सोमवार, 26 जनवरी 2009

११ ज्ञान विज्ञान

सबसे पुराने जीव है मकड़ी, बिच्छू और केकड़े
एक शोध एक्सपेरीमेंटल एंड एप्लाइड एक्रोलॉजी के ताजा अंक में छपा है । इसमें बताया गया है कि ये रेंगने वाले जंतु इस ग्रह पर पिछले २ करोड़ वर्षोंा से रेंग रहे हैं । अभी तक वैज्ञानिकों को मकड़ी का जो सबसे पुराना जीवाश्म मिला है वो सवा करोड़ साल पुराना है जबकि बिच्छू का सबसे पुराना जीवाश्म २ करोड़ साल पुराना है । इस शोध पत्र में छपा है कि जो जीवाश्म वैज्ञानिकों को मिले हैं वे जीव उनसे दोगुने समय से इस ग्रह पर वास कर रहे हैं । वैज्ञानिकों के अनुसार अभी इन पर और अधिक शोध किया जाना है । वैज्ञानिकों ने इस शोध पत्र में एक हार्स शू (घोड़े की नाल के समान) केकड़े का भी उल्लेख किया है । वैज्ञानिकों के अनुसारइस केकड़े का जीवाश्म डिवेनियन काल का है । ये काल ४ करोड़ वर्ष पहले था । लेकिन जीवाश्म देखने में ये आज के आधुनिक हार्स शू केकड़े जैसा ही लगता है । इस बात से पता चलता है कि ये रेंगने वाले जंतु अपने वर्तमान स्वरूप में पिछले कई करोड़ साल से बने हुए हैं । इस बारे में फ्लोरिडा विश्वविद्यालय की वैज्ञानिक होय बताती है कि हम सोचते हैं कि ये जंतु हमारे सामने ही प्रकट हुए हैं लेकिन हम गलत हैं । ये हमसे कई करोड़ साल पहले से पृत्वी पर जमे हुए हैं और हमसे लंबी पारी खेलने की क्षमता रखते हैं ।
खतरनाक हैं भूरे बादल चीन और भारत पर भूरे बादलों का प्रभाव कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रहा है । संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण शाखा के लिए की गई एक शोध में साबित होता है कि एशियाई शहर खतरनाक भूरे बादलों की चपेट में आते जा रहे हैं । एनवायरमेंट न्यूज नेटवर्क की इस शोध से पता चला है कि अधिकतर एशियाई शहरों में सूरज की २५ प्रतिशत किरणें धरती तक पहुंच ही नहीं पाती हैं, क्योंकि प्रदूषण की वजह से बने भूरे बादल उन्हें आकाश में ही रोक देते हैं । ये बादल कभी - कभी तो ३ किलोमीटर गहरे होते हैं । इससे सबसे अधिक प्रभावित शहर चीन का ग्वानजाउ है, जो १९७० से ही धुएं के बादलों से घिरा हुआ है । इसके अलावा जिन शहरों पर सबसे अधिक खतरा है , वे हैं बैंकका, बीजिंग, ढाका, कराची, कोलकाता, मुम्बई, दिल्ली, सिओल, शंघाई, शेनजाउ और तेहरान । इस रिपोर्ट के अनुसार इन बादलों में मौजूद टॉक्सिक पदार्थोंा की वजह से चीन में प्रतिवर्ष ३,४०,००० लोग मारे जाते हैं । ये टॉक्सिक पदार्थ हिन्दूकुश और हिमालय पर्वत श्रृंखला के लिए भी खतरा हैं । इससे यहां के ग्लेशियर तेजी से पिघलते जा रहे हैं । ऐसा खतरा यूरोपीय और अमरीकी महाद्वीप के देशों पर भी है , परंतु वहां होने वाली शीतकालीन वर्षा और बर्फ की वर्षा इन बादलों को मिटा देती है लेकिन एशियाई शहरों में बर्फीली वर्षा नहीं होती है और वहां भूरे बादलों का खतरा लगातार बढ़ रहा है ।
पक्षियों का प्रेम गीत कुछ मनुष्य असीम आनंद पाने के लिए दवाइयों और अल्कोहल का सहारा लेते हैं । उसी तरह नर चिड़िया किसी मादा चिड़िया को रिझाने के लिए गाना गाते समय जिस आनंद की अनुभूति करती है, वह उसे शायद अकेले गाते हुए कभी प्राप्त् नहंी हेाता । जेब्रा फ्रिंच एक गाने वाली चिड़िया है, जो समूह में रहती है ।जापान के राइकेन ब्रेन साइन्स इंस्टीट्यूट के नील हेसलर और या-चुन हांग ने अपने अध्ययन में पाया कि जब नर जेब्रा फिंच किसी मनचाही संगिनी के लिए गाता है तो उसके दिमाग के एक विशेष हिस्से की तंत्रिकाएं सक्रिय हो जाती हैं । इस हिस्से को वीटीए कहते हैं । मानव मस्तिष्क का इसी के समतुल्य हिस्सा तब सक्रिय होता है जब वे कोकेन जैसी नशीली दवाईयों का सेवन करते हैं ।इससे दिमाग डोपामीन नामक एक पदार्थ बनाकर स्रावित करता है जिसे मस्तिष्क का पारितोषिक रसायन भी कहते हैं । फ्रिंच के मस्तिष्क में डोपामीन के स्रवण से वह क्षेत्र सक्रिय हो जाता है जो गायन और सीखने की प्रक्रिया का समन्वयन करता है ।दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि ऐसी स्थिति में गाना फिं्रच के लिए पारितोषिक की अनुभूति प्रदान करता है जिसके फलस्वरूप फिं्रच और गाने के लिए प्रोत्साहित होता है । हेसलर कहते हैं कि यह एक प्रत्यक्ष प्रमाण है कि मादा चिड़िया के लिए गीत गाना नर चिड़िया के लिए पारितोषिक पा लेने की भावना जगाता है। इसके साथ ही वह जोड़ते हैं कि यह कोई आश्चर्यजनक बात नहंी है क्योंकि पक्षियों में इस तरह की प्रणय प्रार्थना प्रजनन के समय बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । नार्थ कैरोलिना के ड्यूक विश्वविद्यालय के पक्षी तंत्रिका विज्ञानी एरिक जारविस के अनुसर इस अध्ययन से पता चलता है कि नर पक्षी का गायन उसके तंत्रिका संचानर और वी.टी.ए. में स्थाय परिवर्तन कर सकता है । जारविस का मानना है कि अभी यह कहना कठिन है कि नर का मस्तिष्क क्या वाकई में ज़्यादा खुश होता है । दूमसरी ओर , हेसलर सोच रहे हैं कि इसी प्रकार के प्रयोग मादा फिंच के साथ करके यहदेखें कि इस प्रकार की प्रणय ' नप्रक्रिया क्या मादा को भी समान रूप से आनंदित करती है ।
उड़ान में सुविधा देते हैं ड्रेगन फ्लाई के पंख ड्रेगन फ्लाय को बच्च्े हेलिकॉप्टर कीड़े के नाम से भी जानते हैं। यह बिल्कुल हेलिकॉप्टर की तरह दिखता है । हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया कि इसकी उड़ान थोड़ी अनोखी है । इसके पंख लगभग पारदर्शी और काफी सख्त होते हैं । जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के उड़ान इंजीनियर अबेल वर्गास और उनके सहयोगियों का विार है कि ड्रेगन फ्लाई के पंखों की अनोखी रचना उन्हें उड़ने मे विशेष सुविधा प्रदान करती है । दरअसल ड्रेगन फ्लाई के पंख ऐसे बिल्कुल नहीं दिखते कि वेउड़ान के लिए ज़रूरी स्ट्रीमलाइन्ड सांचे में ढले हैं जिसका उपयोग हवाईजहाज उद्योग बरसों से करता आ रहा है । ड्रेगन फ्लाई के पंख कोरूगेटेड होते हैं यानी इन पर उभरी हुई धारियां होती हैं । इन्हीं धारियों की वजह से इन पंखों को लंबाई में बिल्कुल मोड़ा नहीं जा सकता । यह बात को काफी समय से पता थी मगर यह किसी ने नहीं सोचा था कि इस तरह की रचना से उड़ान में क्या मदद मिलती होगी । यही पता करने के लिए अबेल वर्गास व साथियों ने ड्रेगन फ्लाई ईश्चना साएनिया के मॉडल तैयार किए । ये मॉडल कम्प्यूटर मॉडल थे । इन मॉडल्स को तरल गति साइमुलेटर में उड़ाया गया । यह एक ऐसा उपकरण होता है जिसमें तरल पदार्थोंा की गति की अनुकृति बनाई जा सकती है । ऐसा करने पर उन्होंने देखा कि ड्रेगन फ्लाई के पंख की धारियां उसे बढ़िया उठाव यानी लिफ्ट प्रदान करती हैं । आम तौर पर ग्लाइडिंग उड़ान भरते समय इतना उठाव नहीं मिलता । इन धारियों वाले पंखों में जितन उठाव मिलता है वह सामान्य स्ट्रीमलाइन्ड पंखों से भी बेहतर पाया गया। वर्गास का मत है कि इसका कारण यह है कि जब हवा इन पंखों पर गुजरती है , तो वह धारियों के बीच धंसे हुए हिस्सों में बहती है । इसका परिणाम यह होता है कि न्यूनतम ड्रेग वाले हिस्से बन जाते हैं जो उठाव को बढ़ावा देते हैं । ड्रेग वह बल है जो चीज़ों को पीछे की ओर धकेलता है । इस खोज से शोधकर्ता इतने उत्साहित है कि उनका कहना है कि छोटे साईज़ (यानी हाथ की साईज़) के टोही विमानों में इस तरह की संरचना का उपयोग करके उनकी उड़ान क्षमता बढ़ाई जा सकती है और उन्हें अधिक शक्तिशाली भी बनाया जा सकता है । ***

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