गुरुवार, 31 मई 2007

जैव इंर्धन - भूखे को तेल की मार

हमारा भू-मण्डल

जैव इंर्धन - भूखे को तेल की मार

रोजमैरी बॉर

एक और विश्वभर में लाखों लोगों को खाद्यान्न की कमी के कारण भूखा रहना पड़ रहा है तो वहीं दूसरी ओर इस अनमोल खाद्यान्न का प्रयोग वाहनों के इंर्धन के रूप में किया जा रहा है। पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने की आड़ में जिस तरह से जंगलों और जैव विविधता को नष्ट किया जा रहा है उससे तो पृथ्वी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। संपन्न अब अपनी विलासिता के लिये समाज के बड़े तबके को भूखा मारने में भी झिझक नहीं रहा है।

तेल की बढ़ती कीमतों और पर्यावरणीय बदलावों के चलते सभी लोग जैव इंर्धन वाली फसलों की खेती की ओर आकर्षित हो रहे हैं। किंतु ऊर्जा का यह नया स्त्रोत अपने साथ भयंकर पर्यावरणीय और सामाजिक खतरे भी लेकर आरहा है।

पर्यावरण पर होने वाली बहसों में जैव इंर्धन नया जादुई शब्द है जिसका प्रचलन लगातार बढ़ता जा रहा है। अमेरिका, यूरोपीय संघ, ब्राजील और एशिया के विशाल क्षेत्र में अब करोड़ों की धनराशि निवेश करके अब बजाय खाने के वाहन चलाने के लिये मक्का, सोयाबीन, सरसों, गन्ना, पाम, आईल या गेहंू के जरिये एथनॉल और बायो-डीजल का उत्पादन किया जा रहा है। अर्थात सारे विश्व में बायो डीजल और बायो एथनॉल को खनिज तेल का विकल्प मान लिया गया है। आजकल औद्योगिक देशों से यह आशा की जा रही है कि वे पर्यावरण हितैषी मोटर वाहन बनाएं ताकि उन्हें साफ दिल से चलाया जा सके।

इंर्धन उद्योग की ओर से यह प्रचार किया जा रहा है कि यूरोपीय संघ के किसानों का भविष्य अनाज के लिये खेती करने में नहीं, जिसके दाम लगातार घटते जा रहे हैं, बल्कि इंर्धन के लिये खेती करने से उज्जवल होगा। जर्मनी के भूतपूर्व मंत्री रेनाटा कृनत्ज ने कहा हमारे किसान भविष्य के शेख हैं। हमारा उत्तरी पड़ौसी एक ऐसा कानून बनाने जा रहा है, जिसके तहत पेट्रोल में निश्चित अनुपात में बायो एथनॉल मिलना अनिवार्य होगा। किंतु इसका भी लाभ किसानों को मिलने वाला नही है। पहले की तरह वे खरीदी के एकाधिकार और खनिज तेल उत्पादक कम्पनियों के मूल्य निर्धारक महाजनों के चंगुल में फसें रहेंगे। आज भी यूरोप में इसका उत्पादन घरेलू मांग से कम है। इसकी पूर्ति करने के लिये दक्षिण अमेरिका, मलेशिया और इण्डोनेशिया से सस्ता पाम आईल और सोयाबीन तेल बड़े-बड़े जहाजों में भर कर यूरोप पहुंच रहा है।

जैव-इंर्धन की मांग बढ़ने के साथ-साथ इसकी खेती करने वाले ब्राजील, इण्डोनेशिया, मलेशिया, बोर्नियो और न्यू गुयाना जैसे प्रमुख देशों में इसके सामाजिक और पर्यावरणीय दुष्प्रभाव नजर आने लगे हैं। कई जगहों पर तो निर्यात के लिये की जाने वाली जैव इंर्धन की खेती की प्रत्यक्ष स्पर्धा खाद्यान्न की खेती से हैं। उदाहरणार्थ ब्राजील में गन्ने के तकरीबन २०० बड़े खेतों और एथनॉल के कारखानों ने गरीबों के लिये ऊपजाए जाने वाले धान, मक्का और फलियों के खेतों की जगह घेर ली है। फास्ट फूड इन्फॉरमेशन एण्ड एक्शन नेटवर्क के ग्रेट्रुड फाक चेतावनी देते हुए कहते हैं, कि जब अनाज इंर्धन बनकर गाडियों की टंकी में समा जायेगा तो स्वाभाविक है कि बहुत से लोगों के पेट खाली रहेंगे। उदाहरण के लिये भारत सरकार जैव इंर्धन को प्रोत्साहित करने के देशभर के अखबारों में पूरे-पूरे पन्नों के विज्ञापन छपवा कर बता रही है कि यह कार्यक्रम किसानों और देश की अर्थव्यवस्था को समृद्ध करने वाला है। जबकि शोचनीय तथ्य यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में भरपेट भोजन न पाने वालों की तादाद अफ्रीका से अधिक होने के बावजूद भारत यूरोप को अनाज निर्यात कर रहा है।

छोटे किसानों की बड़ी मुसीबत

विकासशील देशों में इंर्धन की खेती के लिये जमीन की ताक में रहने वाले दलाल छोटे किसानों से जमीन हड़प रहे हैं। परिणामस्वरूप पारंपरिक खेती और उसके स्वामित्व का स्वरूप समाप्त हो रहा है। इस बसंत में यूरोप के दौरे पर आये इण्डोनेशियाई पर्यावरण और मानवाधिकार निगरानी संगठन, स्वैट वॉच (पाम आईल वॉच) के प्रतिनिधियों ने बताया कि पारंपरिक समाज की विशिष्टता समाप्त हो रही है और भूमि विवाद बढ़ रहे हैं। तेल के लिये पाम (नारियल, ताड़, खूजर की प्रजाति का वृक्ष) के बगान लगाने के लिये उन्हें उनके पारंपरिक निवास स्थान आमतौर पर जंगल से बेदखल किया जा रहा है। सन् १९९९ से अब तक पाम के बागानों का क्षेत्रफल ३० लाख हेक्टेयर से बढ़कर ५० लाख हेक्टेयर हो गया है।

फलस्वरूप छोटे किसान और पट्टे पर खेती करने वाले बेघर-बेरोजगार होकर असंगठित क्षेत्र में रोजगार की तलाश में बड़े शहरों की झुग्गियों में आ बसते हैं। जो लोग पीछे छूट जाते हैं, वे रोजाना १२-१४ घण्टे मजदूरी करके जैसे-तैसे गुजारे लायक आमदनी पाते हैं या फिर मौसम के हिसाब से काम करने वाले अस्थाई मजदूरी बन कर रह जाते हैं।

वर्षा वनों का विनाश

इस खेती की कीमत पर्यावरण विनाश के रूप में भी चुकानी पड़ रही है। बार-बार एक ही फसल लेने (इसके लिये आमतौर पर पश्चिमी बैंकों से वित्तीय सहायता भी मिलती है) से मिट्टी की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है। रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक भूजल को जहरीला बना रहे हैं। पहले ही पानी की कमी से जूझ रहे खाद्यान्न की खेती करने वाले किसानों के बजाय निर्यात के लिये इंर्धन ऊपजाने वालों को पानी दिया जा रहा है। पिछले वर्ष इण्डोनेशिया और उसके पड़ौसी देशों के आकाश पर जो गाढ़ा धुंआ हफ्तों तक छाया रहा था के कारण राजनीतिक तनाव भी उभरने लगा था। इसे देखते हुए दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों के संघ (आसियान) ने पिछले साल अक्टूबर में एक आपात बैठक बुलाई थी। इण्डोनेशिया के राष्ट्रपति युधोयोनो ने पड़ौसी देशों से इस वायु प्रदूषण के लिये क्षमा भी मांगी थी। दरअसल पाम और सोयाबीन की खेती के लिये जमीन साफ करने के लिये बड़े पैमाने पर जंगल काट कर जलाए जाने से यह धुंआ आसमान पर छा गया था।

इसका एक अन्य दुष्प्रभाव जैव विविधता का समाप्त होना है। मीलों तक फैले एक ही फसल (पाम) के बागानों को इण्डोनेशियाई लोगों ने औद्योगिक जंगल का नाम दिया है। सुमात्रा और बोर्नियों में तो जंगल साफ करने की वजह से औरांग उटान, जंगली हाथी और बाघ की अत्यन्त दुर्लभ प्रजातियां प्राकृतिक आवास समाप्त होने की वजह से लुप्त होने की कगार पर है। ब्राजील में भी सोयाबीन और गन्ने की खेती के लिये लाखों हेक्टेयर वर्षावन काट दिये गये हैं। गतवर्ष ब्राजील की पर्यावरण संरक्षण संगठन फुकोनाम ने प्रकृति के इस निर्मम शोषण की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास की किया था । नवम्बर २००५ में संघीय प्रान्त माटो ग्रोसो डुसुल में हुए प्रदर्शन के दौरान फुकोनाम के अध्यक्ष अन्सेमलो डे बार्नस ते हताशा प्रकट करते हुए आत्मदाह तक कर लिया था।

जैव इंर्धन के बढ़ते उत्पादन से विश्व के लगभग ८० करोड़ वाहन मालिकों और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले २ अरब लोगों के बीच एक खतरनाक स्पर्धा भी प्रारंभ हो रही है। इस नव उपनिवेशवादी दौर में हम अपने वाहन दौड़ने के लिये निर्धनतम लोगों से दो जून रोटी तक छीन रहे हैं। यह कदम अंतत: हमारे समाज की संरचना को बिगाड़ देगा।

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