मंगलवार, 17 जुलाई 2018

विशेष लेख
पर्यावरण संतुलन और हमारा दायित्व
डॉ. रामनिवास यादव 

पर्यावरणीय प्रदूषण आज एक भूमण्डलीय समस्या बन गई है  जिसका प्रभाव पूरे चैतन्य जगत पर स्पष्ट है । 
विवेकशील एवं विचारशील प्राणी होने के नाते मानव का यह परम् कर्तव्य है कि वह भूमण्डल पर पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने के लिए अपनी बुद्धि और क्षमताआें का भरपूर उपयोग करें । जीवन यापन के लिए स्वार्थ एवं विलासिता में संलिप्त् होकर अपने परिवेश की अनदेखी करते रहने से काम चलने वाला नहीं है ।
विश्व स्तर पर हमारे स्वार्थ कर्मो का प्रतिबिंब स्पष्ट दिखाई दे रहा   है । अन्तत: प्रकृति ने बाढ़, सूखे एवं भूकम्प के रूप में मानव को चेतावनी देना  प्रारंभ कर दिया है । आज शायद ही कोई ऐसा क्षैत्र बचा हो जिस पर मानव जनित  प्रदूषण और पर्यावरण विनाश की काली छाया न पड़ी हो । मानव के विभिन्न क्रियाकलाप पर्यावरण मेंव्याप्त् अंसतुलन के लिये जिम्मेवार हैं । 
भारत मेंत्वरित गति से बढ़ रही जनसंख्या ने हमारी पर्यावरण नीति को विफल किया है । पर्यावरण के संरक्षण हेतु किए गए अथक प्रयत्नों एवं उपलब्धियों को जनसंख्या वृद्धि ने धूमिल कर दिया है । विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों की संख्या को प्रभावी ढंग से निष्प्रभावी बनाने हेतु संसद द्वारा पारित कानून तथा राष्ट्रीय स्तर पर जनसहयोग से संचालित अभियान से देश के पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने का लाभ मिलना तो दूर बल्कि तेजी से बढ़ रही जनसंख्या वृद्धि ने दिन-प्रतिदिन  प्रदूषण के साम्राज्य का विस्तार किया है । लाख प्रयत्नों के उपरान्त भी जनसंख्या की गति जितनी तेज होगी उतना ही हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर अधिक दुष्प्रभाव व दबाव पड़ेगा । 
प्राकृतिक संसाधनों में वृद्धि जनसंख्या वृद्धि के साथ  होनी असंभव है । ऐसी विकट स्थिति में देशवासियों की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं व्यक्तिगत जीवन प्रक्रिया पर  प्रतिकूल प्रभाव पड़े बगैर नहीं रह सकता । देश में कुशिक्षा, अंधविश्वास, गलत  एवं विभिन्न रीति-रिवाजों  के  कारण हम जनसंख्या का नियंत्रण करने में असफल रहे है । 
स्वतंत्र भारत के वन निरन्तर सिकुड़ रहें है । शताब्दियों से यह सिकुडन जारी है पर जिस गति से वनों पर स्वतन्त्रता के बाद दबाव बढ़ा है वैसा पहले कभी नहीं था । जब हमारा देश आजाद हुआ उस समय कुल क्षेत्रफल के २ २ प्रतिशत भाग पर वन थे अब देश के केवल १९ प्रतिशत भाग पर ही वन है । वनों के बचाव के लिये हमें दोहरी नीति अपनानी होगी यानि आज के आधुनिक प्रौघोगिकी ज्ञान को लोगों के पारम्परिक अनुभव के साथ मिलाकर आगे बढ़ाना होगा । लोगों की सहभागिता के बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता । अत: देश के सभी नागरिकों का नैतिक दायित्व है कि वे पर्यावरण में संतुलन कायम करने के लिए अधिक से अधिक पेड़ लगाएँ । 
भारत की अरण्य संस्कृति ने  ही  हमें शिक्षा और संस्कृति के संस्कार दिए थे । यह हमारे लिए जीवन की तरह कीमती है। भारतीय वन्य जीव बोर्ड ने राष्ट्रीय वन्य जीव सुरक्षा के लिए व्यापक प्रबंध किए हैं । परन्तु फिर भी आए दिन समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलता है कि सरंक्षित पशुआें का शिकार कर विदेशों में कस्तुरी, हाथी दांत, खाल व बाघ की हडि्डयों की तस्करी हो रही है । स्पष्ट है कि कानून द्वारा पाबन्दी करने मात्र से स्वार्थी तत्व बाज नहीं आ रहें है । प्रत्येक नागरिक का उत्तरदायित्व है कि वे वन्य जीवों के प्रति दया रखें क्योंकि वन्य जीव पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं । 
पर्यावरण को सन्तुलित रखने के लिए जल संरक्षण भी हमारी नैतिक जिम्मेदारी है । कहा जाता है कि जल है तो कल है और रहीम जी ने तो बहुत पहले कह था कि रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून । पानी गए न ऊभरे मोती, मानुष, चून'' पानी की बड़ी-बड़ी टंकियों पर लिखा मिलता है - पानी की कमी है, इसे बचाओ । देश में सचमुच शुद्ध पानी की कमी है । देश में जल संसाधनों के प्रबंधन में इस सीमा तक लापरवाही और अनदेखी है कि भविष्य ही संकट में पड़ जाए । प्रतिवर्ष ग्रीष्म ऋतु के आते ही सारे देश में जल का भीषण संकट उत्पन्न हो जाता है । 
समाचार पत्र-पत्रिकाआें में खाली बाल्टियों, घड़ों और मटकों की कतारें दिखती हैं । अनेक राज्यों और नगरों में बाल, वृद्ध और महिलाएं मीलों चलकर पीने के पानी की व्यवस्था करती देखी जा सकती हैं । हमारे देश में बड़ी-बड़ी नदियों में जल राशि की अपार मात्रा उपलब्ध कर रखी पर यह देश प्यासा और सूखा पड़ा रहता है । हमारे देश में वर्षा जल के संरक्षण का नितान्त अभाव हे । एक दूसरा भारी खतरा भूमिगत जलस्तर के निरन्तर गिरते जाने से उत्पन्न हो गया है । संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण संबंधी रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश नगर भूमिगत जल पर आधारित होते जा रहे हैं । रिपोर्ट के अनुसार कलकत्ता में कुछ स्थानों पर जलस्तर चालीस मीटर तक नीचे जा चुका है । दिल्ली में भूमिगत जलस्तर खतरे के बिन्दु से भी अधिक गिर चुका  है । नदियों व झीलों का जल जहर में बदल रहा है । 
हमारे देश के किसान उद्योगपति  एवं गृहणी ने बिना सोची-समझे जल का दोहन किया है । परिणाम यह हुआ कि हमने धरती का पेट खाली करके प्राकृतिक जल चक्र को प्रभावित किया है। इससे बाढ़ व सूखे की स्थितियां उत्पन्न हुई है और पर्यावरण असंतुलित हुआ है । आज देश के प्रत्येक नागरिक का फर्ज है कि वह जल संरक्षण के विभिन्न उपायों को अपने जीवन में अमली जामा पहनाने का प्रयत्न करे तभी हम आगे आने वाली पीढ़ियों को पीने का पानी उपलब्ध करा पायेंगे । 
हमारे देश में शहरों का आकार निरन्तर बढ़ता जा रहा है । आज संसार में शहरी आबादी की दृष्टि से भारत का चौथा स्थान है । अनुमान है कि आज बड़े शहरों में लगभग ३५ करोड़ लोगों ने रहना शुरू कर दिया है । इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए आवास, परिवहन के साधन एवं पीने के पानी उपलब्ध कराना बहुत कठिन कार्य है । देश में छोटे-मोटे शहरों की संख्या ४७०० है । इसमें केवल २५०० कस्बों व शहरों में ही पेयजल की सही व्यवस्था है । मलमूत्र की निकासी के लिए सीवरेज की पूरी व्यवस्था तो काफी कम शहरों में ही उपलब्ध है, ऐसे में पर्यावरण का प्रदूषण होना स्वभाविक ही है । 
अर्थतंत्र के हर हिस्से में पर्यावरणीय समस्याएं अपने पंजों को फैलारही हैं । आज जरूरत इस बात की है कि हम अपनी विकास परियोजनाआें को पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में तय करें व उन्हें आगे बढ़ाएं । जल विद्युत योजनाएं हो या थर्मल पॉवर योजनाएं या कोई और विकास कार्य हो, हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि पर्यावरण असन्तुलित न होने पाए और यदि कुछ हद तक पर्यावरण  सन्तुलन में कुछ गड़बड़ होती है तो उस समस्या के निदान के रास्ते भी तय किय ेजाने चाहिए । 
यदि राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक नागरिक पर्यावरण संतुलन के प्रयासों में एक जुट हो जाए तो हमारे देश की औद्योगिक गति की प्रक्रिया को कहीं अधिक सुगमता और तेजी से बढ़ाया जा सकता है । इसके लिए नागरिकों की बढ़ती जनसंख्या पर भी नियंत्रण करना अनिवार्य है ताकि प्रकृतिका अति दोहन न हो । पर्यावरण से संबंधित सभी प्रकार के मुद्दों को मिलजुल कर हल करने के लिए सरकारी और गैर सरकारी संस्थाआेंके बीच संयुक्त रूप से उद्यम अथवा अनुसंधान करते रहना चाहिए । 
विकास की विभिन्न योजनाआें को प्रारंभ करने के पूर्व अनुसंधानों के आधार पर वैज्ञानिक दृष्टि से सृजनात्मक एवं व्यावहारिक सुझाव प्रदान करेंताकि परियोजनाआें को उनके अनुरूप प्रांरभ किया जा सके । पर्यावरण संतुलित रखने हेतु विभिन्न सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाआें द्वारा निर्धारित लक्ष्य तभी पूरी हो सकते हैं जब प्रत्येक देशवासी अपने समक्ष पर्यावरण संरक्षण की मानसिकता को आत्मसात करते हुए अपना कर्तव्य समझें और प्रलोभन की वृत्ति का ह्दय से परित्याग कर दे, तभी हमारा पर्यावरण संतुलित रह सकता है । 
पर्यावरण एक अंत: संबंधी विषय है । प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा व संरक्षण के लिए कानूनों की आवश्यकता है । भारत सरकार ने पर्यावरण की सुरक्षा हेतु विभिन्न कानून बनाएं है । जैसे कीटनाशक एक्ट १९६८, वन्य जीव एक्ट १९७२, जल प्रदूषण एक्ट १९७४, वायु प्रदूषण एक्ट १९८१ और पर्यावरण संरक्षण एक्ट १९८६ आदि । लेकिन विभिन्न कानूनों का  बनना उस समय तक सार्थक नहीं हो पाएगा जब तक हम अपनी जिम्मेदारी निभाकर इन कानूनों का पालन नहीं करेंगे । हमें अपनी प्रवृत्ति बदलनी होगी । नागरिक भावना, संयम और दूरदर्शिता से कार्य करना होगा । 
पर्यावरण के संदर्भ में हमें अपनी बुद्धि, विवेक और मर्यादा के अनुसार इन सब बातों को ध्यान में रखकर उचित रूख अपनाना होगा और पर्यावरण को सबका समझकर सही निर्णय लेना होगा । जिस पर्यावरण और जिसकी जीव जातियों से हमारा शरीर बना है और हमारा जीवन चलता है । उसके प्रति हमारी भावना निष्ठामय और निश्चल होनी चाहिए तभी पर्यावरण की सुरक्षा और हमारा कल्याण है । अपने पर्यावरण को सर्वोपरि मानकर ही हम उसका संरक्षण कर सकते हैं और अपने को भी स्वस्थ, शांत तथा रोगमुक्त रख सकते है ।         

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