गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015




प्रसंगवश
नर्मदा को गंगा-यमुना होने से बचाये
मेधा पाटकर, नर्मदा बचाओ आंदोलन, बड़वानी (म.प्र.)
नर्मदा भक्ति की ऊर्जा (मध्यप्रदेश) में नर्मदा किनारे के गांवों में देखते ही बनती है । नर्मदा की परिक्रमा से पंचकोसी यात्रा तक, हर पारंपरिक कार्य में नदी और समाज का जुड़ाव अहम माना गया है । ऐसी पैदल यात्राएं नर्मदा भक्तों को केवल नदी की पूजा करने के बदले गांव-गांव पहुंचने की प्रेरणा देती हैं और हजारों हजार महिला-पुरूष उन्हीं के द्वारा नदी घाटी के गांवों की स्थिति, संस्कृति और प्रवृत्ति को जानते हुए, उनसे रिश्ते बनाते हुए आगे बढ़ते है । 
इन सबके बीच मुझ्े महसूस हो रही है एक विडंबना । कल-कल बहती नर्मदा जब आज जगह-जगह खाली है ओर उसका पानी प्रदूषित हो रहा है । कहीं सरदार सरोवर, कहीं इंदिरा सागर तो कहीं रानी दुर्गाबाई - इन बड़े बांधों के जलाशयों में डाली गई नर्मदा न अपने किनारे बसे बच्चें को, न अपनी जुडवां बहन जैसी भूमि को और न ही अपने पानी को बचा सकती है । लाखों-लाख पेड़, मकान, आवासों के साथ यहां के दसवीं से बारहवीं सदी तक के मंदिर, घाट और धर्मशालाएं, मस्जिदें - ये सब डुबाए जाएंगे तो खेती और फलोद्यान भी इस सबसे ऊपजाऊ भूखंड के साथ-साथ खत्म होंगे । 
सबसे गंभीर हकीकत है सरदार सरोवर की । आज भी १२२ मीटर की ऊंचाई वाले बांध के डूब क्षेत्र में हजारों परिवार बसे हैं । वजह है पूनर्वास में हुआ भ्रष्टाचार । करीबन १२००० लोग जमीन के साथ पुनवर्सित होने थे । ऐसे परिवारों में से केवल५० परिवारों को राज्य (मध्यप्रदेश) में जमीन दी गई है । जमीन के बदले पैसा बांटने की योजना में भी कम गड़बड़ियां नहीं हैं । १५०० परिवारों को आधा ही पैसा मिला और इसलिए वे जमीन नहीं खरीद पाए हैं । कुछ हजार परिवारों को गुजरात में जमीन मिली है, लेकिन उनमें से भी सैकड़ों डूब क्षेत्र में ही हैं । आज बांध की पूरी ऊंचाई तक गेट लगाने वाला शासन अच्छी तरह जानता है कि २.५ लाख लोगों वाले जीवित गांवों को डुबोना न केवल जलवायु परिवर्तन लाएगा । किसानी संस्कृति पर बांध के रूप मेंहुआ यह बाजार का हमला घातक और हिंसक ही साबित हो रहा है । 
सवाल है कि नर्मदा की पूजा करते हुए उससे अपनी संस्कृति बांध कर सादगी भरी जिंदगी जीने वालों को क्या मां नर्मदा मौत से बचाएगी ? विकास केनाम पर जिन की बलि चढ़ाने का फैसला कर लिया गया है । 

सर्वोच्च् न्यायालय की नवाचारी पहल 
पिछले दिनों सर्वोच्च् न्यायालय ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में ठोस कदम उठाते हुए नवाचारी पहल की है, जो सराहनीय और प्रेरणादायी है । 
न्यायालय ने अपनी कार्य प्रणाली में पर्यावरण मित्र कदम उठाते हुए १ फरवरी २०१५ से दो महत्त्वपूर्ण काम प्रारंभ किये हे जिनके परिणाम स्वरूप हर साल २१०० पेड़ों को कटने से बचाया जा सकेगा । पहला काम यह है कि फैसले की छापी जानेवाली प्रतियों की संख्या घटेगी । अब किसी भी फैसले की १४,१६ या १८ प्रतियां ही छपेगी जो अब तक ८० छपती थी । दूसरा बड़ा काम यह होगा कि रोजाना के मामलों की जानकारी देने वाली ११ तरह की प्रकरण सूची का प्रकाशन बंद कर इसे नेट पर ऑन लाईन देखा जा सकेगा । 
पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से इन दोनों कदमों के दुरगामी परिणाम होंगे । सर्वोच्च् न्यायालय में हर साल औसत ७५० फैसले घोषित होते है, एक फैसला करीब १५० पृष्ठों का होता है, इस प्रकार ९ लाख पृष्ठों का कागज बचेगा, इसको बनाने में करीब १२०० पेड़ कटने से बचेंगे । न्यायालय में दैनिक प्रकरण सूची करीब १०० पृष्ठों की होती है, एक सूची की ३३९ प्रतियां तैयार होती थी, इसमें ३३,९०० पृष्ठ कागज खर्च होता था, इस को बनाने में ९०४ पेड़ों की जरूरत होती थी । 
इस प्रकार करीब २१०० पेड़ कटने से बचेंगे, कागज बनने में लगने वाला पानी, छपाई में लगने वाली स्याही, बिजली ओर मानव श्रम भी    बचेगा । यह तो पर्यावरण की बात हुई लेकिन प्रशासनिक दृष्टि से देखें तो न्यायालय को इस प्रक्रिया में आनेवाले खर्च की राशि २ करोड़ रूपयों की बचत    होगी । अब राज्यों के उच्च् न्यायालयों और जिला न्यायालयों से भी इस दिशा में पहल की उम्मीद करनी चाहिये । जिससे सारे देश में पर्यावरण मित्र न्याय व्यवस्था कायम हो सकें । 
सामयिक
विदेशी निवेश की मृग मरीचिका 
भारत डोगरा 
भारत में विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए अकल्पनीय प्रयास किए जा रहे हैं । इस दौड़ में हमारे प्रधानमंत्री स्वयं को एक रॉकस्टार के रूप में स्थापित करने का जोखिम तक उठा रहे हैं । हमें याद रखना होगा कि आर्थिक जगत का मनोरंजन से कोई लगाव नहीं है क्योंकि उसके लिए मनोरंजन आज का सबसे बड़ा व्यवसाय है ।
भारत सरकार ने हाल ही में ऐसे कई बदलाव लाने के लिए निर्देश दिए हैं जिससे विभिन्न विदेशी कंपनियांे को लगे कि देश में व्यवसाय करने की स्थितियां अधिक आकर्षक हो गई हैं । विश्व बैंक द्वारा एक ऐसी सूची तैयार की जाती है कि विभिन्न देशांे में कंपनियों के लिए कितनी बेहतर स्थितियां उपलब्ध हैं । भारत सरकार चाहती है कि इस सूची में भारत का स्थान काफी आगे आ जाए। 
इसके लिए वित्त मंत्रालय को पन्द्रह कार्य दिए गए हैं जो उसे ३१मार्च २०१५ तक पूरे करने हैं । साथ में कार्पोरेट मंत्रालय को भी २२ कार्य दिए गए हैं जो उसे ३० अप्रैल २०१५ तक पूरे करने हैं । इनमें से कुछ कार्य वास्तव में जरुरी भी हो सकते हैं । परंतु कुल मिलाकर स्थितियां ऐसी बन रही हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए अधिक सुविधाएं जुटाने को विशेष महत्व दिया जाएगा । 
विदेशी निवेश को लुभाने के लिए पर्यावरण की रक्षा के लिए जरुरी कई नियमों को बदला जा रहा है और भूमि अधिग्रहण कानून को भी कार्पोरेट हितों के अधिक अनुकूल बना दिया गया है । श्रम कानूनों में भी बदलाव किये गए हैं । इस संदर्भ में यह सवाल उठाना जरूरी है कि   भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियोंका आगमन व विदेशी निवेश को बढ़ावा देना क्या इतना जरूरी है कि उसके लिए हम अपने मूलभूत नियम-कानून तक बदल दें ? हाल में जारी विज्ञापनों में केन्द्र सरकार ने दावा किया है कि पिछले ४ वर्षों में ही भारत में १७५ अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ है । इसके अतिरिक्त यह जानकारी भी दी गई है कि भारत को अब तक जितना प्रत्यक्ष विदेशी निवेश प्राप्त हुआ है उसका ९४ प्रतिशत पिछले एक दशक में यानि वर्ष २००३-२०१३ के दौरान प्राप्त हुआ है ।
इस जानकारी से इतना तो स्पष्ट है कि भारत में हाल के वर्षों मेंविदेशी निवेश तेजी से बढ़ा है । परंतु यह सवाल भी है कि इस तेजी से बढ़ते विदेशी निवेश का देश पर जो असर हुआ है वह हमारे देश के लोगों के कितने हित में है या उनके हित में है भी या नहीं । इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें अधिक विस्तार से यह जानना पड़ेगा कि देश में किस तरह का विदेशी निवेश हुआ है, किस तरह की परियोजनाओं में निवेश हुआ है और यह परियोजनाएं क्षेत्र के विकास को किस दिशा में ले जा रही हंै ?
ऐसी परियोजनाएं विशेष चिंता का विषय हैं जो स्थानीय, खासकर ग्रामीण व आदिवासी समुदायों के प्राकृतिक संसाधन के आधार को छीनती हैं या उन्हें क्षतिग्रस्त कर देती हैं। अधिकांश आदिवासी समुदायों के जीवन व आजीविका का आधार उनके आसपास के प्राकृतिक संसाधन हैं। जल्दबाजी में व ऊंची प्राथमिकता देकर लाया गया विदेशी निवेश जिनमें खनन संबंधी व औद्योगिक परियोजनाएं शामिल हैं,यदि जल, जंगल, जमीन व समुदायों के        अधिकार छीन लें या इन प्राकृतिक संसाधनों को बुरी तरह क्षतिग्रस्त करती हैंतो ऐसे विदेशी निवेश को देशहित में कैसे माना जा सकता है? 
इसके अतिरिक्त  हमें यह देखना पड़ेगा कि इसे आकर्षित करने के लिए कैसी सुविधाएं दी जा रही हैंऔर उन्हें क्या आकर्षण दिया जा रहा है । कहीं ऐसा तो नहीं है कि विदेशी निवेशकों को खनिज या कच्च्े माल बहुत सस्ते में दिए जा रहे हैं। या उन्हें खुश करने के लिए उन्हें बहुत कर माफी दी जा रही है, जिससे देश के खजाने को क्षति पहंुच रही   हो ? विदेशी कंपनियों की कर चोरी या अन्य भ्रष्टाचार की ओर से आंखें तो नहीं मूंदी जा रही हैं? उन्हें तुष्ट करने के लिए मजदूरों के अधिकारों को कम किया जा रहा है व पर्यावरण के नियमों की अवहेलना की जा रही है । 
यदि यह सब हो रहा है तो निश्चय ही इसमें देश की भलाई नहीं अपितु क्षति है । साथ-साथ यह भी देखना होगा कि विदेशी निवेश से कुल कितना मुनाफा देश के बाहर भेजा जा रहा है । एक अन्य विचारणीय सवाल यह है कि विदेशी निवेश में जो तकनीकें व तौर-तरीके अपनाए जाते हैं उनमें कितने व किस प्रकार के रोजगार सृजित होते हैं। श्रम-सघन तकनीकों की जो प्राथमिकता हमारे देश में है, विदेशी निवेश उसके अनुकूल हैंकि नहीं ? साथ ही साथ इस पर भी पैनी नजर रखने की जरूरत है कि जिन क्षेत्रों में विदेशी निवेश हो रहा है वह अधिक प्रदूषण फैलाने मंे तो नहीं जुटे हैं।
अंत में यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि कथित विदेशी पूंजी से देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती या स्थिरता मिल रही है, या `हाट मनी` की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यानि विदेशी निवेश यदि सिर्फ मुनाफे की तलाश में तेजी से आ जा रहा है तो इससे अर्थव्यवस्था में मजबूती नहीं आती है अपितु उसकी अस्थिरता बढ़ती है । इन सब मुद्दों को ध्यान में रखकर ही कहा जा सकता है कि विदेशी निवेश का चरित्र क्या है एवं ऐसा निवेश देश के हित में है या   नहीं । 
हमारा भूमण्डल 
निवेश संधियों से बढ़ते जोखिम 
केविन पी गाल्लाधेर
उभरती और विकासशील देशों को अर्थव्यवस्था को अपने अधीनस्थ रखने की कवायद में महाकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा मिली सफलता से अभिभूत हो अमेरिका टीटीआईपी के माध्यम से अब युरोपीय एवं विकसित देशों की सरकारों को अपनी कंपनियों के अधीन लाने का प्रयास कर रहा है । जर्मनी ने इस चालबाजी को समझ कर विरोध करना प्रारंभ कर दिया   है । 
जर्मनी एवं यूरोप के बाकी देशों ने अमेरिका के साथ ट्रांस अटलांटिक व्यापार एवं निवेश भागीदारी (टीटीआईपी) के अन्तर्गत बड़े पैमाने पर व्यापार एवं निवेश समझौतो पर बातचीत के दौरान इस पर हस्ताक्षर करने पर यह कहते हुए सवाल उठाए हैंकि उनकी सरकारंे किन आधारों पर निजी निवेशकों को यह अनुमति दे दें जिससे कि नए नियमन के तहत उन्हें अपनी आर्थिक समृद्धता को प्रोत्साहित करने के  लिए संबंधित सरकारों पर मुकदमा दायर करने की अनुमति मिल    जाए । वैसे उभरते हुए बाजारों एवं विकासशील देशों के लिए यह समाचार पुराना हो चुका है क्योंकि वे अपने नागरिकों के विकास के  लिए मानव अधिकार नीतियों एवं पर्यावरण संरक्षण के मसले पर अपनी सरकारों के विरुद्ध कारपोरेट जगत की कानूनी मार पहले ही झेल चुके  हैं। एक ओर युरोप इसमें निहित कमियों के चलते अमेरिका के साथ इस सौदे की लागत एवं लाभों पर विचार कर रहा है तो दूसरी ओर इस दिशा में पहल करने वाले दक्षिण अफीका एवं इक्वाडोर जैसे देश इस मामले मंंे सन्तुलित रहने का पाठ  पढ़ा रहे हैं। 
दक्षिण अफीका और इक्वाडोर दोनों में पूर्व में अति दक्षिणपंथी सरकारें रहीं हैंजो कि विदेश केद्रित कुलीनतंत्र के पक्ष में  थीं । इस शताब्दी की शुरुआत में दोनों ही देशो में इन सरकारों का तख्तापलट हो गया और ऐसी सरकारों की स्थापना हो गई जो कि विगत में व्याप्त असमानताओं को दूर करने के साथ अपने-अपने देश को व्यापक आधार केद्रित समानतावादी समृद्धि की ओर ले जाने को तत्पर थीं । लेकिन इनके साथियों को अब इस बात की चिंता सता रही है कि दक्षिण अफ्रीका और इक्वाडोर में नई सरकारों के पदग्रहण कर लेने के  पश्चात कहीं ये सरकारेंविश्व के े निवेशकर्ताओं यानि ''दक्षिणपंथियों'' को यह संकेत न भेज दें कि उनके लिए व्यापार के द्वार खुले हैं । इससे नांव के मझधार में डूबने का खतरा बढ़ जाएगा । 
दोनों देशों के समक्ष रहस्योद्घाटन हुआ है कि उन्होने ऐसी संधियो पर हस्ताक्षर कर रखे हैं जिनके अंतर्गत इस बात की अनुमति मिली हुई है कि उन्हें गुप्त ट्रिब्युनलों के समक्ष जवाबदेह ठहराया जा सकता है और इसके परिणामस्वरूप जिस समाज को वे उसका न्यायोचित हक दिलवाना चाहते है उसकी नींव ही दरक जाएगी । पिछले कुछ दशकों के दौरान यदि विकासशील देशों ने अमेरिका या किसी युरोपीय देश के  साथ संधि पर हस्ताक्षर किए हैंतो वह अत्यधिक सूक्ष्म निरीक्षण में है । दूसरी ओर यदि यह देश महज विश्व व्यापार संगठन के सदस्य हैं, तो वहां पर केवल एक राष्ट्र ही दूसरे राष्ट्र के खिलाफ मामला दायर कर सकता  है । परन्तु विकासशील देशों के साथ अक्सर ऐसे समझौते नहीं होते और निजी कंपनियों को सीधे सरकार पर मुकदमा दायर करने की अनुमति होती है । 
दक्षिण अफ्रीका में विदेशी निवेशकों को आकर्षक खनिज क्षेत्र को लेकर सरकार के विरुद्ध मुकदमा चलाने के लिए अधिक समानता वाली धारा में कुछ कमियां पकड़ में आई । दक्षिण अफ्रीका में अब आवश्यकहै कि ऐसी कंपनियों का आंशिक स्वामित्व ''ऐतिहासिक रूप से लाभ से वंचित व्यक्तियों`` के पास हो । इक्वाडोर में विदेशी निवेशकों ने उन नए पर्यावरणीय नियमों के आधार पर देश पर हमला बोला जिसके अन्तर्गत विदेशी फर्मों को अपने कार्य ठीक से करने के  लिए बाध्य किया गया था । यह नियम है कि उन स्थानीय एवं देश समुदायों के साथ मिलकर कार्य करना जिनका लंबे समय से शोषण किया जा रहा था ।
विदेशी फर्मों द्वारा अश्वेतों के सशक्तिकरण संबंधित कानून पर हमला किए जाने के पश्चात, दक्षिण अफीका की सरकार ने एक प्रक्र्रिया प्रारंभ की है। इसके अंतर्गत सभी भागीदार प्रत्येक द्विपक्षीय निवेश संधियों की समीक्षा करेंगे । सरकार का यह निष्कर्ष था कि ये संधियां उस नए संविधान के तारतम्य में नहीं हैं जिसका कि लक्ष्य है मानव अधिकारों की पुर्नस्थापना एवं दक्षिण अफ्रीका नागरिकों के लिए रोजगार के  अवसरो में बढ़ोत्तरी करना । समीक्षा में पाया गया कि द्विपक्षीय निवेश नीतियां संवैधानिक रूपांतरण के  एजेंडे को लागू करने की राह में सरकार की क्षमता के सामने जोखिम एवं सीमाएं प्रस्तुत कर रही हैं। 
समीक्षा के पश्चात दक्षिण अफ्रीका की सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची कि द्विपक्षीय निवेश नीतियां अब बेकार हो चुकी हैंऔर जनहित में नीतियां बनाने की दिशा में जोखिम बढ़ाती जा रही हैं। इस आधार पर सरकार ने हाल ही में अनेक द्विपक्षीय निवेश नीतियों को रद्द करने की दिशा में कदम उठाया है। दक्षिण अफ्रीका अभी भी विदेशी पंूजी के जाल में फसा हुआ है । वह अत्यन्त सावधानीपूर्वक इन संधियों से अपने को अलग करते हुए पुन: नए समझौते के लिए भी तैयार है । 
आक्सीडेंटल एवं अन्य कंपनियां इक्वाडोर के नए संविधान से टकराहट पर हैंजिसके अन्तर्गत वह अतीत की असमानताओं को दूर करना चाहता हैंएवं अपने देश निवासियों के साथ बेहतर व्यवहार करते हुए अपनी समृद्ध परिस्थितिकी का संरक्षण करना चाहता है ।
यह दोनो ही देश अत्यन्त सुद्धढ़ नैतिक एवं आर्थिक आधार पर खड़े हैं। दोनो ही देशों में ऐसी सत्ता रही है जिसने कटु अतियों एवं अन्यायमूलक असमानता के बल पर शासन किया था । दूसरा यह कि इन व्यापार एवं निवेश नीतियों ने वह लाभ नहीं पहुंचाए जिनका कि उन्होने वायदा किया था । इस तरह की संधियां दावा करती हैंकि इनके माध्यम से अधिक मात्रा में विदेशी निवेश आएगा और आर्थिक विकास में तेजी आएगी । जबकि अधिकांश आर्थिक विश्लेषकांे का मत है कि इस तरह की संधियों से वैसे तो विदेशी निवेश आता ही नहीं है और यदि आता भी है तो यह आवश्यक नहीं है कि आर्थिक वृद्धि से तालमेल बैठ पाए । 
ब्राजील एक ऐसा देश है जिसने इन संधियों पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया है लेेकिन इसके बावजूद वहां विकासशील देशों में दूसरा सर्वाधिक विदेशी निवेश हुआ  है । संयुक्त राष्ट्र की व्यापार एवं विकास सम्मेलन की नवीनतम रिपोर्ट ने यह स्थापित कर दिया है कि निवेश संधियां विदेशी निवेश आकर्षित करने मे बहुत मददगार साबित नहीं हुई हैं। इसके अतिरिक्त पीटरसन इंस्टिट्यूट फॉर इंटर नेशनल लईकॉनामिक्स के नए शोध में यह सुनिश्चित किया है कि यदि विदेशी निवेश किसी देश मंे आया भी हो तो यह आवश्यक नही कि वह आर्थिक वृद्धि में सहायक होेगा । 
वस्तु स्थिति यह है कि अनेक मामलों मे विदेशी फर्मो ने ऐसे व्यापार में धन लगाया जिससे स्थानीय लोगोंे का रोजगार छिन गया और उसका नकारात्मक प्रभाव    पड़ा । दक्षिण अफ्रीका और इक्वाडोर दोनो के द्वारा इन नीतियों का पुर्नमुल्यांकन किए जाने के बावजूद उनकी स्थिति मजबूत बनी रही हैंठीक ऐसा ही जर्मनी एवं अन्य यूरोपीय देशों के साथ भी होगा । हाल के वर्षों में इक्वाडोर की '' क्रेडिट रेंटिंग'' में जबरदस्त सुधार हुआ है । 
वैश्विक आर्थिक प्रशासन और वैश्विक पंूजी बाजारों ने भी यह महसूस करना शुरु कर दिया है कि राष्ट्रीय सरकारो के ऊपर निजी पूंजी को वरीयता देने से लाभ के बजाए राजनीतिक व आर्थिक संकट अधिक पैदा होंगे । जर्मनी और यूरोप के उसके जोड़ीदार देशों को चाहिए कि इस दिशा में पहल करें और यह सुनिश्चित कराएं कि टीटीआईपी केवल बाजार पूंजीवांद एवं और अपने नागरिकांे के कल्याण की दिशा में  ही कार्य करे । 
विशेष लेख 
ब्रांडेड जेनेरिक दवाइयों का मायाजाल 
डॉ. इंजेती श्रीनिवास
भारत का दवा बाजार इस मायने में अनूठा है कि यहां ब्रांडेड जेनेरिक्स की भरमार है । इन्हें मूल्य में फायदा मिलता है हालांकि औषधीय असर की दृष्टि से ये तथाकथित अन-ब्रांडेड जेनेरिक दवाइयों से कदापि बेहतर नहीं     होती । 
ब्रांडेड जेनेरिक्स की आक्रामक बिक्री की वजह से दवाइयों की कीमतें बढ़ी हैं, बेतुके औषधि मिश्रणों का बढ़ावा मिला है और उद्योग में केन्द्रीकरण में वृद्धि हुई है । वक्त आ गया है भारत जेनेरिक दवाइयों की ब्रांड-मुक्ति की ओर कदम बढ़ाए । 
जेनेरिक दवाइयों ने दुनिया भर में दवाइयों को किफायती बनाने में योगदान दिया है । कारण यह है कि जेनेरिक दवाइयों के साथ जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा भी आती है । ब्रांड नाम वाली दवा को तो व्यापारिक पेटेंट के तहत सुरक्षा मिली होती है कि पेटेंट धारक ही इसे बेच सकेगा । दूसरी ओर, मूल-पेटेंट की अवधि समाप्त् होने के बाद जेनेरिक दवाइयों का उत्पादन और विपणन कई प्रतिस्पर्धियों द्वारा किया जाता है । ये मूल कीमत से काफी कम कीमत पर बेची जाती हैं । इस तरह से उपभोक्ताआें को फायदा मिलता है । 
फार्माकोपिया में जेनेरिक दवा में वही सक्रिय औषधि घटक (एपीआई) होते हैं जो मूल दवा में हुआ करते थे । जेनेरिक दवा की खुराक, शक्ति, असर व उपयोग भी ठीक मूल दवा की तरह होता है । संयुक्त राज्य अमेरिका में १९९६ से २००७ के बीच खाद्य व औषधि प्रशासन द्वारा स्वीकृत दवाइयों के २०७० अध्ययनों से पता चला था कि जेनेरिक दवाइयां मूल दवाइयां के टक्कर की ही थीं । इन अध्ययनों में विभिन्न औषधियों की जैविक समतुल्यता का आकलन किया गया था । भारत में भी स्थिति इससे अलग नहीं है । सारी दवाइयां, जेनेरिक संस्करण समेत, पर एक समान वैधानिक शर्ते, निरीक्षण व अनुमोदन व्यवस्था लागू होती हैं । 
सारे निर्माताआें को औषधि व प्रसाधन कानून १९४० की अनुसूची एम में निर्दिष्ट उत्पादन के अच्छे कामकाज का पालन करना पड़ता   है । सभी को लेबलिंग व गुणवत्ता के एक जैसे मानकों का पालन करना पड़ता है और सभी को उत्पादन व बिक्री के लायसेंस प्राप्त् करना पड़ते  हैं । जब यह पाया जाता है कि कोई दवा फार्माकोपिया के निर्देशों के अनुरूप नहीं है या गुणवत्ता की दृष्टि से फार्माकोपिया के मानकों पर खरी नहीं उतरती है, तो उसे अमानक दवा घोषित किया जाता है और उसे बाजार में बेचने की अनुमति नहीं मिलती   है । 
स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा अमानक दवाइयों के एक अध्ययन (२००९-१०) में दवाइयों के २४,१३६ नमूनां में से मात्र ११ यानी मात्र ०.०४६ प्रतिशत गुणवत्ता की जांच में असफल हुए  थे । इसी प्रकार २००१-०८ के बीच प्रांतीय औषधि नियंत्रक द्वारा किए गए अध्ययनों में महज ०.३-०.४ प्रतिशत नमूने ही अमानक पाए गए थे । इसी प्रकार से हाल ही में विशेषज्ञों के एक दल ने जन औषधि समेत विभिन्न जेनेरिक दवाइयों की कीमतों व गुणवत्ता की तुलना की थी । देखा गया कि जेनेरिक दवाइयां पहचान, वजन में एकरूपता, विश्लेषण, पदार्थो की एकरूपता और घुलनशीलता के लिहाज से ब्रांडेड जेनेरिक के समतुल्य थी । अर्थात यह आम धारणा गलतफहमी पर आधारित है कि अन-ब्रांडेड जेनेरिक दवाइयां घटिया गुणवत्ता की होती है । इसीलिए अधिकांश देश जेनेरिक दवाइयों को बढ़ावा देने के लिए कदम उठाते हैं, क्योंकि वे कीमत की दृष्टि से भी फायदेमंद है और असर की दृष्टि से भी । 
जेनेरिक की किस्में -
आम तौर पर जब किसी बांड नाम वाली दवा को पेटेंट समाप्त् हो जाता है, तो कठोर प्रतिस्पर्धा के चलते शुरू-शुरू में उसका बाजार मूल्य ३०-४० प्रतिशत और अंतत: ९० प्रतिशत तक कम हो जाता है । यूएस का दवा बाजार दुनिया में सबसे विशाल है । यह बाजार लगभग ३२.५ अरब डॉलर का है, जो विश्व के दवा बाजार का एक-तिहाई है । यूएस का दवा बाजार जेनेरिक के मामले में भी अग्रणी है - बिक्री की मात्रा के हिसाब से ८४ प्रतिशत और बिक्री की रकम की दृष्टि से मात्र २८ प्रतिशत जेनेरिक दवाइयां है । युरोपीय संघ तथा आर्थिक विकास व सहयोग संगठन के कई अन्य देशोंमें भी ऐसी ही स्थिति है । इन देशों में जेनेरिक प्रतिस्पर्धा के चलते दवाइयों पर वास्तविक खर्च कम होता जा रहा    है । 
इसके विपरीत, भारत के ८०,००० करोड़ रूपए के घरेलू दवा बाजार में जेनेरिक का हिस्सा मात्र ८ प्रतिशत है । बाजार में तथाकथित ब्रांडेड जेनेरिक्स (९० प्रतिशत) का बोलबाला है । यह स्थिति भारत में ही नजर आती है । हमारे देश के बाजार में अन-ब्रांडेड जेनेरिक्स और ब्रांड नाम से बिकने वाली या पेटेंटशुदा दवाइयों का हिस्सा बहुत ही कम है, दोनों का हिस्सा तकरीबन १-१ प्रतिशत होगा । 
ब्रांडेड जेनेरिक्स और अन-ब्रांडेड जेनेरिक्स (जिन्हें ट्रेड जेनेरिक्स भी कहते हैं) के बीच अंतर का संंबंध दरअसल उनकी मार्केटिंग की रणनीति से है । जहां ब्रांडेड जेनेरिक्स की बिक्री डॉक्टर-चालित या डॉक्टरी पर्चीसे तय होती है वहीं ट्रेड जेनेरिक्स की बिक्री फुटकर व्यापारी यानी केमिस्ट के नियंत्रण में होती है । ब्रांडेड जेनेरिक्स की तुलना में ट्रेड जेनेरिक्स काफी सस्ते होते हैं, क्योंकि दवा कंपनियां सीधे-सीधे प्रमोशन पर खर्च नहीं करती बल्कि खेरची विक्रेता को ज्यादा मार्जिन देती हं ताकि वह बिक्री बढ़ाने में दिलचस्पी ले । सुविधा की दृष्टि से हम इन दो को एक साथ रख सकते हैं क्योंकि दोनों ही अपने-अपने ब्रांड नाम से बेची जाती हैं । 
विडंबना यह है कि कई प्रतिष्ठित दवा कंपनियां एक ही दवा के ब्रांडेड जेनेरिक और ट्रेड जेनेरिक दोनों का उत्पादन करती हैं । इन दोनों में थोड़ा बहुत सजावटी फर्क हो सकता है मगर औषधि के लिहाज से वे एक ही होती हैं । यानी वे एक ही औषधि को दो रास्तों से आगे बढ़ाती हैं ताकि बाजार पर अधिक से अधिक कब्जा जमा सकें । 
दूसरी ओर, अन-ब्रांडेड जेनेरिक रासायनिक नाम से बेची जाती हैं और फुटकर बाजार में इनकी बिक्री कमोबेश जन औषधि योजना तक सीमित है । जन औषधि की देश के दवा बाजार में कोई खास उपस्थिति नहीं है । अन-ब्रांडेड जेनेरिक्स की प्रमुख मांग सरकारी एजेंसियों से आती है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाआें के लिए जेनेरिक नामों से दवाइयां खरीदती हैं । मगर आंकड़ों के अभाव में इस बिक्री की मात्रा का अंदाजा लगाना मुश्किल    है । 
ब्रांडेड जेनेरिक का महत्व -
शब्द ब्रांडेड जेनेरिक अपने आप में विरोधाभासी है क्योंकि इससे न तो कीमत संबंधी कोई लाभ मिलता है, जैसा कि ब्रांड नाम वाली दवा में मिलता है, और न ही इसमें कोई औषधीय लाभ है जो प्राय: ब्रांड नाम वाले उत्पाद के साथ जुड़ा होता है । बारंबार इनके उच्च्तर असर के जो दावे किए जाते हैं वे दरअसल दवा कंपनियों द्वारा स्वयं किए गए दावे ही हैं क्योंकि उनके पीछे केन्द्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन का कोई अनुमोदन नहींहै । देश में यह संगठन ही एकमात्र संस्था है जो इस तरह के निर्णय ले सकती है । युनाइटेड किंगडम में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड केयर एक्सेलेंस (नाइस) किसी दवा के औषधीय मूल्य को मापने और प्रमाणित करने वाली संस्था है । 
इनमें वे औषधियां भी शामिल होती हैं जो गैर-सक्रिय औषधीय घटक वाली नवीन डिलीवरी सिस्टम पर आधारित होती हैं । इसका प्रमुख मकसद दवा के मूल्य के आधार पर कीमतों को बढ़ावा देना है । इसी प्रकार से जर्मनी में यही काम एनमोग नामक एक संस्था करती   है । भारत में भी स्थानीय शोध के जरिए विकसित नवीन डिलवरी सिस्टम वाली दवाइयों को कीमत नियंत्रण से छूट मिलती है बशर्ते कि उन्हें औषधि व प्रसाधन कानून के तहत स्वीकृति मिल चुकी हो । मगर किसी अधिकृत संस्था द्वारा प्रमाणीकरण के अभाव में यह कहा जा सकता है कि ब्रांडेड जेनेरिक और अन-ब्रांडेड जेनेरिक के बीच फर्क औषधि विज्ञान के आधार पर नहीं है बल्कि यह तो एक मार्केटिग रणनीति है ताकि ब्रांड नाम से जुड़े फायदे लिए जा सकें । 
ब्रांडेड जेनेरिक की मार्केटिंग रणनीति दो बातों पर टिकी है । पहली, दवा कंपनियों द्वारा आक्रामक प्रचार-प्रसार जो डॉक्टरो पर प्रभाव डालने के लिए किया जाता है, और दूसरी, डॉक्टर और मरीज के बीच जानकारी का असंतुलन जिसके चलते मरीज उसको दिए जा रहे इलाज की लागत-क्षमता के बारे में सोचा समझा फैसला करने में असमर्थ रहता है ।
हालांकि ऐसा नहीं है कि विकसित देशों में ब्रांडेड जेनेरिक अनजानी चीज है मगर ये कमोबेश ओव्हर दी काउंटर (ओटीसी)/गैर-प्रिस्क्रिप्शन दवाइयों के क्षेत्र में ही दिखती हैं जहां मरीज का निर्णय महत्व रखता है और कीमतें प्रतिस्पर्धा से निर्धारित होती   हैं । इसके विपरीत भारत में ब्रांडेड जेनेरिक सिर्फ ओटीसी तक सीमित नहीं है और अधिकांश ब्रांडेड जेनेरिक उस परिस्थिति में बेची जाती हैं जहां मरीज के हाथ में निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं होता । 
कोई फर्क नहीं 
लिहाजा, ब्रांडेड जेनेरिक और अन-ब्रांडेड जेनेरिक के बीच कोई अंतर है तो सिर्फ शक्ल का है । जहां अन-ब्रांडेड जेनेरिक उनके रासायनिक नामांे से बेची जाती हैं वहीं ब्रांडेड जेनेरिक को उसके ब्रांड नाम या ट्रेड नाम से बेचा जाता है । बाजार में एक ही जेनेरिक नुस्खा दर्जनों या कभी-कभी तो सैकड़ांे ब्रांड के नाम से बेचा जाता है । इसके चलते जानकारी का असंतुलन पैदा होता है । ऐसी स्थिति में यह सोचना बिल्कुल गलत है कि महंगा ब्रांड बेहतर क्वालिटी का होगा या ब्रांडेड दवाई अन-ब्रांडेड जेनेरिक दवाई से बेहतर होगी क्योंकि सारी दवाइयों पर एक-सी शर्ते और मानक लागू होते हैं । क्वालिटी का ख्याल रखना निर्माता का दायित्व है और यह दायित्व सिर्फ ब्रांडेड दवाइयों के लिए नहीं हैं । 
प्रतिष्ठित निर्माता बार-बार यह दावा करते हैं कि वे फार्माकोपिया में निर्देशित मानकों से भी ऊंचेमानक बनाए रखते हैं । इस बात में कोई दम नहीं है क्योंकि फार्माकोपिया द्वारा निर्धारित मानक मरीज के उपचार व सुरक्षा के लिहाज से यथेष्ट हैं । वैसे भी, ऊंचे मानकों का बहाना बनाकर आप अनाप-शनाप कीमतें वसूल नहीं कर सकते जबकि मरीज को कोई अतिरिक्त लाभ न मिलता हो । जब एक ही जेनेरिक नुस्खे के विभिन्न ब्रांड उपचार की दृष्टि से बराबर हैं और एक की   जगह दूसरे का सेवन किया जा सकता है तो उनके बीच कीमतों का भारी अंतर आसानी से समझ में नहीं आता । 
कई बार ब्रांडेड जेनेरिक दवाइयां उस दवा के न्यूनतम मूल्य वाले ब्रांड से तीन-चार गुना दामों पर बेची जाती है । और उनकी कीमत अन-ब्रांडेड दवा से तो १० गुना तक अधिक होती हैं । यह अंतर जेनेरिक ब्रांडेड दवा और पेटेंटशुदा दवा के बीच भी होता है मगर वहां अंतर इसलिए होता है कि निर्माता ज्ञान के स्वामित्व को अपनी कीमत में जोड़ता है मगर ब्रांडेड गैर-ब्रांडेड जेनेरिक के बीच अंतर तो मात्र सप्लायर द्वारा निर्मित कथित ब्रांड-मूल्य होता है । 
विडंबना है कि कई बार वही दवा विकसित देशों को जेनेरिक नाम से निर्यात की जाती है जबकि भारतीय बाजार में इसे ब्रांड नाम से बेचकर अतिरिक्त मुनाफा कमाया जाता है । यह भारतीय दवा उद्योग के दोहरे मानकों को उजागर करता है । 
बाजार का वर्चस्व 
भारतीय मरीजों को जेनेरिक प्रतिस्पर्धा का पूरा लाभ इसलिए नहीं मिल पाता क्योंकि यहां ब्रांडेड जेनेरिक बाजार पर हावी हैं और उन्होनें इसे उपचार-मूल्य की प्रतिस्पर्धा का नाम दे दिया है । भारत में दवाइयों की कीमतों को आम व्यक्ति की खरीद क्षमता के लिहाज से आंका जाना चाहिए, न कि अन्य देशों में प्रचलित कीमतों से तुलना के आधार पर । भारत में ब्रांड्स कुकुरमुत्तों की तरह पनपते हैं और इनमें ढेर सारे तैयारशुदा मिश्रण होते हैं । भारत में बेची जानी वाली ४० प्रतिशत दवाइयां एफडीसी  हैं । जबकि सुविकसित दवा बाजारों में इनका प्रतिशत २० है । देश में बेचे जाने वाली कई एफडीसी बेतुके मिश्रण हैं । इनका बेहतर नियमन करने की जरूरत है । 
देश में २०,००० से ज्यादा ब्रांड्स हैं, जिन्हें यदि उनकी शक्ति व खुराक के आधार पर बांटा जाए तो संख्या १,७०,००० तक पहुंच जाती  है । इनमें से करीब ९०,००० फुटकर बाजार में काफी सक्रिय हैं । दुखद बात यह है कि कई मामलों में एक ही निर्माता एक ही नुस्खे का अलग-अलग ब्रांड नामों से, देश के अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग कीमतों पर बेचता है । 
हाथी समिति ने १९७५ में ही यह सिफारिश की थी कि धीरे-धीरे जेनेरिक को ब्रांड विहीन कर देना चाहिए । २००५ में प्रणव सेन टास्क फोर्स ने इस बात को दोहराया था और हाल ही में (२०११) वी.एम. कटोच टास्क फोर्स ने फिर यही बात कही है । कटोच टास्क फोर्स  ने तो सिफारिश की है कि सारी एकल-घटक दवाइयों को सिर्फ जेनेरिक नाम से ही बेचा जाना चाहिए । इसके लिए जरूरी होगा कि औषधि नियंत्रक सिर्फ जेनेरिक नामों को ही स्वीकृति दें, ब्रांड नामों को नहीं । इसके लिए शायद १९९९ के ट्रेड मार्क कानून में भी संशोधन की आवश्यकता होगी । 
तथ्य यह है कि बाकी सारी वस्तुआें के बाजार में ब्रांडेड उत्पादन अन-ब्रांडेड की तुलना में नगण्य हैं, जबकि दवा के क्षेत्र में मामला एकदम उलट है । इससे पता चलता है कि दवा क्षेत्र में उपभोक्ताआें सम्राट नहीं है । इससे भी दुखद बात यह है कि दवा का अधिकांश खर्च आम जनता अपने जेब से करती है क्योंकि ब्राह्य रोगी उपचार में सरकारी सहायता नहीं के बराबर है । 
ब्रांडेड जेनेरिक की वजह से बाजार में जो विकृतियां पैदा होती हैं उसकी एक बानगी हमें बाजार में केन्द्रीयकरण के रूप में दिखती है । इस उद्योग के कुल कारोबार में ४१ प्रतिशत तो टॉप १० कंपनियों के हाथ में है जबकि १०० कंपनियां मिलकर ९५ प्रतिशत पर काबिज हैं । चूंकि बड़ी दवा कंपनियों की उत्पादन क्षमता का बड़ा हिस्सा तो उनके निर्यात लक्ष्यों(करीब १४-१५ अरब डॉलर) को पूरा करने में खप जाता है, इसलिए घरेलू बाजार की जरूरतों को पूरा करने के लिए वे लगभग ७००० छोटी व मध्यम इकाइयों पर निर्भर हैं । यह काम ठेके पर लोन लायसेंस के आधार पर किया जाता  है । 
भारतीय दवा बाजार में दवा नुस्खों के स्तर पर भी बहुत केन्द्रीयकरण है । आम तौर पर इस्तेमाल होने वाले २५८३ दवा नुस्खों में से २२३० (८६ प्रतिशत) कुछ ही हाथों में केन्द्रित हैं जो पूरे घरेलू बाजार के ५० प्रतिशत का द्योतक है । ब्रांड के आधार पर औषधि उत्पादों के बीच विभेदन और सप्लायर प्रेरित, प्रिस्क्रिप्शन-चालित मांग ने अधिकांश दवा किस्मों के संदर्भ में बाजार का चंद हाथों में समेट दिया है और प्रवेश को मुश्किल बना दिया है । हालात यह है कि बाजार में जो दवा सबसे अधिक बिकती है (मार्केट लीडर) वहीं कीमतों में भी सबसे महंगी (प्राइस लीडर) भी है । उपभोक्ताआें द्वारा कीमत के विपरीत चुनाव (यानी महंगी दवा का ज्यादा बिकना) इस बात का परिणाम है कि जानकारी का अभाव है और बाजार में केन्द्रीयकरण है ।
क्या किया जाए 
इस जबर्दस्त गड़बड़ी को दूर करने तथा देश मेंजेनेरिक दवाइयों को बढ़ावा देने के लिए कई उपाय करने की जरूरत है । सबसे पहले तो कुछ समर्थक कानूनों और नियमन की जरूरत है वे निम्न है - 
(१) जेनेरिक नाम वाले प्रिस्क्रिप्शन को अनिवार्य कर दें । यह काम मानक उपचार क्रम के निर्देशों के जरिए किया जा सकता है (इस नीति से विचलन की इजाजत उसी स्थिति में मिलनी चाहिए जब कोई ठोस कारण हो) । 
(२) फार्मेसिस्ट को जेनेरिक प्रतिस्थापन का अधिकार मिले । 
(३) क्रमिक रूप से जेनेरिक दवाइयों को ब्रांडविहीन करने का काम हो । 
दूसरा, गुणवत्ता सुनिश्चित करने की क्षमता को सुदृढ़ करना होगा और जैविक समतुल्यता दर्शाने की व्यवस्था भी बढ़ानी होगी । इसके अलावा, औषधि निर्माण व बिक्री की बेहतर निगरानी व्यवस्था भी होनी चाहिए । 
तीसरा, पेशेवर व आम जनता के बीच स्वीकार्यता बढ़ाने के प्रयास करने होंगे । चौथा, दवा की कीमतों के बारे में जानकारी का व्यापक प्रचार-प्रसार करना होगा । और अंत में, कुछ आर्थिक उपायों का सहारा भी लेना होगा, जैसे रेफरेंस प्राइसिंग, रीइंम्बर्समेंट नीति, मूल्य निर्धारण और जेनेरिक दवाइयों को बढ़ावा देने के लिए उद्योगों को इन्सेंटिव्स   वगैरह । इन्हीं सबके आधार पर ही हम सबके लिए किफायती दवा का लक्ष्य हासिल कर पाएंगे । 
प्राणी जगत
जीव-जन्तु भी करते हैं नशा
नरेन्द्र देवांगन
मधुमक्खियां भांग व मैरीजुआना जैसे नशीले पौधों को बेहद पंसद करती हैं । बारहसिंगा से लेकर हाथियों तक जीव-जंतुआें की दुनिया ऐसे जानवरों से भरी पड़ी है, जो इस तरह के पौधे या कीड़े-मकोड़े जानबूझकर खाते हैं जिनमें हैल्यूसिनोजेनिक रसायन ज्यादा मात्रा में पाए जाते हैं । 
बारहसिंगा को एमैनिटा मसकेरिया नामक नशीला मशरूम पसंद है । यह मशरूम साइकोएक्टिव प्रकार की औषधि है जिस पर सफेद फंगस रहता है । इसको फ्लाई एगैरिक के नाम से भी जाना जाता है । जानकारों का कहना है कि इसको खाने के बाद बारहसिंगा जब जंगल में कूदते-फांदते हुए दौड़ता है, तो उसे ऐसा एहसास होता है कि वह उड़ रहा  है । 
लोकोवीड लगभग २० प्रकार के जंगली पौधों का एक समूह है, जो पश्चिमी अमरीका में पाया जाता है । यह पौधा जाड़ों में पनपता है और घोड़ों का पंसदीदा भोजन है । एक-दो बार इसको खाने के बाद घोड़े इसके आदी हो जाते हैं और बार-बार इसे खाने के लिए आते रहते हैं । इस जहरीले पौधे की लत इन घोड़ों को इस कदर लगती है कि वे इसे तब तक खाते रहते हैं जब तक कि वे मर न जाएं । 
लोकोवीड के नशे के कारण घोड़े हिनहिनाते रहते हैं या साथ ही जबड़े को भी खोलते व बंद करते रहते हैं । जो घोड़े इसे अधिक मात्रा में खा लेते हैं उनको या तो डायरिया हो जाता है या वे डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं । 
मधुमक्खी व बरैया जैसी प्रजातियां सड़े हुए फलों का रस पीती हैं । इस तरह का रस पीने वाली मक्खियां हिंसक, असामाजिक व उड़ने की कम शौकीन होती हैं । जो मक्खियां ज्यादा रस पी लेती हैं उन्हें अक्सर पैरों को ऊपर उठाकर जमीन पर पीठ के बल लेटा देखा जा सकता है । 
एनिमल प्लेनेट के अनुसार बंदरोंजैसी दिखने वाली एक प्रजाति काले लीमर अपने दांतों की सहायता से बड़े-बड़े कनखजूरों को उनके सिर की तरफ से कुतर डालते हैं जबकि कनखजूरे बहुत जहरीले होते हैं । कनखजूरा अपने बचाव में सायनाइड जैसे जहरीले रसायन शरीर से बाहर निकालने लगता    है । यदि यह रसायन लीमर के शरीर के भीतर पहुंच जाए तो घातक हो सकता है । लेकिन लीमर पहले ही चालाकी से कनखजूरे का सिर दांतों से कुतर डालता है । इस प्रकार विषैला रसायन सिर्फ लीमर के शरीर पर ही लग पाता जिससे लीमर को हल्का नशा-सा होने लगता है । तनाव के दौर से निबटने के लिए लीमर इस नशे का अक्सर प्रयोग करते हैं । 
लाइकेन की एक प्रजाति बहुत दुर्लभ होती है और धीरे-धीरे बढ़ती है । यह इतनी दुर्लभ है कि कभी-कभी चट्टानी पहाड़ों के ढेर में किसी एक ही चट्टान पर उगती है । लेकिन यह जानते हुए भी कि इस प्रकार की लाइकेन को पाना आसान नहींऔर इसमें कोई पोषक तत्व भी नहीं, भेड़ें अपनी जान जोखिम में डालकर इसको ढूंढती  हैं । एक बार लाइकेन तक पहुंचने के बाद भेड़ें इसको अपने दांतों से कुरेद-कुरेद कर तब तक खाती रहती हैं जब तक यह चट्टान से पूरी तरह साफ न हो जाए। 
रैवन, जे ब्लैकबर्ड व तोते जेसे पक्षी चींटियों को मसल कर अपने पंखों में दबा लेते हैं । पक्षियों के व्यवहार का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने पहले यह सोचा कि चींटियों से निकलने वाले फॉर्मिक अम्ल को पाने के लिए पक्षी ऐसा करते हें ताकि अपने शरीर से परजीवियों का सफाया कर सकें । पक्षियों के व्यवहार के बारे में ऐसी सोच तब तक कायम रही जब तक वैज्ञानिकों ने मैना के अजीब व्यवहार पर शोध नहीं किया । मैना कीड़ों को तंबाकू की राख पर मसलने के बाद ही अपने शरीर पर लगाती है । वैज्ञानिकोंने पक्षियों के इस अजीब व्यवहार को देखकर नतीजा निकाला कि पक्षियों को ऐसा करने से आनंद प्राप्त् होता है । इस अजीब नशे के लिए पक्षी कई तरीकों का इस्तेमाल करते हैं और इसके आदी भी हो जाते हैं । 
जब अफ्रीका के जंगलोंमें मैरूला नामक फल पक जाता है तो ऐसा लगता है कि सारी कुदरत मैरूला के पेड़ों के पास जमा हो गई है । लेकिन यहां इस पके हुए फल को कोई जानवर नहींखाता बल्कि वे इसके जमीन पर गिरने के बाद सड़ जाने तक इंतजार करते   हैं । हाथी, बंदर वअन्य प्रकार के स्तनपायी जानवर इन सड़े हुए फलों को खाने के बाद या तो आपस मेंझगड़ा करते हैं या फिर अपने सहचर के साथ संभोग । इसके बाद वे तब तक जमीन पर पड़े रहते हैं, जब तक फल के नशे का असर खत्म न हो जाए । 
बकरियां बहुत उत्साह से कॉफी बीन्स खाती हैं और सुअर भांग के बीज खाकर मस्त रहते   हैं । जगुआर भी एक खास तरह के पौधे की बेल खाकर झूमता रहता  है। चींटीयों का झुंड हमेशा एकेसिया के पेड़ की रक्षा करता है, क्योंकि इस पेड़ से चीटियों को एक मीठा सीरप मिलता है । कैटनिप नामक पौधे को खाने के बाद बिल्लियां मस्ती के चरम पर पहुंच जाती हैं और इधर-उधर उछलकूद करने लगती हैं । जिस तरह दुनिया में ये जीव-जंतु रहते हैं उसको देखते हुए अगर ये अपने आनंद की तलाश इस तरह से करते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं  हैं ।  
वनवासी जगत  
नियमगिरी का पुर्नभ्रमण 
आशीष कोठारी

ओडिशा स्थित नियमगिरी पहाड़ियों पर निवास करने वाले डोंगरिया-कौंध आदिवासी समुदाय ने न केवल बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता को हाथ खींचने पर मजबूर कर दिया बल्कि उसकी पीठ  पर हाथ रखने वाली सर्वशक्तिमान केन्द्र व राज्य सरकारों को भी इस बात को बाध्य कर दिया कि वे विकास के अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करें ।
नियमगिरी, जो कि इस इलाके में खनन पर उतारू बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता और डोंगरिया कौंध  आदिवासी समूह के मध्य ऐतिहासिक संघर्ष का गवाह है, वहां पहली बार मैं पिछले हफ्ते ही गया था । सवाल उठता है तो फिर मैंने इस लेख का शीर्षक `नियमगिरी पुर्नभ्रमण` क्यों दिया ? वैसे यह बात अंशत: सच है, क्योंकि मैंने अपने साथियों से इसके  बारे में इतना कुछ सुन रखा था कि मुझे महसूस होता था कि मैं वहां पहले जा चुका हूं । 
इस स्थान को हॉलीवुड की फिल्म `अवतार` का सजीव संस्करण कहा जा सकता है । यहां पर भी लोगों ने वेदांत को बोरिया-बिस्तर बांधकर जाने पर मजबूर कर दिया है । आोडिशा के विशाल व सघन जंगलों और जलधाराओं के बीच कृषि की पुरातन पद्धति अपनाने वाले डोंगरिया कौंध समुदाय को भारत का `विशिष्ट संकटग्रस्त आदिवासी समूह` पुकारा जाता है । पहले इन्हें `आदिम` कहा जाता था और ये सांस्कृतिक, आर्थिक एवं पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण से सर्वाधिक संकटग्रस्त समूह है। परंतु उनका अपना एक वैश्विक दृष्टिकोण है और उनके पास सहस्त्राब्दियों पुरानी पद्धतियां मौजूद हैं । इसके अलावा उनके पास ज्ञान का अकूत भंडार एवं प्रकृति से ऐसा जीवंत रिश्ता मौजूद है, जिसे अनेक कथित `सभ्य` लोग भूल चुके हैं । 
डोंगरिया कौंध उस सबका प्रतीक है, जिसे कि भारतीय राज्य एवं शहरी शिक्षित वर्ग इसलिए ''पिछड़ा'' कहता है क्योंकि उनके यहां साक्षरता व तकनीक का सामान्य स्तर अनुपस्थित है, वे झूम खेती करते हैं, जीववाद को मानते हैं, वहां अस्पताल और विद्यालयों का अभाव है, गांव पहुंचने के रास्ते कच्च्े हैं, बिजली नहीं है,आदि-आदि । परंतु ऐसे तमाम चरित्रगत सारे मापदंडों को ठेंगा दिखाते हुए उन्होंने एक ऐसे निजी बहुराष्ट्रीय निगम पर विजय प्राप्त की है, जिसके पास सभी `सभ्य` शक्तियां मौजूद थीं । परंतु डोंगरिया कौंध सतर्क हैंऔर उन्हें पूरा विश्वास है कि वह अभी भी कंपनी को किसी भी तरह के खनन की अनुमति नहीं  देंगे ।
मैं कल्पवृक्ष संस्था के  अपने सहयोगियों के साथ इसलिए नियमगिरी गया था कि मैं विकास और कल्याण के संबंध में डोंगरिया कौंध  समुदाय के विचार समझ   पाऊं । जाहिर है उन्होंने खनन को तो अस्वीकार कर दिया है, लेकिन क्या उन्होंने विकास की धारणा को ही निरस्त कर दिया है ? क्या वे कह रहे हैं कि वे प्रसन्न थे और उन्हें अकेला छोड़ दिया जाए ? क्या वे `बाहर` से आने वाली प्रत्येक वस्तु को अस्वीकार कर रहे हैं या उनमें से कुछ को यानि सरकारी योजनाएं अपनाना चाहते हैं? क्या उनके समुदाय के भीतर युवाओं और महिलाओं में इसे लेकर कोई भिन्न विचार है ?
कुछ पारंपरिक एवं संघर्ष के  नेताओं के साथ सुंदर स्थानों पर बसे अनेक डोंगरिया कौंध गांवों से गुजरते हुए महसूस हुआ कि खनन को अस्वीकार करने के पीछे उनके पास सशक्त आध्यात्मिक एवं औचित्यपूर्ण आधार मौजूद हैं। उस क्षेत्र के  आध्यात्मिक स्त्रोत नियम राजा द्वारा बनाए गए नियमों मेें शामिल हैं । वनों एवं नदियों का संरक्षण बजाए व्यक्तिगत संपत्ति के संसाधनों का साझा स्वामित्व, श्रम एवं फलों की हिस्सेदारी व जैव संस्कृति उनके  पास उपलब्ध धार्मिक एवं गैरधार्मिक तत्वों का गुलदस्ता है । इस तरह की स्थिति में खनन एवं बड़ी सड़कें और कारखाने जैसा विशाल आक्रामक विकास एक वर्जित शब्दभर है। 
लड्डोसिकाका, बारी पिडिकाका एवं डाधी पुसिकावेरे जैसे नेता इस बात को लेकर सुनिश्चित थे कि वे नियमगिरी को मुनिगुडा, रायागाधा और भुबनेश्वर जैसे शहर में परिवर्तित नहीं करना चाहते जहां पर कि बिना बीमार पड़े न तो आप पानी पी सकते हैंन ही सांस ले सकते हैं, जहां पर बाहर जाते समय लोगों को घरों में ताले लगाना पड़ते हैं और जहां महिलाओं को रोजाना परेशान किया जाता हो । वे जानते हैं कि उनके क्षेत्र मेंे सड़क निर्माण का अर्थ है शोषणकारी शक्तियों का प्रवेश जिससे उनके पर्यावरण एवं संस्कृति दोनों को ही खतरा पैदा होगा । उन्हें इस बात का भी भान है कि वन अधिकार अधिनियम के माध्यम से व्यक्तिगत भूखंड प्राप्त करने का अर्थ है व्यक्तिवाद को बढ़ावा एवं वनों की नए सिरे से कटाई । समुदाय ने मांग की है कि संपूर्ण क्षेत्र को वन कानून के अंतर्गत प्राकृतिक वास क्षेत्र के रूप में मान्यता दी जाए और नियम राजा के नाम से इस हेतु एक ही स्वत्व (स्वामित्व) अधिकार पत्र जारी किया जाए । उन्हें उम्मीद है कि इस तरह से वह विध्वंसकारी ताकतों को इलाके से बाहर रख पाने में सफल होंगे ।
दुर्भाग्यवश पहले भी इस तरह के आक्रमण हो चुके हैं और इनमें से कई तो काफी कपटपूर्ण भी थे । शासन द्वारा सद्इच्छा से लेकिन पूर्णतया अव्यावहारिक `कल्याण` योजनाएं (डोंगरिया कौंध विकास एजेंसी जैसी संस्थाओं के माध्यम से) आदिवासियों को `सभ्यता` के लाभ प्रदान करने हेतु तैयार की गई हैं । यहां के बहुत कम गांवों में विद्यालय कार्यरत हैं । अतएव आदिवासी बच्चें को आश्रमशालाओं में भर्ती किया जाता है जहां पर उन्हें ओडिया भाषा में शिक्षा दी जाती है । जबकि डोंगरियां कौंध एक सर्वथा पृथक ''कुई'' बोली बोलते हैं । आदिवासी संस्कृतिको प्रभुत्वशाली मुख्यधारा से बदला जा रहा है और उनके भीतर यह भावना घर कराई जा रही है कि `आदिम` आदिवासी जीवन को तुरंत प्रभाव से आधुनिक विकास से बदला जाना आवश्यक है । 
कविता
धरती माँ का धानी चीर
डॉ. गार्गीशरण मिश्र मराल

हरे भरे जंगल ही तो है धरती मां का धानी चीर । 
पवन चले तो लहराता यह धरती मां का धानी चीर । 
धरती मां ने पाला हमको
हमने उसका चीर हरा,
बेरहमी से जंगल काटे
वन-जीवन में दर्द भरा,
सोचा नहीं बढ़ेगी इससे जग के हर प्राणी की पीर । 
धरती बंजर हो जायेगी नहीं गिरेगा नभ से नीर । 
गर्म हवाआें की लपटों से,
झुलसेगा सारा संसार,
बढ़ जायेगा और अधिक जो
धरती मों को चढ़ा बुखार,
प्यासी धरती, प्यासे प्राणी खे देंगे सब अपना धीर । 
तड़प उठेंगे जन, पशु पक्षी खाकर सब अकाल का तीर । 
हिम शिखरों की बर्फ गलेगी,
जल बनकर पहुँचेगी सागर,
सागर तट के घर डूबेंगे
उफनेगी सागर की गागर,
मौत करेगी ताण्डव सब की लुट जायेगी धन-जागीर । 
वृक्ष लगाकर, वन सरसाकर, चले सँवारो जग-तकदीर । 
पर्यावरण परिक्रमा
वर्ष २०१४ सबसे गर्म साल रहा
जब से हमारे पास मौसम के रिकार्ड उपलब्ध है, यानी १८९१ से लेकर आज तक २०१४ सबसे गर्म वर्ष रहा है । जापान मौसम विज्ञान एजेंसी के मुताबिक १९८१ से २०१० के औसत तापमान की तुलना में २०१४ लगभग ०.२७ डिग्री अधिक गर्म रहा । 
इससे पहले दिसम्बर में राष्ट्र संघ विश्व मौसम संगठन ने जनवरी से अक्टूबर २०१४ के तापमान के प्रारंभिक विश्लेषण के आधार पर अनुमान लगाया था कि २०१४ रिकॉर्ड गर्म वर्ष रहेगा । यूके के मौसम विभाग के आंकड़े भी यही कहते हैं । 
२०१४ की गर्मी के संदर्भ में एक बात और गौरतलब है : एक नीनो की अनुपस्थिति । इससे पहले जो तीन वर्ष सबसे गर्म माने गए थे - २०१०, २००५ और १९९८ - उन सबमें एल नीनो दक्षिणी दोलन नामक मौसमी घटना हुई थी जो तापमान को बढ़ाने का काम करती है । एक नीनो - दक्षिणी दोलन के दौरन भूमध्यरैखीय पूर्वी प्रशांत महासागर के सतह का पानी गर्म हो जाता है और इसकी वजह से पानी की गर्मी वायुमण्डल में पहुंच जाती है । 
लिहाजा यह आश्चर्य का विषय है कि एक नीनो न होने के बावजूद २०१४ इतना गर्म वर्ष रहा । इसका एक ही मतलब है कि धरती औसतन गर्म होती जा रही है । दरअसल, २०१४ का यह उच्च् तापमान एक दशक बाद आया है और इस दौरान माना जा रहा था कि तापमान में वृद्धि धीमी हो रही है । वर्ष १९५१ से २०१२ के बीच औसत वैश्विक तापमान में सालाना ०.१२ डिग्री की वृद्धि दर्ज की गई थी जबकि १९९८ से २०१२ के बीच वृद्धि दर मात्र ०.०५ डिग्री सालाना रही थी । 
जहां कुछ वैज्ञानिक मान रहे हैं कि तापमान की वृद्धि दर में कमी वास्तविक थी वहीं कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि वृद्धि दर धीमी नहीं पड़ी थी बल्कि सारी गर्मी समुद्रों के पेदे में जमा होती जा रही थी । लिहाजा २०१४ की गर्मी एक निरन्तर वृद्धि के पैटर्न का ही हिस्सा है । हां, इतना जरूर है कि २०१४ के उच्च् औसत तापमान ने दर्शा दिया है कि जो लोग यह कहने लगे थे कि अब तापमान में वृद्धि धीमी पड़ गई है, वे गलत  थे ।  २०१४ का मौसम सिर्फ यह दर्शाता है कि तापमान के मामले में उतार-चढ़ाव आते रहेंगे मगर  रूझान वृद्धि का ही है । 

रमन इफेक्ट सेशुरू हुआ विज्ञान दिवस 
वर्ष १९२१ में विदेश से लौटकर रमन समुद्र के नीले रंग के रहस्य के कारण की खोज में जुट गए थे । सात साल की कड़ी मेहनत के बाद २८ फरवरी १९२८ को उन्होनें अपनी खोज को रमन इफेक्ट नाम दिया । इसीलिए प्रतिवर्ष २८ फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाता है । 
उन्होनें उसी साल १६ मार्च को अपनी खोज पर बंगलौर स्थित साउथ इंडियन साइंस एसोसिएशन में भाषण दिया । यह खोज भारत में विज्ञान की प्रगति के लिए मील का पत्थर साबित हुई । इस खोज के लिए १९३० में रमन को नोबल पुरस्कार मिला । 
वर्ष १९९३ में डॉ. रमन बेगलुरू के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सांइसेज के साथ जुड़े । यहां उन्होनें १९४८ तक काम किया । बाद में उन्होनें बगैर सरकारी सहायता के बेहतर प्रयोगशाला वाले शोध संस्थान रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना की । रमन का यह सपना था कि वे खुद के रिसर्च इंस्टीट्यूट में शोध कार्य करें । यहां उन्होनें जीवन के अंतिम दिनों तक शोधकार्य किए । यहां उन्होनें अपनी पंसद के अन्य विषयों पर भी खोजबीन की । जो कुछ भी चमकता वह उनके खोज का विषय होता था इसीलिए उन्होनें ३०० हीरे खरीदे और उनकी आंतरिक संरचना व भौतिक गुणों का अध्ययन किया । उन्होनें  पक्षियों, तितलियों के पंख, फूलोंकी पत्तियों तक के बारे में खोज की कि ये सब रंग-बिरंगे क्यों है । 
इस अध्ययन के बाद उन्होनें विजन और कलर का सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसे पुस्तक द फिजियोलॉजी आफ विजन में लिखा  है । सोवियत संघ ने भी उन्हें  १९५८ में लेनिन पुरस्कार प्रदान किया । 
अक्टूबर १९७० में उन्हें सीने में दर्द की शिकायत हुई तो अस्पताल में भर्ती करवाया गया । लेकिन उन्होनें वहां रूकने से मना कर दिया । वे अपना अंतिम समय इंस्टीट्यूट में बिताना चाहते थे । २१ नवम्बर १९७० की सुबह रमन ने अपने इंस्टीट्यूट में ही अंतिम सांस ली । 

बिल गेट्स ने पीया सीवरेज का पानी 
सामाजिक सरोकारों को पूरा करने में जूटे मिलिंग गेट फाउंडेशन ने विश्व में गहराते पीने के पानी के संकट को दूर करने की दिशा में बड़ी सफलता पाई है । संस्था ने जैनीकी बायोएनर्जी के साथ मिलकर ओमनी प्रोसेसर संयंत्र का विकास किया है । यह संयंत्र सीवरेज के पानी को साफ कर पेयजल जैसा बना देता है और बिजली का भी उत्पादन करता है । परीक्षण के तौर पर इससे साफ पानी को दुनिया के धनी व्यक्ति बिल गेट्स ने पीया और बोतलबंद जैसा    बताया । दिग्गज कंपनी माइक्रोसॉफ्ट के सह संस्थापक बिल गेट्स अमेरिका के सिएटल की कंपनी जैनीकी बायोएनर्जी के साथ सीवरेज के पानी को पीने लायक बनाने की तकनीक पर काम कर रहे हैं । उनके फाउंडेशन और कंपनी ने ओमनीप्रोसेसर प्लांट बनाया है । यह प्लांट अभी परीक्षण के दौर में है । 
इस प्लांट में फिल्टर सीवरेज के पानी के बाद बिल गेट्स ने इसे पूरी तरह से शुद्ध बताया । उन्होनें अपने ब्लॉग पर लिखा - इसका स्वाद किसी बोतलबंद पानी जैसा है । यह बड़ी सफाई और अन्य मानकों का पालन करके बन रहा है, मैं इसे खुशी-खुशी रोज पीने को तैयार हॅू । यह सुरक्षित है । जैनीकी बॉयोएनर्जी के संस्थापक पीटर जैनीकी ने ओमनी प्रोसेसर प्लांट की स्थापना और उसकी लागत का अनुमान लगाने के लिए भारत और अफ्रीका जैसे देशोंका दौरा किया । 
ओमनी प्रोसेसर एक लाख लोगों के सीवरेज वाटर से रोजाना ८६,००० लीटर पीने योग्य पानी तैयार कर सकेगा । संयंत्र २५० किलो वॉट बिजली का उत्पादन भी करेगा । सीवरेज के अपशिष्ट पदार्थोको १००० डिग्री के टेम्प्रेचर पर जलाया जाता है, जिससे उसकी बदबू खत्म हो जाती है।

गौनायल से होगी सरकारी दफ््तरों की सफाई 
नई सरकार के आने के बाद से केन्द्र सरकार के दफ्तरों में ढेर सारे बदलाव हो रहे हैं, लेकिन एक बड़ा बदलाव सफाई के मोर्चे पर देखा जा रहा है । अब वहां सफाई के लिए फिनॉयल की बजाय गौमूत्र का इस्तेमाल होगा । इसका नाम होगा गौनायल । यह प्राकृतिक गुणों से भरपूर है । यह गौमूत्र से बनेगा और इसे खुशबूदार बनाने के लिए इसमें नीम तथा अन्य जड़ी-बूटियां मिलाई जाएगी । 
इसे बहुत वैज्ञानिक ढंग से बनाया जा रहा है । इसके लिए मथुरा के निकट बरसाना को चुना गया है। आईआईटी, दिल्ली के एक प्रोफेसर ने कहा कि गौमुत्र से बने उत्पाद के फायदे ज्यादा है और इसका साइड इफेक्ट नहीं होता । यह जैविक उत्पाद है और यह फिनायल का विकल्प बन सकता है । 
रसायनों के इस्तेमाल से सफाई कर्मचारियों की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ता है । यह आइडिया शुरू में महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी का था । गौनायल बनाने वाले एनजीओ होली काउ फांउडेशन की प्रमुख अनुराधा मोदी ने कहा कि कई महीनों तक देशभर की गौशालाआें को देखने के बाद उन्होनें यह प्रॉडक्ट तैयार किया है । 
कहा जा रहा है कि इस तरह के उत्पाद के इस्तेमाल से हानिकारक रसायनोंसे बचाव होगा और इससे गौशालाआें को आर्थिक लाभ भी होगा । वे गायों को बेहतर ढंग से रख सकेगी । एक एनजीओ ने केन्द्रीय भण्डार को इस आश्रय का प्रस्ताव दिया था जिसे मान लिया गया और अब भण्डार सप्लाई का इंतजार कर रहा है । उसके एमडी जगदीश भाटिया ने बताया कि यह न केवल सफाई कर्मचारियों बल्कि गायों के लिए भी शानदार कदम है । 

एक फीसदी लोगों के पास है दुनिया की आधी दौलत
एक शोध में यह बात सामने आई है कि दुनियाभर के ९९ फीसदी लोगों के पास जितनी संपत्ति है, उतना ही धन अकेले एक फीसदी लोगों के पास है । ऑक्सफैम चैरिटी की रिपोर्ट के अनुसार २०१६ तक यह आंकड़ा भी पार हो जाएगा और एक फीसदी लोगों के पास अन्य ९९ फीसदी लोगों से ज्यादा धन हो जाएगा । 
समाज कल्याण के लिए काम करने वाली संस्था ऑक्सफैम चैरिटी ने स्विट्जरलैण्ड के दावोस में आयोजित वार्षिक वर्ल्ड इकोनॉमिक फारेम में यह रिपोर्ट जारी की । ऐसे रहे नतीजे रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के ८० अमीर लोगों के पास १.९ खरब डॉलर (करीब १२० खरब रूपए) संपत्ति है । वैश्विक तौर पर ३.५ अरब लोगों के पास इतनी संपित्त है । पिछले साल अरबपतियों की संख्या ८५ थी । साथ ही, लाखों की संख्या में दुनियाभर के एक फीसदी अमीर लोगों के पास दुनिया की आधी संपत्ति है । 
कीट-जगत
क्या शाकाहारी कीट वर्गीकरण करते हैं ?
डॉ. किशोर पंवार

शाकाहारी जीव-जंतु वैसे तो कुछ भी चरते-कुतरते रहते हैं और ऐसा लगता है कि उनकी कोई पसंद- नापसंद नहीं होती । परन्तु देखा गया है कि कुछ कीट-पतंगे खास जाति केे पौधोंका चुनाव अपने भोजन हेतु करते हैं । जैसे कॉमन केस्टर तितली के लार्वा अरंडी की पत्तियों को ही खाते हैं, किसी ओर पत्ती की तरफ देखते भी नहीं । इस तरह की यह विशिष्ट पसंद होस्ट प्लांट स्पेशलाइजेशन कहलाती हैं । 
यह एक-एक की संगति है यानी एक प्रजाति की तितली के लिए एक खाद्य प्रजाति का पौधा । ऐसा ही लेमन पेन्सी नाम की तितली के साथ है । 
सवाल यह है कि पौधों की भीड़ में ये कीट अपने पसंदीदा भोजन को कैसे ढूंढते हैं । क्या इन्होंने लीनियस का वर्गीकरण घोंट रखा    है ? आखिर यह कुल और प्रजाति का अंतर जानते हैं, नहीं तो एक ही मटके में लगे बार्लेरिआ में से लेमन पेंसी (बार्लेरिआ प्रॉयनॉटिस) को केसेपहचानती । हालांकि एक-दो पत्ती सफेद फूल वाले पौधे की भी कुतरी हुई मिली, परन्तु ९९ प्रतिशत सही पहचान क्या कम है । 
मजेदार बात यह है कि अपने आने वाले बच्चेंके लिए सही भोजन का चुनाव मादा कीट ही करती है । पौधोंके चुनाव के लिहाज से कीटों को मनोफेगस यानी एक ही प्रजाति के पौधोंसे अपना भोजन प्राप्त् करने वाले ओर ओलिगोफेगस अर्थात एक कुल के मिलते-जुलते पौधोंको कुतरने वाले मेंबांटा जाता है । कुछ कीट पॉलीफेगस भी होते हैं । कीट विज्ञानी जे.एच. फेबर का मानना है कि अंडे देने वाली मांआें के पास एक वानस्पितक अंतर्बोध होता है अर्थात वे सही प्रजाति को पहचानने की क्षमता से लैस रहती हैं । मतलब यह कि कॉमन केस्टर तितली रिसिनस कम्युनिस और जेट्रोफा क्विरकस में फर्क जानती है । दोनों पास-पास लगे हों तो भी कॉमन केस्टर केवल रिसिनस के पत्तोंपर ही अंडेदेती है । 
कीट एक ही कुल के मिलते-जुलते पोधों को पहचानते    हैं । जेसे प्लेन टायगर तितली ओलिगोफेगस है और केलोट्रॉपिस प्रोसेरा, केलोट्रॉपिस गायगेन्टिया और एस्क्लेपिआज कुरासेविका के पौधों को अच्छी तरह जानती है । ये सब एक ही कुल के हैं । यानी प्लने टाइगर तितली इस कुल के पौधों को पहचानती है । 
कीटों के इस गुण का उपयोग वर्गीकरण विज्ञानियों की अपनी भूल सुधारने में भी बहुत काम आया है । जैसे थायरीडिया के लार्वा को जब स्क्र ोफुलेरिआसी कुल के सदस्य बुनसेफेलिसिया पौधे की पत्ती को कुतरते देखा गया तो वनस्पति विज्ञानियोंका माथा ठनका क्योंकि थायरीडिया की अन्य सभी प्रजातियों सोलेनेसी कुल के पौधोंका ही भक्षण करती पाई गई थी । जांच से पता चला की थायरीडिया के लार्वा की पहचान ही सही है क्योंकि रासायनिक जांच में यह पाया गया कि यह पोधा सोलेनसी कुल का ही है । अत: इसे सोलेनसी में रखा   गया । धन्यवाद थायरीडिया । 
यह कोई एक अकेलाउदाहरण नहीं है जहां कीट पतंगों ने हमारी मदद की हो । जैसे पापुलस की प्रजातियों की सही पहचान में भी इनकी मदद मिली    है । तो लगता है की ये कीट पतंगे बहुत बुद्धिमान वनस्पति विज्ञानी है जो पौधों के कुल, वंश ओर प्रजाति को हमारी ही तरह पहचान लेते हैं । बात यह है कि ये कीट वास्तव में पौधों की पत्तियों में पाए जाने वाले खास रसायनों को पहचानते हैं । आजकल वर्गीकरण वैज्ञानिक आकारिकी लक्षणों के साथ पादप-रसायनों के अनुसार पौधों का वर्गीकरण करते हैं । 
दरअसल मिलते-जुलते पौधों की पत्तियों में मिलने वाले रसायन भी समान होते हैं । जैसे अकाव कुल के सभी पौधों में लेटेक्स पाया जाता    है । इसमें कुछ खास किस्म के एल्केलॉइड्स होते हैं । असल में ये कीट कुल, वंश और प्रजातियों के अनुसार पौधे नहीं ढूंढते हैं । वे तो ऐसी पत्तियों को खोजते हैं जिनका रासायनिक प्रोफाइल उनकी सर्च इमेज में फिट है । यह प्रोफाइल संकीर्ण हो सकता है, जैसे मोनोफेगस कीटों में या विस्तृत हो सकता है जैसे ओलिगोफे गस कीटों में । उदाहरण के तौर पर इंडियन कैबेज व्हाइट तितली ब्रेसीकेसी कुल के सभी पौधो को जानती है और इसकी मादा इनकी पत्तियोंपर अंडे देती हैं । 
यह सच है इनके पास हमारी तरह उन्नत तकनीक से लैस प्रयोगशालाएं नहीं होती । मगर इनके पास बड़ी-बड़ी संयुक्त आंखें और स्पर्श व रसायनों के प्रति संवेदी अंग तो हैं जो उनके मैमोरी कार्ड में दर्ज है । अत: वे पत्ती-पहेली को बूझ लेते हैं । पत्ती पर बैठते ही उन्हें पता चल जाता है कि वह अपने काम की है या नहीं । यानी रासायनिक पहचान ही सही पहचान है गर याद रहे । 
विशेष रिपोर्ट 
देश में बाघों की संख्या बढ़ी
विशेष संवाददाता 
  बाघों की संख्या पर जारी ताजा रिपोर्ट के मुताबिक २०१० मेंहुई गणना के बाद देश मेंबाघों की संख्या में ३० प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि दर्ज की गई है और अब इनकी संख्या बढ़कर २,२२६ हो गई है । वर्ष २०१० में बाघों की कुल संख्या करीब १,७०६ आंकी गई थी । वहीं २००६ में इनकी संख्या चिंताजनक रूप से १,४११ के आंकड़े पर पहुंच गई थी लेकिन तब से बाघों की संख्या में लगातार सुधार देखा जा रहा है । 
वर्ष २०१४ में देश भर में बाघों की संख्या पर रिपोर्ट जारी करते हुए पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने इसे सफलता की गाथा करार दिया और रेखांकित किया कि दुनिया में जहां बाघों की संख्या घट रही है वहीं भारत में इनकी संख्या बढ़ रही है । पर्यावरण मंत्री ने कहा कि दुनिया में जितने बाघ मौजूद हैं उनमें से अधिकतर भारत में पाए जाते हैं । 
अब भारत में दुनिया के ७० प्रतिशत बाघ मौजूद हैं । हमारे यहां दुनिया के बेहतरीन व्यवस्थित बाघ अभयारण्य हैं । पिछली बार हमने इनकी संख्या १,७०६ दर्ज की थी । ताजा आंकड़े में इनकी संख्या २,२२६ है । इस पर हमें गर्व होना चाहिए । आखिरी बार से इनमें ३० प्रतिशत  की बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है जो एक     बड़ी कामयाबी की दास्तान है । उन्होंने कहा कि भारत के पास ८० प्रतिशत बाघों की दुर्लभ तस्वीरें हैं जबकि इनके आकलन के लिए ९,७३५ कैमरो का प्रयोग किया   गया । 
वर्ष २०१४ की रिपोर्ट के मुताबिक बाघों की संख्या १,९४५-२,४९१ (२,२२६) के करीब आंकी गई है जबकि २०१० क्की रिपोर्ट में इनकी संख्या १,५२०-१,९०९ के बीच थी । अधिकारियों ने बताया कि देश के बाघ बहुल १८ राज्यों में कुल ३,७८,११८ वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्र में बाघों का सर्वेक्षण हुआ, जिसमें बाघों की कुल १,५४० दुर्लभ तस्वीरें कैमरे में कैद की गई । अधिकारियों ने बताया कि कर्नाटक, उत्तराख्ंाड, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है । बाघों की संख्या में वृद्धि के लिए श्री जावड़ेकर ने अधिकारियों, वन्यकर्मियों, सामुदायिक भागीदारी और वैज्ञानिक सोच को श्रेय दिया । उन्होंने कहा, यही वजह है कि हम अधिक बाघ अभयारण्य बनाना चाहते हैं । यह भारत की विविधता का प्रमाण है और यह दिखाता है कि हम किस तरह से जलवायु परिवर्तन को लेकर गंभीर है । 
मानव-पशु संघर्ष के बारे में बात करते हुए पर्यावरण मंत्री ने कहा कि इस संबंध में प्रभावी कदम उठाए जा रहे हैं । जहां तक हाथियों की बात हे तो यह समस्या और विकट हो जाती है । बाघों के साथ संघर्ष में जहां सात लोग मारे जाते हैं वहीं हाथियों के संदर्भ यह संख्या १०० के करीब पहुंच जाती है । श्री जावड़ेकर ने कहा कि पशुआें के रहने के लिए हम अधिक हरित क्षेत्र और जल क्षेत्र का निर्माण कर रहे हैं ताकि पशु वहां रह सकें । 
मध्यप्रदेश को टाइगर स्टेट का दर्जा मिलना तो दूर, उल्टे वह दूसरे से तीसरे पायदान पर चला गया । यह स्थिति तब है जब मप्र में देश के सबसे अधिक ६ टाइगर रिजर्व हैं । हालांकि पिछले सेंसेक्स की तुलना    में संख्या बढ़ी है । वर्ष २०१० में  प्रदेश में जहां टाइगर की संख्या २५७ थी, वह चार साल बाद नई गणना   में ३०८ है । नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी की नई रिपोर्ट के हिसाब से देश में ३० प्रतिशत टाइगर बढ़े हैं । २०१० में जहां १७०६ टाइगर थे, वह अब बढ़कर २२२६ हो गए   हैं । 
उल्लेखनीय है कि वर्ष २००६ पहले तक मप्र में बाघों की संख्या सबसे अधिक होने से टाइगर स्टेट का दर्जा बरकरार था । ऐसा भी मौका आया जब मप्र में करीब ७०० टाइगर थे । वाइल्ड इंस्टीट्यूट देहरादून ने वर्ष २००६ में टाइगर की संख्या ३०० बताई थी, जो २०१० में २५७ रह  गई । दरअसल वर्ष २००७ से ०९ के टाइगर का बड़ी संख्या में शिकर  हुआ । पन्ना नेशनल पार्क तो बाघविहीन हो गया । मामला गंभीर होने पर केन्द्र ने जांच दल भेजा था । जांच में वन्य प्राणी मुख्यालय के आला अफसरों सहित तत्कालीन प्रमुख सचिव वन को लापरवाही के लिए जिम्मेदार भी ठहराया गया था । मामले की गंभीरता को देखते हुए तत्कालीन वन मंत्री सरताज सिंह ने सीबीआई जांच कराने का लिखा था, लेकिन बाद में इसमें कोई पहल नहीं हुई । 
मध्यप्रदेश मेंबाघ सरंक्षण के अनेक जरूरी कार्य नहीं हो पाये, इस कारण राज्य का टाइगर स्टेट का दर्जा छिन गया है । वन्य जीवों पर     काम करने वाले अजय दुबे ने प्रदेश के वनमंत्री से इस्तीफे की मांग की है । श्री दुबे ने कहा कि सरकार ने इस क्षेत्र में कोई खास काम    नहीं किया । वन मंत्री ने भी गंभीरता से इस क्षेत्र में ध्यान नहीं दिया, नहीं तो ऐसी स्थिति नहीं आती । इसके जिम्मेदारी लेते हुए प्रदेश के वन मंत्री को इस्तीफा देना चाहिए । 
ज्ञान विज्ञान
ऑस्टियो आर्थ्राइटिस का नया इलाज 
ब्रिटेन मेें शोधकर्ताआें ने एक नया माइक्रोकैप्सूल विकसित किया है, जो ऑस्टियो आर्थ्राइटिस के कारण उपस्थियों (कार्टिलेज) में होने वाली सूजन को कम कर सकता है और क्षतिग्रस्त ऊत्तकों का पुननिर्माण कर सकता है । इस शोध को लंदन के क्वीन मेरी विवि में भारतीय मूल की शोधकर्ता टीना चौधरी और उनके दल ने अजांम दिया है । सुश्री चौधरी ने बताया कि इस विधि का इस्तेमाल मरीजों के इलाज में किया गया, तो यह ऑस्टियो आर्थ्राइटिस  की प्रक्रिया को बहुत हद तक धीमा कर सकता है और यहां तक कि क्षतिग्रस्त ऊत्तकों का भी पुननिर्माण कर सकता है । एक प्रोटीन अणु जिसे सी-टाइप न्यूट्रिरेरिटक पेप्टाइड कहा जाता है, मानव शरीर में स्वाभाविक तौर पर पाया जाता है । यह सृजन को कम करने तथा क्षतिग्रस्त ऊत्तकों  की मरम्मत करने वाले प्रोटीन के तौर पर जाना जाता है । 
सीएनपी का इस्तेमाल इलाज में नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह बेहद आसानी से टूट जाता है और लक्षित जगह तक नहीं पहुंच पाता । शोधकर्ताआें की टीम ने छोटे कैप्सूल का विकास किया, जिसमें कई स्तर होते है और इन स्तरों के भीतर सीएपी होता है, जो धीर-धीरे प्रोटीन का रिसाव करता है और प्रभावी तरीके से उपचार करने में सक्षम होता है । शोध में पाया गया कि विकसीत माइक्रोकैप्सूल सीएनपी को प्रभावी तरीके से शरीर के रोगग्रस्त क्षेत्र में भेजता है । वर्तमान में सीएनपी का इस्तेमाल सिर्फ अस्थि रोगों और ह्दय संबंधी रोगों के उपचार के लिए किया जाता रहा है । सुश्री चौधरी ने कहा कि हम माइक्रोकैप्सल से इंजेक्शन तैयार कर सके, तो इसका मतलब होगा कि यह तकनीक बेहद कम कीमत पर अस्पताल या घर पर मरीजों के उपचार के लिए मुहैया हो सकेगी ।

अनुमान से कहींधीमा दौड़ता है चीता 
अब तक यह माना जाता है कि चीता धरती पर दौड़ने वाला सबसे तेज वन्यजीव है और इसकी रफ्तार ७०-७५ मील/घंटा (११२-१२० कि.मी./घंटा) तक होती है । लेकिन नए दावे के मुताबिक, यह उतना तेज नहीं दौड़ता जितना उसके बारे में माना जाता है । शोध बताता है कि चीता ५८ मील/घंटे (९३ किमी/घंटा) की अधिकतम रफ्तार से ही दौड़ पाता है ।
 साइंस नेचर क्यूरियोसिटीज की नई श्रृंखला तैयार कर रहे जाने-माने वैज्ञानी सर डेविड एटेनबरो ने विभिन्न चरणों का अध्ययन किया और पाया कि बीती आधी शताब्दी से चीते रफ्तार का आंकलन बढ़ा-चढ़ाकर किया जा रहा है । श्री एटेनबरो के मुताबिक, चीते का ७०-७५ मील/घंटे की गति से दौड़ना एक विचार मात्र है, इसकी वास्तविक गति अब तक ५८ मील/घंटे से ऊपर नहीं पहुंच पाई है । उन्होनें दावा करते हुए कि चीता अब तक की मान्यता के मुताबिक धरती पर सबसे तेज भागने वाला जानवर है । शोधार्थियों ने यह दावा अलग-अलग जगहों से चीते की भागने की गति पर संकलित किए गए ३६७ आंकड़ों के आधार पर किया है । 

कुपोषण से हर साल मर रहे १० लाख बच्च्े 
विश्व में सबसे तेजी से प्रगति करने का दम भरने वाले देश में जब ५ साल से कम उम्र के करीब १० लाख बच्च्े हर साल कुपोषण के कारण मर रहे हो तो चिंता होना लाजिमी है । युनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कुपोषण की स्थिति और भी अधिक विकराल होती जा रही है । इतना ही नहीं कुपोषण के मामले में भारत दक्षिण एशिया का अग्रणी देश बन गया है ।
राजस्थान के बारन और मध्यप्रदेश के बुरहानपुर में सर्वे से पता चला है कि कुपोषण के कारण बच्च्े ऐसी मौत का शिकार होते है, जिसको रोका जा सकता है । सामाजिक कार्यकर्ताआें ने कुपोषण को चिकित्सकीय इमरजेंसी घोषित किए जाने की मांग की है । 
एसीएफ इंडिया और फाइट हंगर फाउंडेशन ने जेनरेशनल न्यूट्रिशनल प्रोग्राम के लॉन्च की घोषणा की । प्रोग्राम के बारे में बात करते हुए एसीएफ इंडिया के डिप्टी कंट्री डायरेक्टर राजीव टंडन ने कहा कि कुपोषण की समस्या को हल करने के लिए पॉलिसी बनाने एवं इसके क्रियान्वयन के लिए पर्याप्त् बजट की आवश्यकता पर भी जोर दिया । 
एसीएफ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में अनुसूचित जनजाति (२८ फीसदी), अनुसूचित जाति (२१ फीसदी), अन्य पिछड़ा वर्ग (२० फीसदी) और ग्रामीण समुदायों (२१ फीसदी) में कुपोषण के सर्वाधिक मामले पाए जाते हैं । फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) का तीसरी रिपोर्ट के अनुसार, ४० प्रतिशत बच्च्े ग्रोथ की समस्या के शिकार है, ६० फीसदी बच्च्े कम वजन का शिकार है । 

खतरनाक हो सकते हैंब्लड प्रेशर ऐप्स
आजकल स्मार्ट फोन पर तरह-तरह के ऐप्स प्रकट हो रहे   है । इनमें से एक ब्लड प्रेशर नापने का दावा करता है । अलबत्ता हाल में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि ब्लड प्रेशर नापने के ये ऐप्स अनजांचे हैं, त्रुटिपूर्ण परिणाम देते है और खतरनाक हो सकते   हैं । 
मैसाचुसेट्स स्थित कैम्ब्रिज हेल्थकेयर एलायंस के चिकित्सक डॉ. निलय कुमार और उनकी टीम ने १०७ ऐसे ऐप्स का विश्लेषण किया, जो उक्त रक्तचाप के लिए बनाए गए हैं । ये सारे गूगल प्ले स्टोर तथा एपल आई ट्यून्स से डाउनलोड किए जा सकते हैं । शोधकर्ताआें को ७ एण्ड्रॉइड ऐप्स मिले जिनमें दावा किया गया था कि आपको सिर्फ इतना करना है कि अपनी उंगलियों को फोन के स्क्रीन या कैमरा पर दबाकर रखें और वह आपका ब्लड प्रेशर बता देगा । शोधकर्ताआें के मुताबिक ये दावे बोगस है । 
श्री कुमार व उनकी टीम को यह देखकर हैरत हुई कि स्मार्टफोन आधारित ब्लड प्रेशर मापी ऐप्स अत्यन्त लोकप्रिय हो चले हैं । इन्हें कम से कम २४ लाख बार डाउनलोड किया गया है । श्री कुमार को यह स्पष्ट नहीं था कि यह टेक्नॉ-लॉजी ठीक-ठीक किस तरह काम करती है । संभवत: फोन का कैमरा उंगली की नब्ज को पढ़ता होगा । मगर वे इतना जानते हैं कि यह टेक्नॉलॉजी अभी अनुसंधान व विकास के चरण में है और उपयोग के लिए तैयार नहीं है । बहुत संभावना इस बात की है कि यह आपको गलत ब्लड प्रेशर बताएगी और आप बेकार में परेशान होते रहेंगे । उससे भी ज्यादा परेशानी तो तब हो सकती है जब यह अनपरखी टेक्नॉलॉजी आपको बताती रहेगी कि सब कुछ ठीक-ठाक है जबकि हो सकता है कि आपको डॉक्टरी मदद की जरूरत  हो । 
जर्नल ऑफ दी अमेरिकन सोसायटी ऑफ हायपरटेंशन में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि आज काफी सारे लोग अपने मेडिकल आंकड़े प्राप्त् करने के लिए मोबाइल ऐप्स का उपयोग कर रहे    हैं । कम से कम ७२ प्रतिशत ऐप्स व्यक्ति को अपनी मेडिकल जानकारी हासिल करने की गुंजाइश प्रदान करते   हैं । 
कई ऐप्स में तो यहां तक व्यवस्था है कि यह जानकारी सीधे आपके डॉक्टर के पास पहुंच जाएगी। इसके अलावा कुछ ऐप्स में दवाई लेने वगैरह को याद दिलाने की व्यवस्था भी है । मगर इन ऐप्स में मात्र २.८ प्रतिशत का विकास ही किसी स्वास्थ्य एजेंसी द्वारा किया गया है । यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन ने ब्लड प्रेशर नापने के एक भी ऐप्स को अनुमति नहीं दी है । लिहाजा अध्ययन का निष्कर्ष है कि ये ऐप्स मरीजों की सुरक्षा संबंधी चिंता को बढ़ा रहे हैं । 
विज्ञान जगत
सफल वैज्ञानिक के असफल अधिकार
मनीष श्रीवास्तव 

विज्ञान जगत के शीर्षस्थ आविष्कारकों में शामिल थॉमस अल्वा एडीसन अद्भुत प्रतिभा के धनी थे । वे ऐसे जिज्ञासु व्यक्ति थे जो जीवनपर्यन्त मानव जगत की भलाई के लिए आविष्कार करते रहे । 
यूनाईटेड स्टेट में रहते हुए लगभग १०९३ पेटेंट, अन्य देशों में १२०० पेटेंट तथा २५०० से अधिक आविष्कारों की सूची थॉमस अल्वा एडीसन के नाम पर दर्ज हैं । किन्तु इतने सारे पेटेंट प्राप्त् करने के बाद भी एडीसन के कई आविष्कार हैं जो मानव की भलाई में काम न आ  सके । कई ने तो उन्हें वित्तीय रूप से भारी नुकसान पहुंचाया । तो कई प्रयोगों में आमजन ने कोई रूचि नहीं दिखाई । इस तरह हम कह सकते हैं कि वे आविष्कार असफल साबित हुए । 
एडीसन की उम्र २२ वर्ष थी जब उन्होंने अपना पहला पेटेंट प्राप्त् किया था । अपने इस आविष्कार को उन्होंने नाम दिया था  इलेक्ट्रोग्राफिक वोट रिकार्डर  । उस समय एडीसन के कई समकालीन इस तरह का उपकरण बनाने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन एडीसन इसमें पहले सफल हुए । इस उपकरण को बनाने का उद्देश्य संवैधानिक संस्थाआें द्वारा करायी जाने वाली वोटिंग को अधिक व्यवस्थित बनाना, उसमें अधिक पारदर्शिता लाना तथा वोटिंग में लगने वाले समय को कम करना था । इस वोट रिकार्डर में वोटिंग डिवाइस क्लर्क की मेज से संबद्ध रहता था । इस मेज में एक धातु का बना डिवाइस संस्थापित था, जिसमें प्रत्याशी का नाम हां या ना विकल्पों के साथ पहले से ही सुरक्षित कर दिया जाता था । इस डिवाइस को स्विच के माध्यम से नियंत्रित किया जा सकता था । 
एडीसन के अनुसार वोटिंग का यह बहुत ही सरल एवं कम समय लेने वाला तरीका था । किंतु यूनाइटेड स्टेट ऑफ कांग्रेस के सदस्योंको इस तरह के उपकरण पर अधिक विश्वास न था । उन्हें लगता था कि इस तरह के उपकरण से वोटिंग में हेरा-फेरी की संभावना होगी । अत: कांग्रेस ने एडीसन के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और एडीसन द्वारा ईजाद किये गये इस यंत्र को कभी उपयोग में नहीं लाया जा सका। 
शायद यह एडीसन के जीवन का वित्तीय रूप से सबसे अधिक नुकसान पहुंचाने वाला यंत्र था । इसे एडीसन ने बेकार पड़ी खदानों में से उपयोगी लौह अयस्क को चुंबक की सहायता से अलग करने के लिए तैयार किया था । इसके आविष्कार में उन्हें लगभग एक दशक का समय लगा । उन्होंने १८८० से १८९० के दौरान इसे बनाने का कार्य किया । इसके माध्यम से अनुपयोगी खदानें पुन: उपयोगी होकर लाभ का जरिया बनने वाली थीं । इस समय लौह अयस्क के दामों में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई थी । अपने आविष्कार को आजमाने के लिए एडीसन ने न्यूजर्सी की आगडेन नाम की जगह पर स्थित १४५ खदानें में कार्य शुरू किया । उन्हें इस परियोजना के लिए जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी को मोटी रकम चुकानी पड़ती थी । परंतु इसके बावजूद इस परियोजना में हमेशा कोई न कोई तकनीकी समस्या बनी रही । लंबे समय तक यही समस्या बने रहने के कारण लौह अयस्क के दामों में भारी गिरावट आ गई और एक बार पुन: एडीसन के बनाये संयत्र का प्रयोग कभी नहीं हो पाया ।  
सन् १८८१ में एडीसन ने एक वेबमीटर नामक यंत्र का पेटेंट करवाया था जिसका प्रयोग आपूर्ति की जाने वाली बिजली की रीडिंग मापने में होना था । इस वेबमीटर में दो या चार इलेक्ट्रॉडों पर जिंक तथा जिंक सल्फेट मिश्रण का उपयोग किया गया था । इसमें जिंक एक इलेक्ट्रॉड से दूसरे इलेक्ट्रॉड पर प्रतिस्थापित होकर उपयोग की गई बिजली को प्रदर्शित करता था । प्रत्येक नई रीडिंग के साथ पुरानी रीडिंग स्वयं विलोपित हो जाती थी । 
बल्ब के लिए किये जा रहे प्रयोग के दौरान एडीसन से एक ग्लास वैक्यूम टयूब का आविष्कार हो गया । एडीसन के अतिरिक्त ओर भी कई आविष्कारक इस तरह के प्रयोग कर रहे थे, लेकिन एडीसन ने जेसे ही पेटेंट करवाया उनका नाम सभी की नजर में आ गया । १८८१ में एडीसन ने इसका पेटेंट करवाया था । इसमें कांच के एक बर्तन में सब्जियों, फल तथा अन्य पदार्थोंा को भरकर रख दिया जाता था, जिसे अन्य कांच से ढंककर एक पंप की सहायता से इसके अंदर की सारी हवा को अवशोषित कर लिया जाता था । इस तरह से कांच के अंदर का पदार्थ कई दिनों तक सुरक्षित बना रहता था । 
एडीसन हमेशा से ही भविष्य के लिए जिज्ञासु रहते थे । अपने समय में भविष्य की कल्पना करते हुए उन्हें विचार आया कि एक दिन कारें बिजली से चला करेंगी । इस विचार से ही उन्होंने १८९९ में ऐसी बैटरी पर काम करना शुरू किया जो बिजली को अपने में समाहित कर कार को ऊर्जा दे सकेगी । प्रारंभ में एडीसन ने इस बैटरी के द्वारा १६१ किलोमीटर तक बिना चार्ज किये यात्रा करने के बारे में सोचा था । किन्तु १० वर्षोंा तक इस पर कार्य करने के बाद एडीसन को इस परियोजना को समाप्त् करना पड़ा । क्योंकि उस समय गैसोलीन इंर्धन के रूप में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी और उसकी अपेक्षा बिजली से कार चलाना काफी महंगा साबित होता । 
एडीसन अमेरिकीवासियों के जीवनस्तर को सुधारना चाहते थे । इसके लिए उन्होंने कांक्रीट के घर बनाने का प्रस्ताव भी रखा था । इन घरों में उन्होंने कांक्रीट का प्रयोग करते हुए सारी जरूरी सुविधायों देने का वादा किया था । कांक्रीट के घर बाजार कीमतों से बेहद कम सिर्फ १२०० डॉलर में देने की योजना एडीसन द्वारा प्रस्तावित थी । लेकिन उनकी यह योजना भी विफल साबित हुई । उस समय कंस्ट्रक्शन का कार्य बेहद ज्यादा हो रहा था । इस कारण एडीसन को अपनी योजना के लिए पर्याप्त् कांक्रीट नहीं मिल पाया । जबकि उस समय उनकी स्वयं की सीमेंट फेक्ट्री थी । इससे योजना की लागत में कई गुना वृद्धि हो गई । दूसरा कारण, क्यांेकि यह परियोजना मलिन बस्तियों में रहने वालों के लिए शुरू की गई थी और कोई भी इन घरों में रहकर समाज में स्वयं को छोटे दर्जे का साबित नहीं करना चाहता था । इसलिए परियोजना को लेकर ज्यादा लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की । इसके अतिरिक्त कई लोगों को तो घरों के डिजाइन ही पसंद नहीं आए । 
जब एडीसन ने फोनोग्राफ का आविष्कार किया था तब वे इसे लघुरूप बनाकर खिलौनों में इस्तेमाल करना चाहते थे, ताकि खिलौनों में विभिन्न तरह की आवाजें निकल   सकें । यह विचार उन्हें १८७७ में आया था लेकिन इसका पेटेंट १८९० में कराया । इस पर कार्य कर उन्होंने डॉल्स में फोनोग्राफ को संस्थापित कर दिया ओर बोलने वाली डॉल्स के रूप में इसे प्रचारित कर १० डॉलर में बेचा । छोटी बच्च्यिां इसमें गीत तथा अपनी नर्सरी कविताएं रिकार्ड कर सुना करती थीं । परंतु जल्द ही फोनोग्राफ में आवाज को लेकर विसंगतियां नजर आने लगीं । या तो वह ठीक से काम नहीं कर रहा था अथवा इससे बेहद कर्कश ध्वनि सुनाई देने लगी थी । साउंड रिकार्डिग तकनीक उस समय अपने प्रारंभिक चरण में थी, अत: एडीसन का यह विचार भी अधिक कामयाब नहीं हो पाया । 
सन् १९२० में एडीसन ने एक चौंका देने वाली घोषणा की थी कि वे एक मशीन पर काम कर रहे हैं, जिसके माध्यम से आत्माआें से संपर्क किया जा सकेगा । उस समय पहला विश्व युद्ध खत्म हुआ ही था और कई लोग अपने बिछड़ों से बात करना चाहते थे । उन्हें लगता था कि वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह संभव है । लेकिन जब भी एडीसन से पत्रकारों द्वारा पूछा जाता था, तब वे संशय की स्थिति में कहते थे कि उन्हें स्वयं इस बात पर भरोसा नहीं है कि आत्माएं होती भी हैं या नहीं । इसके लिए एडीसन ने ब्रिटिश आविष्कारक सर विलियम क्रुक से संपर्क भी किया था जो दावा करते थे कि उन्होंने कई आत्माआें के फोटो खींचे हैं । 
इस बात ने एडीसन को इस तरह की मशीन बनाने के लिए प्रोत्साहित किया था । अंतत: सन् १९३१ में अपनी मृत्यु तक उन्होंने ऐसी कोई मशीन प्रदर्शित नहीं की । 
स्वास्थ्य
ईबोला विषाणु से नष्ट होती अर्थव्यवस्थाएं
किंसले इघोबोर
इबोला विषाणु के सर्वाधिक प्रभावित तीन देशों गुयाना, लाइबेरिया एवं सिएरालीओन में इससे पड़े आर्थिक प्रभाव पूरी तरह से सामने नहीं आए हैं । अभी भी आंकड़े इकट्ठे किए जा रहे हैं और यह निश्चित नहीं है कि इस विषाणु पर कब काबू पाया जा सकेगा । ईबोला के फैलने के पहले ही यह तीनों पश्चिमी अफ्रीकी देश दुनिया के निर्धनतम देशों में थे । सन २०१४ के संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम का मानव विकास सूचकांक जो कि आय, जीवन प्रत्याशा, शिक्षा और जीवन की गुणवत्ता के आधार पर देशों की रेकिंग तय करता है ने कुल १८७ देशों में से सिएरालिओन  को १८३वें, गुयाना को १७९ और लाइबेरिया को १७५वें स्थान पर रखता है । अब यह डर व्यक्त  किया जा रहा है कि इन देशों में जो थोड़ा बहुत सुधार हो रहा था, ईबोला उसे भी हजम कर जाएगा ।
विश्व बैंक द्वारा वर्र्ष २०१४ में ईबोला महामारी के प्रभावों का आंकलन करते हुए दो संभाव्य स्थितियों पर प्रकाश डाला है । पहली है ''न्यून ईबोला`` । यह तब संभव है कि इस महामारी को सन २०१५ की शुरूआत में रोक दिया जाए । इस दौरान करीब २० हजार मामले सामने आ सकते हैंऔर देशों की आर्थिक स्थिति में धीरे-धीरे सुधार आ सकता है। दूसरी स्थिति है, ''उच्च् या असंयत ईबोला`` । यह तब घटित होगी जब इसको जल्दी सीमित नहीं किया जा सकेगा और संबंधित मामले २ लाख तक पहुंच सकते हैं। उच्च् ईबोला की स्थिति में पश्चिम अफ्रीका के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में ३२ अरब डालर की हानि और न्यून ईबोला की स्थिति में इस क्षेत्र की जीडीपी में ४ अरब डालर तक की कमी आ सकती है । न्यून ईबोला की स्थिति में गुयाना की जीडीपी ४.५ प्रतिशत से घटकर २.४ प्रतिशत, लाइबेरिया की ५.९ प्रतिशत से २.५ प्रतिशत एवं सिएरालिओन की ११.३ प्रतिशत से घटकर ८ प्रतिशत पर आ सकती है । स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी से उतर रही है । सिएरालीओन के कृषि मंत्री का कहना है कि, ''ईबोला की वजह से सिएरालीओन की अर्थव्यवस्था में ३० प्रतिशत की गिरावट आ सकती है ।``
यूएनडीपी की रिपोर्ट के  अनुसार ईबोला की वजह से सिएरालीओन पर पड़ रहे आर्थिक व सामाजिक प्रभावों के फलस्वरूप देश ने युद्ध के बाद जो भी प्रगति की थी उस पर पानी पड़ सकता है। वर्तमान मंे यहां पर खाद्य सामग्री की कमी हो गई है और स्थानीय मुद्रा लीओन का भी तेजी से अवमूल्यन हो रहा है। महामारी फैलने के पश्चात लाइबेरिया में चावल व अन्य खाघान्नों के मूल्यों में २५ प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। सरकार द्वारा स्थानीय ''बुुममीट`` खाने के खिलाफ चेतावनी देने के पश्चात मछली के दाम में भी असाधारण वृद्धि हुई है । 
इतना ही साफ सफाई के व प्लास्टिक उत्पाद भी महंगे हो गए हैं। बुरी तरह प्रभावित देशोें से विदेशी निवेशक भी पलायन कर रहे हैं । विश्व के सबसे बड़े इस्पात निर्माता आर्सेलेन मित्तल ने अपने विशेषज्ञों को लाइबेरिया से वापस बुला लिया  है । सिएरालीओन में निवेश करने वाली ब्रिटिश कंपनी लंदन माइनिंग ने भी अपने कर्मचारियों को सिएरालीओन से वापस बुला लिया है । विश्व मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने वर्ष २०१३ में सिएरालीओन की वृद्धि २० प्रतिशत आंकी थी जो अब घटकर महज  ५.५ प्रतिशत पर आ गई है । कर्मचारियों की सुरक्षा से डरकर अनेक अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन भी इस क्षेत्र से किनारा कर गए हैं ।
घाना में अभी तकईबोला का एक भी प्रमाणित मामला सामने न आने के बावजूद खनन कंपनियां अपने कर्मचारियों को देश से बाहर भेज रही है। घाना के प्रकाशन ''बिजनेस डे`` का कहना है घाना की राजधानी अक्करा की बड़ी होटलें हमेशा पूरी तरह से भरी रहती थीं अब वहां मुश्किल से ३० प्रतिशत लोग आते हैं। घाना व कोटे डी आईवोरीजा दुनिया का ६० प्रतिशत कोका का उत्पादन करते थे अब ईबोला की वजह से दोनों ही अत्यधिक संकट में है । पिछले दिनों कोका के वैश्विक मूल्यों में १८ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है । 
ईबोला विषाणु से अधोसंरचना परियोजनाएं भी प्रभावित हुई हैं। उदाहरण के लिए विश्व बैंक की अत्यंत महत्वाकांक्षी लाईबेरिया को सड़क मार्ग से गुयाना से जोड़ने वाली सड़क परियोजना स्थगित कर दी गई है और इसके ठेकेदार चीन के हेनान अंतर्राष्ट्रीय निगम समूह ने अपने कर्मचारियों को वहां से वापस बुला लिया है । इसके अतिरिक्त सीमा के आर-पार होने वाला व्यापार घटकर महज १२ प्रतिशत रह गया है । एक व्यापारी का कहना है, ''हम नाइजीरिया से सामान आयात कर यहां (सिएरालीओन) में बेचते थे, अब हम ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि सभी विमान सेवाएं स्थगित हो गई हैं। इस क्षेत्र के एक अन्य देश गांबिया की आमदनी का १६ प्रतिशत पर्यटन से आता था । अब उसमें ६५ प्रतिशत की कमी आ गई है । यही स्थिति सेनेगल की भी होती जा रही है ।
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि खतरे की घंटी बज चुकी है परंतु कई विकास विशेषज्ञों का कहना है कि तत्काल घबड़ाहट की कोई आवश्यकता नहीं है। विश्व बैंक ने ईबोला के आर्थिक प्रभावों से निपटने हेतु राष्ट्रीय एवं अर्न्तराष्ट्रीय सहयोग का आह्वान किया है । विश्व मुद्रा कोष ईबोला प्रभावित देशों को १३ करोड डॉलर की सहायता उपलब्ध करा रहा है । अमेरिका भी धन उपलब्ध कराने हेतु उत्सुक है ।
नवंबर २०१४ के मध्य आस्ट्रेलिया के ब्रिसबेन शहर में हुए जी-२० देशों के सम्मेलन में विश्व बैंक के अध्यक्ष जिम योंग किम ने दानदाताओं से राशि बढ़ाने का अनुरोध किया था । संयुक्त राष्ट्र संघ ने शुरूआत में ईबोला से निपटने हेतु एक अरब डॉलर की मांग की थी, इसमें से ८० करोड़ डालर प्राप्त् भी हो चुके है ।