शुक्रवार, 7 सितंबर 2007

७ आवरण् कथा


जलवायु बदलाव के खतरे और उपाय
सुश्री रेशमा भारती
ब्राजील के नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च की हाल की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की ओर से हो रही ग्लोबल वॉर्मिंग में १९ फीसदी बड़े बांधों के कारण है । दुनियाभर के बड़े बांधों से हर साल उत्सर्जित होने वाली मिथेन का लगभग २७.८६ प्रतिशत अकेले भारत के बड़े बांधों से होता है, जो अन्य सभी देशों के मुकाबले सर्वाधिक है । हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य अधिकारों संबंधी एक विशेषज्ञ ने कुछ प्रमुख खाद्य फसलों के जैविक इंर्धन (बायोफ्यूल) हेतु इस्तेमाल पर चिंता व्यक्त करते हुए चेतावनी दी है कि इससे दुनिया में हजारों की तादाद में भूख से मौतें हो सकती हैं । चाहे वह खाद्य फसल हो या अखाद्य खेती में जैव इंर्धन की निर्माण सामग्री उगाने से जैव विविधता, खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण को पहुँचते नुकसानों को लेकर दुनिया के कई भागों में चिंता प्रकट होती रही है । ग्लोबल वार्मिंग की गंभीर चुनौती का सामना करने के लिए भारत ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों की दिशा में अग्रसर है। पर उसे यह भी समझना होगा कि विकल्पों की भी अपनी सीमाएं हैं और उनको बहुत बड़े पैमाने पर अंधाधुंध अपनाने से कई समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं । चाहे वह टिहरी बांध हो या सरदार सरोवर बांध या अन्य बड़ी पन बिजली योजनाएं हों बड़े स्तर के विस्थापन, आजीविकाआे के नष्ट होने, मुआवजे या पुनर्वास की आस में दर-दर भटकने की त्रासदी तो सामने है ही साथ ही डूब क्षेत्र की चपेट में आयी अमूल्य प्राकृतिक विरासत-वन, वनस्पति, अन्य जीव भी हम खोते रहे हैं । प्राय: बड़े बांधों की उपयोगिता और कार्य क्षमता समय के साथ तब जाती रहती है, जब जलाशय में गाद भरती जाती है और तब बांध गैर-टिकाऊ व महंगा सौदा साबित होता है । भूकंप व भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाआें की संभावना और विनाशक क्षमता बढ़ाने में भी बड़े बांधो की भूमिका मानी गई है । जैसा कि पिछले कुछ समय में हमारे देश के कई भागों में घटा हैं बड़े बांध विनाशकारी बाढ़ लाने वाले साबित हुए हैं ! बिजली उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए कई बार बांधों के जलाशय में सामान्य से अधिक जल भर लिया जाता है । ऐसे में बारिश आने पर जलाशय में क्षमता से अधिक पानी हो जाता है । बांध को टूटने से बचाने के लिए तब अचानक तेजी से बहुत मात्रा में पानी छोड़ा जाता है, जो विनाशकारी बाढ़ ले आता है । बदलती जलवायु और सिकुड़ते ग्लेशियर नदी और अंतत: बांध के भावी अस्तित्व पर सहज ही प्रश्नचिह्न् लगाते हैं। डूब क्षेत्र की चपेट में आए और जलाशय में बहकर आए जैविक पदार्थ जब सड़ते है, तो जलाशय की सतह से मिथेन, कार्बन डायॉक्साइड जैसी कई ग्रीनहाऊस गैसें उत्सर्जित होती हैं । पनबिजली निर्माण प्रक्रिया में जलाशय का ग्रीन हाऊस गैस युक्त जल जब टरबाइन या स्पिलवे पर गिरता है तो भी ऐसी गैसे वातावरण में छूटती हैं । बड़ी पनबिजली योजनाआे से आम लोगों की अपेक्षा बड़े औद्योगिक लाभ अधिक सिद्ध होते हैं । सरदार सरोवर प्रोजेक्ट की कच्छ (गुजरात) के सूखा प्रभावित क्षेत्र के संदर्भ में भूमिका बताती कैग (दी कन्ट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इण्डिया) की रिपोर्ट कहती है `औद्योगिक इस्तेमाल के लिए पानी की अधिक खपत होगी । घरेलू जरूरतों के लिए पानी की उपलब्धता इससे कम होगी। वर्ष २०२१ तक इससे कच्छ जिले के लोगों की पेयजल उपलब्धता पर प्रतिकूल असर पड़ेगा ।' सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा, ऊर्जा के बेहतरीन विकल्प माने गए हैं । राजस्थान में इन दोनों विकल्पों के अच्छे मानक स्थापित हुए हैं । सोलर लैम्प, सोलर कुकर जैसे कुछ उपकरण प्राय: लोकप्रिय रहे हैं। पर यदि ऊर्जा की बढ़ती असीमित मांगों के लिए इन दोनों विकल्पों का दोहन हो और बहुत बड़े पैमाने के प्लांट लगाए जाएं तो कोई गारंटी नहीं की इनमें भी समस्याएं उत्पन्न न हों । एशियन डेवलपमेंट बैंक के साथ मिलकर टाटा पॉवर कंपनी लिमिटेड देश में (विशेषकर महाराष्ट्र में) कई करोड़ों रूपये के बड़े पवन ऊर्जा प्लांट लगाने की योजना बना रही है । इसी तरह से दिल्ली सरकार भी ऐसी कुछ निजी कंपनियों की ओर ताक रही हैं जो राजस्थान में पैदा होती पवन ऊर्जा दिल्ली पहुंचा सकें । परमाणु ऊर्जा के निमा्रण से पैदा होते परमाणु कचरे में प्लूटोनियम जैसे ऐसे रेडियोएक्टिव तत्वों का यह प्रदूषण पर्यावरण में भी फैल सकता है और भूमिगत जल में भी । परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में दुर्घटना व चोरी की संभावना भी मौजूद रहती है । आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एक प्रमुख अनुसंधान समूह ने कहा है कि विश्वभर में परमाणु ऊर्जा के विस्तार से कार्बन उत्सर्जन में इतनी कमी की संभावना नहीं जितना कि इससे दुनिया में परमाणु हथियारों के बढ़ने का खतरा मौजूद हैं । भारत-अमरीकी परमाणु संधि ने यूरेनियम के खर्चीले आयात का भावी बोझ भारत के कंधों पर लादा है और भविष्य में परमाणु संयंत्र लगाने मे काफी जमीन की खपत की समस्या पैदा की है। इसके अतिरिक्त अमरीका में पहले इस्तेमाल हो चुके परमाणु इंर्धन की भी रिप्रोसैसिंग भारत के लिए कितनी सुरक्षित होगी, यह भी विवादास्पद हैं । पौधों से बने इंर्धन या बायोफ्यूल का स्वच्छ या ग्रीन इंर्धन के रूप में दुनियाभर में प्रचार-प्रसार हो रहा है । विकसित देशों की कई कंपनियाँ विकासशील देशें में उपलब्ध भूमि, सस्ते श्रम व पर्यावरण नियमों में ढिलाई के मद्देनजर बायोइंर्धन के पौधे उगाने में यहां निवेश कर रही हैं । भारत में छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्यों में लाखों हैक्टेयर भूमि रतनजोत (जैट्रोफा) के उत्पादन के लिए कंपनियों को दी जा रही है । प्रमुख खाद्य फसलों जैसे मक्का, सोयाबीन या खाद्य तेलों रेपसीड, पाम ऑयल का उपयोग यदि इंर्धन उगाने के लिए होगा; तो खाद्य उपयोग खाद्य फसलों से अधिक उगाने के लिए होगा तो भी खाद्य संकट पैदा होगा । खाद्य सुरक्षा के लिए यह एक प्रमुख चुनौती माना जा रहा हैं । बायोइंर्धन प्राय: इतनी ऊर्जा देता नहीं जितनी ऊर्जा (जीवाश्म इंर्धन की) इसके निर्माण व ट्रांसपोर्ट में लग जाती है। इस प्रक्रिया में ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन भी कम नहीं होता । इसके ग्रीन या क्लीन इंर्धन के रूप में औचित्य पर ही सवाल उठ जाता है । इंर्धन की बढ़ती मांग के मद्देनजर बायोफ्यूल की खेती भी सुविधानुसार मोनोलक्चर वाली, रसायनों वाली और जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों की हो रही हैं । इससे स्थानीय फसलों, वनस्पतियों समेत पर्यावरण के लिए गंभीर खतरे पैदा होते हैं । बड़े पैमाने पर वनभूमि का इस्तेमाल भी बायोइंर्धन लगाने के लिए हो रहा है । जैसे इंडोनेशिया, मलेशिया में पाम ऑयल प्लांटेंशन के विस्तार के लिए बड़े पैमाने पर वनों की बलि दी जा रही है । यह जैव विविधता के लिए खतरा तो है ही; साथ ही वनों की ग्लोबल वॉर्मिंग को नियंत्रण में रखने की क्षमता की भी उपेक्षा कर रहा है । वनों पर निर्भर समुदाय अपने परम्परागत अधिकारों से भी वंचित हो रहे हैं, उजड़ रहे हैं । उल्लेखनीय है कि हमारे देश में राजस्थान में कुछ वनभूमि भी जैट्रोफा की खेती के विस्तार हेतु दी जानी तय हुई है ! राजस्थान में लगभग समूची बंजर या परत भूमि रतनजोत की खेती के लिए कंपनियों को लीज पर दी जा रही है । यह बंजर भूमि दरअसल यहां के आम लोगों के लिए कतई बेकार नहीं है। काफी कुछ पशुपालन पर निर्भर ग्रामीण समुदायों के लिए यही भूमि चारे का स्त्रोत है । जलाऊ लकड़ी इसी से मिलती है और गांव की अन्य सामूहिक जरूरतें भी पूरी होती हैं । ऐसी ३०% भूमि पर उगी झाड़ियों पर भेड़, बकरी, ऊंट आदि पशु निर्भर करते हैं । बायोइंर्धन उत्पादन को तेजी से बढ़ाने के उद्देश्य से इसमें जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों की खेती को बढ़ावा मिल रहा है जिसके पर्यावरण, स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभावों संबंधी वैज्ञानिक चेतावनियां भी दी जाती रही हैं । दरअसल जब तक ऊर्जा और इंर्धन की निरंतर बढ़ती मांगों को नियंत्रित नहीं किया जाएगा; तब तक विकल्पों पर भी दबाव पड़कर समस्याएं उपजती ही रहेंगी । स्थानीय स्तर पर सीमित व बुनियादी जरूरतों की पूर्ति में ये वैकल्पिक स्त्रोत अपना कमाल दिखा सकते है; पर इनका अंधाधुंध विस्तार पर्यावरण समाज व अर्थव्यवस्था में अस्थिरता ही अधिक पैदा करता है । ***







संपादकीय

जंतुऔ को परीक्षण से राहत मिलेगी
हम जिन सौंदर्य प्रसाधनों का उपयोग करते है, उनकी जांच के लिए हजारों खरगोश और चूहों को यातनाएं झेलनी पड़ती है । अब उन्हें इससे थोड़ी राहत मिली है। आम तौर पर सौंदर्य प्रसाधन कम्पनियां यह जांचने के लिए इन जंतुआे का उपयोग करती हैं कि उनके द्वारा बनाए गए प्रसाधन कहीं आंखों में जलन या चमड़ी पर एलर्जी तो पैदा नहीं करते हैं । कोई नई सामग्री बाज़ार में उतारने से पहले ऐसी जांच की जाती है । अलबत्ता इसी वर्ष से यूरोप में इनमें से कई परीक्षणों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है । वैकल्पिक विधियों के प्रमाणीकरण के लिए इटली मेंएक केंद्र है । इस केंद्र ने पांच परीक्षणों के विकल्प सुझाए हैं और विकल्प उपलब्ध हो जाने पर पूर्व में की जाने वाली जांच पर प्रतिबंध लगा दिया गया है । केंद्र ने जो वैकल्पिक परीक्षण सुझाए हैं उनमें से दो ऐसे हैं जिनके लिए जीवित जंतु की बजाए बूचड़खाने से प्राप्त् ऊतक से काम चल जाएगा । ये परीक्षण उन रसायनों के लिए हैं जिनमें आंखों में जलन पैदा करने वाले रसायनों की जांच की जाती है । दो ऐसे वैकल्पिक परीक्षण सुझाए गए हैं जिनमें प्रयोगशाला में संवर्धित कोशिकाआे से काम चलाया जा सकेगा । ये मूलत: त्वचा को उत्तेजित करने वाले रसायनों के लिए हैं । यूरोप में हर साल २०,००० जंतुआे पर ये परीक्षण किए जाते थे । एक अन्य परीक्षण एलर्जी से संबंधित था । इसका विकल्प मिल जाने से भी हजारों जंतु बच जाएेंगें । वैसे तो उपरोक्त पांचों वैकल्पिक परीक्षण बरसों से उपलब्ध रहे हैं मगर कम्पनियां इनका उपयोग नही करती थीं क्योंकि इनका प्रमाणीकरण नही हुआ था । दरअसल इटली के उक्त केंद्र ने प्रयोग करके प्रमाणित कर दिया है कि ये वैकल्पिक परीक्षण पूर्व के परीक्षणों से बेहतर ही हैं । आम तौर पर वैज्ञानिक समुदाय में जीवित जंतुआे पर प्रयोग करने के मामले में जागरूकता बढ़ रही है और इसी के परिणाम स्वरूप विकल्पों की खोज में तेजी आई है । वैसे अभी भी स्थिति यह है कि कम्पनियों को कुछ ऐसे परीक्षण करने की छूट रहेगी । मगर यूरोपीय संघ ने तय किया है कि विकल्प हों या न हों, वर्ष २००९ तक ऐसे सारे परीक्षण बंद कर दिए जाएेगें ।

प्रसंगवश

सन् २०२५ तक चाँद पर इंसान भेजेगा रूस
रूस २०२५ तक चाँद पर इंसान उतारने की योजना बना रहा है । इसके तुरंत बाद उसका इरादा वहां स्थायी बेस बनाने का भी है । गौरतलब है कि अभी तक एक बार ही इंसान चाँद पर उतरा है , वह था नासा का १९६८ में किया गया अपोलो अभियान। रूसी स्पेस एजेंसी रॉसकॉसमॉस ने आगामी ३ दशकों की अपनी योजनाआे की जानकारी दी । स्पेस एजेंसी के प्रमुख अनातोली परमिनोव ने योजनाआें का जिक्र करतेहुए कहा कि अनुमान है कि हम २०२५ तक चाँद पर इंसान भेजने के लिए तैयार होंगें । इतना ही नहंी २०२७ से २०३२ के बीच हम वहाँ अंतरिक्ष यात्रियों के रहने के लिए स्टेशन भी बना सकेंगें । श्री परमिनोव ने यह भी साफ किया कि अमेरिकी स्पेस प्रोग्राम को होने वाली फंडिंग की तुलना में हमें १० फीसदी से भी कम मिलता है, फिर भी हमारे इरादे बुलंद है । हम अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) में अपने हिस्से के सेक्शन का काम हर हाल में २०१५ तक पूरा कर लेंगें, जिससे कि स्टेशन पूरी तरह काम कर सके। इसके अलावा स्पेस स्टेशन तक लोगों और सामान को ले जाने में इस्तेमाल होने वाले सोयूज स्पेसक्राप्ट में भी बड़े बदलाव की योजना है । इसे और हाईटेक किया जाएगा । चंद्र अभियान के बाद हमारा जोर मंगल पर होगा । हमें उम्मीद है कि २०३५ के बाद हम वहाँ भी इंसान भेजने में सक्षम होगें । उनके मुताबिक, ग्रहों का बहुत मुश्किल वातावरण भविष्य के अभियानों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है । हालिया स्पेसक्रॉप्ट भी अभियानों के बाद धरती की और लौटने के लिए अंतरिक्ष यात्रियों की जरूरत के मुताबिक सुरक्षा में सक्षम नहीं हैं । इन यानों में स्टोरेज स्पेस की कमी और अंतरिक्ष यात्रियों में तनाव जैसी मुश्किलें अलग हैं । इन सभी समस्याआे को ध्यान में रखकर तैयारी की जा रही है । ***

१ सामयिक

आवश्यकता है राजनैतिक भूमण्डलीकरण की
सुश्री सुनीता नारायण
दुनिया एक दूसरे से जुड़ी हुई अवश्य है पर यह 'एक' नहीं है । हम सबके लिए एक सुरक्षित भविष्य को बनाने में पूर्णत: असफल सिद्ध हुए हैं । सरकारों द्वारा मौसम से लेकर जैविक प्रदूषण तक बहुपक्षीय पर्यावरणीय समझौतों पर सहमति बनाने हेतु लाखों-लाख घंटे लगा देने के बावजूद विश्व इस मसले पर आज और भी अधिक विभाजित होने के साथ ही साथ अत्यधिक पर्यावरणीय विनाश के दौर से गुजर रहा है । आज यह अपनी यात्रा के प्रारंभ की बनिस्बत अधिक खतरनाक हो गया है । यहां समय है पीछे मुड़कर अपनी दिश का पुन: निर्धारण करने का, जिससे कि हम वास्तव में परिवर्तन ला सकें । गत १५ वर्षोंा में सरकारों के बीच अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय संधियों के निर्माण से संबंधित संवादों में इजाफा हुआ है । यह पारिस्थितिकीय वैश्वीकरण वर्तमान आर्थिक विकास का नतीजा है । आधुनिक आर्थिक वैश्वीकरण जो न केवल दुनिया के अर्थतंत्र को एक साथ जोड़ता है बल्कि पारिथतिकीय तंत्र को नुकसान पहँुचाने की हद तक उत्पाद और उपभोग को बढ़ावा देता है । यह आर्थिक ढांचा अत्यधिक भौतिकवादी और ऊर्जा दोहक है । इसके अंतर्गत भारी मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों का व्यय एवं अपव्यय होता है । जो अपने पीछे बेहद विषैला, अवनत और परिवर्तित पारिस्थितिक तंत्र छोड़ जाता है । उत्पाद और उपभोग की नई ऊँचाईयां इस पारिथतिकीय वैश्वीकरण को जन्म देती है। होता यह है कि लोग अपने देश में जो भी करते हें उसका व्यापक असर उनके पड़ौसी देश या शेष दुनिया पर भी पड़ता है । पहले कभी भी इंसान को 'जीने' के लिए इतना कुछ सीखने की जरूरत नहीं पड़ी, जितनी कि आज है । समस्या यह है कि उपरोक्त वैश्वीकरण की दोनों धाराएं किसी भी तरह से राजनैतिक वैश्वीकरण के साथ नहीं चलती है । इसका अर्थ यह निकलता है कि हमारे पास ऐसी कोई प्रक्रिया उपलब्ध नहीं है जो इस उभरते वैश्विक बाजार और वैश्विक पारिथतिकीय नीतियों को व्यापक जनहित के प्रति अच्छे मूल्यों, समानता व न्याय के आधार पर प्रतिबंधित कर सके । इतना ही नहीं दुनिया में चंद सरकारें ही इन मुद्दों को अपने राजनैतिक एजेण्डे में शामिल करती हैं । हमें भलीभांति पता है कि इस विश्वव्यापी तापक्रम में वृद्धि से पृथ्वी बद से बद्तर स्थिति में पहँुच रही है । इस बात के सबूत मिले हैं कि वातावरण में बदलाव सभी देशों खासकर गरीब देशों के लिए तकलीफदायक होगा । अंतत: पूरी दुनिया को इसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी । आज हम उत्सर्जन की दर को कम करने में जितना खर्च करेंगे वह भविष्य में प्रलय की परिस्थिति में चुकाई जाने वाली कीमत की तुलना में काफी कम होगा । दुनिया में बढ़ता तापमान संभवत: अब तक का सबसे बड़ा और जटिल मुद्दा है, जिससे कि पूरी दुनिया को जुझना है । सर्वप्रथम कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन सीधे-सीधे आर्थिक विकास से जुड़ा है । अत: यह तथाकथित विकास भी खतरे में है । हमें पुन: खोजना होगा कि हम क्या करें और कैसे करें ? इसमें लागत तो आएगी पर वह भविष्य में खर्च की जाने वाली पूंजी का नाम मात्र ही होगी । दूसरा मुद्दा है वर्तमान में बढ़ रही समृद्धि की व्यक्तियों और राष्ट्रों के बीच हिस्सेदारी का । विश्वव्यापी आर्थिक समृद्धि काफी असंतुलित है और इसी तरह ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन भी असमान है । अहम सवाल यह है कि विश्व अपने उत्सर्जन (प्रदूषण) के अधिकार का बटवारा किस प्रकार करेगा। क्योंकि इसमें बहुत असमानताएं हैं । सवाल यह है कि अमीर देश जिन्होंने ढेर सारा 'प्राकृतिक कर्ज' समेट लिया है और जो साझा संसाधनों से अपने लिए अत्यधिक बटोर रहे हैं किस प्रकार इसका पुनर्भुगतान कर पाएंगे जिससे कि गरीब देश इस पर्यावरणीय क्षेत्र का उपयोग कर पाएं । तीसरा मुद्दा पर्यावरण में बदलाव के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय तालमेल का है। यह कुछ और दर्शाए या न दर्शाए इतना जरूर सिखाता है कि दुनिया एक है। यदि अमीर दुनिया कल आवश्यकता से अधिक कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन करती थी तो आज की उभरती अमीर दुनिया भी वैसा ही करेगी । इतना तो समझ आता है कि इस पर नियंत्रण स्थापित करने का एक रास्ता यह होगा कि इसके लिए बनने वाले अनुबंधों में निष्पक्षता व समानता हो ताकि यह अब तक का विश्व का सबसे बड़ा सरकारी उद्यम साबित हो सके । हमें इस पर्यावरणीय बदलाव को टालने के लिए क्या करना चाहिए ? सर्वप्रथम हमें यह स्वीकारना होगा कि आज विश्व को 'क्योटो संधि' से भी आगे जाने की आवश्यकता है । सभी राष्ट्रों को इस अनुबंध पर पुन: संवाद करना होगा । परन्तु इस बार यह अनुबंध राजनैतिक होना चाहिए । यह कार्य प्राथमिकता से होना आवश्यक है क्योंकि दुनिया आज प्रलय के कगार पर खड़ी है। सीधे-सीधे शब्दों में कहें तो यह वर्तमान क्योटो संधि जैसा कमजोर व कायरतापूर्ण न हो और ना ही उत्सर्जन को कम करने के लिए १५ वर्ष का समय मांगे । यह तो साफ है कि अमीर एवं उभरते सम्पन्न विश्व को कम और किफायत से कार्बन के उपभोग की तरफ अग्रसर करने की आवश्यकता है । इसी के साथ यह भी उतना ही स्पष्ट है कि भविष्य में हमें जिस तरह की तकनीक की आवश्यकता होगी वह आज भी हमारे पास है । यहां नई शोधों को रोकने की बात नहीं है वरन वर्तमान उपलब्ध तकनीक को ही ज्यादा दक्षता और किफायत से इस्तेमाल करने की जरूरत है । हमें उर्जा दोहन और उससे उत्पाद निर्माण में दक्षता बढ़ानी होगी । यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि हम किस तरह का परिवर्तन लाना चाहते हैं । यह हमारे शहरों की परिवहन नीतियों से लेकर वहां के प्रत्येक क्षेत्र पर लागू होना चाहिए। यह भी स्पष्ट है कि उभरते राष्ट्र चीन, भारत व अन्य पहले से ही उपलब्ध सीमित साधनों की सहायता से तुलनात्मक रूप से औद्योगिक विश्व के बजाय प्रति इकाई उत्पादन में किफायत दिखा रहे हैं । अतएव वे अपनी कार्यकुशलता के बदले क्षतिपूर्ति के रूप में कुछ न कुछ मुआवजा तो चाहेंगे ही । अंत में पर्यावरण में बदलाव सचमुच वैश्वीकृत है । यह विश्व को एक साथ आने के लिए दबाव डालता है । यह सिर्फ थोड़े से फायदे के लिए नहीं वरन लंबे समय के लिए सभी पर आर्थिक एवं पारिस्थितिकीय लाभ के लिए दबाव डालता हैं । अब यह हम पर है कि इस चुनौती को स्वीकारते हैं या नहीं ।***

२ हमारा भूमण्डल

जीवाश्म : हमारे काल प्रहरी
डॉ. भोलेश्वर दुबे
हमारा भू-मण्डल कल्पनातीत लम्बा सफर तय करते हुए वर्तमान स्वरूप में पहुंचा है । पृथ्वी पर कई भूगर्भीय और वातावरणीय परिवर्तन हुए । प्राणियों और वनस्पतियों के कई साम्राज्य विकसित और विलुप्त् हुए । पृथ्वी और जीवन की विकास कथा के अनेक पात्र आज भी धरती के गर्भ से पुरातन घटनाआे की कथा बयान कर रहे हैं । समय के ये साक्षी और कोई नहीं, जीवाश्म ही हैं । जीवाश्म के लिए अंग्रेज़ी में फॉसिल शब्द का उपयोग होता है जिसका उद्गम लेटिन शब्द फॉसिलियम से हुआ है। इसका अर्थ ज़मीन की सतह के नीचे से खोदना है । अट्ठारवीं शताब्दी तक जीवाश्म से तात्पर्य अतीत के बड़े जीवों की अस्थियों, कवच, पत्तियों, लकड़ी आदि के रूप में प्राप्त् अवशेष तक सीमित रहा। आगे चलकर सूक्ष्मजीवों के भी जीवाश्म खोज निकाले गए । समय के साथ पृथ्वी पर वनस्पतियों और प्राणियों के अनुक्रमण और विलुप्त् प्रजातियों की जानकारी हमें जीवाश्मों से ही प्राप्त् होती हैं । भौतिक शास्त्र के अनुसार किसी भी वस्तु का अध्ययन चार आयामों - लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई और समय के आधार पर किया जा सकता है । जीवाश्म चारों आयामों को व्यक्त करते हैं । जिस चट्टान में ये उपलब्ध हैं उसकी लम्बाई चौड़ाई, ऊंचाई और उसकी तत्कालीन काल गणना । अध्ययन क्षेत्र के आधार पर समय मापन की सीमाएं घटती बढ़ती रहती हैं । दैनिक जीवन में वर्ष, माह, दिन , मिनट और सेकण्ड के रूप में इसकी गणना करते हैं । यदि हमें पृथ्वी की आयु का आकलन या पृथ्वी पर जीवन के उद्भव काल की गणना करनी हो तो हमें करोड़ों वर्ष पीछे जाना होता है । यह समय न केवल हमारे जीवन काल से वरन कई पीढ़ियों के जीवन काल से भी कई गुना अधिक हैं । अत: इस प्रकार के समय निर्धारण की विधि को जियोलॉजिकल टाइम या भौमिकीय समय कहा जाता है । इतिहासकार जहाँ कुछ हजार वर्षो की घटनाआे का वर्णन करते हैं वहीं पुरावैज्ञानिक भौमिकीय समय सारणी के आधार पर करोड़ों वर्ष पूर्व की जानकारी देते हैं । खगोल वैज्ञानिक तो इनसे भी आगे हैं । वे ब्रह्मांड की उत्पत्ति का समय दस से बीस अरब वर्ष पूर्व बताते हैं ।

अत: समय का मान स्थिति के आधार पर सेकण्ड से लगाकर अरबों वर्ष तक फैला हुआ हैं । पृथ्वी की उम्र लगभग चार अरब वर्ष मानी जाती हैं । उस काल की कोई चट्टान उपलब्ध नहीं है । सबसे पुरातन चट्टान ३.८ अरब वर्ष पुरानी है और जीवाश्म २.५ अरब वर्ष पुराने प्राप्त् हुए है । अत:इस कालावधि में ही पृथ्वी पर जीवन का आरंभ माना जाता हैं । पृथ्वी की उम्र ज्ञात करने के लिए वैज्ञानिक अनेक विधियां अपनाते हैं । इनमें भूमि की विभिन्न गहराइयों के तापमान तथा चालकता में परिवर्तन, नदियों तथा समुद्री जल में घुलित लवणों के आयनों का मापन प्रमुख रही हैं किन्तु इन विधियों से सही उम्र ज्ञात न हो सकी । इस समस्या का सर्वमान्य हल १९९६ में रेडियोधर्मिता की खोज के बाद ही संभव हो सका । इस विधि में कार्बन, यूरेनियम तथा सीसे के आइसोटोप के द्वारा चट्टान व जीवाष्म की उम्र ज्ञात की जाती हैं । जीवाश्म प्राय: तलछटी एवं आग्नेय चट्टानों में पाए जाते हैं । तलछटी चट्टानों की परतों के बीच व ज्वालामुखी के लावा के बहाव में जैविक संरचनाआे के दबने से ये जीवाश्म बनें । चट्टानों के प्रकार व इनके प्रािप्त् स्थल के आधार पर भौमिकीय समय सारिणी में कई नाकरण किए गए हैं । जैसे इंग्लैण्ड व फ्रांस में खड़िया की बड़ी तलछटी चट्टानों को क्रिटेशियस कहा जाता है । कोयले वाली चट्टानें, जिनमें एक मोटाई पर बलुआ पत्थर और चूने की पर्त भी पाई जाती हैं, को कार्बोनिफेरस कहा जाता है । सन् १९६० में भौमिकीय समय सारणी को तीन बड़े काल खण्डों में विभाजित किया गया :-पैलियोजोइक ५७.० करोड़ वर्ष पूर्व प्रारंभमीसोजोइक २२.५ करोड़ वर्ष पूर्व प्रारंभसीनोजोइक ६.५ करोड़ वर्ष पूर्व प्रारंभ वैसे उक्त तीना महाकल्पों के अतिरिक्त एक और महाकल्प माना जाता है जिसे अर्कियोजोइक काल कहते हैं। यह ९०.० करोड़ वर्ष पूर्व माना जाता है जो जीवन विहीन रहा । इन कालखंडों को आगे कल्प और युगों में बांटा गया हैं । जैसे पैलियोजोइक महाकल्प के युग हैं कैम्ब्रियन, ऑरडोविसियन, सिलुरियन, डेवोनिन, कार्बोनिफेरस तथा पर्मियन । प्रत्येक युग में विशेष प्रकार के प्राणी और वनस्पतियों का बाहुल्य रहा जो उस काल की पहचान बनें । मीसोजोइक महाकल्प के जुरासिक युग में वृक्ष फर्न, साइकेड्स, गिन्कगो आदि वनस्पतियों बहुतायत में थी तथा पुष्पीय पौधों का आरंभ हुआ था । इसी काल में प्राणियों में भीमकाय डायनासौर का अस्तित्व रहा जो इस का की पहचान बनें। किसी भी जीवन का जीवाश्मीकरण होना अत्यंत दुर्लभ घटना है । जीवाश्मीकरण के लिए जीव के शरीर में आसानी से विघटित न होने वाले कठोर भाग सहायक होते हैं । रीढ़धारी प्राणियों की अस्थियां और दांत, रीढ़विहीन प्राणियों के बाह्य कवच, पौधों के काष्ठीय भाग व सैलुलोज युक्त पत्तियां आसानी से परिरक्षित हो जाते हैं । कुछ कोमल शरीर वाले रीढ़विहीन प्राणियों, शैवाल, ब्रायोफाइट और जीवाणुआें के भी जीवाश्म उपलब्ध हैं । जीवाश्मीकरण में जीव की शरीर रचना के साथ-साथ वे पर्यावरणीय परिस्थितियां भी महत्वपूर्ण होती हैं जो उस भाग को सड़ने से बचाए और संरक्षित करें । जीवाश्मीकरण के लिए जीव का जमीन में दबना आवश्यक है । इस पर तलछट की परतें क्रमश: जमने लगती हैं। दबने पर मृत शरीर से पानी भी निकल जाता हैं और ऑक्सीजन का भी अभाव हो जाता हैं । ऐसी स्थिति में विघटनकारी जीवाणु और फफूंद सक्रिय नहीं रह पाते। जीव का मृत शरीर जितना जल्दी जमीन में दबता है उतनी ही उसकी जीवाश्म बनने की संभावना अधिक होती हैं । जीवाश्म अक्सर समु्रंद तल, झीलों की गाद, नदियों के मुहानों पर अधिक बनते हैं क्योंकि वहां की परिस्थिति जीवाश्मीकरण के लिए उपयुक्त होती हैं । जीव के प्रकार और पारिस्थितियों के आधार पर कई प्रकार के जीवाश्म पाए जाते हैं । इनमें से प्रमुख हैं: संपीड़क जीवाश्म जो पौधों या अन्य जीवों के तलछट में दबने से बनते हैं । अत: ये चपटे होते हैं । अश्मीभूताश्म या पेट्रिफिकेशन में जीव के भाग की आन्तरिक व ब्राह्य संरचना परिरक्षित रहती हैं । मुद्राश्म में जीवों के अंगों की छाप पाई जाती हैं। जीवाश्म न केवल विगत काल के जीवों से हमारा परिचय कराते हैं अपितु उस समय की पर्यावरणीय स्थितियों का भी लेखा जोखा प्रस्तुत करते हैं । दीर्घकाल से घटित हो रही घटनाआें के विश्वसनीय प्रमाण हैं ये जीवाश्म जो आने वाली पीढ़ियों को आज की स्थिति से अवगत करवाएंगे ।

४ विशेष लेख

निर्वात का इतिहास
डॉ. सुशील जोशी
जब १६४३ में टॉरिसेली ने एक नली में पारा भरकर उसे पारे से भरी एक टब में उल्टा खड़ा किया तो नली का काफी सारा पारा तो टब में गिर गया मगर कुछ पारा नली में बचा रहा । उससे भी महत्वपूर्ण बात यह हुई थी कि नली में पारे के ऊपर थोड़ी खाली जगह बच गई थी । टॉरिसेली ने दावा किया कि उस खाली जगह में निर्वात हैं । इसके साथ ही एक पुरानी बहस में नया जोश व मोड़ आया । बहस का संबंध इस बात से था कि शून्य यानी निर्वात संभव है या नहीं । यानी सवाल यह था कि उस नली के ऊपरी भाग में जो खाली जगह दिख रही थी, वह निर्वात है या नहीं । टॉरिसेली ने यह काम अपने गुरू गैलीलियों गैलिली के एक अस्फुट सुझाव के आधार पर और पूर्व में हो चुके एक प्रयोग से सबक लेकर किया था । गैलीलियों के समक्ष एक वैज्ञानिक मित्र गियोवानी बतिस्ता बालियानी ने एक समस्या रखी थी । उस समय तक चूषण पंप का आविष्कार हो चुका था । बालियानी ने देखा कि इस पंप से पानी अधिकतम ३३-३४ फुट की ऊंचाई तक ही चढ़ता है । साइफन में भी पानी को इतनी ही ऊंचाई तक उठाया जा सकता था । गैलीलियों की व्याख्या यह थी कि जब ऊपर से हवा खींची जाती है तो वहां खाली स्थान या शून्य निर्मित हो जाता है और इस शून्य की शक्ति से पानी ऊपर चढ़ जाता है । यानी शून्य का अस्तित्व हो सकता है । अरस्तू ने करीब २००० साल पहले कहा था कि `प्रकृति को शून्य से नफरत है' । गैलीलियों की व्याख्या को अरस्तूवादियों ने यह कहकर समझाने की कोशिश की कि प्रकृति को शून्य से नफरत है इसीजिए तो पानी फौरन ऊपर चढ़ जाता है । मगर सवाल यह था कि ३३-३४ फुट के ऊपर जो शून्य बनता था, प्रकृति उससे नफरत क्यों नहीं करती । गैलीलियो के विचार के आधार पर एक वैज्ञानिक ने शून्य निर्मित करने की ठानी थी । उसने करीब ३५ फीट लंबी नली बनाई और उसमें पानी भरकर दोनों सिरों से बंद कर दिया । अब इस नाली को पानी भरे टब में खड़ा करके निचला सिरा खोल दिया गया, तो पानी थोड़ा नीचे गिरा और ३३-३४ फीट पानी नली में टिका रहा, उसके ऊपर खाली जगह बची रही । यह १६८३ की बात हैं । पानी के ऊपर जो खाली जगह थी उसका हवा से कोई संपर्क नहीं था और इससे यह धारणा बनी कि वहां कुछ नहीं है यानी शून्य है । मगर अरस्तू की विश्व दृष्टि में शून्य के लिए जगह नहीं थी । तो उनके चेलों ने कहा कि यह शून्य नहीं हो सकता । इसका एक प्रमाण उन्होंने यह प्रस्तुत किया कि इस जगह में से होकर प्रकाश गुज़रता है (क्योंकि नली में से दूसरी तरफ की चीज़े दिखती थीं) तो यदि वहां कोई माध्यम नहीं है तो प्रकाश कैसे गुज़रेगा ? दूसरा प्रमाण ध्वनि से संबंधित था । उस नली में एक घण्टी रखकर ऐसी व्यवस्था की गई कि उसे बजाया जा सके। जब घण्टी को बजाया गया तो उसकी आवाज़ बाहर सुनाई पड़ी, जो अरस्तूवादियों के लिए और प्रमाण था कि अंदर शून्य नहीं हैं । पानी ऊपर की जगह के लिए अरस्तूवादियों ने दो व्याख्याएं प्रस्तुत की। पहली व्याख्या यह थी कि पानी में से कुछ निकलता है जो ऊपर की जगह को भर देता है और वह चीज़ पानी को नीचे धकेलती है । दूसरी, और ज़्यादा ज़ोरदार व्याख्या प्रसिद्ध गणितज्ञ देकार्ते ने प्रस्तुत की थी कि उस जगह में ईथर नामक पदार्थ होता है । देकार्ते के अनुसार ईथर बहुत बारीक और गतिशील पदार्थ है और वह पानी के बीच उपस्थित छिद्रोंमें से गुज़रकर ऊपर भर जाता है । अरस्तूवादी ईथर की धारणा बहुत पहले यह समझाने के लिए प्रस्तुत कर चुके थे कि कैसे दूरस्थ तारों का प्रकाश हम तक पहुंच जाता है । ईथर एक पदार्थ था वह प्रकाश के लिए माध्यम का काम करता था । यह अपने-आप में विवाद का विषय रहा कि क्या प्रकार को आगे बढ़ने के लिए किसी माध्यम की ज़रूरत होती है । गैलीलियों के विपरीत एवेन्जेस्टिा टॉरिसेली का विचार था कि नली में शून्य तो बनता है मगर जो पानी नली में टिका रहता है वह वास्तव में शून्य की चूषण शक्ति की वजह से नही हैं । वह तो इसलिए है क्योंकि टब में भरे पानी पर हवा में वज़न पड़ता है । यानी टॉरिसेली कह रहे थे कि हवा में वज़न होता है । अरस्तू सदियों पहले कह चुके थे कि हवा में वज़न नहीं होता । मगर टॉरिसेली ने एक प्रयोग करके अपनी बात को सिद्ध किया। उन्होंने कहा कि नली में यदि ३३-३४ फीट पानी टिका रहता है तो पानी से अधिक घना कोई द्रव लें तो वह थोड़ा कम ऊंचाई तक टिका रह पाएगा । दरअसल टॉरिसेली ने यह भविष्यवाणी की थी कि यदि उनकी बात सही है कि नली में पानी के टिकने की वजह हवा का वज़न है तो पारा उससे १४ गुना कम ऊंचाई तक टिकेगा । यह प्रयोग वास्तव में एक अन्य वैज्ञानिक विंसेन्ज़िओ विविएनी ने १६४४ में किया । उन्होंने पानी की जगह पारा लिया जिसका घनत्व पानी से करीब १४ गुना ज़्यादा है और टॉरिसेली की बात सही निकली - नली में सिर्फ ढाई फीट ही पारा टिका । तो एक प्रयोग ने दो विचार दिए एक तो निर्वात बनाना संभव है और दूसरा हवा में वज़न होता है । अरस्तू के अनुयाइयों ने तुरंत इस पर सवाल उठाए। दरअसल निर्वात की अंसभावना का विचार अरस्तू के प्रकृति, वस्तुआे, तत्वों, पदार्थ की प्रकृति, गति से संबंधित तमाम विचारों से जुड़ा हुआ था । इसलिए निर्वात का निर्माण उनके विचारों के लिए करारा झटका था । जैसे अरस्तू मानते थे कि वस्तुआें में गति का प्रमुख कारण उनका स्थान है - हर वस्तु गति करती है ताकि अपनी स्वाभाविक जगह पर पहुंच सके । उनके लिए स्थान पदार्थ का ही विस्तार था । इस तरह देखने पर ऐसा कोई स्थान हो ही नहींसकता जहां कुछ न हो । अरस्तू ने परमाणु के विचार को भी इसी आधार पर खारिज किया था कि यदि पदार्थ कणों से मिलकर बना होगा तो उन कणों के बीच शून्य होगा और प्रकृति को शून्य से नफरत है । दरअसल निर्वात या शून्य को लेकर अरस्तू की कई आपत्तियां थीं । जैसे एक आपत्ति यह थी किसी वस्तु का एक स्थान होता है । उस वस्तु की सीमा निकटतम अगली वस्तु से परिभाषित होती है । अब यदि किसी गिलास में शून्य है और उसमें दो कंचे डाल दें तो उन दोनों की सीमा निकटतम वस्तु यानी गिलास से परिभाषित होगी । इसका मतलब होगा कि वे दोनों कंचे एक ही समय पर एक ही जगह पर हैं, जो असंभव हैं । एक आपत्ति यह थी कि किसी भी वस्तु का वेग माध्यम के घनत्व का व्यत्क्रमानुपाती होता है । अरस्तू मानते थे कि वस्तुआें में गति इसलिए होती है कि वे अपनी स्वाभाविक जगह पर पहुंचना चाहती हैं । अब यदि शून्य संभव हुआ तो वस्तुआें की गति अनंत हो जाएगी, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मगर टॉरिसेली ने तो शून्य भी निर्मित कर दिया और यह भी कह दिया कि हवा में वज़न होता है । दरअसल टॉरिसेली यह कह रहे थे कि टब में रखे द्रव और नली में भरे द्रव दोनों पर हवा का वज़न पड़ता है । टब में रखे पारे के ऊपर तो पूरा वायुमंडल है जिसका वज़न उसे दबाएगा । नली में पारे के ऊपर `कुछ नहीं' है तो उसे कोई नहीं दबाता । यानी नली में जितना पारा है उसका वज़न वायुमंडल के दबाव से संतुलित हुआ है। एक तरह से पारे का कम ऊंचाई तक टिकना निर्वात की बात को साबित करने को पर्याप्त् था । मगर अरस्तूवादियों को यह बात रास नहीं आई । आखिर पूरे सैद्धांतिक किले के ढह जाने का सवाल जो था । तो अरस्तूवादियों ने कहा कि नली में भरा द्रव `स्पिरिट' पैदा करता है जो ऊपर की खाली जगह में भरा रहता है और द्रव को नीचे धकेलता है । चूंकि पारा अपेक्षाकृति ज़्यादा `स्पिरिट' पैदा करता है, इसलिए वह ज़्यादा नीचे धकेला जाता है । `स्पिरिट' यानी एक तरह की वाष्प थी । इस बिंदु पर मशहूर भौतिक शास्त्री ब्लैज़ पास्कल ने एक ज़ोरदार प्रयोग किया जिसने सबकी आंखें खोलने का काम किया । मज़ेदार बात है कि इस प्रयोग का सुराग भी गैलीलियो दे चुके थे - उन्होंने कहा था कि नली वाले प्रयोग को पानी की बजाय शराब से करके देखना चाहिए। पास्कल ने यही किया । सबसे बड़ी बात थी कि उन्होंने इस प्रयोग को सार्वजनिक रूप से करके दिखाया । शराब की एक विशेषता यह है कि इसमें पानी की अपेक्षा ज़्यादा वाष्प बनती है । तो पास्कल ने निर्वात विरोधियों से भविष्यवाणी करने को कहा कि यदि नली में पानी की बजाय शराब भरी जाएगी तो वह कम ऊंचाई तक टिकेगी या ज़्यादा ऊंचाई तक । निर्वात विरोधियों के मतानुसार नली में से द्रव इसलिए गिरता है कि ऊपर से वाष्प उसे दबाती है । जाहिर है उन्होंने कहा कि शराब कम ऊंचाई तक टिकेगी । वास्तविक प्रयोग में ऐसा नहीं हुआ । बात साफ हो गई । मगर पास्कल स्वयं इतने से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने कहा कि यदि नली में द्रव की ऊंचाई वायुमंडल के वज़न के कारण है, तो यदि इसी प्रयोग को पहाड़ पर चढ़कर किया जाएगा, तो नली में द्रव की ऊंचाई कम रहनी चाहिए क्योंकि जब परात में रखे द्रव कम ऊंचाई तक टिकना चाहिए। लिहाजा पास्कल ने अपने बहनोई फ्लोरिन पेरियर से एक महत्वपूर्ण प्रयोग करने को कहा । पेरियर एक पहाड़ पाय डी डोम के पास रहते थे । पास्कल ने कहा कि वे उपरोक्त उपकरण (जिसे दाबमापी कहा जाने लगा था) को लेकर अलग-अलग ऊंचाइयों पर जाएं और प्रयोग करके देखें कि नली में द्रव कितनी ऊंचाई तक टिकता है । पेरियल ने १६४८ में ये प्रयोग किए और पास्कल की भविष्यवाणी के अनुरूप ही पहाड़ पर चढ़ते जाने पर नली में पारे में ऊंचाई कम होती गई । अब तो अरस्तूवादियों को मानना ही पड़ा कि नली में पानी टिकता है, तो हवा के वजन के कारण । मगर उन्होंने नली के ऊपरी खाली भाग में निर्वात की बात को स्वीकार नहीं किया । वे यही कहते रहे कि शून्य में से प्रकाश आगे नहीं बढ़ सकता । और इसलिए वहां शून्य नहीं है, ईथर है । प्रकाश की प्रकृति और ईथर के संबंधो को सुलझाने के लिए अभी कुछ बरस और बाकी थे । वह विवाद भी बहुत बढ़िया ढंग से रचित प्रयोगों के आधार पर सुलझाया गया था । ऑटो फॉन गेरिक के लोकप्रिय प्रयोग की बात किए बगैर निर्वात के इतिहास की बात अधूरी-सी रहेगी । हम सबने पाठ्य पुस्तक में कभी न कभी फॉन गेरिक और उन्हें अध-गोलों का जिक्र पढ़ा। दरअसल फॉन गेरिक एक इंजीनियर थे और फुरसत में रहते थे । तो सोचा कि अपने घर की हर मंज़िल पर पानी सप्लाई का इंतज़ाम कर डाले । उन्होंने भी एक पंप बनाया मगर वही ढाक के तीन पात पानी ३३-३४ फीट से ऊपर चढ़ता ही नहीं था । फॉन गेरिक ने तरह-तरह के जुगाड़ किए और अंतत: पानी तो नहीं चढ़ा सके मगर एक ऐसा पंप बनाने में सफल हुए जो किसी सीलबंद बर्तन से हवा खींच लेता था । उन्होंने दो मजबूत अर्थ गोले बनाए, उन्हें चिपका कर रखा और पंप की मदद से उनके अंदर से हवा खींच ली । बताते हैं कि पता नहीं कितने घोड़ों का दल भी इन अर्ध गोलों को अलग-अलग नहीं कर पाया था । निर्वात का यह सार्वजनिक प्रदर्शन निहायत असरदार रहा था । इस निर्वात पंप के बन जाने से कई तरह के अनुसंधान का मार्ग प्रशस्त हुआ । इनमें से सबसे महत्वपूर्ण थे रॉबर्ट बॉयल के प्रयोग जिनके जरिए गैसो के दबाव और उनके आयतन के बीच प्रसिद्ध बॉयल के नियम की खोज हुई । बॉयल के अनुसार दबाव बढ़ने पर गैसों का आयतन कम होता जाता है । गैसों के दबाव पर काम शुरू हुआ तो प्रेशर कुकर का भी आविष्कार हुआ जो घर-घर में पाया जाता है । इसके अलावा टॉरिसेली के प्रयोग ने दाबमापी यानी बैरोमीटर के निर्माण व मौसम की भविष्यवाणी में उसके उपयोग का मार्ग प्रशस्त किया ।

५ प्रदेश चर्चा

म.प्र. : कृषि मे घटती उत्पादकता
नंदिता छिब्बर
लाखन रघुवंशी के लिए पिछला मानसून ठीक नहीं रहा । मध्यप्रदेश में गुना जिले के श्यामपुर गांव का यह किसान अपने १२१ हेक्टेयर की कृषि भूमि में सोयाबीन, गेहंू और चने की खेती करता है । इसमें से ६१ हेक्टेयर में इसने सोयाबीन की बुआई की है । बहुत अच्छी किस्म के बीजों के बावजूद उसे मात्र १५ क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से उपज प्राप्त् हुई हैं । उसका कहना है `जब मैंने अपनी भूमि की जांच करवाई तो पाया कि मेरी भूमि में सल्फर (एक अनिवार्य तत्व) की कमी के कारण उपज में कमी आ रही हैं। पूर्व में उसे प्रति हेक्टेयर २५ क्विंटल तक सोयाबीन प्राप्त् हो जाती थी । राज्य के अन्य किसान भी उसके विचार से सहमति रखते हैं । रघवुंशी अब भूमि में सल्फर की मात्रा बढ़ाने के लिए सिंगल सुपर फास्फेट का प्रयोग कर रहा है । उसका कहना है कि छोटे किसान जो इस समस्या के प्रति जागरूक नहीं हैं अभी भी सल्फर मुक्त डाय अमोनियम सल्फेट (डी.ए.पी) और पोटाश खाद का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो कि उनके लिए अतिरिक्त समस्याएं खड़ी कर सकता है । मध्यप्रदेश के १५० लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फसलें अब कम उपज दे रहीं हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि कम उपज का कारण भूमि से सल्फर की मात्रा में न्यून से लेकर अत्यधिक कमी हैं । भोपाल स्थित भारतीय भूमि विज्ञान संस्थान (आई.आई.एस.एस.) की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के ४८ जिलों की ४० प्रतिशत भूमि जिसमें अधिकांश वर्षा पर निर्भर है, सल्फर की कमी से जूझ रही है। संस्थान के प्रोजेक्ट समन्वयक महावीर सिंह कहते हैं कि `प्रदेश के सभी जिलो को इस समस्या का सामना करना पड़ रहा है। फर्क मात्र इतना है कि फसल की बुआई वहां कितनी अधिक मात्रा में होती हैं ।' संस्थान के निदेशक ए.सुब्बाराव विवेचना करते हुए कहते हैं `पौधे वातावरण में व्याप्त् सल्फर के बजाय अपनी जड़ों से सल्फेट के माध्यम से भूमि के द्वारा ज्यादा मात्रा में सल्फर सोखते हैं । अगर सल्फर के तत्व प्रति दस लाख में १० भाग से कम होंगे तो अंतत: फसल पर विपरीत असर डालेंगे । विशेषज्ञ स्वीकार कर रहे हैं कि तिलहनों में मौजूद तेल की मात्रा भी कम हो रही है क्योंकि सल्फर इस प्रक्रिया का एक आवश्यक तत्व हैं । इंदौर स्थित सोयाबीन प्रसंस्करण एसोसिएशन के राजेश अग्रवाल का कहना है कि दशकों से गहन और लगातार आवृति वाली कृषि के साथ ही साथ कृषि भूमि में सल्फर रहित यूरिया जैसी रासायनिक खाद के अत्यधिक प्रयोग से यह स्थिति उत्पन्न हुई हैं । यह क्षीणता सरसों, सोयाबीन व मूंगफली जैसे तिलहनी फसलों जिनमें कि अधिक सल्फर की आवश्यकता होती है, में अधिक पाई गई हैं । विशेषज्ञों का कहना है कि राज्य सरकार व किसानों दोनों ने ही इस पुन: पूर्ति के कार्य की अनदेखी की हैं । महावीर सिंह के अनुसार सन् १९८० के दशक में मध्यप्रदेश में वर्षा से सिंचित एवं सूखे इलाकों में सोयाबीन की खेती प्रारंभ हुई थी । सरकार ने एक वर्ष में तीन फसलों जैसी गहन खेती की प्रणाली को प्रोत्साहन दिया । राज्य का ८ करोड़ हैक्टेयर का सोयाबीन कृषि क्षेत्र देश के कुल सोयाबीन उत्पादन में ८० प्रतिशत का योगदान करता है । यह प्राथमिक तौर पर राज्य के मालवा अंचल, सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला व नर्मदा घाटी में उपजाई जाती है । महावीर सिंह का अनुमान है कि १९८० के दशक में इसका औसतन प्रति हैक्टेयर उत्पादन ०.८ टन था जो बढ़कर १.१ टन प्रति हैक्टेयर तक ही पहुंच पाया है । अर्थात पिछले बीस वर्षो में बीज की गुणवत्ता और कृषि की तकनीक में जबरदस्त सुधार आने के बावजूद औसत उत्पादन में मात्र ०.३ टन प्रति हैक्टेयर की वृद्धि हुई हैं । उनके अनुसार सोयाबीन का औसत मूल्य १००० से १२०० प्रति क्विंटल तक रहता है । इस हिसाब से रघुवंशी जिसे कि प्रति हैक्टेयर १० हजार से १२ हजार रू. के राजस्व की हानि हो रही है का कहना है `घाटे के और भी कई कारण है परंतु सल्फर की पुन: पूर्ति से आधे घाटे की पूर्ति हो सकती है । वैसे तो यह फसल पर निर्भर है, परंतु यदि सल्फर पर एक रू. खर्च किया जाए तो किसान को ५ से १२ रू. तक का फायदा हो सकता हैं । विशेषज्ञों का कहना है कि कृषि कार्य के लिए नहरों के जल एवं वर्षा जल की सिंचाई से भी सल्फर की हानि की पुन: पूर्ति नहीं होती । उनके अनुसार अगर औद्योगिक क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो वर्षा जल में सल्फर की मात्रा कम ही होती है । ऐसी फसलें जिनकी सिंचाई ट्यूबवेल या भूजल से होती है में सल्फर की पुन: पूर्ति की संभावनाएं अधिक हैं क्योंकि इसमें नमक मिला हुआ होता है। नगरों में बहते पानी से सल्फर नष्ट हो जाता है और अंतत: यह जिस भूमि की सिंचाई करता है उससे भी सल्फर को बाहर कर देता है । कुछ स्थानों पर तो इसका प्रभाव स्पष्ट तौर पर नहीं दिखता । परंतु कई मामलों में यह स्पष्ट तौर पर दिखाई भी देता है खासकर जब छोटे और पतले तने वाले पौधों की पत्तियां हल्की पीली या हल्की हरी दिखने लगती हैं । भारतीय भूमि विज्ञान संस्थान ने इसकी पुन: पूर्ति हेतु सिंगल एस.एस.पी. अमोनियम सल्फेट और अमोनियम फास्फेट जैसी सुलभ रासायनिक खादों के प्रयोग की अनुशंसा की है । यह भी अनुशंसा की गई है कि यदि प्रति हेक्टेयर ८ से १० टन कृषिजन्य खाद का प्रयोग किया जाए तो यह कमी दूर हो सकती है । इतना ही नहीं प्रति हेक्टेयर ३०० किलो एस.एस.पी. प्रतिवर्ष प्रयोग किए जाने से भूमि में प्रति हेक्टेयर ४० किलो सल्फर प्राप्त् हो जाएगा जिससे उत्पादकता में भी वृद्धि होगी । यह फसल पर निर्भर करता है, परंतु पैदावार में १५० से २५० किलो तक की वृद्धि हो सकती हैं । हालांकि कुछ कृषक खनिज जिप्सम जिसमें कि १३ से १८ प्रतिशत सल्फर है, का प्रयोग करते हैं । परंतु वैज्ञानिकों का कहना है इस खाद का प्रयोग इसलिए व्यावहारिक नहीं है क्योंकि इस स्थिति में डी.ए.पी. जैसी खादका अतिरिक्त प्रयोग करना पड़ता है । इससे खर्चो में और वृद्धि हो जाती है । जिप्सम पर सब्सिडी उपलब्ध होने के बावजूद यह किफायती नहीं है । पायराईट्स में वैसे तो २२ प्रतिशत सल्फर होता है परंतु इसे अधिकांशत: क्षारीय भूमि में ही प्रयोग में लाया जाता है । वैसे भी इसमें सल्फर के रूप में न होने से पौधो को इसे सोखने में बाधा पहुंचती है । रायसने जिले के एक पूर्व किसान राहुल नरोन्हा का कहना है कि आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि किसान अपनी भूमित का परीक्षण करवा कर यथोचित खाद का ही प्रयोग करें । शिवपुरी जिले के मोहरा गांव के ६.२५ हेक्टेयर में कृषि करने वाले छोटे काश्तकार हेमराज सिंह जिन्होंने इस वर्ष सोयाबीन और मूंगफली की बुआई की है कहते हैं `डी.ए.पी. सबसे अच्छी खाद है । वैसे भी डी.ए.पी. छोटे किसान में सबसे लोकप्रिय खाद है जिसमें नाइट्रोजन और फास्फोरस का सम्मिश्रण होता है एवं यह तिलहनों के लिए भी बहुत अनुकूल हैं।'' मध्यप्रदेश कृषि विभाग के सहायक निदेशक रविन्द्र साहू का कहना है कि किसानों को इन्हीं उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए क्योंकि ये सस्ते हैं और आसानी से उपलब्ध भी हैं । वहीं महावीर सिंह का कहना है कि सरकार को सल्फर से परिपूर्ण उर्वरकों को कम मूल्य पर उपलब्ध करवाकर इनके प्रयोग को प्रोत्साहित करना चाहिए । साथ ही बाजार में नकली एस.एस.पी. की पहुंच पर सख्ती से रोक लगानी चाहिए । कृषि विभाग उत्पादन में गिरावट को तो स्वीकार करता है परंतु यह मानने को तैयार नहीं है कि किसान इस विषय में अनभिज्ञ हैं । अधिकारियों के अनुसार विभाग भूमि में सल्फर की मात्रा बढ़ाने हेतु पद्धति विकसित करने हेतु प्रयासरत है । उनका कहना है कि इस समस्या के निदान हेतु प्रदेश में चार प्रयोगशालाएं कार्यरत् हैं । उन्होंने `किसान मित्र' और `किसान दीदी' जैसे सामुहिक प्रयासों के माध्यम से एक लाख किसानों को प्रशिक्षित करने का बीड़ा उठाया है । इससे यह सुनिश्चित हो जाएगा कि प्रत्येक गांव में कृषि प्रणालियों, तकनीकों भूमि पोषण और उसकी कमियों का पता लगाने हेतु एक प्रशिक्षित व्यक्ति उपलब्ध हो । इसके अतिरिक्त १९ कृषि प्रशिक्षण क्षेत्रों के माध्यम से ग्रामीण विस्तारण श्रमिकों और कृषकों को भी शिक्षित किया जाएगा । विभाग के सह निदेशक एस.पाटिल का कहना है कि कृषक भी इस समस्या को काबू में करने हेतु प्रयासरत हुए हैं । डी.ए.पी. का विवरण तो सभी स्थानों पर नहीं होता है परंतु सभी विक्रेता खासकर वे जो सल्फर की कमी वाले क्षेत्र में स्थित हैं से यह कहा गया है कि वे अपने यहां एस.एस.पी. का भंडारण अवश्य करें । सरकार ने एस.एस.पी. निर्माताआे को उर्वरक सस्ते मूल्य में विक्रय करने हेतु सब्सिडी का प्रावधान भी किया है । एक बोरी (१५० किलो) एस.एस.पी. का अनुमानित मूल्य १७१ रूपये है । श्री पाटिल का यह कथन है कि राज्य के कृषि विभाग के पास प्रत्येक ब्लाक और जिला स्तर तक के भूमि के पोषण एवं कमी संबंधी आकड़े मौजूद हैं। महावीर सिंह के अनुसार समय की सबसे बड़ी मांग है कि सरकार प्रत्येक पांच वर्ष में क्रमबद्ध तरीके से भूमि की उत्पादकता आकलन व गणना करें और वैज्ञानिक मानचित्रण करें । वहीं संस्थान के निदेशक राव आशान्वित हैं कि अगर ठीक कदम उठाए गए तो भविष्य में म.प्र. सल्फर की कमी की समस्या से उभर सकता है ।

६ ऊर्जा जगत

जीवाश्म इंर्धन का संरक्षण और विकल्प
देवेन्द्र थापक
कई बार एक संसाधन की कमी ही विश्व की लोक व्यवस्था को प्रभावित कर देती हैं । हमें इस समस्या के समाधान के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रखना चाहिये, क्योंकि ऊर्जा की समस्या संपूर्ण मानवता के लिए एक चुनौती हैं । हम आधुनिक वैज्ञानिकों के अभिमत से सहमत हो सकते हैं कि इस चुनौती का एकमात्र प्रत्युत्तर केवल ऊर्जा के नये संसाधनों का अविष्कार करना ही नहीं बल्कि हमारी जीवन पद्धति और विचारों को व्यवस्थित करना भी है ताकि हम इतिहास की धारा का मार्ग परिवर्तित कर सके । मृत पेड़-पौधों व जीव जंतुआे के पृथ्वी में उपस्थित विभिन्न परतों में दब जाते हैं । इन परतों में उपस्थित सूक्ष्म जीव द्वारा इन मृत वस्तुआे पर क्रिया द्वारा इंर्धन का उत्पादन किया जाता है । जो कच्च्े तेल के रूप में होता है । इस प्राप्त् कच्च्े माल को विभिन्न शोधनप की प्रक्रिया द्वारा शुद्ध ईधन में परिवर्तित किया जाता है, इसे जीवाश्म इंर्धन कहते है । पृथ्वी में इन सभी वस्तुआे की मात्रा सीमित होती हैं । यदि इन वस्तुआे का बिना प्रबंधन के अंधाधुंध प्रयोग किया जाता है, तो भविष्य में इनके समाप्त् होने का डर रहता है, जो भविष्य में मानव प्रजाति की उन्नति में बाधक होगा । वास्तव, में किसी संसाधन का उपयोग मानव की प्रौद्योगिकी और प्रबंधकीय कुशलता पर निर्भर करता है । अत: अधिकतम जीवाश्म इंर्धन के उपयोग के लिये एक ऐसी दर स्थापित की जानी चाहिये, जिससे ये जीवाश्म ईधन संसाधन पुन: जीवित होते रहे । यदि मानवीय दृष्टि को विशालता प्रदान की जाए, तो जीवाश्म ईधन जहाँ समाप्त् किये जा सकते हैं, तो वहीं सुरक्षित भी रखे जा सकते हैं तथा इन्हें बढ़ाया भी जा सकता है । यह पृथ्वी की एक पूर्ण व्यवस्था है कि नष्ट होने के साथ ही साथ पुन: पोषित होने का चक्र सदैव यहाँ चलता रहता है, परन्तु यह देखना मानव को ही है कि सिर्फ संसाधनों को समाप्त् ही करते जाना, उचित होगा या उसकी तुलना में संसाधनों की पुन: पोषित करने का कार्य भी साथ ही साथ किया जाना श्रेयस्कर होगा । जीवाश्म ईधन को नष्ट करने से कहीं अन्य संसाधनों के उत्पादन में अव्यवस्था पैदा न हो जाए । इन कार्यो से पर्यावरण का संतुलन बिगड़ सकता है। घटते हुए जीवाश्म इंर्धन के विभिन्न खतरों को मानव ने ही पैदा किया है । अत: इसका निवारण भी मानव को ही समय रहते करना होगा । इस क्षेत्र में निम्न उपाय उपयोगी सिद्ध हो सकते है:-
१. प्रकृति के साथ मित्रवत् व्यवहार - जीवाश्म इंर्धन को संतुलित व संरक्षित करने के लिये प्रकृति के साथ मनुष्य द्वारा मित्रवत् व्यवहार उत्पन्न किया जाना चाहिये ।
२. उचित पर्यावरण प्रबंध - पर्यावरण का ऐसा प्रबंध किया जाना चाहिये, जिससे कि आने वाली पीढ़ियाँ भी इसका उपयोग कर सके । इसके लिये जंगल के उत्पादित क्षेत्र में वृद्धि करना, जिससे पृथ्वी के अधिक से अधिक क्षेत्र में कच्च्े इंर्धन की उत्पादित करने वाले क्षेत्र बने ।
३. उपलब्ध जीवाश्म इंर्धन क्षेत्रों का बेहतर प्रबंधन करना ताकि कम मूल्य पर व्यापक इंर्धन की प्रािप्त् हो सके ।
४. प्राकृतिक तेल, कुंओ में लगने वाली आग की रोकथाम करना व इसके कारण को हटाना जिससे आवश्यक इंर्धन की हानि को रोका जा सके ।
५. विश्व स्तर पर बढ़ती जनसंख्या को रोका जावे, जाकि ऊर्जा का बढ़ता उपयोग को रोका जा सके ।
६. प्राकृतिक केन्द्रो की स्थापना - पांच से पचास हजार क्षेत्रफल की भूमि पर प्राकृतिक केन्द्रों की स्थापना की जानी चाहिये, जिससे नगरों और बस्तियों के पास ही इंर्धन संरक्षण की शिक्षा प्राकृतिक स्थितियों में ही दी जा सके ।
७. नेचर क्लबों की स्थापना - नेचर क्लबों, नेचर केम्पों आदि की स्थापना एवं उनका संगठन किया जाना चाहिये, जो विभिन्न क्षेत्रों में जाकर आम नागरिकों की भागीदारी प्राप्त् कर सकें तथा जिनसे आवश्यक जानकारियाँ उन्हें प्रदान कर सकें । प्रकृति के संबंध में संजोये अनुभवों को बांटने में पर्यावरणीय समस्याआे को समझने-सुलझाने में ऐसे प्रभावशाली व्यक्तियों को सम्मिलित किया जना चाहिये, जो अपने क्षेत्र विशेष दक्षता रखते हैं ।
पारिस्थितिकी - संतुलन एवं वैकल्पिक इंर्धन :- भारत में स्थानीय आवश्यकताआें की पूर्ति एवं पारिस्थिति की संतुलन हेतु इंर्धन के वैकल्पिक साधनों के लिए गंभारत से सोचने की परम आवश्यकता है ।
इंर्धन के विभिन्न स्त्रोतों : जैसे पवन चक्कियों के प्रयोग से हम तेल-इंर्धन से उत्पन्न प्रदूषण से बच सकते हैं । ऊर्जा या इंर्धन के वैकल्पिक स्त्रोत प्रमुख रूप से सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा एवं बायोगैस, भूतापीय ऊर्जा आदि है । वैसे अणु ऊर्जा भी समाप्त् न होने वाले इंर्धन की श्रेणी में है, परन्तु इसके अपशिष्टों को ठिकाने लगाना और इससे होने वाले संभावित प्रदूषण को नियंत्रित रखना एक विकट समस्या है ।
सौर ऊर्जा :- सूर्य से प्राप्त् ऊर्जा का प्रयोग वैकल्पिक इंर्धन के रूप में होता है, ऐसा अनुमान है कि सूर्य अगले एक हजार करोड़ वर्षो तक अपनी वर्तमान दर से ऊर्जा का उत्सर्जन करता रहेगा । अत: इस वैकल्पिक ऊर्जा को सस्ती एवं प्रदूषण रहित है, का उपयोग भारतीय लोगों के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है ।
पवन ऊर्जा :- पानी के पम्प तथा शक्ति में वृद्धि करने हेतु इसका उपयोग किया जा सकता है । देश में पाँच पवन फार्म स्थापित है । इनकी स्थापना गुजरात, तमिलनाडू, महाराष्ट्र एवं उड़ीसा में की गई है, तथा ये बहुत ही कम समय में तैयार होकर काम में आ रहे हैं ।
समुद्री ताप की ऊर्जा :- हमारे देश में समुद्री ताप का ऊर्जा में परिवर्तन करके उसका उपयोग करने की पर्याप्त् क्षमता विद्यमान है । यह ऊर्जा पैदा करने हेतु भारत में कुछ ऐसे स्थल है, जो विश्व के अन्य देशों में नहीं हो सकते लक्षदीप और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के पास के स्थल उक्त कार्य के लिये उपर्युक्त है ।
जलधारा से उत्पन्न इंर्धन :- भारत के पश्चिम में समुद्री तट पर चंबल एवं कच्छ की बड़ी खाड़ियाँ है । पूर्वी भाग में गंगा का बहाव है । प्रारंभिक अध्ययन से यह तथ्य स्थापित हुआ है कि लघु जलधारा से भी ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है । देश के पूर्वीभाग, सुंदर वन क्षेत्र में इसका विकास हो रहा है । इस संबंध में उक्त ऊर्जा की क्षमता, उसकी लागत तथा उसके विकास की गति इन तीनों पहलुआें से यह जीवाश्म इंर्धन से बेहतर है । पंचवर्षीय योजना में छोटे हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट्स को अपेक्षाकृत अधिक प्रोत्साहित किया जाता है ।
जानवरों की शक्ति का इंर्धन के रूप में उपयोग :- ग्रामीण क्षेत्रों में परम्परागत यातायात एवं खेत जोतने में जानवरों का उपयोग चिरकाल से होता आया है । कुंआे से पानी, पशुआे की सहायता से निकालना, खेत जोतना, आदि कार्यो में उपयोग किया जा सकता है ।
अत: उपरोक्त वर्णित तथ्यों को देखें तो हमें घटते हुए जीवाश्म इंर्धन का नियोजित संरक्षण करना होगा एवं वैकल्पिक इंर्धन के नये स्त्रोतों का पता लगाने के साथ ही नये ऊर्जा संरक्षणों को अपनाना होगा । तभी हम भावी पीढ़ियों के लिये ऊर्जा संरक्षित कर सकेंगे ।

८ अमृता बलिदान दिवस (२१ सितम्बर) पर विशेष

अमृता देवी और बिश्नोई समाज
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
आज सारी दुनिया में पर्यावरण संरक्षण की चिंता में पर्यावरण चेतना के लिये सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर विभिन्न कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं । भारतीय जनमानस में पर्यावरण संरक्षण की चेतना और पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों की परम्परा सदियों पुरानी है । हमारे धर्मग्रंथ, हमारी सामाजिक कथायें और हमारी जातीय परम्परायें हमें प्रकृति से जोड़ती है । प्रकृति संरक्षण हमारी जीवन शैली में सर्वोच्च् प्राथमिकता का विषय रहा है । प्रकृति संरक्षण के लिये प्राणोत्सर्ग कर देने की घटनाआें ने समूचे विश्व में भारत के प्रकृति प्रेम का परचम फहराया है । अमृता देवी और पर्यावरण रक्षक बिश्नोई समाज की प्रकृति प्रेम की एक घटना हमारे राष्ट्रीय इतिहास में स्वर्णिम पृष्ठों में अंकित है । सन् १७३० में राजस्थान के जोधपुर राज्य में छोटे से गांव खेजड़ली में घटित इस घटना का विश्व इतिहास में कोई सानी नहीं है । सन् १७३० में जोधपुर के राजा अभयसिंह को युद्ध से थोड़ा अवकाश मिला तो उन्होंने महल बनवाने का निश्चय किया ।नया महल बनाने के कार्य में सबसे पहले चूने का भट्टा जलाने के लिए इंर्धन की आवश्यकता बतायी गयी । इस पर राजा को दरबारियों ने सलाह दी कि पड़ोस के गांव खेजड़ली में खेजड़ी के बहुत पेड़ है, वहां से लकड़ी मंगवाने पर चूना पकाने में कोई दिक्कत नहीं होगी । इस पर राजा ने तुरंत अपनी स्वीकृतिदे दी । खेजड़ली गांव में अधिकांश बिश्नोई लोग रहते थे । बिश्नोईयों में पर्यावरण के प्रति प्रेम और वन्य जीव सरंक्षण जीवन का प्रमुख उद्देश्य रहा है । बिश्नोई समाज के संस्थापक महान सामाजिक संत गुरू जंभोजी महाराज (१४५१-१५३६) ने पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से जीवन में सदाचार में २९ (२०+९) धर्म नियम बनाये थे । इन २९ नियमों को मानने वाले सभी लोग बिश्नोई कहलाने लगे । खेजड़ली गांव में प्रकृति के प्रति समर्पित इसी बिश्नोई समाज की ४२ वर्षीय महिला अमृता देवी के परिवार में उनकी तीन पुत्रियां और पति रामू खोड़ थे, जो कृषि और पशुपालन से अपना जीवन-यापन करते थे । खेजड़ली में राजा के कर्मचारी सबसे पहले अमृता देवी के आंगन में लगे खेजड़ी के पेड़ को काटने आये तो अमृता देवी ने उन्हें रोका और कहा कि ``यह खेजड़ी का पेड़ हमारे घर का सदस्य है यह मेरा भाई है इसे मैंने राखी बांधी है, इसे मैं नहीं काटने दूंगी ।'' इस पर राजा के कर्मचारियों ने प्रति प्रश्न किया कि ``इस पेड़ से तुम्हारा धर्म का रिश्ता है, तो इसकी रक्षा के लिये तुम लोगों की क्या तैयारी है ।'' इस पर अमृता देवी और गांव के लोगों ने अपना संकल्प घोषित किया ``सिर साटे रूख रहे तो सस्तो जाण'' अर्थात् हमारा सिर देने के बदले यह पेड़ जिंदा रहता है तो हम इसके लिये तैयार है । इस दिन तो पेड़ कटाई का काम स्थगित कर राजा के कर्मचारी चले गये, लेकिन इस घटना की खबर खेजड़ली और आसपास के गांवों में शीघ्रता से फैल गयी । कुछ दिन बाद राजा के कर्मचारी पूरी तैयारी से आये और अमृता के आंगन के पेड़ को काटने लगे तो गुरू जंभोजी महाराज की जय बोलते हुए सबसे पहले अमृता देवी पेड़ से लिपट गयी क्षण भर में उनकी गर्दन धड़ से अलग हो गयी, फिर उनके पति, तीन लड़किया और ८४ गांवों के कुल ३६३ बिश्नोईयों (६९ महिलाये और २९४ पुरूष) ने पेड़ की रक्षा में अपने प्राणों की आहूति दे दी । खेजड़ली की धरती बिश्नोईयों के बलिदानी रक्त से लाल हो गयी । यह गुरूवार २१ सितम्बर १७३० (भाद्रपद शुक्ल दशमी, विक्रम संवत १७८७) का ऐतिहासिक दिन विश्व इतिहास में इस अनूठी घटना के लिये हमेशा याद किया जायेगा । समूचे विश्व में पेड़ रक्षा में अपने प्राणों को उत्सर्ग कर देने की ऐसी कोई दूसरी घटना का विवरण नहीं मिलता है । इस घटना से राजा के मन को गहरा आघात लगा, उन्होंने बिश्नोईयों को ताम्रपत्र से सम्मानित करते हुए जोधपुर राज्य में पेड़ कटाई को प्रतिबंधित घोषित किया और इसके लिये दण्ड का प्रावधान किया । बिश्नोई समाज का यह बलिदानी कार्य आने वाली अनेक शताब्दियों तक पूरी दुनिया में प्रकृति प्रेमियों में नयी प्रेरणा और उत्साह का संचार करता रहेगा । बिश्नोई समाज आज भी अपने गुरू जंभोजी महाराज की २९ नियमों की सीख पर चलकर राजस्थान के रेगिस्तान में खेजड़ी के पेड़ों और वन्यजीवों की रक्षा कर रहा है । हमारे देश में केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय तथा सभी राज्य सरकारों द्वारा पर्यावरण एवं वन्यजीवों के संरक्षण के लिये अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं । हमारे यहां प्रतिवर्ष ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है । केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के तत्वावधान में एक माह की अवधि का राष्ट्रीय पर्यावरण जागरूकता अभियान भी चलाया जाता है। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि हमारे सरकारी लोक चेतना प्रयासों को इस महान घटना से कहीं भी नहीं जोड़ा गया है । हमारे यहां राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस के लिये इस महान दिन से उपयुक्त कोई दूसरा दिन कैसे हो सकता है ? आज सबसे पहली आवश्यकता इस बात की है कि २१ सितम्बर के दिन को भारत का पर्यावरण दिवस घोषित किया जाये यह पर्यावरण शहीदों के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की सच्ची श्रृद्धांजलि होगी और इससे प्रकृति सरंक्षण की जातीय चेतना का विस्तार हमारी राष्ट्रीय चेतना तक होगा, इससे हमारा पर्यावरण समृद्ध हो सकेगा ।

९ पर्यावरण परिक्रमा

जल को शुद्ध बनाने की नई तकनीक विकसित
सफाई के लिए काम करने वाली संस्था सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन ने प्रदूषित जल को शुद्ध बनाने की अभिनव तकनीक विकसित की हैं । इसके सहारे नदियों को प्रदूषणमुक्त कर देश के जल संकट से निपटने के लिए महत्वपूर्ण मदद मिल सकती है । ऑर्गनाइजेशन के प्रमुख तथा इस तकनीकी के प्रणेता डॉ. विन्देश्वरी पाठक ने कहा कि इस तकनीक में थोड़ा और सुधार कर इसका इस्तेमाल गंगा और यमुना जैसी प्रमुख नदियों को प्रदूषणमुक्त करने में किया जा सकता है । इस तकनीक का विकास सुलभ इंटरनेशनल विज्ञान प्रयोगशाला में किया है । प्रयोगशाला ने तारकोल आधारित जिस अल्ट्रा वायलेट वाटर फिल्टर को विकसित किया है वह मानव मल से चालित बायोगैस प्लांट के अवशिष्ट और अपजल का शोधन करता है और इस तकनीक से जल रंगहीन, गंधहीन और पैथोजन से मुक्त है । उन्होंने कहा कि इस जल का इस्तेमाल मछली पालन से लेकर सिंचाई और बागवानी में भी किया जा सकता है और उसे प्रदूषण होने के भय के बिना किसी नदी-तालाब में छोड़ा जा सकता हैं । डॉ. पाठक ने बताया कि इस जल में नाइट्रोजन, पोटेशियम और फास्फेट के अतिरिक्त पौधों की वृद्धि में सहायता के लिए आवश्यक सूक्ष्मतम पोषक तत्व हैं । इसमें कई तरह के अजैविक उर्वरकों के लाभ मौजूद हैं जो मिट्टी को बेहतर बनाते हैं और उसमें किसी तरह की अम्लता या खारापन पैदा नहीं होने देता है । उन्होंने बताया कि मानव मल से पैदा की गई बायोगैस खाना पकाने से लेकर गैस और मेंटल लैंप्स जलाने के साथ ही इसका इस्तेमाल उर्वरक के रूप में भी किया जा सकता है क्योंकि इसमें नाइट्रोजन, पोटेशियम और फास्फेट का प्रतिशत अच्छा होता है । बायोगैस के इस उपउत्पादों से संस्थान ने दरवाजों और खिड़कियों के पल्ले भी तैयार किए हैं । इसी तरह की सामग्री का इस्तेमाल का संस्थान ने एक शेड भी तैयार किया है । यदि इस तकनीकी में कुछ विकास किया गया तो न सिर्फ पानी को प्रदूषण से मुक्त रखा जा सकता है बल्कि देश में मैला ढोले की प्रथा से मुक्ति मिलने के साथ पानी का बचाव किया जा सकता है । साथ ही ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्या से निपटा जा सकता है ।
पॉलीथिन पर पाबंदी में सरकारी उदासीनता
मध्यप्रदेश में पॉलीथिन के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने के प्रति राज्य सरकार कितनी गंभीर है इस बात का अंदाजा कानून बनने के बाद उस पर अब तक अमल न होने से सहज ही लगाया जा सकता है । इस सिलसिले में पारित विधेयक को राज्यपाल की मंजूरी मिलने के बाद भी महज इसलिए लागू नहीं किया जा सका, क्योंकि दो लाइन की अधिसूचना पूरे पौने तीन साल बाद भी जारी नहीं हो पाई । इस कानूनी उलझनों के चलते प्रदेश को पॉलिथीन मुक्त बनाने के सरकारी प्रयास केवल कागजों तक सिमट कर रह गए हैं । केंद्र सरकार ने पहले रिसायकल्ड पॉलिथिन के उपयोग पर पाबंदी लगा रखी है । केवल नए प्लास्टिक दानों से बनी बीस माइक्रोन से अधिक की थैलियों का ही उपयोग किया जा सकता है । २५ माइक्रोन से कम की रिसायकल्ड प्लास्टिक की थैलियां और २० माइक्रोन से कम की नई प्लास्टिक की थैलियों के उपयोग पर प्रतिबंध रहेगा। किसी भी नदी-नाले, पाइप लाइन और पार्क आदि सार्वजनिक स्थलों पर इन थैलियों का कचरा डालने पर रोक रहेगी । नगरीय निकाय इन थैलियों के लिए अलग-अलग कचरा पेटी रखेंगे। इस कानून का उल्लंघन करने वालों को दंडित किया जा सकेगा । पहली बार गलती करने पर एक हजार रूपये का जुर्माना या एक माह की कैद । एक से अधिक बार उल्लंघन करने पर पांच हजार रूपये जुर्माना या तीन माह की कैद हो सकेगी । कानून का पालन कराने के लिए जिम्मेदार अफसरों के लापरवाही बरतने पर उनके विरूद्ध जुर्माना भी किया जा सकेगा । पॉलीथिन के कारण सीवर लाइन बंद हो जाती है । इस वजह से दूषित पानी बहकर पाइप लाइन तक पहुंचकर पेयजल को दूषित करता है जिससे बीमारियां फैलती है । इसे उपजाऊ जमीन में फेंकने से भूमि बंजर होती जाती है । कचरे के साथ जलाने से जहरीली गैसे निकलती हे जो वायु प्रदूषण फैलाती है और ओजोन परत को क्षति पहुंचाती है ।
साँप के जहर से कैंसर की दवा
विषस्य : विष औषधूम जहर ही जहर को खत्म करता है । पुराणों की कही गई यह बात अब फिर सच साबित होने जा रही है । वैज्ञानिकों ने काले नाग (ब्लैक कोबरा) और वाइपर जैसे घातक विषैले सर्पो के जहर से कैंसर के उपचार का तरीका खोजा है । भारतीय जैव रसायन विज्ञान संस्था व कोलकाता के वैज्ञानिकों ने खोज से पता लगाया है कि इन सर्प विषों में कैंसर जैसी मारक बीमारी के उपचार की संभावना छुपी है । वैज्ञानिक विष से उस प्रोटीन को अलग करने के प्रयास कर रहे हैं, जिसमें कैंसर निवारण की अद्भुत क्षमता विद्यमान है । यह प्रोटीन कैंसर की कोशिकाआे की वृद्धि को रोक देता है । अनुसंधान दल की प्रमुख सुश्री अपर्णा गोम्स ने बताया कि इस अनुसंधान से कैंसर रोधी दवा के निर्माण की संभावना बनी है । वैज्ञानिक चूहों के रक्त, ऊतक और त्वचा पर इसका प्रयोग कर रहे हैं। सुश्री गोम्स ने बताया कि सर्प विष कई घातक विषैलें प्रोटीन्स और एंजाइम का मिश्रण है । यह विष जब मानव शरीर में प्रवेश कर जाता है तो ये प्रोटीन्स व एंजाइम ही उसके प्राण ले लेते हैं, लेकिन उचित मात्रा में इनका चिकित्सकीय सेवन जान बचाने का कार्य भी करता है ।
खास हार्मोन की कमी बनाती है इंसान को पेटू
वैज्ञानिकों के मुताबिक जो लोग भूख नहीं होने की सूरत में भी कुछ न कुछ खाते रहते हैं वे एक खास तरह की भूख नियंत्रणकारी हार्मोन की कमी के शिकार होते हैं । ऐसे लोगों के अधिक आहार लेने की वजह होती है उनमें लेप्टिन नामक हार्मोन की कमी । वैज्ञानिकों ने इस हार्मोन पर गहन अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है । यह हार्मोन लोगों को सीमा से अधिक भोजन लेने से रोकता है, लेकिन जिनके शरीर में इसकी कमी होती है, वे भूख नहीं होने पर भी खाते रहते हैं । ऐसे हार्मोन की कमी वाला इंसान अधिक आहार लेने के कारण मोटापे की गिरफ्त में आ जाता है । शरीर में स्थित वसा कोशिकाएं लेप्टिन नामक हार्मोन पैदा करती है और जब यह हार्मोन रक्त के माध्यम से दिमाग तक पहुंचता है तो व्यक्ति भूख से निजात महसूस करता है । इस हार्मोन के दिमाग तक पहुंचते ही व्यक्ति पेट भर जाने के अहसास से लैस हो जाता है और आहार लेना बंद कर देता है । कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के मनोचिकित्सा विभाग के सदस्य पॉल सी फ्लेचर के नेतृत्व वाले शोधकर्ताआे की टीम ने दुर्लभ आनुवांशिक असंतुलन के शिकार दो लोगों पर गहन अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है । इस खास तरह के आनुवांशिक संतुलन के शिकार व्यक्ति के अंदर लेप्टिन हार्मोन बनना बंद हो जाता है । ऐसे मरीज अधिक मात्रा में आहार लेने लगते हैं और मोटापे की गिरफ्त में आ जाते हैं । रिपोर्ट के मुताबिक जब इन दोनों मरीजों का लेप्टिन हार्मोन से इलाज किया गया तो उन्होंने आहार लेना कम कर दिया और उनका वजन घट गया। इस शोध के तहत शोधकर्ताआे ने इन दोनों मरीजों को विभिन्न व्यंजनों की तस्वीरें दिखाई और उनकी दिमागी प्रतिक्रिया का आकलन किया । वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि तस्वीर देखते ही दिमाग के सैट्रीएटल हिस्से में नयी हरकत होने लगी। यह हिस्सा भावनाआे और इच्छाआे के नियंत्रण से जुड़ा है ।

१० कविता

तृिप्त् देता जल
डॉ.वी.पी.शर्मा/पंकज प्रसून
सागर में गहरे भूतल में,
क्षितिज मेघ में पलता है ।
जीव जगत को तृिप्त् देता,
जल कलयुग में जलता है ।।

सोच रहे द्वापर के मोहन,
मानव क्यूँ करता जल दोहन ।
जल जीवन की दे दो दीक्षा,
विद्यालय में हो जल-शिक्षा ।

मत खोलो नल रोको अपव्यय,
हर घर में होवे जल संचय ।
मरे मवेशी हुए पलायन,
तालाबों में बढ़ते आयन ।

क्लोरीनेशन, अधिशोषण से,
भूजल शोधन चलता है ।

जिनसे जल-विषधारा निकली,
चीनी, कागज, कपड़ा, बिजली ।
उड़न राख फैला सिलिकोसिस,
हुआ असाध्य आज फलुओरोसिस ।

रसायन मीलों से रिसता,
विक्षिप्त् होती जैव विविधता ।
पानी फेंक मनुज सुख पाता,
भू-जल स्तर स्तर नीचे जाता ।

मानव यह व्यवहार तुम्हारा,
मानवता को खलता है ।
शहरीकरण बढ़ा संदूषण,
अकार्बन, कार्बनिक प्रदूषण ।
जल-जीवों को नित प्रति क्षरती,
जब इसमें बीओडी बढ़ती ।

जल में कुछ मेटल भी मिलते,
उपापचय को प्रभावित करते ।
इनसे खतरे में जल का अणु,
जीवाणु फंगस वीषाणु ।

मानव जनित प्रदूषण,
प्रकृति के अवयव को छलता है ।

महसूस करें जल-पीड़ा,
मिलकर आज उठायें बीड़ा ।
वन उन्मूलन यदि रूक जाये,
जल संरक्षण खुद हो जाये ।

अब हो नव संकल्प हमारा,
आओ बदलें अपना नारा ।
गर जल है जीवन मुसकाये,
जल जाये तो जीवन जाये ।

जाने क्यँू अभियान हमारा,
धीरे धीरे चलता है ।
जीव जगत को तृिप्त् देता,
जल कलयुग में जलता है ।।

***

११ ज्ञान विज्ञान

दुनिया का सबसे छोटा कम्प्यूटर शीघ्र बनेगा
अमेरिकी वैज्ञानिक इन दिनों दुनिया के सबसे छोटे कम्प्यूटर को विकसित करने में लगे हुए हैं । नैनोमैकेनिकल ऐसा कम्प्यूटर होगा जो इलेक्ट्रानिक्स के बजाय अस्थित सूक्ष्म उपकरणों के इस्तेमाल से चलेगा। इसके पार्ट्स इतने सूक्ष्म होंगे कि उन्हें खाली आँखों से नहीं देखा जा सकता है । माना जा रहा है कि इस कदम से कम्प्यूटर टेक्नोलॉजी के नए युग की शुरूआत होगी । वैज्ञानिकों की यह कोशिश कारगर रही तो कम्प्यूटरों में बिजली की खपत में तो कमी आएगी ही, पारंपरिक कम्प्यूटरों का आकार भी काफी छोटा हो जाएगा ।

यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉनसिन में इलेक्ट्रिकल और कम्प्यूटर इंजीनियरिंग के प्रोफेसर रॉबर्ट ब्लिक कहते हैं कि हमारा मकसद कंप्यूटिंग एप्लीकेशन के लिए नए तरह का उपकरण तैयार करना है । पारंपरिक उपकरणों में इलेक्ट्रॉन्स का इस्तेमाल किया जाता है जो सर्किट में चलते हैं और कम्प्यूटर चिप को सक्रिय करते हैं । हालाँकि नैनोमैकेनिकल कम्प्यूटर भी इलेक्ट्रॉन्स पर ही निर्भर होंगे, लेकिन वे इलेक्ट्रॉन्स के प्रवाह के लिए ठोस इलेक्ट्रानिक कंपोनेंट्स के बजाय सूक्ष्म आकार वाले लाखों घूमते पार्ट्स के प्रेशर का इस्तेमाल करेंगे । प्रो. ब्लिक ने बताया कि नैनोमैकेनिकल चिप बिजली की खपत में कमी लाएगी । ये ५०० डिग्री सेल्सियस से भी ज्यादा तापमान में परफार्म कर सकेंगी । वे कहते हैं कि अमेरिका में कुल एनर्जी का १५-२० प्रतिशत कम्प्यूटरों को ऑपरेट करने और उन्हें ठंडा रखने में खर्च होता है । हमारा मकसद ऊर्जा खपत की समस्या से निजात दिलाना भी है । यही नहीं, इन चिप की मदद से पोर्टेबल कम्प्यूटर बनाने में भी मदद मिलेगी और लेपटॉप में बैटरी जल्द खत्म हो जाने की समस्या भी बहुत हद तक दूर हो सकेगी।

मक्खियाँ इंसानों जैसा सूँघती हैं
मक्खिया देखते ही ये लगने लगता है कि आसपास कहीं गंदगी है और इस वजह से वे भिनभिना रही है परंतु क्या आप जानते हैं कि मक्खी और आदमी में समानता है । यह सुनने में भले ही थोड़ा अटपटा लगता हो लेकिन छोटी सी मक्खी में भी इंसानों जैसे गुण हो सकते हैं । वैज्ञानिकों ने यह साबित कर दिया है कि इंसान और मक्खियों में सूँघने की क्षमता करीबन एक जैसी है । इंसान और मक्खियों में सूँघने की क्षमता के अध्ययन रॉकफेलर विश्वविद्यालय में किए गए । शोधकर्ता के मुताबिक इंसान की तरह कीड़े-मकोड़े और मक्खियों से किसी भी महक को लेकर प्रतिक्रिया पाना बहुत मुश्किल था ।

सुगन्ध के मामले में उनके व्यवहार को लेकर कोई खास जानकारी उपलब्ध नहीं थी । शोधकर्ताआे ने फल मक्खी और इंसान में अलग-अलग खुशबूआे को लेकर होने वाली प्रतिक्रिया के बारे में जानने का प्रयास किया । दोनों के इस व्यवहार में काफी समानता देखने को मिली हैं । अध्ययन से जुड़े न्यूरोबायोलॉजिस्ट एन्ड्रिआस केलर और कीमर्स लैबोरेट्री के प्रोफेसर लेसली वोशाल के अनुसार मक्खी और इंसान दोनों ही महक की तीव्रता को एक जैसे भाँपते हैं । बस महक की गुणवत्ता के मामले में दोनों के निर्णय में अंतर होता है । उनके मुताबिक मनुष्यों के समान ही मक्खी में भी घ्राण प्रणाली तंत्रिका कोशिकाआे से संबंधित होती है । इन सभी कोशिकाआें में गंध को पहचानने के लिए खास संवेदक मौजूद होते हैं । संवेदक छोटे-छोटे समूह में गंध को पहचानते हैं और तंत्रिकाएँ संयुक्त रूप से हर सुगन्ध के प्रति प्रतिक्रिया दिखाती है । हालाँकि अलग-अलग जन्तुआे में संवेदकों की संख्या में अंतर होते हैं । चूहे में यह संख्या १२००, इंसानों में ४०० और फल मक्खी में ६१ संवेदक होते हैं । शोधकर्ता वोशाल और कैलर यह जानने के प्रयास में है कि इंसान और फल मक्खियों में गंध को पहचानने के लिए उपस्थित संवेदकों के विकास और संख्या में इतना अंतर क्यों है । अभी तक यह पता नहीं है कि अलग -अलग प्रजाति के जीव-जंतुआं में संवेदकों की संख्या में अंतर गंध को पहचानने में क्या फर्क पड़ता है ।
लुप्त् होते चिंकारा को बचाने की मुहिम
लुप्त्प्राय: चिंकारा को बचाने के लिए हैदराबाद के वैज्ञानिक आगे आए हैं। उन्होंने एक ऐसी तकनीक विकसित की है जिससे इनका संरक्षण संभव हो गया है । यह वही चिंकारा है जिसका शिकार करने पर फिल्म अभिनेता सलमान खान को पांच साल की सजा मिली है । इसके लिए कंजर्वेशन ऑफ एन्डेंजर्ड स्पेसीज नामक प्रयोगशाला में एक विशेष तकनीक `इंट्रा वेजीनलइनसेमिनेशन' को अपनाया गया ।

इसके लिए प्रयोगशाला के निदेशक डॉ. लालजीसिंह के साथ तीन अन्य वैज्ञानिकों संदानंद सोनातक्के, मनोज पटेल और जी. उमापति ने पांच चिंकारा से ८५ वीर्य सेंपल जमा किए । उनसे तीन मादा चिंकारा को गर्भवती करने की कोशिश की गई । इनमें से केवल एक ही गर्भवती हो पाई । उसी से एक छौना मिला है जिसे `ब्लेकी' नाम दिया गया है । कंजर्वेशन ऑफ एन्डेंजर्ड स्पेसीज नामक इस अति आधुनिक प्रयोगशाला में विलुप्त् हो रही प्रजाति के जानवरों के शुक्राणुआे को सुरक्षित रखकर प्रयोग किए जाते हैं । इसमें कृत्रिम वीर्यारोपण (इनसेमिनेशन) की सटीक विधि को भी विकसित किया गया है। वैज्ञानिकों के दावानुसार इस विधि से यह दुनिया का पहला हिरण है । इसका वजन २.६ किग्रा है । करीब १८ महीने पहले इसी तकनीक से एक सामान्य हिरण के छौने को पैदा करने में वैज्ञानिकों ने सफलता पाई थी । उसे `स्पॉटी' नाम दिया गया था ।
विकिरण से बचाएगी इलेक्ट्रोमैग्नेटिक चिप
विकिरण हमेशा से मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा बना हुआ है और कई बार विश्व स्तर पर किए गए अनुसंधानों में सिद्ध भी हो चुका है । ये विकिरण हमारे द्वारा उपयोग किए जाने वाले लगभग सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से निकलते हैं चाहे वो मोबाइल फोन हो, माइक्रोवेव, हेयर ड्रायर, यूपीएस यहाँ तक कि लेपटॉप और अन्य उपकरण । यद्यपि अलग-अलग उपकरणों से निकलने वाले विकिरण का परिणाम अलग होता है, परंतु ये सभी हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचा रहे हैं । एक बड़ा प्रश्न सामने है कि क्या हम ऐसी तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर सकते जिससे विकिरण हमें नुकसान न पहुँंचा सके । इलेक्ट्रानिक उपकरण बनाने वाली एक कंपनी के मुताबिक इसका उत्तर है `हाँ' । इस भारतीय कंपनी का यह दावा है कि उसकी नई चिप हमें विकिरण से बचाने में मदद करेगी । कोर्जेट ईएमआर सोल्यूशन लि. द्वारा निर्मित यह चिप हमारे मोबाइल फोन में आसानी से फिट की जा सकती है । यह हमें खतरनाक विकिरण से बचाएगी तो इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों द्वारा निकल रहा है । कोजेंट ग्रुप के चेयरमेन का कहना है कि हम बहुत सी ऐसी किरणों द्वारा बुने गए मकड़जाल के बीच जिंदगी जी रहे हैं, जिन्हें हम देख नहीं सकते । विकिरण से हमें बहुत सी ऐसी लाइलाज बीमारियाँ हो सकती हैं जो हमारे शरीर हो नुकसान पहुँचाती है जैसे इंसोमेनिया (नींद न आने का रोग), ब्रेन ट्यूमर और अन्य प्रकार के कैंसर आदि । यदि गर्भवति महिलाएँ माइक्रोवेव का का उपयोग करती हैं तो इससे निकलने वाला विकिरण उनको नुकसान पहुँचा सकता है । जो उत्पाद हमने बनाए हैं वो हमारे शरीर को इलेक्ट्रोमेगनेटिक विकिरण से काफी हद तक सुरक्षित रख सकेंगे ।

कंपनी इन उत्पादों को बाजार में लाने की तैयारी में है और इन उत्पादों को विकसित करने का मुख्य उद्देश्य खतरनाक विकिरण से मानव सभ्यता को बचाना है और इसीलिए इनकी कीमत काफी कम रखी गई है । जाने-अनजाने हर व्यक्ति इलेक्टोमेगनेटिक विकिरण का सामना कर रहा है । कंपनी कुछ ऐसे उत्पादों का निर्माण भी कर रही है, जो खतरनाक रेडिएशन को सुरक्षित किरणों में बदल देंगे। ये उत्पाद चिप से लेकर एप्रन की तरह रहेंगे जो विभिन्न नष्ट हो चुके इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से निकलने वाले विकिरण से हमारे शरीर को बचाएँगे । इन उत्पादों की कीमत की काफी कम रखी गई है और ये १०० रू. से लेकर ५०० रू. तक उपलब्ध रहेंगे । यह चिप जल्द ही बाजार में उपलब्ध हो जाएगी ।

१२ जन जीवन

दिल्ली में निजी कारों पर पाबन्दी क्यों न हो ?
सुनील
इन दिनों दिल्ली की सड़को पर दिखाई देती हैं कारें ही कारें, नए-नए मॉडलों की अनगिनत कारें । बसों, ऑटो, रिक्शों आदि के मुकाबले उनकी संख्या तेज़ी से बढ़ी है । साइकिलें और दुपहिया स्कूटर-मोटर साइकिलें तो अब कम ही दिखाई देती हैं । गाड़ियों के इस विशाल हुजूम में अब ऐसे वाहन चलाना खतरे से खाली भी नहीं है । तांगे, साइकिल रिक्शे, बैलगाड़ियां, हाथ ठेले तो अब लुप्त् हो रहे हैं । इस `कार-क्रांति' को वैश्वीकरण के युग की देन माना जा सकता है । दिल्ली में पंजीकृत वाहनों की संख्या ४० लाख है, जिनमें कारों की संख्या लगभग १५ लाख है । एक जानकारी के मुताबिक वर्ष १९९४-९५ से २००३-०४ के बीच दिल्ली में छोटी चार पहिए वाली गाड़ियों की संख्या में ९.२७ प्रतिशत वार्षिक का इज़ाफा हुआ है । हाल के वर्षो में यह वृद्धि दर दुगनी हो गई होगी । यानी दिल्ली में कारों की संख्या में विस्फोट हो रहा है। हम अक्सर जनसंख्या विस्फोट की चर्चा व चिंता करते हैं, किन्तु उससे बड़ा यह `कार-विस्फोट' है, जो दिल्ली व देश के अन्य महानगरों में घटित हो रहा है । इस कार-क्रांति पर आज चाहे कोई इतरा ले, लेकिन दिल्लीवासियों के लिए यह गले की हड्डी बन गई है । गाड़ियों की संख्या में इतनी तेज़ी से वृद्धि होने से दिल्ली की यातायात व्यवस्था ध्वस्त हो गई है । ट्राफिक जाम होना आम बात है और उसमें फंसना एक यातना से कम नहीं होता । दिल्ली में कारों का यह विशाल रेला कई बार चींटियों की चाल से चलता है और एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने में घंटो लग जाते हैं । यातायात को सुगम बनाने के लिए सड़के लगातार चौड़ी की जा रही हैं, सैकड़ो फ्लाई ओवर और पुल बनते जा रहे हैं । इन फ्लाई ओवरों से दिल्ली अब वैसा ही बन गया है, जैसा कुछ साल पहले लन्दन व न्यूयॉर्क के चित्रों को हम हैरानी से देखते थे । चौराहों, ट्राफिक बत्तियों, सबवे आदि का भी लगातार आधुनिकीकरण और विकास हो रहा है । लेकिन यातायात की समस्या सुरसा-मुख की तरह बढ़ती जा रही है । सड़को पर दुर्घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं । मोटरगाड़ियो से वायु प्रदूषण और शोर प्रदूषण दिल्ली में चरम पर पहुंच रहा है । लाखों कारों की यह विशाल संख्या जब चलती हैं, तब तो सड़कों को जाम करती ही है, जब खड़ी रहती है, तब भी समस्या बनती है । दिल्ली की सबसे महंगी जमीन पर बहुत सारे बड़े-बड़े (अब बहुमंजिले) पार्किंग स्थल बनाने पर भी समस्या बढ़ती जा रही है । बहुमंजिला आवासीय इमारतों तथा हाउसिंग सोसायटियों में भी कारों की नित बढ़ती भीड़ के कारण रात को कार खड़ी करना और सुबह निकालना एक बड़ा सिरदर्द हैं। कई परिवारों में अब दो-दो कारें है । दिल्ली की गंभीर यातायात समस्या को सुलझाने के लिए सुझाव दिए जा रहे हैं, अध्ययन और सर्वेक्षण हो रहे हैं, कदम उठाए जा रहे हैं । कई बार ये कदम व सुझाव गरीब विरोधी होते हैं, जैसे तांगे व साइकिल-रिक्शे बंद करना, खोमचे वालों को हटाना, झुग्गियों को हटाकर सड़कों को चौड़ी करना या पार्किग स्थल बनाना आदि । मानों दिल्ली में सिर्फ कारवालों को ही रहने व जीने का हक हो । लेकिन गरीबों पर अत्याचारों और देश का पैसा खर्च करने के बाद भी दिल्लीकी यातायात समस्या हल नहीं हो रही है । इस सुरसा-मुखी समस्या का एकमात्र हनुमान रूपी समाधान है कि कारों के स्थान पर परिवहन के सार्वजनिक साधनों को सुलभ व बेहतर बनाया जाए । ज्यादा व अच्छी बसे चले, टैक्सियों व रिक्शों की सेवाआे को सुधारा जाए । दिल्ली में मेट्रो रेल का विस्तार तो हो ही रहा है । जिसको लंबी दूरी की यात्रा करना है, वह सार्वजनिक साधनों से जाए । जिसे नजदीक जाना है, वह पैदल, साइकिल या मोटर साइकिल से जाए । यदि ऐसा कर दिया जाए तो इससे कई फायदे होंगे । दिल्ली की सड़कों पर वाहनों में एक तिहाई कमी हो जाएगी । ट्राफिक जाम लगभग खत्म हो जाएंगे । दिल्ली में आने-जाने का समय भी बचेगा। दिल्लीवासियों के स्वास्थ्य को दोहरा फायदा होगा । प्रदूषण तो कम होगा ही, लोग ज्यादा पैदल या साइकिलों पर चलेंगे, जिससे उनकी शारीरिक कसरत होगी । उन्हें अलग से जिम, व्यायाम शाला, मोटापा कम करने वाले केन्द्रो और सुबह शाम भ्रमण हेतु पार्को में जाने की जरूरत भी कम होगी । एक सर्वेक्षण के मुताबिक दिल्ली की ५७ प्रतिशत यात्राएं ५ कि.मी. से कम की होती हैं । अर्थात प्रतिदिन ४५ लाख यात्राओ की दूरी ५ कि.मी. से कम होती है । ये यात्राएं साइकिलों से आसानी से की जा सकती है, जिसमें धन, समय व स्वास्थ्य तीनों की बचत होगी । निजी कारों पर पाबन्दी लगाने से दिल्ली में साइकिलों की संख्या में भारी वृद्धि होगी। `कार-क्रांति' का स्थान `साइकिल-क्रांति' ले लेगी । इसके लिए यातायात व्यवस्था में कुछ बदलाव करना होगा । कारों से खाली हुई सड़को पर पैदल व साइकिलों की लिए अलग से सुरक्षित लेन बनानी होगी । निजी कारों पर पाबन्दी लगाने से इंर्धन की काफी बचत होगी । हमें पेट्रोल व गैस विदेशों से आयात करना पड़ता है, जिसे संतुलित करने के लिए देश को निर्यात पर बहुत जोर देना पड़ता है । निर्यात के लिए अनुदान व करों में छूट दी जाती है । इंर्धन बचने से ग्रीनहाउस गैसों को कम करने और ग्लोबल वार्मिग का खतरा टालने में भी दिल्ली अपना योगदान कर सकेगा । कारें बंद होने से दिल्ली में नए पार्किंग स्थल नहीं बनाने पड़ेंगे और सड़कों को और चौड़ी करने की जरूरत भी कम हो जाएगी । कई पार्किंग स्थलों को छोटा या खत्म भी किया जा सकता है । इससे जो जगह बचेगी, वहां बच्चें के लिए खेलने के मैदान, पार्क, अस्पताल, वृद्धाश्रम, रैन बसेरे आदि बनाए जा सकते हैं। यातायात की समस्या हल हो जाने से अपने कार्यस्थल तक आने-जाने में बचा समय दिल्ली के नागरिक अपने बच्चें व परिवार के साथ बिता सकेंगे तथा रचनात्मक गतिविधियों में ज्यादा समय दे सकेंगे । कुल मिलाकर दिल्ली का जीवन बेहतर बनेगा । सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि दिल्ली के अमीरों और गरीबों में बढ़ती दूरी तथा सामाजिक भेदभाव कम होगा । गरीब मजदूर और करोड़पति दोनों सार्वजनिक साधनों से यात्रा करेंगे । इससे यातायात के सार्वजनिक साधनों से यात्रा करने की सेवाएं सुधारने की ओर समाज के प्रभावशाली तबके का ध्यान अपने आप जाएगा । आज अपनी वातानुकूलित कारों में यात्रा करने के कारण वे कभी बसों या रेल के बारे में सोचते भी नहीं है। समानता की दिशा में दूसरा फायदा यह होगा कि दिल्ली की सड़को, पुलों, फ्लाई ओवरों, पार्किंग स्थलों आदि को विकसित करने में इस गरीब देश के संसाधनोंका जो गैर अनुपातिक हिस्सा खर्च हो रहा है, उसमें भी कमी आएगी । गांधी के इस देश में सादगी और वैकल्पिक जीवन शैली की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण प्रयोग होगा। दिल्ली की सीमा में निजी कारों को बंद करने वाला यह प्रस्ताव कई लोगों को काफी क्रांतिकारी, अटपटा व अस्वीकार्य लग सकता है । विशेषकर निजी गाड़ी में आने-जाने के अभ्यस्त हो गए अमीर एवं मध्यम वर्ग को यह बात आसानी से नहीं पचेगी । लेकिन इसके अलवा कोई विकल्प नहीं है । दिल्ली के बिगड़ते हालात का और कोई समाधान नहीं है । कुछ लोग कह सकते हैं कि यह अव्यावहारिक है, इससे असुविधा होगी और इसें कैसे लागू किया जाएगा? किंतु यह वैसा ही है, जैसे महानगरों की कई सड़को पर दिन में भारी वाहन आने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता हे या कई स्थानों पर पार्किग या यू-टर्न प्रतिबंधित कर दिया जाता है । यूरोप के कई शहरों में पहले से कुछ घने इलाकों में वाहनों पर प्रतिबंध है और लोग वाहन खड़ाकरके वहां पैदल जाते हैं । सिंगापुर में भी कारों पर कुछ रोक लगाई गई है । यह उसकी तरह का थोड़ा प्रतिबंध है । सार्वजनिक हित में कुछ असुविधा तो उठानी होगी । नहीं तो भविष्य में असुविधा सबको होगी और भयानक रूप ले लेगी । कुछ लोग सुझाव दे सकते है कि निजी कारें प्रतिबंधित करने की बजाए उन्हें महंगा कर दिया जाए, जिससे उनकी संख्या कम हो जाएगी । जैसे पार्किंग शुल्क बढ़ा दिए जाएं । किंतु इस सुझाव की खामी यह है कि जो ज्यादा अमीर होंगे, वे निजी गाड़ियों का उपयोग पूर्ववत करते रहेंगे । एक अन्य सुझाव है कि गाड़ियोंके नंबर अंतिम अंक के आधार पर उन्हें समाप्त् के अलग-अलग दिन चलने की अनुमति दी जाए । किंतु इसकी निगरानी दिल्ली जैसे विशाल महानगर में काफी मुश्किल होगी । फिर, इन आंशिक उपायों से दिल्ली की यातायात समस्या का पूरा समाधान भी नहीं निकलेगा । कुछ लोगों को निजी कारों को बंद करने का यह प्रस्ताव एक प्रकार की तानाशाही भरा कदम लग सकता है । लेकिन जनहित में कड़े निर्णय तो लोकतंत्र में भी लेने पड़ते हैं । दिल्ली में ही पर्यावरण को बचाने के लिए प्रदूषणकारी उद्योगों को दिल्ली से बाहर करने तथा पेट्रोल-डीजल चालित बसों, आटो रिक्शा व टैक्सियों को बंद करने के कड़े आदेश क्रियान्वित भी किए जा चुके हैं । इस मामले में भी सवाल पर्यावरण और जनहित का ही है । पिछली बार सार्वजनिक वाहनों पर जिम्मेदारी डाली गई थी, किंतु उनमें डीजल-पेट्रोल की जगह सी.एन.जी. उपयोग करने से प्रदूषण की समस्या हल नहीं हुई । समस्या का प्रमुख स्त्रोत निजी कारें है, जिन्हें प्रतिबंधित किए बगैर काम नहीं चलेगा । वास्तव में ठंडे दिमाग से, ध्यान से सोचा जाए तो इस प्रस्ताव में सबको फायदा ही है । इसमें नुकसान सिर्फ कारें बनाने और बेचने वाली कंपनियों का होगा और विरोध भी उनकी तरफ से ही सबसे ज्यादा होगा । कारें बनाने वाली देशी और विदेशी कंपनियों की यह लॉबी इतनी ताकतवर है कि वह भारत सरकार की नीतियों को भी प्रभावित करती है । इसलिए इस प्रस्ताव को लागू करने के लिए काफी राजनैतिक इच्छा शक्ति की जरूरत होगी, जिसकी काफी कमी वर्तमान सरकारों में दिखाई देती है । इसलिए दिल्ली की जनता को इस मांग को एक जन-आंदोलन का रूप देना होगा । बिजली और पानी के निजीकरण के खिलाफ दिल्ली के कॉलोनी वासियों ने जिस जागरूकता का परिचय दिया है, उसी तर्ज पर, किंतु उससे ज्यादा सामूहिक व संगठित प्रयास और आंदोलन की जरूरत होगी । एम.सी. मेहता, अनुपम मिश्र और सुनीता नारायण जैसे पर्यावरणविद, अरूंधती राय और अरविन्द केजरीवाल जैसे सामाजिक कार्यकर्ता, प्रभाष जोशी, कुलदीप नैय्यर और राजिन्दर सच्च्र जैसे बुद्धिजीवी इस मामले में महत्वपूर्ण पहल कर सकते हैं । भारत की राजधानी, ढाई हजार साल पुरानी इस ऐतिहासिक नगरी, दिल्ली के बाशिंदे के सामने दो ही विकल्प है । एक साहसिक फैसला लेकर न केवल अपनी यातायात समस्या को हल करें, बल्कि देश व दुनिया के अन्य महानगरों के सामने एक अनुकरणीय मिसाल पेश करें । अपने शहर को भी जीने लायक बनाएं और ग्लोबल वार्मिंग में कमी की भी एक राह दुनिया को बताएं । दूसरा विकल्प है कि पहले से नर्क बनती जा रही दिल्ली को और ज्यादा नर्क बनने दें, जिसका शिकार दिल्ली के अमीर और गरीब दोनों बनने को अभिशप्त् होंगे ।

१३ पर्यावरण समाचार

दिल्ली मेट्रो ने पेड़ बचाने के लिए मार्ग बदला
दिल्ली मेट्रो ने कुछ पेड़ों को बचाने के लिए पूर्व निर्धारित मार्ग मेंफेरबदल कर दिया । कंपनी के वरिष्ठ आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक दूसरे चरण में केंद्रीय सचिवालय, रेल भवन से गुड़गांव के सुशांत लोक जाने वाले मार्ग मेंरेसकोर्स (प्रधानमंत्री निवास) के पास महज १५ पेड़ों को बचाने के लिए मार्ग में थोड़ा बदलाव कर दिया गया । पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार उद्योग भवन के बाद रेसकोर्स मेट्रो स्टेशन बनना है । वहाँ से एयर फोर्स स्टेशन के पीछे से जोरबाग की ओर मेट्रो मार्ग निकल जाता है । इसका अगला पड़ाव आईएनए है । पहले जो ब्ल्यू प्रिंट तैयार हुआ था, उसके मुताबिक रेसकोर्स के पास ढेर सारे पेड़ काटने पड़ते । कम से कम पेड़ काटने की नीति पर अमल करते हुए मेट्रो अभियंताआे ने मार्ग में थोड़ा सा फेरबदल किया, जिस कारण १५ पेड़ बच गए । हालाँकि इस कवायद में मेट्रो की लागत कुछेक करोड़ रूपए बढ़ गई । मेट्रो प्रवक्ता का कहना है कि किसी मेट्रो मार्ग के निर्माण में अरबों रूपए की लागत आती है ।

ऐसे में पर्यावरण की रक्षा के लिए कुछ करोड़ रूपए ज्यादा खर्च हो गए तो क्या हर्ज है । परियोजना के पहले चरण के दौरान दिल्ली मेट्रो को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली सरकार से कंपनी को ११ हजार ७७६ पेड़ काटने का आदेश मिला था। इसके विपरीत सूझ- बूझ एवं मार्ग में मामूली फेरबदल करते हुए १९०० पेड़ बचा लिए गए । दूसरे चरण में दिल्ली मेट्रो को आवंटित भूमि के अलावा भी कुछ भूमि मिली है जो कुछ ही अवधि के लिए है। ऐसी भूमि पर निर्माण कार्य के दौरान साजो सामान, मिट्टी , मलबा आदि निर्माण सामग्री रखी जाती है । कुछ जमीन वैकल्पिक मार्ग के लिए भी मिलती है । इस बार निर्णय लिया गया है कि ऐसी भूमि पर पेड़ों को काटा नहंी जाएगा उल्लेखनीय है कि दिल्ली मेट्रो दुनिया में पहली उपनगरीय मेट्रो प्रणाली है जिसे निर्माण कार्य के लिए आईएसओ १४००१ प्रमाण पत्र मिला है ।