मंगलवार, 17 जुलाई 2018



प्रसंगवश
विकास के बहाने दिल्ली में पेड़ों की बलि
 प्रमोद भार्गव, शिवपुरी (म.प्र.)
दिल्ली में नौकरशाहों के लिए आधुनिक किस्म के नए आवासीय परिसर और व्यापारिक केन्द्र बनाने के लिए १६५०० पेड़ों की बलि देने की तैयार ी हो गई है । दिल्ली उच्च् न्यायालय ने फिलहाल पेड़ कटाई पर अंतरिम रोक जरूर लगा दी है । लेकिन यह रोक कब तक लगी रह पाती है कहना मुश्किल है ।
छह आबाद बस्तिया मिटाकर नई बस्तियां बनाने की जिम्मेदारी लेने वाले सरकारी राष्ट्रीय भवन निर्माण निगम (एनबीसीसी) और केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग (सीपीडब्ल्यूडी) संस्थानों ने ली है । इन विभागों ने वृक्ष प्राधिकरण को आठ करोड़ रूपए जमा करके पर्यावरण विनाश की मंजूरी भी ले ली है । इसी आधार पर उच्च् न्यायालय ने याचिकाकर्ता को यह मामला राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में ले जाने को कहा  है । गोया, अब मामला न्यायालय और हरित पंचाट के पास है । हालांकि इस बाबत अदालत ने जो सवाल उठाए हैं, वे बेहद अहम् है । 
अदालत ने पूछा कि क्या दिल्ली इस हालत में है कि १६५०० पेड़ों का विनाश झेल लेगी । प्रदूषण से दिल्ली का दम निकल रहा है ऐसे में प्रदूषण की नई समस्या को क्या दिल्ली बरदाश्त कर लेगी । वैसे भी दुनिया के जो १० सबसे ज्यादा  प्रदूषित शहर हैं, उनमें दिल्ली भी शामिल है । ऐसे में जो दिल्ली में हरे-भरे वृक्ष शेष रह गए हैं, क्या उनसे दिल्ली प्रदूषण मुक्त रह पाएगी ? राजधानी के दक्षिण इलाके में सरोजनी नगर, नौरोजी नगर, नेताजी नगर आदि वे कालोनियां है, जिन्हें पेड़ों समेत जमींदोज करके अठ्ठालिकाएं खड़ी की जानी है । वृक्ष, पानी और हवा मनुष्य के लिए जीवनदायी  तत्व  है । इसलिए इनको बचाया जाना जरूरी है । 
प्रकृति के इन अमूल्य तत्वों की कीमत स्थानीय लोगों ने समझ ली है, इसलिए हजारों लोगों ने सड़कों पर आकर और पेड़ों से चिपककर उत्तराखंड में ४५ साल पहले सामने आए चिपको आंदोलन की याद ताजा कर दी है । यह नागरिक मुहिम १९७३ में अविभाजित उत्तरप्रदेश में छिड़ी थी । इसका नेतृत्व प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा और चंडीप्रसाद भट्ट ने किया था । तब लोग पेड़ों की रक्षा के लिए पेड़ों से चिपक गए थे । ऐसा ही नजारा दिल्ली में देखने में आया है । यहां भी लोग पेड़ों से लिपटकर इन्हें जीवनदान देने की अपील कर रहे है । जागरूकता का यह अभियान जरूरी भी है, क्योंकि दिल्ली वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, राजधानी में पहले से ही आबादी की तुलना में ९ लाख पेड़ कम है । इसके बावजूद बीते छह साल में मार्गो के चौड़ीकरण नए आवासीय परिसर, भूमिगत पार्किग और संस्थान व व्यापारिक केन्द्र खोलने के लिए ५२ हजार से भी ज्यादा पेड़ काटे जा चुके है और अब १६५०० पेड़ो ंकी जीवन लीला खत्म करने की तैयारी है । 
सम्पादकीय
प्लास्टिक प्रदूषण वाली नदियों में गंगा शामिल 
 जर्मनी के हेमहोल्टज सेंटर फॉर एनवायरमेंटल रिसर्च की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर के कुल प्लास्टिक कचरे का ९० फीसद एशिया और अफ्रीका की  दस नदियों से आता है । इसमें पहले और दूसरे स्थान पर क्रमश: चीन की यांग्त्सी और भारत की सिंधु नदी है । 
चिंताजनक पहलू यह है कि जिस पतितपावनी गंगा के वजूद के लिए हम भारतीय चिंतित है वह भी इस सूची में छठे स्थान पर है । रिपोर्ट के मुताबिक अगर इन सभी नदियों को प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्त किया जा सके तो दुनिया के समुद्रोंमें मौजूद २.२६ लाख करोड़ किग्रा प्लास्टिक कचरे को आधा किया जा सकेगा । 
शोधकर्ताआें की टीम ने दुनिया की ५७ नदियों के किनारे ७९ जगहों से कूड़े के नमूने एकत्र किए । इसमें पांच  मिमी से कम आकार के माइक्रोप्लास्टिक और इससे बड़े आकार के माइक्रोप्लास्टिक शामिल थे । इन नमूनों का अध्ययन करने के बाद शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे है । 
शोधकर्ताआें के मुताबिक प्रदूषक नदियों की पहचान करके अगर उनके जलग्रहण क्षेत्र में ही प्लास्टिक प्रदूषण को रोक दिया जाएगा तो इससे समुद्र में प्लास्टिक नहीं बढ़ेगा । हालांकि प्लास्टिक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाना ही इस प्रदूषण से निजात पाने का अंतिम तरीका है। 
गंगा नदी हर साल ५.४४ लाख टन प्लास्टिक कचरा बंगाल की खाड़ी में उड़ेलती है । चीन की यांग्त्सी नदी सालाना येलो समुद्र में १५ लाख टन प्लास्टिक छोड़ती है । चीन की शी, डोग और झुजियांग नदियां १.०५ लाख टन प्लास्टिक कचरे की वाहक है । इंडोनेशिया की चार नदियां, ब्रंतास (३८.५ हजार टन), सोलो ३२.२ हजार टन), सेरायु (१६.८ हजार टन) और प्रोगो (१२.७ हजार टन) की भी इस कचरे में ही बड़ी हिस्सेदारी है । नदियां भले ही प्लास्टिक प्रदूषण समुद्रमें छोड़ रही हो, लेकिन इसमें उनका नहीं हमारा ही कसूर है । नदियों में यह प्लास्टिक हमारी की लापरवाही से जमा हुआ है । सालों साल तक न सड़ने वाला प्लास्टिक जब यहां-वहां डंप किया जाता है तो आखिर में वह नदियों को ही पनाह लेता है ।  
सामयिक
योग, व्यायाम और वायु प्रदूषण

आज  देश में वायु में प्रदूषण के साथ-साथ खाद्य वस्तुआें में मिलावट की जा  रही  है । दूध, तेल, दालों में मिलावट और फलों और सब्जियों में केमिकल का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है । शहरों में जल और वायु प्रदूषित हो चुके हैं ।  लोगों को मिलावट के जहर और प्रदूषण से निजात मिलने पर ही उन्हें योग और व्यायाम का प्रत्याशित  लाभ  मिल  पायेगा । 
योग एवं व्यायाम के कई फायदे बताये गये हंै जिनमें प्रमुख है निरोगी रहना तथा शारीरिक बल, आयु  एकाग्रता, प्राण शक्ति तथा मानसिक क्षमता आदि का बढ़ना । योग में कई प्रकार के आसन किये जाते हैंजिनमें से कुछ में ज्यादा से ज्यादा वायु फेफड़ों में भरकर एवं रोककर फिर वापस बाहर निकाली जाती  है । 

कई प्रकार के  व्यायाम करने के  बाद भी श्वसन क्रिया बढ़ जाती है जिससे ज्यादा वायुु फेफड़ों मंे पहंुचती है । योग एवं अन्य प्रकार के व्यायाम से होने वाले फायदे तभी संभव है जब फेफड़ांे में पहुंची वायु शुद्ध हो यानी प्रदूषण रहित । योग की कई क्रियाओं एवं व्यायाम का जब आरम्भ हुआ होगा तब मनुष्य का जीवन सरल, सादगीपूर्ण था एवं वायुमंडल में प्रदूषण न होने से वह स्वास्थ्यवर्धक तथा पोषक था । वर्तमान में प्रदूषण के कारण वायु मंडल भी रोगजन्य हो गया है । 
वायु प्रदूषण के संदर्भ में हमारे देश की स्थिति तो काफी निराशाजनक है क्योंकि अभी अभी दुनिया के २० सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में १४ हमारे देश के हैं । कई सरकारी एवं गैर सरकारी संगठनों के अध्ययन दर्शाते है कि वायु प्रदूषण अब महानगरों तथा नगरों से होकर ग्रामीण क्षेत्रो में भी पहुंच गया हैं । 
वायु प्रदूषण की इन गहन परिस्थितियों में हमारे देश में योग एवं व्यायाम से स्वास्थ्य लाभ हो रहा है या नहीं इस पर शोध एवं अध्ययन किये जाने चाहिये । विदेशों में किये अध्ययनों के परिणाम दर्शाते हैंकि बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण लोगों के स्वास्थ्य में उतना लाभ नहीं हो रहा है जितना होना चाहिये । विश्व प्रसिद्ध लैंसेट पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया था कि वायु प्रदूषण के कारण मानव स्वास्थ्य पर योग एवं व्यायाम से होने वाले लाभ बेअसर हो रहे हैं । अध्ययन में बताया गया कि किसी व्यस्त यातायात वाली सड़क पर पैदा वायु प्रदूषण से कुछ समय तक सम्पर्क में रहने पर दो घंटे किये गये योग एवं व्यायाम का असर समाप्त हो जाता है । 
प्रात: काल की सैर (जॉगिंग) को वैसे तो स्वास्थ्य के लिए अच्छा बताया जाता है परंतु इजराइल के वैज्ञानिकों के अनुसार यह अर्द्धसत्य है । हैफा स्थित कार्मेल चिकित्सा केन्द्र के डॉ. एच. विटरमेन ने कुछ वर्षों पूर्व अपने साथियों सहित अध्ययन कर पाया कि शहरों में वायुप्रदूषण से स्वस्थ लोग भी जॉगिग के बाद तरोताजा एवं ऊर्जावान महसूस करने के बजाय थकावट व कमजोरी महसूस करते हैं । उन्होंने पाया कि प्रदूषित वातावरण या स्थान पर लोगों के स्वास्थ्य पर कार्बन मोनो आक्साइड गैस का सबसे अधिक दुष्प्रभाव होता है । 
यह गैस वाहनों तथा धूम्रपान से पैदा धुंए में पायी जाती है एवं मानव रक्त (ब्लड) से मिलकर उसकी प्राणवायु (ऑक्सीजन) धारण करने की क्षमता को घटा देती है । गैस के साथ शरीर में पहुंचे महीन कण (पीएम-१० तथा २.५) भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं । ड्यूक वि.वि. (अमेरिका) के प्रोफेसर डॉ. जे.झांग के अनुसार वाहनों से निकले धुंए के सम्पर्क में आने से हृदय एवं फेफड़ों पर विपरीत प्रभाव होता है । अधिक आयु के लोग (वृद्ध या वरिष्ठ नागरिक) टहलने या घूमने को ही अच्छा व्यायाम मानते हैं । परंतु अब वायुप्रदूषण से यह भी अच्छा नहीं रहा है । 
ब्रिटेन में दो वर्ष पूर्व २०१६ में एक सौ से ज्यादा अधिक आयु के लोगों पर अध्ययन किया गया । इन लोगों को भारी यातायात के समय आक्सफोर्ड रोड पर कुछ समय तक घूमने को कहा गया । बाद में मेडिकल टेस्ट में पाया गया कि घूमने का कोई लाभ स्वास्थ पर नहीं हुआ परंतु सड़क के वायु प्रदूषण ने शरीर पर अपना प्रभाव जरूर बताया । प्रदूषण से खून की धमनियां व मांसपेशियां बजाय लचीली होने के कार्बन कणों के जमा होने से कठोर हो गयीं । जर्मनी के कुछ वैज्ञानिक तथा चिकित्सकांे ने अपने कुछ प्रारम्भिक अध्ययन में पाया है कि उन लोगों को भी योग तथा व्यायाम का ज्यादा लाभ नहीं मिलता है जो अपने वाहनों से लम्बी दूरियां तयकरकिसी हरे-भरे स्थान पर ये क्रियाएं या आसन करने  जाते हैं । 
इसका कारण यह बताया गया कि रास्ते का प्रदूषण स्वास्थ्य लाभ को लगभग निष्क्रिय कर देता है। इन सारे अध्ययनों से यह स्पष्ट हो जाता है बढ़ता एवं फैलता वायु प्रदूषण योग एवं व्यायाम से फायदों को कम कर रहा है । इन फायदों को ज्यादा लेने के लिए योग एवं व्यायाम ऐसे स्थानों पर या ऐसे समय किये जावे जब वायु प्रदूषण न्यूनतम हो । योग एवं व्यायाम के समय मास्क का उपयोग भी फायदेमंद हो सकता है । 
पर्यावरण वैज्ञानिकों का सुझाव है कि जो लोग योग एवं व्यायाम से पूरा स्वास्थ्य लाभ लेना चाहते हैं उन्हें वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए भी आगे आकर कार्य करना  चाहिये ।
हमारा भूमण्डल
एंटीबॉयोटिक के लिए नयी गाइड लाईन
राजकुमार कुम्भज
सरकार देर से ही सही चेती जरूर है, अब शीघ्र ही देश में एंटीबॉयोटिक के उपयोग के लिए एक गाइड लाइन जारी होने जा रही है । उम्मीद की जाना चाहिए कि गाइड  लाइन  के  लागू होने जाने  से है । इसके दुष्प्रभावों और दवा कम्पनियां की लूट से आम आदमी बच सके गा ।
हमारा देश भारत, दुनिया के उन देशों में शामिल है, जहां एंटीबॉयोटिक दवाओं का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है । विश्व स्वास्थ्य संगठन का सर्वेक्षण कहता है कि भारत के ५३ फीसदी लोग डॉक्टर की सलाह लिए बगैर ही एंटीबॉयोटिक लेना शुरू कर देते हैं । यहां तक कि फीस बचाने के चक्कर में किसी गंभीर बीमारी के लिए भी डॉक्टर के पास जाने की बजाय सीधे मेडिकल स्टोर से ही अपनी मर्जी से एंटीबॉयोटिक खरीद लेते हैं और जो लोग डॉक्टर के पास सर्दी-जुकाम जैसी अपनी किसी साधारण-सी बीमारी लेकर जाते भी हैं, तो डॉक्टर से एंटीबॉयोटिक लिखवा लेने की ही उम्मीद रखते हैं । यही एक ऐसी भ्रामक मानसिक अवस्था से उपजी व्यवस्था है, जिसकी वजह से हमारे देश में अवैध तरीकों से अधिकांश एंटीबॉयोटिक दवाएं खरीदी-बेची जा रही हैं । भारत में बिकने वाली साठ फीसदी से अधिक एंटीबॉयोटिक दवाएं अवैध ही नहीं,बल्कि अप्रमाणिक  भी हैं ।
ब्रिटिश जर्नल ऑफ क्लीनिकल फार्मेसी में छपी एक रिपोर्ट से ज्ञात हुआ है कि भारत में बिकने वाली ६४ फीसदी एंटीबॉयोटिक दवाएं तय किए गए मानकों के अनुसार नहीं हैं । दुनिया की कई बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बिना किसी प्रामाणिक स्वीकृति के ऐसी दर्जनों दवाएं बेच रही हैं । ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित शोध में कहा गया है कि एंटीबॉयोटिक दवाएं जल्दी बंद कर देने से जीवाणुओं की प्रतिरोधक क्षमता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । इसके विपरीत दरअसल होता ये है कि एंटीबॉयोटिक दवाएं अधिक मात्रा में लेने से मरीज की रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ जाती है । इसलिए एंटीबॉयोटिक दवाओं का कम से कम इस्तेमाल और डॉक्टर की सलाह पर ही किए जाने का मानक बताया गया है, किन्तु किसी भी मानक को मानता कौन है ?
यह जानकर हैरानी हो सकती है कि मांस उत्पादन बढ़ाने के लिए दुनिया भर के पशुपालक अपने जानवरों को धड़ल्ले से एंटीबॉयोटिक खिला रहे हैं ।  चिकन के शौकीनों को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि वे अपने भोजन में जिस चिकन का मजा ले रहे हैं, उसमें चालीस फीसदी तक एंटीबॉयोटिक होता है । जाहिर है कि मांसाहारी लोगों के  शरीर में इस खाद्य के साथ-साथ एंटीबॉयोटिक में पाए जाने वाले खतरनाक रसायन भी पहुंच रहे हैं ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि दुनिया के २२ देशों में पाँच लाख लोगों में एंटीबॉयोटिक प्रतिरोध पाया जा चुका है । भारत में गहन चिकित्सा ईकाई (आई.सी.यु) में भर्ती दस में से चार मरीज एंटीबॉयोटिक प्रतिरोधकके शिकार पाए गए हैं । हमें यह जानकर चिंता होना चाहिए कि देश में चिकन का वजन बढ़ाने के लिए पोल्टफॉर्मिंग में लोग एंटीबॉयोटिक का उपयोग सबसे अधिक करते हैं । जिस तरह से दूध बढ़ाने के लिए ऑक्सीटोसिन, उसी तरह चिकन बढ़ाने के लिए एंटीबॉयोटिक का प्रयोग होता है । 
हमारे देश में मांसाहारियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, जिस कारण मांस की खपत में भी बड़ा इजाफा हो रहा है । मांस की खपत बढ़ने की वजह से एंटीबॉयोटिक की खपत भी तेजी से बढ़ रही है । `इंडिया स्पैंड' की एक रिपोर्ट के  मुताबिक देश के पशु पालन केन्द्रों में एंटीबॉयोटिक की खपत में इजाफा चौंकाने वाला हो सकता है । एक आकलन के अनुसार इस मामले में भारत चौथे स्थान पर पहुंच गया है। `जर्नल साइंस` का कहना है कि वर्ष २०१३ में हमारे देश के पशुपालकों ने अपने खाद्य-पशुओं को तकरीबन २६३३ टन एंटीबॉयोटिक दवाएं खिलाई थीं । यह वर्ष २०३० तक यह आंकड़ा ४७९६ टन पहंुच जाएगा । 
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक हमारे देश की आधी से अधिक आबादी डॉक्टर के पास जाना पसंद नहीं करती है और डॉक्टर के  परामर्श बगैर ही एंटीबॉयोटिक दवाओं का इस्तेमाल शुरू कर देती है । बहुराष्ट्रीय कंपनियां लोगों की इस गलत आदत का फायदा उठाते हुए अपनी तमाम अवैध एंटीबॉयोटिक दवाएं बेच लेती हैं । देश के मेडिकल स्टोर इस काम में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मदद करते हैं ।
हर किसी बीमारी के लिए एंटीबॉयोटिक  दवाएं  लेने से शरीर के  अंदर इन दवाओं की प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो जाती है, किंतु एंटीबॉयोटिक प्रतिरोधक हो जाने के बाद शरीर पर फिर किसी भी तरह की अन्य दवाओं का असर कम होने लगता है। एक आम भारतीय एंटीबॉयोटिक की ग्यारह गोलियां प्रतिवर्ष खाता है । भारत के अलावा चीन, रूस, तुर्की और ब्राजील जैसे देशों में भी एंटीबॉयोटिक दवाओं की खपत बहुतायत से हो रही है, जो कि खतरनाक है। इन दवाओं के दुष्प्रभावों को लेकर सामान्यत: लोगों में गंभीरता का अभाव बना हुआ है ।
जहाँ हमारे मेडिकल स्टोर्स से प्रतिबंधित दवाएं भी सहज ही उपलब्ध हो जाती हैंवहाँ बिना डॉक्टर की पर्ची के एंटीबॉयोटिक दवाएं सहज ही मिल जाना कोई बड़ी घटना नहीं है। आमतौर पर देशभर में मेडिकल स्टोर्स प्रतिबंधित दवाएं उपलब्ध करवा देने के लिए पर्याप्त ख्याति अर्जित कर चुके हैं । प्रतिबंधित दवाओं में वे कुख्यात ड्रग्स भी शामिल हैं जो जानलेवा श्रेणी में आते हैं । यह सच्चई भी अब किसी से छुपी नहीं है कि अवैध ड्रग्स और अवैध हथियारों के एक बहुत बड़े हिस्से पर दुनियाभर के माफिया संगठनों का एक साथ आधिपत्य है। यह एक ऐसा साम्राज्य हो चला है, जिसने दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं के समानांतर अपनी एक अलग ही सत्ता कायम कर रखी है, जिसे तोड़ना दुनियाभर की सरकारों के लिए बड़ा सिरदर्द बनता जा रहा है । कहीं-कहीं तो ये ड्रग्स माफिया इतने अधिक ताकतवर हो गए हैं कि इनके सामने सरकारें भी खुद को असहाय समझने लगी हैं । इस सबका समाधान बेहद जरूरी है ।
सबसे पहले तो यही जरूरत बनती है कि डॉक्टर जरूरी तौर एंटीबॉयोटिक दवाएं लिखना बंद करंे । फिर उतनी ही बड़ी जिम्मेदारी मरीजों और उनके परिजनों की बनती हैंकि वे एंटीबॉयोटिक दवाएं अनावश्यक तौर पर लिखने का दबाव न बनाएं और तीसरा यह कि जहां तक संभव हो एंटीबॉयोटिक के इस्तेमाल से दूरी बनाएं रखें । अभी देश में तकरीबन ६५, फीसदी एंटीबॉयोटिक अवैध तौर पर बिकती है । यह सब कारोबार सरकार की नाक के नीचे हो रहा है। अब सरकार चेती है और जल्दी ही इस संबंध में एक नई गाइड लाइन जारी करने जा रही है। जहाँ क्लीनिक स्टेबलिशमेंट एक्ट काम कर रहा है, वहां-वहां यह लागू होगी।                    
विशेष लेख
पर्यावरण संतुलन और हमारा दायित्व
डॉ. रामनिवास यादव 

पर्यावरणीय प्रदूषण आज एक भूमण्डलीय समस्या बन गई है  जिसका प्रभाव पूरे चैतन्य जगत पर स्पष्ट है । 
विवेकशील एवं विचारशील प्राणी होने के नाते मानव का यह परम् कर्तव्य है कि वह भूमण्डल पर पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने के लिए अपनी बुद्धि और क्षमताआें का भरपूर उपयोग करें । जीवन यापन के लिए स्वार्थ एवं विलासिता में संलिप्त् होकर अपने परिवेश की अनदेखी करते रहने से काम चलने वाला नहीं है ।
विश्व स्तर पर हमारे स्वार्थ कर्मो का प्रतिबिंब स्पष्ट दिखाई दे रहा   है । अन्तत: प्रकृति ने बाढ़, सूखे एवं भूकम्प के रूप में मानव को चेतावनी देना  प्रारंभ कर दिया है । आज शायद ही कोई ऐसा क्षैत्र बचा हो जिस पर मानव जनित  प्रदूषण और पर्यावरण विनाश की काली छाया न पड़ी हो । मानव के विभिन्न क्रियाकलाप पर्यावरण मेंव्याप्त् अंसतुलन के लिये जिम्मेवार हैं । 
भारत मेंत्वरित गति से बढ़ रही जनसंख्या ने हमारी पर्यावरण नीति को विफल किया है । पर्यावरण के संरक्षण हेतु किए गए अथक प्रयत्नों एवं उपलब्धियों को जनसंख्या वृद्धि ने धूमिल कर दिया है । विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों की संख्या को प्रभावी ढंग से निष्प्रभावी बनाने हेतु संसद द्वारा पारित कानून तथा राष्ट्रीय स्तर पर जनसहयोग से संचालित अभियान से देश के पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने का लाभ मिलना तो दूर बल्कि तेजी से बढ़ रही जनसंख्या वृद्धि ने दिन-प्रतिदिन  प्रदूषण के साम्राज्य का विस्तार किया है । लाख प्रयत्नों के उपरान्त भी जनसंख्या की गति जितनी तेज होगी उतना ही हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर अधिक दुष्प्रभाव व दबाव पड़ेगा । 
प्राकृतिक संसाधनों में वृद्धि जनसंख्या वृद्धि के साथ  होनी असंभव है । ऐसी विकट स्थिति में देशवासियों की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं व्यक्तिगत जीवन प्रक्रिया पर  प्रतिकूल प्रभाव पड़े बगैर नहीं रह सकता । देश में कुशिक्षा, अंधविश्वास, गलत  एवं विभिन्न रीति-रिवाजों  के  कारण हम जनसंख्या का नियंत्रण करने में असफल रहे है । 
स्वतंत्र भारत के वन निरन्तर सिकुड़ रहें है । शताब्दियों से यह सिकुडन जारी है पर जिस गति से वनों पर स्वतन्त्रता के बाद दबाव बढ़ा है वैसा पहले कभी नहीं था । जब हमारा देश आजाद हुआ उस समय कुल क्षेत्रफल के २ २ प्रतिशत भाग पर वन थे अब देश के केवल १९ प्रतिशत भाग पर ही वन है । वनों के बचाव के लिये हमें दोहरी नीति अपनानी होगी यानि आज के आधुनिक प्रौघोगिकी ज्ञान को लोगों के पारम्परिक अनुभव के साथ मिलाकर आगे बढ़ाना होगा । लोगों की सहभागिता के बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता । अत: देश के सभी नागरिकों का नैतिक दायित्व है कि वे पर्यावरण में संतुलन कायम करने के लिए अधिक से अधिक पेड़ लगाएँ । 
भारत की अरण्य संस्कृति ने  ही  हमें शिक्षा और संस्कृति के संस्कार दिए थे । यह हमारे लिए जीवन की तरह कीमती है। भारतीय वन्य जीव बोर्ड ने राष्ट्रीय वन्य जीव सुरक्षा के लिए व्यापक प्रबंध किए हैं । परन्तु फिर भी आए दिन समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलता है कि सरंक्षित पशुआें का शिकार कर विदेशों में कस्तुरी, हाथी दांत, खाल व बाघ की हडि्डयों की तस्करी हो रही है । स्पष्ट है कि कानून द्वारा पाबन्दी करने मात्र से स्वार्थी तत्व बाज नहीं आ रहें है । प्रत्येक नागरिक का उत्तरदायित्व है कि वे वन्य जीवों के प्रति दया रखें क्योंकि वन्य जीव पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं । 
पर्यावरण को सन्तुलित रखने के लिए जल संरक्षण भी हमारी नैतिक जिम्मेदारी है । कहा जाता है कि जल है तो कल है और रहीम जी ने तो बहुत पहले कह था कि रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून । पानी गए न ऊभरे मोती, मानुष, चून'' पानी की बड़ी-बड़ी टंकियों पर लिखा मिलता है - पानी की कमी है, इसे बचाओ । देश में सचमुच शुद्ध पानी की कमी है । देश में जल संसाधनों के प्रबंधन में इस सीमा तक लापरवाही और अनदेखी है कि भविष्य ही संकट में पड़ जाए । प्रतिवर्ष ग्रीष्म ऋतु के आते ही सारे देश में जल का भीषण संकट उत्पन्न हो जाता है । 
समाचार पत्र-पत्रिकाआें में खाली बाल्टियों, घड़ों और मटकों की कतारें दिखती हैं । अनेक राज्यों और नगरों में बाल, वृद्ध और महिलाएं मीलों चलकर पीने के पानी की व्यवस्था करती देखी जा सकती हैं । हमारे देश में बड़ी-बड़ी नदियों में जल राशि की अपार मात्रा उपलब्ध कर रखी पर यह देश प्यासा और सूखा पड़ा रहता है । हमारे देश में वर्षा जल के संरक्षण का नितान्त अभाव हे । एक दूसरा भारी खतरा भूमिगत जलस्तर के निरन्तर गिरते जाने से उत्पन्न हो गया है । संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण संबंधी रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश नगर भूमिगत जल पर आधारित होते जा रहे हैं । रिपोर्ट के अनुसार कलकत्ता में कुछ स्थानों पर जलस्तर चालीस मीटर तक नीचे जा चुका है । दिल्ली में भूमिगत जलस्तर खतरे के बिन्दु से भी अधिक गिर चुका  है । नदियों व झीलों का जल जहर में बदल रहा है । 
हमारे देश के किसान उद्योगपति  एवं गृहणी ने बिना सोची-समझे जल का दोहन किया है । परिणाम यह हुआ कि हमने धरती का पेट खाली करके प्राकृतिक जल चक्र को प्रभावित किया है। इससे बाढ़ व सूखे की स्थितियां उत्पन्न हुई है और पर्यावरण असंतुलित हुआ है । आज देश के प्रत्येक नागरिक का फर्ज है कि वह जल संरक्षण के विभिन्न उपायों को अपने जीवन में अमली जामा पहनाने का प्रयत्न करे तभी हम आगे आने वाली पीढ़ियों को पीने का पानी उपलब्ध करा पायेंगे । 
हमारे देश में शहरों का आकार निरन्तर बढ़ता जा रहा है । आज संसार में शहरी आबादी की दृष्टि से भारत का चौथा स्थान है । अनुमान है कि आज बड़े शहरों में लगभग ३५ करोड़ लोगों ने रहना शुरू कर दिया है । इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए आवास, परिवहन के साधन एवं पीने के पानी उपलब्ध कराना बहुत कठिन कार्य है । देश में छोटे-मोटे शहरों की संख्या ४७०० है । इसमें केवल २५०० कस्बों व शहरों में ही पेयजल की सही व्यवस्था है । मलमूत्र की निकासी के लिए सीवरेज की पूरी व्यवस्था तो काफी कम शहरों में ही उपलब्ध है, ऐसे में पर्यावरण का प्रदूषण होना स्वभाविक ही है । 
अर्थतंत्र के हर हिस्से में पर्यावरणीय समस्याएं अपने पंजों को फैलारही हैं । आज जरूरत इस बात की है कि हम अपनी विकास परियोजनाआें को पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में तय करें व उन्हें आगे बढ़ाएं । जल विद्युत योजनाएं हो या थर्मल पॉवर योजनाएं या कोई और विकास कार्य हो, हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि पर्यावरण असन्तुलित न होने पाए और यदि कुछ हद तक पर्यावरण  सन्तुलन में कुछ गड़बड़ होती है तो उस समस्या के निदान के रास्ते भी तय किय ेजाने चाहिए । 
यदि राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक नागरिक पर्यावरण संतुलन के प्रयासों में एक जुट हो जाए तो हमारे देश की औद्योगिक गति की प्रक्रिया को कहीं अधिक सुगमता और तेजी से बढ़ाया जा सकता है । इसके लिए नागरिकों की बढ़ती जनसंख्या पर भी नियंत्रण करना अनिवार्य है ताकि प्रकृतिका अति दोहन न हो । पर्यावरण से संबंधित सभी प्रकार के मुद्दों को मिलजुल कर हल करने के लिए सरकारी और गैर सरकारी संस्थाआेंके बीच संयुक्त रूप से उद्यम अथवा अनुसंधान करते रहना चाहिए । 
विकास की विभिन्न योजनाआें को प्रारंभ करने के पूर्व अनुसंधानों के आधार पर वैज्ञानिक दृष्टि से सृजनात्मक एवं व्यावहारिक सुझाव प्रदान करेंताकि परियोजनाआें को उनके अनुरूप प्रांरभ किया जा सके । पर्यावरण संतुलित रखने हेतु विभिन्न सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाआें द्वारा निर्धारित लक्ष्य तभी पूरी हो सकते हैं जब प्रत्येक देशवासी अपने समक्ष पर्यावरण संरक्षण की मानसिकता को आत्मसात करते हुए अपना कर्तव्य समझें और प्रलोभन की वृत्ति का ह्दय से परित्याग कर दे, तभी हमारा पर्यावरण संतुलित रह सकता है । 
पर्यावरण एक अंत: संबंधी विषय है । प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा व संरक्षण के लिए कानूनों की आवश्यकता है । भारत सरकार ने पर्यावरण की सुरक्षा हेतु विभिन्न कानून बनाएं है । जैसे कीटनाशक एक्ट १९६८, वन्य जीव एक्ट १९७२, जल प्रदूषण एक्ट १९७४, वायु प्रदूषण एक्ट १९८१ और पर्यावरण संरक्षण एक्ट १९८६ आदि । लेकिन विभिन्न कानूनों का  बनना उस समय तक सार्थक नहीं हो पाएगा जब तक हम अपनी जिम्मेदारी निभाकर इन कानूनों का पालन नहीं करेंगे । हमें अपनी प्रवृत्ति बदलनी होगी । नागरिक भावना, संयम और दूरदर्शिता से कार्य करना होगा । 
पर्यावरण के संदर्भ में हमें अपनी बुद्धि, विवेक और मर्यादा के अनुसार इन सब बातों को ध्यान में रखकर उचित रूख अपनाना होगा और पर्यावरण को सबका समझकर सही निर्णय लेना होगा । जिस पर्यावरण और जिसकी जीव जातियों से हमारा शरीर बना है और हमारा जीवन चलता है । उसके प्रति हमारी भावना निष्ठामय और निश्चल होनी चाहिए तभी पर्यावरण की सुरक्षा और हमारा कल्याण है । अपने पर्यावरण को सर्वोपरि मानकर ही हम उसका संरक्षण कर सकते हैं और अपने को भी स्वस्थ, शांत तथा रोगमुक्त रख सकते है ।         
जीवन शैली
दैनिक उपयोगिता के उत्पादों को खतरों से बचाएं
भारत डोगरा

हाल के समय में दैनिक जीवन में उपयोग होने वाले उत्पादों में खतरनाक रसायनों व स्वास्थ्य के लिए हानिकारक कारकों का प्रवेश तेजी से बढ़ा है । 
एक लाख में से ३००० व्यापारिक उपयोग वाले रसायन ऐसे हैं जिनका उत्पादन पाँच लाख किलोग्राम प्रतिवर्ष से अधिक होता है पर इनमें से लगभग ५० प्रतिशत कैमिकल्स से जुड़े खतरों के बारे में कोई आंकड़े व अध्ययन उपलब्ध नहीं हैं । ऐसी बुनियादी जानकारी के अभाव में गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से बचाव संभव नहीं है । वहीं मोबाईल फोन व इनके लिए बनाए गए टॉवर से निकलने वाले रेडियेशन या विकिरण से स्वास्थ्य संबंधी कई खतरे जुड़े हैं ।
लिवरपूल विश्वविद्यालय से जुड़े विशेषज्ञ डा. वाईवन हावर्ड ने एक बहुचर्चित लेख में बताया है कि आज हमारे शरीर में ३०० से ५०० ऐसे रसायन मौजूद हैं जिनका आज से ५० वर्ष पहले अस्तित्व था ही नहीं या नहीं के बराबर   था । खतरनाक रसायनों को जब मिश्रित किया जाता है, तो उनका खतरनाक असर १० गुणा तक बढ़ सकता है जबकि वर्तमान में विभिन्न रसायनों कि जांच अलग-अलग ही की जाती है । 
विश्व के २८ देशों के १७४ वैज्ञानिकों ने आपसी सहयोग से यह पता लगाने का प्रयास किया कि सामान्य उपयोग में आने वाले रसायनों का कैंसर से कितना संबंध है। जिन रसायनों का अध्ययन हुआ, उनमें ८५ में से ५० रसायन ऐसे पाए गए जिनका कैंसर के कारणों पर 'लो डोज` असर पाया गया । १३ के संदर्भ में एक सीमा के बाद कैंसर उत्पन्न करने वाले असर देखे गए ।
लंदन फूड कमीशन ने बताया था ब्रिटेन में ९२ ऐसे कीटनाशकों /जंतुनाशकों को स्वीकृत मिली हुई है जिनके बारे में पशुओं पर होने वाले अध्ययनों से पता चला था कि इनसे कैंसर व जन्म के  समय की विकृतियां होने की संभावना है । संयुक्त राज्य अमेरिका की नेशनल एकेडमी ऑफ साइंर्सिस ने एक रिपोर्ट में कहा कि पेस्टीसाईड के कारण एक पीढ़ी में लगभग १० लाख कैंसर के अतिरिक्त कैंसर उत्पन्न होने की संभावना है ।
पी.ग्रेंडजीन व पी.जे.लैंडरिगन ने कैमिकल्स के स्वास्थ्य परिणामों पर अपने चर्चित अनुसंधान में बताया है कि एक लाख में से ३००० व्यापारिक उपयोग वाले रसायन ऐसे हैंजिनका उत्पादन पाँच लाख किलोग्राम प्रतिवर्ष से अधिक होता है पर इनमें से लगभग ५० प्रतिशत कैमिकल्स से जुड़े खतरों के बारे में कोई आंकड़े व अध्ययन उपलब्ध नहीं हैं । ऐसी बुनियादी जानकारी के अभाव में गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से बचाव संभव नहीं है ।
इन वैज्ञानिकों के अनुसंधान में विशेषकर भ्रूण व बच्चें के मस्तिष्क के  विकास पर खतरनाक कैमिकल्स के असर का विवरण है। भ्रूण व बच्चें के मस्तिष्क विकास को प्रतिकूल प्रभावित करने वाले थोड़े से कैमिकल्स की ही पहचान हुई है, जबकि इनकी वास्तविक संख्या कहीं अधिक होने का अनुमान है। इस असर के कारण ऑटिस्म, मंदबुद्धिता व सेरीब्रल पाल्सी जैसी स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं । इस अध्ययन के अनुसार खतरनाक कैमिकल्स के कारण ऐसे प्रतिकूल परिणाम झेलने वाले बच्चें की संख्या विश्व स्तर पर कई मिलियन में हो सकती है (१ मिलियन = १० लाख)
भारतीय सरकार के संचार व सूचना तकनीक मंत्रालय ने कुछ समय पहले मोबाईल फोन से जुड़े खतरों के अध्ययन के लिए एक आठ सदस्यों की अर्न्तमंत्रालय समिति का गठन किया । इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि मोबाईल फोन व इनके लिए बनाए गए टॉवर से निकलने वाले रेडियेशन या विकिरण से स्वास्थ्य संबंधी कई खतरे जुड़े हैंजैसे याद्दाश्त कमजोर होना, ध्यान केन्द्रित न कर पाना, पाचन तंत्र में गड़बड़ी होना व नींद में कठिनाई होना, सिरदर्द, थकान, हृदय तनाव, प्रतिक्रिया में देरी आदि । अन्य जीव-जंतुओं पर असर के बारे में इस समिति ने बताया कि चिड़िया-गौरेया, मधुमक्खी, तितली, अन्य कीटों की संख्या में बड़ी कमी आने में अन्य कारणों के साथ मोबाईल टावर से होने वाले रेडियेशन भी जिम्मेदार हैं ।
इससे पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो. जितेंद्र बेहारी का इस विषय पर अनुसंधान भी सुर्खियों में आया था । इस शोध को इंडियन कांउसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च व कांउसिल फॉर साइंर्टिफिक एंड इंडस्ट्रीयल रिसर्च ने प्रायोजित किया था। इस अनुसंधान का निष्कर्ष यह था कि मोबाईल का अधिक समय तक इस्तेमाल करना खतरनाक तो अवश्य है पर यह कितना खतरनाक सिद्ध होगा यह कई बातों पर निर्भर होगा जैसे कि मोबाईल फोन का उपयोग करने वाले व्यक्ति की उम्र कितनी है, उसे पहले से कौन-सी बीमारी या स्वास्थ्य समस्या है, वह कितने समय फोन उपयोग करता है व उसके फोन की क्वालिटी कैसी है । 
विशेष परिस्थितियों में मोबाईल फोन का उपयोग हृदय रोग, कैंसर (विशेषकर दिमाग का कैंसर), आर्थराईटिस, अल्जाईमर, नपुसंकता (स्पर्म शुक्राणु की कमी) की संभावना बढ़ा सकता है । उम्र के हिसाब से देखें तो मोबाईल फोन व टॉवर का सबसे अधिक खतरा छोटे बच्चें के लिए  है । अत : छोटे बच्चें को मोबाईल व टॉवर से बचा क  र रखना सबसे जरू री है।
यह खतरे भविष्य में इस क ारण तेजी से बढ़ेंगे क्योंकि अब बचपन से ही मोबाईल फोनों का उपयोग हो रहा है और काफी असावधानी से हो रहा है । कई बार सोते समय रात को ऑन मोबाइल बच्चें के बहुत पास रख दिया जाता है जो बहुत गलत है, विशेषकर यदि फोन दिमाग के  पास ही पड़ा हो ।
अत : यह बहुत जरूरी है कि दैनिक जीवन के उपयोग में आने वाली वस्तुओं के खतरों के बारे में पर्याप्त प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध करवाई जाए तथा साथ में दैनिक जीवन के  उपयोग की वस्तुओं को सुरक्षित बनाने के भरपूर प्रयास सरकारी व गैर-सरकारी दोनों स्तरों पर किए जाएं ।
कविता 
पेड़ों की पुकार
लोककवि घनश्याम सैलानी

मैं युग युग खड़ा हॅूं, मनुष्यो ! तुम्हारे लिए जीना चाहता हँू।
मुझे न काटो, मैं तुम्हारा हॅूं, तुम्हें कुछ देना चाहता हँू।
दूध और पानी, सघन छाया और वर्षा तुम्हें दे रहा हँू।
तुम्हें अन्न देने के लिए, खेतों की उर्वर मिट्टी रोक रहा हँू।
मेरी कुछ फलदार जातियां, तुम्हारे लिए पकती हैं । 
मैं मिठास लेकर पकना चाहता हँू, तुम्हारे लिए झुकना चाहता हँू।
मुझे मत काटो, मुझमें जीवन है, प्राण है । 
मुझे पीड़ा लगती है, तब ही तो पेड़ नाम है । 
मेरे टुकड़े पहाड़ से लुढ़कने पर भूस्खलन होगा । 
मैं ढाल पर हँूऔर नीचे गांव बसा है । 
हमारे रक्षक ही हमारे काल बन गए । 
चीड़ के पेड़ों को लीसा निकालने के लिए घायल कर दिया । 
गांव के लोगों ! तुम तरूण पेड़ों को छेदन देखते रहे । 
हमको रूलाकर हमारा खून चूसकर वे सम्पन्न बनें ।
घायल होकर हम निर्बल हुए और,
हैजा के रोगियों की तरह मरे । 
जहां हमारा सर्वनाश हुआ है, वहां आज धुल उड़ रही है । 
वहां की पहाड़िया खलवाट हो गई, जल स्त्रोत सूख गये ।
हमें न काटो, हमें बचाओ, हमें लगाओ, धरती सजाओ ।
हमारा क्या है, सब कुछ  तुम्हार ही है ।
अक्षली पीढ़ी के लिए कुछ देकर जाओ । 
रहन-सहन
सत्तर फीसदी पानी पीने लायक नहीं
शर्मिला पाल
आजादी के सत्तर सालों बाद भी देश में पचहत्तर फीसदी घरों में पीने का पानी उपलब्ध नहीं है । सत्तर फीसदी पानी पीने लायक ही नहीं है । शहरों-कस्बों में जिनके पास पर्याप्त् पैसा है, वे खरीद कर बोतलबंद पानी पीते हैं । लेकिन भारत जैसे गरीब देश में हर कोई बोतल बंद पानी खरीद नहीं सकता । तो क्?या वे प्रदूषित पानी पीने को अभिशप्त् हैं  ?
देश में जल संकट की समस्या आने वाले कुछ वर्षो में और अधिक विकराल हो सकती है। हाल ही में जारी नीति आयोग की जल-प्रबंधन रिपोर्ट के मुताबिक, देश के साठ करोड? लोग पानी की गंभीर कमी से जूझ रहे हैं ; स्वच्छ पेयजल उपलब्ध न होने से प्रति वर्ष जल-जनित बीमारियों की वजह से करीब दो लाख मौतें हो रही हैं । अचरज की बात है कि आज?ादी के सत्तर सालों बाद भी पचहत्तर फीसदी घरों में पीने का पानी मुहैया नहीं है। मतलब यही है कि जल संकट के प्रति लोकप्रिय कल्याणकारी सरकारों का  नजरिया उदासीन रहा है ।
जल संकट कोई नई समस्या नहीं है । देश के जागरूक सामाजिक संगठन दशकों से जल संकट का मुद्दा उठाते रहे हैं, लेकिन किसी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया । नतीजा है कि देश में सत्तर फीसदी पानी पीने लायक ही नहीं है । अगर चुनी हुई सरकारें नागरिकों को शुद्ध पेयजल भी मुहैया नहीं करा सकतीं तो उनकी जवाबदेही पर सवाल उठना स्वाभाविक है ।
भारत में फिलहाल प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता १५४४ घन मीटर है। इस स्थिति को जल की कमी की चेतावनी के रूप में देखा जाता है । अगर यह उपलब्धता १००० घन मीटर से नीचे आ जाए तो जल संकट माना जाता है । देश की आबादी जिस रफ्तार से बढ? रही है, उसे देखते हुए आने वाले एक दशक में भारत जल संकट-ग्रस्त की श्रेणी में आ जाएगा । इसकी एक बड?ी वजह भूजल का बेतरतीब दोहन है । 
जल राज्य सूूची के अंतर्गत आता है । लिहाजा,राज्य सरकारों को जल के महत्व के प्रति जागरूकता अभियान चलाना चाहिए । दरअसल, जल संकट प्राकृतिक और मानव-निर्मित, दोनों है । जल का समुचित प्रबंधन करके  हम जल संकट का समाधान निकाल सकते हैं । सरकार को जल सम्बंधी राष्ट्रीय कानून बनाने पर भी विचार करना चाहिए । किसी ने कहा भी है कि पानी तीसरे विश्व युद्ध का कारण बन सकता है । लिहाज?ा, हमें पानी की बर्बादी को रोकने के उपायों पर भी ध्यान देना होगा ।
देश में ४.११ करोड? लोगों को पीने का साफ व सुरक्षित पानी नहीं  मिलता । नीति आयोग ने देश में बढ?ते पेयजल संकट पर गहरी चिंता जताई है । आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत ने कहा है कि आयोग के संयुक्त जल प्रबंधन सूचकांक में लगभग ६० फीसदी राज्योंका प्रदर्शन बेहद लचर रहा है। इनमें उ.प्र., बिहार, राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्य शामिल हैं, जहां देश की आबादी के आधे लोग रहते हैं ।  इस मामले में गुजरात का प्रदर्शन सबसे बेहतर रहा है । उसके बाद म.प्र. व आंध्र प्रदेश का स्थान है । 
आयोग का कहना है कि जिन राज्यों में जल प्रबंधन ठीक नहीं है, वहीं से कुल कृषि उत्पादन का २०-३० फीसदी आता है । अमिताभ कांत कहते हैं,  देश के समक्ष फिलहाल पूरी आबादी को पीने का साफ  व सुरक्षित पानी मुहैया कराना ही सबसे बड?ी चुनौती है ।  पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को अभी से इस संकट की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए जल संरक्षण के उपायों पर जोर देना होगा ।
ऑल इंडिया इंस्टीटयूट ऑफ हाइजीन एंड पब्लिक  हेल्थ के पूर्व निदेशक के.जे. नाथ कहते हैं, सरकार को बारिश के पानी का संरक्षण अनिवार्य बनाना होगा । आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों ने इसके ज?रिए संकट पर काफी हद तक काबू पा लिया है ।  पर्यावरणविद? कल्याण रुद्र कहते हैं,  पानी के संरक्षण की दिशा में तुरंत ठोस पहल न की गई तो आने वाली पीढि?यों के समक्ष पीने के साफ पानी का गंभीर संकट पैदा हो जाएगा ।  
नीति आयोग की रिपोर्ट देखने के बाद यह स्पष्ट है कि भारत अपने इतिहास के सबसे भयावह जल संकट से गुज?र रहा है और हालात को इस कदर बिगाड?ने में अकर्मण्य सरकारी तंत्र के  साथ हमारी भी बड?ी भूमिका है। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, सरकार के  साथ-साथ हमें भी अपने-अपने स्तर पर सक्रिय हो जाने की जरूरत है । 
नीति आयोग के जल प्रबंधन सूचकांक के अनुसार, देश के तकरीबन ६० करोड? लोग पानी की भयंकर कमी से जूझ रहे हैं, और दो लाख लोग हर साल सिर्फ इस कारण मर जाते हैं कि उनकी पहुंच में पीने योग्य पानी नहीं होता । ७५ फीसदी घरों में पीने का पानी नहीं है और देश का करीब ७० फीसदी पानी पीने योग्य नहीं है । जल गुणवत्ता सूचकांक में १२२ देशों की सूची में भारत १२०वें स्थान पर है । रिपोर्ट आगाह करती है कि समुचित प्रबंधन न हुआ, तो २०३० तक बात हाथ से निकल जाएगी, क्योंकि तब तक पानी की मांग आपूर्ति से दुगनी हो चुकी होगी । 
कुल मिलाकर, स्थिति भयावह है और बात कटते वनों, नव-वनीकरण में कोताही, अंधाधुंध निर्माण के लिए जल दोहन और शहरीकरण में जल स्त्रोतोंके खत्म होते जाने के सियापे से आगे जा चुकी है । तमाम और कारण भी हैं । आज भी हम खेती के लिए पानी के तार्किक उपयोग वाले सिंचाई के उन्नत इंतज?ाम में पीछे हैं । अंधाधुंध शहरीकरण में उगते कंक्रीट के जंगलों ने पानी का पारंपरिक पुनर्भरण तो कम किया ही, पारंपरिक जल स्त्रोतों को खत्म ही कर दिया । इन्हें किसी भी सूरत में वापस लाना होगा । नदी-नालों व तालाबों में रसायन और कचरा डालने पर दिखावटी सख्ती हुई, लेकिन असल में कुछ नहीं हुआ । शहरी उपभोक्ता, कृषि व उद्योगों के बीच पानी के बंटवारे का असंतुलन भी हम दूर नहीं कर पाए । इस मामले में सरकारी तंत्र की नाकामी साफ है । 
आंकड़े बताते हैं कि महज घरों के यूरीनल में हर बार फ्लश चलाने से बचा जाए या वाटर फ्री यूरीनल का प्रयोग किया जाए, तो सौ फ्लेट वाली एक इमारत हर दिन कम से कम सात हज?ार लीटर पानी बचा सकती है । कल्पना करें कि यह प्रयोग अगर हर शहर के हर अपार्टमेंट, दफ्तर और स्कूल में अनिवार्य हो जाए, तो नतीजे कितने सुखद होंगे । हर अपार्टमेंट यदि किचन और बाथरूम के पानी का संचय कर उसके शोधन और फिर से इस्तेमाल की व्यवस्था कर ले, वाटर फ्री यूरीनल का प्रयोग शर्त बन जाए, तो नतीजे अत्यंत नाटकीय  होगे ।मानव निर्मित घटनाएं प्राकृतिक संसाधनों को चौपट कर रही हैं. पेड? पौधे मिट रहे हैं, नदियां, तालाब, पोखर सूख रहे हैं और भूजल सूख रहा है । इस मामले में कुछ गतिविधियां पर ध्यान देने की जरूरत है ।  
पर्यावरण परिक्रमा
समुद्र में कचरे के लिए १० बड़ी नदियां जिम्मेदार 
दुनियाभर के वैज्ञानिक इस सवाल का जवाब खोजने मेंलगे है कि समंदरों में प्लास्टिक का कचरा कैसे बढ़ रहा है । इसका जवाब हाल में हुए एक अध्ययन से मिल गया है । पता चला है कि दुनियाभर के समंदरों में मिल रहे कचरे के लिए १० नदियां ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है । इनमें चीन की यांग्त्जे नदी पहले नंबर पर है । यांग्त्जे चीन की सबसे लंबी नदी है । दूसरे पायदान पर भारत की गंगा नदी है । 
समंदरों में जो प्लास्टिक कचरा मिल रहा है, उसका करीब ९०% इन १० नदियों से आ  रहा  है । बड़ी बात तो ये है कि इन १० में से ८ नदियां तो एशिया की ही हैं । यांग्त्जे और गंगा के अलावा इस लिस्ट में सिंधु (तिब्बत और भारत), येलो (चीन), पर्ल (चीन), एमर (रूस और चीन), मिकांग (चीन) और दो अफ्रीका की नाइल और नाइजर नदियां शिााम्ल हैं । हर साल करीब ८० लाख टन कचरा  समदंरों में मिल रहा   है । 
रिसर्चर डॉ. क्रिश्चियन स्कीमिट ने बताया कि- `ज्यादातर कचरा नदी के किनारों की वजह से होता है, जिसका निपटारा नहीं हो पाता है और वह बहता हुआ समदंरों में आ जाता है । ये भी देखने में आया कि बड़ी नदियों के प्रति घन मीटर पानी में जितना कचरा  रहता है, उतना छोटी नदियों में नहीं रहता है ।' एशिया की सबसे लंबी और दुनिया में इकोलॉजी के लिहाज से महत्वपूर्ण नदियों में से एक यांग्त्जे के आसपास चीन की  एक तिहाई आबादी यानी ५० करोड़ से ज्यादा लोग बसते हैं । 
यही समंदर में सबसे ज्यादा कचरा ले जा रही है। चीन ने रिसाइकलेबल वेस्ट का पहले खूब आयात किया, पर बाद में सरकारी नीतियों के कारण यह रूक गया । विदेशी कचरे पर रोक में सबसे पहले धातु के कचरे पर रोक लगाई गई है । इस वर्ष चीन ने ४६ शहरोंमें कचरे को काबु करने का निर्देश दिया है । इसके कारण अगले दो साल में ३५ प्रतिशत कचरा रिसाइकल हो चुका होगा । 
संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम के प्रमुख एरिक सीलहेम का कहना  है - चीन में दुनिया का सबसे ज्यादा प्लास्टिक कचरा होता है । प्लास्टिक कचरा ले जाने में गंगा दुनिया में दूसरे स्थान पर है, जबकि सिंधु नदी छठे स्थान पर आती है । कुछ साल पहले सरकार ने गंगा की सफाई के लिए नमामि गंगे प्रोजेक्ट शुरू किया था, पर हाल ही में एनजीटी ने दो टूक कहा है कि गंगा की एक भी बूंद साफ नहीं हो सकी है । ट्रिब्यूनल ने दिल्ली में हाल ही में डिस्पोसेबल प्लास्टिक पर भी रोक  लगा  दी  है । 
पर्यावरण नुकसान पहुंचाया अदालत ने लगवाए ५० हजार पौधे 
हरियाणा में यमुनानगर के कलेसर जंगल में पेड़ काटने पर अब्दुल के खिलाफ वन विभाग ने केस दर्ज किया । पर्यावरण अदालत से अब्दुल को इस शर्त पर जमानत मिली कि वह ५१ पौधे लगाकर छह महीने तक उनकी देखरेख करेगा । ऐसे ही अम्बाला में स्क्रीनिंग फैक्टरी संचालक रामसिंह पर वायु प्रदूषण फैलाने के दोषी पाए गए, उन्हें भी ५१ पौधे लगाने पड़े । 
कुरूक्षेत्र स्थित विशेष पर्यावरण अदालत के विशेष पीठासीन अधिकारी अनिल कौशिक दो साल  में २१० मामलों में ऐसी अनूठी अतिरिक्त सजा दे चुके है । फॉरेस्ट और वाइल्ड लाइफ एक्ट में जुर्माने या कैद की सजा का प्रावधान है, लेकिन पर्यावरण की कीमत काअहसास कराने के लिए जज पौधारोपण की अतिरिक्त सजा दे रहे है । हरियाणा के कुरूक्षेत्र व फरीदाबाद मेंपर्यावरण कोर्ट है । 
कुरूक्षेत्र कोर्ट के अन्तर्गत १५ जिले है । वन, वन्य जीव और प्रदूषण से जुड़े केस यहां सुने जाते हैं । दो साल पहले विशेष पीठासीन अधिकारी ने वन अधिनियम में एक दोषी को हर्जाने के साथ ही पौधे लगाने की सजा दी । इसके बाद तय किया कि हर दोषी से खासकर फॉरेस्ट एक्ट के मामलों में सजा के रूप में पौधें भी जरूर लगवाएंगे ।
पिछले साल से जमानत में भी कम से कम ५१ पौधे लगाकर ६ माह निगरानी करने की शर्त जोड़ दी । यह इंडियन फॉरेस्ट एक्ट १९२७, इंडियन वाइल्ड लाइफ एक्ट और वाटर पॉल्यूशन एवं एयर पॉल्यूशन एक्ट १९८० में दी गई सजा के अतिरिक्त है । कुछ आरोपी सहर्ष मानते है, तो कुछ मजबूरी में पौधरोपण करते हैं । 
जमानती व दोषी को पौधरोपण करने के बाद बाकायदा कोर्ट में प्लांटेशन रिपोर्ट देनी पड़ती है । पौधे लगाने के बाद गांव के मुखिया या शहर मेंवार्ड पार्षद की वेरीफिकेशन रिपोर्ट कोर्ट व वन विभाग में जमा करानी होती है । पर्यावरण अदालत संबंधित एरिया के डीएफओ से क्रॉस चेक कराती है । रेंज या ब्लॉक अफसर क्रॉस चेक कर अलग से रिपोर्ट जमा करते है । 
विशेष पीठासीन अधिकारी अनिल कौशिक की सोच है कि सिर्फ हर्जाने से क्षति का अहसास संबंधित व्यक्ति को नहीं होगा । जब वह पौधे लगाएगा तो इसका महत्व भी समझेगा । उसे अपने खर्च पर नर्सरी से पौधे लाने होते है । गड्डे कराने से लेकर पौधो को सींचने का जिम्मा भी उसका होता है । खास बात यह है कि अब तक एक भी मामले में नाफरमानी नहीं हुई है । 
खाद्य सुरक्षा कानून में कड़े हो जाएंगे नियम
सरकार खाने-पीने के समान में मिलावट करने वालों पर सख्ती से निपटने की तैयारी कर रही है । एसएसएसआई यानी फूड रेगुलेटर, भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकारण ने खाद्य पदार्थोमें मिलावट करने वालों को उम्रकैद तक सजा देने की सिफारिश की है । 
सूत्रों के अनुसार तैयार प्रस्ताव में मिलावट करने वालों पर ७ साल से लेकर उम्र कैद तक की सजा और १० लाख रूपए तक का जुर्माना देने की सिफारिश की गई है । 
अब खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे में एक्सपोटर्स भी आएगे । फिलहाल एक्सपोर्टस पर खाद्य सुरक्षा कानून लागू नहीं है । खाने का सामान इंपोर्ट करने वालों की जिम्मेदारी तय होगी, उपभोक्ता की परिभाषा में भी बदलाव होगा और पशुआें के खाद्य पदार्थ भी कानून के दायरे में आएंगे । 
सूत्रों के मुताबिक सरकार खाद्य सुरक्षा कानून में बदलाव कर इस प्रस्ताव को लागू करने की तैयारी में है । इस कानून के जल्द आने की संभावना जताई जा रही है । फूड सेफ्टी एंड स्टैंडड्र्स अर्थोरिटी ऑफ इंडिया ने मसौदे पर जनता और संबंधित पक्षों से राय मांगी है ।  फिलहाल खान-पान की चीजों में मिलावट से मौते होने पर ही उम्रकैद का प्रावधान है । 
अभी सख्त कानून न होने से देश के हर इलाके में खाद्य पदार्थो और पेयों में मिलावट की खबरें आम है । एफएसएसएआई ने खुद अपने सर्वे के जरिए इस बात की तस्दीक की है । मिलावट के मामले, आम तौर पर त्यौहारों के मौके पर ज्यादा आते हैं, लेकिन सूत्रों का कहना है कि ऐसा देश के हर इलाके में हर रोज होता है । 
फूड सेफ्टी को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने एक और अहम कदम उठाया  है । इसके तहत अब खाद्य पदार्थोकी जांच करने वाली लैब्स को पांच दिन के अंदर अपनी रिपोर्ट देना होगी । 
अगर खाद्य या पेय पदार्थो के किसी केमिकल या उसमें जीवाणुआें की जांच करनी हो तो अधिकतम          १० दिन में रिपोर्ट देनी होगी । एफएसएसएआई के इस आदेश से फूड सेफ्टी को बरकरार रखने में बड़ी मदद मिलने के आसार  है । देश में खाद्य पदार्थो में बढ़ रही मिलावट को रोकने के लिए इस प्रकार अनेक कदम उठाने  की आवश्यकता है ।  
महाराष्ट्र में प्लास्टिक पर लगा बैन 
महाराष्ट्र में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पूरी तरह से रोक लग गई  है । अब किसी भी प्रकार के प्लास्टिक के इस्तेमाल, भण्डारण या उत्पादन करते पाए जाने पर जुर्माना ठोका जाएगा । 
मुम्बई समेत राज्यभर में इसके लिए छापेमारी शुरू की जाएगी । इससे पहले, प्लास्टिक के पर्याप्त् विकल्प न होने के चलते पैकेजिंग समेत कुछ अन्य उत्पादों में राहत देने की पुरजोर मांग व्यापारियों की ओर से की जा रही थी । राहत की अवधि समाप्त् होने के बाद यह उम्मीद टूट गई । छोटे व्यापारियों ने मैन्युफैक्चरिंग स्तर पर बड़ी कपनियों की तर्ज पर छूट न मिलने को अन्याय बताया है । 
बॉम्बे हाईकोर्ट ने प्लास्टिक बंदी में किसी भी प्रकार की राहत नहीं  दी । मामले की अगली सुनवाई २० जुलाई को होगी । महाराष्ट्र सरकार ने अदालत को बताया कि उसने सभी स्थानीय प्राधिकारियों से प्लास्टिक की प्रतिबंधित वस्तुआें और प्लास्टिक कचरे के संग्रहण, ढुलाई और निपटारे की व्यवस्था करने के लिए एक तंत्र बनाने को कहा है । 
सरकार ने २३ जुलाई को एक बार इस्तेमाल होने वाली थैलियों, चम्मच, प्लेट, थर्माकोल वस्तुआें समेत प्लास्टिक की सभी सामग्रियों के निर्माण, इस्तेमाल, बिक्री, वितरण और भंडारण पर प्रतिबंध लगाने के लिए अधिसूचना जारी की थी । इस अधिसूचना को मनमाना प्रतिबंध, कानूनन गलत और आजीविका के मौलिक अधिकार का उल्लघंन करने वाला बताकर चुनौती दी गई थी । अदालत ने गत अप्रैल में निकाली गई अधिूसचना पर प्रतिबंध लगाने से इनकार कर दिया था । 
देश में पहले बार डीएनए टेस्ट से पकड़ा भ्रष्टाचार 
भ्रष्टाचार की जांच के लिए डीएनए टेस्ट । आपको सुनने में शायद यह अजीब लगे, मगर है हकीकत । देश में ऐसा पहली बार हुआ है । मामला गुजरात का है । जहां भ्रष्टाचार के दो मामलों में डीएनए टेस्ट कराए गए और रोचक बात यह है कि उनके परिणाम सकारात्मक आए । भ्रष्टाचार निरोधी ब्यूरो (एसीबी) ने एक पशु डॉक्टर और एक कृषि वैज्ञानिक के खिलाफ मामले दर्ज कराए हैं । दरअसल, इन सरकारी अधिकारियों ने उस वक्त २००० के नोट निगल लिए जब एसीबी ने उनके यहां छापे मारे और उन्हें रंगे हाथों पकड़ा । मामले को पुख्ता बनाने के लिए एसीबी ने दोनों आरोपियों के लार के नमूने ले लिए और उनकी डीएनए जांच करा  डाली ।  
जीव जगत
चींटियां भी पशु पालन करती है ।
डॉ. अरविंद गुप्त्े

चींटिया और पशुपालन बात कुछ अटपटी गलती है  किन्तु चींटियो के पालतू पशु चार टांगों और दो सींगों वाले नहीं होते है जिन्हें इंसान पालते है ।  उनके पालतू जन्तु चींटियों के समान ही कीट होते है जिनकी छह टांगें होती हैं और सिर के आगे एक नुकीली सूंड होती है जिसकी सहायता से वे पौधों का रस चूसते हैं । खटमल कुल के ये कीट बहुत सूक्ष्म होते हैं । इन्हें माहू (अंग्रेज़ी में एफिड) कहते हैं ।  
वैसे तो माहू की लगभग ५००० प्रजातियां पूरे संसार में पाई जाती हैं, किंन्तु समशीतोष्ण प्रदेशों में ये खूब पनपते हैं ।इनका आकार इतना छोटा और वज़न इतना कम होता है कि  हवा इन्हें उड़ा कर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाती है। मादा माहू के  पंख होते हैंऔर वे अपने बलबूते पर एक स्थान से दूसरे स्थान तक उड़कर जा सकती हैं ।  
माहू की कुछ प्रजातियों का जीवन चक्र पौधों की दो अलग-अलग प्रजातियों पर पूरा होता है तो कुछ प्रजातियां एक ही प्रजाति के पौधों पर ज़िंदगी गुजार देती हैं । कुछ अन्य प्रजातियों की पोषक पौधे को लेकर कोई विशेष पसंद नहीं होती और वे किसी भी प्रजाति के पौधे का रस चूस सकती हैं ।
माहू फसलों, जंगल के वृक्षों और बगीचों में लगे पौधों को भारी नुकसान पहुंचाते हैं । इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वे पौधों का  रस चूसकर उन्हें कमज़ोर कर देते हैं । दूसरे, माहू पौधों में कई प्रकार के वायरस को फैलाने का काम करते हैं जो रोगों का कारण बनते हैं । इसके अलावा माहू अपने मलद्वार से मधुरस नामक एक तरल, चिपचिपा पदार्थ रुावित करते हैं जो मीठा होता है। पौधों पर पड़े इस मधुरस पर काले रंग की एक फफंूद उग जाती है जिसके  कारण सजावटी पौधों की सुंदरता नष्ट हो जाती है। 
माहू का नियंत्रण काफी  मुश्किल होता है क्योंकि ये  कई  प्रकार के कीटनाशकों के प्रतिरोधी बन चुके है । इसके अलावा, ये अधिकतर पत्तियों की निचली सतह पर चिपके रहते हैं जहां कीटनाशक के फव्वारे नहीं पहुंच पाते। कई अन्य कीट और कीटों के लार्वा माहू का शिकार करते हैं ।
चींटियों और माहू में परस्पर लाभ का रिश्ता होता है। चींटियों को माहू के शरीर से निकलने वाला मधुरस बहुत पसंद होता है। अत: जिस पौधे पर माहू अधिक होते हैंवहां चींटियों की आवाजाही होती रहती है। चींटियां अपने स्पर्शकों (एन्टेना) से माहू के शरीर को थपथपाती हैं। ऐसा करने पर माहू अपने मलद्वार से मधुरस का स्त्राव करने लगता है और चींटी को स्वादिष्ट पेय मिल जाता है । कुछ मधुमक्खियां माहुओं के  मधुरस से शहद बनाती हैं। चींटियां माहुओं को खाने वाले अन्य कीटों को उस पौधे पर से भगाती हैं और इस प्रकार माहू को सुरक्षा प्रदान करती हैं ।
कुछ चींटियां माहू के अंडों को जाड़े के दिनों में अपनी बाम्बी में ला कर रख लेती हैं और ठंडा मौसम समाप्त् होने पर अंडों में से निकली इल्लियों को वापस पौधों पर छोड़ देती हैं । कुछ पशुपालक चीटियां इससे एक कदम आगे बढ जाती हैं । वे अपनी बाम्बी में माहू के झुंड  पालती हैं (ठीक उसी तरह जैसे पशुपालक पशुओं को पालते हैं ) । ये माहू बाम्बी में ही रहते हैं और बाम्बी के अंदर फैली हुई पौधों की जड़ों का रस चूसते हैं। इस प्रकार चींटियों को अपने घर में ही मधुरस की मधुशाला मिल जाती है। 
जब कोई मादा चींटी अपनी बाम्बी छोड़ कर दूसरी बाम्बी बसाने के लिए निकलती है तब वह माहू के अंडे साथ ले जाती है ताकि नई  बसाहट में माहू के झुंड  की शुरुआत हो सके ।  
पशुपालन की इस कहानी में एक रोचक मोड़ तब आता है जब कुछ ठग किस्म के कीट बाम्बी में घुसपैठ करते हैं । कुछ विशेष प्रजातियों की तितलियां उन पौधों पर अंडे दे देती हैंजहां चींटियां माहुओं को पाल रही होती हैं । इन अंडों से निकलने वाली इल्लियां एक प्रकार का रसायन छोड़ती हैं जिसके कारण चींटियां उन्हें भी अपनी ही तरह की चींटियां समझने लगती हैं और उन पर हमला नहीं करतीं । ये इल्लियां चींटियों के पालतू माहुओं को खाती रहती हैं । इल्लियों को चींटी समझकर वयस्क चींटियां इन इल्लियों को अपनी बाम्बी में ले जाती हैं और उनके लिए भोजन जुटाती हैं । 
इसके बदले में इल्लियां चींटियों के लिए मधुरस का उत्पादन करती हैं । जब इल्लियों की आयु पूरी हो जाती है तब वे शंखी में बदल जाती हैं। शंखी बनने से पहले इल्लियां रेंगकर बाम्बी के दरवाज़े पर पहुंच जाती हैं और वहां निष्क्रिय शंखी में बदल जाती हैं। दो सप्तह के बाद शंखी फट जाती है और तितली उस में से निकल जाती है। अब चींटियों को पता चल जाता है कि उन्हें किस प्रकार ठगा गया और वे तितलियों पर हमला कर देती हैं । किंतु चींटियां डाल-डाल तो तितलियां पात-पात । उनके पंखों पर एक चिपचिपा पदार्थ लगा होता है जिसके कारण चींटियों के जबड़े  काम नहीं कर पाते और तितलियां सुरक्षित रूप से उड़   जाती हैं । 
कुछ माहू भी चींटियों के साथ धोखाधड़ी करने से बाज नहीं आते। एक प्रजाति के माहू के दो रूप होते हैं - एक गोल और एक चपटा । गोल रूप के  माहुओं को चींटियां उसी प्रकार पालती हैं जैसे वे अन्य प्रजातियों के माहुओं को पालती हैं । किंतु चपटे वाले माहू धोखेबाज़ होते हैं । इनकी त्वचा में उसी प्रकार के रसायन होते हैं जैसे चींटियों की त्वचा में होते हैं । इसके फलस्वरूप चींटियां इन्हें अपनी ही इल्लियां समझ कर बाम्बी में लाकर परवरिश करती हैं। किंतु ये चालाक माहू वास्तविक इल्लियों से शरीर के द्रव  चूस लेते  हैं ।     
प्रकृति मित्र दिवस
देश के लिये जीना सीखना है 
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)
जीवन में सादगी, संयम एवं ईमानदारी के गुणों का विकास होगा तभी समाज में स्थायी सुख और शांति आएगी । गांधीजी ने देश के लिए मरना सिखाया था । आज हमें देश के लिये जीना सीखना  है । 
उक्त विचार प्रख्यात गांधीवादी चिंतक डॉ. एसएन सुब्बराव ने युवाआें के लिए समर्पित राष्ट्रीय संस्था युवाम द्वारा आयोजित डॉ. खुशालसिंह पुरोहित के नागरिक अभिनंदन समारोह की अध्यक्षता करते हुए व्यक्त किए । 
श्री सुब्बराव ने कहा कि डॉ. पुरोहित द्वारा पर्यावरण जागरूकता के क्षेत्र में खासकर लोक चेतना के लिए ३२ वर्षो से पर्यावरण डाइजेस्ट पत्रिका का सतत् प्रकाशन सराहनीय कार्य है । पर्यावरण से अभिप्रेरित उनके द्वारा उठाया गया कदम उनकी आत्म शक्ति को प्रतिबिंब करता है । महात्मा गांधी ने कहा था कि हमारे पास जो आत्मशक्ति है, उस शक्ति को हमें पहचानना चाहिए तो जीवन में सफल होगे । डॉ. पुरोहित ने भी इसी दिशा में अपना जीवन समर्पित किया है । 
रतलाम के विधि महाविद्यालय सभागृह में आयोजित समारोह में शहर की २० से अधिक सामाजिक और रचनात्मक संस्थाआें ने डॉ. पुरोहित का शॉल श्रीफल भेंटकर अभिनंदन किया । इनमें जनशक्ति, म.प्र. आंचलिक पत्रकार संघ, सर्वोदय प्रेस सर्विस, सेवा सुरभि, युवाम मित्र मण्डल, महावीर इन्टरनेशनल, जन अभियान परिषद्, हम लोग, इंटक जिला कॉसिल, मुस्लिम नौजावन सभा, यूथ होस्टल एसोसिएशन ऑफ इण्डिया, अग्रवाल युवा महासभा और जैन युवा मंच आदि प्रमुख है । इस मौके पर उनकी सहधर्मिणी श्रीमती अलका पुरोहित का भी अभिनंदन किया गया । 
अपने सम्मान के प्रतिउत्तर में डॉ. खुशालसिंह पुरोहित ने सबके प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि सम्मान व्यक्ति का नहीं विचारों एवं कार्यो का होता है । सम्मान के बाद मेरी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है और मैं जिम्मेदारी को महसूस करते हुए ज्यादा प्रतिबद्धता के साथ पर्यावरण चेतना के प्रयासों में संलग्न रहूंगा । उन्होंने कहा कि मेरे जीवन कर्म पर गांधी, विनोबा के विचारों का गहरा प्रभाव रहा है । इस विचार की अभिप्रेरणा में डॉ. शिवमंगलसिंह  सुमन, सप्रेस के महेन्द्र भाई और सुन्दरलाल बहुगुणा का विशेष योगदान रहा है जिनकी वजह से मैं जीवन के  इस  मुकाम पर पहुंच सका हॅू । 
म.प्र. पूर्व पुलिस महानिदेशक एसके राउत ने अपने मुख्य अतिथि उदबोधन में पर्यावरण डाइजेस्ट पत्रिका के शुरूआती दिनों की चर्चा की और कहा कि पर्यावरण संरक्षण में जागरूकता के लिए पत्रिका की भूमिका महत्वपूर्ण रही । डॉ. पुरोहित का सातत्यपूर्ण कार्य समाज में विशिष्ठ काम के रूप में जाना जाने लगा है । विशेष अतिथि पुलिस के पूर्व महानिरीक्षक वेदप्रकाश शर्मा ने कहा कि डॉ. पुरोहित अपने क्षेत्र में सराहनीय कार्य कर रहे है । उनकी लगन, निष्ठा और समर्पण का प्रतिफल है कि वे आज इस मुकाम पर पहुंचे है । 
प्रारंभ में आयोजक संस्था युवाम के संस्थापक पारस सकलेचा ने अपने विद्यार्थीजीवन के साथी रहे डॉ. खुशालसिंह पुरोहित की कार्य शैली, सिद्धांतों की प्रतिबद्धता और पर्यावरण प्रेम की चर्चा करते हुए उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला तथा कहा कि पुरोहित के सम्मान से युवाम का मान बढ़ा है, रतलाम का मान बढ़ा है । उन्होंने डॉ. पुरोहित के जन्म दिन को प्रकृति मित्र दिवस के रूप मनाए जाने की घोषणा कि  और डॉ. पुरोहित के पर्यावरण प्रेम की विस्तार से चर्चा की ।  
समारोह को अभ्यास मण्डल इन्दौर के संयोजक मुकुंद कुलकर्णी और नेशनल मीडिया फाउण्डेशन के अध्यक्ष राजेन्द्र जैन ने भी सम्बोधित किया । 
समारोह समिति के सचिव नीलू अग्रवाल ने अतिथियों एवं उपस्थितों के प्रति आभार व्यक्त किया । कार्यक्रम का प्रभावी संचालन अब्दुल सलाम खोकर द्वारा किया गया । समारोह में रतलाम के गणमान्य नागरिकों सामाजिक  संस्थाआें के प्रतिनिधियों के साथ ही इन्दौर, उज्जैन और भोपाल आदि शहरों से आए पर्यावरण प्रेमी तथा आमजन बड़ी संख्या में उपस्थित   थे । 
ज्ञातव्य है कि डॉ. पुरोहित का जन्मदिन प्रकृति मित्र दिवस के रूप में मनाया जाने की शुरूआत  की है । प्रकृति हमारी मित्र है । हमारा अतीत प्रकृति पर निर्भर रहा, हमारा वर्तमान प्रकृति पर निर्भर है और हमारा भविष्य भी प्रकृति से ही निर्मित होगा । प्रकृति हमारे जीवन और जीवन मूल्यों से जुड़ी हुई है । जब प्रकृति हमारा अभिन्न अंग है तो हम इस प्रकृति की चिंता क्यों न  करें ?
दुर्भाग्यवश जिस प्रकृतिका हमें पोषण करना था उसका हमने शोषण किया । जिस प्रकृति को हमें पल्लवित करना था हमने उसकी उपेक्षा की । परिणाम हमारे सामने हैं  । निरन्तर दोहित होती प्रकृति से हमारा वातावरण अशुद्ध और अक्षम होता जा रहा है । ऐसे समय में प्रकृति से मित्रता बढ़ाना आवश्यक है । प्रकृति मित्र दिवस की परिकल्पना उस विचार की परिकल्पना है जिसमें हमारे जंगल, जमीन, जानवर, जल और सभी जन शामिल है । इन सभी की रक्षा और संवर्द्धन शामिल  है । 
विगत ४ दशकों से पर्यावरण को लेकर सक्रिय और पर्यावरण से स्वयं के जीवन को एकाकार करने वाले सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद और विगत ३२ वर्षो से निरन्तर प्रकाशित हो रही पत्रिका ``पर्यावरण डाइजेस्ट'' के संपादक डॉक्टर खुशालसिंह पुरोहित के जन्म दिवस १० जून को प्रकृति मित्र दिवस के रूप में मनाने का मित्र जनों ने निर्णय लिया तो उसके पीछे जन्म दिवस आयोजन महत्वपूर्ण न होकर प्रकृति की रक्षा के विचार की महत्ता है । 
इस दिन प्रकृति मित्र दिवस के रूप में होने वाले आयोजन प्रकृति के प्रति समर्पित थे । यह दिन पर्यावरण संरक्षण और संवर्द्धन के लिए समर्पित रहा । पर्यावरण मित्र और आमजन सभी ने मिलकर प्रकृति मित्र दिवस को सार्थक किया । 
अन्य स्थानों पर पर्यावरण प्रेमी मित्रगण और स्थानीय संस्थाआें, प्रकृति मित्र दिवस के अवसर पर जल स्त्रोतों की सफाई, पक्षियों के लिए दाना-पानी की व्यवस्था, कागज/कपड़े की थैलियों का वितरण और पौधारोपण के कार्यक्रम किये जिनमें जन सामान्य में प्रकृतिके प्रति संवेदनशीलता जगाने के कम को आगे बढ़ाया ।    
लघुकथा
वायु प्रदूषण के खतरे से बचाव
धु्रव प्रसाद सिंह 

महाराज विक्रमादित्य ने पेड़ से शव को उतारा और कंधे पर लाद कर जैसे ही नगर की ओर चलना शुरू किया । शव में छिपा बेता बोला - महाराज वर्षो बाद में आधुनिक दिल्ली को देखा तो पाया कि दिल्ली का दिल  कठोर  हो  चुका  है । प्राय: लोग भौतिक सुख सुविधाआें में डूबे रहते थे और अधिक से अधिक भौतिक सुख साधनों की खोज में लालयित रहते थे । 
सड़कों पर चारों तरफ दुपहिए, चारपहिए वाहनों के साथ  ही साथ भारी वाहनों की भीड़ थी जिसके कारण सड़कों पर हमेशा घंटो जाम की स्थिति उत्पन्न होती रहती थी । लोग नाना प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त हो रहे थे । दमा, एलर्जी, सांस में तकलीफ, न्यूमोनिया, मस्तिष्क की बीमारी, किसी की किडनी खराब तो कोई लिवर कैंसर से जूझ रहा था । डॉक्टरों की तो चांदी कट रही थी । मैंने नगर में बच्चें के साथ बड़ों को भी नाक मुंह पर एक विशेष प्रकार की पट्टी (मास्क) बॉधकर जाते हुए देखा । महाराज भीड़-भाड़ वाले इलाकों में लोगों के नाक मुँह पर पट्टी बांधकर चलने का क्या रहस्य था ? अगर आप मेरे प्रश्न का उत्तर जानते हुए भी नहीं देना चाहेंगे तो आपके सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा । 
अपने मौन व्रत तोड़ते हुए महाराज विक्रमादित्य बोले - बेताल, तुम्हारा इशारा वायु प्रदूषण से है ं वायु के संघटन में किसी भी प्रकार का अवांछनीय परिवर्तन जिसका जीव-जन्तुआें और वनस्पतियों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता वायु प्रदूषण कहलात है । 
मनुष्य अपनी वर्तमान भौतिक आवश्यकताआें की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के अपशिष्ट पदार्थ वायु में फेंकता रहता है जिससे वायु प्रदूषित होती रहती है। प्रदूषित वायु का जीव-जन्तुआें और वनस्पतियों पर घातक प्रभाव पड़ता  है । जीवाश्म ईधनों (जैसे - कोयला, लकड़ी, खनिज तेल) के जलने, कल कारखानों की चिमनियों तथा वाहनों से निकलने वाले धुंए और ग्रीन हाउस गैसें वायु मण्डल के वायु को असंतुलित कर उसे प्रदूषित करती है । 
बढ़ती जनसंख्या, तेजी से होता औघोगिक विकास के नाम पर पेड़-पौधों की अंधाधुंध कटाई वायु प्रदूषण के मुख्य कारण है । 
वायु को प्रदूषित करने वाले गैसों में कार्बन सल्फर तथा नाइट्रोजन के ऑक्साइड के साथ-साथ हाइड्रोजन सल्फाइड, हाइड्रोकार्बनिक गैसें ( जैसे - मैथेन, एथेन, एथिलीन, ऐसेटिलीन) और मानव निर्मित गेस क्लोरोफ्लोरो कार्बन मुख्य रूप से उत्तरदायी है । 
वायु में लेड तथा उसके  यौगिकों की उपस्थिति से मस्तिष्क व तंत्रिका तंत्र संबंधी रोग हो जाते हैं । लेड फेफड़े में कैंसर का मुख्य कारण है । टेट्रा एथिल लेड मिश्रित  पेट्रोलियम ईधनों का वाहनों में उपयोग से लेड की सूक्ष्म कणिकाएं वायु में उत्सर्जित होकर वायु को प्रदूषित करती है । आर्सेनिक, कैडमियम और इनके यौगिक विषैले पदार्थ होते हैं । ये श्वसन तथा  ह्दय संबंधी  रोग  उत्पन्न  करते हैं । 
इतना  ही नहीं वायु में  उपस्थित हानिकारक  व विषैले पदार्थ  वर्षा   के साथ  पृथ्वी  पर आ जाते है जिससे भूमि और जल भी प्रदूषित हो जाते हैं, जिसका प्रभाव किसी ने किसी रूप में जीवधारियों पर पड़ता है । इन प्रदूषणों से हानिकारक व विषैले पदार्थ खाद्य श्रृंखला में चले जाते हैं जो जीवधारियों के स्वास्थ्य व जीवन के लिए घातक सिद्ध होते है । 
बेताल, वायु प्रदूषण  एक  ऐसी समस्या है जिससे  कोई  भी अछूता नहीं  है । इंसान से लेकर जानवर तक इसका शिकार है । नवजात छोटे बच्च्े और बुजुर्ग तो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित है, जिनकी सेहत पर यह दूरगामी और घातक असर डाल रहा है । प्रदूषण के उच्च्तम स्तर में किशोरों के मस्तिष्क की संरचना और तंत्रिका तंत्र की क्षति पहॅुंचाता है, उनके व्यवहार में परिवर्तन देखा गया है । 
किसी व्यस्त सड़क पर वाहनों से निकलने वाले धुंए के सम्पर्क में कुछ देर के लिए भी आने पर दो घंटे तक   किए गये व्यायम का असर खत्म हो जाता  है ।
अगर बच्च्े, बुजुर्ग और माँ बनने जा रही महिलाआें को वायु प्रदूषण के खतरे से बचा लिया जाये तो चिकित्सा खर्चे में काफी कमी आ सकती है । 
बेताल, सबसे बुद्धिमान प्राणी होने के नाते मनुष्यों का कर्तव्य बनता है कि वे वायु को प्रदूषित होने से बचाएं । अधिक से अधिक वृक्ष लगाएं । वृक्षों को अनावश्यक न काटें । अगर वृक्ष काटे भी जाते हैं तो उसके स्थान पर नये वृक्ष जरूर लगाएं । 
मनुष्यों को चाहिए कि जो काम पैदल चलकर संभव है उसके लिए धुआँ उगलते छोटे बड़े वाहनों का उपयोग न करें । अपने वातावरण को साफ एवं स्वच्छ रखें और इस प्रकार पर्यावरण की रक्षा कर स्वयं अपने को सुरक्षित रखें । सच तो यह है कि हालात न बदले तो यह जहर विनाशकारी साबित होगा । 
बेताल बोला - महाराज आपने अच्छी जानकारी दी और इस क्रम में आपका मौन व्रत भी टूट गया । मैं तो चला और उड़कर पेड़ पर जा बैठा ।    
ज्ञान विज्ञान
उछलते-कूदते नहीं, चलते हैं ये मेंढक
आपने मेढ़कों को कूदते, तैरते, चढ़ते, और यहां तक कि सरकते हुए भी देखा होगा । लेकिन इन उभयचरों की चार अजीब प्रजातियों में एक अलग ही खूबी विकसित हुई है: ये कूद-फांद करने की बजाय चलते हैं । 
    ये चार प्रजातियां हैं: सेनेगल रनिंग मेंढक, बम्बलबी टोड, लाल-बैंडेड रबर मेंढक, और टाइगर-लेग्ड मंकी मेंढक । ये मेंढक अन्य चौपाए जानवरों की तरह नहीं चलते हैं बल्कि शिकार की ओर खामोशी से बढ़ने वाली बिल्ली की तरह जमीन पर रेंगते हैं।
इसकी जांच-पड़ताल के लिए टीम ने इन मेंढकों की टांगों के सापेक्ष आकार को मापा और उनके चलने की शैली और गति को देखा । हालांकि  ये  चार प्रजातियां परस्पर सम्बंधित नहीं  हैं, लेकिन जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल जुऑलॉजी पार्ट ए: इकॉलॉजी एंड इंटीग्रेटिव फिज़ियोलॉजी में उनकी रिपोर्ट के अनुसार इनकी अगली और पिछली टांगें लगभग बराबर लंबी होती हैं । सामान्य मेंढक की अगली टांगें पिछली टांगों की तुलना में छोटी और कम शक्तिशाली होती हैं ।  हालांकि उपरोक्त चार प्रजातियों में अगली टांगें पिछली के  मुकाबले थोड़ी छोटी हैं लेकिन चलते समय वे इन्हें खींच-खांचकर बराबर कर लेते हैं।
शोधकर्ता अभी यह नहीं समझ पाए हैं कि ये मेंढक चलते क्योंहैं, लेकिन एक तथ्य यह है कि चारों प्रजातियां एक ही तरह के घास के मैदानों में रहती हैं जहां शाखाओं या पत्तों की कमी होती है। इसलिए, शिकारियों से बचने के लिए कूदने से बेहतर चलना हो सकता है। वैसे विकास ने इन प्रजातियों का मेंढकान पूरी तरह से समाप्त् नहीं किया है । कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि ये मेंढक अभी भी कूद और तैर सकते हैं। यह अलग बात है कि वे आम तौर पर ऐसा नहीं करते हैं। 

मधुमक्खियां हुई और घातक
हाल ही में जैव रसायनयज्ञों ने मस्तिष्क में ऐसे रसायन खोजे हैं जो तथाकथित किलर मधुमक्खियों को उग्र बनाते हैं ।  शोधकर्ताओं का ख्याल है कि ये रसायन अन्य जानवरों में भी आक्रामकता पैदा कर सकते हैं ।  ऐसा फल मक्खियों और चूहों में देखा भी जा चुका है ।  
वैसे तो मधुमक्खियां इलाका बांधने वाले जीव हैं  जो अपने छत्ते की रक्षा के लिए अंत तक लड़ सकते हैं। लेकिन दब्बू यूरोपीय और अधिक आक्रामक अफ्रीकी रिश्तेदार का संकर उन्हें विशेष रूप से आक्रामक बनाता है। १९५० के दशक में अफ्रीकी मधुमक्खियों को  ब्राज़ील में आयात करने के  बाद  यह संकर उभरा । १९८० के  दशक तक वे उत्तर में संयुक्त राज्य अमेरिका में फैलते गए और रास्ते में निवासी मधुमक्खियों को भी खत्म करते गए । इस दौरान १००० से ज्यादा लोग भी मारे गए ।
मधुमक्खियों के  इस उग्र बर्ताव को समझने के लिए साओ पौलो राज्य विश्वविद्यालय, ब्राज़ील के जैव रसायन यज्ञ मारियो पालमा ने एक प्रयोग किया । इस प्रयोग में उनके साथियों ने एक काले चमड़े की गेंद को अफ्रीकीकृत  मधुमक्खियों के छत्ते के सामने लुढ़काया, तो कुछ मधुमक्खियों ने उस पर हमला किया । इसके बाद उन्होंने छत्ते की उन मधुमक्खियों को अलग से इकठ्ठा किया जिनके  डंक हमले के  दौरान गेंद में फंस गए थे । जो मधुमक्खियां छत्ते में ही बैठी रही थीं, उन्हें भी अलग से इकट्ठा किया गया । 
दोनों प्रकार की मधुमक्खियों को फ्रीज करके उनके दिमाग की पतली-पतली स्लाइसें काट कर एक परिष्कृत तकनीक से प्रोटीन का विश्लेषण किया और यह भी पता लगाया कि कोई प्रोटीन दिमाग के किस भाग में उपस्थित था । इस जांच से पता चला कि आक्रामक मधुमक्खियों के दिमाग में दो ऐसे प्रोटीन पाए जाते हैं जो टूटकर न्यूरोपेप्टाइड में परिवर्तित  हो  जाते    हैं । 
यह बात तो पहले से मालूम थी कि मधुमक्खियों  के दिमाग में ये दो प्रोटीन होते हैं लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि कैसे ये अविलंब न्यूरोपेप्टाइड में टूट जाते हैं । 
हमला न करने वाली मधुमक्खियों  में  न्यूरोपेप्टाइड बनते नहीं देखा गया, लेकिन जब पालमा की टीम ने ये अणु युवा, कम आक्रामक मधुमक्खियों में इंजेक्ट  किए तो उनमें भी अन्य की तरह आक्रामक लक्षण देखे   गए ।     
शोधकर्ताओं के अनुसार ये अणु अन्य कीटों में भी पाए गए हैं,जो उनके भोजन ग्रहण और पाचन को नियंत्रित करते हैं । किन्तु आज तक आक्रामकता से इनका सम्बंध नहीं देखा गया था । पालमा की टीम इन अवलोकनों को देखते हुए उम्मीद कर रही है कि भविष्य में किलर मधुमक्खियों से बचने का कोई उपाय निकाल  लेंगे ।  

इंसानों की हलचल ने जन्तुआें को निशाचर बनाया 
पिछले वर्षों में इंसानों ने वन्य जीवों  के प्राकृतवासों पर ज्यादा से ज्यादा अतिक्रममण किया है । इस अतिक्रमण का एक परिणाम यह हुआ है कि वन्य जीवों के व्यवहार में परिवर्तन आया है।  एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह देखा गया है कि पहले जो जंतु दिन में सक्रिय रहा करते थे, वे अब निशाचर हो गए हैं । इनमें लोमड़ियां, हिरन, जंगली सूअर वगैरह शामिल हैं । 
   इससे मनुष्य की गतिविधियों से डरकर बचना तो संभव हो जाता है किन्तु  इसमें अन्य खतरे  हैं । 
       दरअसल शोधकर्ताओं ने ६ महाद्वीपों पर रहने वाले स्तनधारियों की ६२ प्रजातियों पर किए गए ७६ अध्ययनों को खंगाला । इनमें ओपोसम से लेकर हाथी तक शामिल थे । खास तौर से शोधकर्ताओं ने इन अध्ययनों के आधार पर यह समझने की कोशिश की कि इंसानी क्रियाकलापों के कारण इन ६२ प्रजातियों के जंतुओं के व्यवहार में किस तरह के परिवर्तन आए हैं । उक्त ७६ अध्ययनों में जंतुओं पर निगरानी रखने की कई तकनीकों का सहारा लिया गया था । इनमें जीपीएस से लेकर गति-प्रेरित कैमरा शामिल हैं ।
यह देखा गया कि इंसान के आगमन से पूर्व की अपेक्षा अब जंतु रात को अधिक सक्रिय नजर आते हैं ।  
उदाहरण के लिए, जो स्तनधारी पहले अपनी गतिविधियों को रात और दिन में बराबर-बराबर बांटकर करते थे, उनकी रात की गतिविधियां बढ?कर ६८ प्रतिशत तक हो गई हैं ।  यह रिपोर्ट साइन्स पत्रिका में प्रकाशित  हुई है । 
टीम ने यह भी देखा कि जंतु समस्त इंसानी गतिविधियों पर एक-सी प्रतिक्रिया देते हैं - चाहे वह गतिविधि उन पर सीधे-सीधे असर डालती हो या न डालती हो। दूसरे शब्दों में, यदि आसपास मनुष्यों की हलचल हो रही है तो हिरन रात को ज्यादा सक्रिय दिखाई देंगे, जरूरी नहीं कि जब  इंसान उनका शिकार कर रहे है । 
टीम का मत है किजंतुओं का यह निशाचर व्यवहार मनुष्योंऔर वन्य प्राणियों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को संभव बनाता है । साथ ही साथ इससे हमें वन्य जीव संरक्षण की बेहतर योजना बनाने में मदद मिल सकती है। जैसे हम किसी भी क्षेत्र में मानव हलचल को उन समयों तक सीमित कर सकते हैं जब वहां जंतु सक्रिय होते हैं । यह ज?रूरी है क्योंकि जहां निशाचरी स्वभाव का विकास होने से वन्य प्राणियों को जीने में सहूलियत होगी, वहीं उन्हें शिकार मिलने में या चरने में दिक्कत भी हो सकती है। शोधकर्ताओं को लगता है कि चाहे ये जीव मनुष्य के साथ तालमेल बैठाने के लिए रात में सक्रिय रहने लगें किन्तुइसका मतलब नहीं है कि उनका जीवन भलीभांति चल रहा है । 

सबसे बड़ा उभयचर विलुिप्त् की कगार पर

एक नए अध्ययन के अनुसार विश्व के सबसे बड़े उभयचर - चीनी विशाल सेलेमैंडर को वास्तव में पांच प्रजातियों में बांटा जाना चाहिए । यानी  यह एक प्रजाति नहीं है बल्कि पांच प्रजातियां हैं । और पांचों प्रजातियां खतरे में हैं । 
और तो और, अध्ययन कर्ताओं का मानना है कि संरक्षण के वर्तमान तौर-तरीके  इन अलग-अलग प्रजातियों को एक-दूसरे के साथ प्रजनन करवा कर उन्हें प्रभावी रूप से एक ही प्रजाति में परिवर्तित कर रहे हैं । 

        एक समय में दक्षिण-पूर्वी चीन की नदियों में बहुतायत से पाए जाने वाले ये सेलेमैंडर २ मीटर तक लम्बे होते हैं । लेकिन आज लक्जरी व्यंजन के बढ़ती मांग के चलते इन्हें अधिकाधिक संख्या में व्यावसायिक फार्मों में पाला जा रहा  है। प्राकृतिक आबादी को बढ़ाने के लिए चीनी सरकार ने फार्म में पले इन सेलेमैंडर को नदियों में छोड़ने के लिए प्रोत्साहन दे रही है। लेकिन यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है कि क्या अब यह जीव आनुवंशिक रूप से कुदरती सेलेमैंडर के समान  है ।  
स्वास्थ्य-१
आयुष उन्नयन और नीम हकीमी 
डॉ. सम्बित घोष/डॉ. अनंत भान

भारत में एलोपैथिक डॉक्टरों की भारी कमी है। वर्तमान में प्रति १६७४ लोगों पर मात्र १ डॉक्टर है । 
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक और राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, २०१७ में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के  गठन का प्रस्ताव है। 
इसके अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि आयुष (आयुर्वेद, योग व प्राकृतिक  चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी) चिकित्सकों को सीमित व आधारभूत एलोपैथी का कामकाज करने की छूट दी जाएगी । इससे पहले उन्हें एक ब्रिज कोर्स पूरा करना होगा । इस प्रस्ताव पर कड़ी प्रतिक्रिया हुई है । एलोपैथी चिकित्सकों के कड़े विरोध के चलते केन्द्रीय  मंत्रिमंडल ने ताज़ा संशोधन में इस प्रस्ताव को वापिस ले लिया है और यह ज़िम्मेदारी राज्यों पर डाल दी है कि वे इस रणनीति का उपयोग करके प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं में मानव संसाधन की कमी की समस्या को संबोधित करें । चाहे यह संशोधन राजनैतिक दृष्टि से सुविधाजनक हो मगर इस तरह घुटने टेकना  गलत  है ।
भारत में एलोपैथिक डॉक्टरों की भारी कमी है। वर्तमान में डॉक्टर-मरीज़ अनुपात १:१६७४ का है। भारत में स्वास्थ्य सेवा प्रदाय का अंतिम बिंदु उप-केन्द्र और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र  (पीएचसी) हैं । किन्तु ६१.२ प्रतिशत पीएचसी में मात्र एक डॉक्टर है जबकि ७ प्रतिशत पीएचसी तो बगैर डॉक्टर के ही काम चला रहे हैं । एक-तिहाई से ज्यादा पीएचसी में प्रयोगशाला तकनीशियन नहीं है और २० प्रतिशत से ज्यादा में कोई फार्मेसिस्ट  नहीं  है ।
ज़ाहिर है, भारत का स्वास्थ्य तंत्र डॉक्टरों की भारी कमी से जूझ रहा है।  इस कमी को पूरा करने के लिए देश को लगभग ५ लाख डॉक्टरो की जरूरत है । ऐसे माहौल में प्राय: अयोग्य/अप्रशिक्षित चिकित्साकर्मियों का बोलबाला हो जाता है। उत्तर प्रदेश, झारखंड जैसे राज्यों में दो-तिहाई संभावना यह होती है कि मरीज़ को  किसी नीम हकीम का इलाज मिलेगा । जहां सरकार एमबीबीएस और उसी अनुपात में स्नातकोत्तर सीटों की संख्या बढ़ाने की कोशिश कर रही है, वहीं यह   भी सुनिश्चित करना होगा कि हमारी आबादी की स्वास्थ्य सेवा की ज़रूरतें पूरी हों ।
आयुष्मान भारत के महा आयोजन में उप-केन्द्रों और पीएचसी  को उन्नत करके हेल्थ एंड वेलनेस केन्द्र कहा जाएगा । ये प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाय की धुरी होंगे । अलबत्ता, यह अस्पष्ट है कि समूचे देश में एक रूप ढंग से इन केन्द्रों पर कर्मचारियों की ज़रूरत को कैसे पूरा किया जाएगा । ग्रामीण क्षेत्रों में एमबीबीएस डॉक्टरों की कमी के  मद्देनज़र यह ठीक ही लगता है कि इच्छुक आयुष कर्मियों की बड़ी तादाद को इस काम के लिए लामबंद किया जाए । उपयुक्त ब्रिज कोर्स (सेतु पाठक्रम), ठीक-ठाक नियामक  व लायसेंसिग व्यवस्था के  साथ आयुष स्नातकों को मौका दिया जाना चाहिए कि वे भारत के प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाय में योगदान दे सकें । 
ब्रिज कोर्स  के खिलाफ आक्रोश का एक कारण तो शायद यह   था कि इस कोर्स की प्रस्तावित अवधि महज ६ महीने थी । किन्तु देखा जाए तो आयुर्वेद, निंर्सग, फिज़ियोथेरपी या फार्मेसी जैसे पाठक्रमों में कई विषय तो एमबीबीएस पाठक्रम जैसे ही होते हैं। औषधि विज्ञान और औषधि में अतिरिक्त प्रशिक्षण और साथ में क्लीनिकल सहायके के तौर पर कार्य अनुभव से उन्हें इतना उन्मुखीकरण तो मिल ही जाएगा कि वे  सीमित  एलोपैथी का कामकाज कर सकें । ब्रिज कोर्स का संचालन प्रमुख आयुष कॉलेजों और चुनदिंा जिला अस्पतालों  द्वारा  किया जा सकता  है ।
पश्चिमी देशों में ऐसे कार्यक्रमों के उदाहरण मौजूद हैं। यूएस में चिकित्सा सहायक (फिज़िशियन असिस्टेंट) ऐसे ही एक कार्यक्रम से निकलते हैं। यह कोर्स प्राय: पेरामेडिक और नर्सें करती हैं।     इस कोर्स में दो साल के प्रशिक्षण तथा एक प्रमाणन परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ये लोग डॉक्टरों के सहायक बन जाते है । हमारे यहां स्नातक व स्नातकोत्तर उपाधि-धारी लोगों की उपलब्धता ऑनलाइन सुविधाएं व काम करते-करते सीखने के  लचीलेपन को देखते हुए यूएस का यह कार्यक्रम अनुकरणीय साबित हो सकता है। यू.एस. में २०१७ तक  १ लाख १५ हज़ार चिकित्सा सहायकों ने ८१ लाख मरीज़ देखे हैं ।
यूके में फिज़िशियन एसोसिएट मॉडल है। इसमें २ वर्ष  की प्रशिक्षण अवधि में सामान्य वयस्क  चिकित्सा और आम कामकाज पर फोकस किया जाता है । न्यूजीलैंड में सेंटर फॉर रूरल हेल्थ  डेवलपमेंट चिकित्सा सहायकों को निम्लिखित ढंग से परिभाषित करता है:  स्नातकोत्तर स्वास्थ्य सेवा पेशेवर जिन्हें ऐसी क्लीनिकिल भूमिका में प्रशिक्षण मिला है जो नर्सिंग व औषधि दोनों की पूर्ति करती है और उन्होंने किसी वरिष्ठ डॉक्टर की निगरानी में काम किया हो।  ये चिकित्सा सहायक ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते  हैं ।
२०१३ से बांग्लादेश में तीन वर्ष के प्रशिक्षण के बाद व्यक्ति उप-सहायक सामुदायिक चिकित्सा अधिकारी की पात्रता हासिल कर लेता है । प्रसंगवश, बांग्लादेश में ग्रामीण क्षेत्रों में ८९ प्रतिशत चिकित्सा सेवा मूलत: इन्हीं के भरोसे    है । चीन में सहायक डॉक्टर्स, दक्षिण अफ्रीका में क्लीक्किल एसोसिएट?स और मलेशिया में सहायक चिकित्सा अधिकारी ऐसे ही मॉडल्स पर आधारित हैं ।
एलोपैथिक डॉक्टर समुदाय, जिनका नेतृत्व भारतीय चिकित्सा संघ करता है, को इस पहल को  नीम हकीमों  को जायज़ ठहराने के रूप में नहीं     देखना चाहिए। ब्रिज कोर्स आयुष प्रत्याशियों को कुछ तकलीफों के संदर्भ  में एलोपैथिक नुस्खा लिखने को तैयार करेगा - यह उन्हें प्रमाणित नीम हकीम बनाने का प्रयास नहीं है जैसा कि एलोपैथिक डॉक्टर्स  कह रहे हैं । इसके  बाद वे अत्यंत आधारभूत स्तर की प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाय का काम कर सकेंगे । उनके प्रशिक्षण व पाठक्रम  का दायरा स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जा सकता है और ऐसे नियामक प्रतिबंध स्थापित किए जा सकते हैं कि वे स्वीकृत दायरे में ही काम करें । इसके अलावा, प्राथमिक स्वास्थ्य की ज़रूरतें पूरी करने के लिए आयुष प्रदाताओं को प्रशिक्षित करने के अन्य कई लाभ हैं ।
ऐसे कर्मी बीमारियों की रोकथाम पर ध्यान केन्द्रित करने में मददगार हो सकते हैं, जो भारत में संक्रामक व गैर-संक्रामक दोनों तरह के रोगों के बढ़ते बोझ के देखते हुए एक महत्वपूर्ण ज़रूरत है। सरकार द्वारा निर्धारित कुछ तकलीफों के लिए आयुष कर्मी उपचार की शुरुआत कर सकेंगे । फॉलो-अप को संभाल सकेंगे और ज़रूरी होने पर रेफर कर सकेंगे । इससे यह पक्का हो जाएगा कि मानक उपचार क्रम का पालन हो पाए । इससे बेतुकी चिकित्सा पर रोक लगेगी और एंटीबायोटिक जैसी दवाइयों के  दुरुपयोग पर अंकुश     लगेगा । 
यह ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल देना त्रुटिपूर्ण होगा कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सम्बंधी ज़रूरतें पूरी करने के लिए स्थानीय स्तर पर ब्रिज कोर्सेस चला लें । क्रियांवयन चाहे राज्य  के स्तर पर हो, किन्तु कोर्स का डिज़ाइन, कानूनी ढांचा और मानकीकृत योजना तो केन्द्र की ही ज़िम्मेदारी है।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान चिकित्सकों की मांग बहुत बढ़ गई थी । उस समय यू.एस. ने एक फास्ट ट्रेक  प्रशिक्षण को सफलतापूर्वक लागू किया था । आज यह चिकित्सा सहायक कार्यक्रम के लिए मॉडल का काम करता है। भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली की पुनर्रचना पूरी नहीं होगी यदि हम ऐसे सामर्थ्यजनक नवाचार नहीं करते; जैसे ब्रिज कोर्स चलाकर मध्य स्तर के  स्वास्थ्य सेवा कर्मियों की चिकित्सा सम्बंधी क्षमताओं को उन्नत करना ।