विशेष लेख
ब्रांडेड जेनेरिक दवाइयों का मायाजाल
डॉ. इंजेती श्रीनिवास
भारत का दवा बाजार इस मायने में अनूठा है कि यहां ब्रांडेड जेनेरिक्स की भरमार है । इन्हें मूल्य में फायदा मिलता है हालांकि औषधीय असर की दृष्टि से ये तथाकथित अन-ब्रांडेड जेनेरिक दवाइयों से कदापि बेहतर नहीं होती ।
ब्रांडेड जेनेरिक्स की आक्रामक बिक्री की वजह से दवाइयों की कीमतें बढ़ी हैं, बेतुके औषधि मिश्रणों का बढ़ावा मिला है और उद्योग में केन्द्रीकरण में वृद्धि हुई है । वक्त आ गया है भारत जेनेरिक दवाइयों की ब्रांड-मुक्ति की ओर कदम बढ़ाए ।
जेनेरिक दवाइयों ने दुनिया भर में दवाइयों को किफायती बनाने में योगदान दिया है । कारण यह है कि जेनेरिक दवाइयों के साथ जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा भी आती है । ब्रांड नाम वाली दवा को तो व्यापारिक पेटेंट के तहत सुरक्षा मिली होती है कि पेटेंट धारक ही इसे बेच सकेगा । दूसरी ओर, मूल-पेटेंट की अवधि समाप्त् होने के बाद जेनेरिक दवाइयों का उत्पादन और विपणन कई प्रतिस्पर्धियों द्वारा किया जाता है । ये मूल कीमत से काफी कम कीमत पर बेची जाती हैं । इस तरह से उपभोक्ताआें को फायदा मिलता है ।
फार्माकोपिया में जेनेरिक दवा में वही सक्रिय औषधि घटक (एपीआई) होते हैं जो मूल दवा में हुआ करते थे । जेनेरिक दवा की खुराक, शक्ति, असर व उपयोग भी ठीक मूल दवा की तरह होता है । संयुक्त राज्य अमेरिका में १९९६ से २००७ के बीच खाद्य व औषधि प्रशासन द्वारा स्वीकृत दवाइयों के २०७० अध्ययनों से पता चला था कि जेनेरिक दवाइयां मूल दवाइयां के टक्कर की ही थीं । इन अध्ययनों में विभिन्न औषधियों की जैविक समतुल्यता का आकलन किया गया था । भारत में भी स्थिति इससे अलग नहीं है । सारी दवाइयां, जेनेरिक संस्करण समेत, पर एक समान वैधानिक शर्ते, निरीक्षण व अनुमोदन व्यवस्था लागू होती हैं ।
सारे निर्माताआें को औषधि व प्रसाधन कानून १९४० की अनुसूची एम में निर्दिष्ट उत्पादन के अच्छे कामकाज का पालन करना पड़ता है । सभी को लेबलिंग व गुणवत्ता के एक जैसे मानकों का पालन करना पड़ता है और सभी को उत्पादन व बिक्री के लायसेंस प्राप्त् करना पड़ते हैं । जब यह पाया जाता है कि कोई दवा फार्माकोपिया के निर्देशों के अनुरूप नहीं है या गुणवत्ता की दृष्टि से फार्माकोपिया के मानकों पर खरी नहीं उतरती है, तो उसे अमानक दवा घोषित किया जाता है और उसे बाजार में बेचने की अनुमति नहीं मिलती है ।
स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा अमानक दवाइयों के एक अध्ययन (२००९-१०) में दवाइयों के २४,१३६ नमूनां में से मात्र ११ यानी मात्र ०.०४६ प्रतिशत गुणवत्ता की जांच में असफल हुए थे । इसी प्रकार २००१-०८ के बीच प्रांतीय औषधि नियंत्रक द्वारा किए गए अध्ययनों में महज ०.३-०.४ प्रतिशत नमूने ही अमानक पाए गए थे । इसी प्रकार से हाल ही में विशेषज्ञों के एक दल ने जन औषधि समेत विभिन्न जेनेरिक दवाइयों की कीमतों व गुणवत्ता की तुलना की थी । देखा गया कि जेनेरिक दवाइयां पहचान, वजन में एकरूपता, विश्लेषण, पदार्थो की एकरूपता और घुलनशीलता के लिहाज से ब्रांडेड जेनेरिक के समतुल्य थी । अर्थात यह आम धारणा गलतफहमी पर आधारित है कि अन-ब्रांडेड जेनेरिक दवाइयां घटिया गुणवत्ता की होती है । इसीलिए अधिकांश देश जेनेरिक दवाइयों को बढ़ावा देने के लिए कदम उठाते हैं, क्योंकि वे कीमत की दृष्टि से भी फायदेमंद है और असर की दृष्टि से भी ।
जेनेरिक की किस्में -
आम तौर पर जब किसी बांड नाम वाली दवा को पेटेंट समाप्त् हो जाता है, तो कठोर प्रतिस्पर्धा के चलते शुरू-शुरू में उसका बाजार मूल्य ३०-४० प्रतिशत और अंतत: ९० प्रतिशत तक कम हो जाता है । यूएस का दवा बाजार दुनिया में सबसे विशाल है । यह बाजार लगभग ३२.५ अरब डॉलर का है, जो विश्व के दवा बाजार का एक-तिहाई है । यूएस का दवा बाजार जेनेरिक के मामले में भी अग्रणी है - बिक्री की मात्रा के हिसाब से ८४ प्रतिशत और बिक्री की रकम की दृष्टि से मात्र २८ प्रतिशत जेनेरिक दवाइयां है । युरोपीय संघ तथा आर्थिक विकास व सहयोग संगठन के कई अन्य देशोंमें भी ऐसी ही स्थिति है । इन देशों में जेनेरिक प्रतिस्पर्धा के चलते दवाइयों पर वास्तविक खर्च कम होता जा रहा है ।
इसके विपरीत, भारत के ८०,००० करोड़ रूपए के घरेलू दवा बाजार में जेनेरिक का हिस्सा मात्र ८ प्रतिशत है । बाजार में तथाकथित ब्रांडेड जेनेरिक्स (९० प्रतिशत) का बोलबाला है । यह स्थिति भारत में ही नजर आती है । हमारे देश के बाजार में अन-ब्रांडेड जेनेरिक्स और ब्रांड नाम से बिकने वाली या पेटेंटशुदा दवाइयों का हिस्सा बहुत ही कम है, दोनों का हिस्सा तकरीबन १-१ प्रतिशत होगा ।
ब्रांडेड जेनेरिक्स और अन-ब्रांडेड जेनेरिक्स (जिन्हें ट्रेड जेनेरिक्स भी कहते हैं) के बीच अंतर का संंबंध दरअसल उनकी मार्केटिंग की रणनीति से है । जहां ब्रांडेड जेनेरिक्स की बिक्री डॉक्टर-चालित या डॉक्टरी पर्चीसे तय होती है वहीं ट्रेड जेनेरिक्स की बिक्री फुटकर व्यापारी यानी केमिस्ट के नियंत्रण में होती है । ब्रांडेड जेनेरिक्स की तुलना में ट्रेड जेनेरिक्स काफी सस्ते होते हैं, क्योंकि दवा कंपनियां सीधे-सीधे प्रमोशन पर खर्च नहीं करती बल्कि खेरची विक्रेता को ज्यादा मार्जिन देती हं ताकि वह बिक्री बढ़ाने में दिलचस्पी ले । सुविधा की दृष्टि से हम इन दो को एक साथ रख सकते हैं क्योंकि दोनों ही अपने-अपने ब्रांड नाम से बेची जाती हैं ।
विडंबना यह है कि कई प्रतिष्ठित दवा कंपनियां एक ही दवा के ब्रांडेड जेनेरिक और ट्रेड जेनेरिक दोनों का उत्पादन करती हैं । इन दोनों में थोड़ा बहुत सजावटी फर्क हो सकता है मगर औषधि के लिहाज से वे एक ही होती हैं । यानी वे एक ही औषधि को दो रास्तों से आगे बढ़ाती हैं ताकि बाजार पर अधिक से अधिक कब्जा जमा सकें ।
दूसरी ओर, अन-ब्रांडेड जेनेरिक रासायनिक नाम से बेची जाती हैं और फुटकर बाजार में इनकी बिक्री कमोबेश जन औषधि योजना तक सीमित है । जन औषधि की देश के दवा बाजार में कोई खास उपस्थिति नहीं है । अन-ब्रांडेड जेनेरिक्स की प्रमुख मांग सरकारी एजेंसियों से आती है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाआें के लिए जेनेरिक नामों से दवाइयां खरीदती हैं । मगर आंकड़ों के अभाव में इस बिक्री की मात्रा का अंदाजा लगाना मुश्किल है ।
ब्रांडेड जेनेरिक का महत्व -
शब्द ब्रांडेड जेनेरिक अपने आप में विरोधाभासी है क्योंकि इससे न तो कीमत संबंधी कोई लाभ मिलता है, जैसा कि ब्रांड नाम वाली दवा में मिलता है, और न ही इसमें कोई औषधीय लाभ है जो प्राय: ब्रांड नाम वाले उत्पाद के साथ जुड़ा होता है । बारंबार इनके उच्च्तर असर के जो दावे किए जाते हैं वे दरअसल दवा कंपनियों द्वारा स्वयं किए गए दावे ही हैं क्योंकि उनके पीछे केन्द्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन का कोई अनुमोदन नहींहै । देश में यह संगठन ही एकमात्र संस्था है जो इस तरह के निर्णय ले सकती है । युनाइटेड किंगडम में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड केयर एक्सेलेंस (नाइस) किसी दवा के औषधीय मूल्य को मापने और प्रमाणित करने वाली संस्था है ।
इनमें वे औषधियां भी शामिल होती हैं जो गैर-सक्रिय औषधीय घटक वाली नवीन डिलीवरी सिस्टम पर आधारित होती हैं । इसका प्रमुख मकसद दवा के मूल्य के आधार पर कीमतों को बढ़ावा देना है । इसी प्रकार से जर्मनी में यही काम एनमोग नामक एक संस्था करती है । भारत में भी स्थानीय शोध के जरिए विकसित नवीन डिलवरी सिस्टम वाली दवाइयों को कीमत नियंत्रण से छूट मिलती है बशर्ते कि उन्हें औषधि व प्रसाधन कानून के तहत स्वीकृति मिल चुकी हो । मगर किसी अधिकृत संस्था द्वारा प्रमाणीकरण के अभाव में यह कहा जा सकता है कि ब्रांडेड जेनेरिक और अन-ब्रांडेड जेनेरिक के बीच फर्क औषधि विज्ञान के आधार पर नहीं है बल्कि यह तो एक मार्केटिग रणनीति है ताकि ब्रांड नाम से जुड़े फायदे लिए जा सकें ।
ब्रांडेड जेनेरिक की मार्केटिंग रणनीति दो बातों पर टिकी है । पहली, दवा कंपनियों द्वारा आक्रामक प्रचार-प्रसार जो डॉक्टरो पर प्रभाव डालने के लिए किया जाता है, और दूसरी, डॉक्टर और मरीज के बीच जानकारी का असंतुलन जिसके चलते मरीज उसको दिए जा रहे इलाज की लागत-क्षमता के बारे में सोचा समझा फैसला करने में असमर्थ रहता है ।
हालांकि ऐसा नहीं है कि विकसित देशों में ब्रांडेड जेनेरिक अनजानी चीज है मगर ये कमोबेश ओव्हर दी काउंटर (ओटीसी)/गैर-प्रिस्क्रिप्शन दवाइयों के क्षेत्र में ही दिखती हैं जहां मरीज का निर्णय महत्व रखता है और कीमतें प्रतिस्पर्धा से निर्धारित होती हैं । इसके विपरीत भारत में ब्रांडेड जेनेरिक सिर्फ ओटीसी तक सीमित नहीं है और अधिकांश ब्रांडेड जेनेरिक उस परिस्थिति में बेची जाती हैं जहां मरीज के हाथ में निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं होता ।
कोई फर्क नहीं
लिहाजा, ब्रांडेड जेनेरिक और अन-ब्रांडेड जेनेरिक के बीच कोई अंतर है तो सिर्फ शक्ल का है । जहां अन-ब्रांडेड जेनेरिक उनके रासायनिक नामांे से बेची जाती हैं वहीं ब्रांडेड जेनेरिक को उसके ब्रांड नाम या ट्रेड नाम से बेचा जाता है । बाजार में एक ही जेनेरिक नुस्खा दर्जनों या कभी-कभी तो सैकड़ांे ब्रांड के नाम से बेचा जाता है । इसके चलते जानकारी का असंतुलन पैदा होता है । ऐसी स्थिति में यह सोचना बिल्कुल गलत है कि महंगा ब्रांड बेहतर क्वालिटी का होगा या ब्रांडेड दवाई अन-ब्रांडेड जेनेरिक दवाई से बेहतर होगी क्योंकि सारी दवाइयों पर एक-सी शर्ते और मानक लागू होते हैं । क्वालिटी का ख्याल रखना निर्माता का दायित्व है और यह दायित्व सिर्फ ब्रांडेड दवाइयों के लिए नहीं हैं ।
प्रतिष्ठित निर्माता बार-बार यह दावा करते हैं कि वे फार्माकोपिया में निर्देशित मानकों से भी ऊंचेमानक बनाए रखते हैं । इस बात में कोई दम नहीं है क्योंकि फार्माकोपिया द्वारा निर्धारित मानक मरीज के उपचार व सुरक्षा के लिहाज से यथेष्ट हैं । वैसे भी, ऊंचे मानकों का बहाना बनाकर आप अनाप-शनाप कीमतें वसूल नहीं कर सकते जबकि मरीज को कोई अतिरिक्त लाभ न मिलता हो । जब एक ही जेनेरिक नुस्खे के विभिन्न ब्रांड उपचार की दृष्टि से बराबर हैं और एक की जगह दूसरे का सेवन किया जा सकता है तो उनके बीच कीमतों का भारी अंतर आसानी से समझ में नहीं आता ।
कई बार ब्रांडेड जेनेरिक दवाइयां उस दवा के न्यूनतम मूल्य वाले ब्रांड से तीन-चार गुना दामों पर बेची जाती है । और उनकी कीमत अन-ब्रांडेड दवा से तो १० गुना तक अधिक होती हैं । यह अंतर जेनेरिक ब्रांडेड दवा और पेटेंटशुदा दवा के बीच भी होता है मगर वहां अंतर इसलिए होता है कि निर्माता ज्ञान के स्वामित्व को अपनी कीमत में जोड़ता है मगर ब्रांडेड गैर-ब्रांडेड जेनेरिक के बीच अंतर तो मात्र सप्लायर द्वारा निर्मित कथित ब्रांड-मूल्य होता है ।
विडंबना है कि कई बार वही दवा विकसित देशों को जेनेरिक नाम से निर्यात की जाती है जबकि भारतीय बाजार में इसे ब्रांड नाम से बेचकर अतिरिक्त मुनाफा कमाया जाता है । यह भारतीय दवा उद्योग के दोहरे मानकों को उजागर करता है ।
बाजार का वर्चस्व
भारतीय मरीजों को जेनेरिक प्रतिस्पर्धा का पूरा लाभ इसलिए नहीं मिल पाता क्योंकि यहां ब्रांडेड जेनेरिक बाजार पर हावी हैं और उन्होनें इसे उपचार-मूल्य की प्रतिस्पर्धा का नाम दे दिया है । भारत में दवाइयों की कीमतों को आम व्यक्ति की खरीद क्षमता के लिहाज से आंका जाना चाहिए, न कि अन्य देशों में प्रचलित कीमतों से तुलना के आधार पर । भारत में ब्रांड्स कुकुरमुत्तों की तरह पनपते हैं और इनमें ढेर सारे तैयारशुदा मिश्रण होते हैं । भारत में बेची जानी वाली ४० प्रतिशत दवाइयां एफडीसी हैं । जबकि सुविकसित दवा बाजारों में इनका प्रतिशत २० है । देश में बेचे जाने वाली कई एफडीसी बेतुके मिश्रण हैं । इनका बेहतर नियमन करने की जरूरत है ।
देश में २०,००० से ज्यादा ब्रांड्स हैं, जिन्हें यदि उनकी शक्ति व खुराक के आधार पर बांटा जाए तो संख्या १,७०,००० तक पहुंच जाती है । इनमें से करीब ९०,००० फुटकर बाजार में काफी सक्रिय हैं । दुखद बात यह है कि कई मामलों में एक ही निर्माता एक ही नुस्खे का अलग-अलग ब्रांड नामों से, देश के अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग कीमतों पर बेचता है ।
हाथी समिति ने १९७५ में ही यह सिफारिश की थी कि धीरे-धीरे जेनेरिक को ब्रांड विहीन कर देना चाहिए । २००५ में प्रणव सेन टास्क फोर्स ने इस बात को दोहराया था और हाल ही में (२०११) वी.एम. कटोच टास्क फोर्स ने फिर यही बात कही है । कटोच टास्क फोर्स ने तो सिफारिश की है कि सारी एकल-घटक दवाइयों को सिर्फ जेनेरिक नाम से ही बेचा जाना चाहिए । इसके लिए जरूरी होगा कि औषधि नियंत्रक सिर्फ जेनेरिक नामों को ही स्वीकृति दें, ब्रांड नामों को नहीं । इसके लिए शायद १९९९ के ट्रेड मार्क कानून में भी संशोधन की आवश्यकता होगी ।
तथ्य यह है कि बाकी सारी वस्तुआें के बाजार में ब्रांडेड उत्पादन अन-ब्रांडेड की तुलना में नगण्य हैं, जबकि दवा के क्षेत्र में मामला एकदम उलट है । इससे पता चलता है कि दवा क्षेत्र में उपभोक्ताआें सम्राट नहीं है । इससे भी दुखद बात यह है कि दवा का अधिकांश खर्च आम जनता अपने जेब से करती है क्योंकि ब्राह्य रोगी उपचार में सरकारी सहायता नहीं के बराबर है ।
ब्रांडेड जेनेरिक की वजह से बाजार में जो विकृतियां पैदा होती हैं उसकी एक बानगी हमें बाजार में केन्द्रीयकरण के रूप में दिखती है । इस उद्योग के कुल कारोबार में ४१ प्रतिशत तो टॉप १० कंपनियों के हाथ में है जबकि १०० कंपनियां मिलकर ९५ प्रतिशत पर काबिज हैं । चूंकि बड़ी दवा कंपनियों की उत्पादन क्षमता का बड़ा हिस्सा तो उनके निर्यात लक्ष्यों(करीब १४-१५ अरब डॉलर) को पूरा करने में खप जाता है, इसलिए घरेलू बाजार की जरूरतों को पूरा करने के लिए वे लगभग ७००० छोटी व मध्यम इकाइयों पर निर्भर हैं । यह काम ठेके पर लोन लायसेंस के आधार पर किया जाता है ।
भारतीय दवा बाजार में दवा नुस्खों के स्तर पर भी बहुत केन्द्रीयकरण है । आम तौर पर इस्तेमाल होने वाले २५८३ दवा नुस्खों में से २२३० (८६ प्रतिशत) कुछ ही हाथों में केन्द्रित हैं जो पूरे घरेलू बाजार के ५० प्रतिशत का द्योतक है । ब्रांड के आधार पर औषधि उत्पादों के बीच विभेदन और सप्लायर प्रेरित, प्रिस्क्रिप्शन-चालित मांग ने अधिकांश दवा किस्मों के संदर्भ में बाजार का चंद हाथों में समेट दिया है और प्रवेश को मुश्किल बना दिया है । हालात यह है कि बाजार में जो दवा सबसे अधिक बिकती है (मार्केट लीडर) वहीं कीमतों में भी सबसे महंगी (प्राइस लीडर) भी है । उपभोक्ताआें द्वारा कीमत के विपरीत चुनाव (यानी महंगी दवा का ज्यादा बिकना) इस बात का परिणाम है कि जानकारी का अभाव है और बाजार में केन्द्रीयकरण है ।
क्या किया जाए
इस जबर्दस्त गड़बड़ी को दूर करने तथा देश मेंजेनेरिक दवाइयों को बढ़ावा देने के लिए कई उपाय करने की जरूरत है । सबसे पहले तो कुछ समर्थक कानूनों और नियमन की जरूरत है वे निम्न है -
(१) जेनेरिक नाम वाले प्रिस्क्रिप्शन को अनिवार्य कर दें । यह काम मानक उपचार क्रम के निर्देशों के जरिए किया जा सकता है (इस नीति से विचलन की इजाजत उसी स्थिति में मिलनी चाहिए जब कोई ठोस कारण हो) ।
(२) फार्मेसिस्ट को जेनेरिक प्रतिस्थापन का अधिकार मिले ।
(३) क्रमिक रूप से जेनेरिक दवाइयों को ब्रांडविहीन करने का काम हो ।
दूसरा, गुणवत्ता सुनिश्चित करने की क्षमता को सुदृढ़ करना होगा और जैविक समतुल्यता दर्शाने की व्यवस्था भी बढ़ानी होगी । इसके अलावा, औषधि निर्माण व बिक्री की बेहतर निगरानी व्यवस्था भी होनी चाहिए ।
तीसरा, पेशेवर व आम जनता के बीच स्वीकार्यता बढ़ाने के प्रयास करने होंगे । चौथा, दवा की कीमतों के बारे में जानकारी का व्यापक प्रचार-प्रसार करना होगा । और अंत में, कुछ आर्थिक उपायों का सहारा भी लेना होगा, जैसे रेफरेंस प्राइसिंग, रीइंम्बर्समेंट नीति, मूल्य निर्धारण और जेनेरिक दवाइयों को बढ़ावा देने के लिए उद्योगों को इन्सेंटिव्स वगैरह । इन्हीं सबके आधार पर ही हम सबके लिए किफायती दवा का लक्ष्य हासिल कर पाएंगे ।
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