बुधवार, 28 जनवरी 2009

५ लोक चेतना

पर्यावरण : आवश्यकता और लालच का द्वन्द
सुश्री मीनाक्षी रमन
अमीर देशों द्वारा खनिज तेलों के असहनीय अतिउपयोग से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन के आसन्न विश्वव्यापी संकट पर लगातार चेतावनियों के बावजूद ध्यान नहीं दिया जा रहा है । मौजूदा सदी के इस सबसे गंभीर मसले को सुलझाने के लिए जीवनपद्धति में मूलभूत परिवर्तन की अनिवार्यता हैं । इस संकट से सर्वाधित प्रभावित वे देश है जिनका इसकी उत्पत्ति में योगदान नहीं के बराबर है और ये विपन्न अरक्षित समुदाय धनी देशों द्वारा सुझाए जा रहे त्रुटिपूर्ण उपायों के कारण सबसे अधिक प्रभावित भी हो रहे हैं । यह विकास, मानव अधिकार व न्याय का भी मसला है । ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का अतीत और वर्तमान दोनों ही इन संपन्न देशों की ओर ही इशारा करते हैं । ये देश समुचित उपायों पर अमल के लिए साधन सम्पन्न भी हैं । अतएव उत्तरी (अमीर) देशों द्वारा साधनों का अनुपातहीन उपभोग और दक्षिणी (गरीब) देशों के संसाधनोंके शोषण से उत्पन्न पर्यावरणीय देनदारी की भरपाई भी आवश्यक हैं । संकट को और गहराने से रोकने के लिए विश्व के बढ़ते तापमान को औद्योगिककाल पूर्व स्तर से दो डिग्र्री सेंटीग्रसट से ज्यादा नहीं बढ़ने देना है । हालांकि ग्रीन हाउस गैसों के वर्तमान स्तर के उत्सर्जन से भी कई देश, समुदाय और प्रजातियां आकस्मिक संकटों को झेलने को अभिशप्त् होंगी । वैज्ञानिक कहते है कि इस शताब्दी के मध्य तक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को १९९० के स्तर से आधे पर लाना अनिवार्यता है । ऐसे में विकसित देश जितनी ज्यादा कमी अपने यहां करेंगे उतना ही विकासशील राष्ट्रों पर भार कम होगा । इसी समझ को विकसित किए जाने की आवश्यकता है । सन् २०५० तक उत्सर्जन में प्रस्तावित ५० प्रतिशत कमी के लक्ष्य की प्रािप्त् में अगर विकसित देश अपने यहां ६० से ८० प्रतिशत तक की कमी भी करते हैं तो भी वह अपर्याप्त् हैं । थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क की पड़ताल के मुताबिक १९९० में कार्बन डाइआक्साईड का उत्सर्जन ३८६ अरब टन, अब इसमें ७० प्रतिशत कमी का अर्थ है इस मात्रा को ५५ अरब टन तक नीचे लाना । इससे विकासशील राष्ट्रों के लिए लक्ष्य १३८ अरब टन हो जाता है । (१९९० के अपने २०४ अरब टन के योगदान में ३३.३ प्रतिशत की कमी) अनुमान है कि तब तक विकासशील देशों की आबादी दुगुनी हो जाएगी जिसका अर्थ है प्रति इकाई उत्सर्जन में ६५ प्रतिशत की कमी । इस परिप्रेक्ष्य में इस मसले पर इस खुली बहस की दरकार है । क्या इतनी कमी उचित है और इसे लागू किया जाना चाहिए ? वातावरण पर पड़े प्रभाव और दक्षिण के पर्यावरण ह्ास को मूल्य पर हासिल जीवन स्तर के मद्देनज़र अमीर देशों की यह जिम्मेदारी है कि विकासशील राष्ट्रों पर पड़ने वाला यह भार अनैतिक न हो । मुख्य बात यह है कि क्या हम कृषि, व्यापार व वित्त की नई नीतियों के माध्यम से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन पर नियंत्रण करते हुए विकासशील देशों के लिए टिकाऊ विकास का रास्ता निकाल पाएंगे ? उत्सर्जन में कमी करते हुए इन देशों में जीवन स्तर में सुधार के लिए एक पर्यावरण सम्मत योजना की आवश्यकता है और यह महत्वपूर्ण कार्य सकल राष्ट्रीय उत्पाद के सिर्फ १ से ३प्रतिशत के खर्च से ही हासिल नहीं होगा । बल्कि इसके लिए सोच समझकर लगातार परिश्रम करना होगा क्योंकि विकासशील देशों को विकास और उत्सर्जन में कमी दोनों ही लक्ष्यों को साथ-साथ साधना है । विकास-शील देशों में टिकाऊ विकास और गरीबी से छुटकारा दिलाने हेतु अमीर देशों के अपने उत्सर्जन में तुरंत जबरदस्त कमी करनी होगी । इस हेतु निम्न कदम उठाने आवश्यक है : अमीर और गरीब देशों की उच्च् आय वर्ग की आबादी को अपनी जीवनशैली में परिवर्तन लाना होगा । सन् १९९२ के रियो पृथ्वी सम्मेलन ने भी उपभोग के तरीकों एवं उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन पर जोर दिया था किंतु उनका पालन नहीं हुआ । जब सब कुछ दाव पर लगा हो तब यह नहीं कहा जा सकता की अमीरों की जीवनशैली समझौते से परे है । जलवायु परिवर्तन निर्धारण की चौथी रपट में अंतर सरकारी दल ने भी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए जीवनशैली एवं व्यवहारगत परिवर्तनों की वकालत की थी । परिवर्तन का लक्ष्य निष्पक्ष तरीके से स्थाई रूप से संसाधनों को बचाते हुए कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने वाली ऐसी अर्थव्यवस्था की रचना के रूप में हो जिसका लक्ष्य हो कि दूसरों के जीवन के लिए हमें सादगी से रहना होगा । कार्बन उत्सर्जन में कमी के लिए विकासशील राष्ट्रों को धन एवं तकनीक दोनों तुरंत उपलब्ध करवाए जाएं । सरकारी स्तर पर कोष एंव संसाधनों को जुटाकर प्रवाह उत्तर से दक्षिण की ओर किया जाए बजाए आजकल निजी क्षेत्र और कार्बन बाजार पर निर्भरता की वकालत करने के कोष का इंतजाम रक्षा खर्च में कमी, ऋणों की माफी और करों और लेवी में बढ़ोत्तरी के द्वारा किया जा सकता है । पर्यावरण हितैषी तकनीक को विकासशील राष्ट्रों को सौंपते वक्त बौद्धिक सम्पदा नियमों में शिथिलता लाई जाए । आणविक ऊर्जा, जीन आधारित उन्नत फसलें, जैव इंर्धन, बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं और कार्बनहरण एवं भंडारण जैसे उपाय पर्यावरण एवं स्वास्थ्य के लिहाज से तो खतरनाक हैं ही इसके अलाभकर सामाजिक प्रभाव भी हैं । ऊर्जा की कार्यक्षमता बढ़ाने और गैर पारम्परिक ऊर्जा स्त्रोतों जैसे सौर एवं वायु ऊर्जा जैसे विकल्पों पर ज्यादा धन दिया जाना चाहिए । ऊर्जा निर्र्माण को विकेन्द्रित किए जाने की आवश्यकता है जिससे कि विकासशील देशों की ग्रामीण विपन्न जनता के हाथ में भी ऊर्जा निर्माण के साधन हों । इस दिशा में उठाए गए कदम गरीबों व पर्यावण की रक्षा एवं मनुष्य की जीविका और सुरक्षा को ध्यान में रखकर लिए जाए । जनभागीदारी आधारित योजनाएं सांस्कृतिक, तकनीकी और सामाजिक तौर पर खरी होती है साथ ही इनमें पर्यावरण के संदर्भ में लचीलापन भी होता है । वन संरक्षण कार्यक्रमोंमें सामाजिक अधिकारों भू-स्वामित और मूलनिवासी एवं स्थानीयजनों का समुचित ध्यान रखा जाए और इनकी बेदखली को कड़ाई से रोका जाए । इस उद्देश्य में असफलता को पर्यावरणीय नस्लवाद माना जाना चाहिए । जो कि संवेदनशील पर्यावरण संरक्षण प्रणाली के लिए भी खतरा है । विश्व व्यापार संगठन अंतर्राष्ट्रीय मुद्र कोष और विश्व बैंक की नीतियों में भी पर्यावरणीय नजरिये से सामंजस्य की आवश्यकता है । इन अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठानों की कुछ व्यवसाय हितैषी नीतियां विकास में स्थायित्व को नुकसान पहुंचानी हैं और पर्यावरण के लिए भी नुकसानदेह हैं । प्रश्न यह है कि विकासशील देशों से अपनी राष्ट्रीय नीतियों में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को प्राथमिकता देने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है । जबकि अंतर्राष्ट्रीय उपायों द्वारा उन पर गरीबी और असमानता लादी जा रही हो एंव उनके छोटे कृषि और इतर व्यवसायों को बड़े प्रतिष्ठान निगल रहे हो ? उनके प्राकृतिक संसाधनों पर विदेशी निगम कब्जा कर रहे हों ? इस तरह की व्यवस्था में परिवर्तन लाना आवश्यक है एवं धनी देशों को भी सामंजस्य से कार्य करना सीखना होगा ।***
बस्तर की दुर्लभ जैव विविधता के लिए खतरा लैण्टाना कैमरा
छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल और दुनिया के दुर्लभ जैव विविधताआें वाले क्षेत्र के रूप में मशहूर बस्तर में एक खतरनाक खरपतवार पनपने लगा है । इस खरपतवार का नाम लैण्टाना कैमरा है । लैण्टाना-कैमरा के विनाश के लिये कृषि विभाग ने प्रभावी नियंत्रण नीति अख्तियार करने पर बल दिया है । यह नींदा खरपतवार .लाटा. बूटा के नाम से भी जाना जाता है । यह उद्यानिकी और कृषि वानिकी के साथ अवांछित रूप से उगकर फसलों को भयानक क्षति पहुंचाता है । लैण्टाना कैमरा एक ऐसा खतरनाक खरपतवार है जो फसल के साथ साथ जंगल, उद्यान, अभयारण्य, सरंक्षित वनों, पार्क, घर और स्कूलों के आसपास तेजी से फैलकर उन्हें नुकसान पहुंचाता है । यह खरपतवार इसलिये भी विनाशकारी है कि इसके अधिक फैलाव से बस्तर जैसे वनाच्छादित और समूद्ध जैवविविधता (बायोडायवर्सिटी) वाले क्षेत्रों में अनेक बहुपयोगी पौधों और जीव जन्तुआें के अस्तित्व के लिये खतरा बन गया है । गैर कृषि क्षेत्रों में यह खरपतवार हानिकारक जीव जन्तुआें जैसे सांप चूहे और अन्य कीट रोग जनकों के लिये भी शरण स्थल बन जाता है । बस्तर अंचल में हजारों हेक्टेयर भूमि में इसका फैलाव खतरनाक तरीके से बढ़ता जा रहा है । जिसे कृषि वैज्ञानिकोंने बेहद चिंता का विषय बताया है । गौरतलब है कि लाटा बूटा यानी लैण्टाना कैमरा एक बहुवर्षीय सदाबहार झाडी है जो बीच और वानस्पतिक अंगों द्वारा तेजी से फैलता है । यहीं नही इसके बीजों का फैलाव पक्षियों विशेषकर भारतीय मैना द्वारा किया जाता है । यह खरपतवार मूलत: मध्य अमेरिका से आया हुआ बताया जाता हैै । इस पौधे का बहुरंगीय फूलों के कारण बाडियों, हेज के रूप में उपयोग किया जाता था । परन्तु अन्य उपयोगी स्थानों में इसका विस्तृत फैलाव अब संकट का कारण बन गया है । इसलिये इसका प्रभावशील ढंग से नियंत्रण किया जाना अब अत्यंत आवश्यक हो गया है ।

1 टिप्पणी:

अखिलेश शुक्ल ने कहा…

माननीय श्री पुरोहित जी,
सादर अभिवादन
आपके ब्लाग पर पर्यावरण संबंधी रचना पढ़ी पढ़कर अच्छा लगा। आप चाहें तो मेरे ब्लाग पर आएं। पत्रिकाओं की समीक्षा आप पढ सकते है। आपकी प्रतिकि्रया से अवश्य ही अवगत कराएं।
अखिलेश शुक्ल
संपादक कथा चक्र
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