शुक्रवार, 7 सितंबर 2007

१० कविता

तृिप्त् देता जल
डॉ.वी.पी.शर्मा/पंकज प्रसून
सागर में गहरे भूतल में,
क्षितिज मेघ में पलता है ।
जीव जगत को तृिप्त् देता,
जल कलयुग में जलता है ।।

सोच रहे द्वापर के मोहन,
मानव क्यूँ करता जल दोहन ।
जल जीवन की दे दो दीक्षा,
विद्यालय में हो जल-शिक्षा ।

मत खोलो नल रोको अपव्यय,
हर घर में होवे जल संचय ।
मरे मवेशी हुए पलायन,
तालाबों में बढ़ते आयन ।

क्लोरीनेशन, अधिशोषण से,
भूजल शोधन चलता है ।

जिनसे जल-विषधारा निकली,
चीनी, कागज, कपड़ा, बिजली ।
उड़न राख फैला सिलिकोसिस,
हुआ असाध्य आज फलुओरोसिस ।

रसायन मीलों से रिसता,
विक्षिप्त् होती जैव विविधता ।
पानी फेंक मनुज सुख पाता,
भू-जल स्तर स्तर नीचे जाता ।

मानव यह व्यवहार तुम्हारा,
मानवता को खलता है ।
शहरीकरण बढ़ा संदूषण,
अकार्बन, कार्बनिक प्रदूषण ।
जल-जीवों को नित प्रति क्षरती,
जब इसमें बीओडी बढ़ती ।

जल में कुछ मेटल भी मिलते,
उपापचय को प्रभावित करते ।
इनसे खतरे में जल का अणु,
जीवाणु फंगस वीषाणु ।

मानव जनित प्रदूषण,
प्रकृति के अवयव को छलता है ।

महसूस करें जल-पीड़ा,
मिलकर आज उठायें बीड़ा ।
वन उन्मूलन यदि रूक जाये,
जल संरक्षण खुद हो जाये ।

अब हो नव संकल्प हमारा,
आओ बदलें अपना नारा ।
गर जल है जीवन मुसकाये,
जल जाये तो जीवन जाये ।

जाने क्यँू अभियान हमारा,
धीरे धीरे चलता है ।
जीव जगत को तृिप्त् देता,
जल कलयुग में जलता है ।।

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