शुक्रवार, 7 सितंबर 2007

७ आवरण् कथा


जलवायु बदलाव के खतरे और उपाय
सुश्री रेशमा भारती
ब्राजील के नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च की हाल की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की ओर से हो रही ग्लोबल वॉर्मिंग में १९ फीसदी बड़े बांधों के कारण है । दुनियाभर के बड़े बांधों से हर साल उत्सर्जित होने वाली मिथेन का लगभग २७.८६ प्रतिशत अकेले भारत के बड़े बांधों से होता है, जो अन्य सभी देशों के मुकाबले सर्वाधिक है । हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य अधिकारों संबंधी एक विशेषज्ञ ने कुछ प्रमुख खाद्य फसलों के जैविक इंर्धन (बायोफ्यूल) हेतु इस्तेमाल पर चिंता व्यक्त करते हुए चेतावनी दी है कि इससे दुनिया में हजारों की तादाद में भूख से मौतें हो सकती हैं । चाहे वह खाद्य फसल हो या अखाद्य खेती में जैव इंर्धन की निर्माण सामग्री उगाने से जैव विविधता, खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण को पहुँचते नुकसानों को लेकर दुनिया के कई भागों में चिंता प्रकट होती रही है । ग्लोबल वार्मिंग की गंभीर चुनौती का सामना करने के लिए भारत ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों की दिशा में अग्रसर है। पर उसे यह भी समझना होगा कि विकल्पों की भी अपनी सीमाएं हैं और उनको बहुत बड़े पैमाने पर अंधाधुंध अपनाने से कई समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं । चाहे वह टिहरी बांध हो या सरदार सरोवर बांध या अन्य बड़ी पन बिजली योजनाएं हों बड़े स्तर के विस्थापन, आजीविकाआे के नष्ट होने, मुआवजे या पुनर्वास की आस में दर-दर भटकने की त्रासदी तो सामने है ही साथ ही डूब क्षेत्र की चपेट में आयी अमूल्य प्राकृतिक विरासत-वन, वनस्पति, अन्य जीव भी हम खोते रहे हैं । प्राय: बड़े बांधों की उपयोगिता और कार्य क्षमता समय के साथ तब जाती रहती है, जब जलाशय में गाद भरती जाती है और तब बांध गैर-टिकाऊ व महंगा सौदा साबित होता है । भूकंप व भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाआें की संभावना और विनाशक क्षमता बढ़ाने में भी बड़े बांधो की भूमिका मानी गई है । जैसा कि पिछले कुछ समय में हमारे देश के कई भागों में घटा हैं बड़े बांध विनाशकारी बाढ़ लाने वाले साबित हुए हैं ! बिजली उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए कई बार बांधों के जलाशय में सामान्य से अधिक जल भर लिया जाता है । ऐसे में बारिश आने पर जलाशय में क्षमता से अधिक पानी हो जाता है । बांध को टूटने से बचाने के लिए तब अचानक तेजी से बहुत मात्रा में पानी छोड़ा जाता है, जो विनाशकारी बाढ़ ले आता है । बदलती जलवायु और सिकुड़ते ग्लेशियर नदी और अंतत: बांध के भावी अस्तित्व पर सहज ही प्रश्नचिह्न् लगाते हैं। डूब क्षेत्र की चपेट में आए और जलाशय में बहकर आए जैविक पदार्थ जब सड़ते है, तो जलाशय की सतह से मिथेन, कार्बन डायॉक्साइड जैसी कई ग्रीनहाऊस गैसें उत्सर्जित होती हैं । पनबिजली निर्माण प्रक्रिया में जलाशय का ग्रीन हाऊस गैस युक्त जल जब टरबाइन या स्पिलवे पर गिरता है तो भी ऐसी गैसे वातावरण में छूटती हैं । बड़ी पनबिजली योजनाआे से आम लोगों की अपेक्षा बड़े औद्योगिक लाभ अधिक सिद्ध होते हैं । सरदार सरोवर प्रोजेक्ट की कच्छ (गुजरात) के सूखा प्रभावित क्षेत्र के संदर्भ में भूमिका बताती कैग (दी कन्ट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इण्डिया) की रिपोर्ट कहती है `औद्योगिक इस्तेमाल के लिए पानी की अधिक खपत होगी । घरेलू जरूरतों के लिए पानी की उपलब्धता इससे कम होगी। वर्ष २०२१ तक इससे कच्छ जिले के लोगों की पेयजल उपलब्धता पर प्रतिकूल असर पड़ेगा ।' सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा, ऊर्जा के बेहतरीन विकल्प माने गए हैं । राजस्थान में इन दोनों विकल्पों के अच्छे मानक स्थापित हुए हैं । सोलर लैम्प, सोलर कुकर जैसे कुछ उपकरण प्राय: लोकप्रिय रहे हैं। पर यदि ऊर्जा की बढ़ती असीमित मांगों के लिए इन दोनों विकल्पों का दोहन हो और बहुत बड़े पैमाने के प्लांट लगाए जाएं तो कोई गारंटी नहीं की इनमें भी समस्याएं उत्पन्न न हों । एशियन डेवलपमेंट बैंक के साथ मिलकर टाटा पॉवर कंपनी लिमिटेड देश में (विशेषकर महाराष्ट्र में) कई करोड़ों रूपये के बड़े पवन ऊर्जा प्लांट लगाने की योजना बना रही है । इसी तरह से दिल्ली सरकार भी ऐसी कुछ निजी कंपनियों की ओर ताक रही हैं जो राजस्थान में पैदा होती पवन ऊर्जा दिल्ली पहुंचा सकें । परमाणु ऊर्जा के निमा्रण से पैदा होते परमाणु कचरे में प्लूटोनियम जैसे ऐसे रेडियोएक्टिव तत्वों का यह प्रदूषण पर्यावरण में भी फैल सकता है और भूमिगत जल में भी । परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में दुर्घटना व चोरी की संभावना भी मौजूद रहती है । आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एक प्रमुख अनुसंधान समूह ने कहा है कि विश्वभर में परमाणु ऊर्जा के विस्तार से कार्बन उत्सर्जन में इतनी कमी की संभावना नहीं जितना कि इससे दुनिया में परमाणु हथियारों के बढ़ने का खतरा मौजूद हैं । भारत-अमरीकी परमाणु संधि ने यूरेनियम के खर्चीले आयात का भावी बोझ भारत के कंधों पर लादा है और भविष्य में परमाणु संयंत्र लगाने मे काफी जमीन की खपत की समस्या पैदा की है। इसके अतिरिक्त अमरीका में पहले इस्तेमाल हो चुके परमाणु इंर्धन की भी रिप्रोसैसिंग भारत के लिए कितनी सुरक्षित होगी, यह भी विवादास्पद हैं । पौधों से बने इंर्धन या बायोफ्यूल का स्वच्छ या ग्रीन इंर्धन के रूप में दुनियाभर में प्रचार-प्रसार हो रहा है । विकसित देशों की कई कंपनियाँ विकासशील देशें में उपलब्ध भूमि, सस्ते श्रम व पर्यावरण नियमों में ढिलाई के मद्देनजर बायोइंर्धन के पौधे उगाने में यहां निवेश कर रही हैं । भारत में छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्यों में लाखों हैक्टेयर भूमि रतनजोत (जैट्रोफा) के उत्पादन के लिए कंपनियों को दी जा रही है । प्रमुख खाद्य फसलों जैसे मक्का, सोयाबीन या खाद्य तेलों रेपसीड, पाम ऑयल का उपयोग यदि इंर्धन उगाने के लिए होगा; तो खाद्य उपयोग खाद्य फसलों से अधिक उगाने के लिए होगा तो भी खाद्य संकट पैदा होगा । खाद्य सुरक्षा के लिए यह एक प्रमुख चुनौती माना जा रहा हैं । बायोइंर्धन प्राय: इतनी ऊर्जा देता नहीं जितनी ऊर्जा (जीवाश्म इंर्धन की) इसके निर्माण व ट्रांसपोर्ट में लग जाती है। इस प्रक्रिया में ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन भी कम नहीं होता । इसके ग्रीन या क्लीन इंर्धन के रूप में औचित्य पर ही सवाल उठ जाता है । इंर्धन की बढ़ती मांग के मद्देनजर बायोफ्यूल की खेती भी सुविधानुसार मोनोलक्चर वाली, रसायनों वाली और जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों की हो रही हैं । इससे स्थानीय फसलों, वनस्पतियों समेत पर्यावरण के लिए गंभीर खतरे पैदा होते हैं । बड़े पैमाने पर वनभूमि का इस्तेमाल भी बायोइंर्धन लगाने के लिए हो रहा है । जैसे इंडोनेशिया, मलेशिया में पाम ऑयल प्लांटेंशन के विस्तार के लिए बड़े पैमाने पर वनों की बलि दी जा रही है । यह जैव विविधता के लिए खतरा तो है ही; साथ ही वनों की ग्लोबल वॉर्मिंग को नियंत्रण में रखने की क्षमता की भी उपेक्षा कर रहा है । वनों पर निर्भर समुदाय अपने परम्परागत अधिकारों से भी वंचित हो रहे हैं, उजड़ रहे हैं । उल्लेखनीय है कि हमारे देश में राजस्थान में कुछ वनभूमि भी जैट्रोफा की खेती के विस्तार हेतु दी जानी तय हुई है ! राजस्थान में लगभग समूची बंजर या परत भूमि रतनजोत की खेती के लिए कंपनियों को लीज पर दी जा रही है । यह बंजर भूमि दरअसल यहां के आम लोगों के लिए कतई बेकार नहीं है। काफी कुछ पशुपालन पर निर्भर ग्रामीण समुदायों के लिए यही भूमि चारे का स्त्रोत है । जलाऊ लकड़ी इसी से मिलती है और गांव की अन्य सामूहिक जरूरतें भी पूरी होती हैं । ऐसी ३०% भूमि पर उगी झाड़ियों पर भेड़, बकरी, ऊंट आदि पशु निर्भर करते हैं । बायोइंर्धन उत्पादन को तेजी से बढ़ाने के उद्देश्य से इसमें जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों की खेती को बढ़ावा मिल रहा है जिसके पर्यावरण, स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभावों संबंधी वैज्ञानिक चेतावनियां भी दी जाती रही हैं । दरअसल जब तक ऊर्जा और इंर्धन की निरंतर बढ़ती मांगों को नियंत्रित नहीं किया जाएगा; तब तक विकल्पों पर भी दबाव पड़कर समस्याएं उपजती ही रहेंगी । स्थानीय स्तर पर सीमित व बुनियादी जरूरतों की पूर्ति में ये वैकल्पिक स्त्रोत अपना कमाल दिखा सकते है; पर इनका अंधाधुंध विस्तार पर्यावरण समाज व अर्थव्यवस्था में अस्थिरता ही अधिक पैदा करता है । ***







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