१२ बांधो के बाद
आधी शताब्दी से भटकते हीराकुण्ड बांध के विस्थापित
चिन्मय मिश्र
५० वर्ष पूर्व भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उड़ीसा स्थित हीराकुण्ड बांध का लोकार्पण किया था। सन् १९५७ में बने इस बांध से २४९ गांव के २६५०१ परिवार विस्थापित हुए थे। १.८३ लाख एकड़ का इलाका इसकी डूब में आया था जिसमें से १.२३ लाख एकड़ इलाका सिंचित था। इतना ही नहीं ५०००० भूमिहीन व्यक्तियों को भी जबरदस्ती यहां से हटाया गया था।
५० वर्ष पश्चात् जबकि एक नई सदी का प्रारंभ भी हो चुका है इस बांध के प्रभावितों ने गत दिवस उड़ीसा से झरसुगुडा, सम्बलपुर, बारगढ़ और सोनीपुर के जिला प्रशासनों के सामने प्रदर्शन कर अपनी पीढ़ा व्यक्त की। सरकार के अनुसार इन प्रभावितों को मात्र १ करोड़ ३६ लाख रुपये के करीब का मुआवजा देना है।
राज्य शासन अपने कुल व्यय का एक छोटा सा हिस्सा भी पिछले ५० वर्षो से इन बांध प्रभावितों को देने में असमर्थ रही है। इस घटना से पहला निष्कर्ष तो यह निकलता है कि सरकारें चाहे किसी भी दल की हों वे अंतत: आम व वंचित वर्ग का भला सोच ही नहीं सकतीं। उड़ीसा का हीराकुण्ड बांध तो एक उदाहरण भर है इस देश के राजनीतिक व प्रशासनिक तंत्र की विफलता या संवेदनशीलता का। इस बांध की स्वर्णजयंती समारोह मनाने या देश की इस महान उपलब्धि (?) पर डाक टिकट जारी करने में प्रभावितों को देय क्षतिपूर्ति से अधिक खर्च कर दिया जाएगा परंतु प्रभावितों के लिये बजट में प्रावधान करने के लिये दूसरे गृह के व्यक्ति का इंतजार किया जाना कभी समाप्त ही नहीं होगा।
यहां पर इस बात पर गौर करना भी आवश्यक है कि आजादी के बाद विस्थापन भारत की सबसे बड़ी मानव निर्मित त्रासदी है। पिछले साठ वर्षो में ४ करोड़ से अधिक भारतीय नागरिक विभिन्न कारणों से विस्थापन का शिकार हुए हैं। यह जनसंख्या गुजरात जैसे राज्यों की जनसंख्या से थोड़ी ही कम है। इतने बड़े पैमाने पर विस्थापन तो इजराइल जैसे देश के निर्माण के लिये भी नहीं हुआ है।
बात सिर्फ पूर्व निर्मित हीराकुंड या भाखड़ा नंगल या नागार्जुन सागर की नहीं है कि इनमें हुए विस्थापितों का पुर्नवास नहीं हो पाया। आज नर्मदा पर बने रहे सरदार सरोवर, इंदिरासागर, आेंकारेश्वर व इनके जेसे देश भर की नदियों पर निर्माणाधीन बांधो के विस्थापितों के लिये भी कोई सार्थक पुनर्वास नीति का निर्माण आजादी के बाद के ६० सालों में नहीं हो पाया है। नंदीग्राम में हुए खून-खराबे के पश्चात् हुइ्र विशेष आर्थिक क्षेत्र की नीति में परिवर्तन की घोषणा एक बार पुन: एकतरफा सिद्ध हुई है। अब तो सरकारें इतनी बेगैरत हो चली हैं कि वे इस बात की परवाह ही नहीं करतीं कि उनके बारे में आम जनता क्या सोचेगी।
घोषित नई नीति में विशेष आर्थिक क्षेत्र का क्षेत्रफल कम करने और जमीन का बलात् अधिग्रहण न किये जाने की बात कही गई है। परंतु ध्यान देने योग्य बात यह है कि सरकार ने एक बार पुन: पुनर्वास नीति की घोषणा किये बगैर इस नई नीति की घोषणा कर दी है। इससे आम जनता व प्रभावितों के अधिकारों पर सीधा कुठाराघात हुआ है। जब दो परिस्थितियां एक दूसरे की पूरक हों, ऐसे में किसी एक पर निर्णय लेने का क्या अर्थ है ?
केन्द्र सरकार विश्व में अपनी पूंजीवादी छवि को बरकरार रखने हेतु पुरी तरह से तत्पर नजर आ रही हैं। वह सारे विश्व को यह संदेश दे देना चाहती है कि उसकी संपूर्ण नीतियां पूर्णत: जन विरोधी होकर एक विशेष वर्ग को ही संबोधित हैं। सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों के साथ का अन्याय अभी ताजा ही था कि नंदीग्राम और सिंगुर का नासूर सबके सामने आ गया और अब इन दसियों विशेष आर्थिक क्षेत्रों के गठन से सारे देश में विस्थापन की महामारी फैल जाएगी। यह एक ऐसी महामारी है जिसे स्वयं इसके चिकित्सकों ने ही फैलाया है।
बात बांध से विस्थापन की हो या सेज से या खनन से या किसी भी अन्य गतिविधि से। पिछले ६० वर्षो से किसी व्यापक पुनर्वास नीति के अभाव में प्रभावितों के साथ लगातार अन्याय होता रहा है। यह बात कोई नई या पहली बार नहीं कही जा रही है। परंतु इस विशेष आर्थिक क्षेत्र की नई नीति की घोषणा ने तो सभी को इस बात से भौचक कर दिया हैइतनी असहमति के बावजूद शासक वर्ग अपनी मनमानी से बात नहीं आया। उसने पहले बजाय पुनर्वास नीति बनाने के एकबार पुन: आर्थिक व औद्योगित नीति को ही तवज्जो दी है।
केन्द्रीय सरकार को अपनी इस हठधार्मिता से बाज आना चाहिये। आज जबकि देश का प्रत्येक बुद्धिजीवी वो चाहे विशेष आर्थिक क्षेत्र का समर्थक हो या विरोधी, एक व्यापक पुनर्वास नीति की आवश्यकता से इंकार नहीं कर रहा है, तो ऐसे मे इस तरह के गैर जिम्मेदाराना कृत्य का क्या अर्थ हैं ? ***
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