सोमवार, 19 जून 2017


प्रसंगवश
अनूठा स्कूल : सालाना फीस डेढ़ क्विंटल अनाज
सालभर की पढ़ाई और रहने-खाने का खर्च शहरों के आवासीय विद्यालयोंमें हजारों-लाखों रूपए होता है, लेकिन धार जिले के डही कस्बे  से १८ किमी दूर ककराना की राणी काजल जीवनशाला की बात अलग    है । यहां आदिवासी मजदूरों के बच्च्े शिक्षा प्राप्त् कर रहे हैं । एक बच्च्े की सालभर की पढ़ाई और रहने-खाने के बदले अभिभावकों को फीस की जगह डेढ़ क्विंटल अनाज और दस किलो दाल देना होती है । स्कूल बिना सरकारी मदद जनसहयोग से चल रहा है । यहां के बच्च्े अब कॉलेज तक पहुंच चुके हैं । 
स्कूल की शुरूआत २१ अगस्त २००० में ककराना के उपस्वास्थ्य केन्द्र भवन में४१ बच्चें के साथ की गई थी । स्थायी भवन की बात आई, तो ग्रामीणों ने मदद की । अब तक कई स्वयंसेवी संगठनों समेत लेखिका अरूंधति राय भी अब तक २० हजार रूपये की मदद कर चुकी है । वर्तमान में स्कूल के पास पक्का भवन है । इसमें ६ कमरे हैं, जिनमें दिन में विद्यार्थी पढ़ते हैं, जबकि रात में सोते है । 
स्कूल में स्थानीय भाषा लिपि में पाठ्यक्रम तैयार किया है ताकि बच्चेंको आसानी हो । बच्च्े प्रार्थना में राष्ट्रीय गान के अलावा क्रांतिकारी गीत भी गाते हैं । 
जीवनशाला में आठवी तक शिक्षा की व्यवस्था है । वर्तमान में २१३ विद्यार्थी हैं । कम्प्यूटर और पुस्तकालय के साथ परिसर में खेलने के लिये संसाधन भी जुटा लिए है । १६ लोगों का स्टॉफ है । इनमें से १० शिक्षक है । सीनियर टीचर्स को ७ हजार और जूनियर को ३-४ हजार रूपये प्रतिमाह पारिश्रमिक मिल रहा है । स्कूल को मिलने वाला अनाज बच्चें के भोजन पर इस्तेमाल होता है और शिक्षकों की पगार व अन्य खर्च जनसहयोग से जुटाए जाते है । 
स्कूल संचालक केमत गवले के अनुसार बच्च घर पर रहकर सालभर में जो खाना खाता है, उस हिसाब से फीस के रूप मेंन्यूनतम खाघान्न अभिभावकों से लेते है । 
सम्पादकीय
भारत की जमीन से अंतरिक्ष जाने की तैयारी
 भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) अंतरिक्ष में सफलता की रोज नई गाथा लिख रहा है । वह इतिहास रचने के लिए एक और कदम बढ़ाने जा रहा है । भारत में विकसित करीब २०० बड़े एशियाई हाथियों के बराबर वजन वाला रॉकेट भारत की जमीन से भारतीयोंको अंतरिक्ष में पहुंचा सकता है । भारत की जमीन से अंतरिक्ष में जाने वाला पहला भारतीय कोई महिला हो सकती है । 
आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित रॉकेट केंद्र पर देश के सबसे आधुनिक और भारी जियोसिंक्रोनस उपग्रह प्रक्षेपण यान मार्कतीन (जीएसएलवी-एमके-३) को रखा गया है जो अब तक के सबसे वजनदार उपग्रहों को अंतरिक्ष में ले जाने में सक्षम है । इसके साथ ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने विश्व के कई करोड़ डॉलर के प्रक्षेपण बाजार में मजबुत स्थिति बना ली है । हालांकि जीएसएलवी-एमके-तीन का यह पहला प्रायोगिक प्रक्षेपण है अगर सब ठीक रहा तो आधा दर्जन सफल प्रक्षेपण के बाद यह रॉकेट धरती से भारतीयोंको अंतरिक्ष में पहुंचाने वाला उपयुक्त विकल्प होगा । 
यह रॉकेट पृथ्वी की कम ऊंचाई वाली कक्षा तक आठ टन वजन ले जाने मेंसक्षम है जो भारत के चालक दल को ले जाने के लिए लिहाज से पर्याप्त् है । इसरो पहले ही अंतरिक्ष में दो-तीन सदस्यीय चालक दल भेजने की योजना तैयार कर चुका है । भारत की जमीन से अंतरिक्ष में जाने वाला पहला भारतीय कोई महिला हो सकती है । इसरों को बस इसे लेकर सरकार द्वारा तीन-चार अरब डॉलर की राशि आवंटित किए जाने का इंतजार है । अगर यह योजना अमल में आई तो भारत, रूस, अमेरिका और चीन के बाद चौथा देश होगा, जिसके पास अंतरिक्ष में इंसान भेजने का कार्यक्रम  है । इसरो को चेयरमैन एएस किरण कुमार ने कहा कि यह सुनिश्चित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है कि पहले ही लॉन्च में नया व पूरी तरह आत्म-निभर भारतीय रॉकेट सफल हो । 
सामयिक
आज अच्छे अनुसंधान की शर्ते क्या हैं ?
डॉ. अश्विन शेषशायी 
क्या भारत की शिक्षा व्यवस्था उन छात्रों को स्टेम कोशिका के जीव विज्ञान मेंशोध करने के लिए तैयार कर सकती है जिन्होंने कम्प्यूटर विज्ञान और संगीत में स्नातक उपाधि ली हो ? करना तो चाहिए । 
यह भारत सरकार के लिए गहमा-गहमी का वक्त है । इस सरकार ने परिवर्तन का वादा किया था । जहां आंतकी शिविरों के विरूद्ध सर्जिकल स्ट्राइक और अर्थव्यवस्था बहस के केन्द्र में हैं - कम से कम शब्दों में - वहीं शिक्षा में बदलाव और कौशल विकास की बातें मुख्य धारा विमर्श में से नदारद हो चुकी हैं । उदाहरण के लिए, एक नई शिक्षा नीति का निर्माण किया जा रहा है जिसके घोषित लक्ष्यों में सामाजिक सुधार शामिल है । इसमें शिक्षा को वहनीय बनाना और बालिका शिक्षा के अलावा विश्व स्तरीय कामगार दल विकसित करना भी शामिल है । 
हम यहां इस बारे मेें विचार नहीं करेंगे कि शिक्षा को समाज के सारे तबकों तक कैसेपहुंचाया जाए या कॉलेज में पहुंचने वाले विद्यार्थियों के लिए सर्वोत्तम शिक्षा कैसी हो । हम यह बात करेंगे कि विज्ञान में सर्वोच्च् स्तर के अकादमिक शोध में युवाआें से, अर्थात स्नातक उपाधि हासिल करने के बाद पीएच.डी. उपाधि हेतु शोध में आने वाले विद्यार्थियों से क्या अपेक्षा होती है । 
हाई स्कूल व कॉलेज के मूल्यांकन के लिए अकादमिक शोध सही मापदंड क्यों है ? गहन अनुसंधान के लिए दो चीजें जरूरी होती है : (क) आलोचनात्मक और रचनात्मक ढंग से सोच पाना और (क) काम करवा पाना । संभवत: ये दो हुनर व्यापारिक क्षेत्र में भी सर्वोच्च् स्तर पर जरूरी होंगे । इसलिए ऐसी शिक्षा प्रदान करना जो युवा मस्तिष्कों में इन दो आदतों का विकास कर पाए सिर्फ अकादमिक दृष्टि से ही जरूरी नहीं है । इतना कहने के बाद यह देखते हैं कि जीव विज्ञान जैसे बहु-विषयी क्षेत्र में अकादमिक शोध के मापदंड क्या है । 
क्या हमें रचनात्मक सोच की जरूरत है / क्या हमें नवाचारों की जरूरत है ? पिछली कुछ सदियों या शायद सहस्त्राब्दियों में मनुष्य के जेनेटिक विकास के मुकाबले सांस्कृतिक विकास का पलड़ा भारी रहा है । हमने अपनी दुनिया को इतनी तेज रफ्तार से बदला है कि अगले कुछ दशकों या आजकल के स्मार्टफोन के युग में शायद वर्षो और महीनों में हमारे बासी पड़ जाने का खतरा है । यह सब हुआ क्योंकि मानवजाति में नवाचार की जबरदस्त क्षमता है । दीर्घावधि में और पीछे मुड़कर देखे तो शायद इस सबसे कुछ अच्छा हासिल नहीं हुआ होगा किन्तु जो हो गया वह हो गया । सवाल है कि हम आगे कैसे बढ़े । 
हमें निर्जीव और जैविक विश्व के बीच अंतक्रियाआें के निहायत पेचीदा जाल को समझना होगा, तभी हम इस तंत्र में किसी भी गडबड़ी के परिणामों की भविष्यवाणी कर पाएंगे । और गड़बडियां सघन रूप में और तेज गति से हो रही है । इनमें अर्थ व्यवस्था और वायुमण्डल में बेतरबीब झटकों की भूमिका कम नहीं है । ये झटके हर किस्म के हैंऔर बात को पूरी तरह समझे बगैर दिए जा रहे हैं कि ये हमारा निर्वाह करने वाले नेटवर्क को किस तरह डांवाडोल करते हैं । 
हालांकि नियामक संस्थाआें का काम यह सुनिश्चित करना है कि इस तरह की गड़बड़ियां न्यूनतम रहें मगर वे तभी यह भूमिका निभाने की स्थिति में होगी जब उनके पास पर्याप्त् आंकड़े हो और भविष्यवाणी के कारगर औजार हो । यह बड़ी संख्या में किए गए शोध अध्ययनों से ही संभव होगा और ये अध्ययन प्राय: अकादमिक प्रकृति के होगें । 
अकादमिक अनुसंधान का मकसद हमारी दुनिया और उससे बहार नई चीजें खोजना और उनके बारे में जांचने योग्य भविष्यवाणियां करना होता है । इस प्रक्रिया में इस बात के मापदण्ड तय किए जाते हैं कि वैध खोज किसे कहा जाएगा । सामान्यत: एक परिकल्पना बनाई जाती है, और उसका खंडन करने के लिए प्रयोग किए जातें है । परिकल्पना तब तक टिकी रहती है जब तक कि उसका खंडन नहीं हो जाता । 
परिकल्पना की परख प्राय: सिर्फ प्रयोग के चुनाव से नहींबल्कि इस बात से तय होती है कि वह प्रयोग कितने अच्छे से किया गया । अन्यथा कोई बेढंगा प्रयोगकर्ता तो प्रयोग करके गुरूत्वाकर्षण के सिद्धांत का भी खंडन कर देगा । अर्थात् एक शोधकर्ता के लिए बुनियादी शर्त यह है कि वह किसी परिकल्पना की जांच के लिए सही प्रयोग डिजाइन करके उसे ठीक से अंजाम दे सके । आप इन कामों को कितने अच्छे से कर सकेंगे, यह काफी हद तक आपके शुरूआती प्रशिक्षण की गुणवत्ता पर निर्भर करता है । 
जब कोई परिकल्पना खंडित हो जाती है, तब भी हम उससे जुड़ी हर चीज को कूड़े में नहीं फेंक देते । ऐसा अक्सर होता है कि कोई परिकल्पना सार्वभौमिक स्तर पर सही नहीं होती । किन्तु कुछ संदर्भो में सही होती है । किसी काल्पनिक दवा का उदाहरण लीजिए तो किसी ऐसी बीमारी के इलाज में काम आती है जिसका प्रकोप काफी ज्यादा होता    है । यह दवा गहन क्लीनिकल परीक्षणों से गुजरती है जिनमें कई सांख्यिकीय नियंत्रण स्थापित किए जाते हैं । इस प्रक्रिया में से यह दवा कामयाब होकर निकलती है । तब यह नियमित चिकित्सा का अंग बन जाती है और जबरदस्त ढंग से कामयाब रहती है जब तक कि कुछ ऐसे मरीज सामने नहीं आते जिनका उपचार करने में यह नाकाम रहती   है ।
अब यह सिद्धांत सार्वभौमिक नहीं रह जाता कि उक्त दवा उस बीमारी का इलाज कर देगी । किन्तु क्या हमें उस दवा को खारिज कर देना चाहिए ? शायद नहीं । हो सकता है कि चिकित्सा शोधकर्ता मिलकर यह खोज करें कि जिन मरीजों के लिए वह दवा नाकाम रहती है उन सबमें कोई ऐसी सामान्य बात है जो खून की जांच से पता चलती है । अकादमिक शोधकर्ता शायद और आगे जाकर यह दर्शा पाएं कि इन व्यक्तियों में कोई जेनेटिक उत्परिवर्तन उपस्थित है जो शरीर में इस दवा के चयापचय को प्रभावित करता है । 
परिकल्पनाआें की संदर्भ-सापेक्ष सत्यता की यह धारणा वैज्ञानिक अनुसंधान की व्याख्या को और भी मुश्किल बना देती है । इसके चलते शोधकर्ता में आलोचनात्मक सोच की जरूरत होती है । यह क्षमता भी शुरूआती बचपन में ही विकसित की जा सकती है ।
हमारे सांस्कृतिक विकास की तेज रफ्तार ने हमें जानकारी जुटाने के लिहाज से एक अनोखी स्थिति में ला खड़ा किया है । इंटरनेट विशाल है, आजकल के १४० अक्षरों के प्रेम के कारण इसमें गहराई कम है, फैलाव ज्यादा है । किन्तु जो लोग तलाश करते हैं, उनके लिए इसमें गहराई भी है और इसे एक अच्छी बात माना जाता है । अलबत्ता, मन में कई बार संदेह होता है कि जानकारी तक आसान पहुंच क्या एक अच्छी चीज है । मसलन, क्या यह रचनात्मक सोच को कुंद कर सकती है ?
आज जब कोई बच्च एक तथ्य सीखता है और उसकी पीछे का क्यों जानने का उत्सुक होता है तो उसके लिए इंटरनेट पर जाकर उत्तर पाना बहुत आसान होता है - बजाय इसके कि वह समस्या के हल के संभावित मार्गो के बारे में सोचने की प्रक्रिया से गुजरे और पुस्तकालय से जवाब के बारे मेंसुराग खोजे और अंतत: तय करे कि क्या उसका जवाब सही है । 
जानकारी की भरमार के इस युग में या तो बच्च संत हो या वह सवाल विज्ञान के एकदम अग्रणी क्षेत्र से संबंधित हो, तभी बच्च्े के लिए पुरानी शैली का सोचना और बुदबुदाना उस सवाल की गुत्थी को सुलझाने के लिए जरूरी होगा । मगर बच्च्े संत नहीं है और हमेशा अग्रणी क्षेत्रों में काम नहीं करते । हमारे शिक्षाविद् इस समस्या के बारे में क्या सोचते हैं और इसके बारे में क्या करना चाहते है ? इस सवाल का जवाब महत्वपूर्ण है । 
इंटरनेट और डिजिटलीकरण का जाल सिर्फ सूचनाआें के प्रसार तक सीमित नहीं है । यह तो और आगे जाकर हमारे लिए सारे काम कर देना चाहता है । जीव विज्ञान में ऐसे कई रेडीमेड, आसान सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं जो हमें कई काम तेजी से करने में मदद करते हैं । इनकी लोकप्रियता का प्रभाव यह हुआ है कि हमने स्नातक छात्रों की एक पीढ़ी तैयार की है जो सॉफ्टवेयर को चलाने वाला कोई बटन दबाने या कोई निर्देश टाइप करने में दक्ष है मगर उन्हें इस बात की कोई समझ नहीं होती कि सॉफ्टवेयर जो गणनाएं करता है उसकी विधि क्या है अथवा उसके पीछे मान्यताएं क्या है । 
उदाहरण के लिए, एक सॉफ्टवेयर उपलब्ध है जो यह भविष्यवाणी कर सकता है कि क्या कोई औषधि किसी प्रोटीन से जुड़ेगी और कहां जुड़ेगी । किन्तु इस भविष्यवाणी के लिए कुछ मान्यताएं ली जाती है जिनसे इस भविष्यवाणी को सरल बनाने में मदद मिलती    है । हमारे देश के बायोइंफॉर्मेटिक्स के कई छात्र ऐसे औजारों का उपयोग करते हैं किन्तु उनके पास ऐसी आणविक अंतर्क्रियाआें का निर्धारण करने वाले भौतिक बलों की समझ का अभाव होता है । कहना न होगा कि आंख मूंदकर ऐसे सॉफ्टवेयर का उपयोग करने से साफ्-सुथरे निष्कर्ष निकल सकते हैं जो शायद सही न  हो । यह बहुत महंगा पड़ सकता है । 
अंतत: हमारी शिक्षा प्रणाली देर से उभरने वाले या विषय बदलने वालों को नापसंद करती है । जैसे यदि किसी प्रतिभावन छात्र ने अर्थ शास्त्र में बी.ए. किया है और वह पश्चिमी देशों की यात्रा किए बगैर रसायन शास्त्र में प्रवेश करना चाहे, तो इसकी कितनी गुंजाइश है ? बहुत कम । अक्सर, १७-१८ वर्षीय छात्र द्वारा, तमाम सामाजिक दबाव झेल रहे अपने पालकों की संगत में चुने गए प्रथम स्नातक विषय पत्थर की लकीर बन जाते हैं । यह बहुत बुरी बात है । 
विज्ञान को अक्सर मानविकी से लाभ मिलता है । हमारे जीवन में विज्ञान के स्थान व भूमिका से संबंधित सवालों के जवाब प्राय: इतिहास और दर्शन शास्त्र से मिलते हैं । इन विषयों की नासमझी किसी कामकाजी वैज्ञानिक के लिए लाभदायक कम, हानिकारक ही ज्यादा हो सकती है । जहां तक मेरी जानकारी है, बहुत थोड़े से क्रीमी लेयर संस्थान ही विज्ञान के पाठ्यक्रम में मानविकी की शिक्षा को शामिल करते हैं । किन्तु इस मानविकी शिक्षा की प्रथा का क्रीमी लेयर में सीमित रहना एक बड़ी खामी है क्योंकि इन उत्कृष्ट संस्थानों में प्रवेश निहायत मुश्किल होता है ।  
हमारा भूमण्डल
खाद्य बहुलता के मध्य भूखे पेट
फीलहेरिस
जलवायु परिवर्तन और कृषि के बीच करीबी संबंध है, जिसका खाद्यान्न फसलों और भोजन की उपलब्धता पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है । दुनिया में कृषि पर होने वाले प्रभावों  का आकलन और कृषि में     समग्र बदलाव की जरूरतें मद्देनजर हाल ही में एक रिपोर्ट जारी हुई है ।
``धन बढ़िया रहन सहन व खान पान की सुविधाएं जैसे-जैसे बड़ी मात्रा में निर्दयता पूर्वक  कुछ ही लोगोंं के पास सिमटती जा रही है। वैसे ही असमानता फैलकर कई समस्याओं को जन्म दे रही है। यह गणना की गई हैंकि ७९५ मिलीयन लोग अभी भी भूख से जूझ रहे हैं तथा वैश्विक खाद्य सुरक्षा जलवायु परिवर्तन तथा प्राकृतिक संसाधनों पर अत्यधिक दबाव से खतरे में    है । वर्ष २०५० तक विश्व की जनसंख्या में १० बिलीयन की वृद्धि होगी,जबकि वर्तमान स्तर से कृषि उत्पादन केवल ५० प्रतिशत ही बढ़ेगा । 
अत: समस्या यह होगी कि तेजी से बढ़ती आबादी का पेट किस तरह भरा जावे एवं वैश्विक कृषि उत्पादन, खाद्य सुरक्षा एवं व्यवस्था को किस प्रकार संवहनीय  या टिकाऊ (सस्टेनेबल) बनाया  जावे ?``
उपरोक्त जानकारी संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि आयोग (एफएओ) ने पिछले माह रोम में जारी एक रिपोर्ट में प्रदान की है। जिसका शीर्षक है ``खाद्य एवं कृषि भविष्य``। रिपोर्ट में कृषि उत्पादन, खाद्य प्रबंधन आदि के संदर्भ में कई समस्याओं को दर्शा कर चेतावनी दी गयी है तथा समाधान के कई उपाय भी सुझाये हैं । 
आयोग का मानना है कि कृषि विस्तार तथा अधिक जल संसाधनों का उपयोग कर पैदावार बढ़ाने की सम्भावना भी काफी कम है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि कृषि आर्थिकी का गणित समझकर हमें वर्तमान कृषि भूमि से ही संसाधनों का किफायती उपयोग कर उत्पादन बढ़ाना होगा ।
इसके लिए अनाज की कुछ ऐसी किस्मों को खोजना होगा या संकरण से बनाना होगा, जो जलवायु परिवर्तन का सामना कर कम जल के उपयोग से ज्यादा उत्पादन प्रदान करे । कृषि रसायनों से पैदा खतरों को देखकर उनका भी उपयोग संभल कर किया जाना जरूरी है । वैश्विक स्तर पर अब यह स्वीकार किया गया है कि ज्यादा संसाधनों के उपयोग वाली कृषि पद्धति जो वनों का विनाश करे, जल की बर्बादी करे, भूमि को खराब करे तथा ज्यादा ग्रीनहाउस गैसों को पैदा करे,वह खाद्य या कृषि उत्पादन के लिए संपोषी नहीं हो सकती हैं। 
आयोग का सर्वाधिक जोर इस बात पर है कि वैश्विक खाद्य पदार्थों की आवश्यकता की पूर्ति हेतु वर्तमान में जो खाद्य पदार्थों की हानि कई स्तरों पर हो रही उसे एवं बर्बादी को रोकना सबसे जरूरी है। एक अध्ययन के अनुसार पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष जितना अन्न पैदा होता है, उसका एक तिहाई भाग बर्बाद हो जाता है।
दुनिया के गरीब या कम आय वाले देशों में खाद्य पदार्थों की हानि आधार भूत रचना के उस भाव में तथा पुरानी पद्धतियों के उपयोग से कटाई एवं कटाई के बाद भी होती है । इसके साथ ही उचित भंडारण का अभाव, स्थानांतरण तथा पेंकिग कार्य आदि में भी खाद्य पदार्थों की हानि होती है। उत्तरी अमेरीका, यूरोप, जापान, तथा चीन में १५ प्रतिशत खाद्य पदार्थों की हानि और बर्बादी उपयोग एवं वितरण के मध्य होती   है । उत्तरी अफ्रीका तथा मध्य एशिया में   हानि  ११ प्रतिशत है एवं सबसे कम ५.९ प्रतिशत, लेकिन अमेरिका में है । 
रिपोर्ट यह भी कहती है कि कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से उन पर अतिरिक्त भार बढ़ेगा क्योंकि घरेलू कार्य में तो उनकी जिम्मेदारी है   ही । सहारा व अफ्रीका तथा लेकिन अमेरीका के देशों जैसे चिली, इक्वाडोर तथा पेरु में भी कृषि कार्यों में विशेषकर मजदूरी के रूप में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है । १९८० से २०१० के मध्य कृषि में महिलाओं का योगदान अमेरिका से ३० से ४३ प्रतिशत तथा अफ्रीका में ३५ से ४८ प्रतिशत बढ़ा है।
कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से उनके परिवार व उनकी स्वयं की आर्थिक हालत सुधरेगी एवं यह कदम महिला सशक्तीकरण की ओर होगा ।
रिपोर्ट आशावादी बनकर यह विश्वास दिलाती है कि हमारे ग्रह पृथ्वी की कृषि पद्धतियां यहां के रहवासियों के उदर पोषण की पूर्ति हेतु सक्षम है, परंतु आवश्यकता इस बात की है कि दूसरे कई प्रमुख परिवर्तन किये जावे । यदि ये परिवर्तन नहीं किये जाते हैं या नहीं अपनाये जाते हैं तो वर्ष २०३० तक कई लोगों का भूखे रहना निश्चित है । 
संपोषी विकास के नए उद्देश्यों में भी वर्ष २०३० तक खाद्य असुरक्षा तथा कुपोषण उन्मूलन का लक्ष्य रखा गया है । रिपोर्ट का यह सुझाव सबसे अहम है कि हमंे समपोषी खाद्य व्यवस्था की ओर जाना होगा । जहां भूमि जल एवं रसायनों आदि का किफायती उपयोग हो, जीवाष्म ईंधन का भी न्यूनतम उपयोग हो, जैवविविधता का संरक्षण हो तथा किसी भी स्तर पर व्यर्थ में बर्बादी न हो । 
इस व्यवस्था के लिए कृषि में निवेश बढ़ाकर इसे एक लाभकारी उपक्रम बनाना होगा । उत्पादन के साथ-साथ भंडारण एवं वितरण की व्यवस्थाओं को नई तकनीकों से जोड़ना होगा ताकि उत्पादकों को अच्छा लाभ हो तथा उपभोक्ताओं को अच्छी वस्तुएं आसानी से उचित मूल्यों पर मिल सके ।
पर्यावरण दिवस पर विशेष
ताकि बचा रहे ग्लेशियरों का अस्तित्व
जाहिद खान
नैनीताल हाईकोर्ट ने गंगा, यमुना नदियों के बाद गंगोत्री और यमुनोत्री ग्लेशियरों को भी जीवित व्यक्ति यानी एक नागरिक के अधिकार दे दिए है । 
अदालत का कहना है कि इनको साफ-सुथरा रखने और संरक्षण देने की जरूरत  है । इन्हें भी कानूनी अधिकार मिलना  चाहिए । ग्लेशियर ही नहीं, इस इलाके की बाकी नदियां, झील-झरने और घांस के मैदान भी इस श्रेणी में रखे जाएं । न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति आलोक सिंह की संयुक्त खण्डपीठ ने ये महत्वपूर्ण निर्देश हाल ही में एक जनहित याचिका के संदर्भ में दिए है । 
अपने फैसले में अदालत ने कहा है कि इन ग्लेशियरों को नुकसान पहुंचाने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जाए । ग्लेशियरों और नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिए अदालत ने सरकार को और भी कई निर्देश दिए हैं । मसलन, सरकारें छह महीने में गंगा नदी के लिए अंतरप्रांतीय परिषद का गठन करें । आगामी तीन महीने के अंदर गंगा किनारे प्रदूषण रहित श्मशान घाट बनाए जाएं । 
अदालत के इस फैसले के बाद अब गंगोत्री और यमुनोत्री ग्लेशियर को संवैधानिक व्यक्ति का दर्जा हासिल हो गया है । देश के नागरिकों की तरह उन्हें भी संवैधानिक अधिकार हासिल होंगे । इन्हें प्रदूषित करना या नुकसान पहुंचाना जीवित इंसानों को नुकसान पहुंचाने जैसा अपराध होगा । ग्लेशियरों के अस्तित्व को बचाने के लिए ऐसे ही किसी क्रांतिकारी फैसले की दरकार थी । 
ग्लेशियरों को जीवित व्यक्ति का दर्जा मिलने से निश्चित तौर पर इन पर्वतीय इलाकों में मानवीय गतिविधियां सीमित होगी, जिसका असर ग्लेशियर की सेहत पर पड़ेगा और इनके पिघलने की गति भी कम होगी । पर्यावरण सुधारने और ग्लेशियरों को बचाने के लिहाज से अदालत का यह फैसला सही ही है । 
उत्तराखंड के पर्यावरण और प्रमुख नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिए सरकार और न्यायपालिका की यह कोई पहली कोशिश नहीं    है । इससे पहले भी केन्द्र सरकार ने एक अभिनव कदम उठाते हुए उत्तरकाशी से गंगोत्री धाम तक के इलाके को इको सेसिटिव जोन घोषित कर दिया था । वहीं अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब इसी नैनीताल हाई कोर्ट ने अपने एक दीगर फैसले में गंगा और युमना नदियों को जीवित व्यक्तियों का दर्जा दिया था और इन नदियों के किनारों से अतिक्रमण हटाने एवं कचरा, गंदगी डालने के खिलाफ सख्त कार्रवाई की बात कही थी । 
गौरतलब है कि हरिद्वार निवासी अधिवक्ता ललित मिगलानी ने नैनीताल हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर अदालत से गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने की गुहार लगाई थी । याचिकाकार्ता ने अपनी याचिका में अदालत से आग्रह किया था कि गंगोत्री, यमुनोत्री समेत अन्य ग्लेशियरों एवं हिमालय को भी गंगा-यमुना नदी की तर्ज पर जीवित व्यक्ति का दर्जा दिया जाए । बहरहाल, अदालत ने इस मामले में पहले तो संबंधित पक्षों की राय जानी और उसके बाद अपना फैसला सुनाया । 
अदालत ने अपने इस विस्तृत फैसले में राज्य के मुख्य सचिव को अधिकृत किया है कि वे शहर, कस्बों व नदी और तालाब किनारे रह रहे लोगों को इस आदेश के बारे में जानकारी देकर जागरूक करें । अदालत ने सरकार से यह भी सुनिश्चित करने को कहा है कि गंगा नदी में किसी भी अवस्था में मल-जल न जाने पाए । जो प्रतिष्ठान सीवर व अन्य गंदगी बहा रहे है, उन्हें सील कर दिया जाए । पीठ ने इस काम के लिए बाकायदा कुछ लोगों की जिम्मेदारी भी तय की है । उत्तराखंड के मुख्य सचिव, नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा के निदेशक प्रवीण कुमार, नमामी गंगे के कानूनी सलाहकार ईश्वर सिंह, चंडीगढ़ ज्यूडिशियल एकेडमी के निदेशक बलराम के. गुप्त व सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता एमसी मेहता व उत्तराखंड के महाधिवक्ता को इनकी सुरक्षा के लिए बतौर संरक्षक नियुक्त किया गया है । 
गंगौत्री और यमुनोत्री ग्लेशियर की ओर से ये लोग अब कहीं भी, कोई भी मामला दर्ज कर सकेंगे । ग्लेशियर और उनसे निकलने वाली नदियों की जीवंतता के दर्ज और इनके अधिकारों की हिफाजत की जवाबदेही अब सीधे-सीधे इन अभिभावकों की होगी । 
उत्तराखंड में हिमालय क्षेत्र में करीब १२०० ग्लेशियर है । गंगोत्री ग्लेशियर हिमालय क्षेत्र के सबसे बड़े हिमनद में से एक है । यह ग्लेशियर करीब ३०० छोटे-बड़े ग्लेशियरों से मिलकर बना है । गंगोत्री ग्लेशियर समूह के अन्तर्गत ढोकरानी-बमक ग्लेशियर, चोरबाड़ी ग्लेशियर, द्रोणागिरी-बागनी ग्लेशियर, पिण्डारी ग्लेशियर, मिलम ग्लेशियर, कफनी, सुन्दरढंुगा, संतोपंथ, भागीरथी खर्क, टिप्रा, जौन्धार, तिलकू और बंदरपूंछ ग्लेशियर सबसे बड़े ग्लेशियर है । 
गंगौत्री ग्लेशियर का आयतन तकरीबन २७ घन किलोमीटर है । इसकी लम्बाई ३० किलोमीटर और चौड़ाई तकरीबन ४ किलोमीटर है । गंगोत्री ग्लेशियर शिवलिंग, थलय सागर, मेरू और भागीरथी प्रथम, द्वितीय और तृतीय बर्फीली चोटियों से चारों तरफ से घिरा हुआ है । गंगोत्री ग्लेशियर के मुहाने गौमुख से ही भागीरथी नदी यानी गंगा का उद्गम होता है । 
दूसरी और, यमुनोत्री ग्लेशियर यमुनोत्री मन्दिर के पीछे एक छोटा सा ग्लेशियर है । इस ग्लेशियर पर अभी तक बहुत काम न होने की वजह से वैज्ञानिकों को इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है । विभिन्न वैज्ञानिक शोध बता रहे है कि पूरे हिमालय क्षेत्र में दिन-प्रतिदिन हवा के तापमान  में बढ़ोतरी दर्ज हो रही है । जिसके प्रभाव से हिमालय में छोटे-बड़े करीब ९५७५ ग्लेशियर जूझ रहे   हैं । बढ़ते तापमान की वजह से ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बढ़ रही है । 
गर्म हवा की वजह से हिमालय की जैव विविधता प्रभावित हुई है । जब-तब जंगल में लगने वाली आग और उससे निकलने वाला धुंआ और कार्बन भी ग्लेशियरों को प्रभावित करते हैं । इस धुंए और कार्बन से ग्लेशियरों पर एक महीन काली परत नजर आने लगी है । हिमालय से १०० से ज्यादा छोटी-बड़ी नदियां निकलती है । ग्लेशियर जब पिघलते हैं, तो इस पर चढ़ा कार्बन पानी के साथ बहकर लोगों तक पहुंच जाता है जो मानव सेहत के लिए खतरनाक साबित होता है ।
ग्लोबल वार्मिग से पूरे हिमालय क्षेत्र के तापमान में तेजी से बदलाव हो रहा है । जम्मू कश्मीर, हिमाचल से लेकर उत्तराखंड तक में हो रहे अलग-अलग शोध इसकी पुष्टि कर रहे    हैं । हवा में बदलाव का असर ग्लेशियरों की सेहत पर भी पड़ रहा है । ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बढ़ी है, जिससे वे सिकुड़ रहे हैं । आलम यह है कि हिमालय के कई ग्लेशियर हर साल दस से बारह मीटर के पीछे खिसक रहे हैं । जहां तक गंगोत्री ग्लेशियर की बात है, तो यह ग्लेशियर हर साल अठारह मीटर पीछे खिसक रहा है । ऐसे में इन्हें बचाने के लिए जल्द प्रभावी उपाय करने की जरूरत है ताकि ग्लेशियर और पर्यावरण में हो रहे इस नकारात्मक बदलाव को रोका जा सके । यदि अब भी ऐसे उपाय न किए गए, तो पूरे देश के पर्यावरण पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा  ग्लेशियरों को बचाने के लिए हमारे सामने ग्लोबल वार्मिग की चुनौती तो है ही, वही गलत मानवीय आदतें व नदियों और ग्लेशियर के प्रति बुरा व्यवहार भी एक बड़ी चुनौती है । सब कुछ जानते हुए भी हम अपनी आदतेंबदलने को तैयार नहीं है । यही वजह है कि इन मामलों में अब अदालतों को हस्तक्षेप करना पड़ रह है । नैनीताल हाईकोर्ट का हालिया फैसला इसी परिप्रेक्ष्य में है, जिसका सभी को स्वागत करना चाहिए ।  
विरासत
तब लुप्त् नहीं होगी कोई सरस्वती
सुरेन्द्र बांसल

हमारी गैर जिम्मेदाराना और संवेदनशील जीवन शैली की वजह से नदियांे समेत तमाम प्राकृतिक जलस्त्रोत न केवल दूषित होते जा रहे हैं । 
बल्कि भौतिक लोलुपता के कारण दम भी तोड़ रहे हैं । हमारे सामने ऐसी विकट स्थितियाँ हैं उन्हें देखते हुए लगता है कि प्राकृतिक जल संसाधनों से और खिलवाड़ सहन नहीं कर सकते हैं ।  
नदियाँ हमारे जनमानस की स्वच्छता और निर्मलता का प्रतीक हैं, लेकिन आज हमारी गैर जिम्मेदाराना और असंवेदनशील जीवन शैली के  कारण नदियांे समेत तमाम प्राकृतिक जलस्त्रोत न केवल दूषित होते जा रहे हैं बल्कि भौतिक लोलुपता के कारण दम भी तोड़ रहे हैं । अगर हम जल संस्कृति के वारिस रहना चाहते हैं तो हमें आज से और अभी से नदियों, तालाबों, जोहड़ों, डबरों, बावड़ियों, कुओं और अन्य जलस्त्रोतों को पुन: सजीव करने के लिए युद्ध स्तर पर जुटना होगा, क्योंकि नदियों को खत्म करने का मतलब है धीरे-धीरे सभ्यताओं और संस्कृतियों को खत्म करना । व्यक्ति, समाज और सरकार सभी को अपना दायित्व समझकर जलस्त्रोतों और नदियों को बचाने की मुहिम में जुटना होगा । तभी हम काल के अभिशाप से बचेंगे, क्योंकि अगर हम आज नहीं चेते तो कल हमें अभिशाप देगा । 
नदियों से ओत-प्रोत जैसा भूगोल अपने देश का है वैसा विश्व में कोई दूसरा नहीं । हमारे उत्तरी क्षेत्र को गंगा और यमुना ने ही संसार का सबसे विस्तृत उर्वर क्षेत्र बनाया है। पश्चिम अपनी पांच नदियों के कारण पंचनद प्रदेश कहलाता है । ये पांचों नदियाँ वैदिक और पौराणिक काल की हैं। इनमें से सतलुज नदी वेदों-पुराणों में जहाँ शतद्रू के नाम से विख्यात थी, वहीं ब्यास बिपाशा के नाम से जानी जाती थी । नर्मदा, महानदी, ताप्ति और सोन नदियाँ जहाँ मध्य भारत का गौरव हैं,वहीं दक्षिण भारत कृष्णा, कावेरी और गोदावरी के कारण धन-धन्य से भरपूर रहा है । 
उतर-पूर्व भारत में ब्रह्मपुत्र और तीस्ता के उपकारों को भला कौन भूल सकता है । इन सबके बीच भी सैकड़ों नदियाँ ऐसी हैं जो सदियों से देश के जन-गण के लिए प्राकृतिक नीति आयोग का काम करती आ रही    हैं । न तो हम भगवान राम के जीवन चरित की साक्षी सरयू को भूल सकते हैं न गौतम बुद्ध, महावीर के बिहार में विहार करती गंडक नदी को भूल सकते हैं और न ही लाखों भारतीयों के आध्यात्मिक समागम कुंभ को अनदेखा कर सकते हैं ।  
पुण्यदायिनी इन नदियों का ही प्रताप है कि जितनी विविधता भरी और उपजाऊ  भूमि भारत में है, उतनी दुनिया मंे और कहीं नहीं । लेकिन अफसोस की बात है कि पिछले दो सौ वर्षों की अंग्रेजी शिक्षा और साठ  वर्षों की वामपंथी कुशिक्षा ने हमारे लहलहाते काल-बोध को कमजोर कर दिया है । अगर हमारे राजनेताओं की जमात ने अंग्रेजी शिक्षा के  कारण देश के भूगोल को उपेक्षित न बनाया होता तो आज पाठ्यक्रमों से मिट चुके देश को बच्च्े ठीक से पढ़ पाते । 
वे जान पाते कि अपने देश की नदियों और पहाड़ों के कितने सुंदर नाम और कितना महत्व था । हमारे बच्च्े अपने पुरखों की कमाई नेकियांे से रू-ब-रू होते । लेकिन भारत का मूल मिटाने वाली वोट जुटाऊ राजनीति और मार्क्सवादी अफीम के नशे में धुत बुद्धिजीवियों ने योजनाबद्ध तरीके से स्कूली पाठ्यक्रमों से देश लगभग मिटा ही डाला है ।
हमारा वैदिक और पौराणिक साहित्य नदियों की स्तुतियों और पूजा-अर्चना से भरा पड़ा है। प्रत्येक नदी के स्त्रोत हैं, आरती-पूजा का विधान है । लेकिन इन्हें बचाए रखने का विधान कहीं खो गया लगता है तभी तो सरस्वती लुप्त हुई और कई `सरस्वतियां` विलुप्ति की कगार पर हैं । प्राकृतिक जलस्त्रोतों और प्रकृति को मात्र भौतिक दृष्टि से देखना पश्चिम का भोगवादी नजरिया है। हमारी नदियों को किसी भौतिक ऊहापोह में नहीं बांधा जा सकता ।
आज हमने अपने सारे सरल काम जटिल कर लिए हैं । हम अपने अनेकानेक सामाजिक दायित्व बिसरा चुके हैं । नदियों के प्रति भी हमारे कर्तव्य बाधित और भ्रमित हो चले   हैं । लेकिन जिस दौर में केवल अधिकारों की छीना-झपटी मची हो, उस दौर में कर्तव्यों की चिंता भला किसे है ! हमारे पुरखों ने नदियों से जुड़े विधि-विधान अपनी जीवनचर्या से जोड़ रखे थे । लेकिन उद्योग बनते सियासी तंत्र में अधिकार हमारे कर्तव्य तुम्हारे का खेल चल पड़ा है । प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट ही सरकारों की मुख्य नीतियों में शुमार हो चुकी है । 
हालांकि इसी देश में कुछ बरस पहले ऋषि विनोबा ने कहा था `सबै भूमि गोपाल की, नहीं किसी की मालकी`। लेकिन इस बात को आज कौन समझ रहा है। इसी बीच `नमामि गंगे` के संकल्प के साथ हरियाणा सरकार को अपने तमाम जलस्त्रोतों और छोटी-मोटी सभी नदियों को निर्मल बनाने की सार्थक और व्यावहारिक योजना बनानी चाहिए । जब तब जलस्त्रोतों को बचाने के ऐसे अभियान व्यावहारिक नहीं होंगे तब तक `सरस्वतियां` यों हीं लुप्त होती रहेंगी । 
सरस्वती का उद्गम स्थल आदिबद्री माना जाता है । लेकिन हैरानी की बात है कि इस क्षेत्र में प्लाईवुड उद्योेग धड़ल्ले से जंगलों पर कुलाड़ी चला रहा हैं लगभग चार सौ लाइसेंस पहले से जारी हैं अभी दो सौ लाइसेंस और देने की बात चल रही है। इसका दुष्परिणाम यह होगा कि बचाखुचा भूजल भी सिमटता  जाएगा । इसमें कोई संदेह नहीं कि जीवन को चलाने के लिए कारोबार भी फलने-फूलने चाहिए लेकिन जिम्मेदारी और नियमों के साथ क्या ऐसा संभव नहीं कि प्रत्येक प्लाईवुड लाइसेंस धारक प्रतिवर्ष अपना लाइसेंस रिन्यू करवाने से पूर्व कम से कम पांच सौ पेड़ अवश्य लगाए ? ऐसा संभव है । सरकार को ऐसे नियमों को संभव बनाना चाहिए ताकि भूजल स्त्रोतों का खजाना बचा रहे । यमुनानगर के पूरे क्षेत्र में सफेदा और पोपलर वृक्ष अपार संख्या में रोपे गए हैं। प्लाईवुड के लिए तो ये वृक्ष काम आ सकते हैंलेकिन भूजल स्तर को ये कितना नुकसान देंगे इसका अंदाजा होते हुए भी आंखें मंूदना बेहद घातक होगा ।
हरियाणा आज अपनी भूजल संपदा के मामले में बहुत बड़े संकट के मुहाने पर खड़ा है। हरियाणा में कुल जलसंभर क्षेत्र १०८ हैं,जिनमें से ८२ डार्क जोन में बदल चुके हैं। मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल के अपने क्षेत्र करनाल के सभी छह ब्लॉक डार्क जोन में बदल चुके हैं । हरियाणा देश का एकमात्र राज्य है जिसमें मात्र छह फीसद वन बचे हैं । जिस प्रदेश में वन इतने कम हों वहाँ कभी भी अकाल की स्थिति पैदा हो सकती है। हरियाणा की नई सरकार को नए सपनों के साथ प्रदेश की शुष्क पर्यावरणीय स्थिति को श्रद्धा से सींचना होगा । सभी नदियों के किनारों पर युद्ध स्तर पर देशज पेड़ रोपने होंगे । पेड़ों से बड़ा जल संरक्षक कोई नहीं होता ।
ऐसे हालात में भी हरियाणा सरकार सौभाग्यशाली है कि प्रदेश में सरस्वती के प्रकट होने की खबरें यदा-कदा आ रही हैं, लेकिन सरकार को मात्र नारियल फोड़ कर, चार चावल चढ़ाकर और तिलक लगाकर अपने कर्तव्य से पल्ला नहीं झाड़ना होगा बल्कि उसे सरस्वती के ऐसे स्त्रोत से प्रेरणा लेकर प्रदेश के सभी पुरातन जल स्त्रोत की सार-संभाल का जिम्मा उठाना होगा । सरस्वती बोर्ड की सार्थकता तभी है जब हरियाणा की नदियां, तालाब, जोहड़, डबरे, बावड़ियों और कुएं संभाले   जाएं । 
अन्यथा देखा जाता रहा है कि ऐसी संस्थाएँ कुछ ज्ञात-अज्ञात कार्यकर्ताओं या परिचितों के पेट की भेंट चढ़ जाती हैं । अगर प्रदेश सरकार पर्यावरण प्रेमियों, जल का महत्व समझने वालों, पंचायतों और युवकों को साथ लेकर अपने जल स्त्रोतों को बचाने में सफल होती है तो यकीन मानें इससे न केवल दिन-प्रतिदिन विलुप्ति की कंदरा की ओर बढ़ती यमुना बच पाएगी बल्कि कोई `सरस्वती` कभी लुप्त नहीं  होगी । प्रदेश में फूटे सरस्वती के स्त्रोत से प्रेरणा लेकर हम सब सुखद भविष्य की रचना में जुुटें ।
सामाजिक पर्यावरण
हमारे भोजन पर नियंत्रण के प्रयास
थेरेसा क्रिनीनगर
दुनिया भर में भोजन उद्योग में न केवल छोटे अपितु बड़े-       बड़े उद्योगपतियों की संख्या घट रही है । इनके स्थान पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां तथा बड़े-बड़े़ निगम (मेगा कार्पोरेशन) बाजार में खाद्य पदार्थांे के उत्पादन से बिक्री तक अपना आधिपत्य जमा रहे है । बड़े-बड़े निगमों को हम राजघराने भी मान सकते हैं ।  
कारर्पोरेट एटलस-२०१७ की  रिपार्ट यह दर्शाती है कि दुनियाभर में खाद्य उद्योगों का हो रहा विकास किस प्रकार सामान्य जनता को प्रभावित कर रहा है। उभरते एवं तेजी से फैलते  बाजार ने विकासशील देशों को  खाद्य-व्यवस्था की कमजोर कड़ी  माने जाने वाले कृषक तथा खेतीहर मजदूर सबसे ज्यादा परेशान होकर राजघरानों की दया पर निर्भर होते  जा रहे हंै। जनवरी के मध्य में  हेनरीच वॉल फाउण्डेशन, रोसा लक्सेमबर्ग फाउण्डेशन तथा फ्रेण्ड्स ऑफ अर्थ जर्मनी, जर्मनवॉच, ऑक्सफैम द्वारा यह रिपोर्ट जारी की गयी है ।
आपूर्ति श्रृखंला के साथ कंपनियों का विस्तार हो रहा है । वर्ष २०१५ के आसपास खाद्य तथा कृषि उद्योग में १२ बड़े विलयन हुए । परंतु इनमें से आज केवल सात ही  वैश्विक स्तर पर बीजों तथा कीटनाशकों के उत्पादन को नियंत्रित कर रहे हैंऔर संभवत: २०१७ तक ये सात से घटकर चार ही रह   जाएंगें । जर्मनी की बेयर अमेरिका में मानसेंटो को खरीदना चाह रही है, ताकि वह दुनिया की सबसे बड़ी कृषि रसायन बेचने वाली कंपनी बन   सके । 
अमेरिका की ड्यूपांट तथा डाऊ केमिकल भी एक होने के लिए प्रयासरत है । स्वीस आधारित बहुराष्ट्रीय कम्पनी सिजेंटा को केमचाइना अधिकृत करना चाह   रही है । एटलस के अनुसार ये    तीनों कम्पनी बीजों तथा कृषि रसायनों के ६० प्रतिशत बाजार पर कब्जा करेगी और लगभग सभी आनुवांशिक रूप से संशोधित पौधों का उपयोग करेंगे ।  
इस प्रकार बाजार की ज्यादातर शक्ति कुछ कम्पनियों के हाथों में केंद्रित होगी, जिन पर उपभोक्ताओं की अधिक निर्भरता होगी । ये अपने अनुसार बीजों तथा कीटनाशकों की कीमतें निर्धारित करेगी । इस प्रकार कृषि में आनुवांशिकी अभियांत्रिकी (जेनेटिक इंजीनियरिंग) के साथ-साथ डिजिटलीकरण भी बढेग़ा । कृषि आधारित उद्यम या उद्योग कम्प्यूटर प्रणाली से जुड़कर सम्पूर्ण कृषि व्यवस्था का संचालन करेंगे, जो छोटे व बड़े किसानों की पहुंच से दूर   होगी ।
गेहूँ, मक्का, सोयाबीन आदि फसलों की कटाई के बाद इनसे क्या चीजंे बनेगी, कितनी बनेगी, कैसे बनेगी, कैसे बेची जाएगी, कहाँ बेची जाएगी एवं किस कीमत पर बेची जाएगी आदि का निर्धारण चार प्रमुख कम्पनियां करेगी । इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते है कि फसल कटाई के बाद इन कम्पनियां का खेल प्रारम्भ होगा, जो कृषि की ज्यादातर वस्तुओं के आयात-निर्यात को नियंत्रित करती है । ये कम्पनियां है: आर्चर डेनियलन मिडलैंड, बंज, कारगिल तथा डे्रफूस । इनमें से पहली तीन अमेरिका से संबंधित है तथा एक नीदरलैंड से । 
कारर्पोरेट एटलस का अनुमान है कि दुनिया के कृषि के बाजार में इनके शेयर ७० प्रतिशत से ज्यादा है एवं इसीलिए ये काफी शक्तिशाली है । एटलस के मुताबिक इन चार कंपनियों ने बड़े खाद्य कंपनियों यूनीलिवर, नेस्ले, हैन्ज, मार्स, केलांग्स तथा टीचोबो आदि को सस्ता सामान या वस्तुएं उपलब्ध करायेेगी ।
सुपर मार्केट तक चीजंे पहुंचाने की श्रृंखला में इनकी प्रमुख भूमिका होती है । जर्मनी में इस प्रकार की श्रृंखला ने खाद्य पदार्थों  की बिक्री के खुदरा व्यापार पर     ८५ प्रतिशत कब्जा कर लिया है । वस्तुओं को प्रदाय करने वाली इस श्रृंखलाओं का दबाव श्रृंखला की अंतिम कड़ी वाले कृषक पर बढ़ता जा रहा है । 
जिसका प्रभाव यह हो रहा है कि उसे कम कीमत पर ज्यादा मेहनत करना पड़ रही है। सुपर मार्केट की यह श्रृंखला मध्यम आय वाले देशों में भी फैल रही है जैसे भारत, इंडोनोशिया तथा नाइजेरिया आदि । इस श्रृंखला से कृषि व्यवस्थाओं में कष्टकारी परिवर्तन होंगे उससे परम्परागत कृषि का व्यापार करने वाली दुकानें एवं बाजारों को काफी हानि होगी एवं धीरे-धीरे वे समाप्त हो जाएंगे ।
इस सारे परिवर्तनों के पीछे खाद्य उद्योग से जुड़ी सारी छोटी-बड़ी कम्पनियों यह दावा करती है कि बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने हेतु  यह सब कुछ करना जरूरी है ताकि उत्पादन बढ़े । परंतु कारर्पोरेट एटलस-२०१७ का दावा है कि कृषि भूमि से अनाज उत्पादन में कोई  वृद्धि नहीं हो रही है क्योंकि हजारों हेक्टर कृषि भूमि पर पशु-चारे की फसल या जैव ईंधन देने वाले पौधे लगाये जा रहे है। दुनिया के लगभग ८०० मिलीयन लोगों में कुपोषण का कारण भोजन की कमी नहीं अपितु उसका असमान वितरण बताया जा रहा है । 
जिन एजेंसियों में यह कारपोरेट -१७ एटलस जारी किया है वे यह चाहती है कि विभिन्न देशों (विशेषकर विकासशील) को सरकारंे अपनी जिम्मेदारी समझकर देश हित में कार्य करंे । व्यापरिक फसलों के बजाए वे फसलें पैदा की जाए जो पेट भरने के साथ-साथ पशुओं तथा कृषि भूमि के लिए भी उपयोगी हो । 
जर्मनी में अभी-अभी एंटी ट्रस्ट कानून इस प्रकार सुधारा गया है कि इन बडे  कारर्पेरेट्स या कम्पनियोें के प्रभाव से उत्पादक तथा उपभोक्ता को बचाया जा सके । इसके अलावा एजेंसियां पर्यावरण के अनुकूल कृषि के पक्ष में हैं, जो किसानों और उपभोक्ताओं के लाभ के लिए पैदावार में सुधार करने का एकमात्र तरीका मानते हैं । 
पर्यावरण परिक्रमा
तीन लाख साल पहले से हैं होमो सेपियन्स 
होमो सेपियन्स के मोरक्को में मिले जीवाश्म मानवजाति के इतिहास को फिर से लिखेंगे । इस नई खोज का मतलब है कि इंसान के पूर्वज समझे जाने वाले होमो सेपियन्स के धरती पर होने के सबूत २ लाख नहीं बल्कि ३ लाख साल पहले से मौजूद है । 
मोरक्को के पास एक पुरातिवात्क भूभाग पर शोधकर्ताआें को एक खोपड़ी, चेहरे और जबडे की हडि्डयां मिली, जिनकी पहचान ३१५००० साल पहले के होमो सेपियन्स के तौर पर की गई है । अभी तक की खोज के अनुसार होमो सेपियन्स का उद्धव २ लाख साल पहले पूर्वी अफ्रीका का माना जाता रहा है, लेकिन नई खोज के मुताबिक ३ लाख साल पहले ही होमो सेपिन्यस के उत्तर अफ्रीका में विकास के सबूत मौजूद है । 
इस खोज का नेतृत्व प्रोफेसर जांजाक हुबलिन ओर डॉक्टर अब्दलाउद बेन नासर ने किया । प्रोफेसर जीन जर्मनी के लाइपजिग शहर मेंमाक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर इवॉल्ूयशनरी एन्थ्रोपोलॉजी में प्रोफेसर है और डॉक्टर बेन मोरक्को के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ आर्कियोलॉजी एण्ड हेरिटेज में काम कर रहे है । 
एक बार फिर से संदर्भ क्रॉस विवि के विशेषज्ञों ने अपनी अत्याधुनिक तकनीकों के जरिए डायरेक्ट डेटिंग की प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाई है । डायरेक्ट डेटिंग वह प्रक्रिया होती है जिसमेंपुरातत्व जीव विज्ञान में जन्तुआें और पोधों के प्राप्त् अवशेषों के आधार पर जीवन काल या समय चक्र का निर्धारण किया जाता है । नेचर मेंछपी रिपोर्ट के मुताबिक खोज का यह मतलब नहीं है कि होमा सेपिन्यस का उद्धव उतर अफ्रीका में हुआ बल्कि इसे ऐसे समझा जाना चाहिए कि शुरूआती होमो सेपिन्यस का विकास इस पूरे महाद्वीप में हुआ था । 
आराम की जिंदगी से कुत्तेहो रहे डायबिटिक
आराम तलब जिंदगी, चटपटा खाना और असयंमित दिनचर्या के चलते इंसान ही नहीं, पालतू जानवरों का भी स्वास्थ्य बिगड़ रहा है । करीब १० फीसदी पालतू कुत्तेडायबिटीज के शिकार है । उन्हें हर्मोन्स से संबंधित बीमारियों के अलावा हार्ट और किडनी से जुड़ी बीमारियां भी हो रही है । भोपाल के राज्य पशु चिकित्सालय में इलाज के लिए आने वाले कुत्तोंकी जांच के बाद ये तथ्य निकल कर आए हैं । ५-६ साल की उम्र के बाद कुत्ते इन बीमारियों का ज्यादा शिकार हो रहे है । 
राज्य पशु चिकित्सालय के डिप्टी डायरेक्टर डॉक्टर एचएल समूह के मुताबिक १० मेंसे औसतन एक कुत्ते को डायबिटीज हो रही है । पांच साल पहले तक इनमें डायबिटीज के मामले न के बराबर  थे । बीमारी पनपने की सबसे बड़ी वजह खुराक में बदलाव है । कुत्ता मूलत: मांसाहारी होता है, लेकिन इंसान ने उसे पालतू बनाकर अपनी पंसद की खुराक देना शुरू कर   दिया । ज्यादा तेल मसाले वाली चीजें खिलाई जा रही है, वह भी कई बार  ज्यादातर कुत्ते बंधे रहते है या घरो में बंद रहते है, जिससे उनका घूमना-फिरना और दौड़ना भी बंद हो गया है । इस वजह से लगभग ५० फीसदी कुत्ते मोटे (ओबेसिटी) हो गए है । मोटापे की वजह से उनका लिवर फैटी हो रहा   है । अस्पताल में कुत्तों की सोनोग्राफी में यह सामने आया है । जर्मन शेफर्ड और लेब्राडोर कुत्तों में मोटॉपे की समस्या ज्यादा हो रही    है । 
महू वेटनरी कॉलेज में सीनियर साइटिस्ट डॉ. परेश जैन के मुताबिक खान-पान मेंबदलाव के चलते कुत्तों में थायराइड की समस्या भी हो रही है । हालांकि इसके मामले १०० में २-३ ही होते है । जैन के मुताबिक कुत्ता काफी भावुक जानवर होता है । साथ ही उनका खान-पान तेल-मसाले वाला होने से उन्हें अल्सर की दिक्कत भी बढ़ रही है । उनमें हाई ब्लड प्रेशर के भी केस मिल रहे है । 
जैविक उत्पादों से जुड़े उद्योगों को देना होगा नया टैक्स
म.प्र. में राज्य के छोटे-बड़े १० हजार ७०० उद्योगों को अब अपनी कमाई का एक हिस्सा राज्य सरकार को देना पड़ेगा । ये राशि उन उद्योगों से ली जाएगी, जो अपने उत्पाद में जैव संसाधनों का इस्तेमाल करते है । म.प्र. जैव विविधता बोर्ड की १२वी बैठक में आए इस प्रस्ताव को मंजूरी मिल गई है । अब सालाना ३ करोड़ रूपये से अधिक का व्यापार करने वाले उद्योगों के मुनाफे से ०.५ फीसदी (यानी डेढ़ लाख रूपये) राशि ली जाएगी । इससे राज्य सरकार की आय में सालाना दो हजार करोड़ की वृद्धि होगी । 
बोर्ड जैविक संसाधनों तक पहुंच और सहयुक्त जानकारी तथा फायदा बंटाना विनियम २०१४ लागू करने जा रहा है । बैठक मेंमंजूरी मिलने के बाद बोर्ड ने राशि लेने की रणनीति बनाना शुरू कर दी है । सूत्र बताते है कि बोर्ड ऐसे उद्योगों की जानकारी खंगाल रहा है, जो जैव संसाधनों का उपयोग करते हैं । इन उद्योगों को अगले एक से डेढ माह में राशि जमा करने के नोटिस थमाए जा सकते है । २००२ के जैव विविधता अधिनियम में जैव संसाधनों का उपयोग करने वाले उद्योगों के फायदे से राशि लेने का नियम है । केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जैव विविधता मंत्रालय ने २०१४ में इसे लेकर गाइडलाइन भी जारी की है । प्रदेश इस गाइड लाइन का पालन करने वाला देश का पहला राज्य बनने जा रहा है । 
बोर्ड के निशाने पर बीडी, शकर, गुड़, शराब सहित वे सभी उद्योग है, जिनमें जैविक वस्तुआें का इस्तेमाल किया जाता है । इनमें कपास से धागा और कपड़ा बनाने वाले उद्योग, गन्ने से शकर बनाने और उसका वाणिज्यिक उपयोग करने वाले उद्योग, माल्ट से बियर, अनाज-अंगूर से शराब बनाने वाले उद्योग, कोयला, इमारती लकड़ी, तेदूपत्ता से बीड़ी बनाने वाले सहित अन्य उद्योग शामिल है । 
इस कानून के तहत बोर्ड ने वर्ष २०१२ में पहली बार उद्योगों से उनकी कमाई से हिस्सा मांगा था । बोर्ड के तत्कालीन सदस्य सचिव आरजी सोनी ने प्रदेश के ८०० उद्योगोंको नोटिस देकर राशि जमा करने को कहा था । उद्योगपतियों ने राशि देने से इनकार किया तो सोनी कोर्ट चले गए । कोर्ट ने बोर्ड के निर्णय को सही ठहराया था । वही एनजीटी ने देशभर में उद्योगों से ये राशि वसूलने को कहा था ।
क्षरण जारी, कहीं निराकार न हो जाए ज्योतिर्लिंग
म.प्र. स्थित आेंकारेश्वर ज्योतिर्लिग का मूल स्वरूप बदल रहा है ये तेजी से साकार से निराकार रूप की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन ऐसा किसी चमत्कार से नही बल्कि लापरवाही की वजह से हो रहा है । १९९८ में पहली बार ज्योतिर्लिग के क्षरण की बात सामने आई थी । पिछले २० सालों में इस बात पर सहमति नहीं बन पाई कि ज्योतिर्लिग का क्षरण कैसेरोका जाए । २०१२ में आेंकारेश्वर षड्दर्शन संत मण्डल के प्रतिनिधिमण्डल ने शंकराचार्य स्वरूपानंद से ज्योतिर्लिग के मूल स्वरूप को धर्मसंगत संरक्षित करने का सुझाव मांगा था । 
शंकराचार्य का मानना था कि भगवान आेंकारेश्वर ज्योतिर्लिग के मूल स्वरूप में किसी भी प्रकार का बदलाव नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह दुनिया में एकमात्र स्वयंभू ज्योतिर्लिंग है । हालांकि उन्होंने क्षरण रोकने के लिए स्कटिक या सोने का अवरण लगाने का सुझाव जरूर दिया था । इस बात को भी करीब पांच साल हो गए, लेकिन मन्दिर ट्रस्ट कार्य शुरू नहीं कर सका है । 
इसी प्रकार महाकाल ज्योतिर्लिंग में श्रद्धालु गभगृह स्थित ज्योतिर्लिंग पर पंचामृत हाथ से नहीं मल सकेगें । अभिषेक सिर्फ सवा लीटर दूध से ही किया जा सकेगा । मन्दिर प्रशासक एसएस रावत ने पंडे-पुजारियों को आश्वस्त कर का है कि नई व्यवस्था में मन्दिर की परम्पराआें का विशेष ध्यान रखा जाएगा । आचरण एवं नियमों का कड़ाई से पालन कराया जाएगा । श्रद्धालुआें से अनुरोध किया जाएगा कि वे अभिषेक, पूजन की सामग्री अच्छी गुणवत्ता की लाएं ताकि शिवलिंग का क्षरण रोका जा सके । मन्दिर क्षेत्र में बिकने वाली पूजन सामग्री की भी नियमित जांच    होगी । प्रशासक रावत के अनुसार नई व्यवस्था के तहत अब सिर्फ पंडे पुजारी ही नियमित आरती के समय ज्योतिर्लिंग का हाथ से मलकर अभिषेक कर सकेंगे ।
स्पाइडर मैन की तरह दीवार पर चढ़ सकेंगे लोग
आने वाले दिनों में हर काई स्पाइडर मैन की तरह दीवार व पहाड़ पर चढ़ सकेगा । इसके लिए न रस्सी की जरूरत पड़ेगी और न ही ग्रापलिंग हुक की । 
भारतीय प्रौघोगिक संस्थान मंडी के स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग के प्रशिक्षुआेंकी ओर से तैयार किए वॉल ई सूट को पहनकर आदमी चंद मिनटों में चार से पांच मंजिला भवन की दीवार चढ़ सकता है । 
कृषि जगत
आर्थिक उन्नति के लिए खेती जरूरी
देवेन्दर शर्मा
गाँवों से पलायन को वृद्धि के सूचक के तौर पर देखा जा रहा है । उत्तरोत्तर सरकारें इसी निर्देश का पालन करती आई हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ओर ध्यान देने की बजाय ऐसी विषम आर्थिक परिस्थितियां पैदा की गईं जिससे ज्यादा से ज्यादा किसान खुद ही खेती छोड़कर शहर में आकर मामूली नौकरी करें ।
पलायन की मार से गाँव के गाँव खाली हो रहे हैं। बढ़ते शहरीकरण के मद्देनजर राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद ने खेती-किसानी में लगी आबादी की तादाद ५२ फीसदी से घटाकर ३८ फीसदी करने की योजना बनाई है। इसके मायने पांच साल में तकरीबन १० करोड़ लोग गाँव छोड़कर शहरों में आ बसेंगे ।
केन्द्रीय शहरी विकास मंत्री एम. वेंकैया नायडू ने एक कार्य योजना बनाई है । विशेषज्ञों के हवाले से उन्होंने कहा कि देश को बेंगलुरु की तर्ज पर २२ शहर विकसित करने की जरूरत है । इसके अलावा मौजूदा ३०४१ शहरों को जीवन यापन के लायक बनाना होगा । आर्थिक वृद्धि पाने के लिए यह महत्वपूर्ण है ।
संयुक्त राष्ट्र ने अपने एक अध्ययन में खौफनाक तस्वीर पेश की है । २०५० तक जो लोग पलायन कर शहरों में जा बसेंगे उन्हें रहने के लिए सिर्फ दो फीसदी जमीन   मिलेगी । जैसे-जैसे गाँव खाली होंगे शहर लोगों की भीड़ से पटते    जाएंगे । अब से ३० साल बाद जब देश के बहुत बड़े हिस्से में आबादी रहने लगेगी तो पता नहीं उस वक्त जीवन जीना कैसा होगा ? मुख्यधारा के अर्थशास्त्री इसकी सराहना करेंगे लेकिन इससे ज्यादा डरावना कुछ नहीं हो सकता ।
अर्थशास्त्रियों के लिए यह सर्वश्रेष्ठ आर्थिक सुधार होगा । इस वक्त आरबीआई के पूर्व गवर्नर डॉ. रघुराम राजन का वह बयान याद आ रहा है जब उन्होंने कहा था कि सर्वश्रेष्ठ आर्थिक सुधार तब होगा जब खेती में लगी आबादी शहरों में आकर बस जाए । नीति आयोग के डिप्टी चेयरमैन अरविंद पनगढ़िया ने भी यही बात दोहराई थी । मुझे इसमें जरा भी हैरानी नहीं है । क्योंकि १९९६ के दशक में विश्व बैंक ने भारत से ऐसा ही कुछ करने के लिए कहा था । 
उसने भारत की आर्थिक तरक्की के लिए कार्ययोजना तैयार की थी जिसमें बताया गया था कि २० साल में यानि २०१५ तक ४० करोड़ लोग खेती-किसानी छोड़ देंगे । विश्व बैंक के मुताबिक इतने वृहद स्तर पर आबादी के स्थानानांतरण से ही गरीबी दूर होगी । मुख्यधारा के अर्थशास्त्री वर्ल्ड बैंक की लीग का अनुसरण कर रहे हैं। 
यह मानते हुए कि ७० फीसदी आबादी गाँवों में रहती है जिसमें ५२ फीसदी खेती में लगी है, लोगों को गाँव छोड़ने के लिए मजबूर करने का सबसे आसान तरीका   खेती में पर्याप्त वित्तीय सहायता हटाना और किसानों को उनकी  फसलों का न्यूनतम मूल्य देकर हतोत्साहित करना है । शायद इसीलिए किसानों के आत्महत्या करने की खबरों से नीति निर्माताओं के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती है । बीते २१ साल में ३.१८ लाख किसानों ने आत्महत्या की । लेकिन किसे परवाह है ?
६० करोड़ किसानों के लिए बजट में आज तक जो भी दिया गया वो न के बराबर है । वर्ष २०१३-१४ में खेती के लिए १९,३०७ करोड़  रुपए के सालाना बजट का प्रस्ताव किया गया था जो कि कुल बजट का एक प्रतिशत भी नहीं था । वर्ष २०१४-१५ में तो खेती का बजट घटकर १८,००० करोड़ हो गया । वर्तमान वित्त वर्ष में केन्द्र के इतने बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने के बाद भी खेती के लिए दिए गए बजट में पिछले बजट की तुलना में महज ४००० करोड़ रुपए की ही बढ़ोत्तरी की   गई । ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में खेती के विकास के लिए एक लाख करोड़ रुपए दिए गए थे, जिसे बारहवीं पंचवर्षीय योजना में बढ़ाकर १.५ लाख करोड़ रुपए कर दिया गया । 
अब इसकी तुलना उद्योगों को दिए गए बजट से करते हैं । इस साल यानि २०१६-१७ के बजट में उद्योगों को ६.११ लाख करोड़ रुपए की कर-छूट दी गई और ये विभिन्न मदों में इस क्षेत्र को दिए गए बजट के अतिरिक्त  था । वर्ष २००४-०५ से आज तक उद्योगों की स्थिति सुधारने के लिए उन्हें ४८ लाख करोड़ रुपए की केवल टैक्स छूट दी जा चुकी     है ।
खाद्य पदार्थ, खेती, शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए सरकार जिन भी वित्तीय संसाधनों का प्रबंध करती है उन्हें 'सब्सिडी` यानि 'सरकारी अनुदान` का नाम दे दिया जाता है । वहीं, अमीर और संपन्न लोगों को सरकार कहीं ज्यादा वित्तीय सहायता और बजट उपलब्ध कराती है लेकिन उसे 'विकास के लिए प्रोत्साहन` बोला जाता है न कि अनुदान । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'विकास के लिए दिए गए प्रोत्साहन` राशि या अन्य सुविधाओं को अनुदान माना था, जिसकी बहुत जरूरत भी थी ।
सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की ऊंची दरों के पीछे दौड़ने की रेस में जो तथ्य नजरअंदाज हो रहा है वो ये कि आर्थिक वृद्धि और विकास तक जो रास्ता जाता है, वो गाँवों से ही होकर निकलता है । गाँवों को खाली कराने के बजाय आर्थिक नीतियां ऐसे बनाई जानी चाहिए कि गाँवों को ही विकास के इंजन में बदला जा सके । सौ स्मार्ट सिटी बनाने के बजाय नीतियों का रूझान एक लाख स्मार्ट गाँव बनाने की ओर होना चाहिए । ये सारे गाँव ग्रामीण क्षेत्रों के लिए सार्वजनिक उपयोगिताओं (पूरा) के आधार पर विकसित किए जाने चाहिए । 
ये मान लेते हैंकि शहरों में सबसे ज्यादा नौकरियां मंदिरों में मिलती हैंं, फिर आता है सुरक्षा गार्डों का नंबर और फिर लि्ट संचालकों का, क्या ये सब मिलकर आर्थिक वृद्धि का आधार बनेंगे ? खेती अकेले ही सबसे ज्यादा नौकरियां देने वाला क्षेत्र है, वर्तमान में लगभग ६० करोड़ लोग इसमें लगे हैं, तो आवश्यकता इस क्षेत्र में लगे लोगों के लिए इसे फायदेमंद बनाने की है ।
भारत में उद्योगों के समूह सीआईआई के अनुसार अगले चार साल में तीन करोड़ लोगों को नौकरियां दे पाना मुख्य तौर पर कंसट्रक्शन उद्योग में दिहाड़ी मजदूरों की मांग पर आधारित है, यानि योजना गाँवों से लोगों को निकालकर शहरों में दिहाड़ी मजदूर बनाने की   है । ये विकास नहीं है । इसीलिए गाँवों की अर्थव्यवस्था के विकास पर सबका ध्यान वापस खींचने के लिए मेरे निम्न सुझाव हैं- 
  क्योंकि देश की एक बहुत बड़ी जनसंख्या अपने जीवनयापन के लिए परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से खेती पर आधारित है तो सबसे पहली आवश्यकता खेती को ही मुनाफेदार बनाने की है। इसके लिए ग्रामीण आधारभूत संरचना को सुधारने     के लिए वित्तीय सहायता की    जरूरत  होगी । आधारभूत संरचना का मतलब किसानों के लिए    मंडियों का एक नेटवर्क, गाँवों में ही भण्डार गृह और सिंचाई की उत्तम व्यवस्था ।
जैसा कि पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था कि शहरी सुविधाओं को गाँवों तक पहुंचाने की जरूरत है । कृषि आधारित उद्योगों के साथ ही यदि ब्लॉक स्तर तक भी शैक्षिक संस्थान, कॉलेज, अस्पताल आदि सुविधाएं पहुंचा दी जाएं तो शहरों की ओर पलायन को रोकने में मदद मिलेगी ।
ध्यान इस ओर होना चाहिए कि गाँव अपनी खाद्य आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भर बनें । इसके लिए खाद्य सुरक्षा कानून के प्रावधानों को खेती की प्रणाली के साथ मिलाकर नीति बनाने की आवश्यकता होगी । ब्लॉक या तहसील स्तर पर गाँवों के समूह या क्लस्टर बनाकर उन्हें क्षेत्रीय उत्पादन, क्षेत्रीय खरीद और क्षेत्रीय वितरण के सिद्धांतों को मानकर चलने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए ।
महात्मा गाँधी को मैं देश का सबसे बड़ा चिंतक मानता हूं । वे भी इस नीति का समर्थन करते । हमें ६.४ लाख स्मार्ट गाँवों की जरूरत है ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां रहने लायक माहौल देने के लिए हमारा धन्यवाद करें ।
ज्ञान-विज्ञान
अंतरिक्ष में भी धूल उड़ती है !
अंतरिक्ष में हमारे द्वारा छोड़े गए उपग्रहों, अंतरिक्ष स्टेशनों के अलावा भी बहुत कुछ है । नासा के मुताबिक हमारे आसपास के अंतरिक्ष में क्रिकेट गेंद के आकार की २१ हजार वस्तुएं भट रह हैं। यह मुख्यत: उपग्रहों का मलबा है । किन्तुइन सबसे ज्यादा संख्या छोटे-छोटे कणों की है । ऐसे अरबों कण निकट अंतरिक्ष में मौजूद है । 
स्टेनफोर्ड विश्वविघालय की भौतिक शास्त्री और खगोल इंजीनियर सिग्रिड क्लोज का कहना है कि ये छोटे-छोटे कण बहुत तेज रफ्तार से घूम रहे हैं। इन कणों का आकार तो रेत के कणों से भी कम है किन्तु ये ६० कि.मी. प्रति सेकण्ड की रफ्तार से चलते है । जहां बड़े-बड़े टुकड़ों से भौतिक क्षति का खतरा होता है वहीं ये छोटे-छोटे करण उपग्रहों को विद्युतीय क्षति पहुंचाते है । 
अंतरिक्ष में कई सारी नाकामियों और गड़बड़ियों के प्रत्यक्ष भौतिक कारण पता नहीं चलते है और उन्हें अज्ञात कारण के खाते में डाल दिया जाता है । क्लोज और उनके साथी एलेक्स फ्लेचर का मत है कि ये गड़बड़ियां प्राय: इन छोटे-छोटे कणों के कारण होती हैं । उन्होंने प्लाज्मा भौतिकी के सिद्धान्तों के अनुसार पूरे मामले का गणितीय विश्लेषण किया है । फिजिक्स ऑफ प्लाज्मास में प्रकाशित उनके शोध पत्र के मुताबिक होता यह है कि सबसे पहले तो धूल के ये कण अत्यन्त तेज गति से किसी अंतरिक्ष यान से टकराते हैं । टक्कर के कारण उत्पन्न गर्मीकी वजह से यह कण औश्र अंतरिक्ष यान का बहुत थोड़ा सा हिस्सा वाष्पीकृत हो जाता है और आयनीकृत हो जाता   है । आयनीकरण के चलते वहां आयानों और इलेक्ट्रॉन का एक बादल सा बन जाता है । और ये सब अलग-अलग गति से इधर-उधर बिखरते है । फिर आयन इलेक्ट्रॉन को वापिस आकर्षित करते हैं । यह खेल चलता रहता है किन्तु इलेक्ट्रॉन की हलचल के कारण विद्युत चुंबकीय विकिरण पैदा होता है । क्लोज और फ्लेचर का विश्लेषण बताता है कि उपग्रहों की कुछ क्षतियों की व्याख्या इलेक्ट्रॉनों की इस हलचल के आधार पर हो सकती है । उन्होंने अपने शोध पत्र में यह तो नहीं बताया है कि इस समस्या के बारे में क्या किया जा सकता है किन्तु उनका मानना है कि अंतरिक्ष को और जानने की जरूरत है ताकि अंतरिक्ष उड़ानों को सुरक्षित बनाया जा सके ।

मानव सदृश जीव का लगभग पूरा कंकाल मिला
दक्षिण अफ्रीका की एक गुफा राइजिंग स्टार में से मानव सदृश जीवों के जीवाश्म मिलने का सिलसिला जारी है । ४ वर्ष पहले यहां से १५०० हडि्डयां मिली थी और अब १३० हडि्डयां तथा एक दांत और मिला   है । यह खोज दक्षिण अफ्रीका के विटवाटर्सरैंड विश्वविघालय के ली बर्जर और उनके साथियों ने की है । 
बर्जर की टीम ने जल्दी ही यह समझ लिया कि ये सारी हडि्डयां मनुष्य के एक प्राचीन सहोदर की है जिसे उन्होंने होमो नलेडी नाम दिया है । इसमें से उन्हें एक कंकाललगभग पूरा का पूरा मिला  है । इसकी कद-काठी छोटी है किन्तु हाथ और पैर बिल्कुल आधुनिक मनुष्य जैसे है जबकि कुल्हे और कंधे ऑस्ट्रेलोपेथिकस नामक वनमानुष से मिलते-जुलते हैं । ऑस्ट्रेलोपेथिक्स विलुप्त् प्राणी है जिसके अब जीवाश्म ही मिलते हैं । 
दरअसल टीम ने स्पष्ट किया है कि अभी जो हडि्डयां मिली हैं वे तीन जीवों की है किन्तु अधिकांशत: एक ही जीव की हैं । इसे इक्कसवीं सदी की सबसे बड़ी जीवाश्म खोज कहा गया है । 
हडि्डयां के आकार के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि इस प्राणी का कद लगभग १.४ मीटर रहा होगा और वजन करीब ४० किलोग्राम । वैज्ञानिकों ने यह भी अनुमान लगाने की कोशिश की है कि ये जीवाश्म लगभग किस काल के होंगे । यह अनुमान लगाना मुश्किल था क्योंकि ये जीवाश्म ठोस चट्टान में नहीं बल्कि ढीली-ढाली तलछट में प्राप्त् हुए हैं । बहरहाल, तलछट और वहां पाए गए चूना पत्थर में आइसोटॉप्स का विश्लेषण करने पर पता चला है कि ये जीवाश्म २,३०,००० से लेकर ४,१५,००० वर्ष पुराने हो सकते है । होमो नलेडी के दांतों का भी आइसोटॉप विश्लेषण किया गया तो पता चला कि इनका काल २,३६,००० से ३,३५,००० वर्ष पूर्व का है । गौरतलब है कि कई तत्व आइसोटॉप के रूप में पाए जाते हैं, जिनका विघटन एक निश्चित गति से होता है । अत: किसी नमूने में एक ही तत्व के विभिन्न आइसोटॉप्स का अनुपात देखकर बताया जा सकता है कि यह कितना पुराना है । 
यदि यह समय माना जाए, तो कहा जा सकता है कि होमो नलेडी दक्षिण अफ्रीका में स्वयं हमारी प्रजाति होगी सेपियन्स का समकालीन रहा होगा या कम से कम कुछ समय तो दोनों ने साथ-साथ बिताया होगा । यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि होमो नलेडी वर्तमान मनुष्य से काफी भिन्न था । इससे लगता है कि होमो वंश में कई अन्य शाखाएं पैदा हुई थी और ये साथ-साथ अस्तित्व में थी । 

एस्पिरिन के नए चमत्कार
एस्पिरिन एक ऐसी औषधि है जिसके नित नए उपयोग सामने आते हैं । पहले-पहले इसे एक पेड़ की पत्तियों से निकाला गया था और इसका उपयोग दर्द निवारक के रूप में किया जाता था । धीरे-धीरे इसका उपयोग गठिया तथा बुखार में किया जाने लगा । फिर बात आगे ब़ी और एस्पिरिन ह्दयघात, स्ट्रोक्स तथा कुछ किस्म के कैंसर की रोकथाम में भी प्रभावी पाई गई । आज दुनिया भर में एस्पिरिन की वार्षिक खपत १२० अरब गोलियों की है । 
एस्पिरिन की इन विभिन्न भूमिकाआें की क्रियाविधियों पर काफी अनुसंधान किया गया है ।  और अब वैज्ञानिकों ने एस्पिरिन का एक और उपयोग खोज निकाला है । ऐसा कहा जा रहा है कि एस्पिरिन कैंसर कोशिकाआें को शरीर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने से रोकती है - वैज्ञानिक भाषा में एस्पिरिन मेटास्टेसिस को रोकती है । आखिर कैसे ? इसे समझने के लिए पहले देखना होगा कि मेटास्टेसिस होता कैसे है । 
मेटास्टेसिस एक जटिल प्रक्रिया है । विचित्र बात यह है कि इसके लिए कैंसर कोशिका और आपके शरीर की कोशिकाआें के बीच सहयोग की जरूरत पड़ती है । सबसे पहले तो कुछ कैंसर कोशिकाआें को अपनी मूल गठान से टूटकर अलग होना पड़ेगा । फिर इन्हें आसपास किसी रक्त वाहिनी की दिवार को पार करके रक्त प्रवाह में पहुंचना पड़ेगा । एक बार ये कोशिकाएं रक्त प्रवाह में पहुंच गई तो ये शरीर में कहीं भी पहुंच सकती हैं । किन्तु कहीं पैर जमाने के लिए इन्हें एक बार फिर रक्त वाहिनी की दीवार को पार करके किसी अंग में प्रवेश करना होगा और वहां कोशिकाआें के बीच समाहित होकर वृद्धि करना होगी । 
हॉल ही में इस पूरी प्रक्रिया में रक्त में पाई जाने वाली एक किस्म की कोशिकाआें की भूमिका होती    है । ये कोशिकाएं प्लेटलेट्स कहलाती है और इनकी सबसे मशहूर भूमिका खून का थक्का बनने में देखी गई  है ।
स्वास्थ्य
खून का लेन-देन और मैचिंग
एस. अनंतनारायणन

रक्ताधाम (खून चढाना) एक उपयोगी जीवन रक्षक तभी बन पाया जब १९०१ में रक्त समूहों की खोज हो गई । उससे पहले किसी मरीज का बहुत खून बह जाने या सर्जरी के बाद रक्ताधाम कभी-कभी मरीज के लिए जीवनदायक तो कभी-कभी जानलेवा साबित होता था । प्राय: ऐसा होता था कि मरीज खून की कमी से नहीं बल्कि किसी अन्य व्यक्ति का खून चढ़ाने के कारण मौत का शिकार हो जाता था । 
ऑस्ट्रिया के वैज्ञानिक कार्ल लैण्डस्टाइनर इस खोज के आधार पर आगे अनुसंधान कर रहे थे कि अलग-अलग जन्तु और पादप प्रजातियों में प्रोटीन में अंतर होते है और प्रोटीन हर प्रजाति के लिए विशिष्ट होते है । 
दरअसल उन्होनें देखा कि अलग-अलग अंगो में भी विशेष प्रोटीन्स पाए जाते है और यहां तक कि एक ही जन्तु के अलग-अलग हिस्सों के निर्माण के लिए अलग-अलग प्रोटीन्स की जरूरत होती है । यह मानव-निर्मित मशीनों जैसा नहीं था जहां अलग-अलग हिस्से एक ही पदार्थ से बनाए जा सकते हैं । 
     यह समझने के लिए कि क्या वे अंतर एक ही प्रजाति के सदस्यों के बीच भी पाए जाते हैं । लैण्डस्टाइनर ने विभिन्न व्यक्तियों की लाल रक्त कोशिकाआें और रक्त सीरम को आपस में मिलाने की कोशिश  की । उन्होंने देखा कि कुछ मामलों में तो ऐसा लगता है जैसे किसी व्यक्ति के खून को उसी के खून में मिलाया गया हो । किन्तु कुछ मामलों में दो व्यक्तियों का खून मिलाने पर खून के थक्के बनने लगते थे अर्थात खून के अंश आपस में चिपक जाते थे । 
ऐसे अलग-अलग खून के नमूनों के साथ काम करते हुए लैण्डस्टाइनर ने दर्शाया कि ४ रक्त होते है - अ, इ, अइ और ज तथा विभिन्न रक्त समूहों के मिलाने पर तालिका में दिखाए अनुसार परिणाम प्राप्त् होते हैं । 
तालिका से स्पष्ट है कि रक्त समूह अ और इ के व्यक्ति को या तो उसी समूह का रक्त दिया जा सकता है या ज समूह का । किन्तु ज समूह के व्यक्ति को सिर्फ ज समूह का रक्त देना होगा । दूसरी ओर, ज समूह का रक्त किसी भी समूह के लिए चल जाएगा । तो अइ सार्वभौमिक ग्राही है । जबकि ज समूह सार्वभौतिक दाता है । गलत रक्त समूह का खून देने पर खून के थक्के बनने लगते हैं । परिणाम यह होता है कि रक्त प्रवाह में बाधा पहुंचती है या अन्य अंगों का कामकाज प्रभावित होता है और मरीज की मृत्यु हो जाती है । 
अब हम मानते है कि मानव रक्त कोशिकाआें की सतह पर विशिष्ट प्रोटीन्स होते है । इन्हें हम अ, इ और ज नाम से जानते हैं । किसी-किसी कोशिका पर अ व इ दोनों प्रोटीन्स पाए जाते हैं । सतह पर पाए जाने वाले ये प्रोटीन्स एंटीजन होते हैं । अर्थात जब कोई पराई वस्तु इनके संपर्क मेंआती है तो ये उसके खिलाफ प्रतिक्रिया करते है, बशर्ते कि उस पराई वस्तु पर ऐसे रासायनिक चिन्ह हो जिन्हें ये प्रोटीन पहचानते हो । रक्त सीरम में एंटीबॉडी पाई जाती हैं । एंटीबॉडी में पदार्थ होते है जो एंटीजन को प्रतिक्रियाकरने को उकसाते हैं । 
अ और इ रक्त समूह के खून की कोशिकाआें पर क्रमश: अ और इ एंटीजन पाए जाते हैं । किन्तु इन रक्त के सीरम में जो एंटीबॉडी होती हैं वे इनके विपरीत होती हैं । अर्थात अ रक्त समूह के खून के सीरम मेंइ एंटीबॉडी होती है जबकि उक्त इ समूह के खून के सीरम में अ एंटीबॉडी होती है । अइ रक्त समूह के खून की कोशिकाआेंपर दोनों एंटीजन होते हैं किन्तु सीरम में कोई एंटीबॉडी नहीं होती । इसके विपरीत ज समूह के रक्त में कोई एंटीजन होता जबकि सीरम में दोनों एंटीबॉडी होती है । 
परिणाम वही होता है जो हमने ऊपर की तालिका में देखा । अ और इ समूह वाले लोग अपने ही रक्त समूह का ज या समूह का खून ले सकते हैं । अइ समूह, जिसमें कोई एंटीबॉडी नहीं होती, वह किसी भी समूह का खून प्राप्त् कर सकता है । ज समूह के खून में दोनों एंटीबॉडी होती है, और उसे किसी अन्य समूह का रक्त नहीं दिया जा सकता सिर्फ ज समूह का ही रक्त दिया जा सकता है । चूंकि इस खून में कोई एंटीजन नहीं होता इसलिए यह खून किसी को भी दिया जा सकता है । 
रक्त समूहों के वर्गीकरण का तत्काल प्रभाव यह हुआ है कि खून चढ़ाने से पहले खून की जांच करके मैचिंग किया जा सकता था । परिणाम नाटकीय थे । सर्जरी के बाद और एनीमिया के मामलों में खून देना कहीं अधिक सुरक्षित हो यगा । इसके कुछ वर्षो बाद एक ओर खोज हुई कि रक्त कोशिकाआें की सतह पर एक और प्रोटीन पाया जाता है जिसे आरएच फैक्टर कहते है । इस मामले मे भी एक एंटीजन और एक एंटीबॉडी होती है । जिन लोगो के खून की कोशिकाआेंपर यह  फैक्टर होता है उन्हें आरएच धनात्मक कहते हैं और उनमें कोई आरएच धनात्मक कहते हैं और उनमे कोई आरएच-एंटीबॉडी नहीं होती । दूसरी ओर यदि आरएच ऋणात्मक व्यक्ति को आरएच फैक्टर युक्त खून दिया जाए उनमें इसके खिलाफ एंटीबॉडी बन जाती है । इसलिए आरएच ऋणात्मक खून दिया जाना चाहिए जबकि आरएच धनात्मक व्यक्ति को आरएच ऋणात्मक खून भी चल जाता है । रक्त समूहों की खोज के लिए कार्ल लैण्डस्टाइनर को १९३० में नोबेल से सम्मानित किया गया था । 
पुरातत्व
पिरामिडों का रहस्य खोजने की नई तकनीक
शर्मिला पाल

मिस्त्र के पिरामिडों का रहस्य जानने की कोशिश नए सिरे से हो रही है । इस अभियान में मिस्त्र के अलावा फ्रांस, कनाड़ा और जापान के विशेषज्ञ मिल-जुलकर काम कर रहे हैं । मुख्य उद्देश्य है पिरामिडों की तकनीक और उनके अंदर का रहस्य जानना । 
प्राचीन मिस्त्रवासियों की धारणा थी कि उनका राजा किसी देता का वंशज है, अत: ये उसी रूप मे उसे पूजना चाहते थे । मृत्यु के बाद राजा दूसरी दुनिया में अन्य देवताआें से जा मिलता है । राजा का मकबरा इस धारण के अनुसार बनाया जाता था और इन्हीं मकबरों का नाम पिरामिड है । दरअसल, प्राचीन मिस्त्र में राजा अपने जीवन काल में ही एक विशाल एवं भव्य मकबरे का निर्माण करवाता था ताकि उसे मृत्यु के बाद उसमें दफनाया जा सके । यह मकबरा त्रिभुजाकार होता था । ये पिरामिड चट्टान काट कर बनाए जाते थे । 
इन पिरामिडों में केवल राजा ही नहीं बल्कि रानियों के शव भी दफनाए जाते थे । यही नहीं शव के साथ अनेक कीमती वस्तुएं भी दफन की जाती थी । चोर-लुटेरे इन कीमती वस्तुआें को चुराकर न ले जा सकें इसलिए पिरामिड की संरचना बड़े जटिल रखी जाती थी । प्राय: शव को दफनाने का कक्ष पिरामिड के केन्द्र में होता था । 
पिरामिड बनाना आसान नहीं था । मिस्त्रवासियों को इस कला में दक्ष होने में काफी समय लगा । विशाल योजना बना कर नील नदी को पार कर बड़े-बड़े पत्थर लाने पड़ते थे । पिरामिड बनाने में काफी मजदूरों की आवश्यकता होती थी । पत्थर काटने वाले कारगीर भी अपने फन में माहिर होते थे । ऐसी मान्यता है कि पिरामिड ईसा पूर्व २६९० और २५६० के बीच बनाए गए । सब से प्राचीन पिरामिड सक्कारा में स्थित जोसीर का सीढ़ीदार पिरामिड है । इसे लगभग २६५० ई.पू. में बनाया गया था । इसकी प्रारंभिक ऊंचाई ६२ मीटर थी । वैसे काहिरा में गीजा के दूसरी शताब्दी ई.पू. के पिरामिड संसार के सात आश्चर्यो में शामिल है । 
वर्तमान में मिस्त्र में अनेक पिरामिड मौजूद हैं । इनमें सबसे बडा पिरामिड राजा चिओप्स का है । राजा चिओप्स के पिरामिड के निर्माण में २३ लाख पत्थर के टुकड़ों का इस्तेमाल हुआ था । इसे बनाने में एक लाख मजदूरों ने लगातार काम किया था । इसे पूरा होने में करीब ३० वर्ष का समय लगा । इसके आधार के किनारे २२६ मीटर हैं तथा इसका क्षेत्रफल १३ एकड़ है । 
मिस्त्र के पिरामिडों का रहस्य जानने के लिए नवीनतम तकनीक का उपयोग किया जा रहा है । इस दौरान यह जानने का प्रयास किया जाएगा कि इन पिरामिडों को किस तकनीक से बनाया गया है और इनके अंदर ऐसे चैंबर तो नहीं हैं, जिन्हें अब तक खोला नहीं जा सका है । इसके लिए इन्फ्रारेड तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा । यह तकनीक किसी वस्तु से निकलने वाले इन्फ्रारेड विकिरण की मदद से उसके आकार वगैरह की पहचान करती है । फिर उसके जरिए छिपी हुई वस्तु का पता चलना आसान हो जाता है । 
३डी लेजर स्कैन तकनीक में किसी वस्तु के अंदरूनी हिस्से के आकलन में मदद मिलेगी । इससे स्कैनिंग के बाद उसकी ३डी इमेज बनाई जाएगी । कॉस्मिक डिटेक्टर तकनीक के जरिए भवनों के अंदर गए बिना भी उनके अंदर रखी वस्तुआें का पता चल जाता है और उस वस्तु को नुकसान भी नहीं पहुंचता । विचार यह है कि पिरामिड की बनावट की अंदरूनी जानकारी जुटा कर ३डी इमेज बनाई जाए । मिस्त्र के गीजा पिरामिड पर किए जा रहे एक थर्मल स्कैन प्रोजेक्ट में रहस्यमयी हॉट स्पॉट्स नजर आए   है । 
स्कैन पिरामिड नाम से चलाए जा रहे इस प्रोजेक्ट मेंपिरामिड का थर्मल स्कैन किया गया । सूर्योदय व सूर्यास्त के समय जब तापमान में बदलाव आता है तो उस समय इन स्कैनर्स के जरिए ये हॉट स्पॉट स्पष्ट नजर आए । वैज्ञानिकों का मानना है कि इन पिरामिडों में, खास तौर पर सबसे बड़े खुफू पिरामिड में, कई कब्रें व गलियारे मौजूद हैं, जिनके बारे में अभी दुनिया के लोग नहीं    जानते । मिस्त्र, जापान, कनाडा और फ्रांस के वैज्ञानिक और आर्किटेक्ट इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं । 
एक समय था जब यहां लोगों की इतनी भीड़ होती थी कि पिरामिडों की तस्वीर लेना भी दूभर होता था । २०१० में जहां यहां डेढ करोड़ तक पर्यटक आते थे, अब उनकी संख्या ८० से ८५ लाख रह गई है । आज आईएस के बढ़ते खौफ के चलते पर्यटक हजारोंसाल पुरानी इन अद्भूत कलाकृतियों को देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं । आंतकी घटनाआें के चलते पर्यटक अपनी जान जाखिम में नहीं डालना चाहते । पर्यटन व्यवसाय को हुए बड़े नुकसान का खमियाजा स्थानीय लोगों को भुगतना पड़ रहा है । 
मिस्त्र में कुछ समय से पिरामिडो पर चल रहे शोध में वैज्ञानिकों को महत्वपूर्ण जानकारी हाथ लगी है । वैज्ञानिकों और मिस्त्र सरकार के अधिकारियों का दावा है कि वैली ऑफ किंग्स में तूतनखामन की ममी के नीचे और भी कमरे हैं, जिनमें ऐसे राज हैं जिनके बारे में अभी तक कोई जानकारी नहीं है । पुरातत्ववेत्ता निकोलस रीव्स के अनुसार तूतनखामन की ममी को एक बाहरी चैंबर में रखा गया है, जिसके नीचे और कमरे या गलियारे हो सकते हैं, जिनमें सामान व ममीज भी हो सकती है । रीव्स का कहना है कि तूतनखामन की कब्र को असल में रानी नेफरतीती के लिए बनाया गया था । विशेषज्ञों के अनुसार तूतनखामन की कब्र के नीचे ही किसी अन्य कमरे में नेफरतीती की भी कब्र हो सकती है । ऐसा माना जाता है कि लगभग तीन से साढ़े तीन हजार साल पहले तूतनखामन की मौत हुई उस समय उसकी उम्र १९ साल के आसपास थी । 
प्रकाशन के तीन दशक
पर्यावरण संगोष्ठी एवं शिखर सम्मेलन सम्पन्न
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)

पर्यावरण डाइजेस्ट के प्रकाशन के तीन दशक पूर्ण होने पर ३० मई को रतलाम में एवं नई दिल्ली में ५ एवं ६ जून को कार्यक्रम आयोजित किये गये । 
पर्यावरण और जन संचार विषय पर रतलाम में आयोजित संगोष्ठी में चिंतक, विचारक और पूर्व मुख्य सचिव मध्यप्रदेश शासन शरदचन्द्र बेहार ने अपने उद्बोधन में पर्यावरण संरक्षण के लिये प्रकृति और मानव के अलगाव को रोकने की महती आवश्यकता जताई । राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता दिवस के अवसर पर पर्यावरण डाइजेस्ट द्बारा आयोजित संगोष्ठी में पत्रिका के सम्पादक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित ने पत्रिका की तीन दशकीय यात्रा के उतार-चढ़ाव को रेखाकिंत करने के साथ ही अतिथियों का स्वागत सूत की मालाआें से किया । 
चिंतक, विचारक और पूर्व मुख्य सचिव श्री शरदचन्द्र बेहार ने पर्यावरण संरक्षण के वर्तमान में प्रचलित मॉडल को अपर्याप्त् बताया । उन्होंने कहा कि विकास के साथ प्रकृति का मनुष्य के साथ अलगाव हो रहा है । इस अलगाव को दूर करना आवश्यक है । यदि मानव का प्रकृति से अलगाव इसी तरह होता रहा तो पर्यावरण को संरक्षित करना बहुत ही कठिन हो जायेगा । उन्होंने गांधीजी की हिन्द स्वराज पुस्तक में लिखे गये एक अंश पाश्चात्य संस्कृति खतरनाक हैं, अपनी संस्कृति को संरक्षित रखना जरूरी है को उदधृत करते हुए कहा कि यदि हम संस्कृति को बचा कर रखेगे तो स्वत: प्रकृति का मनुष्य के साथ तादात्म्य बना रहेगा और सुगमतापूर्वक पर्यावरण को संरक्षित किया जा सकेगा । 
जिम्मेदारी जागरूकता से आती हैंऔर जन संचार इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । उन्होंने कहा कि गुड गर्वनेंस के लिये सरकार का संवेदनशील होना और नागरिकों का प्रबुद्ध होना भी जरूरी है । दोनों ही गुण मिलने पर शासन बेहतर हो सकता है । श्री बेहार ने कहा कि पर्यावरण डाइजेस्ट पत्रिका पर्यावरण सरंक्षण के जिस मिशन में लगी हैं वह बहुत सराहनीय है । 
वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र सिंह जैन ने अपने उद्बोधन में कहा कि पर्यावरण के स्वास्थ्य में सुधार लाने के लिये हर वर्ष करोड़ों की संख्या में पौधे लगाये जाते हैं । पर्यावरण संरक्षण के लिये कानून तो कड़े बनाये गये हैं किन्तु दृढ़ इच्छा शक्ति के अभाव मेंउनका अनुपालन ठीक से नहीं हो पा रहा है । पर्यावरण संरक्षण के लिये सामाजिक समूहों और आम व्यक्ति को जागरूक बनकर पूर्ण निष्ठा से सजगता पूर्वक अपनी सहभागिता को सुनिश्चित करना होगा, तभी पर्यावरण संरक्षित हो सकेगा । 
रतलाम के पूर्व विधायक पारस सकलेचा ने पर्यावरण संरक्षण के लिये अपने उद्बोधन में कहा कि हमारी दिनचर्या में हमारे पारिवारिक वातावरण में, हमारी रूचि में, हमारे ड्राईग रूम के साथ ही जन संचार के तमाम माध्यमों में भी चहूं ओर पर्यावरण का स्थान हमें संरक्षित करना होगा । जब यह संरक्षित होगा तो वह हमारे बच्चें की भी आदतों में शामिल होगा । जब चर्चा होगी तो बात दूर तक जायेगी और उसके परिणाम अपेक्षित निकलेगे । संचार क्रांति के माध्यमों में अभी पर्यावरण विषय ही नदारत है । यदि इस विषय को जल्द ही हमने अपने रोजमर्रा के जीवन में शामिल नहीं किया तो आने वाली पीढ़ियों को भयावह परिणामों में रूबरू होना होगा । 
संगोष्ठी में डी.एफ.ओ. क्षितिज कुमार, पर्यावरण प्रेमीजन उपस्थित थे । आभार प्रदर्शन पर्यावरण डाइजेस्ट के संयुक्त सम्पादक कुमार सिद्धार्थ और संचालन आशीष दशोत्तर ने किया । 
नई दिल्ली में विश्व स्वच्छ पर्यावरण शिखर सम्मेलन नई दिल्ली स्थित इण्डिया इन्टरनेशनल सेटर में विश्व पर्यावरण दिवस के शुभ अवसर पर ५ एवं ६ जून को पर्यावरण डाइजेस्ट मासिक पत्रिका के प्रकाशन के तीन दशक पूर्ण होने के उपलक्ष्य में विश्व स्वच्छ पर्यावरण शिखर सम्मेलन २०१७ का आयोजन भारतीय पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण संस्थान नई दिल्ली तथा पर्यावरण डाइजेस्ट मासिक पत्रिका के संयुक्त तत्वाधान में किया गया । इसका प्रायोजन राष्ट्रीय स्वच्छता शिक्षण एवं शोध संस्थान तथा भारतीय विश्व विघालय परिसंघ द्वारा किया गया । इस सम्मेलन के मुख्य विषय स्वच्छ भारत के लिये स्वच्छ पर्यावरण विषय पर विस्तार से चर्चा की गयी । 
नई दिल्ली में दिनांक ५ एवं ६ जून २०१७ को आयोजित विश्व स्वच्छ पर्यावरण शिखर सम्मेलन का उदघाटन मुख्य अतिथिद्वय प्रोफेसर तथागत रॉय, राज्यपाल, त्रिपुरा एवं प्रोफेसर कप्तन सिंह सोलंकी, राज्यपाल, हरियाणा के द्वारा किया गया । इस अवसर पर अपने विचार प्रकट करते हुए राज्यपाल प्रोफेसर तथागत रॉय ने बताया कि भारत वर्ष ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में पर्यावरण जन-जागरण अभियान ५ जून १९७२ को स्वीडेन की राजधानी स्टॉकहोम से प्रारंभ हुआ और उसके बाद पर्यावरण संरक्षण तथा प्रदूषण नियंत्रण की ओर लोगों का ध्यान केन्द्रित  हुआ । उन्होंने इस शिखर सम्मेलन के प्रायोजक भारतीय पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण संस्थान, पर्यावरण डाइजेस्ट, भारतीय विश्वविद्यालय परिसंघ, राष्ट्रीय स्वच्छता शिक्षण एवं शोध संस्थान तथा संयुक्त राष्ट्र से सम्बद्ध अन्तर्राष्ट्रीय विश्व शान्ति प्रबोधक महासंघ को साधुवाद देते हुए इन संस्थाआें के निदेशक मण्डल के सदस्यों को त्रिपुरा आने का निमंत्रण दिया तथा स्वच्छता संबंधी कार्यक्रमों को मूर्त रूप देने हेतु प्रेरित किया । 
इस अवसर पर उन्होंने डॉ. प्रिय रंजन त्रिवेदी द्वारा रचित अंग्रेजी पुस्तक ऑल एबाउट त्रिपुरा नामक पुस्तक का लोकार्पण भी किया । अपने भाषण में हरियाणा के राज्यपाल प्रोेफेसर कप्तन सिंह सोलंकी ने कहा कि उन्हें इस बात का गर्व है कि आज उन्होंने इस शिखर सम्मेलन के दौरान हरियाणा से संबंधित पुस्तक का लोकार्पण किया क्योंकि हरियाणा इस वर्ष अपनी स्थापना की स्वर्ण जयंति मना रहा   है । उन्होंने डॉ. प्रिय रंजन त्रिवेदी के प्रस्ताव की प्रशंसा करते हुए कहा कि हरियाणा में स्वच्छता, पर्यावरण तथा अन्य रोजगारोन्मुखी पाठ्यक्रमों को प्रारंभ करने हेतु भूखण्ड शीघ्र ही मुहैया कराया जायेगा ताकि एक हरित प्रांगण का निर्माण हो सके । 
समापन सत्र के मुख्य अतिथि के रूप मेंकेन्द्रीय सामाजिक न्याय तथा अधिकारिता मंत्री डॉ. थावरचन्द गेहलोत ने पर्यावरण तथा पर्यावरण संस्था की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा कि हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान प्रारंभ करके भारतवर्ष को स्वच्छ तथा हरा-भरा रखने की दिशा में एक अभूतपूर्व कार्य किया है । इस कार्यक्रम के मुख्य प्रायोजक कुलाधिपति डॉ. प्रिय रंजन त्रिवेदी एवं पर्यावरणीय पत्रकार डॉ. खुशालसिंह पुरोहित प्रशंसा के पात्र हैं क्योंकि उन्होंने इस शिखर सम्मेलन का विषय यानि स्वच्छ, हरित एवं कुशल भारत हेतु कौशलयुक्त भारत रखा है जिस पर देश-विदेश के प्रकाण्ड विद्वानोंने दो दिनोंतक विचारमंथन किया । 
प्रारंभ में पर्यावरण डाइजेस्ट के संपादक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित ने अपने स्वागत भाषण में अपनी पत्रिका के तीन दशक पूरे होने पर लेखकों, सवांददाताआें एवं पाठकों को धन्यवाद देते हुए बताया कि पर्यावरण डाइजेस्ट भविष्य में भी पर्यावरण शिक्षण, संरक्षण एवं प्रबंधन की दिशा में तल्लीन रहेगा । 
इस अवसर पर बांग्लादेश के उच्चयुक्त सैयद मुआजम अली, बुलगेरिया के राजदूत पेटकोडोएकोव, ग्याना के उच्चयुक्त डेविड गोल्डविन पोलार्ड, हंगरी की विज्ञान और प्रौघोगिकी सचिव हिल्डा फारकस, कोरिया की वैज्ञानिक सचिव इन्सुक जांग, वोखार्ड फाउंडेशन के निदेशक डॉ. हुजैफा खोराकीवाला, सल्वेनिया के राजदूत जोसेफ ड्रोफोनिक, तुनीशिया के राजदूत नजमेद्दीन लखाल, सेनेगल के राजदूत एल. हादजी इबोबोई, शेशल्स के उच्चयुक्त फिलिप ली गाल, राष्ट्रीय संरक्षक संस्थान के कुलपति प्रो. पी.एन. शास्त्री, महात्मा गांधी यूनिवर्सिटी, केरला के कुलपति प्रो. बाबु सेबेस्टीयन, मगध तथा विनोबा भावे विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के अतिरिक्त भारतवर्ष के विभिन्न महाविद्यालयों एवं विद्यालयों के प्राचार्यों ने अपने-अपने विचार प्रकट किये । 
इस अवसर पर पत्रकारिता, जनसंचार, ग्रामीण विकास, उद्यमिता, स्वच्छ भारत अभियान, पर्यावरण जन-जागरण, आपदा प्रबंधन, शैक्षिक प्रशासन तथा कूटनीति के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त् विद्वानों को भी सम्मानित किया गया है । 
अतं में शिखर सम्मेलन के संयोजक डॉ. प्रियरंजन त्रिवेदी एवं डॉ.  खुशालसिंह पुरोहित के साथ-साथ सह-संयोजक डॉ. उत्कर्ष शर्मा एवं डॉ. तन्मय रूद्र ने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए घोषणा करते हुए बताया कि भारतवर्ष की मुख्य समस्याआें में अशांति, गरीबी, बेरोजगारी, प्रदूषण, दोषपूर्ण शिक्षानीति एवं जनसंख्या विस्फोट है । इन समस्याआें का निदान तभी संभव है जब कौशल विकास के माध्यम से भारतवर्ष के सभी युवा-युवतियोंको प्रशिक्षित किया जाये । अगर प्रशिक्षण के दौरान उन्हें उद्यमिता विकास के बारे मेंभी प्रेरित किया जाता है तो और भी अच्छी बात है । 
शिखर सम्मेलन में पारित प्रस्तावों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि प्रदूषण तथा बेरोजगारी को साथ-साथ समाप्त् करने की दिशा में काम होना चाहिए । इसके लिए आप सभी पर्यानुकूलित रोजगार के क्षेत्र में प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए । 
यह भी घोषणा हुई कि इस कार्यक्रम तथा शिखर सम्मेलन के आयोजक भारतीय पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण संस्थान के ३७वें वार्षिकोत्सव, पर्यावरण डाइजेस्ट मासिक पत्रिका के ३०वें वार्षिकोत्सव, भारतीय विश्वविद्यालय परिसंघ के १३वें वार्षिकोत्सव तथा नेशनल इस्टीट्यूट ऑफ क्लीनलीनेस एजुकेशन एण्ड रिसर्च के तीसरे वार्षिकोत्सव के अवसर पर स्वच्छ पर्यावरण विषयक एक श्वेत पत्र शीघ्र ही निर्गत किया जायेगा । 
ज्ञातव्य है कि भारतीय विश्वविद्यालय परिसंघ जिनके अंतर्गत लगभग नौ सौ विश्वविद्यालय आते हैं, के कुलाध्यक्ष एवं अन्य पदाधिकारीगण ने भी इस शिखर सम्मेलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया तथा आगे के कार्यक्रमों के बारे मेंबताया कि इन सभी विश्वविद्यालयों में कौशल विकास और खासकर स्वच्छता शिक्षण पर बल देकर विभिन्न पाठ्यक्रमोंको जल्द प्रारंभ किया जायगे जिससे स्वच्छ भारत का लक्ष्य हासिल हो सके ।