निर्वात का इतिहास
डॉ. सुशील जोशी
जब १६४३ में टॉरिसेली ने एक नली में पारा भरकर उसे पारे से भरी एक टब में उल्टा खड़ा किया तो नली का काफी सारा पारा तो टब में गिर गया मगर कुछ पारा नली में बचा रहा । उससे भी महत्वपूर्ण बात यह हुई थी कि नली में पारे के ऊपर थोड़ी खाली जगह बच गई थी । टॉरिसेली ने दावा किया कि उस खाली जगह में निर्वात हैं । इसके साथ ही एक पुरानी बहस में नया जोश व मोड़ आया । बहस का संबंध इस बात से था कि शून्य यानी निर्वात संभव है या नहीं । यानी सवाल यह था कि उस नली के ऊपरी भाग में जो खाली जगह दिख रही थी, वह निर्वात है या नहीं । टॉरिसेली ने यह काम अपने गुरू गैलीलियों गैलिली के एक अस्फुट सुझाव के आधार पर और पूर्व में हो चुके एक प्रयोग से सबक लेकर किया था । गैलीलियों के समक्ष एक वैज्ञानिक मित्र गियोवानी बतिस्ता बालियानी ने एक समस्या रखी थी । उस समय तक चूषण पंप का आविष्कार हो चुका था । बालियानी ने देखा कि इस पंप से पानी अधिकतम ३३-३४ फुट की ऊंचाई तक ही चढ़ता है । साइफन में भी पानी को इतनी ही ऊंचाई तक उठाया जा सकता था । गैलीलियों की व्याख्या यह थी कि जब ऊपर से हवा खींची जाती है तो वहां खाली स्थान या शून्य निर्मित हो जाता है और इस शून्य की शक्ति से पानी ऊपर चढ़ जाता है । यानी शून्य का अस्तित्व हो सकता है । अरस्तू ने करीब २००० साल पहले कहा था कि `प्रकृति को शून्य से नफरत है' । गैलीलियों की व्याख्या को अरस्तूवादियों ने यह कहकर समझाने की कोशिश की कि प्रकृति को शून्य से नफरत है इसीजिए तो पानी फौरन ऊपर चढ़ जाता है । मगर सवाल यह था कि ३३-३४ फुट के ऊपर जो शून्य बनता था, प्रकृति उससे नफरत क्यों नहीं करती । गैलीलियो के विचार के आधार पर एक वैज्ञानिक ने शून्य निर्मित करने की ठानी थी । उसने करीब ३५ फीट लंबी नली बनाई और उसमें पानी भरकर दोनों सिरों से बंद कर दिया । अब इस नाली को पानी भरे टब में खड़ा करके निचला सिरा खोल दिया गया, तो पानी थोड़ा नीचे गिरा और ३३-३४ फीट पानी नली में टिका रहा, उसके ऊपर खाली जगह बची रही । यह १६८३ की बात हैं । पानी के ऊपर जो खाली जगह थी उसका हवा से कोई संपर्क नहीं था और इससे यह धारणा बनी कि वहां कुछ नहीं है यानी शून्य है । मगर अरस्तू की विश्व दृष्टि में शून्य के लिए जगह नहीं थी । तो उनके चेलों ने कहा कि यह शून्य नहीं हो सकता । इसका एक प्रमाण उन्होंने यह प्रस्तुत किया कि इस जगह में से होकर प्रकाश गुज़रता है (क्योंकि नली में से दूसरी तरफ की चीज़े दिखती थीं) तो यदि वहां कोई माध्यम नहीं है तो प्रकाश कैसे गुज़रेगा ? दूसरा प्रमाण ध्वनि से संबंधित था । उस नली में एक घण्टी रखकर ऐसी व्यवस्था की गई कि उसे बजाया जा सके। जब घण्टी को बजाया गया तो उसकी आवाज़ बाहर सुनाई पड़ी, जो अरस्तूवादियों के लिए और प्रमाण था कि अंदर शून्य नहीं हैं । पानी ऊपर की जगह के लिए अरस्तूवादियों ने दो व्याख्याएं प्रस्तुत की। पहली व्याख्या यह थी कि पानी में से कुछ निकलता है जो ऊपर की जगह को भर देता है और वह चीज़ पानी को नीचे धकेलती है । दूसरी, और ज़्यादा ज़ोरदार व्याख्या प्रसिद्ध गणितज्ञ देकार्ते ने प्रस्तुत की थी कि उस जगह में ईथर नामक पदार्थ होता है । देकार्ते के अनुसार ईथर बहुत बारीक और गतिशील पदार्थ है और वह पानी के बीच उपस्थित छिद्रोंमें से गुज़रकर ऊपर भर जाता है । अरस्तूवादी ईथर की धारणा बहुत पहले यह समझाने के लिए प्रस्तुत कर चुके थे कि कैसे दूरस्थ तारों का प्रकाश हम तक पहुंच जाता है । ईथर एक पदार्थ था वह प्रकाश के लिए माध्यम का काम करता था । यह अपने-आप में विवाद का विषय रहा कि क्या प्रकार को आगे बढ़ने के लिए किसी माध्यम की ज़रूरत होती है । गैलीलियों के विपरीत एवेन्जेस्टिा टॉरिसेली का विचार था कि नली में शून्य तो बनता है मगर जो पानी नली में टिका रहता है वह वास्तव में शून्य की चूषण शक्ति की वजह से नही हैं । वह तो इसलिए है क्योंकि टब में भरे पानी पर हवा में वज़न पड़ता है । यानी टॉरिसेली कह रहे थे कि हवा में वज़न होता है । अरस्तू सदियों पहले कह चुके थे कि हवा में वज़न नहीं होता । मगर टॉरिसेली ने एक प्रयोग करके अपनी बात को सिद्ध किया। उन्होंने कहा कि नली में यदि ३३-३४ फीट पानी टिका रहता है तो पानी से अधिक घना कोई द्रव लें तो वह थोड़ा कम ऊंचाई तक टिका रह पाएगा । दरअसल टॉरिसेली ने यह भविष्यवाणी की थी कि यदि उनकी बात सही है कि नली में पानी के टिकने की वजह हवा का वज़न है तो पारा उससे १४ गुना कम ऊंचाई तक टिकेगा । यह प्रयोग वास्तव में एक अन्य वैज्ञानिक विंसेन्ज़िओ विविएनी ने १६४४ में किया । उन्होंने पानी की जगह पारा लिया जिसका घनत्व पानी से करीब १४ गुना ज़्यादा है और टॉरिसेली की बात सही निकली - नली में सिर्फ ढाई फीट ही पारा टिका । तो एक प्रयोग ने दो विचार दिए एक तो निर्वात बनाना संभव है और दूसरा हवा में वज़न होता है । अरस्तू के अनुयाइयों ने तुरंत इस पर सवाल उठाए। दरअसल निर्वात की अंसभावना का विचार अरस्तू के प्रकृति, वस्तुआे, तत्वों, पदार्थ की प्रकृति, गति से संबंधित तमाम विचारों से जुड़ा हुआ था । इसलिए निर्वात का निर्माण उनके विचारों के लिए करारा झटका था । जैसे अरस्तू मानते थे कि वस्तुआें में गति का प्रमुख कारण उनका स्थान है - हर वस्तु गति करती है ताकि अपनी स्वाभाविक जगह पर पहुंच सके । उनके लिए स्थान पदार्थ का ही विस्तार था । इस तरह देखने पर ऐसा कोई स्थान हो ही नहींसकता जहां कुछ न हो । अरस्तू ने परमाणु के विचार को भी इसी आधार पर खारिज किया था कि यदि पदार्थ कणों से मिलकर बना होगा तो उन कणों के बीच शून्य होगा और प्रकृति को शून्य से नफरत है । दरअसल निर्वात या शून्य को लेकर अरस्तू की कई आपत्तियां थीं । जैसे एक आपत्ति यह थी किसी वस्तु का एक स्थान होता है । उस वस्तु की सीमा निकटतम अगली वस्तु से परिभाषित होती है । अब यदि किसी गिलास में शून्य है और उसमें दो कंचे डाल दें तो उन दोनों की सीमा निकटतम वस्तु यानी गिलास से परिभाषित होगी । इसका मतलब होगा कि वे दोनों कंचे एक ही समय पर एक ही जगह पर हैं, जो असंभव हैं । एक आपत्ति यह थी कि किसी भी वस्तु का वेग माध्यम के घनत्व का व्यत्क्रमानुपाती होता है । अरस्तू मानते थे कि वस्तुआें में गति इसलिए होती है कि वे अपनी स्वाभाविक जगह पर पहुंचना चाहती हैं । अब यदि शून्य संभव हुआ तो वस्तुआें की गति अनंत हो जाएगी, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मगर टॉरिसेली ने तो शून्य भी निर्मित कर दिया और यह भी कह दिया कि हवा में वज़न होता है । दरअसल टॉरिसेली यह कह रहे थे कि टब में रखे द्रव और नली में भरे द्रव दोनों पर हवा का वज़न पड़ता है । टब में रखे पारे के ऊपर तो पूरा वायुमंडल है जिसका वज़न उसे दबाएगा । नली में पारे के ऊपर `कुछ नहीं' है तो उसे कोई नहीं दबाता । यानी नली में जितना पारा है उसका वज़न वायुमंडल के दबाव से संतुलित हुआ है। एक तरह से पारे का कम ऊंचाई तक टिकना निर्वात की बात को साबित करने को पर्याप्त् था । मगर अरस्तूवादियों को यह बात रास नहीं आई । आखिर पूरे सैद्धांतिक किले के ढह जाने का सवाल जो था । तो अरस्तूवादियों ने कहा कि नली में भरा द्रव `स्पिरिट' पैदा करता है जो ऊपर की खाली जगह में भरा रहता है और द्रव को नीचे धकेलता है । चूंकि पारा अपेक्षाकृति ज़्यादा `स्पिरिट' पैदा करता है, इसलिए वह ज़्यादा नीचे धकेला जाता है । `स्पिरिट' यानी एक तरह की वाष्प थी । इस बिंदु पर मशहूर भौतिक शास्त्री ब्लैज़ पास्कल ने एक ज़ोरदार प्रयोग किया जिसने सबकी आंखें खोलने का काम किया । मज़ेदार बात है कि इस प्रयोग का सुराग भी गैलीलियो दे चुके थे - उन्होंने कहा था कि नली वाले प्रयोग को पानी की बजाय शराब से करके देखना चाहिए। पास्कल ने यही किया । सबसे बड़ी बात थी कि उन्होंने इस प्रयोग को सार्वजनिक रूप से करके दिखाया । शराब की एक विशेषता यह है कि इसमें पानी की अपेक्षा ज़्यादा वाष्प बनती है । तो पास्कल ने निर्वात विरोधियों से भविष्यवाणी करने को कहा कि यदि नली में पानी की बजाय शराब भरी जाएगी तो वह कम ऊंचाई तक टिकेगी या ज़्यादा ऊंचाई तक । निर्वात विरोधियों के मतानुसार नली में से द्रव इसलिए गिरता है कि ऊपर से वाष्प उसे दबाती है । जाहिर है उन्होंने कहा कि शराब कम ऊंचाई तक टिकेगी । वास्तविक प्रयोग में ऐसा नहीं हुआ । बात साफ हो गई । मगर पास्कल स्वयं इतने से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने कहा कि यदि नली में द्रव की ऊंचाई वायुमंडल के वज़न के कारण है, तो यदि इसी प्रयोग को पहाड़ पर चढ़कर किया जाएगा, तो नली में द्रव की ऊंचाई कम रहनी चाहिए क्योंकि जब परात में रखे द्रव कम ऊंचाई तक टिकना चाहिए। लिहाजा पास्कल ने अपने बहनोई फ्लोरिन पेरियर से एक महत्वपूर्ण प्रयोग करने को कहा । पेरियर एक पहाड़ पाय डी डोम के पास रहते थे । पास्कल ने कहा कि वे उपरोक्त उपकरण (जिसे दाबमापी कहा जाने लगा था) को लेकर अलग-अलग ऊंचाइयों पर जाएं और प्रयोग करके देखें कि नली में द्रव कितनी ऊंचाई तक टिकता है । पेरियल ने १६४८ में ये प्रयोग किए और पास्कल की भविष्यवाणी के अनुरूप ही पहाड़ पर चढ़ते जाने पर नली में पारे में ऊंचाई कम होती गई । अब तो अरस्तूवादियों को मानना ही पड़ा कि नली में पानी टिकता है, तो हवा के वजन के कारण । मगर उन्होंने नली के ऊपरी खाली भाग में निर्वात की बात को स्वीकार नहीं किया । वे यही कहते रहे कि शून्य में से प्रकाश आगे नहीं बढ़ सकता । और इसलिए वहां शून्य नहीं है, ईथर है । प्रकाश की प्रकृति और ईथर के संबंधो को सुलझाने के लिए अभी कुछ बरस और बाकी थे । वह विवाद भी बहुत बढ़िया ढंग से रचित प्रयोगों के आधार पर सुलझाया गया था । ऑटो फॉन गेरिक के लोकप्रिय प्रयोग की बात किए बगैर निर्वात के इतिहास की बात अधूरी-सी रहेगी । हम सबने पाठ्य पुस्तक में कभी न कभी फॉन गेरिक और उन्हें अध-गोलों का जिक्र पढ़ा। दरअसल फॉन गेरिक एक इंजीनियर थे और फुरसत में रहते थे । तो सोचा कि अपने घर की हर मंज़िल पर पानी सप्लाई का इंतज़ाम कर डाले । उन्होंने भी एक पंप बनाया मगर वही ढाक के तीन पात पानी ३३-३४ फीट से ऊपर चढ़ता ही नहीं था । फॉन गेरिक ने तरह-तरह के जुगाड़ किए और अंतत: पानी तो नहीं चढ़ा सके मगर एक ऐसा पंप बनाने में सफल हुए जो किसी सीलबंद बर्तन से हवा खींच लेता था । उन्होंने दो मजबूत अर्थ गोले बनाए, उन्हें चिपका कर रखा और पंप की मदद से उनके अंदर से हवा खींच ली । बताते हैं कि पता नहीं कितने घोड़ों का दल भी इन अर्ध गोलों को अलग-अलग नहीं कर पाया था । निर्वात का यह सार्वजनिक प्रदर्शन निहायत असरदार रहा था । इस निर्वात पंप के बन जाने से कई तरह के अनुसंधान का मार्ग प्रशस्त हुआ । इनमें से सबसे महत्वपूर्ण थे रॉबर्ट बॉयल के प्रयोग जिनके जरिए गैसो के दबाव और उनके आयतन के बीच प्रसिद्ध बॉयल के नियम की खोज हुई । बॉयल के अनुसार दबाव बढ़ने पर गैसों का आयतन कम होता जाता है । गैसों के दबाव पर काम शुरू हुआ तो प्रेशर कुकर का भी आविष्कार हुआ जो घर-घर में पाया जाता है । इसके अलावा टॉरिसेली के प्रयोग ने दाबमापी यानी बैरोमीटर के निर्माण व मौसम की भविष्यवाणी में उसके उपयोग का मार्ग प्रशस्त किया ।
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