गुरुवार, 31 मई 2007

आवरण



इस अंक में

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पर्यावरण डाइजेस्ट के इस अंक में लोक चेतना पर विशेष सामग्री दी गयी है।

पहले लेख संकट में है, भूमिगत जल में सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुश्री सुनीता नारायण का कहना है कि सिंचाई एवं अन्य कार्यो में भूमिगत जल का जिस अनियमित तरीके से दोहन हो रहा है, उसके चलते आने वाले समय में जल की समस्या विकराल होगी। सुप्रसिद्ध पर्यावरण लेखक कुशपालसिंह यादव के लेख गंदगी से फैलता जहर में कोची नगर निगम द्वारा अपने अपशिष्ट निपटान में गंदगी फैलाने वाले तरीके की विस्तार से जानकारी दी है। म.प्र. के वनवासी अंचल झाबुआ के सामाजिक कार्यकर्ता शंकर तड़वाल ने अपने लेख आदिवासियों की अस्थिता का संकट में लिखा है कि आदिवासियों को सुधारने और संस्कारित करने के बहुविध प्रयास स्वयं आदिवासियों की अस्मिता का संकट पैदा कर रहे हैं।

म.प्र. के वरिष्ठ साहित्यकार राजेन्द्र जोशी के लेख पेड़ हमारे संस्कृति वाहक में अरण्य संस्कृति की चर्चा की गयी हैं। म.प्र. के प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉ. विनोद श्राफ के लेख म.प्र. जल समस्या का तात्कालिक उपाय में भूजल पुर्नभरण की तकनीकी पक्षों पर प्रकाश डाला गया है।

शाहजहांपुर उ.प्र. के महाविद्यालयीन विद्यार्थी सतनामसिंह ने अपने लेख विकास बनाम विनाश में पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता प्रतिपादित की है।

आगामी ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जायेगा। इसी अवसर पर डॉ. खुशालसिंह पुरोहित के लेख पर्यावरण रक्षा हमारा सामाजिक दायित्व में पर्यावरण संरक्षण के लोक चेतना पर बल दिया गया हैऔर इसी से जुड़े कुछ सवाल उठाये गये है।

पत्रिका स्थायी स्तंभ पर्यावरण परिक्रमा, ज्ञान विज्ञान एवं पर्यावरण समाचार में आप देश दुनिया में पर्यावरण और विज्ञान के क्षेत्र में चल रही हलचलों से अवगत होते है।

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-कुमार सिद्धार्थ

रचनात्मक पत्रकारिता की आधी शताब्दी

संपादकीय

रचनात्मक पत्रकारिता की आधी शताब्दी

पिछले दिनों हिंदी की समाचार विचार सेवा सर्वोदय प्रेस सर्विस (सप्रेस) ने अपनी सेवा के ४७ वर्ष पूर्ण कर ४८ वें वर्ष में प्रवेश किया। हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में स्थापित इस फीचर सेवा से १४ राज्यों के २५० से अधिक दैनिक, नियतकालिक तथा रचनात्मक संस्थाएं, शैक्षिक संस्थाएं एवं विभिन्न जन संगठन जुड़े हुए है।

सप्रेस द्वारा हिंदी भाषी अखबारों के लिए राष्ट्रीय समस्याआें, रचनात्मक कार्योंा, ग्रामीण विकास, पर्यावरण और विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, जनहित के मुद्दों और गांधी विचारों आदि विषयों से जुड़े हजारों आलेखों व समाचारों का प्रकाशन किया जा चुका है। विगत् ४७ वर्षों में सप्रेस द्वारा सैकड़ों राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय लेखकों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताआें और विचारकों के लगभग ६ हजार से अधिक आलेख प्रकाशित हुए है।

पिछले दो वर्षो से पर्यावरण और विकास के मुद्दे पर सप्रेस ने नई दिल्ली स्थित विज्ञान और पर्यावरण केन्द्र के सहयोग से हिंदी में डाउन टू अर्थ फीचर्स पाक्षिक विशेष फीचर सेवा भी आरंभ की है। इसके अलावा सप्रेस द्वारा विगत् १२ वर्षो से मलेशिया स्थित थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क संस्था के सहयोग से भी पर्यावरण-विकास व सामाजिक मुद्दों पर लेखों का पाक्षिक प्रकाशन किया जा रहा है।

ज्ञातव्य है कि सन् १९६० से प्रारंभ हुई सप्रेस समाचार विचार सेवा का कार्यभार सर्वोदयी विचारक स्व. महेन्द्रकुमार ने उठाया था और सन् २००३ में अपने निधन तक उन्होंने ४३ वर्षो तक सप्रेस को मानद संपादक के रूप में अपनी सेवाएं दी। उनके निधन के बाद से उनके मित्रों के सहयोग से अब तक सप्रेस सेवा नियमित रूप से जारी है।

युवा पीढ़ी में गांधी विचार और सर्वोदय दर्शन के प्रचार का जो कार्य सप्रेस के माध्यम से महेन्द्र भाई ने चार दशक तक लगातार किया, उसकी देश में दूसरी कोई मिसाल नहीं है। रचनात्मक आंदोलनों और समाज परिवर्तन के कार्यक्रमों के लिये सप्रेस एक मंच बना जिससे सरकार और समाज के सामने सामान्य जन की पीड़ा और उसकी वाणी मुखर हुई। अपनी आधी शताब्दी की यात्रा में सप्रेस ने आंचलिक पत्रों एवं पत्रकारों को नयी शक्ति और नया सामर्थ्य देने के साथ ही ग्रामीण और वनवासी अंचलों की समस्याआें को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है।

पत्र, संपादक के नाम

पत्र, संपादक के नाम

पेड़ों की कमी कैंसर को बढ़ाएगी

महोदय,

शहरों में विकास के नाम पर काफी पेड़ काटे गए एवं बगीचे उजाड़े गए। शहरों में हो रही पेड़ों की कमी कैंसर को बढ़ावा देगी। हाल ही में पुरड्यू विवि के वैज्ञानिकों ने डॉ. रिचर्ड ग्रांट के नेतृत्व से एक त्रिआयामी मॉडल की सहायता से अध्ययन कर बताया है कि पेड़ हमें खतरनाक पराबैंगनी-बी किरणें के प्रभाव से बचाते हैं। पराबैंगनी-बी (यूवी-बी) किरणें पराबैंगनी किरणों के तीन प्रकारों (ए,बी एवं सी) में सर्वाधिक घातक होती हैं एवं कैंसर पैदा करने की क्षमता रखती है। वायुमंडल में २०-२२ किलोमीटर की ऊँचाई पर स्थित ओजोन परत सूर्य प्रकाश के साथ आई पराबैंगनी किरणों का अवशोषण करती हैं। वर्तमान में ओजोन परत के क्षरण से ये किरणें अधिक मात्रा में पृथ्वी पर पहुँच रही है।

डॉ. रिचर्ड ग्रांट द्वारा विकसित त्रिआयामी मॉडल की सहायता से किसी पेड़ के नीचे तक कितनी पराबैंगनी-बी किरणें पहुँच रही हैं, यह ज्ञात किया जा सकता है। पराबैंगनी बी किरणों की कितनी मात्रा धरती तक पहुँचेगी, यह किसी स्थान की भूमध्य रेखा से दूरी, समुद्र तल से ऊँचाई, दिन का प्रहर व पेड़ों के आच्छादन पर निर्भर रहता है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति सीधे ही धूप में खड़ा है तो वह पेड़ की छांव में खड़े व्यक्ति की तुलना में दो गुनी मात्रा में पराबैंगनी-बी किरणों को ग्रहण कर रहा होता है।

विवि के वैज्ञानिकों ने अपने मॉडल की सहायता से यह भी पता लगाया है कि रहवासी क्षेत्रों, धूप तथा पेड़ों की छांव में खेल रहे बच्चों तक कितनी मात्रा में पराबैंगनी-बी किरणें पहँुचती है।

पराबैंगनी-बी किरणों के प्रभाव से लम्बे समय में त्वचा का कैंसर पैदा होता है, जिसे मेलेनोमा कहा जाता है। दिल्ली विश्वविद्यालय के बायोटेक्नॉलोजी विभाग ने आकलन कर बताया है कि मुम्बई, दिल्ली तथा कोलकाता में उपरोक्त त्वचा कैंसर के प्रकरण बढ़ रहे हैं। पर्यावरण वैज्ञानिकों की गणना के अनुसार ओजोन परत में १% की कमी से २% त्वचा कैंसर एवं ०.५% मोतियाबिन्द (केटरेट्स) के प्रकरण बढ़ जाते हैं। पराबैंगनी किरणें समग्र रुप से रोग प्रतिरोध क्षमता भी घटाती है। डॉ. रिचर्ड ग्रांट के अनुसार वायुमण्डल में जो भूमिका ओजोन की रहती है लगभग वैसा ही कार्य पेड़ों द्वारा धरती पर किया जाता है इसलिए ओजोन परत की सुरक्षा के प्रयासों के साथ-साथ पेड़ों का बचना भी आवश्यक है।

डॉ. ओ. पी. जोशी, डॉ. जयश्री सिक्का,

गुजराती साइंस कॉलेज, इन्दौर (म.प्र.)

संकट में है भूमिगत जल

सामयिक

संकट में है भूमिगत जल

सुश्री सुनीता नारायण

इसे भारत की कुछ अनजानी विडंबनाआें में से एक कह सकते हैं। पिछले कुछ सालों में सरकार ने सार्वजनिक सिंचाई एजेंसियों के माध्यम से सतही जल प्रणाली का प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया है।

इसने सिंचाई प्रणालियों- बांध, तालाब, नहर आदि के निर्माण, इनके रखरखाव और पानी की आपूर्ति का काम संभाल लिया है। इसी के तहत उसने जल संसाधनों को ग्रामीण समुदायों के लेकर अपने पास रख लिया। विडंबना यह है कि सरकार ने यह अधिकार ले लिया है, फिर भी लोगों ने पानी अपने नियंत्रण में रखा है। हर व्यक्ति जमीन के नीचे का पानी निकालने के लिये स्वतंत्र है और देश में ज्यादातर सिंचाई इसी पानी से होती है। इसका अर्थ है कि सरकार का नियंत्रण एक भ्रम मात्र है।

फिलहाल अपने देश के सिंचित इलाके के तीन-चौथाई क्षेत्र में भूमिगत जल से सिंचाई होती है, सतही जल से नहीं। इस जल से सिंचाई का बुनियादी ढांचा किसी भी तरह से कर्ज के माध्यम से धन जुटाकर (धनी और गरीब) सभी किसानों ने बना लिया है। इससे यह बहस तो हो सकती है कि राज्य की ओर से संस्थागत मदद न मिलने के कारण किसान साहूकारों या कर्जदाता एजेंसियों के चंगुल में फंसे हुए हैं और उनकी गरीबी बरकरार है, लेकिन हकीकत यह भी है कि हाल में हुई तीसरी लघु सिंचाई जनगणना के आंकड़े के मुताबिक इस समय देश में एक करोड़ ९० लाख कुएं और गहरे ट्यूबवेल हैं।

पानी के शासन को समझने के लिए हमें अनिवार्य रूप से यह समझना होगा कि क्यों सिंचाई का अर्थशास्त्र मौजूदा तकनीक की सीमाआें से जुड़ा हुआ है। यह जरूरी इसलिए है क्योंकि यह इसका असर दूसरे क्षेत्रों मसलन ऊर्जा उत्पादन, बिजली आपूर्ति आदि में भी देखने को मिलता है। १० वीं योजना की मध्यावधि समीक्षा में बताया गया है कि सिंचाई की सुविधा के विस्तार का पूंजीगत खर्च प्रति हेक्टेयर ४० हजार रुपए से बढ़कर ढाई लाख रुपये हो गया है और भंडारण की सुविधा की जरूरत पिछले एक दशक में दोगुना हो गई है। इसमें विस्थापितों के पुनर्वास और जैव विविधता के क्षरण की भरपाई में खर्च होने वाली रकम को नहीं जोड़ा गया है।

जैसे-जैसे सिंचाई के बुनियादी ढांचे के निर्माण का खर्च बढ़ता गया, किसानों से इसके लागत खर्च और इसके रखरखाव के खर्च की वसूली संभव नहीं रही। ज्यादातर राज्यों में सिंचाई के काम देखने वाली एजेंसियां पिछले साल रखरखाव के खर्च का महज ३० फीसदी ही किसानों से वसूल पाइंर्। इसकी वजह से उनका क्षरण होने लगा। आज स्थिति यह है कि भूमिगत जल से संचालित नहरों की हालत खराब है और उनकी मरम्मत की बेहद सख्त जरूरत है, इसलिए आश्चर्य नहीं है कि सिंचाई के बुनियादी ढांचे की क्षमता और इसके वास्तविक इस्तेमाल के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर सतही जल से सिंचाई के सिस्टम में पानी ढोकर काफी दूर ले जाना होता है, वह भी घाटे में है और अक्षम साबित हो चुका है।

चूंकि पूंजी और संसाधनों की कमी है इसलिए सभी तक सुविधा पहुंचाना संभव नहीं है। आज स्थिति यह है कि ४५ फीसदी खाद्यान्न का उत्पादन उन इलाकों में होता है, जहां बारिश के पानी से ही सिंचाई होती है। गरीबों का जीवन इसी उत्पादन से चलता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सतही सिंचाई प्रणाली में किए गए निवेश ने समृद्धि के चंद टापू तैयार किए लेकिन स्थानीय स्तर पर खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में बहुत कम योगदान किया।

इसी वजह से भूमिगत सिंचाई की प्रणाली शुरू हुई। यह सफल रही क्योंकि यह लोगों के हाथ में थी। वे अपनी जरूरत के समय इसका इस्तेमाल कर सकते थे। अगर उनके ट्यूबवेल चलाने के लिए बिजली नहीं है तो वे डीजल से मशीन चलाते हैं या भाड़े पर जनरेटर ले आते हैं और जमीन से पानी खींचते हैं। यह जानी हुई हकीकत है कि जो जितना सक्षम किसान है वह भूमिगत जल का उतना ही आसानी से इस्तेमाल करता है। इसका खर्च बहुत कम है क्योंकि यह आसानी से स्थानीय स्तर पर उपलब्ध है। कई मायने में भूमिगत जल के जरिये होने वाली सिंचाई सबसे बेहतर वितरण का विकेंद्रित विकल्प है लेकिन इसकी शर्त यह है कि इसका प्रबंधन समझदारी से हो।

इस संसाधन के सघन इस्तेमाल का अनिवार्य नतीजा यह हुआ है कि पूरे देश में भूमिगत जल का स्तर तेजी से गिरा है। तकनीक ने ज्यादा से ज्यादा गहराई से पानी खींचने की सुविधा दी है और सब्सिडी से मिलने वाली ऊर्जा ने उन्हें ज्यादा पानी खींचने के लिए प्रेरित किया है। अध्ययन बताते हैं कि जहां सस्ती बिजली उपलब्ध है, वहां हर फसल के लिए दोगुना पानी खींचा गया है, उन जगहों के मुकाबले जहां डीजल के इस्तेमाल से पानी खींचा जाता है।

हम कानून बनाकर इस इस्तेमाल को नियंत्रित कर सकते हैं। एक करोड़ ९० लाख उपभोक्ताआें को नियंत्रित करना मुश्किल जरूर है पर असंभव नहीं है। हमें यह समझना होगा कि भूमिगत जल एक सीमित संसाधन है और इसके लिए कुआें को रिचार्ज करने की जरूरत होती है, इसलिए इसे एक स्थायी संसाधन बनाए रखने के लिए इसका सालाना इस्तेमाल सीमित करना होगा। दूसरे शब्दों में हमें भूमिगत जल का इस्तेमाल बैंक की तरह करना होगा यानी इसका ब्याज इस्तेमाल करें और मूलधन को बचाए रखें।

लेकिन यहां विडंबना दोहरी हो जाती है। एक तरफ सिंचाई की सतही प्रणाली की जगह भूमिगत जल की प्रणाली ने ले ली है और दूसरी ओर सिंचाई के अन्य साधन जैसे कुएं, तालाब और समुदाय आधारित विकेंद्रित वॉटर-हार्वेस्टिंग सिस्टम में गिरावट आई है जबकि हकीकत यह है कि ये साधन भूमिगत जल को रिचार्ज करने में भी काफी मददगार होते हैं। इसका मतलब है कि हम जमीन के नीचे से ज्यादा से ज्यादा पानी खींच रहे हैं और उसे कम से कम रिचार्ज कर रहे हैं।

अगर अपनी पारंपरिक प्रणालियों का सम्मान नहीं करेंगे तो हमारे पानी का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। पारंपरिक प्रणालियों में वर्षा के पानी को रोकने के हजारों माध्यम होते थे और विभिन्न किस्म की संरचनाएं होती थीं, जो अब विलुप्त प्राय: हैं। स्पष्ट है कि हमें इसके अर्थशास्त्र को समझने के लिए तकनीक की राजनीति को समझना होगा।

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जैव इंर्धन - भूखे को तेल की मार

हमारा भू-मण्डल

जैव इंर्धन - भूखे को तेल की मार

रोजमैरी बॉर

एक और विश्वभर में लाखों लोगों को खाद्यान्न की कमी के कारण भूखा रहना पड़ रहा है तो वहीं दूसरी ओर इस अनमोल खाद्यान्न का प्रयोग वाहनों के इंर्धन के रूप में किया जा रहा है। पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने की आड़ में जिस तरह से जंगलों और जैव विविधता को नष्ट किया जा रहा है उससे तो पृथ्वी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। संपन्न अब अपनी विलासिता के लिये समाज के बड़े तबके को भूखा मारने में भी झिझक नहीं रहा है।

तेल की बढ़ती कीमतों और पर्यावरणीय बदलावों के चलते सभी लोग जैव इंर्धन वाली फसलों की खेती की ओर आकर्षित हो रहे हैं। किंतु ऊर्जा का यह नया स्त्रोत अपने साथ भयंकर पर्यावरणीय और सामाजिक खतरे भी लेकर आरहा है।

पर्यावरण पर होने वाली बहसों में जैव इंर्धन नया जादुई शब्द है जिसका प्रचलन लगातार बढ़ता जा रहा है। अमेरिका, यूरोपीय संघ, ब्राजील और एशिया के विशाल क्षेत्र में अब करोड़ों की धनराशि निवेश करके अब बजाय खाने के वाहन चलाने के लिये मक्का, सोयाबीन, सरसों, गन्ना, पाम, आईल या गेहंू के जरिये एथनॉल और बायो-डीजल का उत्पादन किया जा रहा है। अर्थात सारे विश्व में बायो डीजल और बायो एथनॉल को खनिज तेल का विकल्प मान लिया गया है। आजकल औद्योगिक देशों से यह आशा की जा रही है कि वे पर्यावरण हितैषी मोटर वाहन बनाएं ताकि उन्हें साफ दिल से चलाया जा सके।

इंर्धन उद्योग की ओर से यह प्रचार किया जा रहा है कि यूरोपीय संघ के किसानों का भविष्य अनाज के लिये खेती करने में नहीं, जिसके दाम लगातार घटते जा रहे हैं, बल्कि इंर्धन के लिये खेती करने से उज्जवल होगा। जर्मनी के भूतपूर्व मंत्री रेनाटा कृनत्ज ने कहा हमारे किसान भविष्य के शेख हैं। हमारा उत्तरी पड़ौसी एक ऐसा कानून बनाने जा रहा है, जिसके तहत पेट्रोल में निश्चित अनुपात में बायो एथनॉल मिलना अनिवार्य होगा। किंतु इसका भी लाभ किसानों को मिलने वाला नही है। पहले की तरह वे खरीदी के एकाधिकार और खनिज तेल उत्पादक कम्पनियों के मूल्य निर्धारक महाजनों के चंगुल में फसें रहेंगे। आज भी यूरोप में इसका उत्पादन घरेलू मांग से कम है। इसकी पूर्ति करने के लिये दक्षिण अमेरिका, मलेशिया और इण्डोनेशिया से सस्ता पाम आईल और सोयाबीन तेल बड़े-बड़े जहाजों में भर कर यूरोप पहुंच रहा है।

जैव-इंर्धन की मांग बढ़ने के साथ-साथ इसकी खेती करने वाले ब्राजील, इण्डोनेशिया, मलेशिया, बोर्नियो और न्यू गुयाना जैसे प्रमुख देशों में इसके सामाजिक और पर्यावरणीय दुष्प्रभाव नजर आने लगे हैं। कई जगहों पर तो निर्यात के लिये की जाने वाली जैव इंर्धन की खेती की प्रत्यक्ष स्पर्धा खाद्यान्न की खेती से हैं। उदाहरणार्थ ब्राजील में गन्ने के तकरीबन २०० बड़े खेतों और एथनॉल के कारखानों ने गरीबों के लिये ऊपजाए जाने वाले धान, मक्का और फलियों के खेतों की जगह घेर ली है। फास्ट फूड इन्फॉरमेशन एण्ड एक्शन नेटवर्क के ग्रेट्रुड फाक चेतावनी देते हुए कहते हैं, कि जब अनाज इंर्धन बनकर गाडियों की टंकी में समा जायेगा तो स्वाभाविक है कि बहुत से लोगों के पेट खाली रहेंगे। उदाहरण के लिये भारत सरकार जैव इंर्धन को प्रोत्साहित करने के देशभर के अखबारों में पूरे-पूरे पन्नों के विज्ञापन छपवा कर बता रही है कि यह कार्यक्रम किसानों और देश की अर्थव्यवस्था को समृद्ध करने वाला है। जबकि शोचनीय तथ्य यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में भरपेट भोजन न पाने वालों की तादाद अफ्रीका से अधिक होने के बावजूद भारत यूरोप को अनाज निर्यात कर रहा है।

छोटे किसानों की बड़ी मुसीबत

विकासशील देशों में इंर्धन की खेती के लिये जमीन की ताक में रहने वाले दलाल छोटे किसानों से जमीन हड़प रहे हैं। परिणामस्वरूप पारंपरिक खेती और उसके स्वामित्व का स्वरूप समाप्त हो रहा है। इस बसंत में यूरोप के दौरे पर आये इण्डोनेशियाई पर्यावरण और मानवाधिकार निगरानी संगठन, स्वैट वॉच (पाम आईल वॉच) के प्रतिनिधियों ने बताया कि पारंपरिक समाज की विशिष्टता समाप्त हो रही है और भूमि विवाद बढ़ रहे हैं। तेल के लिये पाम (नारियल, ताड़, खूजर की प्रजाति का वृक्ष) के बगान लगाने के लिये उन्हें उनके पारंपरिक निवास स्थान आमतौर पर जंगल से बेदखल किया जा रहा है। सन् १९९९ से अब तक पाम के बागानों का क्षेत्रफल ३० लाख हेक्टेयर से बढ़कर ५० लाख हेक्टेयर हो गया है।

फलस्वरूप छोटे किसान और पट्टे पर खेती करने वाले बेघर-बेरोजगार होकर असंगठित क्षेत्र में रोजगार की तलाश में बड़े शहरों की झुग्गियों में आ बसते हैं। जो लोग पीछे छूट जाते हैं, वे रोजाना १२-१४ घण्टे मजदूरी करके जैसे-तैसे गुजारे लायक आमदनी पाते हैं या फिर मौसम के हिसाब से काम करने वाले अस्थाई मजदूरी बन कर रह जाते हैं।

वर्षा वनों का विनाश

इस खेती की कीमत पर्यावरण विनाश के रूप में भी चुकानी पड़ रही है। बार-बार एक ही फसल लेने (इसके लिये आमतौर पर पश्चिमी बैंकों से वित्तीय सहायता भी मिलती है) से मिट्टी की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है। रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक भूजल को जहरीला बना रहे हैं। पहले ही पानी की कमी से जूझ रहे खाद्यान्न की खेती करने वाले किसानों के बजाय निर्यात के लिये इंर्धन ऊपजाने वालों को पानी दिया जा रहा है। पिछले वर्ष इण्डोनेशिया और उसके पड़ौसी देशों के आकाश पर जो गाढ़ा धुंआ हफ्तों तक छाया रहा था के कारण राजनीतिक तनाव भी उभरने लगा था। इसे देखते हुए दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों के संघ (आसियान) ने पिछले साल अक्टूबर में एक आपात बैठक बुलाई थी। इण्डोनेशिया के राष्ट्रपति युधोयोनो ने पड़ौसी देशों से इस वायु प्रदूषण के लिये क्षमा भी मांगी थी। दरअसल पाम और सोयाबीन की खेती के लिये जमीन साफ करने के लिये बड़े पैमाने पर जंगल काट कर जलाए जाने से यह धुंआ आसमान पर छा गया था।

इसका एक अन्य दुष्प्रभाव जैव विविधता का समाप्त होना है। मीलों तक फैले एक ही फसल (पाम) के बागानों को इण्डोनेशियाई लोगों ने औद्योगिक जंगल का नाम दिया है। सुमात्रा और बोर्नियों में तो जंगल साफ करने की वजह से औरांग उटान, जंगली हाथी और बाघ की अत्यन्त दुर्लभ प्रजातियां प्राकृतिक आवास समाप्त होने की वजह से लुप्त होने की कगार पर है। ब्राजील में भी सोयाबीन और गन्ने की खेती के लिये लाखों हेक्टेयर वर्षावन काट दिये गये हैं। गतवर्ष ब्राजील की पर्यावरण संरक्षण संगठन फुकोनाम ने प्रकृति के इस निर्मम शोषण की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास की किया था । नवम्बर २००५ में संघीय प्रान्त माटो ग्रोसो डुसुल में हुए प्रदर्शन के दौरान फुकोनाम के अध्यक्ष अन्सेमलो डे बार्नस ते हताशा प्रकट करते हुए आत्मदाह तक कर लिया था।

जैव इंर्धन के बढ़ते उत्पादन से विश्व के लगभग ८० करोड़ वाहन मालिकों और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले २ अरब लोगों के बीच एक खतरनाक स्पर्धा भी प्रारंभ हो रही है। इस नव उपनिवेशवादी दौर में हम अपने वाहन दौड़ने के लिये निर्धनतम लोगों से दो जून रोटी तक छीन रहे हैं। यह कदम अंतत: हमारे समाज की संरचना को बिगाड़ देगा।

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पर्यावरण रक्षा, हमारा सामाजिक दायित्व

पर्यावरण दिवस पर विशेष

पर्यावरण रक्षा, हमारा सामाजिक दायित्व

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

आजकल विश्व भर में पर्यावरण और इसके संतुलन की बहुत चर्चा है। पर्यावरण क्या है, इसके संतुलन का क्या अर्थ है, यह संतुलन क्यों नहीं है, ये प्रश्न समय-समय पर उठते रहे हैं, लेकिन आज इन प्रश्नों का महत्व बढ़ गया है, क्योंकि वर्तमान में पर्यावरण विघटन की समस्याआें ने ऐसा विकराल रूप धारण कर लिया है कि पृथ्वी पर प्राणी मात्र के अस्तित्व को लेकर भय मिश्रित आशंकाएं पैदा होने लगी हैं।

पर्यावरण को लेकर मानव समाज की दुर्गति मानव के इस निरर्थक विश्वास के कारण हुई कि प्रकृति में हर वस्तु उसी के उपयोग के लिए हैं। प्रकृति की उदारता, उसकी प्रचुरता तथा उसकी दानशीलता को मनुष्य ने अपना अधिकार समझा और उसकी इसी संकीर्णता से प्रकृति के शोषण से उत्पन्न असंतुलन की स्थिति भयावह हो चुकी है।

प्रकृति के साथ अनेक वर्षोंा से की जा रही छेड़छाड़ से पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखने के लिए अब दूर जाने की जरूरत नहीं है। विश्व में बढ़ते बंजर इलाके, फैलते रेगिस्तान, कटते जंगल, लुप्त होते पेड़-पौधे और जीव जंतु, प्रदूषणों से दूषित पानी, कस्बों एवं शहरों पर गहराती गंदी हवा और हर वर्ष बढ़ते बाढ़ एवं सूखे के प्रकोप इस बात के साक्षी हैं कि हमने अपनी धरती और अपने पर्यावरण की ठीक- देखभाल नहीं की । अब इसके होने वाले संकटों का प्रभाव बिना किसी भेदभाव के समस्त विश्व, वनस्पति जगत और प्राणी मात्र पर समान रूप से पड़ रहा है।

आज पर्यावरण संतुलन के दो बिंदु सहज रूप से प्रकट होते हैं। पहला प्राकृतिक औदार्य का उचित लाभ उठाया जाए एवं दूसरा प्रकृति में मनुष्य जनित प्रदूषण को यथासंभव कम किया जाए। इसके लिए भौतिकवादी विकास के दृष्टिकोण में परिवर्तन करना होगा। करीब पौने तीन सौ साल पहले यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई इसके ठीक १०० वर्ष के अंदर ही पूरे विश्व की जनसंख्या दुगनी हो गई। जनसंख्या वृद्धि के साथ ही नई कृषि तकनीक एवं औद्योगिकरण के कारण लोगों के जीवन स्तर में बदलाव आया। मनुष्य के दैनिक जीवन की आवश्यकताएँ बढ़ गई, इनकी पूर्ति के लिए साधन जुटाएँ जाने लगे। विकास की गति तीव्र हो गई और इसका पैमाना हो गया अधिकाधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन,इसने एक नई औद्योगिक संस्कृति को जन्म दिया।

आज पूरे विश्व में लोग अधिक सुखमय जीवन की परिकल्पना करते हैं। सुख की इसी असीम चाह का भार प्रकृति पर पड़ता है। विश्व में बढ़ती जनसंख्या, विकसित होने वाली नई तकनीकों तथा आर्थिक विकास ने प्रगति के शोषण को निरंतर बढ़ावा दिया हैं। पर्यावरण विघटन की समस्या आज समूचे विश्व के सामने प्रमुख चुनौती है, जिसका सामना सरकारों तथा जागरूक जनमत द्वारा किया जाना है।

हम देखते हैं कि हमारे जीवन के तीनों बुनियादी आधार हवा, पानी और मिट्टी आज खतरे में हैं। सभ्यता के विकास के शिखर पर बैठे मानव के जीवन में इन तीनों प्रकृति प्रदत्त उपहारों का संकट बढ़ता जा रहा है। बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण न केवल महानगरों में ही बल्कि छोटे-छोटे कस्बों और गाँवों में भी शुद्ध प्राणवायु मिलना दुभर हो गया है, क्योंकि धरती के फैफड़े वन समाप्त होते जा रहे हैं। वृक्षों के अभाव में प्राणवायु की शुद्धता और गुणवत्ता दोनों ही घटती जा रही है। बड़े शहरों में तो वायु प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि लोगों को सांस संबंधी बीमारियां आम बात हो गई है।

हमारे लिए हवा के बाद जरूरी है जल। इन दिनों जलसंकट बहुआयामी है, इसके साथ ही इसकी शुद्धता और उपलब्धता दोनों ही बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं। एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि हमारे देश में सतह के जल का ८० प्रतिशत भाग बुरी तरह से प्रदूषित है और भू-जल का स्तर निरंतर नीचे जा रहा है। शहरीकरण और औद्योगिकीकरण ने हमारी बारहमासी नदियों के जीवन में जहर घोल दिया है,हालत यह हो गई है कि मुक्तिदायिनी गंगा की मुक्ति के लिए अभियान चलाना पड़ रहा है। गंगा ही क्यों किसी भी नदी की हालत ठीक नहीं कही जा सकती है।

हमारी भारत माता का स्वास्थ्य भी उत्तम नहीं कहा जा सकता है। देश की कुल ३२ करोड़ ९० लाख हैक्टेयर भूमि में से १७ करोड़ ५० लाख हैक्टेयर जमीन बीमार है। हमारी पहली वन नीति में यह लक्ष्य रखा गया था कि देश का कुल एक तिहाई क्षैत्र वनाच्छादित रहेगा, कहा जाता है कि इन दिनों हमारे यहाँ ९ से १२ प्रतिशत वन आवरण शेष रह गया है। इसके साथ ही अतिशय चराई और निरंतर वन कटाई के कारण भूमि की ऊपरी परत की मिट्टी वर्षा के साथ बह-बह कर समुद्र में जा रही है। इसके कारण बांधों की उम्र कम हो रही है, नदियों में गाद जमने के कारण बाढ़ और सूखे का संकट बढ़ता जा रहा हैं। आज समूचे विश्व में हो रहे विकास ने प्रकृति के सम्मुख अस्तित्व की चुनौती खड़ी कर दी है।

आज दुनियाभर में अनेक स्तरों पर यह कोशिश हो रही है कि आम आदमी को इस चुनौती के विभिन्न पहलुआें से परिचित कराया जाए, ताकि उसके अस्तित्व को संकट में डालने वाले तथ्यों की उसे समय रहते जानकारी हो जाए और स्थिति को सुधारने के उपाय भी गंभीरता से किए जा सके। भारत के संदर्भ में यह सुखद बात है कि पर्यावरण के प्रति सामाजिक चेतना का संदेश हमारे धर्मग्रंथों और नीतिशतकों में प्राचीनकाल से रहा है। हमारे यहाँ जड़ में, चेतन में सभी के प्रति समानता और प्रकृति के प्रति सम्मान का भाव सामाजिक संस्कारों का आधार बिंदु रहा है। प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों के युक्तियुक्त उपयोग द्वारा ही पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है। इसमें लोक चेतना में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है।

दुनिया में बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मीडिया में पर्यावरण के मुद्दो ने अपनी उपस्थिति दर्ज की थी। भारतीय परिदृश्य में देखें तो छठे-सातवें दशक में पर्यावरण से जुड़ी खबरे यदाकदा ही स्थान पाती थी। उत्तराखंड के चिपको आंदोलन और १९७२ के स्टाकहोम पर्यावरण सम्मेलन के बाद इन खबरों का प्रतिशत थोड़ा बढ़ा । देश के अनेक हिस्सों में पर्यावरण के सवालों को लेकर जन जागृतिपरक समाचारों का लगातार आना प्रारंभ हुआ। वर्ष १९८४ में शताब्दी की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना भोपाल गैस त्रासदी के बाद तो समाचार पत्रों में पर्यावरणीय खबरों का प्रतिशत यकायक बढ़ गया।

सन् १९९२ के पृथ्वी सम्मेलन तक आते-आते अनेक फीचर ऐजेंसियां इस पर विशेष फीचर देने लगी। समाचार पत्रों में पर्यावरण विषयों पर लिखने वाले लेखक भी सामने आये, जो पर्यावरण के विविध आयामों पर साधिकार लिखने की क्षमता रखते है। आजकल हमारे यहाँ अंग्रेजी, हिन्दी या किसी भी भाषा का पत्र हो, लगभग सभी समाचार पत्रों में पर्यावरण समस्याआें पर विशेष सामग्री का प्रकाशन होता है। कुछ पत्रों ने तो पर्यावरण को लेकर स्थायी स्तंभ बना रखे है, कुछ पत्र पत्रिकायें पूर्ण रूप से पर्यावरण पर ही केन्द्रित है।

पर्यावरण संरक्षण के उपायों की जानकारी हर स्तर तथा हर उम्र के व्यक्ति के लिए आवश्यक है। पर्यावरण संरक्षण की चेतना की सार्थकता तभी हो सकती है, जब हम अपनी नदियां, पर्वत, पेड़, पशु-पक्षी, प्राणवायु और हमारी धरती को बचा सके। इसके लिए सामान्यजन को अपने आसपास हवा-पानी, वनस्पति जगत और प्रकृति उन्मुख जीवन के क्रिया-कलापों जैसे पर्यावरणीय मुद्दों से परिचित कराया जाए। युवा पीढ़ी में पर्यावरण की बेहतर समझ के लिए स्कूली शिक्षा में जरूरी परिवर्तन करना होंगे पर्यावरण मित्र माध्यम से सभी विषय पढ़ाने होंगे। जिससे प्रत्येक विद्यार्थी अपने परिवेश को बेहतर ढंग से समझ सके। विकास की नीतियों को लागू करते समय पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव पर भी समुचित ध्यान देना होगा।

प्रकृति के प्रति प्रेम व आदर की भावना सादगीपूर्ण जीवन पद्धति और वानिकी के प्रति नई चेतना जागृत करना होगी। आज आवश्यकता इस बात की भी है कि मनुष्य के मूलभूत अधिकारों में जीवन के लिए एक स्वच्छ एवं सुरक्षित पर्यावरण को भी शामिल किया जाये। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ स्तर तक पहल करना होगी। इतना ही नहीं विश्व के सारे देशों में पर्यावरण एवं सरकारी विकास नीतियों में संतुलन आए, इसके लिए सघन एवं प्रेरणादायक लोक-जागरण अभियान भी शुरू करना होंगे।

आज हमें यह स्वीकारना होगा कि हरा-भरा पर्यावरण मानव जीवन की प्रतीकात्मक शक्ति है और समय के साथ-साथ हो रही इसकी कमी आ रही हमारी वास्तविक ऊर्जा में भी कमी आई है। वैज्ञानिकों का मत है कि पूरे विश्व में पर्यावरण रक्षा की सार्थक पहल ही पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने की दिशा में रंग ला सकती है।

आज पर्यावरण का बदलता रूख विश्व को ऐसे पड़ाव पर ले आया है, जहाँ मानव जीवन ढलता नजर आता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि वैश्विक गर्मी (ग्लोबल वार्मिग), बढ़ता प्रदूषण और घटती वन-वृक्षों की संख्या हमें चेता रही है। अब हमें चेतना होगा, ऊर्जा के लिए प्रदूषण रहित नए उपाय विकसित किए जाएँ और पेड़-पौधों को अधिक से अधिक लगाने के सार्थक प्रयत्न किए जाएँ। पौधारोपण की सहायता से पर्यावरण को मजबूत बनाया जाए।

पर्यावरण की अनदेखी मानव सभ्यता पर कालिख पोत रही हैं । इस दिशा में भागीरथी प्रयास जरूरी है। भागीरथ प्रतीक है उच्चतम श्रम का,मनुष्य के श्रम के पसीने का। मनुष्य के श्रम का पसीना गंगाजल से भी ज्यादा पवित्र है। गंगा और भागीरथ के मिथक से ही इसे समझा जा सकता है। भागीरथ जब अपने श्रम से गंगा को धरती पर लाये तो गंगा का नाम हो गया भागीरथी, भागीरथ का नाम गंगाप्रसाद नहीं हुआ । इस प्रकार अधिक परिश्रमी और असाध्य कार्य के लिए प्रतीक हो गया भागीरथी प्रयास। पर्यावरण के क्षैत्र में भी संरक्षण के भागीरथी प्रयासों की आवश्यकता है। सर्वप्रथम यह हमारा सामाजिक दायित्व है कि हम स्वयं पर्यावरण हितैषी बनें जिससे पर्यावरण समृद्ध भारत बनाया जा सके।

प्रकृति और मनुष्य के गहरे अनुराग के कारण दोनों के साहचर्य से प्रकृति का संतुलन बना रहता है। पिछले हजारों वर्षो से चले आ रहे प्रकृति संतुलन में पिछले एक शताब्दी में आये व्यापक बदलाव के लिए उत्तरदायी कारणों की खोज जरूरी है। मनुष्य के प्रकृति के साथ प्रेममूलक संबंधों में आ रही गिरावट और बढ़ती संवेदनशीलता के दायरों से बाहर निकलकर पुन: प्रकृति की ओर लौटने के लिये हमें हमारी परंपराआें, शिक्षाआें और संस्कृति की समृद्ध विरासत की ओर लौटना होगा।

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गंदगी से फैलता जहर

वातावरण

गंदगी से फैलता जहर

कुशलपाल सिंह यादव

नागरीय निकाय अपना इलाका साफ रखने के लिए अभी तक तो अपने आस-पड़ौस को ही प्रदूषित कर रहे थे। अब तो वे दूसरे राज्यों में जंगलों इत्यादि में कचरा फेंककर पर्यावरण को जबरदस्त नुकसान पहुंचा रहे हैं। वहीं इस कचरे से बिजली उत्पादन करने वाले संयंत्र भी बड़े स्तर पर प्रदूषण फैला रहे हैं।

दिसम्बर २००६ में कोची नगर निगम ने अपशिष्ट निपटान का एक अद्भुत तरीका इजाद किया। इसके अंतर्गत उन्होंने कचरे से भरे ट्रकों को न केवल नजदीकी जिलों के गांवों में, बल्कि नजदीक के राज्यों में भी खाली करने को भेज दिया। इस कचरे को ले जाने हेतु एक ठेकेदार से १३६५ रुपये प्रति टन का भाव तय हुआ था। विचारणीय तथ्य यह है कि नगर निगम ने ठेकेदार से यह पूछने का कष्ट भी नहीं उठाया कि वह यह कचरा कहां फेंकेगा और यह कि क्या उसमें उन गांवों से अनापत्ति प्रमाण-पत्र ले लिया है जहां पर कि यह कचरा फंेका जाना है।

कुछ ही दिन पश्चात् कचरे से लगे १९ ट्रकों का काफिला पड़ौसी कर्नाटक राज्य के बंदिपुर राष्ट्रीय पार्क के मुलाहल्ला वन नाके पर पहँुचा। ये ट्रक केरल के पाँच जिलों को पार करके उस नाके से करीब २० किमी. दूर गुंडुल्पेट नामक छोटे से गांव में कचरा फेंकने जा रहे थे। वन रक्षक ने इस हेतु आवश्यक कागजों की मांग करने पर ट्रक ड्राईवरों ने कोची नगर निगम और ठेकेदारों के बीच हुआ अनुबंध उसे दिखाया। ड्राईवरों को उस रात नाके पर ही रोक लिया गया। अगले दिन मामला निपटा दिया गया और उस कचरे को वहीं पास की किसी निजी भूमि पर डाल दिया गया।

स्थानीय निवासियों ने नगर निगम को लज्जित करते हुए इसका भरपूर नैतिक विरोध किया। केरल और तमिलनाडू के सीमावर्ती क्षेत्रों जैसे कम्बामेट्टू आदि जगह तो ट्रक ड्राईवरों से झूमा-झटकी भी की गई। इस कारण ये वाहन कचरा फेंकने का स्थान ढूंढने के लिये इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहे। इसी क्रम में ४ जनवरी २००७ को आठ ट्रकों द्वारा पालक्कड़ जिले के नेल्लीप्पेली के नजदीक स्थित वीरान्दोट्टा में कचरा फंेंकने को लेकर पुलिस में रिपोर्ट करने गये व्यक्तियों ने इतना उग्र प्रदर्शन किया कि पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा। इस सबके चलते नगर निगम ने एक अन्य ठेकेदार को यह ठेका दे दिया जिसके बारे में कहा जा रहा है कि उसके पास इस अपशिष्ट के निपटान हेतु गुड्डालोटे में जमीन व आवश्यक संसाधन उपलब्ध है।

कोची नगर निगम द्वारा हड़बड़ी में लिये जा रहे कदमों पर विचार करना आवश्यक है। ७ लाख जनसंख्या के इस शहर में अपशिष्ट निपटान का कोई ठीक-ठाक प्रबंध नहीं था। पूर्व में जो भूमि इस हेतु ली गई थी वह उस पानी के स्त्रोत के मुहाने पर भी जिससे कि पानी नदी में पहँुचता है। इसके अतिरिक्त चार गांवों के निवासी न केवल पीने के पानी हेतु इस पर निर्भर हैं बल्कि ३०० मछुआरों के परिवारों की जीविका भी इसी पर निर्भर है। इसके विरोध में ग्रामवासियों ने आंदोलन किया और अंतत: वह स्थान बदल गया।

इन सब विवादों के चलते कोची नगर निगम ने कोचीन पोर्ट ट्रस्ट के नजदीक की अपने स्वामित्व की जमीन जो कि वेलिंगटन द्वीप पर स्थित भारतीय नौ सेना के दक्षिणी कमान के पास स्थित थी पर कचरा निपटान का कार्य प्रारंभ किया। नौसेना ने थोड़े समय के लिये कि जब तक निपटान का यथोचित तंत्र खड़ा न हो जाए अनुमति भी दे दी। पर जब इससे समस्या खड़ी होने लग गई तो नौसेना ने नगर निगम से चर्चा की। क्योंकि कचरे की वजह से वहाँ आ रहे पक्षियों के कारण विमान वाही पोत गरुड़ के विमानों को खतरा पैदा होने लगा था।

इसी दौरान केरल उच्च न्यायालय ने नगर निगम को निर्देशित किया कि वह ब्रह्मापुरम में अपशिष्ट निपटान का कार्य करे। साथ ही न्यायालय ने पुलिस को आदेश दिया कि गांववासियों के विरोध के चलते वे अधिकारियों को संरक्षण प्रदान करें।

दूसरी ओर न्यायालय इस बात पर भी विचार कर रहा है कि क्या निगम ने ठोस अपशिष्ट निपटान की विस्तृत योजना उसके सम्मुख प्रस्तुत न कर उसकी अवमानना की है? इसी दौरान निगम ने पुन: अपशिष्ट निपटान के स्थल में परिवर्तन का मन बना लिया है।

अनुमान है कि केरल में प्रतिदिन ३००० टन कचरा पैदा होता है। इसमें से आधे से भी कम इकट्ठा होता है और उसमें से भी बहुत ही थोड़ी मात्रा को पुर्न:चक्रण (रिसायकल) किया जाता है एवं बाकी का या तो पानी के स्थानीय स्त्रोतों या बहुत ही नजदीक के क्षेत्रों में भराव के काम में ले लिया जाता है।

शहरी भारत में अनेक स्थानों पर कचरे से निपटने की तथाकथित कार्यवाहियाँ चल रही हैं। गुजरात के सूरत नगर निगम ने शहर के पश्चिम में करीब १५ किमी. की दूरी पर ३.६ हेक्टेयर खारे पानी वाली भूमि को कचरे से भरने हेतु नियत किया है। तीन वर्ष पूर्व निर्मित यह स्थान अभी भी प्रयोग में नहीं आ रहा है। इसकी वजह यह है कि गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वहां पर कचरे के भराव की अनुमति नहीं दी है। इस संदर्भ में बोर्ड ने ठोस अपशिष्ट निवारण नियम २००० का कड़ाई से पालन करवाने का निश्चय किया है। जिसके अंतर्गत सिर्फ वो ही कचरा भरा जा सकता है जिसका पुर्न:चक्रण नहीं किया जा सकता हो। चंूकि निगम के पास दोनों तरह के अपशिष्टों को अलग-अलग करने की व्यवस्था नहीं है अतएव वह इसका उपयोग नहीं कर पा रहा है।

जहां सूरत और कोची के माध्यम से कचरे के भराव में आने वाली मुश्किलों पर प्रकाश पड़ा है वहीं इस दौरान कचरे से उर्जा जैसे संयंत्रों के प्रति भी अतिरेक भरा उत्साह भी पैदा हो गया है। इसकी खास वजह है कि इस पर सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी।

केन्द्रीय वैकल्पिक उर्जा मंत्रालय (न्यू एवं रिन्यूवेबल एनर्जी) इस हेतु ब्याज पर २ करोड़ रुपये तक की छूट उपलब्ध करवाता है। इतना ही नहीं इसमें अनेक अन्य सुविधाआें के साथ ही साथ ३० वर्षोंा तक मुफ्त कचरा उपलब्ध कराने का आश्वासन भी शामिल है। यह नीति व्यापारियों को इस तरह प्रोत्साहित करती है, जिससे सरकार और व्यापारियों की बंदरबाट चलती रहती है। इसके बावजूद इस तरह के मात्र चार संयंत्र अभी तक भारत में सामने आए हैंं। ये हैं आंध्रप्रदेश के हैदराबाद व विजयवाड़ा, उत्तरप्रदेश में लखनऊ और दिल्ली। इसमें से दिल्ली का संयंत्र सन् १९९० में प्रारंभ हुआ और मात्र २१ दिन चलकर अभी तक बंद है। लखनऊ के संयंत्र की नींव सन् १९९८ में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने रखी थी, परंतु वह अब तक प्रारंभ नहीं हो पाया है।

वहीं हैदराबाद के नजदीक सेल्को इण्डस्ट्रीज द्वारा सन् १९९० में प्रारंभ हुए संयंत्र में हैदराबाद के कचरे के निपटान के कारण समीपस्थ भू-जल पूरी तरह से दूषित हो गया है। यहां स्थित घरों में लोगों को बोतलबंद पानी खरीदकर पीना पड़ रहा है। परंतु बोतलबंद पानी से खेती संभव तो नहीं हो सकती, अतएव वहां पर खेती पूर्णतया समाप्त हो गई है। इसी के साथ खुले में पड़े कबाड़ जिसमें प्लास्टिक और अन्य जहरीले पदार्थ जैसे बैटरी, टूटे थर्मामीटर, रयासन रखने के डिब्बे आदि के जलने से आसपास का पूरा वातावरण दूषित हो गया है। सन् २००१ में आसपास की तीन छोटी बस्तियों के बाशिंदे १५ दिनों तक संयंत्र के दरवाजे पर धरने पर बैठे रहे। इसी दौरान आंध्रप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पानी की जांच में पाया कि भू-जल पूरी तरह से प्रदूषित हो चुका है। इसमें तेजाब, क्लोराईड, सल्फेट और नाईट्रेट की मात्रा अत्यधिक हो गई है जिससे कि कैंसर जैसी बीमारियां भी हो सकती हैं। जिसके पश्चात् संयंत्र पर रोक लगा दी गई। परंतु संयंत्र के मालिक ताकतवर लोग थे अतएव एक महीने में ही उक्त आदेश वापस ले लिया गया।

इसी दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरह के संयंत्रों की जांच हेतु कमेटी गठन करने का आदेश दिया। परंतु जो कमेटी गठित हुई उनमें से अधिकांश सदस्यों का इन संयंत्रों के विकास में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग रहा था। अतएव इसके सदस्यों ने अलग-अलग मन्तव्य की रिपोर्ट प्रस्तुत की। वहीं विशेषज्ञों का साफतौर पर मानना है कि अपशिष्ट उर्जा संयंत्र गर्म देशों में सफल हो ही नहीं सकते। दूसरी ओर आर्थिक रुप से भी ये लाभप्रद नहीं है। क्योंकि इनमें हमारे जैसे देश में यदि १०० इकाई कचरा डाला जाए तो २५ इकाई ऊर्जा मिलती है वहीं ठंडे व यूरोपीय देशों में ३४ यूनिट तक ऊर्जा प्राप्त होती है।

इसके बावजूद मंत्रालय ने सितंबर २००६ में फरमान निकाला कि बड़े शहरों के आसपास ऐसे १००० संयंत्र लगाये जाएं। दूसरी ओर योजना आयोग का कहना है कि कम्पोस्ट संयंत्रों में निर्मित जैविक खाद पर सब्सिडी देने का प्रावधान हो, क्योंकि भारत मात्र रासायनिक खादों पर ही १४००० करोड़ की सब्सिडी दे रहा है।

आज आवश्यकता है कि अपशिष्ट प्रबंधन को संस्थागत किया जाए। अभी तक अपशिष्ट प्रबंधन नगर निगम के स्वास्थ्य विभाग के अंतर्गत किया जाता है। जो कि किसी स्वास्थ्य चिकित्सक के अधीन होता है एवं वह इस विषय का विशेषज्ञ भी नहीं होता। दूसरी ओर इस निजी क्षेत्र के कई संस्थान व व्यक्ति कम्पोस्ट खाद का संयंत्र डालने को तैयार हैं, जिन्हें कि प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

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पेड़, हमारे संस्कृति वाहक

अरण्य संस्कृति

पेड़, हमारे संस्कृति वाहक

राजेन्द्र जोशी

पेड़ कुदरत का एक ऐसा उपहार है जो पूर्वजों की स्मृतियों को अपनी डालियों, फूलों-फलों और पत्तों की तरह तरोताजा और हरा बनाये रखता है, हमारी संस्कृति में वह एक ऐसा निरंतर प्रवाह है जो एक पीढ़ी से दूसरी, तीसरी, चौथी और आगे तक की पीढ़ियों को फल, छांव और इंर्धन देता हुआ हमारी सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाता रहता है, एक तरफ जहां वह जीवनदायनी वायु ऑक्सीजन का उद्गम है, वहीं दूसरी तरफ वह आने वाली पीढ़ी को शिक्षित करने के पाठ्यक्रम का काम भी करता है - फूलों से नित हंसना सीखो/भौरों से नित गाना/फल से लदी डालियों से नित सीखो शीश झुकाना।

होता यह है, दादाजी के पिताजी ने जिस पौधे को रोपा उसे पिताजी सींचकर बड़ा करते हैं, पिताजी के जाने के बाद वह पौधा वृक्ष बन जाता है तीसरी पीढ़ी के लोग उस वृक्ष के फल खाते हैं, उसकी शीतल छांव में थकान मिटाने के लिए सुस्ता लेते हैं और बहू-बेटियां उसकी डाल पर सावन में झूलों की डोर बांध लेती हैं, जब चौथी पीढ़ी अस्तित्व में आती है तो पूर्वजों की कृपा से उसके आंगन में स्वयं पके फल टपकते हैं, उसकी छांव में पांचवीं पीढ़ी के बच्चे मई-जून की भरी गर्मी में गेंद, कंचे और गुल्ली-डंडे का खेल खेलते हैं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवार को आते-जाते, उतार-चढ़ाव का प्रत्यक्षदर्शी होता है आंगन में फलता-फूलता एक पेड़ ।

आंगन में पेड़ की छांव सिर्फ छांव ही नहीं है, बल्कि एक तरह से वह हमारे पुरखों की छत्रछाया है, हमारे परिवार के सिर पर जमीन में गहराई तक अपनी जड़ जमाकर और हमारे घरों की मुंडेर से ऊंचा उठकर हमारी सुख और समृद्धि के लिये कई तरह के साधन जुटाता है, जिस भी परिवार पर उसका वरदहस्त होता है उसे वह खुशहाल कर देता है, पेड़ कभी भी श्राप नहीं देता, बल्कि उसके तन-मन और आत्मा के टुकड़े-टुकड़े कर देने के बाद भी या जला-जलाकर कोयला या राख कर दिये जाने के बाद भी वह आशीर्वाद ही देता है, अस्तित्व में हरने पर तो एक तरह से वह टकसाल का काम करता ही है, अस्तित्वविहीन होने अर्थात् टुकड़े-टुकड़े होने और कोयला तथा राख हो जाने पर भी वह लोगों के बटूए भर देता हैं।

अब लगता है अस्तित्व में आती जा रही नई पीढ़ी अपने पारंपरिक संस्कारों, मानवीय संवेदनाआें, रीति-रिवाजों और जीवन मूल्यों को छोड़कर भौतिकता और विलासिता के चक्रव्यूह में फंसती जा रही है। इस दौर में आने वाली पीढ़ी के सामने जो लक्ष्य है वह है बाजारवाद में घुसपैठ। बाजारवाद जन्म दे रहा है नई पीढ़ी में स्वार्थ, लालच, लौलुपता, अनैतिकता को । इस दौर की दौड़- प्रतियोगिता में अब उसे न तो चाहिये पेड़, छांव, फल या शुद्ध वायु, उसे तो चाहिये सिर्फ पैसा और पैसा। पैसा मिलने का एक स्त्रोत दिख रहा है उसे पेड़, जिससे वह खूब पैसा कमाकर मालदार बनना चाहता हैं।

अब उसके हाथ में कुल्हाड़ी है, पूर्वजों की तरह आने वाली पीढ़ी को विरासत में वह न तो कोई संस्कार देना चाहता है और न ही कोई ऐसा इतिहास जैसा पूर्वजों का था, आने वाली पीढ़ी पेड़ काटकर उसके अंग-प्रत्यंग और उसके कोयले और राख के ढेरों से पैसा कमा रही है, उसे आधुनिकता और विलासिता की शिक्षा में डिग्रियां हासिल होती जा रही है, उसके पठन-पाठन के कोर्स में संस्कार और पूर्वजों की विरासतें नहीं है, उसे पढ़ाया जा रहा है पेड़ काट दो, बेच दो, उससे धन अर्जित कर बैंक बैलेंस बढ़ा लो, कमरा तो ठंडा हो जायेगा एयरकंडीशन की शीतल हवा से, वस्तुयें सुरक्षित रखी रहेंगी फ्रीज में, उसे फल नहीं चाहिये, उसे चाहिये पिज्जा, बर्गर और फास्ट फूड के पैकेट, डिब्बों में भरे फलों का नकली जूस, इन सब वस्तुआें को खरीद सकता है वह पैसा फेंककर कहा के संस्कार, कहां के रीति-रिवाज और कहां की परंपराएं?

यह युग है पुरखों से चली आ रही परंपराआें और संस्कृति से कटकर परंपराएं शुरू करने का। संस्कृति रिश्तेनातों और रीति-रिवाजों की नई परिभाषा गढ़ने का ऐसे माहौल में किसी के पास समय नहीं है नये पौधे रोपने का, उन्हें सींचकर बड़े करने का। पेड़ कब बड़ा होगा, पल्लवित-पुष्पित होगा फिर उसमें कब फल लगेंगे और पकेंगे, इसका इंतजार करने का वक्त अब किसी के पास नहीं है। आज आदमी को चाहिये फास्ट फूड, रेडिमेड जूस। इन सबके लिये उसे चाहिये पैसा और यह पैसा एक मुश्त तभी मिलेगा जब पुरखों की संपत्ति बेच दी जाये या फिर आंगन में और खेत की मेढ़ पर लगे पेड़ काट दिये जायें।

आज के भौतिकवादी जमाने के साथ कदम से कदम वही मिला सकता है जो पुरातन को कबाड़े की वस्तुयें समझकर और उसे बेचकर धन अर्जित कर लें, आज न तो लोगों में पुरातन के प्रति आदर-सम्मान या गौरव की भावना है और न ही आने वाले समय के लिये कुछ स्वस्थ परंपरायें और आदर्श स्थापित करने की चिंता है, उसके लिये तो जो कुछ है उसका वर्तमान है जिसके लिये वह पुरातन की होली जलाकर विलासिता, वैभव और भौतिक सुखों में मदहोश होकर रंगरैलियां मनाने में व्यस्त हो गया है।

नैतिकता विनम्रता और संवेदनाआें के अर्थ आज के आदमी के लिये महत्वहीन से होते जा रहे हैं, अब वह न तो फूलों से हंसना सीखना चाहता है न भौरों से गाना सीखना चाहता है और न ही फलों से लदी डालियों से शीश झुकाने के भाव सीखना चाहताहै। अब तो वह बिल्कुल ही नहीं सीख पायेगा, सीखेगा तो तब जब पेड़ होंगे, जब पेड़ ही नहीं है तो फूल कहां से आयेंगे, फूल नहीं तो भौरें कहां से मंडरायेंगे और जब डालियां ही नहीं तो उसमें फल कैसे लगेंगे, हंसना, गाना, झुकना जैसे जीवन के आवश्यक तत्वों को बेचकर आदमी बस पैसा कमाना चाहता है, वह कमा रहा है और सफलता पूर्वक दौड़ प्रतियोगिता में जीत हासिल करता जा रहा है औरों को टंगड़ी मारते हुये।

परंपराआें की तरह पेड़ भी काटते जा रहे हैं या यूं कहें कि पेड़ के साथ-साथ परंपरायें खत्म होती जा रही हैं, जाहिर है एक तरह से संस्कृति और समृद्धि का भी विनाश होता जा रहा है। पेड़ों की भूमिका एक संस्कृति वाहक के रूप में होती है । काश ! आज के लोग पेड़ों की इस भूमिका के अर्थ का अनर्थ न करते हुये उसके महत्व को समझने में भूल नहीं करते।

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विकास बनाम विनाश

जनजीवन

विकास बनाम विनाश

सतनाम सिंह

पर्यावरण और मनुष्य एक दूसरे पर किस हद तक निर्भर करते है, इसको हम मछली और जल के बीच पाये जाने वाले संबंध से समझ सकते हैं। जैसे मछली जल के बिना कुछ ही मिनट जीवित रह सकती है, ठीक वैसे मनुष्य का भी अस्तित्व पर्यावरण पर ही निर्भर है।

यही कारण है कि आज पूरी दुनिया मनुष्य और पर्यावरण के बीच बिगड़ते रिश्ते से परेशान है। मगर सवाल यह है कि आखिर यह बला है क्या जो पूरे विश्व को परेशानी में डाले हुए है। इसी सवाल को खोजने तथा लोगों को इसके प्रति जागरूक बनाने के लिए दुनिया में हर साल ५ जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। ५ जून १९७२ को स्वीडन के स्टाकहोम शहर में आयोजित कान्फ्रेन्स में सर्वप्रथम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानव का ध्यान पर्यावरण की ओर आकृष्ट किया गया। इसी सम्मेलन में यूनाइटेड नेशन्स इनवायरमेंट प्रोग्राम (यू.एन.ई.पी.) का जन्म हुआ। इसी वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा ने ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में प्रतिवर्ष मनाए जाने का निर्णय लिया।

पर्यावरण को सुधारने के लिए सरकार न सिर्फ लोगों को इस बारे में सक्रिय माध्यमों से जानकारी देती है, बल्कि एक सक्रिय सदस्य की तरह कार्य भी करती है। अगर दिल्ली का उदाहरण लें तो कुछ वर्ष पहलें वाहनों में सीएनजी के उपयोग के शुरू होने के बाद प्रदूषण स्तर काफी कम हो गया है। सरकार गावों में सड़कों के किनारे पेड़ लगा रही है तथा हरियाली पहुंचाने वालों को प्रोत्साहित कर रही है। गंगा एवं यमुना की सफाई पर ध्यान दिया जा रहा है। दिल्ली सरकार तो यमुना को लंदन की टेम्स की तर्ज पर सफाई करने की योजना भी बना रही है। मानव चारों ओर से प्राकृतिक दशाएं जैसे वायु जल तापमान मौसम, भूमि की बनावट, वन खनिज पदार्थ आदि तथा सामाजिक दशाएं जैसे सामाजिक समूह तथा सामाजिक मान्यताआें आदि से जुड़ा है। जब प्राकृतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक तीनों दशाएं पूर्ण रूप से समन्वित होकर मानव को घेरती है, तो यह घेराव ही पर्यावरण का रूप ले लेता है।

मनुष्य एवं उसके पर्यावरण का अटूट रिश्ता रहा है। जिस तरह एक स्वस्थ्य तन में स्वस्थ मन का निवास होता है, ठीक उसी तरह स्वस्थ पर्यावरण में स्वस्थ जीवन का विकास होता है। लेकिन आज हमरी प्राणदायिनी वायु ही नहीं बल्कि जल भी प्रदूषित हो चुका है। औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकलने वाले भारी तत्व जैसे मरकरी एवं अन्य तत्व जिंक, लेड आदि सिर्फ वायु को ही नहीं बल्कि जल एवं भूमि के साथ-साथ रेडियो एक्टिव प्रदूषण भी फैलाते है। जहा। पहले प्राकृतिक रूप से ५ डिग्री तापमान वृद्धि में १० से २० हजार वर्ष लग जाते थे, वहीं आज यह गति मात्र ५० वर्षो में पूर्ण होने को है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की जलवायु परिवर्तन और मानव स्वास्थ पर खतरा रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के चलते विश्व भर में दो लाख पचास हजार लोग वर्ष २००६ में ही काल कवलित हो गये। बढ़ता तापमान पृथ्वी के सम्पूर्ण जीवों के लिए खतरा है। ग्लेशियरों के पिघलने बर्फ की मात्रा कम होने तथा समुद्र के जल स्तर में बढ़ोत्तरी समूचे विश्व को जलमग्न बना सकती है। इस बर्फ की मोटाई में भी कमी आ रही है। इस तथ्य का उल्लेख इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट में किया गया है।

अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन के अध्ययन के लिए गठित इस समूह के अनुसार प्रतिवर्ष ४.६ करोड़ व्यक्ति समुद्र की ऊंची लहरों के कारण आई बाढ़ से प्रभावित होते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार अगली शताब्दी में पृथ्वी की सतह के तापमान में १.४ से ५.९ डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की संभावना है। इस पैनल ने पिछले ५० वर्षो में हुई जलवायु परिवर्तन में वृद्धि के लिए मानव जाति को जिम्मेदार बताया है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते है कि अमीर देशों में विश्व की कुल २२ प्रतिशत आबादी ही रहती हैपर विश्व के ६८ प्रतिशत औद्योगिक कचरे का हिस्सा इन्हीं से पैदा होता है। संसाधनों की कमी के कारण गरीब देश जलवायु परिवर्तन एवं अन्य पर्यावरणीय समस्याआें से अधिक प्रभावित होंगे, जबकि विडंबना यह है कि पर्यावरण को दूषित करने में इनका योगदान न्यूनतम हैं।

जल ही जीवन है, लेकिन अगर प्रदूषित हो तो हजारों बीमारियों को बढ़ावा मिलता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किए गए एक ताजा सर्वेक्षण के अनुसार विश्व में इस समय लगभग ८० प्रतिशत बीमारियां शुद्ध जल की कमी के कारण उत्पन्न हो रही है। भारत में किए गए एक अध्ययन के अनुसार एक हजार नवजात शिशुआें में से लगभग १२७ बच्चे हैजा, डायरिया तथा प्रदूषित जल से उत्पन्न रोगों से मर जाते है। राजस्थान के बड़े क्षेत्र में क्लोराइड युक्त दूषित जल पीने से यहां के निवासी पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे भयानक अस्थि रोगों का शिकार हो रहे हैं, जिनका उपचार संभव नहीं है।

इन सब पर्यावरणीय समस्याआें से बचने का एक ही तरीका है कि जंगलों को नष्ट होने से बचाया जाए, ओजोन पर्त को नष्ट करने वाली ग्रीन हाउस गैसों का उत्पादन और उपयोग बंद किया जाना चाहिए। अब यह अत्यन्त आवश्यक हो गया है कि विद्यमान वन सम्पदा की सुरक्षा की जावे। वनावरण तथा वृक्षावरण में वृद्धि हेतु बहुत अधिक कार्य करने की आवश्यकता है। पौधारोपण में जनसहयोग प्राप्त कर, पौधारोपण को जनान्दोलन बनाकर ही हम देश को वनावरण का अपेक्षित लक्ष्य प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं।

आइये विश्व पर्यावरण दिवस पर संकल्प लें कि विश्व से पर्यावरण प्रदूषण दूर करने के लिए मेघों को आकर्षित कर वर्षा करवाने वाले, उद्योगों का धुआं रूपी हलाहल पीने वाले, शरीर के प्रत्येक अंग प्रत्यंग का उपयोग मानव सेवा में करने वाले, इन वृक्षों का अधिकाधिक रोपण व संरक्षण कर पर्यावरण प्रदूषण दूर कर पर्यावरण असंतुलन के फलस्वरूप मानव अस्तित्व पर आए संकट को दूर करेंगे।

धूल, धुआं, बढ़ता शोर

प्रकृति चली विनाश की ओर।

तीर्थ, हज कर वापस आओ

भोज के बदले वृक्ष लगाओ।।

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म.प्र. : जल समस्या का तात्कालिक उपाय

प्रदेश चर्चा

म.प्र. : जल समस्या का तात्कालिक उपाय

डॉ. विनोद न. श्राफ

मालवा व अन्य स्थानों पर इस प्रकार की पारिस्थितिकीय बदलाव, भौतिक उथल-पुथल, कुछ वृक्षों विशेषकर आम के पेड़ों का भरयौवन में सूखना, भू-क्षरण, जैव कार्बन (आर्गेनिक कार्बन) की कमी से भूमि की जल संधारण क्षमता में कमी आने पर फसलों पर थोड़े से सूखे में अधिक विपरीत असर से फसल उत्पादन में गिरावट आ रही है, किसानों द्वारा ट्यूबवेल का पानी खेती नहीं करते हुए बेचने की प्रवृत्ति ने मन को व्यथित किया।

दो दशक पूर्व ईश्वरी प्रेरणा से यथास्थान पर जल संवर्धन व भूजन पुनर्भरण का कार्य आरम्भ कर मौलिक अनुसंधान आधारित जल प्रबंधन की विस्तृत कार्ययोजना वर्ष १९९१ में दी जा चुकी है। यदि १५ वर्ष पूर्व भूजल पुनर्भरण के उपाय प्रारम्भ हो गए होते तो मालव भूमि गंभीर, डग-डग रोटी, पग-पग नीर चारितार्थ होता। देर अवश्य हो गई है, पर अभी भी सम्हलने का अवसर है, अन्यथा सघन जनसंख्या वाले पठारी क्षेत्र का विकास तो रूकेगा, साथ ही होने वाली सामाजिक अव्यवस्था की परिकल्पना मात्र से कंपकंपी होने लगती है। कृषि, शहरी व औद्योगिक क्षेत्र के लिए निम्न विभिन्न लघु उपाय युद्धस्तर पर अपनाने पर ही भविष्य में जलसंकट से बचना संभव होगा।

खेत के आसपास मेड़ के स्थान पर नाली/कुंडिया - मेड़ के स्थान पर नाली/कुंडियों की श्रृंखला और दो आड़े रोक के मध्य रिसन गड्ढों को इंर्टों के टुकड़े व जीवांश के साथ बहकर इन लघु संरचनाआें में एकत्रित होता है, रुकता है, रिसता है तो भूजल भंडार में एकत्रित होता है। उथले कुएं और कम गहराई के ट्यूबवेल (७०-१०० फीट के) रबी की फसल को पर्याप्त पानी देते हैं। यह कार्य भारतीय कृषि अनुसंधान केन्द्र इन्दौर पर वर्ष १९८४ से व सोयाबीन अनुसंधान केन्द्र खंडवा रोड़ इन्दौर में वर्ष २००० से अपनाया गया है। इन छोटी सी संरचनाआें के परिणाम विस्मयकारी हैं। पूरा प्रक्षेत्र सूखे वर्ष में भी रबी के मौसम में उथले कुएं व ट्यूबवेल से पर्याप्त पानी मिलने पर रबी फसलों का भरपूर उत्पादन प्राप्त कर रहा है। इस स्वयंसिद्ध तकनीक अपनाने का साग्रह प्रस्ताव है। मेड़ को नाली/कुंडी में परिणत करने का खर्च प्रति एकड़ रुपए एक हजार से भी कम बैठता है। नाली/कुंडियो की चौड़ाई व गहराई ३-४ फीट लम्बाई ढलान के अनुसार १५-२५ फीट व बिना खुदा हुआ भाग ४-५ फीट रखा जाता है।

हर खेत में पोखर-तलैया- एक किसान, एक खेत, एक पोखर बनाया जाए तो दो अतिरिक्त सिंचाई सुनिश्चित हो जाती है। पोखर को नाली से जोड़ें। पोखर कुएं-ट्यूबवेल के पास बनाए जाते हैं तो कुआें-ट्यूबवेल का जलस्तर उठाना संभव हो जाता है। पोखर के आकार के अनुसार खर्च रुपए एक हजार के आसपास आता है। गोल पोखर १२-१५ फीट व्यास या चौकोर १५ गुणित १५ फीट, गहराई ८-१० फीट रखी जाती है। पोखर-तलैया बनाने का खर्च हजार-बारह सौ रुपये आता है।

परिणाम - खेत के आसपास नाली, खेत में पोखर होने पर खेत की मिट्टी व जीवाशं खेत व खेत के आसपास संग्रहीत रहती है, उसे गर्मी के मौसम में रखरखाव, खुदाई कर खेत में पुन: फैला दी जाती है। वर्षा के मौसम में इन संरचनाआें में पानी रुकने पर जलचर-मेंढक, केंकड़े, मछली इत्यादि पनपते हैं, वे कीट नियंत्रण में सहायक होते हैं। खेत में आर्द्रता व भूमि के कणों के मध्य जलप्रवाह सूक्ष्मवाहिनी/केपिलरी, खड़ी, आड़ी (वर्टिकल-होरिजंटल) के कारण फसलों को आवश्यक नमी मिलती रहती है, जिससे वह सूखे के प्रभाव से बच निकलने में सहायक होती है। इस तकनीक से खेत का पानी खेत में, खेत की मिट्टी खेत में व खेत के जीवाशं खेत व खेत के आसपास संग्रहीत रहेंगे तो सूखे से मुक्ति के साथ खरीफ व रबी की फसल भी लेना संभव होगा, साथ में उत्पादन में स्थायित्व से कृषक खुशहाल रहेंगे।

कुआें का वर्षा जल पुनर्भरण - कुए हमारे धन से बने राष्ट्रीय सम्पत्ति हैं। शासकीय, अशासकीय, निजी सभी कुआें की सफाई, गहरीकरण व रखरखाव करें। कुआें को अधिक पानी देने में सक्षम बनाएं। वर्षा जल को कुआें में संग्रहीत करें। कुएं शहर, गांव की जलव्यवस्था का मुख्य अंग हैं। नए युग में भी उपयोगी हैं। मध्यप्रदेश के मालवा व निमाड़ क्षेत्र में सात लाख कुएं रिचार्ज किए जा चुके हैं। क्या आपने अपने खेत में वर्षाजल पुनर्भरण की विधि अपनाई है, यदि नहीं तो इस कार्य को यथाशीघ्र अपने हित में अपनाएं।

कुएं में वर्षा जल भरने की इंदौर विधि, कम खर्च अधिक लाभ - तीन मीटर लम्बी नाली, ७५ से.मी. चौड़ी व उतनी गहरी नाली से बरसात का पानी कुएं तक ले जाकर, उसकी दीवार में छेदकर, ३० से.मी. व्यास का एक मीटर लम्बा सीमेंट पाइप लगाकर, नाली से पानी कुएं में उतारें। पाइप के भीतरी मुहाने पर एक से.मी. छिद्रवाली जाली लगाकर, उसके सामने ७५ से १०० से.मी. तक ४ से ५ से.मी. मोटी मिट्टी, बाद में ७५ से १०० से.मी. तक २ से ३ से.मी. आकार की गिट्टी और एक मीटर लम्बाई तक बजरी रेत भरें। खेत से बहने वाला बरसात का पानी जल, सिल्ट ट्रेप टैंक ५ गुणित ४ गुणित १.५ मी. व फिल्टर नाली से होकर कुएं में पाइप से गिरेगा। पानी, रेत-गिट्टी से बह कर जाने से जल का कचरा भी बाहर रहता है।

इस प्रकार कुएं का जलस्तर बढ़ेगा। भूमि में पानी रिसेगा। आसपास के कुंए और ट्यूबवेल जीवित होंगे। इस विधि से कुआें में भूजल पुनर्भरण का खर्च ५०० से १००० रुपये आता है।

नालों में डोह बनाएं - नालों में डोह बनाएं-नालों को गहरा करें। पानी रोकें। नाले गांव की जीवनरेखा हैं। गांव का पानी नालों में बहकर नदी में आता है। नाले उथले हो गए हैं, उनको गहरा कर नालों में डोह, कुंड, डबरों की शृंखला बनाएं। अधिक बहाव हो तो गेबियन संरचना बनाएं। नालों के गहरीकरण से उनमें पानी रुकेगा, थमेगा तो भूमि की गहरी परतों में रिसेगा। नालों से खोदी गई मिट्टी को खेत में फैलाएं। जमीन के अन्दर जल पहुंचेगा। किनारों के पेड़-पौधे बढ़ेंगे, पनपेंगे। नालों के ढलान के अनुसार ४०-५० मीटर के अन्तर पर दो-तीन मीटर की पट्टी बिना खोदी हुई रहने दें। ऊपर बोल्डर बिछाएं। नाला गहरीकरण से बने कुंड, डोह में पानी रुका रहेगा। इंदौर में नैनोद, सीहोर जिले के आमलावदन, झालकी, उज्जैन व रतलाम जिलों में इसे अपनाया गया है। परिणाम उत्साहवर्धक हैं। नालों के गंदे पानी को साफ रखने, मध्य की पटि्टयों पर प्रेगमेटिश, टाइफा, रीड, खस लगाकर बायोजिकल फिल्टर बनाएं।

जल का किफायती इस्तेमाल - जल संरक्षण व भूजल पुनर्भरण की विभिन्न विधियों के उपयोग से प्रत्येक किसान के खेत के लिए दो सिंचाई उपलब्ध हो सकती हैं सोयाबीन, कपास व अन्य खरीफ फसलों को क्रांतिक अवस्था में सीमित जल नाली, स्प्रिंकलर या टपक सिंचाई पद्धति से दी जाए जिसमें कम समय लगता है तो डेढ़ गुना उत्पादन प्राप्त होने की संभावना बढ़ जाती है। साथ में रबी फसलों जैसे गेहूं, चना, सरसों, सब्जियों के लिए व पूरे वर्ष पेयजल उपलब्ध हो सकेगा।

जल बूंदों का बजट - भविष्य में जल की उपलब्धता व प्रत्येक बूंद से अधिक उत्पादन मिले, ऐसे प्रयास करने की आवश्यकता से सभी सहमत हैं। जल की प्रत्येक बूंद अनमोल है, बूंद-बूंद से तालाब भरता है, विवाद रहित उज्जवल भविष्य हेतु जल की प्रत्येक बूंद का सक्षम उपयोग समय की मांग है। ऐसा अनुमान है कि यदि जल व्यवस्था को सुधारा नहीं गया तो वर्ष २०२५ तक तीन व्यक्ति में से एक व्यक्ति की (यानी १/३ जनसंख्या) आजीविका उपार्जन के लाले पड़ जाएंगे।

जल रक्षति रक्षितम:- जल की रक्षा में हमारी रक्षा निहित है। यह आखिरी अवसर है जल को बचाकर रखने का। जल होगा तो कल होगा। आइए, जल की प्रत्येक बूंद, जमीन, मृदा का प्रत्येक कण, जीव जगत का, प्रत्येक जीव, जीवांश जिनमें संग्रहीत जल व ऊर्जा है, जंगल को नए सिरे से संवारेंगे तो पर्यावरण संतुलित रहेगा व भविष्य में हमारा जीवन सुरक्षित रहेगा।

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आदिवासियों की अस्मिता का प्रश्न

सामाजिक पर्यावरण

आदिवासियों की अस्मिता का प्रश्न

शंकर तड़वाल

आदिवासियों के कल्याण को लेकर आजकल बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं। इसी के साथ यह भी प्रयत्न किया जा रहा है कि उन्हें मुख्यधारा में लाने के नाम पर उन्हें उनकी संस्कृति से ही वंचित कर दिया जाए। आदिवासी समाज धर्म के नाम पर अंधविश्वास फैलाने वाले धर्म गुरुआें की जकड़ में जा रहा है। आदिवासियों के आत्मसम्मान, स्वयंनिर्णय, स्वावलम्बन, मानवप्रतिष्ठा, संस्कृति एवं मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा है। आजादी मिलने के बाद पूंजीवादी विकास मॉडल के तहत् शहर के चंद लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन व खनिज स्त्रोतों को सीमित लोगों के लिए लुटाया जा रहा है।

हम भारत के लोग ...... भारत को एक संपूर्ण, प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, सामाजिक, आर्थित और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता जैसे उसूलों को सही रूप से लागू करने में देश की सरकारें नाकामयाब रही हैं। व्यक्ति की गरिमा और बंधुता बढ़ाने के भारतीय संविधान के आश्वासन के मुताबिक देश नहीं चल रहा है। आदिवासी अपने आप को गुलाम महसूस करते हैं। उनके साथ अपने ही देश में नस्लभेद और भेदभाव का बर्ताव किया जा रहा है। देश में दस करोड़ आदिवासियों का अपना कोई संगठन नहीं है।

भारत के लोगों को बहुत कम जानकारी है कि आखिरकार ये आदिवासी लोग कौन हैं ? सन् १८९१ की जनगणना रिपोर्ट में जनसंख्या आयुक्त जे.ए.बेन्स ने आदिवासयिों का कृषक व चरवाहा जनजाति के नाम से पृथक उप-शीर्षक बनाया था। सन् १९०१ की जनसंख्या रिपोर्ट में उन्हें प्रकृतिवादी कहा गया। सन् १९११ में उन्हें जनजातीय प्रकृतिवादी अथवा जनजातीय धर्म को मानने वाले लोग कहा गया। सन् १९२१ में उन्हें पहाड़ी व वन्य जनजाति नाम दिया गया। सन् १९३१ में उन्हें आदिम जनजातीय कहा गया। सन् १९३१ तक जनगणना रिपोर्ट में भी प्रकृतिपूजक एवं एनिमिस्ट धर्म लिखा गया था।

जनजाति शब्द का अर्थ व्युत्पत्ति शास्त्र के अनुसार अंग्रेजी शब्द ट्राइब त्रिभुज शब्द से माना जाता है। जिसका अर्थ तीन अंग है। यानी राजा, रक्षा तथा हस्त-कलाकार। किसी निश्चित भू-क्षेत्र विशेष पर किसी जनजाति का स्थायी निवास उसका भौगोलिक परिचय देता था। मानव शास्त्रियों तथा समाजशास्त्रियों ने ऐसे किसी निश्चित सीमा के अन्दर निवास करने वाले लोगों की प्रजाति को जनजाति माना है। किसी भी समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के लिए निम्नलिखित मापदण्ड निश्चित किये गये हैं।

१. विशिष्ठ संस्कृति जिसमें जनजाति जीवनयापन का चित्रण जैसे भाषा, परम्पराएं, धार्मिक विश्वास, कला व दस्तकारी आदि शामिल हैं।

२. किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र पर पारम्परिक अधिकार।

३. व्यावसायिक ढांचा, आर्थिक व्यवस्था आदि को दर्शाने वाली आदिकालीन विशेषता।

४. शैक्षिक तकनीकी व आर्थिक विकास की कमी।

आदिवासी समाज के धर्म के मामले में जानकर आपको ताज्जुब होगा। भारत के संविधान ने आदिवासियों के धर्म संबंधी मामलों में बहुत ही संवैदनशीलता दिखाई हैं। आदिवासियों के धर्म को लेकर कोई कठोर कानूनी या संवैधानिक प्रावधान नहीं हैं। वैसे हर नागरिक को संविधान की धारा २५ के तहत् अपना धर्म मानने व पालन करने की स्वतंत्रता है। संविधान की धारा २९ में संस्कृति को बनाये रखने की स्वतंत्रता भी है। आदिवासियों द्वारा धर्म अपनाने में कोई कठोर प्रतिबंध नहीं है। आदिवासी हिन्दु, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, मुसलमान में भी हैं तथा एक मायने में वह स्वतंत्र जनजातीय धर्म का भी है। अर्थात वह चाहे तो हिन्दु, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, मुसलमान भी नहीं है। देश की सर्वोच्च न्यायालय भी आदिवासियों को हिन्दु नहीं मानती। शादी, विवाह के मामले में आदिवासियों को किसी अन्य धर्म के कानून के सहारे की जरूरत नहीं है। इस हेतु स्वतंत्र आदिवासी कानून संविधान में विद्यमान हैं।

आदिवासी बार-बार दुनिया के वृहद समाज वालों को कहता है कि प्रकृति ही परमेश्वर है। आज दुनिया में जितने भी अनाज के बीज जो प्रकृति ने बनाये थे, वह विलुप्त हो रहे हैं। चांवल, उड़द, बाजरा, मक्का जैसे अनेक अन्न तथा अन्य सब्जियों एवं फसलों के परम्परागत बीजों की हजारों प्रजातियां हमेशा-हमेशा के लिए विलुप्त कर दी गई हैं। उधर जड़ी बूटियों के पौधों की प्रजातिया भी धरती से विलुप्त हो रही हैं। समुद्र की मछलियों से लेकर पृथ्वी पर से चिड़िया व जंगली जानवरों की जातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। इधर धरती के हमारे पेट्रोलियम जैसे प्राकृतिक संसाधन सात पीढ़ियों के पहले ही खत्म हो जाने वाले हैं। कारखानों एवं वाहनों के धुआें के बढ़ोत्तरी के फलस्वरूप ओजोन परत के अप-क्षरण से माता आग को गोला बनने की ओर अग्रसर है। धरती पर कूलर का काम रकने वाले उत्तरी ध्रुव पर लाखों वर्षो से जमी हुई बर्फ पिघलने की गति प्रतिवर्ष तेज हो रही है।

इस संबंध में आज एक वैचारिक आंदोलन की आवश्यकता है। आंदोलन केवल आदिवासियों के अस्तित्व टिकाने का नहीं बल्कि पूरी मानव सभ्यता के अस्तित्व को बचाने का हैं देश-देश, धर्म-धर्म, जात-जात, वर्ग-वर्ग के टकराव के स्थान पर समन्वय बिठाने एवं संघर्ष टालने के लिए यह आंदोलन आवश्यक है। देश में विषम परिस्थितियां निर्मित हो रही हैं। देश दो भागों में बटता जा रहा है। पहला अमीर भारत एवं दूसरा रोजगारहीन, आवासहीन, कुपोषित, सिकलसेल एनीमिया, कारखाना जन्य सिलिकोसिस जैसी बीमारियों से ग्रस्त भारत । स्वास्थ्य सुविधाविहीन, शिक्षाविहीन, गांव, वतन, परिवार से विस्थापित नारकीय जीवन वालों एवं आत्महत्या करने वालों का भारत।

आदिवासियों पर अत्याचार व शोषण की सभी हदें पार हो गई हैं। लोक कल्याणकारी राज्य होने के बावजूद भी बड़ी-बड़ी घटनाआें के बारे में कोई भी आदिवासियों से पूछने को तैयार नहीं है। फिर यदि असंतोष के स्वर उठने लगते हैं तो उनकी आवाज को अनसुनी करने के लिए उन्हें नक्सली गतिविधि, जातिवादी आंदोलन, आतंकवादी या माहौल बिगाड़ने का षडयंत्र करार दिया जाता है।

हम मानते हैं कि ईसाई धर्म प्रचारकों ने भी आदिवासियों की संस्कृति में छेड़खानी की है। आदिवासियों की पहचान को मिटाने के कार्य भी जरूर हुए हैं। कुछ आदिवासी ईसाई धर्म में धर्मान्तरिक भी हुए हैं। परंतु शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनके सराहनीय कार्य हैं। किन्तु आदिवासियों को हिन्दु हैं कह कर ब्राह्मणवादी लोग उनसे जबरन ऊपर ब्राह्मणी संस्कृति का अनुसरण कराते हैं। इस कार्य को धर्मान्तरण की श्रेणी में क्यों नहीं लिया जाता ? आदिवासियों के बीच संस्कार या धार्मिक कार्यक्रम बताकर ब्राह्मणवादी लोगों द्वारा मंदिर निर्माण, मूर्तियों की स्थापना एवं देवी देवताआें के फोटो बांटे जाते हैं। आदिवासियों के पुराने परंपरागत देव स्थलों, देवी-देवताआें को नजर अंदाज किया या भुलाया जाता है। हिन्दु एवं ईसाई धर्म की आपसी धार्मिक प्रतिस्पर्धा में आदिवासियों को बुरी तरह से घसीटा जा रहा है। उसकी कीमत आज आम आदिवासी को चुकानी पड़ रही हैं। आदिवासी समाज धार्मिक राजनीति से भी आहत हो रहा है।

आदिवासी समाज को अपने निजी जीवनयापन के संसाधन जैसे जल, जंगल, जमीन और खनिज सम्पदा से बेदखल किया जा रहा है। वन विधेयक २००६ में भी आदिवासियों की आकांक्षाआें की आपूर्ति होने की गुंजाईश नहीं है। क्योंकि इसमें जंगल पर लोगों के सामूहिक (सामाजिक) अधिकार का कोई प्रावधान नहीं है। विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र के कानून द्वारा सामूहिक स्त्रोत जैसे जल, जंगल, जमीन और खनिज सम्पदा सरकार द्वारा ही सीमित विशिष्ट व्यक्तियों को उपलब्ध करवाई जा रही है। बड़े बांध, कारखाने, रेल्वे, हाइवे, रास्ते अभयारण्य, फिल्म शूटिंग एरिया ज्यादातर आदिवासी क्षेत्रों में ही स्थित हैं। इससे आदिवासियों में बेरोजगारी की समस्या खड़ी हुई हैं। जल, जंगल, जमीन व खजिन सम्पदा श्रमजीवियों को मुहैया कराये बिना और सुरक्षा प्रदान किये बिना इस समस्या का हल नहीं हो सकता है। भारत में ६९७ आदिवासी जातियों में से ५२ जातियां विलुप्त हो गई हैं। आदिवासी संस्कृति, इतिहास, जीवन मूल्य, कला और ज्ञान सिर्फ आदिवासी का ही नहीं बल्कि सारी मानव जाति की विरासत है। इसलिए आदिवासी पहचान बनाये रखना जरूरी है। आदिवासी क्षेत्र में ५वीं अनुसूचित की व्यवस्था संविधान में की हैं किंतु इसे आजादी से आज तक अमल में नहीं लाया गया। आदिवासी महिलाआें का दोहरा शोषण हो रहा है। सिर्फ आदिवासी समाज को ही स्पर्श करने वाली बीमारी सिकलसेल एनिमिया का फैलाव हो रहा है। आदिवासी लोग सबसे अधिक कुपोषण के शिकार हैं।

आदिवासी समाज की आकांक्षा है कि देश के सभी समाजों को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय, धर्म और संस्कृति के पालन की स्वतंत्रता हो तथा मानवप्रतिष्ठा और समानता तथा समाज के बंधुत्व भाव स्थापित हो। संविधान के उक्त उद्देश्य की प्राप्ति के आश्वासन का क्रियान्वयन हो। दुनिया में मानवों का अस्तित्व पारिस्थितिकीय संतुलन के साथ बना रहे। धरती हरी भरी बनी रहे। धर्मो पर पुनर्विचार होता रहे। मानव एक दूसरे के हित का सम्मान करें, ख्याल रखें। भाषायी, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, जैविक, प्राकृतिक विविधता विद्यमान रहे। ऐसे भारत का निर्माण होगा, तभी हमारे राष्ट्र निर्माताआें के सपने साकार होंगे। ***

प्रकाश व्यवस्था सुधारकर दस हजार करोड़ रु. बचा सकते हैं

पर्यावरण परिक्रमा

प्रकाश व्यवस्था सुधारकर दस हजार करोड़ रु. बचा सकते हैं

अगर देश में स्ट्रीट लाइट का कुशल प्रबंधन किया जाए तो १० हजार करोड़ रुपए से अधिक की राशि बचाई जा सकती है। इस राशि से १ हजार मेगावाट क्षमता वाले तीन बिजलीघर लगाए जा सकते है।

चण्डीगढ़ के प्रबुद्ध नागरिकों के समूह ने स्ट्रीट लाइट को लेकर अध्ययन के बाद एक रपट तैयार की है। नागरिकों की इस परिषद का सुझाव है कि मध्य रात्रि के बाद एक-एक पोल छोड़कर लाइट जलानी चाहिए अर्थात पचास मीटर के फासले की अपेक्षा सौ मीटर के फासले पर लाइट जलाई जाए। आधी रात के बाद सड़कों पर आवागमन कम हो जाता है। ऐसी हालत में सड़कों को अनावश्यक प्रकाशित करने के लिए कीमती बिजली बर्बाद नहीं की जानी चाहिए। यह बिजली बचाकर उद्योगों और खेतों की सिंचाई के लिए दी जा सकती है।

अगर समूचे चंडीगढ़ में नई प्रकाश व्यवस्था की जाए तो करीब आठ लाख रुपए खर्च आएगा। यह राशि सिर्फ १८ दिन में ही बिजली की बचत से वसूल हो जाएगी।

पिछली जनगणना के अनुसार भारत में ५१६१ कस्बे हैं। कुछ चंडीगढ़ से बड़े हैं और कुछ छोटे। चंडीगढ़ में नई व्यवस्था से प्रतिवर्ष २ करोड़ रुपए की बचत हो सकती है। इस तरह अन्य कस्बों में भी बिजली बचाई जा सकती हैं अर्थात कुल १० हजार करोड़ रु. की बचत होगी। इस राशि से एक हजार मेगावाट क्षमता के कम से कम तीन बिजलीघर बन सकते हैं।

इस नागरिक परिषद में चंडीगढ़ के प्रथम शिल्पज्ञ एमएन शर्मा, पंजाब के पूर्व मुख्य अभियंता एके उम्मठ के अलावा शिक्षाविद्, खिलाड़ी, वित्त विशेषज्ञ और अन्य सेवानिवृत्त वरिष्ठजन शामिल थे।

अभयारण्य में आग से शेरों की पुनर्वास योजना संकट में

एशियाई सिंहो के पुनर्वास के लिए आबाद की गई कूनो-पालपुर अभयारण्य परियोजना में आग से लगभग सौ वर्ग किमी का जंगल खाक हो चुका है। अभयारण्य में रहने वाले वन्यप्राणियों और वन संपदा के भारी तादाद में नष्ट होने की आशंका है।

गुजरात गिर के एशियाई सिंहो का पुनर्वास करने के उद्देश्य से वर्ष १९९५ में केन्द्र सरकार द्वारा प्रारंभ की गई १४ करोड़ की कूनो-पालपुर अभयारण्य परियोजना श्योपुर जिले में कूनो नदी किनारे एवं पालपुर वन क्षेत्र के १२४० वर्ग किमी क्षेत्र में अधिसूचित है। यहाँ गुजरात के सिंहो की अगवानी के लिए २४ ग्रामों को विस्थापित कर आवश्यक तैयारी पूर्ण कर ली गई है।

इसी कूनो नदी के किनारे का जंगल अभयारण्य का बफर जोन है, जिसमें पैदा होने वाली घास की फसल तथा महुआ व गोंद, चीड़ के वृक्षों की संख्या इतनी अधिक है कि कभी वह इस क्षेत्र में रहने वाले सैकड़ों परिवारों की आजीविका पूरे वर्ष चलाती थी। वर्तमान में इस जंगल में प्रवेश पाना बाहरी व्यक्तियों के लिए पूरी तरह से प्रतिबंधित है, लेकिन चोरी-छिपे वन संपदाआें से लाभ कमाने का क्रम बरकरार है।

पिछले दिनों प्रदेश के वन अभयारण्यों से जुड़े मामलों को लेकर भोपाल में बैठक संपन्न हुई। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की अध्यक्षता में बोर्ड ने निर्णय लिया था कि गुजरात से सिंह लाने के संबंध में बोर्ड भारत सरकार से पहल करेगा। मगर आग ने फिर इस योजना को खटाई में डाल दिया है।

चन्द्रयान अगले वर्ष अंतरिक्ष में जायेगा

चाँद पर भारत के पहले मानव रहित मिशन चंद्रयान एक के वैज्ञानिक उपकरणों और यान के विकास का काम अंतिम चरण मंे है। इसे अगले वर्ष निर्धारित समय पर अंतरिक्ष में छोड़ दिया जाएगा।

अंतरिक्ष विभाग ने संसद की स्थायी समिति को बताया कि चंद्रयान-एक को धरती से नियंत्रित करने के लिए बंगलोर में डीप स्पेस नेटवर्क स्थापित कर दिया गया है । अंतरिक्ष यान २००८ तक पूरी तरह तैयार हो जाएगा। समिति की संसद में पेश रिपोर्ट में कहा गया कि इस मिशन का मूल मकसद चाँद की पूरी सतह की त्रिआयामी तस्वीरें लेने के अलावा वहाँ मौजूद खनिजों एवं रसायनों का पता लगाना है।

चंद्रयान-एक को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के ध्रुवीय उपग्रह यान पीएसएलवी से प्रक्षेपित किया जाएगा। पीएसएलवी इसे पृथ्वी की २४० किलोमीटर गुणा २४०० किलोमीटर की कक्षा में स्थापित करेगा। बाद में यान खुद की प्रणोदक प्रणाली के बल पर चाँद से १०० किलोमीटर दूरी की ध्रुवीय कक्षा में पहुँच जाएगा।

प्रकृति प्रेमी ने बनाया पेड़ पर मकान

राजस्थान के उदयपुर मंे एक प्रकृति प्रेमी ने पेड़ पर सभी सुविधाआें से युक्त आलीशान मकान बनाकर सबको अचरज में डाल दिया है।

उदयपुर में नेशनल हाईवे से सटी चित्रकूटनगर कॉलोनी में बना यह मकान आम के पेड़ पर छ: वर्ष पूर्व केपी सिंह ने बनवाया था। आम का ७० वर्ष पुराना यह पेड़ कई शाखा-प्रशाखाआें से युक्त है। इसका तना ही ९ फुट की ठोस गोलाई लिए है इस पर सिंथेटिक फाइबर से बना तीन मंजिला मकान २८०० वर्गफुट में है। जिस जगह यह मकान बना है वहाँ पहले कुंजड़ों की विशाल बाड़ी थी। उस बाड़ी में चार हजार पेड़ थे। उन्हें कटवाने का २० लाख का ठेका था। श्री सिंह को जब इसका पता चला तो उन्होंने केवल पेड़ बचाने की सोची अपितु पेड़ और प्राणी के सनातन संबंध को चिरस्थायी बनाए रखने के लिए ट्री हाउस बनवाया। मकान बनाते समय पेड़ की टहनियों की किसी तरह काँट-छाँट नहीं की गई और न ही पत्तियों को ही क्षति पहुँचाई गई। यही कारण है कि आज भी इस पेड़ पर तोतों, गिलहरिया, कोयल, गिरगिटों तथा चिड़ियों के घोंसले हैं।

पेड़ पर बने इस मकान पर चढ़ने के लिए एक दस फुट ऊँची रिमोट चलित सीढ़ी का इस्तेमाल किया जाता है। रसोई में वृक्ष की डाल के सहारे काँच रखकर डाइनिंग टेबल बनाई गई है जिस पर पाँच व्यक्ति एक साथ भोजन कर सकते हैं। दूसरी मंजिल पर शयन कक्ष और पुस्तकालय है। इसमें एक ओर रस्सी का बना झूला है और पुस्तकें रखने की रेक की जगह है। तीसरी मंजिल पूर्णत: प्रकृति को आत्मसात किए है। इसमें पेड़ का सबसे ऊपरी सिरा हरीतिमा का आँचल ओढ़े है। छोटी-छोटी डालियाँ और उनके पत्तों की हवाखोरी की रौनक सर्वथा नए वातावरण का निर्माण करती है। इससे जुड़ा एक छोटा का कक्ष भी है। यह पूरा मकान वास्तु के अनुरूप बनाया हुआ है।

त्रिफला से हो सकेगा कैंसर का इलाज

वैज्ञानिकों ने आशा जताई है कि एक दिन भारतीय आयुर्वेदिक औषधि त्रिफला से पाचन ग्रंथी के कैंसर का इलाज किया जा सकेगा। पिटसबर्ग विश्वविद्यालय के कैंसर, संस्थान की एक टीम ने चूहों पर किए एक प्रयोग में पाया कि त्रिफला चूर्ण के इस्तेमाल से पैनक्रियाज यानी पाचन ग्रंथी में होने वाले कैंसर का बढ़ना कम हो जाता हैं।

अमेरिकन एसोसिएशन फॉर कैंसर रिसर्च में पेश अध्ययन से आशा जगी है कि एक दिन त्रिफला से इस रोग का इलाज भी हो पाएगा। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि अभी शोध अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही है। त्रिफला चूर्ण का भारत में सदियों से इस्तेमाल होता रहा है, यह आंवला, हरड़े और बहेड़ा नाम के तीन फलों को सुखाकर बनाया जाता है इसलिए इसे त्रिफला कहा जाता है।

आयुर्वेद के सिद्धांतो के अनुसार त्रिफला में जो तीन फल हैं वे शरीर में तीन अहम चीजों का संतुलन बनाए रखते हैं, ये तीन चीजें है - कफ, वात और पीत। त्रिफला का प्रयोग भारत में एक आम स्वास्थ्यवर्द्धक की तरह होता रहा है और इसे रोजमर्रा की बीमारियों के लिए बहुत प्रभावशाली औषधि माना जाता रहा है।

अध्ययनों में पाया गया है कि कोशिकाआें में त्रिफला कैंसर रोधी का काम करता है और अब चूहों पर किए अध्ययन से पता चलता है कि अग्नाशय को नुकसान पहुंचाए बिना त्रिफला बहुत ही असरदार है। मानव अग्नाशय के ट्यूमरों को चूहों में स्थापित किया गया और फिर हर हफ्ते में पांच दिन तक उन्हें त्रिफला खिलाया गया। चार हफ्तों बाद इन चूहों के ट्यूमर के आकार और प्रोटीन की मात्रा की ऐसे चूहों के साथ तुलना की गई जिन्हें त्रिफला नहीं दिया जा रहा था।

शोधकर्ताआें ने पाया कि त्रिफला दिए जाने वाले चूहों में ट्यूमर का आकार आधा हो गया अध्ययन टीम में शामिल प्रोफेसर संजय श्रीवास्तव का कहना था त्रिफला ने खराब हो चुकी कोशिकाआें को समाप्त कर दिया और कोई जहरीला प्रभाव छोड़े बिना ट्यूमर का आकार आधा कर दिया।

ब्रिटेन मंे कैंसर अनुसंधान के विज्ञान सूचना अधिकारी डॉ. एलसिन रॉस का कहना था, अग्नाशय कैंसर का इलाज बहुत कठिन है इसलिए इलाज के नए तरीके खोजने की जरूरत है, ये सब अभी तक प्राथमिक प्रयोग हैं त्रिफला को लेकर भविष्य में बहुत कुछ किए जाने की जरूरत हैं। ऐसा देखा गया है कि इलाज शुरू होने और मौत के बीच मात्र छह महीनें का फासला होता है। त्रिफला से शायद इस स्थिति को बदला जा सकेगा।

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