शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

४ तेल प्रदूषण









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पेट्रोलियम उत्पाद और जीवन का

संकट


प्रमोद भार्गव


पेट्रोलियम पदार्थोंा, कोयले और प्राकृतिक गैसों के लगातार बढ़ते उपयोग से पैदा हो रहा प्रदूषण पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा साबित हो रहा है । एक अनुमान के अनुसार इससे भारत को लगभग २०० अरब रूपयों की वार्षिक होनी उठानी पड़ रही है । यही नहीं वायु में घुलनशील हो जाने वाले इस प्रदूषण से सांस, फेफड़ो, कैंसर हृदय व त्वचा रोग संंबंधी बीमारियों में इजाफा हो रहा है । पेट्रोलियम पदार्थोंा का समुद्री जल में रिसाव होने से जल प्रदूषण का भी सामना करना पड़ रहा है । पेट्रोलियम पदार्थ मिट्टी पानी और हवा को दूषित करते हुए मानव जीवन के लिए अभिशाप साबित हो रहे हैं । दुनियाभर के समुद्री तटों पर पेट्रोलियम पदार्थोंा और औद्योगिक कचरे से भयावह पर्यावरणीय संकट पैदा हो रहे हैं । तेल के रिसाव, तेल टेंकों के टूटने व उनकी सफाई से समुद्र का पर्यावरणीय परिस्थितिक तंत्र बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है । राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान की रिपोर्ट पर गौर करें तो केरल के तटीय क्षेत्रों में तेल से उत्पन्न प्रदूषण के कारण झींगा और चिंगट मछलियों का उत्पादन २५ फीसदी कम हो गया है । हाल ही में डेनमार्क के बाल्टिक बंदरगाह पर १९०० टन तेल के फैलाव के कारण प्रदूषण संबंधी एक बढ़ी चुनौती उत्पन्न हुई थी । इक्वाडोर के गैलापेगोस द्वीप समूह के पास समुद्र के पानी में लगभग साढ़े छह लाख लीटर डीजल और भारी तेल के रिसाव से मिट्टी समुद्री जीव और पक्षी खतरें में पड़ गए थे । गुजरात में आए भूकम्प के बाद कांडला बंदरगाह पर भांरण टेंक से लगभग २००० मीट्रिक टन हानिकारक रसायन इकोनाइटिल एसीएन फैल जाने से क्षेत्रवासियों का जीवन ही संकट में पड़ गया था । इसके ठीक पहले कांडला बंदरगाह पर ही समुद्र में फैले लगभग तीन लाख लीटर तेल के जामनगर के पास कच्छ की खाड़ी के उथले पानी में स्थित समुद्री राष्ट्रीय उद्यान में दुर्लभ जीव जंतुआें की कई प्रजातियां मारी गई थीं । जापान के टोक्यो के पश्चिमी तट पर ३१७ किमी की पट्टी पर तेल के फैलाव से जापान के तटवर्ती शहरों में हाहाकर मच गया था । रूस में बेलाय नदी के किनारे बिछी तेल पाइप लाइन से १५० मीट्रिक टन के रिसाव ने यूराल पर्वत पर बसे ग्रामवासियों के सामने पेयजल का संकट खड़ा कर दिया था । सैनजुआन जहाज के कोरल चट्टानी से टकरा जाने के कारण अटलांटिक तट पर करीब तीस लाख लीटर तेल का रिसाव होने से समुद्री जीव प्रभावित हुए थे । मुंबई हाई से लगभग १६०० मीट्रिक टन तेल का रिसाव हुआ । इसी तरह बंगाल की खाड़ी में क्षतिग्रस्त टैंकर से फैले तेल ने निकोबार द्वीप समूह में तबाही मचाई, जिससे यहां रहने वाली जनजातियों और समुद्री जीवन को भारी हानि हुई । साइबेरिया के एक टेंकर से रिसे ८५००० मीट्रिक टन तेल ने स्कॉटलेण्ड में पक्षी समूहों को नुकसान पहुंचाया । सबसे भयंकर तेल रिसाव अमेरिका के अलास्का में हुआ था । यह रिसाव प्रिंस विलियम साउण्ड टेंकर से हुआ था । इस तेल के फैलाव का असर छह माह तक रहा । इस अवधि में इस क्षेत्र में ३५००० पक्षी, १०००० ओस्टर शेलफिश और १५ व्हेल मछली मृत पाई गई थीं । परंतु यह रिसाव ईराक में खाड़ी युद्ध के दौरान सद्दाम हुसैन द्वारा समुद्र में छोड़े तेल से कम था । यह तेल इसलिए समुद्र में ढोल दिया गया था कि कहीं अमेरिका के हाथ न लग जाए । अमेरिका द्वारा इराकी तेल टेंकरों पर की गई बमबारी से भी लाखों टन तेल समुद्री सतह पर फैला । एक अनुमान में मुताबिक इस कच्च्े तेल की मात्रा ११० लाख बैरल थी । इस तेल के रिसाव ने फारस की खाड़ी में जीव जगत को भारी हानि पहुंचाई । इस प्रदूषण का असर मिट्टी, पानी और हवा तीनों पर रहा । जानकारों का मानना है कि इराक युद्ध का पर्यावरण पर पड़ा दुष्प्रभाव हिरोशिमा - नागासाकी पर हुए परमाणु हमले, भोपाल गैस त्रासदी और चेरनोबिल दुर्घटना से भी ज्यादा था । इसी कारण इराक का एक क्षेत्र जहरीले रेगिस्तान में तब्दील हो गया और वहां महामारी का प्रकोप भी अर्से तक रहा । भारतीय विज्ञान कांग्रेस में गैर परम्परागत इंर्धन पर डॉ.एस.के चौपाड़ा ने चौकाने वाली जानकारी दी है । उनके मुताबिक २०० अरब रूपयों का है । इंर्धन उपयोग के क्षेत्र में विश्व में भारत का पांचवा स्थान है और इसकी खपत में सालाना ६ प्रतिशत की वृद्धि हो रही है । पेट्रोलियम पदार्थोंा से होने वाली पर्यावरणीय हानि इन्हें आयात करने में खर्च होने वाली करोड़ों डालर की विदेशी मुद्रा के अतिरिक्त है । गौरतलब है कि भारत अपनी कुल पेट्रोलियम जरूरतों की आपूर्ति का ७० प्रतिशत तेल आयात करता है । दुनिया में करीब ६३ करोड़ वाहन सड़कों पर गतिशील हैं । जिनमें प्रयुक्त हो रहा डीजल व पेट्रोल प्रदूषण का मुख्य कारण है । प्रदूषण रोकने के तमाम उपायों के बावजूद १५० लाख टन कार्बन मोनोआक्साइड, १० लाख टन नाइट्रोजन आक्साइड और १५ लाख टन हाइड्रोकार्बन प्रति साल वायुमण्डल में बढ़े जाते है । जीवाश्म इंर्धन के प्रयोग से सालाना करोड़ों टन कार्बन डाईआक्साइड भी पैदा होती है । विकसित देश वायुमण्डल प्रदूषण के लिए ७० फीसदी दोषी हैं जबकि विकासशील देश ३० फीसदी । पेट्रोलियम पदार्थोंा के जलने से मानव स्वास्थ्य और जीव-जंतुआें पर गंभीर असर हो रहा है । कैंसर के मरीजों की संख्या में से ८० फीसदी रोगी वायुमण्डल में फैले विषैले रसायनों के कारण ही इसका शिकार होते हैं । दिल्ली में फेफड़ों के मरीजों की संख्या कुल आबादी की ३० प्रतिशत है । दिल्ली में अन्य इलाकों की तुलना में सांस और गले की बीमारियों के रोगियों की संख्या १२ गुना अधिक है । इन बीमारियों से निजात पाने के लिए भारत के प्रत्येक नगरीय व्यक्ति को १५०० रूपये प्रतिवर्ष खर्चने होते हैं । विश्व बैंक ने जल प्रदूषण के कारण समुद्र तट पर रहने वाले व्यक्तियों स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर के कीमत ११० रूपये प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष आंकी है । दूषित जल से ओस्टर शेल मछली कैंसर भी असर पड़ता है । अनजाने में मांसाहारी लोग इन्हीं रोगग्रस्त जीवों को आहार भी बना लेते हैं । इस कारण मांसाहारियों में त्वचा संबंधी रोग व अन्य लाइलाज बीमारियां घर कर जाती हैं । बहरहाल पेट्रोलियम पदार्थोंा की लगातार बढ़ती खपत वायुमण्डल और मानव जीवन को संकट में डालने वाली साबित हो रही है । ***

बुधवार, 28 जनवरी 2009

५ लोक चेतना

पर्यावरण : आवश्यकता और लालच का द्वन्द
सुश्री मीनाक्षी रमन
अमीर देशों द्वारा खनिज तेलों के असहनीय अतिउपयोग से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन के आसन्न विश्वव्यापी संकट पर लगातार चेतावनियों के बावजूद ध्यान नहीं दिया जा रहा है । मौजूदा सदी के इस सबसे गंभीर मसले को सुलझाने के लिए जीवनपद्धति में मूलभूत परिवर्तन की अनिवार्यता हैं । इस संकट से सर्वाधित प्रभावित वे देश है जिनका इसकी उत्पत्ति में योगदान नहीं के बराबर है और ये विपन्न अरक्षित समुदाय धनी देशों द्वारा सुझाए जा रहे त्रुटिपूर्ण उपायों के कारण सबसे अधिक प्रभावित भी हो रहे हैं । यह विकास, मानव अधिकार व न्याय का भी मसला है । ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का अतीत और वर्तमान दोनों ही इन संपन्न देशों की ओर ही इशारा करते हैं । ये देश समुचित उपायों पर अमल के लिए साधन सम्पन्न भी हैं । अतएव उत्तरी (अमीर) देशों द्वारा साधनों का अनुपातहीन उपभोग और दक्षिणी (गरीब) देशों के संसाधनोंके शोषण से उत्पन्न पर्यावरणीय देनदारी की भरपाई भी आवश्यक हैं । संकट को और गहराने से रोकने के लिए विश्व के बढ़ते तापमान को औद्योगिककाल पूर्व स्तर से दो डिग्र्री सेंटीग्रसट से ज्यादा नहीं बढ़ने देना है । हालांकि ग्रीन हाउस गैसों के वर्तमान स्तर के उत्सर्जन से भी कई देश, समुदाय और प्रजातियां आकस्मिक संकटों को झेलने को अभिशप्त् होंगी । वैज्ञानिक कहते है कि इस शताब्दी के मध्य तक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को १९९० के स्तर से आधे पर लाना अनिवार्यता है । ऐसे में विकसित देश जितनी ज्यादा कमी अपने यहां करेंगे उतना ही विकासशील राष्ट्रों पर भार कम होगा । इसी समझ को विकसित किए जाने की आवश्यकता है । सन् २०५० तक उत्सर्जन में प्रस्तावित ५० प्रतिशत कमी के लक्ष्य की प्रािप्त् में अगर विकसित देश अपने यहां ६० से ८० प्रतिशत तक की कमी भी करते हैं तो भी वह अपर्याप्त् हैं । थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क की पड़ताल के मुताबिक १९९० में कार्बन डाइआक्साईड का उत्सर्जन ३८६ अरब टन, अब इसमें ७० प्रतिशत कमी का अर्थ है इस मात्रा को ५५ अरब टन तक नीचे लाना । इससे विकासशील राष्ट्रों के लिए लक्ष्य १३८ अरब टन हो जाता है । (१९९० के अपने २०४ अरब टन के योगदान में ३३.३ प्रतिशत की कमी) अनुमान है कि तब तक विकासशील देशों की आबादी दुगुनी हो जाएगी जिसका अर्थ है प्रति इकाई उत्सर्जन में ६५ प्रतिशत की कमी । इस परिप्रेक्ष्य में इस मसले पर इस खुली बहस की दरकार है । क्या इतनी कमी उचित है और इसे लागू किया जाना चाहिए ? वातावरण पर पड़े प्रभाव और दक्षिण के पर्यावरण ह्ास को मूल्य पर हासिल जीवन स्तर के मद्देनज़र अमीर देशों की यह जिम्मेदारी है कि विकासशील राष्ट्रों पर पड़ने वाला यह भार अनैतिक न हो । मुख्य बात यह है कि क्या हम कृषि, व्यापार व वित्त की नई नीतियों के माध्यम से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन पर नियंत्रण करते हुए विकासशील देशों के लिए टिकाऊ विकास का रास्ता निकाल पाएंगे ? उत्सर्जन में कमी करते हुए इन देशों में जीवन स्तर में सुधार के लिए एक पर्यावरण सम्मत योजना की आवश्यकता है और यह महत्वपूर्ण कार्य सकल राष्ट्रीय उत्पाद के सिर्फ १ से ३प्रतिशत के खर्च से ही हासिल नहीं होगा । बल्कि इसके लिए सोच समझकर लगातार परिश्रम करना होगा क्योंकि विकासशील देशों को विकास और उत्सर्जन में कमी दोनों ही लक्ष्यों को साथ-साथ साधना है । विकास-शील देशों में टिकाऊ विकास और गरीबी से छुटकारा दिलाने हेतु अमीर देशों के अपने उत्सर्जन में तुरंत जबरदस्त कमी करनी होगी । इस हेतु निम्न कदम उठाने आवश्यक है : अमीर और गरीब देशों की उच्च् आय वर्ग की आबादी को अपनी जीवनशैली में परिवर्तन लाना होगा । सन् १९९२ के रियो पृथ्वी सम्मेलन ने भी उपभोग के तरीकों एवं उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन पर जोर दिया था किंतु उनका पालन नहीं हुआ । जब सब कुछ दाव पर लगा हो तब यह नहीं कहा जा सकता की अमीरों की जीवनशैली समझौते से परे है । जलवायु परिवर्तन निर्धारण की चौथी रपट में अंतर सरकारी दल ने भी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए जीवनशैली एवं व्यवहारगत परिवर्तनों की वकालत की थी । परिवर्तन का लक्ष्य निष्पक्ष तरीके से स्थाई रूप से संसाधनों को बचाते हुए कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने वाली ऐसी अर्थव्यवस्था की रचना के रूप में हो जिसका लक्ष्य हो कि दूसरों के जीवन के लिए हमें सादगी से रहना होगा । कार्बन उत्सर्जन में कमी के लिए विकासशील राष्ट्रों को धन एवं तकनीक दोनों तुरंत उपलब्ध करवाए जाएं । सरकारी स्तर पर कोष एंव संसाधनों को जुटाकर प्रवाह उत्तर से दक्षिण की ओर किया जाए बजाए आजकल निजी क्षेत्र और कार्बन बाजार पर निर्भरता की वकालत करने के कोष का इंतजाम रक्षा खर्च में कमी, ऋणों की माफी और करों और लेवी में बढ़ोत्तरी के द्वारा किया जा सकता है । पर्यावरण हितैषी तकनीक को विकासशील राष्ट्रों को सौंपते वक्त बौद्धिक सम्पदा नियमों में शिथिलता लाई जाए । आणविक ऊर्जा, जीन आधारित उन्नत फसलें, जैव इंर्धन, बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं और कार्बनहरण एवं भंडारण जैसे उपाय पर्यावरण एवं स्वास्थ्य के लिहाज से तो खतरनाक हैं ही इसके अलाभकर सामाजिक प्रभाव भी हैं । ऊर्जा की कार्यक्षमता बढ़ाने और गैर पारम्परिक ऊर्जा स्त्रोतों जैसे सौर एवं वायु ऊर्जा जैसे विकल्पों पर ज्यादा धन दिया जाना चाहिए । ऊर्जा निर्र्माण को विकेन्द्रित किए जाने की आवश्यकता है जिससे कि विकासशील देशों की ग्रामीण विपन्न जनता के हाथ में भी ऊर्जा निर्माण के साधन हों । इस दिशा में उठाए गए कदम गरीबों व पर्यावण की रक्षा एवं मनुष्य की जीविका और सुरक्षा को ध्यान में रखकर लिए जाए । जनभागीदारी आधारित योजनाएं सांस्कृतिक, तकनीकी और सामाजिक तौर पर खरी होती है साथ ही इनमें पर्यावरण के संदर्भ में लचीलापन भी होता है । वन संरक्षण कार्यक्रमोंमें सामाजिक अधिकारों भू-स्वामित और मूलनिवासी एवं स्थानीयजनों का समुचित ध्यान रखा जाए और इनकी बेदखली को कड़ाई से रोका जाए । इस उद्देश्य में असफलता को पर्यावरणीय नस्लवाद माना जाना चाहिए । जो कि संवेदनशील पर्यावरण संरक्षण प्रणाली के लिए भी खतरा है । विश्व व्यापार संगठन अंतर्राष्ट्रीय मुद्र कोष और विश्व बैंक की नीतियों में भी पर्यावरणीय नजरिये से सामंजस्य की आवश्यकता है । इन अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठानों की कुछ व्यवसाय हितैषी नीतियां विकास में स्थायित्व को नुकसान पहुंचानी हैं और पर्यावरण के लिए भी नुकसानदेह हैं । प्रश्न यह है कि विकासशील देशों से अपनी राष्ट्रीय नीतियों में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को प्राथमिकता देने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है । जबकि अंतर्राष्ट्रीय उपायों द्वारा उन पर गरीबी और असमानता लादी जा रही हो एंव उनके छोटे कृषि और इतर व्यवसायों को बड़े प्रतिष्ठान निगल रहे हो ? उनके प्राकृतिक संसाधनों पर विदेशी निगम कब्जा कर रहे हों ? इस तरह की व्यवस्था में परिवर्तन लाना आवश्यक है एवं धनी देशों को भी सामंजस्य से कार्य करना सीखना होगा ।***
बस्तर की दुर्लभ जैव विविधता के लिए खतरा लैण्टाना कैमरा
छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल और दुनिया के दुर्लभ जैव विविधताआें वाले क्षेत्र के रूप में मशहूर बस्तर में एक खतरनाक खरपतवार पनपने लगा है । इस खरपतवार का नाम लैण्टाना कैमरा है । लैण्टाना-कैमरा के विनाश के लिये कृषि विभाग ने प्रभावी नियंत्रण नीति अख्तियार करने पर बल दिया है । यह नींदा खरपतवार .लाटा. बूटा के नाम से भी जाना जाता है । यह उद्यानिकी और कृषि वानिकी के साथ अवांछित रूप से उगकर फसलों को भयानक क्षति पहुंचाता है । लैण्टाना कैमरा एक ऐसा खतरनाक खरपतवार है जो फसल के साथ साथ जंगल, उद्यान, अभयारण्य, सरंक्षित वनों, पार्क, घर और स्कूलों के आसपास तेजी से फैलकर उन्हें नुकसान पहुंचाता है । यह खरपतवार इसलिये भी विनाशकारी है कि इसके अधिक फैलाव से बस्तर जैसे वनाच्छादित और समूद्ध जैवविविधता (बायोडायवर्सिटी) वाले क्षेत्रों में अनेक बहुपयोगी पौधों और जीव जन्तुआें के अस्तित्व के लिये खतरा बन गया है । गैर कृषि क्षेत्रों में यह खरपतवार हानिकारक जीव जन्तुआें जैसे सांप चूहे और अन्य कीट रोग जनकों के लिये भी शरण स्थल बन जाता है । बस्तर अंचल में हजारों हेक्टेयर भूमि में इसका फैलाव खतरनाक तरीके से बढ़ता जा रहा है । जिसे कृषि वैज्ञानिकोंने बेहद चिंता का विषय बताया है । गौरतलब है कि लाटा बूटा यानी लैण्टाना कैमरा एक बहुवर्षीय सदाबहार झाडी है जो बीच और वानस्पतिक अंगों द्वारा तेजी से फैलता है । यहीं नही इसके बीजों का फैलाव पक्षियों विशेषकर भारतीय मैना द्वारा किया जाता है । यह खरपतवार मूलत: मध्य अमेरिका से आया हुआ बताया जाता हैै । इस पौधे का बहुरंगीय फूलों के कारण बाडियों, हेज के रूप में उपयोग किया जाता था । परन्तु अन्य उपयोगी स्थानों में इसका विस्तृत फैलाव अब संकट का कारण बन गया है । इसलिये इसका प्रभावशील ढंग से नियंत्रण किया जाना अब अत्यंत आवश्यक हो गया है ।

६ प्रदेश चर्चा

महाराष्ट्र : खनन से नष्ट होते वन
सुश्री अपर्णा पल्लवी
महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में स्थित सुरक्षित वनों में से ३५०० हेक्टेयर से अधिक भूमि का उपयोग परिवर्तन निश्चित हो चुका है । इससे इन वनों पर अपनी रोजमर्रा की आवश्यकताआें जिसमें जलाऊ लकड़ी भी सम्मिलित है , हेतु आश्रित बुरी तरह प्रभावित होंगें । सरकार ने यहां पर तीन कंपनियों जिसमें अडानी इंटरप्राइजेस भी शामिल है, को खुली खनन परियोजना हेतु पश्चिमी लोहरा गांव में १६०० हेक्टेयर भूमि आवंटित की है । अडानी ने हाल ही में १४०० लाख टन की परियोजना हेतु पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) रिपोर्ट प्रस्तुत कर अन्य स्वीकृतियां प्राप्त् कर ली हैं । पर्यावरण व वन्यजीवन पर कार्य कर रहे दो स्थानीय समूहों ने आरोप लगाया है कि ईआइए में समीप स्थित ताडोबा अंधेरी टाईगर रिजर्व पर इस परियोजना से पड़ने वाले प्रभावों को शामिल नहीं किया गया है । इतना ही नहीं कंपनी ने मात्र लोहारा गांव को पुनर्वसित करने की स्वीकृति देते हुए परियोजन से प्रभावित अन्य ११ गांवों का जिक्र तक नहंी किया है । जिससे इनमें आपस में मतभेद पैदा हो रहे हैं । ग्रीन प्लेनेट सोासाईटी और ईको प्रो. नामक इन दो गैर लाभ वाली संस्थाआें ने ईआइए में अनेक अनियमितताआें का उल्लेख करते हुए कहा है कि ११ सितम्बर और ४ नवम्बर को हुई जन सुनवाई इसलिए पूरी नहंी हो पाई क्योंकि परियोजना के समर्थकों और विरोधियों में आपसी विवाद खड़ा हो गया था । ईआईए ने मौजूद गलतियों की ओर इशारा करते हुए ग्रीन प्लेनेट सोसायटी का कहना है कि अडानी ने अ-वनीकरण को कमतर आंका है । उनका कहना है कि कंपनी को संग्रहण, भवन, सड़कों, कार्यशालाआें व अन्य गतिविधियों हेतु १७५० हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता होगी । अडानी द्वारा संग्रहण हेतु ६०० हेक्टेयर भूमि आवंटित किए जाने की की स्वीकारोक्ति एक असफल जनसुनवाई में भी कई थी परंतु अन्य सुविधाआें हेतु आवश्यक भूमि का जिक्र तक नहीं किया गया । समितियों का कहना है कि यदि तीनों परियोजनाआें का आकलन किया जाए तो १० हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र नष्ट होगा । अडानी परियोजना से लोहरा में स्थित १० हेक्टेयर के तालाब में पानी के प्राकृतिक प्रवाह में रूकावट आएगी और पास के गांवों और सुरक्षित वन के अनेक प्राकृतिक जल स्त्रोत भी प्रभावित होंगें । इसके परिणामस्वरूप पानी की समस्या में वृद्धि होगी । पूर्व में वेस्टर्न कोलफील्ड्स द्वारा खनन से भू-जल स्तर में कमी आई थी । रिपोर्ट में पानी की शुद्धता हेतु भी विस्तार से चर्चा नहीं की गई है, खासकर खनन के दौरान निकलने वाले एसिड से पानी की शुद्धता की । अगर यह एसिड युक्त पानी को नजदीक की झरपट और वर्धा नहरों में छोड़ दिया गया तो इससे नदियों के पर्यावरण के अतिरिक्त इस नदी से सिंचाई पर निर्भर कृषि पर भी विपरित प्रभाव पड़ेगा । कंपनी का यह कथन कि इस इलाके में खनन से दूषित पानी का प्रवाह नहीं होगा को संस्थान कोरी कल्पना ही मानता है । उनका कहना है कि वनों के नष्ट होने और खनन की निरंतरता से भूमि की गुणवत्ता में निश्चित तौर पर गिरावट आएगी । ईको प्रो. के बंधु धोत्रे का कहना है कि वन्यजीव सर्वेक्षण में १४ महत्वपूर्ण वनस्पतियों की अनदेखी की गई है । इतना ही नहीं ताडोबा व समीप के संरक्षित वन को देश में सर्वश्रेष्ठ शेर बसाहट कहा जाता है । इस सर्वेक्षण में जानवरों को शामिल न किया जाना भी आश्चर्यचकित करता है। अगर इसमें शेरों का जिक्र किया जाता तो इस परियोजना की स्वीकृति मिलना असंभव होती क्योंकि ताडोबा को दिसम्बर २००७ में ही महत्वपूर्ण शेर बसाहट के रूप में अधिूसचित किया जा चुका है । रिपोर्ट में वन्यजीव प्रबंधन का जिक्र न आने पर कंपनी का कहना है कि अभी तो प्राथमिक जानकारी ही मुहैया कराई गई है इसे दोबारा तैयार कर एक महीने में महाराष्ट्र के मुख्यवन संरक्षक (वन्यजीव) को प्रस्तुत कर दिया जाएगा । महाराष्ट्र के मुख्य वन संरक्षक शेषराव पाटिल का कहना है कि खनन हेतु प्रस्तावित परियोजना ताडोबा की सीमा से ११ कि.मी. की दूरी पर है । उनका कहना है कि खनन से पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा । कानूनी तौर पर सुरक्षित क्षेत्र से १० किमी की परिधि को ही संवेदनशील घोषित किया जाता है । बफर क्षेत्र हेतु अभी अधिसूचना जारी नहीं हुई है । सिर्फ प्रस्ताव ही भेजा गया है । वहीं स्थानीय निवासियों का कहना है कि बफर क्षेत्र के रूप में ताडोबा व अन्य क्षेत्रों की २०००० हेक्टेयर वन भूमि लील ली जाएगी । इस परियोजना पर स्थानीय निवासियों की मिश्रित प्रतिक्रिया है । लोहारा के निवासियों द्वारा इसकी जोरदार पैरवी करते हुए कंपनी से मांग की गई है कि उन्हें २ लाख रूपए प्रति एकड़ के बजाए २० लाख रूपए प्रति एकड़ मुआवजा दिया जाए । बाकी के ११ गांव के निवासी जो कि इस वन पर निर्भर हैं इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं । वहीं कंपनी द्वारा ग्रामीवासियों की वन पर निर्भरता कम करने हेतु गांवों के विकास हेतु प्रतिवर्ष ४० लाख रूपए के निवेश के प्रस्ताव को नकारते हुए ग्रामवासियों का कहना है कि हम विकास के छलावे में फंसना ही नहंी चाहते । खुले खनन से उड़ने वाली धूल हमारी कृषि भूमि नष्ट कर देगी एवं ११ गांवों के १०००० निवासी बेरोजगार हो गाएंगें । परंतु लोहारा के ग्रामवासियों को धन लुभा रहा है । गांव के निवासी विनोद उइके क्का कहना है कि जनसुनवाई में पर्यावरणविद्ों का ही बोलबाला होता है । जबकि जनसुनवाई के दौरान ग्रामवासियों, कलेक्टर व अडानी के प्रतिनिधियों के अलावा किसी को मौजूद नहंी रहना चाहिए। वैसे लोहारा के निवासियों ने काफी मात्रा में आसान धन कमाया है । गांव की ९० प्रतिशत कृषि योग्य भूमि तीन रिसोर्ट व अमीर भू-स्वामियों को लीज पर दे दी गई है । ग्रीन प्लेनेट सोसाइटी का कहना है कि लोगों को विश्वास है कि पुनर्वास से उन्हे ढेर सारा धन मिलेगा परंतु अडानी की बात में कोई दम नहीं है । परियोजना के अंतर्गत गांवों को १६०० रोजगार उपलब्ध करवाने की बात कही गई है जबकि गांव में कार्य करने में सक्षम जनसंख्या मात्र ६५० है । ईआईए रिपोर्ट में न तो रोजगार की प्रकृति की ही चर्चा की गई है न ही इस हेतु आवश्यक योग्यता की । इसी जिले की अनेक परियोजनाआें से विस्थापित अभी तक तयशुदा पुनर्वास हेतु भटक रहे हैं । परंतु लोहारा के निवासी कहते हैं कि वे अन्य जैसे नहीं है उन्हें समझौता करना आता है । स्थानीय राजनेता भी गांव वालों का समर्थन कर रहे हैं । सांसद हंसराज अहीर और विधायक सुधीर मनगान्तिवर जो पूर्व में परियोजना का विरोध कर रहे थे, ने भी अपना स्वर नरम कर लिया है और अब वे पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचे ऐसी भूगर्भीय खनन हेतु तैयार है । परंतु बातचीत में उन्होने कहा कि विद्युत ऊर्जा राज्य की प्राथमिकता है अतएव वे खनन का विरोध नहीं करेंगे फिर वह चाहे खुले में हो या जमीन के अंदर खनन हो । महाराष्ट्र का केवल २० प्रतिशत क्षेत्र ही वनाच्छादित बचा है । घने वन केवल दो आदिवासी बहुल जिलों चंद्रपुर और गढ़चिरौली में बचे हैं । प्रश्न है कि क्या १०,००० हेक्टेयर वन नष्ट किए जाने को राज्य सहन कर पाएगा ? ***
धरती के लिए खतरा बन सकती है सौर सक्रियता ऐसे में जब धरती पर जीवन का शाश्वत स्रोत सूर्य अपनी सौर सक्रियता के ११ वर्षीय चक्र की शुरूआत करने जा रहा है, धरती पर इसके संभावित कुप्रभाव का आकलन करने वाले वैज्ञानिक चिंतित है । इस कुदरती घटना से धरती को खतरा पहुंच सकता है । यह तय हो चुका है कि सौर सक्रियता भी धरती पर जलवायु परिवर्तन की वजह रही है । जाहिर है, आगामी दशक में सौर सक्रियता के कारण धरती की मुश्किलें बढ़ सकती है । उल्लेखनीय है कि इंसान ने इस परिघटना का आकलन करने के लिए पहली बार ४४० वर्ष पहले उपकरण तैयार किए थे । इन उपकरणों से इसकी पुष्टि हुई कि धरती सिर्फ सूर्यग्रहण नामक सौर परिघटना से ही प्रभावित नहीं होता । सौर धब्बे और सौर सक्रियता आदि जैसी कुदरती परिघटनाएं भी धरती को प्रभावित करती है । यहां तक कि इंसान के व्यवहार पर भी इनका असर पड़ता है । सौर विकिरण, सौर चुंबकीय तूफान या सौर प्रज्वलन जैसी रासायनिक क्रियाएं सौर सक्रियता के दायरे में आती है । ये परिघटनाए क्षीण या विनाशकारी दोनों हो सकती है । २८ अगस्त १८५९ को ध्रुवीय क्षेत्रों में अचानक सौर ताप बढ़ गया और शाम के वक्त पूरे अमेरिका महादेश में तेज धूप खिल उठी थी । कई लोगों को ऐसा महसूस हुआ जैसे उनके शहर में आग लग गई हो । शहर तेज धूप के कारण दहक उठे । इससे टेलीग्राप प्रणाली में गड़बड़ी पैदा हो गई । अगर आज के एटमी व अंतरिक्ष युग में ऐसा हो तो परिणाम भयावह होगा। रेडियो इलेक्ट्रानिक उपकरणों पर आज हम इतने निर्भर हो चुके हैकि अगर ऐसी घटना हुई तो पूरी दुनिया में जीवन-रक्षक प्रणालियां ध्वस्त हो जाएगी।

७ कृषि जगत

खेती उजाड़ता कृषि प्रधान भारत
अरूण डिके
मानव विकास के सिद्धांत के पुरोधा चार्ल्स डारविन का प्रसिद्ध कथन है कि मानव सभ्यता की गहराई १८ इंचहै । उनका आशय संभवत: भूमि की उस परत से है जहां से हमें रोटी व कपड़े के साधन मिलते हैं । खेती इस पृथ्वी पर प्रारंभ हुई संभावत: पहली नियोजित मानव किया है जो कई मार्ग बदलकर आज पुन: अपना अस्तित्व खोज रही है । वर्तमान खाद्यान्न असुरक्षा इसी भटकी हुई या भटकाई हुई खेती के ही कारण है औद्योगिक देशों में फसल को नष्टकर उद्योग खड़े किए थे लेकिन कृषि प्रधान भारत में जहां आज भी तीन चौथाई आबादी खेती पर निर्भर है, वहां इस तरह का भटकाव एक गंभीर मसला है । खेती की इस बदहाली के लिए हमारी राजतंत्र और प्रशासनतंत्र जिम्मेदारी है जिसने आजादी के बाद पारम्परिक खेती और ग्रामीण समाज की अनदेखी कर औद्योगिक खेती को विकसित करने में सहायता प्रदान की । खाद्यान्न सुरक्षा भारत की बुनियाद थी । यह न केवल मनुष्य के लिए थी बल्कि मवेशियों के लिए भी हर गांव में तालाब और चरणोई हुआ करते थे । सीमित सिंचाई व्यवस्था के कारण भारत में शुष्क खेती का प्रचलन था । ज्वार, बाजरा, मक्का, कोदो, कुटकी, तिवड़ा, मोटा कपास व अलसी जैसी फसलों का बोलबाला था । बहुफसलीय खेती होने के कारण मिट्टी की सतह और उर्वरता श्रेष्ठ दर्जे की थी । खेतों में कीड़े और रोगों का आक्रमण कम होता था । कम अथवा अधिक वर्षा होने पर भी खाद्यान्न सुरक्षित रहता था क्योंकि उथली जड़ो वाली और गहरी जड़ों वाली फसलें एक साथ बोई जाती थी । फसलों का उत्पादन और उत्पादकता भी कम नहीं थी । जल, भूमि और ऊर्जा का दोहन होता था, शोषण नहीं । अलबर्ट हॉवर्ड और जॉन अगस्टिन वोलकेयर जैसे अंग्रेज वैज्ञानिक भी भारतीय किसानों का लोहा मानते थे । मोटे देशी कपास के कारण गांव-गांव में चरखे चलते थे । देशी हल व बक्खरों के कारण लुहार व सुतार गांव-गांव में उपलब्ध थे । ज्वार, बाजरा, मक्का जैसी फसलों के कारण मवेशियों को चारा मिल जाता था । विदेशी कृषि तंत्रों से प्रभावित हमारे योजनाकारों ने हरित क्रंाति के चक्कर में भारतीय फसलचक्र तोड़ा । बहुफसलीय खेती की जगह चावल,गेहूँ और सोयाबीन जैसी नगदी और एक फसल पद्धति का अपनाया जिससे खेतों का संतुलन बिगड़ा । खेतों में जीवांश कम हुए । उत्पादकता घटी और रोगग्रस्तता में वृद्धि हुई । लिहाजा देश में रासायनिक खादों और कीटनाशकों के कारखानों का जाल बिछा । फिर ट्रेक्टर, कार्बाइन व हार्वेस्टर आए । नगदी फसलों के कारण धन (मुद्रा) तो बढ़ा लेकिन दौलत (चारा, मवेशी, लकड़ी, पानी और कारीगरी) कम होती गई । यह सब खेतों में उत्पादन बढ़ाने के लिए हुआ लेकिन योजनाकार भूल गए कि बाहरी संसाधनों के निर्माण में लगने वाली ऊर्जा की खपत बढ़ने से गांवों में ऊर्जा कम हुई । सूखती फसल को बचाने के लिए कुआें पर लगाए गए पंप और मोटर के लिए ऊर्जा गायब हो गई । महंगे संसाधनों के कारण फसलों का गणित बिगड़ा व लागत खर्च भी बढ़ा । फसलों के वाजिब दाम नहीं मिले । ऐसे में आत्महत्या के सिवाय किसानों के पास चारा ही क्या था ? आजादी के बाद खेतों में मिल धन से शहर समृद्ध होने लगे । बड़े-बड़े कल कारखाने, चमचमाती सड़कें, विश्वविद्यालय, फ्लायओवर, मॉल्स, बांध बने परंतु गांव अंधेरे में डूब गए । किसी ने यह समझने की कोशिश ही नहीं की कि फसल को जो भोजन लगता है वह ९५ प्रतिशत तो प्रकृति से ही प्राप्त् होता है, जिसके लिए न तो बिजली लगती है और न कोई बाहरी संसाधन । उसे तो खेतों में पर्याप्त् जीवांश और नमी चाहिए जो फसल अवशेषों से, गोबर और गोमूत्र से ही प्राप्त् हो जाती है । जंगलों को ही ले, वहां कौन सिचांई करने या खाद या कीटनाशक छिड़कने जाता है, फिर उनकी समृद्धि कहां से आती है ? इस मूलभूत तथ्य को भी नजरअंदाज किया जा रहा है क्योंकि हमारे कृषि विश्वविद्यालय और अनुसंधानकर्ता विदेशी कृषि तंत्र को अपनाए हुए हैं जहां रासायनिक खाद, कीटनाशक और अन्य बाह्य संसाधन आज भी प्रमुख माने जाते हैं । भारत की जैव-विविधता, विशाल वनस्पति संपदा और हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर आज भी कृषि विश्वविद्यालय मौन हैं । वहां आज भी गिनी चुनी फसलों की जातियों को विकसित करने पर ही जोर दिया जा रहा है और अब तो जीन रूपांतरित फसलों का बोलबाला है । हमारे अनुसंधानकर्ता भी उसी के पीछे पड़े हैं । प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक बोरलाग, जिन्होने भारत में मैक्सिकन जाति के गेहूूं के बीज बोकर हरित क्रांति का शंखनाद किया था, विगत कई वर्षोंा से अब मक्का पर अनुसंधान कर रहे हैं जबकि हम आज भी गेहूँ की नई-नई जातियां किवसित किए जा रहे है । गेहूँ छोड़कर बोरलाग मक्का पर क्यों आए ? क्या इसलिए कि बदलते मौसम के कारण गेहूँ का उत्पादन और उत्पादकता घटने लगी है ? या इसलिए कि गेहूँ में निहित ग्लूटिंन मानव व्यवस्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है या इसलिए कि अमेरिका में अब मोटे अनाज का प्रचलन बढ़ रहा है । ( जैव इंर्धन के कारण ?) भारत में आजकल एमवे व्यापार जोर-शोरों पर है ।हमारे प्रबुद्ध समाज घर-घर ओमेगा, ३,६,९, और १२ की गोलियां बेच रहा है ? किसी ने जानने की कोशिश की कि क्या ओमेगा में ? वसीय अम्लों पर आधारित ये गोलियां बनी हैं मछले के तेल, और अलसी से । अलसी जो कभी भारत में खेतों की जानदार फसल हुआ करती थी । अमेरिका में आजकल अलसी का तेल सबसे महंगा बिक रहा है और देश के अधिकांश हिस्सों में बोने के लिए अलसी का बीज ही उपलब्ध नहीं है । यह है हमारा कृषि प्रधान देश और ये है हमारे कृषि विज्ञानिकों की सोच ! सुना है केंद्र सरकार ने कृषि शिक्षा में सुधार के लिए २२७६ करोड़ रूपए मंजूर किए है । इससे हमारे विश्वविद्यलयों के अध्ययनकक्ष, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, छात्र-छात्राआें के आवास तथ प्रक्षेत्र सुसज्जित किए जाएंगे । क्या हमारे अनुसंधानकर्ताआें की मानसिकता इस आधुनिकता को पचाने में सक्षम हैं ? कृषि शिक्षा और अनुसंधान में आधुनिकता के मापदंड क्या मानसेंटो, सिंजेटा या वालमार्ट तय करेंगे । इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारा मीडिया सरकार से इस संबंध में कई प्रश्न नहीं पूछता है । हमारे देश में पी. साईनाथ, भरत झुनझुनवाला, वंदना शिवा, सुमन सहाय, देवेन्दर शर्मा, भारत डोगरा, सुनील जैसे पत्रकार कभी-कभार अखबारों में उपस्थित मिलते हैं और वह भी दुर्भाग्य है कि हमारा समाज प्रदूषित वातावरण और प्रदूषित अन्न खाकर भी मौन है । खेती किसानी से और किसानों की गिरती हालत से उसे कुछ लेना-देना नहीं है । अमेरिका के अश्वेत वैज्ञानिक डॉ. जार्ज वाशिंगठन कार्वर (सन् १८६३-१९४३) और कोल्हापुर महाराष्ट्र के श्रीपाद अच्युत दाभोलकर (सन् १९२५-२००१) ने पारम्परिक खेती के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है । उनके प्रयोगों ने सारे संसार में किसानों को लाभान्वित किया है। भारत में भी उनके गिने चुने शिष्य स्वावलंबी खेती कर रहे हैं । अलबर्ट हॉवर्ड, बिल मालिसन और मासानेबू फुकुओका ने प्राकृतिक खेती पर प्रशंसनीय कार्य किया है । इन सभी का योगदान हमारे कृषि विश्वविद्यालयों के लिए कोई मायने नहीं रखता और पाठ्यक्रमों में इनके नाम तक नहीं हैं । यदि हमारे अनुसंधानकर्ताआें ने ही उनकी सुध नहीं ली है उनके बताए नुस्खों पर प्रयोग नहीं किए तो इन वैज्ञानिकों का कार्य किसानों तक कैसे पहुचेगा और कहां से आएगी हमारे खेती में समृद्धि कौन बताएगी हमारे खेती में समृद्धि कौन बताएगा गावों को स्वालंबी व कैसे दूर होगी खेती की उपेक्षा ? 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बढ़ते कचरे का संकट मनुष्य के लिए पेट भरने , तन ढंकने और सिर छिपाने लायक आच्छादन बनाने की समस्या अभी हल नहीं हो पाई थी कि बड़ी मात्रा में उत्पन्न होने वाले कचरे को ठिकाने लगाने की नई समस्या सामने आ गई । प्रकृति अपने उत्पादित कचरे को ठिकाने लगाती और उपयोगी बनाती रहती है । पशुआें के मल-मूत्र, पेड़ों से गिरे पत्ते आदि सड़ गल कर उपयोगी खाद बन जाते हैं और वनस्पति उत्पादन में काम आते हैं । मनुष्य का मल - मूत्र भी उतना ही उपयोगी है पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उससे खाद न बनाकर नदी - नालों में बहा दिया जाता है और पेय जल को दूषित कर दिया जाता है । इससे दुहरी हानि है, खाद से वंचित रहना और कचरे को नदियों में फेंककर बीमारियों को आमन्त्रित करना । सरकारी तथा गैर सरकारी स्तरों पर किए जा रहे अनेक प्रयासों के बावजूद इन दिनों कचरे में भयानक वृद्धि हो रही है । हर वस्तु कागज, प्लास्टिक की थैली, पत्तल, दोना, डिब्बा आदि में बंद करके बेची जाती है । वस्तु का उपयोग होते ही वह पेकिंग कचरा बन जाती है और उसे जहां - तहां सड़कों, गलियों में फेंक दिया जाता है । इसकी सफाई पर ढेरों खर्च तो होता है, विशेष समस्या यह है कि उसे डाला कहां जाए ? आजकल शहरों के नजदीक जो उबड़ खाबड़ जमीनें होती हैं वे इस कचरे से भर जाती हैं ।

८ विशेष लेख

पेड़ भी करते हैं तर्पण
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
पुत्र प्रािप्त् की कामना हर दम्पत्ति को होती है । पितरों के तर्पण हेतु पुत्र का होना नितांत जरूरी है । पुत्र ही बुढ़ापे का सहारा बनता है । इसीलिए विवाहित से आशीर्वाद स्वरूप कहा जाता है ``दूधो नहाआें पूतो फलों'' जनाधिक्य की चिंता में परिवार नियोजन का संकल्प सामने आया तो ``छोटा परिवार सुखी परिवार''तथा `` बच्च्े एक-दो ही अच्छे'' जैसे नारे लगने लगे । शिक्षित और समझदार परिवारों ने परिवार नियोजन को अपनाया भी । संतान रूप में संतुलित रूप से एक पुत्र तथा एक पुत्री प्राप्त् हो जाये यह मात्र संयोग पर निर्भर है तथा नियति भरोसे हैं । अत: हर दम्पत्ति पुत्रवान नहीं होता । कुछ तो इस विवशता का स्वीकार कर परीक्षण कराने से गुरेज नहीं करते । इस प्रवृत्ति से समाज के अन्दर बुराइयों को जन्म दिया है । यूँ तो समाज में निजता एवं वैयक्तिता इस कदर हावी है कि एकल परिवारों में माता पिता की भूमिका नगण्य हो गई हैं परिवार की परिभाषा के अनुसार अपने जनक को मुखाग्नि देेने का अधिकार पुत्र का है पुत्र ही तर्पण करता है । शास्त्रों ने इस मोक्षगामी तर्पण हेतु ``तरूपत्रक'' का विधान दिया है और कहा है कि ``पेड़ भी कर सकते है तर्पण'' यदि पुत्र की इच्छा रखने वाले लोग तरूपत्रक की अवधारणा को अपना लें तो समाज में भ्रुण हत्या की आवृत्ति कम होगी ही साथ ही प्रकृति तथा पर्यावरण का बहुत बड़ा उपकार होगा । पदम पुराण (सृष्टि खण्ड) में लिखा है कि वृक्ष, पुत्रहीन पुरूष को पुत्रवान होने का फल देते हैं, इतना ही नहीं वे अधिदेवता रूप में तीर्थोंा में जाकर वृक्ष लगाने वालों को पिण्डदान भी देते हैं । अकेला पीपल का पेड़ हजार पुत्रों के बराबर फल देता है । पीपल की जड़ के पास बैठकर जो जप होम तर्पण आदि किया जाता है उसका फल लाखो करोड़ो गुना मिलता है । पीपल का पेड़ लगाने, रक्षा करने, स्पर्श करने तथा पूजा करने से क्रमश: धन पुत्र स्वर्ग और मोक्ष मिलता है। क्योंकि पीपल की जड़ में विष्णु तने में केशव शाखाआें में नारायण और पत्ते-पत्ते में श्री हरि का वास है । फलों में विभिन्न देव अच्युत निवास करते है । पद्म पुराण के उत्तर खण्ड में लिखा है कि ``वृक्ष लगाने वाला पुरूष अपने भूत कालीन पितरों तथा होने वाले वंशजो का भी उद्धार कर देता है इसलिए वृक्षों को अवश्य लगाना चाहिए । वृक्ष अपने फूलों से देवताआें का, पत्तो से पितरों का तथा छाया से समस्त अतिथियों का पूजन करते है ।'' मनीषियों की धारणा है कि जलाशय के समीप पीपल का वृक्ष लगाकर मनुष्य जिस फल को प्राप्त् करता है वह सेकड़ो यज्ञों से भी नहीं मिल सकता है । प्रत्येक पर्व में उसके जो पत्ते झड़ कर जल मे गिरते है वे पिण्ड के समान होकर पितरों को तृप्त् करते है । उस वृक्ष पर विश्राम करते हुए पक्षी अपनी इच्छानुसार जो फल खाते है उसका ब्राह्मण भोज के समान फल होता है । उस वृक्ष की शीतल छाया में जब ताप से आकुल-व्याकुल गऊ आदि विश्राम करते है तो पितरों को अक्षय स्वर्ग मिलता है । पीपल के अतिरिक्त बरगद, नीम, आम, बिल्व, अशोक आदि वृक्षों की पूजा का विधान शास्त्रों में दिया है । यूँ भी जहॉ पेड़ पौधे पल्लवित-पुष्पित रहते हैं वहाँ आह्लापूर्ण शीतलता और शांति होती है । पूर्णता एवं संतुष्टि का भाव रहता है । पेड़ो के पास रहने से कोई कामना शेष नहीं रहती और मन रमता है । महाभारत में महर्षि वेदव्यास ने कहा है कि फल-फूलों से समृद्ध वृक्ष मानव को इस लोक में तृप्त् करते हैं पर जो वृक्ष का दान करता है उसको वृक्ष पुत्र की तरह परलोक में तार देते हैं । पुष्पिता: फलवंतश्च तर्पयंतीह मानवान् वृक्षंद पुत्रवद वृक्षा स्तारयंति परत्र तु ।। श्री व्यास जी द्वारा उद्भाषित यह कथ्य आज और भी अधिक प्रासंगिक हैं। इस नश्वर संसार में अपने समान संतति उत्पन्न करने की अभिलाषा हर जड़-चेतन जीव की होती है । मनुष्य भी यही कामना करता है परन्तु इस कामना की पूर्ती सभी जनों के लिए समान रूप से नहीं होती है। अत: कामना की तुष्टि हेतु शास्त्रों में तरूपत्रक का प्रावधान है । तरू अर्थात वृक्ष एवं पुत्रक अर्थात संतान । अत: वृक्ष को संतान रूप में अपनाने एवं अंगीकार करने को तरूपत्रक संस्कार कहते है । आचार्योंा ने नि: सन्तान वर्ग को संतुष्ट करने हेतु सोलहवीं शताब्दी में उत्पन्न हुए उद्भट विद्वान, शास्त्रकार कमलाकर भट्ट के कमलाकर ग्रन्थ को संदर्भित किया है । जिसमें कार्मकाण्ड की विरल पद्धति निम्नलोकांगित में नीम को न काटने की प्रार्थना करते हुए कन्या अपने पिता से कहती है बाबा निभिया के पेड़ जिन काटहु निमिया, चिड़िया बसेरे सबरे चिरइया उढ़ी जई है रहि जैहे निमिया अकेलि बाबा बटियन के जनी दुख देहु बितियो चिरइया नाई सबरे बिटियवें जइहे सासर रहि जै है पूर्वी उत्तरप्रदेश में प्रचलित उस लोक गीत में वृक्ष और बेटी की व्यथा आत्मिय एवं एकाकार हो गई है। पेड़ तो परार्थ ही पेदा होता है । पुत्र कुपुत्र हो सकता है किंतु पेड़ कोई गलत काम नहीं करता । उसमें शिव तत्व होता है वह सदा कल्याण ही करता हैं । यदि तरूपुत्रक की आवधारणा को व्यापक समर्थन मिले तो वृक्षा रोपण की प्रवृति बढ़ेगी । धरती फिर से शस्य श्यामला होगी । एक पेड़ अनगिनत जीवों को आश्रय देता है । वह तो जीवन भर देता ही देता है और मरने के बाद भी हमारा उपकार ही करता है ।इस प्रकार एक पेड़ उद्धारक भी तारक भी और मोक्ष प्रदायक भी । **
गुगल अर्थ की सामग्री पर विवाद मुंबई की हाईकोर्ट में दाखिल एक जनहित याचिका में अदालत से अनुरोध किया गया है कि वह गूगल अर्थ सॉफ्टेवेयर से देश के सैटेलाइट चित्रों को हटाने के निर्देश दे । हाईकोर्ट ने यह याचिका स्वीकार कर ली है । मुंबई के अधिवक्ता अमित कारानी ने याचिका में अदालत से माँग की कि गूगल अर्थ सॉफ्टवेयर में आसानी से उपलब्ध देश के महत्वपूर्ण ठिकानों के चित्रों को हटाए जाने के निर्देश दिए जाएँ । श्री अमित ने गत दिनों मुंबई में आतंकी हमलों का हवाला देते हुए कहा-ऐसे तो हमारे यहाँ के परमाणु संयंत्र और रक्षा ठिकानों को भी निशाना बनाया जा सकता है । इतना ही नहीं, कई महत्वपूर्ण स्थानों व संसाधनों कें भी सैटेलाइट चित्र सॉफ्टवेयर में आसानी से उपलब्ध है, जिनका कोई भी गलत इस्तेमाल कर सकता है । सुरक्षा की दृष्टि से ऐसे चित्र सॉफ्टवेयर से हटाए जाने चाहिए । गूगल अर्थ सॉफ्टवेयर प्रमुख इंटरनेट सर्च सेवा प्रदाता कंपनी गूगल ने बनाया है । इस कंपनी का मुख्यालय अमेरिका में है और इस पर सभी देशों के रक्षा मंत्रालय, विज्ञान एवं तकनीकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी विभाग देखें जा सकते हैं । गूूगल अर्थ सॉफ्टवेयर में वेबसाइट के माध्यम से दुनिया के किसी भी स्थान को देखा जा सकता है ।

९ पर्यावरण परिक्रमा

२००८ : सर्वाधिक दस गर्म वर्षोंा में शामिल
विश्व मौसम संगठन द्वारा वर्ष २००८ के सौ साल के सर्वाधिक दस गर्म वर्षोंा की सूची में शुमार होने की आशंका जताई जा रही है । ग्लोबल वार्मिंग के कारण ध्रुवीय बर्फ दूसरी बार अपने स्तर से काफी नीचे चली गई है । वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि दुनिया ग्रीन हाउस नैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार अपनी कारगुजारियों पर लगाम कसे । जलवायु परिवर्तन का दौर शुरू हो चुका है । बाजी हाथ से निकली जा रही है । पिछले सौ सालों में धरती के औसत सतही तापमान में दशमलव ७४ डिग्री सेल्सियस का इजाफा हुआ है, जो शताब्दी के अंत तक डेढ़ से साढ़े चार डिग्री तक पहुँचेगा । यह स्पाष्ट हो चुका है कि ग्लोबल वार्मिंग के लिग ६० प्रश जिम्मेदार कार्बन डॉयआक्साइड है, जिसकी सांद्रता २९० प्रति दस लाख भग (पीपीएम) से बढ़कर ३७०-८० पीपीएम जा पहुँची है । यह आंकड़ा २०१० तक ३९७-४१६ तक पहुँच जाएगा । २५ करोड़ लोग पानी के लिए तरस जाएँगे और ३० प्रतिशत प्रजातियाँ विलुप्त् हो जाएँगीं । कार्बन डॉय आक्साइड छोड़ने वाले देशों में अमेरिका, चीन, इंडोनेशिया तथा भारत सबसे ऊपर हैं । भारत कें ७५ हजार वर्ग किमी के तटवर्तीय क्षेत्र में आबादी की सघनता ज्यादा है, अर्थात् ४५५ व्यक्ति प्रति वर्ग किमी । इनका जीवनयापन ही समुद्र पर निर्भर है । जलवायु बदलने से जब समुद्र का जलस्तर ऊँचा होगा, तब यही पर कहर बरपेगा । बांगलादेश का तो नामो निशान नहीं रहेगा । जलवायु बदलने से निपटने के लिए शहरों को मुस्तैद कर रहे है । सरकारों को खतरों से निपटने के लिए तैयार रहने को कहा है । विश्व बैंक मदद देगा । शहरों को ग्रीन सिटी बनाने की कवायद शुरू हो गई है । भारत में सकल घरेलू उत्पाद में २७ प्रतिशत का योगदान देने वाले कृषि क्षेत्र पर सबसे ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । खाद्यान्न सुरक्षा व स्वास्थ्य पर असर पड़ेगा । तापमान में दशमलव ५ डिग्री सेल्सियस का इजाफा गेहूँ के उत्पादन को १० प्रश घटा देगा तापमान बढ़ने से फसलों की अवधि घट जाएगी । संपूर्ण दक्षिण एशिया में खरीफ में वर्षा दस प्रतिशत ज्यादा और रबी में कम या अनिश्चितता लिए रहेगी । इसका असर अभी से दिखाई देने लगा है ।
पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में हम पीछे है विश्व भर में हो रहे पर्यावरण के साथ खिलवाड़ से प्रकृति में विनाशकारी बदलाव आ रहे हैं । नतीजन दूर तक फैले हरे-भरे पहाड़ों व मैदानों का रेगिस्तान में बदल जाने का ग्राफ भी ऊपर जा रहा है । वह चौतरफा अप्राकृतिक बदलाव मानव जाति की भावी पीढ़ी के लिए एक भयानक खतरा बन सकता है । दुनिया भर में पर्यावरण को बचाने की दिशा में हो रहे प्रयासों का जिक्र करें तो भारत परिस्थिकीय संतुलन को बनाए रखने में अभी काफी पीछे है । देश में पर्यावरण को बचाने में काफी पीछे है । देश में पर्यावरण को एक तरफ कर महज आर्थिक विकास की गति का प्राथमिकता दी जा रही है । संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के हर भाग में शुष्क भूमि के हिस्से का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है । कुल भूमि का करीब ४० प्रतिशत हिस्सा शुष्क भूमि में तब्दील हो चुकाहै । सेंटर फॉर एनवायरमेंटल ला एंड पॉलिसी की एक रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण और परिस्थितिकी के संरक्षण से जुड़े प्रयासों में भारत का प्रदर्शन अपेक्षा से कहीं कम है । पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक (ई.पी.आई) में १३३ देशों के बीच भारत ११८ वें स्थान पर है जबकि चीन ९४ वें, श्रीलंका ६७ वें व पाकिस्तान १२३ वें स्थान पर है । रिपोर्ट के अनुसार न्यूजीलैंड, स्वीडन, फिनलैंड, चेक गणराज्य, ब्रिटेन व ऑस्टेलिया इस सूची मे शीर्ष पर आने वाले देशों में शमिल है । अमेरिका का स्थान २८ वां है । रिपोर्ट में सेंटर के निदेशक डॉ. डेनियल सी.एस्टी ने कहा है कि भारत पर्यावरण पर ध्यान दिए बिना आर्थिक विकास को तरजीह दे रहा है । उधर, वन विभाग के महानिदेशक जे.सी.काला का दावा है कि देश के वन क्षेत्र में कुछ वृद्धि हुई है । उन्होने देश में वनों के समुचित विकास के लिए वर्तमान में निर्धारित १६०० करोड़ रूपए का निवेश बढ़ाकर ८००० करोड़ करने की जरूरत बताई है ।
घटते जंगल और बढ़ती चिंताएं संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार हर साल धरती पर से एक प्रतिशत जंगल का सफाया किया जा रहा है जो पिछले दशक से पचास प्रतिशत ज्यादा है । शहरीकरण के दबाव, बढ़ती जनसंख्या और तीव्र विकास की लालसा ने हमें हरियाली से वंचित कर दिया है । घर के चौबारे में आम - नीम के पेड़ होना गुजरे वक्त की बात हो गई है । छोटे से फ्लैट में बोनसाई का एक पौधा लगाकर हम हरियाली को महसूस करने का भ्रम पालने लगे हैं । ऐसे समय में जब हमारे वैज्ञानिक हमें बार- बार ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से चेता रहे हैं ..... भयावह भविष्य का चेहरा दिखा रहे हैं ... यह आंंकड़ा दिल दहला देने के लिए काफी है । रूस, इंडोनेशिया, अफ्रीका, चीन, भारत के कई अनछुए माने वाले जंगल भी कटाई का शिकार हो चुके हैं । ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच को शुरू करने वाले डर्क ब्राएंट के अनुसार सिर्फ बीस सालों के अंदर दुनिया भर के ४० प्रतिशत जंगल काट दिए जाएंगें । दुनिया के सबसे बड़े जंगल के रूप में पहचाने जाने वाले ओकी- फिनोकी के जंगल भी इनसे जुदा नहीं । जितनी तेजी से जंगल कट रहे हैं उतनी ही तेजी से जीव-जंतुआें की कई प्रजातियां भी दुनिया से विलुप्त् होती जा रही हे । जंगलों के कटने से एक तरफ वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड बढ रही है वही दूसरी ओर मिट्टी का कटाव भी तेजी से हो रहा है । भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो तीसरी दुनिया से पहली दुनिया के देशोंमें शुमार होने को लालायित हमारे देश में जंगलों को तेजी से काटा जा रहा है । हिमालय पर्वत पर हो रही तेजी से कटाई के कारण भू-क्षरण तेजी से हो रहा है । एक शोध के मुताबिक हिमालयी क्षेत्र में भूक्षरण की दर प्रतिवर्ष सात मिमि तक पहुंच गई है । नतीजा कई बार ५०० से १००० प्रतिशत तक गाद घाटियों और झीलों में भर जाती है । जिसके कारण नदियों में जलभराव कम हो रहा है । भारत की जीवनरेखा कही जाने वाली कई नदियां गर्मियों में सूख जाती हैं , वहीं बारिश में इनमें बाढ़ आ जाती हैं । वनों की बेरहमी से हो रही कटाई कारण एक तरफ ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर प्रकृति का संतुलन भी बिगड़ रहा है । कई जीव हमारी धरती से लुप्त् हो चुके हैं। सही तरह से आंका जाए तो प्रलय का वक्त नजदीक आता नजर आ रहा है । इस प्रलय से बचने के लिए हमें तेजी से प्रयास करने होंगें । अब हर व्यक्ति को एक दो नहीं कम से कम दस पेड़ लगाने का वादा नहीं, बल्कि पक्का इरादा करना होगा । चिपको आंदोलन को दिल से अपनाना होगा, तभी हम वक्त से पहले आने वाले इस प्रलय से बच सकते हैं ।
राष्ट्रपति भवन के प्रकृति पथ का उद्घाटन राष्ट्रपति भवन को जनता के करीब लाने के मकसद से पिछले दिनों जनता के लिए प्रकृति पथ सैर करने के लिए खोल दिया गया । ढाई किलोमीटर लंबा यह पथ तीन सौ एकड़ के विशाल भूभाग में फैला है । राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने इस प्रकृति पथ का उद्घाटन किया और भरोसा जताया कि आम जनता इस पथ पर सैर करके प्रकृति से रूबरू हो सकेगी। इससे पहले श्रीमती पाटिल ने हर शनिवार को चेंज ऑफ गार्ड के लिए होने वाले समरोेह को जनता के दर्शनार्थ खेलने का आदेश दिया था । वैसे तो राष्ट्रपति भवन का प्रसिद्ध मुगल गार्डन हर साल फरवरी में कुछ दिनों के लिए जनता के लिए खुलता है जिसकी खूबसूरती जनता का मन मोहने के साथ अखबारों की सुर्खी बनती रही है । अब सामान्यजन पूरे साल हर शनिवार को प्रकृति पथ पर चलकर राष्ट्रपति भवन के पीछे फैले वन क्षेत्र में बटर फ्लाई पार्क का आनंद उठा सकेगें जहाँ कई सौ तरह की तितलियाँ देखने को मिलेगी। इस पथ से गुजरते हुए आप पीकॉक प्वाइंर्ट, ग्रेपवाईन यार्ड, अमरूद और संतरे के बगीचे, कटहल के पेड़ सहित जैव विविधता को दर्शाने वाले प्राकृतिक माहौल से रूबरू हो सकते हैं । राष्ट्रपति भवन की प्रवक्ता अर्चना दत्ता के अनुसार राष्ट्रपति चाहती हैं कि राष्ट्रपति भवन को आम जनता के करीब लाया जाए । उनके ही प्रयासों से दिल्ली सरकार के वन एवं पर्यावरण विभाग की मदद से प्रकृति पथ तैयार कराया गया है । उनके अनुसार प्रसीडेंट एस्टेट को एक हरित क्षेत्र, ऊर्जा की बचत और बिना कचरे वाले टाउनशिप के रूप में विकसित किया जा रहा है । ***

सोमवार, 26 जनवरी 2009

१० आवरण कथा

पंछी नहीं तो मनुष्य भी नहीं
सत्यनारायण भटनागर
हिन्दी में एक सन्त कवि हो गए है मलूकदास । उनकी ये पंक्तिया बहुत सुनाई जाती है, दोहराई जाती है ।अजगर करें न चाकरी,पंछी करे न काज।दास मलुका कह गए, सबके दाता राम ।।व्यवहारिक अनुभव में मलूकदास के इन विचारों से सहमत होने का कोई कारण दिखाई नहीं देता । दुनिया में कर्मवाद का सिद्धांत प्राणी मात्र पर दिखाई देता है । पंछी पर तो विशेष रूप से कर्म का सिद्धांत प्रभावी दिखाई देता है । पंछी बिना काम किए दाना पानी प्राप्त् कर ही नहीं सकता। हम अक्सर देखते है कि पंछी प्रात: काल की पहली किरण के साथ पंख फडफड़ाकर आकाश में उड़ान भरते है । वे खोजते है दाना-पानी । कैसीही आंधी चले, वर्षा हो, तुफान आए, आसमान से सूरज अंगारे बरसाए या बर्फ गिरे पंछी समस्त परिस्थियों में संघर्षरत रहता है । वह बिना काम के एक क्षण भी नहीं रहता । पंछी कर्मयोगी होता है । वह अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक कर्मयोगी बना रहता है । सन्त कवि मलूकदास ने अध्यात्म की दृष्टि से जो कुछ कहा, वह वास्तविक जीवन का सच नहीं है । इस दोहे ने आलसियों को भले ही सन्तोष दिया हो किन्तु यह व्यवहारिक जीवन का सच नहीं है । पंछी अनेक जातियों के है । अधिकतर पक्षियों के पंख होते है और ये हवा में उड़ते हैं । ये अत्यंत सुंदर होते हैं, भोले होते हैं और स्वतंत्र होते हैं । कोई पक्षी गुलाम मानसिकता का हो ही नहंी सकता । जो पींजरे में बंद हैं, वे मजबूर है। पींजरे में रहना उनका आनन्द नहीं है । सब सुख सुविधा पाने के बाद भी कोई उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल ने लिखा है ``ए तायरे-लाहूती उस रिज्क से मौत अच्छी जिस रिज्क से आती हो परवाज में कोताही'' अर्थात ओ आसमान में उड़ने वाले पंछी उस जीविका से मौत अच्छी जिस जीविका में उड़ने से बाधा पड़ती हो। कोई पंछी घोसला बना कर भी नहीं रहना चाहता, सब खुले आसमान के नीचे किसी वृक्ष की छाया में अपना बसेरा रखते है । पक्षी प्रकृति की सन्तान है, वे प्रकृति के साथ जीवन प्रारम्भ करते है और प्रकृति के साथ खेलते कुदते अठखेलिया करते अन्तिम सांस लेते है ।प्रकृति कर्मयोग सीखती है । प्रकृति के साथ आलस्य रह नहीं सकता । पक्षी केवल प्रसव काल में अपने बच्चें पर आत्मनिर्भर होने तक घोसलों में रहते है । अपनी सन्तान के पंखों की ताकत आते ही वे खुले आकाश में उड़ कर गाना गाते है, नाचते है । गाते-खाते है इठलाते है । दुनिया भर के बवण्डरों के बाद भी पंछी अपने पंखों पर ही विश्वास करते है। चिड़िया पंछी आसमान में उड़ते हुए गाना गाती है । उसका गाना बिना साज के आनन्द देता है । वातावरण को मनोरम बनाता है । आसमान में उड़ते हुए क्या आपने किसी चिड़िया का बिना कारण चहचहाना सुना है । यह क्षण आनन्द का क्षण है, प्रसिद्ध विद्वान जोअन अेग्लाड कहते है ``चिड़िया इसलिए नहीं गाती कि उसके पास गाने के कारण है, वह गाती है क्योकि उसके पास गीत है ''। प्रकृतिविद् कहते हैै कि चिड़िया अपने साथी को आकर्षित करने के लिए गाती है । चिड़िया न केवल गाती है, वह नाचती भी है । क्या आपने मयुर का नृत्य नहीं देखा । उस नृत्य को देखकर तो हमारा भी मनमयूर नाचने लगता है । नृत्य करना सामान्य क्रिया नहीं है । जब तक हमारा मन आनन्द से परिपूर्ण न हो हम नाच ही नहीं सकते । हम तो अपनी पद-प्रतिष्ठा और वातावरण के कारण संकोच धारण कर लेते है । सार्वजनिक रूप से नाचना ही नहीं चाहते किन्तु वास्तव में जब आनन्द के क्षण हमारे अन्दर हिलोरे लेने लगते है, तब हम बिना नाचे रह ही नहीं सकते । हमारे पैर तब अनायास थिरकने लगते है । इसलिए पक्षी हमें नृत्य का भरपूर आनन्द लेने का सन्देश देते है । अंग्रेजी के लेखक मार्क टवेन लिखते है `नृत्य का आरम्भ किया जाए, आनन्द को बेशुमार बनने दिया जाये' पक्षी हमें सन्देश देते है आनन्द से नृत्य करने के लिए, मुक्त रूप से गीत गाने के लिए, निरन्तर कर्मरत रहने के लिए । पक्षी वर्ग हमारे पर्यावरण को स्वच्छ रखने में भी हमारे सहयोगी होते है। वे कीट, पतंगों का भक्षण कर अनायास ही हमारे वातावरण को शुद्ध करते है । आज हमारे प्राकृतिक परिवेश में गिद्ध अत्यन्त कम पड़ गए है अत: मृत पशु, पक्षियों की लाश दुर्गन्ध छोड़ती है एक विकराल समस्या खड़ी कर रहीं है । ये प्रकृति का सन्तुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है । जलचर पक्षी जल में किल्लोर करते जहॉ आनन्द मनाते है, वहाँ जल की शुद्धि भी करते है । पक्षी पर्यावरण की शुद्धता-स्वच्छता बनाए रखने के लिए अनथक प्रयत्नशील अधिकारी है ।पक्षी निहारने का आनन्द - पक्षी निहारने के क्षण जहॉ हम आनन्द देते है, वहॉ वे हमारे लिए शिक्षालय का काम भी करते है । उनकी प्रत्येक गतिविधि का अर्थ होता है, उनका बोलना, चहचहाना, गाना अपने आप में मगन रहना आदि हमें जीवन में प्रेरणा देता है । स्मरण रहे - पक्षी कभी अवसाद में नहीं जाते । कितने ही तूफान हो, वर्षा हो, वे संघर्ष करते है । संघर्ष करते हुए मृत्यु को भले ही प्राप्त् हो पर वे तनावग्रस्त हो आत्म हत्या नहीं करते । अब पक्षी निहारने के कार्य में लगे वैज्ञानिक भी मानने लगे है कि पक्षी भी अनुभव से हमारी तरह ही सीखते है उनमें तर्क की समझ होती है । वे समय के साथ अपने आप में परिवर्तन कर लेते है । पक्षी निहारना जहॉ हमें शिक्षा देता है, वहॉ तनाव से मुक्त भी करता है । परिंदे निहारते समय उनकी प्रत्येक गतिविधि पर ध्यान दिया जाता है । वे कैसे रहते है ? उनका आकार और रंग कैसा है । वे क्या खाते है वे प्रवास करते है तो किस मौसम में करते है । प्रजनन के लिए घोंसला कहॉ बनाते है आदि ।पक्षी के प्रति प्रेम-प्रकृति के प्रति प्रेम है । हमारी प्राचीन कथाआें में इसलिए पक्षियों का वर्णन है । लोक कलाआें में भी विभिन्न पक्षियों को कलाकृति के रूप में उकेरा गया है । भारतीय ऋषियों को हजारों वर्ष पूर्व यह ज्ञान हो गया था कि मानव इस प्रकृति श्रंृखला की एक कड़ी है । मानव में योग्यता, क्षमता है कि वे इस वर्ग की रक्षा कर सके । मानव परिन्दों को सहजीवी बनाए ।अध्यात्म में पक्षी - भारतीय ऋषियों ने आत्मा को अणु के रूप में माना है और प्रतीक रूप में आत्मा व परमात्मा को दो मित्र पक्षियों की उपमा दी है । मुण्डक और श्वेताश्वसर उपनिषदों में इन्हें दो ऐसे मित्र पक्षी बताए है जो एक ही वृक्ष पर बैठे है । इसमें एक पक्षी संसार रूपी वृक्ष के फलों को खा रहा है और दूसरा परमात्मा रूपी पक्षी अपने मित्र को देख रहा है । परमात्मा की ही अंश रूप आत्मा है । इनमें समान गुण है किन्तु हम संसार रूपी वृक्ष के भौतिक फलों पर मोहित हो परमात्मा को विस्मृत कर देते है । परमात्मा साक्षी रूप हमें निहारता रहता है । इन उपनिषदों में कहा गया है ।सामने वृक्षे परूषों निमगोन्डनीशया शोचति मुहयमान ।जुष्टं यदा पश्यत्यन्यभीशमस्य महिमानमिति वीत शोक: ।।अर्थात यद्यपि दोनों पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे है किन्तु फल खाने वाला पक्षी वृक्ष के फल के भोक्ता रूप में चिन्ता और विषाद में निमग्न है । यदि किसी तरह वह अपने मित्र भगवान की ओर उन्मुख होता है और उनकी महिमा को जान लेता है तो वह कष्ट भोगने वाला पक्षी तुरन्त सब चिन्ताआें से मुक्त हो जाता है ऋषियों का यह प्रकृति प्रेम ही आत्मा के प्रतीक रूप में उजागर हुआ है । पक्षी के इस अणु रूप की महत्ता बताने के लिए एक छोटी चिडिया गौरय्या की संकल्प कथा प्रचलित है जिसमें गौरय्या के बार-बार निवेदन करने पर भी समुद्र अण्डे वापस नहीं करता, तब गौरय्या ने अपनी छोटी-सी चोंच से समुद्र के पानी को उलेचने का यत्न प्रारम्भ किया । यह प्रयत्न हंसी का कारण हो सकता था किन्तु कथा कहती है कि भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरूड़ को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने समुद्र को चेतावनी दी और तब समुद्र को अण्डे लौटाने पड़े । पक्षी राज गरूड़ की तो अनेक कथाएं महाभारत में वर्णित है । पक्षी केवल प्रतीक नहीं है । वे वास्तव में प्रकृति में सन्तुलन बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण कारक भी है । वे अनायास अध्यात्मिक जीवन का सन्देश भी देते है । संकट में है पक्षी - आज पक्षी जगत संकट में है । हम पक्षियों की ओर ध्यान नहीं दे रहे । अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए अन्धाधुन रसायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे है । प्रकृति विदों के अनुमान के अनुसार भारत में पाई जाने वाली १७०० प्रजातियों में से अनेक खतरे के बिन्दु पर पहुॅच रही है । अस्सी प्रजातियां तो विलोपित हो गई है । घटते जंगल और बढ़ती आबादी प्रतिदिन परिन्दों के जीवन को दुश्वार बना रहे है । पक्षीविद् विश्वमोहन तिवारी कहते है ``इसमें किसी को सन्देह नहीं होना चाहिए कि पंछी नहीं तो मनुष्य भी नहीं बचेगा । भारतीय ऋषियों की हजारों वर्ष पूर्व की इस समझ का हमें ध्यान रखना चाहिए कि प्रकृति के सन्तुलन को बचाए रखने में हमारा भी सक्रिय योगदान होना चाहिए । ***

११ ज्ञान विज्ञान

सबसे पुराने जीव है मकड़ी, बिच्छू और केकड़े
एक शोध एक्सपेरीमेंटल एंड एप्लाइड एक्रोलॉजी के ताजा अंक में छपा है । इसमें बताया गया है कि ये रेंगने वाले जंतु इस ग्रह पर पिछले २ करोड़ वर्षोंा से रेंग रहे हैं । अभी तक वैज्ञानिकों को मकड़ी का जो सबसे पुराना जीवाश्म मिला है वो सवा करोड़ साल पुराना है जबकि बिच्छू का सबसे पुराना जीवाश्म २ करोड़ साल पुराना है । इस शोध पत्र में छपा है कि जो जीवाश्म वैज्ञानिकों को मिले हैं वे जीव उनसे दोगुने समय से इस ग्रह पर वास कर रहे हैं । वैज्ञानिकों के अनुसार अभी इन पर और अधिक शोध किया जाना है । वैज्ञानिकों ने इस शोध पत्र में एक हार्स शू (घोड़े की नाल के समान) केकड़े का भी उल्लेख किया है । वैज्ञानिकों के अनुसारइस केकड़े का जीवाश्म डिवेनियन काल का है । ये काल ४ करोड़ वर्ष पहले था । लेकिन जीवाश्म देखने में ये आज के आधुनिक हार्स शू केकड़े जैसा ही लगता है । इस बात से पता चलता है कि ये रेंगने वाले जंतु अपने वर्तमान स्वरूप में पिछले कई करोड़ साल से बने हुए हैं । इस बारे में फ्लोरिडा विश्वविद्यालय की वैज्ञानिक होय बताती है कि हम सोचते हैं कि ये जंतु हमारे सामने ही प्रकट हुए हैं लेकिन हम गलत हैं । ये हमसे कई करोड़ साल पहले से पृत्वी पर जमे हुए हैं और हमसे लंबी पारी खेलने की क्षमता रखते हैं ।
खतरनाक हैं भूरे बादल चीन और भारत पर भूरे बादलों का प्रभाव कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रहा है । संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण शाखा के लिए की गई एक शोध में साबित होता है कि एशियाई शहर खतरनाक भूरे बादलों की चपेट में आते जा रहे हैं । एनवायरमेंट न्यूज नेटवर्क की इस शोध से पता चला है कि अधिकतर एशियाई शहरों में सूरज की २५ प्रतिशत किरणें धरती तक पहुंच ही नहीं पाती हैं, क्योंकि प्रदूषण की वजह से बने भूरे बादल उन्हें आकाश में ही रोक देते हैं । ये बादल कभी - कभी तो ३ किलोमीटर गहरे होते हैं । इससे सबसे अधिक प्रभावित शहर चीन का ग्वानजाउ है, जो १९७० से ही धुएं के बादलों से घिरा हुआ है । इसके अलावा जिन शहरों पर सबसे अधिक खतरा है , वे हैं बैंकका, बीजिंग, ढाका, कराची, कोलकाता, मुम्बई, दिल्ली, सिओल, शंघाई, शेनजाउ और तेहरान । इस रिपोर्ट के अनुसार इन बादलों में मौजूद टॉक्सिक पदार्थोंा की वजह से चीन में प्रतिवर्ष ३,४०,००० लोग मारे जाते हैं । ये टॉक्सिक पदार्थ हिन्दूकुश और हिमालय पर्वत श्रृंखला के लिए भी खतरा हैं । इससे यहां के ग्लेशियर तेजी से पिघलते जा रहे हैं । ऐसा खतरा यूरोपीय और अमरीकी महाद्वीप के देशों पर भी है , परंतु वहां होने वाली शीतकालीन वर्षा और बर्फ की वर्षा इन बादलों को मिटा देती है लेकिन एशियाई शहरों में बर्फीली वर्षा नहीं होती है और वहां भूरे बादलों का खतरा लगातार बढ़ रहा है ।
पक्षियों का प्रेम गीत कुछ मनुष्य असीम आनंद पाने के लिए दवाइयों और अल्कोहल का सहारा लेते हैं । उसी तरह नर चिड़िया किसी मादा चिड़िया को रिझाने के लिए गाना गाते समय जिस आनंद की अनुभूति करती है, वह उसे शायद अकेले गाते हुए कभी प्राप्त् नहंी हेाता । जेब्रा फ्रिंच एक गाने वाली चिड़िया है, जो समूह में रहती है ।जापान के राइकेन ब्रेन साइन्स इंस्टीट्यूट के नील हेसलर और या-चुन हांग ने अपने अध्ययन में पाया कि जब नर जेब्रा फिंच किसी मनचाही संगिनी के लिए गाता है तो उसके दिमाग के एक विशेष हिस्से की तंत्रिकाएं सक्रिय हो जाती हैं । इस हिस्से को वीटीए कहते हैं । मानव मस्तिष्क का इसी के समतुल्य हिस्सा तब सक्रिय होता है जब वे कोकेन जैसी नशीली दवाईयों का सेवन करते हैं ।इससे दिमाग डोपामीन नामक एक पदार्थ बनाकर स्रावित करता है जिसे मस्तिष्क का पारितोषिक रसायन भी कहते हैं । फ्रिंच के मस्तिष्क में डोपामीन के स्रवण से वह क्षेत्र सक्रिय हो जाता है जो गायन और सीखने की प्रक्रिया का समन्वयन करता है ।दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि ऐसी स्थिति में गाना फिं्रच के लिए पारितोषिक की अनुभूति प्रदान करता है जिसके फलस्वरूप फिं्रच और गाने के लिए प्रोत्साहित होता है । हेसलर कहते हैं कि यह एक प्रत्यक्ष प्रमाण है कि मादा चिड़िया के लिए गीत गाना नर चिड़िया के लिए पारितोषिक पा लेने की भावना जगाता है। इसके साथ ही वह जोड़ते हैं कि यह कोई आश्चर्यजनक बात नहंी है क्योंकि पक्षियों में इस तरह की प्रणय प्रार्थना प्रजनन के समय बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । नार्थ कैरोलिना के ड्यूक विश्वविद्यालय के पक्षी तंत्रिका विज्ञानी एरिक जारविस के अनुसर इस अध्ययन से पता चलता है कि नर पक्षी का गायन उसके तंत्रिका संचानर और वी.टी.ए. में स्थाय परिवर्तन कर सकता है । जारविस का मानना है कि अभी यह कहना कठिन है कि नर का मस्तिष्क क्या वाकई में ज़्यादा खुश होता है । दूमसरी ओर , हेसलर सोच रहे हैं कि इसी प्रकार के प्रयोग मादा फिंच के साथ करके यहदेखें कि इस प्रकार की प्रणय ' नप्रक्रिया क्या मादा को भी समान रूप से आनंदित करती है ।
उड़ान में सुविधा देते हैं ड्रेगन फ्लाई के पंख ड्रेगन फ्लाय को बच्च्े हेलिकॉप्टर कीड़े के नाम से भी जानते हैं। यह बिल्कुल हेलिकॉप्टर की तरह दिखता है । हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया कि इसकी उड़ान थोड़ी अनोखी है । इसके पंख लगभग पारदर्शी और काफी सख्त होते हैं । जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के उड़ान इंजीनियर अबेल वर्गास और उनके सहयोगियों का विार है कि ड्रेगन फ्लाई के पंखों की अनोखी रचना उन्हें उड़ने मे विशेष सुविधा प्रदान करती है । दरअसल ड्रेगन फ्लाई के पंख ऐसे बिल्कुल नहीं दिखते कि वेउड़ान के लिए ज़रूरी स्ट्रीमलाइन्ड सांचे में ढले हैं जिसका उपयोग हवाईजहाज उद्योग बरसों से करता आ रहा है । ड्रेगन फ्लाई के पंख कोरूगेटेड होते हैं यानी इन पर उभरी हुई धारियां होती हैं । इन्हीं धारियों की वजह से इन पंखों को लंबाई में बिल्कुल मोड़ा नहीं जा सकता । यह बात को काफी समय से पता थी मगर यह किसी ने नहीं सोचा था कि इस तरह की रचना से उड़ान में क्या मदद मिलती होगी । यही पता करने के लिए अबेल वर्गास व साथियों ने ड्रेगन फ्लाई ईश्चना साएनिया के मॉडल तैयार किए । ये मॉडल कम्प्यूटर मॉडल थे । इन मॉडल्स को तरल गति साइमुलेटर में उड़ाया गया । यह एक ऐसा उपकरण होता है जिसमें तरल पदार्थोंा की गति की अनुकृति बनाई जा सकती है । ऐसा करने पर उन्होंने देखा कि ड्रेगन फ्लाई के पंख की धारियां उसे बढ़िया उठाव यानी लिफ्ट प्रदान करती हैं । आम तौर पर ग्लाइडिंग उड़ान भरते समय इतना उठाव नहीं मिलता । इन धारियों वाले पंखों में जितन उठाव मिलता है वह सामान्य स्ट्रीमलाइन्ड पंखों से भी बेहतर पाया गया। वर्गास का मत है कि इसका कारण यह है कि जब हवा इन पंखों पर गुजरती है , तो वह धारियों के बीच धंसे हुए हिस्सों में बहती है । इसका परिणाम यह होता है कि न्यूनतम ड्रेग वाले हिस्से बन जाते हैं जो उठाव को बढ़ावा देते हैं । ड्रेग वह बल है जो चीज़ों को पीछे की ओर धकेलता है । इस खोज से शोधकर्ता इतने उत्साहित है कि उनका कहना है कि छोटे साईज़ (यानी हाथ की साईज़) के टोही विमानों में इस तरह की संरचना का उपयोग करके उनकी उड़ान क्षमता बढ़ाई जा सकती है और उन्हें अधिक शक्तिशाली भी बनाया जा सकता है । ***

१२ कवितापर्यावरण

पर्यावरण सही

ए.बी.सिंह

पर्यावरण सही रहे, दुख कम हो तत्काल ।सुख से कटती जिन्दगी, ऐसे सालों साल ।।जब तक रहता सन्तुलन , प्रकृति दे सके साथ।पर्यावरण बिगाड़ कर , नहीं कटाओ हाथ ।।जीव जन्तु पलते रहें, पेड़ रहें हर ओर ।पर्यावरण तभी सही, जाये कोई छोर ।।पर्यावरण अगर सही, अच्छी हो बरसात ।दिन अच्छा कटने लगे, बीते अच्छी रात ।।धरती अच्छी दिख सके, जल रोके हर ओर ।पर्यावरण भला बने, मन में बढ़ता जोर ।।पर्यावरण जहां सही, बसते जा कर लोग ।उसी जगह जा कर लगे, मेला चलता भोर ।।रोग भगाने के लिये, रखो स्वच्छता ध्यान ।पर्यावरण सही रहे ,नहीं पड़े व्यवधान ।।पर्यावरण सभी तरह, यह देता है ज्ञान ।इसका जब नुकसान हो, सब का हो नुकसान ।।जहां जीव जल वन रहें, जीवों की भरमार ।पर्यावरण समझ सही, सब का जीवन पार ।।पर्यावरण सही रहे, अगर लगाओ पेड़ ।ऐसा होना चाहिये, हर खेतों की मेड़ ।।पर्यावरण सही अगर, प्रकृति न हो नाराज ।नहीं सुनामी का कभी, आ सकता तब राज ।।सब का तब अच्छा रहे, जग आचार विचार ।जब अच्छा पर्यावरण, हो अच्छी बौछार ।।सामाजिक जब चेतना, सब का हो तब ध्यान ।तब जग पर्यावरण की, राह सही आसान ।।परत सदा रखना सही, जो रहती ओजोन ।गलत जहां पर्यावरण, इसे बचाये कौन ।।शुद्ध मिले पानी हवा, घर का हो आटा दाल ।नहीं दिखावे में कभी , हरियाली को काट ।।
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१३ पर्यावरण समाचार

पिछले ८ वर्षोंा से अध्यक्ष विहीन है एनईएए
देश में पर्यावरण संबंधी जनहित याचिकाआें के न्यायालयों पर बढ़ते बोझ को कम करने के लिए वर्ष १९९७ में गठित राष्ट्रीय पर्यावरण न्यायाधिकरण (एनईए) पिछले आठ वर्षोंा से अध्यक्ष विहीन है । इस न्यायाधिकरण की न कोई वेबसाइट है और न पता, जहां कोई व्यक्ति पर्यावरण संबंधी समस्याआें के लिए संपर्क कर सके । दिल्ली उच्च् न्यायालय के कई निर्देशों के बावजूद केंद्र सरकार वर्ष २००० से लेकर आज तक एनईए के अध्यक्ष के रूप में सर्वोच्च् न्यायालय के किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च् न्यायालय के किसी पूर्व मुख्य न्यायाधीश को तलाश नहीं कर पाई है । मुख्य न्यायाधीश अजित प्रकाश शाह और न्यायमूर्ति एस. मुरलीधर की अध्यक्षता वाली पीठ ने गत दिसम्बर में सरकारी वकील से पूछा था , आपको आठ वर्षोंा में एक न्यायाधीश नहीं मिला ? आखिर सर्वोच्च् न्यायालय के किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च् न्यायालय के किसी सेवा निवृत्त मुख्य न्यायाधीश की जगह किसे नियुक्त किया जा सकता है । वर्ष २००५ में एक जनहित चायिका की सुनवाई करते हुए अदालत ने सरकार से इस संस्था के अध्यक्षता तथा अन्य सदस्यों के नियुक्ति संबंधी प्रस्तावों को निपटाने के साथ ही ४५ दिनों के भीीतर न्यायाधिकरण के पुनर्गठन का निर्देश दिया था लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा । पिछले वर्ष अक्टूबर में केंद्र सरकार ने अदालत को सूचित किया कि पर्यावरण मंत्रालय को दिल्ली उच्च् न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीशों तथा सर्वोच्च् न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के फोन नंबर ही नहीं उपलब्ध हो पाए , जिस पर उनसे सम्पर्क किया जा सके । वहीं दिसम्बर में अतिरिक्त महान्यायाधिवक्ता (एएसजी) पी.पी. मल्होत्रा ने अदालत में मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि कोई भी न्यायाधीश इस जिम्मेदारी को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुआ लेकिन खण्डपीठ ने कहा, यदि आप इस मामले के प्रति संजीदा होते तो कानून में संशोधन कर सकते थे । ***