर की ओर फेंका जाता है जिसकी वजह से गैस एवं ठोस का एक तीव्र मिश्रण तैयार होता है जो रासायनिक क्रिया में तेजी लाता है, ताप संचालन में वृद्धि करता है और फलस्वरूप कोयले की ज्वलन क्षमता बढ़ाता है । तीसरी तकनीक है - इन्टीग्रेटेड गैसीफिकेशन कंबाइंड साइकल (आईजीसीसी) जो ५० प्रतिशत क्षमता देती है । ऊंची लागत और कोयले की कुछ किस्मों में कान न कर सकने जैसी अड़चने इस तकनीक के उपयोग में अभी भी बाधक है। इसमें हवा या ऑक्सीजन के साथ दबाव देकर कोयले को गैसीकृत कर नई गैस का निर्माण किया जाता है, फिर ऊर्जा उत्पादन हेतु उसे गैस टर्बाइन में जलाया जाता है । इससे दोहरा फायदा है क्योंकि टर्बाइन से निकली गैस के तापमान को स्टीम चेम्बर से गुजारकर पुन: बढ़ाया जा सकता है जिसकी वजह से ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि होती है । इस तकनीक पर आधारित सिर्फ ४ संयंत्र यूरोप और अमेरिका में चल रहे हैं । कोयला क्षेत्र का दूसरा नया तकनीकी रास्ता है नवीन कोयला तकनीक। इसमें कोयले को पारंपरिक तरीके से जलाने के बजाए या तो गैस में बदलकर उपयोग किया जाता है अथवा सतह से नीचे मौजूद कोयला में फंसी गैस को निकालकर उपयोग में लिया जाता है । इन गैसों को अपेक्षाकृत स्वच्छ तरीके से जलाया जा सकता है । तीसरा रास्ता है कोयले को मौजूदा तरीके से जलाया जाए किंतु उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साईड को सहेजकर, धनीभूतकर भूतल के नीचे संग्रहित कर लिया जाए । इस तकनीक से मौजूदा कोयला आधारित अर्थव्यवस्था जारी रख पाने की सुविधा की वजह से सर्वाधिक अपेक्षाएं है । दस लाख टन प्रतिवर्ष क्षमता वाले तीन बड़े कार्बन डाई आक्साईड संग्रहण संयंत्र इस वक्त दुनिया में मौजूद हैं। इस तकनीक को कोयला उद्योग और एनजीओ दोनों का समर्थन मिल रहा है । अक्टूबर २००७ में अमेरिकी ऊर्जा विभाग ने तीन नई कार्बन संग्रहण परियोजना के लिए १९ करोड़ ७० लाख डॉलर जारी करने की घोषणा की है । कोयला संपन्न ऑस्ट्रेलिया भी ऐसी ४ परियोजनाआे पर न सिर्फ काम शुरू करने वाला है बल्कि ऐसी परियोजनाआे के लिए लायसेंस देने और इन पर निगरानी के लिए कानूनी मसौदा भी तैयार कर रहा है । लेक्ट्रॉबवेली में स्वीकृत इनमें से सबसे बड़ी परियोजना के साझा प्रवर्तक उत्खनन क्षेत्र के प्रमुख एंग्लो अमेरिकन और तेल क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कंपनी शैल हैं । वे यहां सबसे पहले कोयले के तरह डीजल में बदलेंगे और कार्बन डाई आक्साईड को ऑस्ट्रेलिया में तस्मानिया को विभाजित करने वाली बास स्ट्रेट के रिक्त तेल क्षेत्र तक पहुचाएंगे । इस परियोजना की वजह से ५ करोड़ टन कार्बन डाईआक्साइड तो अलग की ही जा सकेगी, बास स्ट्रेट आरक्षित क्षेत्र में कचरा निपटान के लिए भी रास्ता खुल जाएगा । परंतु इस मामले में लागत और सुरक्षा के प्रश्न महत्वपूर्ण हैं । इस तकनीक के बड़े समर्थक आयईए के मुताबिक अब तक की सबसे कम लागत ग्रीनफील कोयला प्लांट में पाई जा सकी है जो कि ५० अमेरिकी डॉलर प्रति टन बैठती है । आयईए का कहना है कि एक बार सुधार की दिशा गति पकड़ ले तो यह लागत २०३० तक २५ डॉलर तक कम की जा सकेगी । इसके विरूद्ध विरोध के स्वर भी हैं । उनके मुताबिक कार्बन डाई आक्साईड जो दबाव पाकर तरल में परिवर्तित हो जाएगी, स्वभाव से अम्लीय होगी और यह ज्यादा सांसरोधी भी हो सकती है । अत: इस तरह की ईकाईयों में संभावित रिसाव खतरनाक सिद्ध हो सकता है । फिर भी पर्यावरण हित को देखते हुए इस पर भरोसा बढ़ रहा है । समस्या समय की कमी की है क्योंकि अब प्रयोग की गुंजाइश नहीं बची है । कचरे को जमीन में गाढ़ने से पर्यावरण बिगड़ेगा । योजनाकार भी कोयले की कम लागत और सहज उपलब्धता की वजह से इसे ही अपनाने पर जोर दे रहे हैं । देश में सन् २००५ में ७० प्रतिशत बिजली उत्पादन कोयल से हुआ । मौजूदा २.५ अरब टन का कोयला भंडार अगले ५० वर्षो तक हमारे लिए पर्याप्त् होगा । कोयले की मौजूदा सालाना खपत ४ करोड़ टन है जो सन् २०३० तक २० करोड़ टन हो जाएगी । कोयला बिजलीघरों की संख्या वर्तमान में ८१ है जिसमें लगातार वृद्धि हो रही है । भारत ने जो कि सन् २०३० तक ऊर्जा अधोसंरचना पर १२.५ अरब डॉलर का निवेश करेगा, उसे इस वक्त देखना चाहिए कि उसके निजी और पर्यावरण हित में कौन-सी तकनीक सर्वश्रेष्ठ है । भारत के ज्यादातर बिजलीघर निचली श्रेणी के हैं किन्तु अब वह ऊंचे दर्जे के संयंत्र में निवेश कर रहा है । एनटीपीसी एक संयंत्र छत्तीसगढ़ और दूसरा बिहार में स्थापित कर रहा है । अन्य संस्थान भी इस तकनीक पर आधारित नए विद्युत संयंत्र मध्यप्रदेश में शासन, छत्तीसगढ़ में अकलतारा, गुजरात में मंूदड़ा, महाराष्ट्र में गिरये और तादड़ी कर्नाटक में प्रारंभ करने जा रहे हैं । किंतु भारत में उपलब्ध कोयले की गुणवत्ता के मद्देनजर उससे ऊंचे दर्जे के प्लांट में भी अच्छी उत्पादकता पाना संदेहास्पद है । हमारे यहां एफबीडी तकनीक का इस्तेमाल भी छोटे केप्टीव विद्युत संयंत्रों में हो रहा है । इसकी वजह यह है कि इसमें कोयले से लगाकर नगरीय कचरे तक कुछ भी जलाया जा सकता है फिर इनमें उत्सर्जन भी सीमित है । ऊंचे दर्जे के संयंत्रों की अपेक्षा इनमें उत्पादकता कुछ कम होती है किंतु हमारा कोयला इन संयंत्रों के लिए बहुत मुआफिक है । इसमें क्षमता सबसे बड़ी बाधा है । संसार के सबसे बड़े एफबीडी संयंत्र की क्षमता है महज ३२० मेगावाट । भारत के संयंत्र सिर्फ १०० से २५० मेगावाट के हैं । फिर भी हमारे यहां पारेषण और वितरण हानि के बड़े स्तर को देखते हुए शहरी इलाकों के लिए ये एक अच्छा विकल्प है । आयजीसीसी भविष्य की तकनीक है जिसमें अभी ४५ से ५० प्रतिशत क्षमता प्राप्त् होती है और जल्द ही इसे ६० प्रतिशत तक पहुंचा दिया जाएगा । भारतीय कोयला अध्ययन बताया है कि इस तकनीक में कार्बन डाई ऑक्साईड उत्सर्जन उच्च् दर्जे के प्लांट की अपेक्षा १० प्रतिशत और दूसरे दर्जे के प्लांट की अपेक्षा २० प्रतिशत कम होता है । यह तकनीक विकास के स्तर पर अभी शैशव अवस्था में है इस पर इसकी लागत भी दुगनी है । तिरूचिरापल्ली, तमिलनाडु में ६.२ मेगावाट बीएचईएल के प्रथम प्रोजेक्ट की शुरूआत हुई है । इसमें ४० प्रतिशत राख छोड़ने वाले कोयले का उपयोग हो रहा है । ओरैया, उत्तरप्रदेश में एनटीपीसी भी इस तकनीक का १०० से १२५ मेगावाट क्षमता का संयंत्र लेकर आ रही है । इतिहास गवाह है कि उद्योग जगत में ज्यादातर ने प्रथमत: कम क्षमता वाली तकनीक जिसमें उत्सर्जन ज्यादा होता है में निवेश किया फिर उसमें समय के साथ गुणवत्ता में सुधार भी किया । चीन और भारत के पास तो इस समय बेहतर तकनीक चुनने का अवसर तो है किंतु इसमें सबसे बड़ी बाधा है इसकी लागत । वातावरण के नजरिए से देखें तो आयजीसीसी सबसे उपयुक्त तकनीक है जो उत्सर्जन में काफी कमी लाती है । अत: भारत के लिए इस समय विकल्प स्पष्ट है - यह अपने मौजूदा संयंत्रों की क्षमता बढ़ाने के लिए उन्हें ऊंचे दर्जे के संयंत्रोंमें बदले, नई परियोजना के लिए भी इसी तकनीक का इस्तेमाल करें और नए आयजीसीसी संयंत्र भी स्थापित करें। इसके लिए वैश्विक स्तर पर चर्चा करना होगी जिससे कि भारत का एक निम्न स्तरीय व्यवस्था, जिसमें उत्सर्जन स्तर कम नहीं हो पाएगा, में निवेदन करने के बजाए उच्च् दर्जे की व्यवस्था में निवेश कर पाए ।***
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