शुक्रवार, 7 सितंबर 2007

५ प्रदेश चर्चा

म.प्र. : कृषि मे घटती उत्पादकता
नंदिता छिब्बर
लाखन रघुवंशी के लिए पिछला मानसून ठीक नहीं रहा । मध्यप्रदेश में गुना जिले के श्यामपुर गांव का यह किसान अपने १२१ हेक्टेयर की कृषि भूमि में सोयाबीन, गेहंू और चने की खेती करता है । इसमें से ६१ हेक्टेयर में इसने सोयाबीन की बुआई की है । बहुत अच्छी किस्म के बीजों के बावजूद उसे मात्र १५ क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से उपज प्राप्त् हुई हैं । उसका कहना है `जब मैंने अपनी भूमि की जांच करवाई तो पाया कि मेरी भूमि में सल्फर (एक अनिवार्य तत्व) की कमी के कारण उपज में कमी आ रही हैं। पूर्व में उसे प्रति हेक्टेयर २५ क्विंटल तक सोयाबीन प्राप्त् हो जाती थी । राज्य के अन्य किसान भी उसके विचार से सहमति रखते हैं । रघवुंशी अब भूमि में सल्फर की मात्रा बढ़ाने के लिए सिंगल सुपर फास्फेट का प्रयोग कर रहा है । उसका कहना है कि छोटे किसान जो इस समस्या के प्रति जागरूक नहीं हैं अभी भी सल्फर मुक्त डाय अमोनियम सल्फेट (डी.ए.पी) और पोटाश खाद का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो कि उनके लिए अतिरिक्त समस्याएं खड़ी कर सकता है । मध्यप्रदेश के १५० लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फसलें अब कम उपज दे रहीं हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि कम उपज का कारण भूमि से सल्फर की मात्रा में न्यून से लेकर अत्यधिक कमी हैं । भोपाल स्थित भारतीय भूमि विज्ञान संस्थान (आई.आई.एस.एस.) की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के ४८ जिलों की ४० प्रतिशत भूमि जिसमें अधिकांश वर्षा पर निर्भर है, सल्फर की कमी से जूझ रही है। संस्थान के प्रोजेक्ट समन्वयक महावीर सिंह कहते हैं कि `प्रदेश के सभी जिलो को इस समस्या का सामना करना पड़ रहा है। फर्क मात्र इतना है कि फसल की बुआई वहां कितनी अधिक मात्रा में होती हैं ।' संस्थान के निदेशक ए.सुब्बाराव विवेचना करते हुए कहते हैं `पौधे वातावरण में व्याप्त् सल्फर के बजाय अपनी जड़ों से सल्फेट के माध्यम से भूमि के द्वारा ज्यादा मात्रा में सल्फर सोखते हैं । अगर सल्फर के तत्व प्रति दस लाख में १० भाग से कम होंगे तो अंतत: फसल पर विपरीत असर डालेंगे । विशेषज्ञ स्वीकार कर रहे हैं कि तिलहनों में मौजूद तेल की मात्रा भी कम हो रही है क्योंकि सल्फर इस प्रक्रिया का एक आवश्यक तत्व हैं । इंदौर स्थित सोयाबीन प्रसंस्करण एसोसिएशन के राजेश अग्रवाल का कहना है कि दशकों से गहन और लगातार आवृति वाली कृषि के साथ ही साथ कृषि भूमि में सल्फर रहित यूरिया जैसी रासायनिक खाद के अत्यधिक प्रयोग से यह स्थिति उत्पन्न हुई हैं । यह क्षीणता सरसों, सोयाबीन व मूंगफली जैसे तिलहनी फसलों जिनमें कि अधिक सल्फर की आवश्यकता होती है, में अधिक पाई गई हैं । विशेषज्ञों का कहना है कि राज्य सरकार व किसानों दोनों ने ही इस पुन: पूर्ति के कार्य की अनदेखी की हैं । महावीर सिंह के अनुसार सन् १९८० के दशक में मध्यप्रदेश में वर्षा से सिंचित एवं सूखे इलाकों में सोयाबीन की खेती प्रारंभ हुई थी । सरकार ने एक वर्ष में तीन फसलों जैसी गहन खेती की प्रणाली को प्रोत्साहन दिया । राज्य का ८ करोड़ हैक्टेयर का सोयाबीन कृषि क्षेत्र देश के कुल सोयाबीन उत्पादन में ८० प्रतिशत का योगदान करता है । यह प्राथमिक तौर पर राज्य के मालवा अंचल, सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला व नर्मदा घाटी में उपजाई जाती है । महावीर सिंह का अनुमान है कि १९८० के दशक में इसका औसतन प्रति हैक्टेयर उत्पादन ०.८ टन था जो बढ़कर १.१ टन प्रति हैक्टेयर तक ही पहुंच पाया है । अर्थात पिछले बीस वर्षो में बीज की गुणवत्ता और कृषि की तकनीक में जबरदस्त सुधार आने के बावजूद औसत उत्पादन में मात्र ०.३ टन प्रति हैक्टेयर की वृद्धि हुई हैं । उनके अनुसार सोयाबीन का औसत मूल्य १००० से १२०० प्रति क्विंटल तक रहता है । इस हिसाब से रघुवंशी जिसे कि प्रति हैक्टेयर १० हजार से १२ हजार रू. के राजस्व की हानि हो रही है का कहना है `घाटे के और भी कई कारण है परंतु सल्फर की पुन: पूर्ति से आधे घाटे की पूर्ति हो सकती है । वैसे तो यह फसल पर निर्भर है, परंतु यदि सल्फर पर एक रू. खर्च किया जाए तो किसान को ५ से १२ रू. तक का फायदा हो सकता हैं । विशेषज्ञों का कहना है कि कृषि कार्य के लिए नहरों के जल एवं वर्षा जल की सिंचाई से भी सल्फर की हानि की पुन: पूर्ति नहीं होती । उनके अनुसार अगर औद्योगिक क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो वर्षा जल में सल्फर की मात्रा कम ही होती है । ऐसी फसलें जिनकी सिंचाई ट्यूबवेल या भूजल से होती है में सल्फर की पुन: पूर्ति की संभावनाएं अधिक हैं क्योंकि इसमें नमक मिला हुआ होता है। नगरों में बहते पानी से सल्फर नष्ट हो जाता है और अंतत: यह जिस भूमि की सिंचाई करता है उससे भी सल्फर को बाहर कर देता है । कुछ स्थानों पर तो इसका प्रभाव स्पष्ट तौर पर नहीं दिखता । परंतु कई मामलों में यह स्पष्ट तौर पर दिखाई भी देता है खासकर जब छोटे और पतले तने वाले पौधों की पत्तियां हल्की पीली या हल्की हरी दिखने लगती हैं । भारतीय भूमि विज्ञान संस्थान ने इसकी पुन: पूर्ति हेतु सिंगल एस.एस.पी. अमोनियम सल्फेट और अमोनियम फास्फेट जैसी सुलभ रासायनिक खादों के प्रयोग की अनुशंसा की है । यह भी अनुशंसा की गई है कि यदि प्रति हेक्टेयर ८ से १० टन कृषिजन्य खाद का प्रयोग किया जाए तो यह कमी दूर हो सकती है । इतना ही नहीं प्रति हेक्टेयर ३०० किलो एस.एस.पी. प्रतिवर्ष प्रयोग किए जाने से भूमि में प्रति हेक्टेयर ४० किलो सल्फर प्राप्त् हो जाएगा जिससे उत्पादकता में भी वृद्धि होगी । यह फसल पर निर्भर करता है, परंतु पैदावार में १५० से २५० किलो तक की वृद्धि हो सकती हैं । हालांकि कुछ कृषक खनिज जिप्सम जिसमें कि १३ से १८ प्रतिशत सल्फर है, का प्रयोग करते हैं । परंतु वैज्ञानिकों का कहना है इस खाद का प्रयोग इसलिए व्यावहारिक नहीं है क्योंकि इस स्थिति में डी.ए.पी. जैसी खादका अतिरिक्त प्रयोग करना पड़ता है । इससे खर्चो में और वृद्धि हो जाती है । जिप्सम पर सब्सिडी उपलब्ध होने के बावजूद यह किफायती नहीं है । पायराईट्स में वैसे तो २२ प्रतिशत सल्फर होता है परंतु इसे अधिकांशत: क्षारीय भूमि में ही प्रयोग में लाया जाता है । वैसे भी इसमें सल्फर के रूप में न होने से पौधो को इसे सोखने में बाधा पहुंचती है । रायसने जिले के एक पूर्व किसान राहुल नरोन्हा का कहना है कि आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि किसान अपनी भूमित का परीक्षण करवा कर यथोचित खाद का ही प्रयोग करें । शिवपुरी जिले के मोहरा गांव के ६.२५ हेक्टेयर में कृषि करने वाले छोटे काश्तकार हेमराज सिंह जिन्होंने इस वर्ष सोयाबीन और मूंगफली की बुआई की है कहते हैं `डी.ए.पी. सबसे अच्छी खाद है । वैसे भी डी.ए.पी. छोटे किसान में सबसे लोकप्रिय खाद है जिसमें नाइट्रोजन और फास्फोरस का सम्मिश्रण होता है एवं यह तिलहनों के लिए भी बहुत अनुकूल हैं।'' मध्यप्रदेश कृषि विभाग के सहायक निदेशक रविन्द्र साहू का कहना है कि किसानों को इन्हीं उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए क्योंकि ये सस्ते हैं और आसानी से उपलब्ध भी हैं । वहीं महावीर सिंह का कहना है कि सरकार को सल्फर से परिपूर्ण उर्वरकों को कम मूल्य पर उपलब्ध करवाकर इनके प्रयोग को प्रोत्साहित करना चाहिए । साथ ही बाजार में नकली एस.एस.पी. की पहुंच पर सख्ती से रोक लगानी चाहिए । कृषि विभाग उत्पादन में गिरावट को तो स्वीकार करता है परंतु यह मानने को तैयार नहीं है कि किसान इस विषय में अनभिज्ञ हैं । अधिकारियों के अनुसार विभाग भूमि में सल्फर की मात्रा बढ़ाने हेतु पद्धति विकसित करने हेतु प्रयासरत है । उनका कहना है कि इस समस्या के निदान हेतु प्रदेश में चार प्रयोगशालाएं कार्यरत् हैं । उन्होंने `किसान मित्र' और `किसान दीदी' जैसे सामुहिक प्रयासों के माध्यम से एक लाख किसानों को प्रशिक्षित करने का बीड़ा उठाया है । इससे यह सुनिश्चित हो जाएगा कि प्रत्येक गांव में कृषि प्रणालियों, तकनीकों भूमि पोषण और उसकी कमियों का पता लगाने हेतु एक प्रशिक्षित व्यक्ति उपलब्ध हो । इसके अतिरिक्त १९ कृषि प्रशिक्षण क्षेत्रों के माध्यम से ग्रामीण विस्तारण श्रमिकों और कृषकों को भी शिक्षित किया जाएगा । विभाग के सह निदेशक एस.पाटिल का कहना है कि कृषक भी इस समस्या को काबू में करने हेतु प्रयासरत हुए हैं । डी.ए.पी. का विवरण तो सभी स्थानों पर नहीं होता है परंतु सभी विक्रेता खासकर वे जो सल्फर की कमी वाले क्षेत्र में स्थित हैं से यह कहा गया है कि वे अपने यहां एस.एस.पी. का भंडारण अवश्य करें । सरकार ने एस.एस.पी. निर्माताआे को उर्वरक सस्ते मूल्य में विक्रय करने हेतु सब्सिडी का प्रावधान भी किया है । एक बोरी (१५० किलो) एस.एस.पी. का अनुमानित मूल्य १७१ रूपये है । श्री पाटिल का यह कथन है कि राज्य के कृषि विभाग के पास प्रत्येक ब्लाक और जिला स्तर तक के भूमि के पोषण एवं कमी संबंधी आकड़े मौजूद हैं। महावीर सिंह के अनुसार समय की सबसे बड़ी मांग है कि सरकार प्रत्येक पांच वर्ष में क्रमबद्ध तरीके से भूमि की उत्पादकता आकलन व गणना करें और वैज्ञानिक मानचित्रण करें । वहीं संस्थान के निदेशक राव आशान्वित हैं कि अगर ठीक कदम उठाए गए तो भविष्य में म.प्र. सल्फर की कमी की समस्या से उभर सकता है ।

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