शुक्रवार, 7 सितंबर 2007

८ अमृता बलिदान दिवस (२१ सितम्बर) पर विशेष

अमृता देवी और बिश्नोई समाज
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
आज सारी दुनिया में पर्यावरण संरक्षण की चिंता में पर्यावरण चेतना के लिये सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर विभिन्न कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं । भारतीय जनमानस में पर्यावरण संरक्षण की चेतना और पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों की परम्परा सदियों पुरानी है । हमारे धर्मग्रंथ, हमारी सामाजिक कथायें और हमारी जातीय परम्परायें हमें प्रकृति से जोड़ती है । प्रकृति संरक्षण हमारी जीवन शैली में सर्वोच्च् प्राथमिकता का विषय रहा है । प्रकृति संरक्षण के लिये प्राणोत्सर्ग कर देने की घटनाआें ने समूचे विश्व में भारत के प्रकृति प्रेम का परचम फहराया है । अमृता देवी और पर्यावरण रक्षक बिश्नोई समाज की प्रकृति प्रेम की एक घटना हमारे राष्ट्रीय इतिहास में स्वर्णिम पृष्ठों में अंकित है । सन् १७३० में राजस्थान के जोधपुर राज्य में छोटे से गांव खेजड़ली में घटित इस घटना का विश्व इतिहास में कोई सानी नहीं है । सन् १७३० में जोधपुर के राजा अभयसिंह को युद्ध से थोड़ा अवकाश मिला तो उन्होंने महल बनवाने का निश्चय किया ।नया महल बनाने के कार्य में सबसे पहले चूने का भट्टा जलाने के लिए इंर्धन की आवश्यकता बतायी गयी । इस पर राजा को दरबारियों ने सलाह दी कि पड़ोस के गांव खेजड़ली में खेजड़ी के बहुत पेड़ है, वहां से लकड़ी मंगवाने पर चूना पकाने में कोई दिक्कत नहीं होगी । इस पर राजा ने तुरंत अपनी स्वीकृतिदे दी । खेजड़ली गांव में अधिकांश बिश्नोई लोग रहते थे । बिश्नोईयों में पर्यावरण के प्रति प्रेम और वन्य जीव सरंक्षण जीवन का प्रमुख उद्देश्य रहा है । बिश्नोई समाज के संस्थापक महान सामाजिक संत गुरू जंभोजी महाराज (१४५१-१५३६) ने पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से जीवन में सदाचार में २९ (२०+९) धर्म नियम बनाये थे । इन २९ नियमों को मानने वाले सभी लोग बिश्नोई कहलाने लगे । खेजड़ली गांव में प्रकृति के प्रति समर्पित इसी बिश्नोई समाज की ४२ वर्षीय महिला अमृता देवी के परिवार में उनकी तीन पुत्रियां और पति रामू खोड़ थे, जो कृषि और पशुपालन से अपना जीवन-यापन करते थे । खेजड़ली में राजा के कर्मचारी सबसे पहले अमृता देवी के आंगन में लगे खेजड़ी के पेड़ को काटने आये तो अमृता देवी ने उन्हें रोका और कहा कि ``यह खेजड़ी का पेड़ हमारे घर का सदस्य है यह मेरा भाई है इसे मैंने राखी बांधी है, इसे मैं नहीं काटने दूंगी ।'' इस पर राजा के कर्मचारियों ने प्रति प्रश्न किया कि ``इस पेड़ से तुम्हारा धर्म का रिश्ता है, तो इसकी रक्षा के लिये तुम लोगों की क्या तैयारी है ।'' इस पर अमृता देवी और गांव के लोगों ने अपना संकल्प घोषित किया ``सिर साटे रूख रहे तो सस्तो जाण'' अर्थात् हमारा सिर देने के बदले यह पेड़ जिंदा रहता है तो हम इसके लिये तैयार है । इस दिन तो पेड़ कटाई का काम स्थगित कर राजा के कर्मचारी चले गये, लेकिन इस घटना की खबर खेजड़ली और आसपास के गांवों में शीघ्रता से फैल गयी । कुछ दिन बाद राजा के कर्मचारी पूरी तैयारी से आये और अमृता के आंगन के पेड़ को काटने लगे तो गुरू जंभोजी महाराज की जय बोलते हुए सबसे पहले अमृता देवी पेड़ से लिपट गयी क्षण भर में उनकी गर्दन धड़ से अलग हो गयी, फिर उनके पति, तीन लड़किया और ८४ गांवों के कुल ३६३ बिश्नोईयों (६९ महिलाये और २९४ पुरूष) ने पेड़ की रक्षा में अपने प्राणों की आहूति दे दी । खेजड़ली की धरती बिश्नोईयों के बलिदानी रक्त से लाल हो गयी । यह गुरूवार २१ सितम्बर १७३० (भाद्रपद शुक्ल दशमी, विक्रम संवत १७८७) का ऐतिहासिक दिन विश्व इतिहास में इस अनूठी घटना के लिये हमेशा याद किया जायेगा । समूचे विश्व में पेड़ रक्षा में अपने प्राणों को उत्सर्ग कर देने की ऐसी कोई दूसरी घटना का विवरण नहीं मिलता है । इस घटना से राजा के मन को गहरा आघात लगा, उन्होंने बिश्नोईयों को ताम्रपत्र से सम्मानित करते हुए जोधपुर राज्य में पेड़ कटाई को प्रतिबंधित घोषित किया और इसके लिये दण्ड का प्रावधान किया । बिश्नोई समाज का यह बलिदानी कार्य आने वाली अनेक शताब्दियों तक पूरी दुनिया में प्रकृति प्रेमियों में नयी प्रेरणा और उत्साह का संचार करता रहेगा । बिश्नोई समाज आज भी अपने गुरू जंभोजी महाराज की २९ नियमों की सीख पर चलकर राजस्थान के रेगिस्तान में खेजड़ी के पेड़ों और वन्यजीवों की रक्षा कर रहा है । हमारे देश में केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय तथा सभी राज्य सरकारों द्वारा पर्यावरण एवं वन्यजीवों के संरक्षण के लिये अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं । हमारे यहां प्रतिवर्ष ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है । केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के तत्वावधान में एक माह की अवधि का राष्ट्रीय पर्यावरण जागरूकता अभियान भी चलाया जाता है। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि हमारे सरकारी लोक चेतना प्रयासों को इस महान घटना से कहीं भी नहीं जोड़ा गया है । हमारे यहां राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस के लिये इस महान दिन से उपयुक्त कोई दूसरा दिन कैसे हो सकता है ? आज सबसे पहली आवश्यकता इस बात की है कि २१ सितम्बर के दिन को भारत का पर्यावरण दिवस घोषित किया जाये यह पर्यावरण शहीदों के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की सच्ची श्रृद्धांजलि होगी और इससे प्रकृति सरंक्षण की जातीय चेतना का विस्तार हमारी राष्ट्रीय चेतना तक होगा, इससे हमारा पर्यावरण समृद्ध हो सकेगा ।

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