सोमवार, 11 अगस्त 2014



रविवार, 10 अगस्त 2014

प्रसंगवश
करोड़ों खर्च होने के बावजूद नदियां प्रदूषित
दीपक रंजन 
    केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार गंगा समेत विभिन्न नदियों की सफाई पर जोर दे रही है और पिछले १० वर्षो में विभिन्न राज्यों में गंगा और यमुना की सफाई पर ११५० करोड़ रूपये खर्च होने के बावजूद स्थिति चितांजनक बनी हुई है ।
    सूचना का अधिकार कानून के तहत राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय से प्राप्त जानकारी के अनुसार इस अवधि में दिल्ली मंे यमुना की सफाई पर ३२२ करोड़ रूपए, हरियाणा में ८५ करोड़ रूपए, उत्तरप्रदेश में गंगा यमुना, गोमती की सफाई पर ४६३ करोड़ रूपए, बिहार में गंगा की सफाई पर ५० करोड़ रूपए खर्च किए जा चुके हैं । जानकारी अनुसार ''गुजरात में साबरमती नदी के संरक्षण पर पिछले १० वर्षों में ५९ करोड़ रूपए खर्च हुए जबकि कर्नाटक में भद्रा, तुंगभद्रा, कावेरी, तुंगा नदी की सफाई पर ३९.४ करोड़ रूपए खर्च हुए ।`` महाराष्ट्र में कृष्णा गोदावरी, तापी, पंचगंगा के संरक्षण पर २०००-०१ से २००९-२०१० के बीच १०७ करोड़ रूपए खर्च हुए । मध्यप्रदेश मंे बेतवा, तापी, बाणगंगा, नर्मदा, कृष्णा, चंबल, मंदाकिनी की साफ सफाई पर ५७ करोड़ रूपए खर्च किए गए ।
    प्राप्त जानकारी के अनुसार पंजाब में सतलज नदी के संरक्षण पर इस अवधि में १५४.२५ करोड़ रूपए खर्च किए गए जबकि तमिलनाडु में कावेरी, अडयार, बैगी, वेन्नार नदियों की साफ सफाई पर ६१५ करोड़ रूपए खर्च किए   गए । उत्तराखण्ड में गंगा नदी के संरक्षण पर १० वर्षो में ४७ करोड़ रूपए खर्च किए गए जबकि पश्चिम बंगाल में गंगा, दामोदर, महानंदा के संरक्षण पर इस अवधि में २६४ करोड़ रूपए खर्च हुए ।
    हिसार स्थित आरटीआई कार्यकर्ता रमेश वर्मा ने राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय से देश में नदियों के संरक्षण पर खर्च का ब्यौरा मांगा था जिसके जवाब में यह जानकारी मिली । आरटीआई से तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार साल २००० से २०१० के बीच देश के २० राज्यों में नदियों के संरक्षण पर राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना के तहत २६०७ करोड़ रूपए जारी किए गए । राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना के दायरे में २० राज्यों की ३८ नदियां आती है ।
    केन्द्रीय जल संसाधन एवं गंगा पुनर्जीवन मंत्री उमा भारती ने कहा कि नरेन्द्र मोदी जब बनारस पहुंचे तब उन्होंने गंगा को निर्मल बनाने की सोच पेश की । इस विषय के महत्व को देखते हुए नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में सरकार बनने के बाद गंगा के विषय पर मंत्रालय में अलग विभाग बना दिया गया । गंगा पर तैयार मापदण्ड अन्य नदियों पर भी लागू होंगे । सुश्री उमा ने कहा कि पूरे देश के पर्यावरणविदो, जल संसाधनों के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों, साधु संतों, वैज्ञानिकोंके समूहों एवं अन्य शिक्षाविदांे को ''गंगा मंथन`` कार्यक्रम से जोड़ा जाएगा ।                                                                            
सम्पादकीय 
वैज्ञानिक शोध में खुलेपन की घोषणा
    चीन के राष्ट्रीय प्राकृतिक विज्ञान प्रतिष्ठान और चीनी विज्ञान अकादमी ने पिछले दिनों घोषणा की कि जो शोधकर्ता उनके वित्तीय सहयोग से शोध कार्य करते हैं, उन्हें अपने शोध पत्र को प्रकाशन के एकसाल के अंदर सार्वजनिक दायरे में लाना होगा । गौरतलब है कि उक्त दो संस्थाएं चीन में अधिकांश वैज्ञानिक शोध को वित्तीय सहायता देती हैं ।
    आजकल दुनिया भर में वैज्ञानिक शोध संबंधी प्रकाशनों को सार्वजनिक दायरे में रखे जाने की मुहिम चल रही है । कई देश पहले ही इस आशय की घोषणाएं करके व्यवस्थाएं बना चुके हैं । अन्य देश भी इसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं । मसलन यूएस के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने पहले ही यह नियम बना दिया है कि उसके पैसे से किए जाने वाले शोध से तैयार हुए शोध पत्रों को एक वर्ष के अंदर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध किसी ऑनलाइन शोध पत्रिका मेंप्रकाशित करना होगा । इसी प्रकार से ब्रिटेन में तो प्रकाशन के दिन से ही शोध पत्र को खुला रखना होगा ।
    चीन द्वारा लिए गए निर्णय के महत्व को इस परिप्रेक्ष्य मेंदेखा जाना चाहिए कि पिछले कुछ वर्षोमें वैज्ञानिक शोध पत्रों में उसका योगदान तेजी से बढ़ा है । मसलन, साइन्स साइटेशन इंडेक्स के डैटाबेस से पता चलता है कि चीन में २००३ में कुल ४८००० शोध पत्र प्रकाशित हुए थे जो दुनिया भर में प्रकाशित कुल शोध पत्रों में से ५.६ प्रतिशत थे । तुलना के लिए देखें  कि वर्ष २०१२ में चीन से १,८६,००० शोध पत्र प्रकाशित हुए जो कि विश्व के कुल शोध पत्रों में से १३.९ प्रतिशत थे ।
    चीनी वैज्ञानिकों द्वारा प्रकाशित उपरोक्त शोध पत्रों में से ५५.२ प्रतिशत के लिए वित्तीय समर्थन राष्ट्रीय प्राकृतिक विज्ञान प्रतिष्ठान से मिला था । इसके अलावा चीनी विज्ञान अकादमी से जुड़े वैज्ञानिकों ने १८,००० शोध पत्र प्रकाशित किए थे और ये शोध पत्र सिर्फ वे हैं जो साइंस साइटेशन इंडेक्स में शामिल हुए हैं । इनके अलावा बड़ी संख्या में शोध पत्र अन्य स्थानीय जर्नल्स में प्रकाशित हुए हैं । तो चीन की उक्त दो अग्रणी विज्ञान संस्थाआें द्वारा किए गए खुलेपन के निर्णय का व्यापक असर होगा । भारत में भी कृषि अनुसंधान परिषद समेत कई संस्थाआें ने खुलेपन की नीति को अपना लिया है ।
सामयिक
उड़ती नदी और बहता बादल
मीनाक्षी अरोड़ा/केसर
    मानसून प्रति वर्ष घटने वाली ऐसी शुभ घटना है जिसका हमारे देश व हम पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है । मानसून का आगमन अपने आप में एक उत्सव है । इसका  आभास ही हमें उत्फूल्लता प्रदान करता है । हमारी कृषि भी मानसून पर ही निर्भर है । 
    मेघ ही वह कहार हैं, जो प्रत्येक नदी-नाला और कुआं-बावड़ी सहित हर जलस्त्रोत को तृप्त कर सबमें पानी भरते हैं । मेघ प्रति वर्ष यह काम कश्मीर से कन्याकुमारी तक अनथक करते हैं । मेघ बहुत साहसिक कहार हैं । यह खूब भारी डोली यानी ढ़ेर सारा तरल वाष्प लेकर हजारों मील दूर से भारत की यात्रा की शुरुआत करते हैं । हमारे यहां मानसून हिंद महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से आता है । कभी-कभी मानसून जम्मू-कश्मीर की सीमाओं को पार कर पाकिस्तान होते हुए ईरान की ओर यात्रा पर चला जाता है, तो कभी पूर्वी सीमा पार कर जापान की ओर । दिल्ली तक आते-आते ये मेघ लगभग पच्चीस सौ से चार हजार किलोमीटर की यात्रा कर चुके होते हैं । बूंद, बारिश, मेघ और मानसून के  इस मिले-जुले खेल का रूप है वर्षा   ऋतु ।  प्रकृति ने धरती की सतह का दो-तिहाई समुद्र बनाया है । पानी की कोई कमी नहीं छोड़ी है । सूरज के तपने से जल के हर रूप का वाष्पीकरण होता रहता है । वाष्पित होकर दक्षिण के  विशाल सागरों में विशाल आकाशी 'जलवाष्प` भंडारों का निर्माण होता रहता है ।
     सूरज का उत्तरायण और दक्षिणायन की दिशा लेना भारतीय मानसून के लिए बहुत महत्वपूर्ण है । मकर संक्रांति हमारे मानसून का एक क्रांतिकारी दिन है । इसी दिन सूरज की किरणें दक्षिण से उत्तर की दिशा की ओर बढ़ने लगती हैंऔर मैदानी इलाकों के मौसम में गर्मी आनी शुरू हो जाती है । धीरे-धीरे मार्च, अप्रैल व मई माह में सूरज की किरणें धरती की कर्क रेखा के नजदीक आती जाती  हैं । यानी, धरती के उत्तरी भूभागों में तपिश और गर्मी बढ़ती जाती है । ठीक इसके उलट, धरती के दक्षिणी हिस्सों में तापमान कम होता जाता है । धरती के उत्तरी हिस्सों में हवाएं गर्म होकर वायुमंडल में बहुत ऊपर की ओर उठने लगती हैं । इससे एक खालीपन बन जाता है जिसे मौसम विभाग के लोग 'डिप्रेशन` कहते हैं । यह डिप्रेशन ही अरब की खाड़ी और हिंद महासागर से 'जलवाष्प` भंडारों को उत्तर की ओर बुलाता है ।
    तापमान के इस बारीक से अंतर से मानसून के किसी एक आम दिन मेघ रूपी कहार ७५०० करोड़ टन जलवाष्प भारत के मैदानों की ओर लेकर आते हैं । औसतन प्रतिदिन  २५०० करोड़ टन पानी बूंद के रूप में धरती पर बरसता हैं । वार्षिक भारतीय मानसून में लगभग ४ लाख करोड़ टन पानी सागर से उठकर आसमान में उड़ते हुए भारत की धरती पर आता    है । सागर की अथाह जलराशि से भाप की बूंदें बनने के क्रम को हम देख नहीं सकते, लेकिन जब सागर से विशाल जलवाष्प लेकर मेघ कहार चलते हैं, तो जलवाष्पों से बने बादलों के कई-कई रूप हमें दिखाई देने लगते हैं ।
    बादलों के रूप में पानी की यह विशाल राशि हर साल भारत की धरती पर बरसती है । यह व्योम-प्रवाही गंगाजल होता है । हम इसे गंगाजल कहेंगे, क्योंकि इस जल से ज्यादा शुद्ध, किसी नदी-नाले की तो बात छोड़िए, बड़ी कंंपनियों का बोतलबंद पानी भी नहीं होता । वर्षा जल को कई वर्षों तक के लिए आप रख दीजिए वह खराब नहीं होगा । शुद्धता और गुणवत्ता के  हर मानक पर यह सबसे उत्कृष्ट जल है । अमृतलाल बेगड़ के शब्दों में -
पानी, जब समुद्र से आता है तब बादल
और जाता है तो नदी कहलाता है ।
बादल उड़ती नदी है, नदी बहता बादल है !
    भारतीय कहानियों में आकाश से गंगा के आने का संदर्भ हमें मिलता है, पर हम शायद इस घटना को एक पुरानी घटना के रूप में ही याद रखने लगे हैं । जरूरत है कि हर साल आकाश से उतरने वाली 'आकाशी गंगा` को हम गहरे तक याद रखें, तन-मन से उसका स्वागत करें और भगीरथ की तरह उसको रास्ता दिखाएं ।
    यह कहार बारिश की विशाल जलराशि को दक्षिण से उत्तर तक यानी कन्याकुमारी से कश्मीर तक बरसाते घूमते रहते हैं । मेघों को बुलाने के लिए लोग तरह-तरह से श्रद्धावनत जतन करते रहते हैं । कहीं नई बहुएं हल चलाने का उपक्रम करती हैं । कहीं छोटे बच्चें की नंग-धडंग टोली गांव में 'मेघा सारे पानी दे, नाहीं त आपन नानी दे` गाते घूमती है, तो कहीं यज्ञ या अल्लाह की खास इबादत कर मेघों के आने की दुआ मांगी जाती    है ।
    मेघों के पास जहां का संदेश पहुंचा वहां ज्यादा बरस जाते हैं, तो बाज वक्त  कुछ इलाकों में कम बरसते हैं या उन्हें बिसरा भी जाते हैं । यह ज्यादा-कम होने का खेल प्रकृति का अपना ही है । इस पर कोई सवाल करना बेमानी ही होगा । पिछले वर्ष बुंदेलखंड में औसत आठ  सौ मिमी. से करीब डेढ़ गुना, यानी लगभग साढ़े ग्यारह सौ मिमी. तक बारिश हुई । कोई-कोई साल बुंदेलखंड का ऐसा भी होता है, जब पांच सौ मिमी. से कम भी बारिश होती है । जरूरी है कि प्रकृति के इस खेल को समझें । जब ज्यादा पानी आए तो ताल-तलैयों को भर लें और जब भी कमी या अकाल का साल आ पड़े तो उससे काम चला लें ।
    नए विज्ञान उर्फ सिविल इंजीनियरिंग के चश्मे से देखें । अब तो बस हम इंतजार करते हैं कि आकाशगंगा का दिया हुआ पानी पठार-पहाड़ गांव-गिरांव, खेत-खलिहान से होता हुआ जब नदी में आए तब हम एक बड़े बांध में उसे रोकें और नहर बनाकर खेतों में पहुंचाएं । जब हमारे खेतों में बारिश का पानी आता है, तो उस समय क्या करना है यह अभी भी ठीक से किसी नए विज्ञान का विषय बन नहीं पाया है । 'खेत का पानी खेत में` व खेत की जरूरत पूरा होने के बाद बारिश का पानी प्यार से धरती के पेट में पहुंचाने की जरूरत है । फिलहाल तो पहले पानी बांधों में जमा होता है, फिर बड़ी नहरों, छोटी नहरों, माइनर कैनाल और कुलावों से होता हुआ जब हमारे खेतों में पहुंचता है, तो कुल बारिश का लगभग दसवां हिस्सा ही हमारे काम में आ पाता है । लेकिन यदि हम 'खेत का पानी खेत में और बाकी धरती के पेट में` वाला मंत्र अपना लेते हैं, तो बारिश के एक-तिहाई या आधे पानी तक का उपयोग कर सकते हैं । 
    सिंचाई, सीवेज, जल वितरण की जितनी भी पद्धतियां हैं सब में प्रमुख सोच धरती के नदी जल और भूजल के उपयोग की है । 'नदी जोड़' जैसी अव्यावहारिक योजनाएं ऐसी ही सोचों का परिणाम हैं । मध्यप्रदेश में नर्मदा का पानी शिप्रा में डालकर 'शिप्रा` को तथाकथित जीवनदान दिया गया है । शिप्रा का अर्थ होता है 'तेज बहने वाली नदी`। नर्मदा का पानी डालकर शिप्रा को बहाने की कितनी सार्थक होगी ? अफवाह-तंत्र के विपरीत नर्मदा का पानी शिप्रा में डालने के  लिए चार बार पंप करना पड़ता है । पंपिंग मशीनों को चलाने को लिए काफी ऊर्जा की जरूरत होती है। मध्यप्रदेश सरकार के अनुसार लगभग १०८ करोड़ रुपये हर वर्ष ऊर्जा पर खर्च होगा । वैसे भी यह भी सरकार का पुराना अनुमान है। सरकार पनबिजली, परमाणु, डीजल और कोयला जलाकर कब तक यह ऊर्जा लेती रहेगी ? हालांकिउस पूरे इलाके की औसत वार्षिक वर्षा लगभग ८०० मिमी है, जबकि दिल्ली की औसत वार्षिक वर्षा ७०० मिमी के आसपास ही है ।
    गंगा-अवतरण के लिए भगीरथ बनने पर गंगा का आशीर्वाद आज भी मिलता है । जहां भी प्यार से, श्रद्धा से आकाशी गंगा को किसी ने सहेजा, वहां आज भी एक नई गंगा प्रकट हो ही जाती हैं । जिसे भी देखना है, वह पौढ़ी गढ़वाल के ऊफरैखाल गांव में जाए । वहां अभी एक-दो दशकों के अंदर ही एक नई गंगा उद्गमित, अवतरित हुई हैं । यही मुक्ति  का मार्ग भी है ।
हमारा भूमण्डल
छोटे किसानों से ही होगी खाद्य सुरक्षा
सिल्विया के
    विकासशील विश्व का अनुभव बताता है कि छोटे एवं सीमांत किसानों के माध्यम से ही खाद्यसुरक्षा और खाद्य सार्वभौमिकता सुनिश्चित की जा सकती है । वहीं दूसरी ओर महाकाय खाद्य व्यापार कंपनियां बहुत तेजी से विश्व खाद्य व्यापार को अपने कब्जे में लेती जा रही हैं । इसका भविष्य में अत्यंत नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और निर्धन लोगों का जीवन कमोवेश असहृय हो जाएगा।
    दक्षिण अफ्रीका के सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्मगुरु डेसमंड टूटू ने एक बार अपनी विशिष्ट शैली में कहा था, `यदि किसी हाथी का पैर चूहे की पूंछ पर पड़ जाए और आप यह कहें कि आप तटस्थ हैं, तो चूहा ऐसी तटस्थता को पसंद नहीं करेगा ।` उनकी यह सपाटबयानी अब खासतौर पर प्रासंगिक हो गई है, क्योंकि रोम में होने वाली संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य सुरक्षा समिति की बैठक वर्तमान खाद्य संकट और भूमि हथियाने की अभूतपूर्व लहर के मध्य `जवाबदेह कृषि निवेश` (आईएआई) को भी परिभाषित करेगी ।
    जब बात कृषि और भोजन की हो तो यहां कृषि व्यापार ही हाथी है । केवल तीन कंपनियों के पास व्यावसायिक बीज बाजार का ५० प्रतिशत हिस्सा है और मात्र चार कंपनियोंके नियंत्रण में वैश्विक खाघान्न और सोया व्यापार की ७५ प्रतिशत हिस्सेदारी है । इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तर्क यह है कि राज्य की भूमिका एक तटस्थ बिचौलिये की होना चाहिए और वह कृषि में प्राथमिक निजी निवेश को प्रोत्साहित करें । वे `जिम्मेदार निवेश` हेतु मार्गदर्शिका स्वीकार करने को तैयार तो हैं,  लेकिन चाहते हैं कि यह सब कुछ प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के बढ़ते स्तर और राष्ट्रीय कृषि क्षेत्रों के वैश्विक उत्पाद श्रृंखलाओं एवं बाजारों के और अधिक समावेश के साथ हो । यह तो सामान्य व्यापारिक पहल है जो कि जवाबदेह कृषि निवेश सिद्धांतों को वर्तमान में  विद्यमान कृषि व्यापार गतिविधियों के सांचे में ढालना चाहती है ।
    हालांकि ये सिद्धांत कुछ निगमों के लाभ में वृद्धि करेंगे, लेकिन प्रमाण बताते हैंकि ये सभी को पर्याप्त भोजन के अधिकार को प्राप्त करने हेतु खाद्यसुरक्षा पर गि त समिति के मन्तव्य की पूर्ति नहीं कर पाएंगे । वर्तमान में विश्व में प्रत्येक आठ में से एक व्यक्ति अल्पपोषित है और हाल के वर्षों में स्थितियां बद्तर ही हुई हैं। वास्तविकता यह है कि वैश्विक बाजारों पर  निर्भरता ने ही भावों को सन् २००७ में उस स्तर पर पहुंचा दिया था जिसका अनुभव हमने वास्तविक अर्थों में सन् १८४६ के बाद से अब तक कभी नहीं किया था । इससे न केवल अतिनिर्धनता में रहने वालों की संख्या में १३ से १५ करोड़ की वृद्धि हुई, बल्कि इससे वैश्विक दक्षिण (विकसित राष्ट्रों) की सरकारों द्वारा खाद्य दंगों से सुरक्षा हेतु भूमि हथियाने की लहर में अभूतपूर्व तेजी आई और दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय निगम आने वाली कमी से लाभ कमाने पर गिद्ध दृष्टि गढ़ाए बैठे हैं।
    याद रखिए, छोटी जोत वाला किसान इस मामले में `चूहा` है । लेकिन वे केवल पीड़ित नहीं हैं, बल्कि वे खाद्यसुरक्षा हेतु सर्वाधिक प्रगतिशील समाधान भी उपलब्ध कराते हैं। अनुमान है कि विकासशील विश्व में तकरीबन ५० करोड़ सीमांत किसान हैं जो कि दो अरब लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं एवं एशिया एवं उप सहारा अफ्रीका में उपयोग होने वाले भोजन का करीब ८० प्रतिशत तक उत्पादित भी करते हैं। ये छोटे किसान ही हैं जो कि वास्तव में वैश्विक खाद्यसुरक्षा में योगदान करते हैं।
    `जिम्मेदार कृषि निवेश` को लेकर होने वाले किसी भी अंतरराष्ट्रीय समझौते को इस बात से प्रारंभ किया जाना चाहिए कि किस तरह इन छोटे स्तर पर खाद्य उत्पादन करने वालों को सशक्त किया जाए, न कि बेदखल ।  ट्रांसनेशनल इंस्टीट्यूूट की हालिया रिपोर्ट `कृषि निवेश का पुनर्दावा` के  अंतर्गत ब्राजील से घाना और अमेरिका से थाइलैण्ड तक राज्य-किसान सहयोग के विकल्पों का अध्ययन किया गया । अध्ययन में बताया गया है कि जब राज्य सही नीतियां बनाता है और छोटे स्तर पर कार्यरत खाद्य उत्पादकों को निवेश में सहायता करता है, तो इसके जबर्दस्त सकारात्मक परिणाम सामने आते हैं।  ब्राजील का जीरो हंगर (भूख रहित) कार्यक्रम, जिसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य, पोषण, सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा एवं आजीविका प्रोत्साहन को एक साथ जोड़ा गया है, पिछले एक दशक में इस देश के लोगों के जीवनस्तर में प्रभावशाली सुधार का एक बड़ा कारण है । इस जीरो हंगर कार्यक्रम ने छोटे किसानों के लिए सफलतापूर्वक नए बाजार खोल दिए एवं उन्होंने राष्ट्रीय खाद्यसुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । विद्यालयीन भोजन कार्यक्रम के  अंतर्गत ब्राजील की प्रत्येक नगरपालिका को प्रत्येक विद्यार्थी के हिसाब से सब्सिडी मिलती है और इसमें से ७० प्रतिशत  नगरपालिकाएं, असंवर्धित खाद्य यानि खाद्यान्न के रूप में खरीदती हैंऔर इसका ३० प्रतिशत स्थानीय खेतों से आता है ।
    छोटे किसानों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली टिकाऊ कृषि पारिस्थितिकी पर आधारित कृषि तकनीकों को सरकार द्वारा प्रोत्साहित किए जाने से कृषि से पर्यावरण और जलवायु पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों में भी कमी आती है । भारत सरकार भी टिकाऊ धान सघनीकरण (एसआर आई) प्रणाली को प्रोत्साहित कर रही है,जिसमें जैविक खादों एवं विभिन्न प्रकार की कृषि पारिस्थितिकी तकनीकों का प्रयोग होता है एवं इससे रिकार्ड उपज प्राप्त हो रही है । इसके  बावजूद पारंपरिक चावल शोध संस्थानों एवं निजी शोध एवं विकास उद्योग द्वारा एसआरआई की अनदेखी की जा रही है, क्योंकि इससे कृषि व्यापार आपूर्तिकर्ताओं के हितों को खतरा पैदा होता है ।
    अक्सर यह मान लिया जाता है कि राज्य द्वारा छोटे कृषि उत्पादकों की सहायता करने से लागत अधिक होंगी एवं उपभोक्ताआें को अधिक मूल्य देना पड़ेगा । परंतु सार्वजनिक नीति को लचीले रूप में प्रयोग में लाया जाए तो दोनों ही समूह लाभान्वित हो सकते हैं । खाद्यसंकट से निपटने की सर्वाधिक प्रभावशाली रणनीतियों में शामिल हैं, सार्वजनिक भंडारण का इस्तेमाल एवं मुख्य खाद्य उत्पादों हेतु उत्पादकों के लिए न्यूनतम एवं उपभोक्ताओं के लिए अधिकतम मूल्य निर्धारित करना । इन तरीकों का इस्तेमाल करने से वर्ष २००८ में जब पड़ौसी देशों में अन्न के दाम बढ़ रहे थे तब इंडोनेशिया में इनके दामों में कमी आ रही थी ।
    हमेशा होने वाला सामान्य व्यापार कोई विकल्प नहीं है। अब समय आ गया है जबकि राष्ट्रों को अपनी झूठी तटस्थता को समाप्त करना होगा और पक्ष लेना होगा । वे किसी ऐसे मॉडल को प्रोत्साहित न करें जो कि मूलत: लोकतंत्र विरोधी है और जिसमें इस बात की पूरी संभावना है कि वह चुनिंदा विशालतम संवर्धकों, व्यापारियों एवं खुदरा व्यापारियों के माध्यम से `कृषि एकाधिकार` को और विस्तारित करने विश्व खाद्य प्रणाली को हथियाना चाहता है । सरकारों को ऐसे जवाबदेह कृषि निवेश के सिद्धांतों के प्रति समर्पित होना चाहिए, जो कि विश्व किसान परिवार की स्थिति को मजबूत करते हों और खाद्य सार्वभौमिकता के विचार को आगे बढ़ाते हों ।
स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
निर्माण मजदूरों का आर्थिक अहित
भारत डोगरा/रीना मेहता
    भारत सरकार ने निर्माण मजदूरों के हितार्थ दो कानूनों के  अंतर्गत उपकर का प्रावधान किया । इस कोष का उपयोग मजदूरों को सामाजिक व स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करना था । अफसोसजनक है कि सर्वप्रथम इस कोष में उम्मीद से आधा पैसा ही इकट्ठा हुआ और दूसरा यह इसका ८५ प्रतिशत खर्च ही नहीं किया गया ।
    सौ दो सौ फीट की ऊंचाई पर बहुमंजिला इमारतों के निर्माण में लगे श्रमिकों को देखकर हम यह सोचकर सिहर उठते हैंकि असावधानी से उठा एक भी कदम का अंजाम मौत हो सकता है । हम उनके बच्चें को निर्माण स्थलों के आसपास की धूल मिट्टी में बिलखते हुए देखते हैं। मेहनत-मशक्क्त में लगी उनकी मां को उन्हें बहलाने तो क्या, दूध पिलाने तक की फूरसत मुश्किल से मिलती है । हमारी नजरों से परे दूर-दराज के दुर्गम पहाड़ों और वीरान इलाकों में वे कहीं बांध बना रहे होते हैंतो कहीं पुल, कहीं सुरंगें तो कहीं सड़कें । इन कार्यों में वे तरह तरह के जोखिम और कभी कभी तो आतंकवादियों की गोलियों तक को झेल रहे होते हैं। 
     भारत के ४.५ करोड़ निर्माण मजदूर गगनचंुबी इमारतें बनाते हुए भी स्वयं झोपड़ियों में रहने को  मजबूर हैं। तरह-तरह की दुर्घटनाओं और जोखिमों के साए में उनकी दिनचर्या चलती ही रहती है । इन निर्माण मजदूरों का दुख-दर्द बांटने के स्थान पर प्रति महीने उनके हक के  करोड़ों रुपए उनसे छीने जा रहे हैं।
    अनेक वर्षों की देरी के बाद वर्ष १९९६ में हमारी संसद ने निर्माण मजदूरों की बहुपक्षीय भलाई के लिए दो महत्वपूर्ण कानून 'भवन व निर्माण मजदूर (रोजगार व सेवा स्थितियों का नियमन) अधिनियम १९९६` व 'भवन तथा अन्य निर्माण मजदूर कल्याण उपकर अधिनियम, १९९६` पारित किए । विभिन्न केन्द्रीय श्रमिक संगठनों की भागीदारी से निर्माण मजदूरों की राष्ट्रीय अभियान समिति के १२ वर्षों तक सतत् प्रयास के बाद यह अधिनियम बने थे । इन कानूनों में यह व्यवस्था भी है कि जो भी नया निर्माण कार्य हो, उसकी कुल लागत के एक प्रतिशत का उपकर लगाया जाए और इसे निर्माण मजदूरों के  कल्याण बोर्ड में जमा किया जाए । इस धनराशि से निर्माण मजदूरों की भलाई के बहुपक्षीय कार्य जैसे पेंशन, दुर्घटना के वक्त सहायता, आवास कर्ज, बीमा, मातृत्व सहायता, बच्चें की शिक्षा आदि किए जाएं ।
    इन दो कानूनों के अन्तर्गत विभिन्न निर्माण मजदूरों का रजिस्ट्रेशन किया जाएगा व उपकर से प्राप्त धनराशि से उन्हें सामाजिक सुरक्षा के विभिन्न लाभ उपलब्ध करवाए जाएंगे । यह कानून इस तरह का है कि जैसे-जैसे निर्माण कार्य बढ़ेंगे या महंगाई बढ़ेगी, मजदूरों की भलाई के लिए उपकर के माध्यम से जमा पैसा भी अपने आप बढ़ता   रहेगा ।
    इस विशेष कानून के पारित होने से उम्मीद बंधी थी कि इससे निर्माण मजदूरों और उनके परिवार के सदस्यों के लिए पर्याप्त धनराशि प्राप्त हो सकेगी । कुछ हद तक यह उम्मीद पूरी हुई भी है, पर कानून के  क्रियान्वयन में कमियों के दौरान निर्माण मजदूर प्रतिवर्ष सैंकड़ों करोड़ रुपए के लाभ से वंचित हो रहे हैं जिससे बीमार मजदूरों के इलाज व उनके बच्चें की शिक्षा जैसे जरूरी कार्यों के लिए उपलब्ध पैसा उन्हें नहीं मिल पा रहा है या बहुत कम मिल रहा है ।
    इन कानूनों के क्रियान्वयन में बहुत देरी हुई व पहले १५ वर्षों के  दौरान प्रगति भी बहुत धीमी रही । मजदूरों की भलाई के लिए जमा हुई धनराशि अधिकांश राज्यों में अनुमानित राशि से बहुत कम थी । अनुमान लगाया गया है कि निर्माण मजदूर प्रतिवर्ष सैंकड़ों करोड़ रुपए कानूनी तौर पर मान्य धन से वंचित हुए हैं। इतना ही नहीं, जितनी धनराशि जमा हुई है, उसमें से अधिकांश धनराशि अधिकतर राज्यों के निर्माण मजदूर बोर्डों ने अभी खर्च नहीं की  है । इस तरह एक ओर तो निर्माण मजदूर व परिवार स्वास्थ्य सेवा व शिक्षा जैसे जरूरी लाभ से वंचित हो रहे हैं तथा दूसरी ओर कोष में धनराशि बिना खर्च किए रखी है । मजदूरों के रजिस्ट्रेशन का काम काफी पीछे चल रहा है जिससे अनेक जरूरतमंद मजदूर अभी इस लाभ के  हकदार ही नहीं बन पाए हैं।
    संसद की श्रम पर स्थाई समिति ने निर्माण मजदूरों के कानून पर अपनी ४५ वीं रिपोर्ट (मार्च २०१४) में बताया है कि उपलब्ध नवीनतम जानकारी के अनुसार उपकर द्वारा देश भर में ९९७३ करोड़ रुपए की राशि प्राप्त हुई जिसमें से मात्र १२६५ करोड़ रुपए की राशि ही खर्च की गई। उपरोक्त में से ८००० करोड़ रुपए तो खर्च होना चाहिए था यानि ६७०० करोड़ रुपयों का अतिरिक्त लाभ मजदूरों को मिल सकता था, जो उन्हें अभी तक नहीं मिला ।
    पर यह तो इस त्रासद कहानी का अपेक्षाकृत छोटा हिस्सा है । इससे भी बड़ी बात यह है कि उपकर सेे एकत्रित राशि ९९७३ करोड़ रुपए से काफी अधिक होनी चाहिए थी । उपकर के द्वारा (विशेषकर आरंभिक वर्षों में) प्राप्त होने वाली बहुत सी राशि उपलब्ध ही नहीं हो सकी । इस स्थिति को कुछ आंकड़ों से समझा जा सकता है । केरल में उपकर एकत्र करने की स्थिति अपेक्षाकृत ठीक रही है । यह एक बहुत छोटा राज्य है । यहां ५४७ करोड़ रुपए एकत्र हुए तो फिर गुजरात में मात्र १९० करोड़ रुपए क्यों एकत्र हुए ? या अनेक बांध परियोजनाओं जैसे बड़े निर्माण कार्यों वाले हिमाचल प्रदेश में मात्र ५१ करोड़ रुपए क्यों एकत्र हुए । बिहार में केवल २५४ करोड़ रुपए छत्तीसगढ़ में मात्र १५६ करोड़ रुपए, ओडिशा में ३१२ करोड़ रुपए व पंजाब में मात्र ३३५ करोड़ रुपए एकत्र हुए । राजस्थान जैसे बड़े राज्य में केवल २८६ करोड़ रुपए एकत्र हुए व गोवा में तो केवल १२ करोड़ रुपए एकत्र हुए । स्पष्ट है कि अनेक राज्यों में उपकर के अंतर्गत एकत्रित राशि वास्तविक राशि से बहुत कम है ।
    कहा जा सकता है कि जितनी राशि मजदूर-कल्याण के लिए एकत्र होनी चाहिए थी उसकी आधी या उससे भी कम राशि उपलब्ध हो सकी । इसके अलावा जो राशि उपलब्ध हुई उसका मात्र १५ प्रतिशत या उससे भी कम मजदूरों के लिए खर्च किया   गया । इस त्रासद कहानी का एक अन्य पक्ष भी है । जो धन सरकारी आंकड़ों में मजदूरों के लिए खर्च हुआ दिखाया गया है, वह भी प्राय: सही प्राथमिकताओं, सही नियोजन से और पारदर्शी तौर-तरीकों से खर्च नहीं किया गया है । इतना ही नहीं, ऐसे सुझाव भी सामने आए हैं कि मजदूरोंके  कल्याण के लिए जमा की गई राशि को फिर कारपोरेट को सौंप दिया जाए ताकि वे अपनी प्राथमिकताओं के  आधार पर व 'मजदूर कल्याण` की अपनी परिभाषा के आधार पर इसे खर्च कर सकें ।
    इस तरह तो मजदूरों के हितों के लिए बनाए गए कानून की मूल भावना ही बुरी तरह क्षतिग्रस्त होगी, क्योंकि मजदूर-कल्याण पर खर्च कैसे होगा यह मूलत: निर्माण मजदूरों की भागीदारी से ही तय होना चाहिए । वैसे भी कारपोरेट पर उपकर लगाकर पैसा एकत्र कर फिर उसे ही लौटा देना तो कानून से खिलवाड़ करने जैसा    होगा । राष्ट्रीय श्रम आयोग ने स्पष्ट कहा है कि निर्माण उद्योग के मजदूरों में ट्रेड यूनियन या श्रमिक संगठन बनाने की प्रवृत्ति बहुत कम है ।
    आयोग ने एक ऐसे सर्वेक्षण का जिक्र  किया है जिसमें ९९९ निर्माण मजदूरों में से मात्र आठ  ने कहा कि वे किसी यूनियन के सदस्य हैं। श्रमिकनेताओं ने आयोग को बताया कि जमादारों व ठेकेदारों के डर के कारण, कार्यस्थल बिखरे होने के कारण व प्रवासी/मौसमी मजदूरी की स्थितियों के कारण संगठन बनाना कठिन है । इन विकट स्थितियों में इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है कि निर्माण मजदूरों की भलाई के लिए तय धनराशि उन्हें नियमित मिलती रहे ।
बाल जगत 
श्रम के चाबुक से सहमता बचपन
आश्ले सेंग
    विश्वभर में बालश्रम अपनी पूरी वीभत्सता के साथ मौजूद है । अब तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी घोषणा कर दी है कि सन् २०१६ तक घृणित बालश्रम के उन्मूलन के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता । आवश्यकता इस बात की है कि इस नारकीय स्थिति से विश्वभर के बच्चें को बाहर निकाला जाए । सं.राष्ट्र श्रम संगठन की परिभाषा के अनुसार १६.८० करोड़ बच्च्े बाल श्रमिक हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि संख्या इससे कम से कम तीन गुना तक हो सकती है ।
     इक्कसवीं सदी के दूसरे दशक में दरिद्रता की वजह से बच्चें का मजदूरी (साथ ही साथ गुलामी) में लगे रहना दहला देता है, लेकिन यह एक वैश्विक वास्तविकता है । अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की नवीनतम रिपोर्ट `बालश्रम के खिलाफ प्रगति: वैश्विक अनुमान एवं प्रवृत्तियों` में बताया गया है कि सन् २०१२ में कम से कम १६.८० करोड़ बच्च्े `अवांछित` या शोषणकारी बालश्रम की परिभाषा वाली स्थितियों में कार्य कर रहे थे । इसमें से करीब आधे बच्च्े अर्थात ७.३० करोड़ बच्च्े ५ से ११ वर्ष की उम्र के थे । अन्य ४.७४ करोड़ बच्च्े १२ से १४ वर्ष के थे ।  (आईएलओ की परिभाषा के अनुसार १२ से १४ वर्ष के केवल वह बच्च्े जो दिन में कम से कम १४ घंटे या जोखिम वाली स्थितियों में कार्य करते हैं, की ही गिनती बाल श्रमिकों में होती है ।) सन् २०१२ में १५ से १७ वर्ष तक बच्चें के ४.७५ करोड़ मामले दर्ज हुए हैं, जिनमें कि ये बच्च्े प्रति सप्ताह ४३ घंटों से ज्यादा समय तक जोखिम भरी स्थितियों में बंधुआ मजदूरों या श्रम के किसी अन्य पीड़ा दायक प्रकार में कार्य कर रहे थे ।
    आईएलओ की रिपोर्ट में बाल श्रम के मामलों में लंैगिक असंगति की ओर भी इशारा किया गया है । आईएलओ की परिभाषा के अंतर्गत अवांछित बाल श्रम की श्रेणी में कार्यरत लड़कों की संख्या ९.९० करोड़ व लड़कियों की ६.८ करोड़  थी । लेकिन संगठन ने चेताया है कि आंकड़ों में बाल श्रम का कम दिखाई देने वाला प्रकार घरेलू कामगार का है, जिसे सामान्यतया लड़कियां ही करती हैं। संगठन के अनुसार सन् २०१२ में सन् २००० की बनिस्बत बाल श्रमिकों की संख्या में ७.८ करोड़ की कमी आई है । संगठन और अन्य इस `प्रगति` को लेकर आत्मप्रशंसा के उफान से पटे हैं,लेकिन यह कमी संभवत: सन् २००८ के विश्व आर्थिक संकट का परिणाम हो सकती है। बजाए `अवांछित बालश्रम` को समाप्त करने हेतु कानूनों करो लागू करने के आईएलओ की रिपोर्ट में स्वयं स्वीकार किया गया है कि सन् २००८ के  आर्थिक संकट के बाद बाल श्रमिकों के नियोक्ताआें ने खासकर नव किशोरों की संख्या में काफी कमी    की ।
    अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन जिन्हें बाल श्रमिक मानता है उसमें से ६.८ करोड़ कृषि क्षेत्र में ५.४ करोड़ सेवा क्षेत्र में (इसमें घरेलू कामगार शामिल हैं) व १.२ करोड़ निर्माण क्षेत्र मेंे कार्य करते हैं। सामने आई संख्या के तकरीबन आधे यानि ८.५ करोड़ बच्च्े खतरनाक श्रेणी के कार्यों में लगे हैं। जिनमें उनका सामना न केवल प्राणघातक चोटों और बीमारियों से होता है, बल्कि कई मामलों में उनकी मृत्यु तक हो जाती है । ये तो वे आंकड़े हैं जो कि संगठन ने उजागर किए हैं। परंतु अनेक अवैध गतिविधियों में संलिप्त बालश्रमिकों को उनके नियोक्ता छुपाकर रखते हैं। वैसे दुनियाभर में बाल श्रम कानूनों की अवहेलना हो रही है । अक्टूबर २०१३  में बाल श्रम पर हुए वैश्विक सम्मेलन में संगठन ने स्वीकार किया था । सन् २०१६ में सर्वाधिक निकृष्ट बाल श्रम को समाप्त करने के लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो  सकती । ऐसा पहली बार हुआ है जबकि कोई सं.राष्ट्र एजेंसी अपने लक्ष्यों और सुनहरी भविष्यवाणी से पीछे हटी हो ।
    अंतरराष्ट्रीय कानून बालश्रम के प्रयोग को निषेध करते हैंऔर १५५ देशों ने अब बच्चेंं द्वारा किए जाने वाले अधिकांश श्रम को प्रतिबंधित करने वाले समझौते पर हस्ताक्षर कर रखे हैं। इसके बावजूद वैश्विक उत्पीड़न जारी है । अभूतपूर्व संपदा और तकनीकी विकास के बावजूद नियोक्ता और सरकार इसे लाभप्रद मानते हैंऔर चूंकि पूंजीवाद कामगारों और किसानों को लगातार दरिद्रता में ढकेल रहा है ऐसे में ये लोग अपने बच्चें की मदद करने और उन्हें शिक्षित बनाने में असमर्थ रहते हैं।
    केवल एक उदाहरण `सेव द चिल्ड्रन` का लेते हैं। उनके अनुसार भारत में ८ करोड़ बच्च्े काम करते हैं। हालांकि भारतीय कानून १४ वर्ष से कम के बच्चें को `खतरनाक` धंधों में कार्य की मनाही करते हैं। इसके  बावजूद भारत का श्रम मंत्रालय स्वीकार करता है कि भारत मेंे करीब १.३ करोड़ बच्च्े प्रतिबंधित निर्माण कार्यों जैसे कांच निर्माण, घरेलू कार्य एवं कशीदाकारी का कार्य करते हैं। भारत सरकार की मंंशा बाल श्रम कानूनों के क्रियान्वयन की है ही नहीं और पुलिस भी अक्सर कारखाना मालिकों को पूर्व सूचना दे देती है अथवा छापों के दौरान रिश्वत ले लेती है । इतना ही नहीं व्यापारियों द्वारा कई कार्यकर्ताओं की हत्या भी कर दी गई है । यदि तुलनात्मक रूप से देखें तो बाल श्रम के सर्वाधिक मामले उप सहारा अफ्रीका में पाए जाते हैंयहां १७ वर्ष तक के पांच में से एक बच्च (२१ प्रतिशत) बाल श्रम में फंसा है । एशिया एवं प्रशांत क्षेत्र और लेटिन अमेरिका एवं केरेबियन्स यह संख्या ९ प्रतिशत है वहीं मध्यपूर्व एवं उत्तरी अफ्रीका में यह ८ प्रतिशत है ।
    गौरतलब है अप्रैल २०१३ में बांग्लादेश के ढाका में स्थित राना प्लाजा गारमेंट फेक्ट्री विध्वंस में मरने वाले श्रमिकों में से एक हजार से ज्यादा बच्च्े थे । दुर्घटना के पश्चात पश्चिमी विक्रेताओं और उत्पादकों ने अनेक प्रकार की सहायता व सुधारों की बात कही थी लेकिन उस पर अमल नहीं हुआ । बांग्लादेश का वस्त्र उद्योग २२ खरब डॉलर को पार कर गया है और यहां पर छोटी लड़कियां ११ घंटे कार्य करती हैंऔर शारीरिक व मौखिक अत्याचार का शिकार होती है ।
    वहीं पेरु में प्रति वर्ष ३ अरब डॉलर का सोना निर्मित होता है । वहां पर बच्च्े खदानों में कार्य करते हैं।  इन्हें जरा सी मजदूरी के लिए न केवल लंबा इंतजार करना पड़ता है, बल्कि ये जहरीले पारे के संपर्क में आते हैं और मलेरिया जैसी प्राणघातक बीमारियों एवं औद्योगिक दुर्घटनाओं को भी झेलते हैं । अमेरिका जैसे विकसित देश में भी बाल श्रम पाया जाता है । केलिफोर्निया में बच्च्े फल एवं सब्जियां उगाते हैं एवं उत्तरी केरोलिना में वे तंबाखू के खेतों में कार्य करते हैं। इसमें से कुछ पलायन करके आए बच्च्े होते हैं,  लेकिन अन्य बच्च्े अमेरिकी ही हैं। लेकिन वहां इसमें कुछ भी गैरकानूनी नहीं है । अमेरिका के फेयर लेबर स्टेंडर्ड एक्ट (न्यायसंगत श्रम मानक अधिनियम) के अंतर्गत बच्च्े पालकों की सहमति से कृषि क्षेत्र में कार्य कर सकते हैं।
    बहुराष्ट्रीय निगम जो कि मध्य आय वर्ग के बीच अपने उत्पाद बेचने को लालायित रहते हैं वे भी `निगम सामाजिक दायित्व` के तहत बाल अधिकारों पर घड़ियाली आंसू बहाते रहते हैं। कोको फार्म्स में बाल श्रम को समाप्त करने के अनुबंध पर हस्ताक्षर करने वाली विश्व की सबसे बड़ी खाद्य श्रृंखलानेस्ले ने अभी भी पश्चिमी अफ्रीकी से कोका आपूर्ति की अपनी श्रृंखला में बच्चें को भर्ती कर रखा है । कोको भी खेती कठिन एवं खतरनाक कार्य है । अक्सर ऐसे मामले आते हैं जिसमें बच्च्े छुरी से कोका काटने पर अक्सर अपने पैर घायल कर लेते हैं। 
    बाल श्रम की निरंतर मौजूदगी सुधार के सभी प्रयासों एवं पूंजीपतियों के शोषण के  `मानवतावादी` स्वरूप की कलई खोलती है । यह उत्पीड़न केवल सरकारों और कारपोरेशन (निगमों) के खिलाफ संघर्ष अभियानों से समाप्त नहीं होगा । बल्कि यह इस लाभ कमाऊ व्यवस्था के खिलाफ कामगार वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक लामबंदी से समाप्त हो पाएगा ।
महिला जगत
मातृत्व हकदारियों को नकारती निर्मम शर्तें
सचिन कुमार जैन
    गरीब लोगों के कल्याण के लिए बनी योजनाओं में ही अक्सर ऐसे प्रावधान कर दिए जाते हैं जिससे कि उन्हें कानूनन इस योजना का लाभ न मिल पाए । मातृत्व हक को लेकर बनी योजनाएं भी इसी मर्ज का शिकार हैं । इसमें निहित अमानवीयता को आप इस आंकड़े से जान सकते हैं कि ९९.७ प्रतिशत कामकाजी महिलाएं मातृत्व हक पाने के सरकारी दायरे से बाहर ही हैं । 
     टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइसेंस का अध्ययन बताता है कि मातृत्व हक संबंधी मौजूदा कार्यक्रमों का लाभ लेनेेके लिए जो शर्तें तय की गई हैं उनमें व्याप्त निर्ममता के चलते १०.१ करोड़ कामकाजी महिलाओं में से १० करोड़ यानि ९९.७ प्रतिशत मातृत्व हक के दायरे से ही बाहर हो जाती हैं । भारत उन १० देशों में शुमार है, जहां दुनिया की ५८ फीसदी मातृ मृत्यु होती हैं । अन्य नौ देश हैं-नाइजीरिया, कांगो, इथियोपिया, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, तंजानिया, कीनिया, चीन और युगांडा । बीते १० साल में संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देकर इस तस्वीर को बदलने की कोशिश हुई। कुछ हद तक इसका असर भी हुआ । लेकिन जिस देश में स्त्री रोग विशेषज्ञों और चिकित्सकों के ४० प्रतिशत पद खाली हों, अस्पतालों में २५०० लोगों पर एक  बिस्तर हो तथा दवाएं और जांच की सुविधाएं न हों, वहां केवल संस्थागत प्रसव से सुरक्षित मातृत्व की उम्मीद तो स्वयं ही ज्यादा देर जिंदा नहीं रह सकती ।
    संयुक्त  राष्ट्र संघ की ताजा रिपोर्ट (२०१४) के मुताबिक वर्ष २०१३ के दौरान भारत में ५० हजार (१७ प्रतिशत) और नाइजीरिया में ४० हजार (१४ प्रतिशत) महिलाओं की मातृत्व मृत्यु हुई, यानी दुनिया की एक-तिहाई मातृत्व मौतें इन्हीं दो देशों में हुई हैं । हैरत की बात है कि इसके  बावजूद संयुक्त  राष्ट्र संघ ने मातृ मृत्यु अनुपात से सम्बंधित सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य की रणनीति में मातृत्व हकों की पुरजोर वकालत नहीं की ।  
    आज भी सरकार और समाज की सोच यही है कि अस्पताल में प्रसव होने मात्र से महिलाओं के प्रति सारी जिम्मेदारी पूरी हो जाती है । यह कोई नहीं सोचता कि एक स्त्री के  जीवन को केवल ४८ घंटे के लिए अस्पताल में नहीं रखने, बल्कि उसे सुरक्षित होने का अहसास दिलाने वाली संवेदनशील व्यवस्था की जरूरत है । स्वास्थ्य और सुरक्षित मातृत्व से संबंधित सरकारी जागरूकता कार्यक्रम यह सन्देश देते हैं कि गर्भावस्था में महिला को पर्याप्त आराम मिलना चाहिए । जबकि असंगठित क्षेत्र की कामगार महिलाओं के लिए एक दिन भी काम से दूर रहना लगभग असंभव होता है। वह तो लगभग प्रसव के समय तक मेहनत करती है । दूसरा सन्देश कहता है कि महिला को पूरा पोषण मिले । राष्ट्रीय प्रतिदर्श (नमूना) सर्वेक्षण के ६८वें चक्र की रिपोर्ट के मुताबिक, गांव में प्रति व्यक्ति  प्रतिदिन दाल पर खर्च १.३१ रुपए, दूध/दुग्ध उत्पादों पर ३.८३ रुपए, अंडा, मांस, मछली पर २.२८ रुपए का खर्च करता है । शहरों में दाल पर प्रति व्यक्ति  प्रतिदिन १.७० रुपए और अंडा, मांस, मछली पर ३.२ रुपए का खर्च है ।
    जरा अनुमान लगाएं कि इन हालातों में गर्भवती महिलाओं को कितना पोषण मिल पाता होगा ? इसके अतिरिक्त गरीबी सिर्फ आर्थिक विपन्नता ही नहीं है, बल्कि यह उपेक्षा, लैंगिक उत्पीड़न, गैर जवाबदेही और बहुआयामी भ्रष्टाचार का जाल भी बुनती है । इससे महिलाओं की जिंदगी जंग का मैदान बन जाती है, जहां उनके पास लड़ाई के लिए हथियार भी नहीं होते ।
    भारत में हितग्राहीमूलक योजनाओं का ५० साल का इतिहास दर्शाता है कि केन्द्र और राज्य सरकारों के द्वारा १९ कार्यक्रमों में मातृत्व हक से जुड़ी एक भी योजना या कानूनी प्रावधान नहीं हैं । मौजूदा मातृत्व हक कार्यक्रमों का लाभ लेने के लिए कुछ शर्तें जैसे १९ साल की उम्र हो, दो बच्चें तक ही लाभ मिलेगा, संस्थागत प्रसव होना अनिवार्य आदि रखी गई हैं । इनका अध्ययन कर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस ने बताया कि इन्हीं शर्तों के आधार पर १०.१ करोड़ कामकाजी महिलाओं में से १० करोड़ यानी ९९.७ प्रतिशत मातृत्व हक के  दायरे से ही बाहर हो जाती हैं ।  
    वर्ष २०१३ में बने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून में पहली बार यह प्रावधान हुआ है कि हर महिला को मातृत्व हक के बतौर ६००० रुपए की आर्थिक सहायता दी जाएगी । गौरतलब तमिलनाडु सरकार १९८७ से गरीबी रेखा के नीचे गुजारा करने वाली महिलाओं को दो किस्तों में १२ हजार रुपए की मातृत्व सहायता दे रही है । वर्ष २००६-०७ के दौरान रोजाना औसतन १६०० महिलाओं ने इसका लाभ उठाया । इस पर अध्ययन हुए और कहीं भी भ्रष्टाचार नहीं मिला । केन्द्र सरकार ने इसी तर्ज पर लेकिन कुछ निर्मम शर्तों के साथ इंदिरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना शुरू  की । वैसे भी केन्द्र सरकार का यह प्रयोग अभी देश के ५२ चुनिन्दा जिलों तक ही सीमित है ।
    अप्रैल २००६ में लागू जननी सुरक्षा योजना में मातृत्व सहायता को मिलाया गया है । घर में प्रसव होने पर योजना के तहत ५०० रुपए और संस्थागत प्रसव पर गांव में १४०० और शहर में १००० रुपए की सहायता का प्रावधान है। हालांकि हितग्राही महिला को गर्भावस्था (जब पोषण और आराम के लिए आर्थिक सहयोग सबसे ज्यादा जरुरत है) के दौरान नहीं, बल्कि प्रसव के बाद आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया गया है। वैसे जननी सुरक्षा योजना को मातृत्व हक का कार्यक्रम इसलिए नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसका मकसद एकमात्र संस्थागत प्रसव को बढ़ाना ही था ।
    भारत में २० करोड़ महिलाएं घर में ही कार्य करती हैं । उनके काम को नापने की कोई अधिकृत व्यवस्था नहीं है। यदि एक मजदूर महिला गर्भवती है तो क्या उसे पर्याप्त आराम नहीं मिलना चाहिए ?  क्या आराम करने पर उसे मजदूरी से वंचित कर देना चाहिए ? यदि वो मजदूरी न करे तो क्या उसे पोषण मिल पाएगा ? क्या इन महिलाओं को पर्याप्त पोषण मिलना जरूरी नहीं है ? प्रसव के बाद छह माह तक बच्च्े को मां के दूध और संवेदनशील देखभाल की जरूरत होती है । लेकिन यदि महिला अपने १५ दिन के बच्च्े के साथ काम पर जाए,       तो क्या दोनों का स्वास्थ्य सुरक्षित रहेगा ? यानी कम से कम छह माह तक मां को क ोर श्रम से छुटकारा तो हर हाल में जरूरी है । ऐसे में उनके  मातृत्व हक सुनिश्चित करना एक बड़ी और महत्वपूर्ण चुनौती है ।
    बेहतर होगा कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के  तहत किए गए `कम से कम ६००० रुपए के प्रसूति लाभ` को १८० दिन की न्यूनतम मजदूरी के बराबर भुगतान योग्य` अवकाश से जोड़ा  जाए । सरकार की यह निर्णयात्मक पहल न केवल मातृ मृत्यु को बहुत कम करेगी, बल्कि महिलाओं की ताकत को एक नया आयाम देगी या अपना अमानवीय बर्ताव कायम रखेगी । महिलाओं के लिए अच्छे दिन लाने हेतु सार्वभौमिक मातृत्व हकों की कानूनी व्यवस्था स्थापित करनी ही होगी । दुखद यह है संस्कृति संपन्न देश भारत में सरकारें इस संवेदनशील जरूरत को पूरी तरह से नजरंदाज करती रही   हैं । 
प्रदेश चर्चा 
राजस्थान : राज्य की जल प्रबंधन नीति
अमृत अर्णव
    देश के प्राकृतिक संसाधनों का चौतरफा अति दोहन हो रहा है । पर्यावरण तथा जीवन का प्रमुख अवयव जल हमें विभिन्न स्त्रोतों से प्राप्त् होता है । प्रत्येक रूप में इसकी प्रािप्त् हमारे लिए महत्वपूर्ण स्थान रखती     हैं । यह हमारे जीवन अस्तित्व के लिए जितना महत्वपूर्ण है उतना ही जीव-जन्तुआें तथा कृषि के लिए भी आवश्यक हैं । विकास का प्रत्येक स्तर, हर पहलू इन्हीं प्राकृतिक स्त्रोतों पर आधारित है । औद्योगिकरण का प्रमुख अवयव तथा  ऊर्ज्रा स्त्रोत के रूप में जल हमारे लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं ।  
     सोलहवीं तथा अठारहवीं शताब्दी जो कि औद्योगिक क्षेत्र में अत्यधिक क्रांति के शतक माने जाते हैं, तब से ही जल की प्रदूषणात्मक प्रवृत्ति जन्म लेती रही किन्तु उस समय इसका एक तरफा विनाश तथा कम उपयोग था इसलिए यह चर्चा और गौर करने के लिए समस्यात्मक पहलू के तौर पर नहीं लिया जाता था और उस मसय तक प्रकृत्ति भी इसके शुद्धीकरण के लिए काफी हद तक सक्षम थी इसमें उत्पन्न प्रदूषण तथा नाशक जीव प्राकृतिक प्रक्रियाआेंसे स्वयं ही नष्ट हो जाते थे, किन्तु धीरे-धीरे विकास की चरम सीमा तक पहँुचने और जनसंख्या बढोत्तरी के साथ-साथ अत्यधिक प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के लालच के कारण प्रकृति का यह नि:शुल्क    ऊर्जा स्त्रोत विनाशक रूप लेता जा रहा है ।
    पर्यावरण के विभिन्न घटकों में से जल प्रदूषण की बात व समस्या सबसे पहले हमारे सामने आयी । जल की शुद्धता को बनाये रखने वाले विभिन्न अवयवों के संतुलनात्मक स्थिति के गड़बड़ाने के कारण ही जल प्रदूषण हो रहा है । वहां जल तो प्रत्यक्ष रूप से प्रदूषित हो रहा है, विभिन्न अवयवों के रिसकर भूमिगत हो जाने से यह पृथ्वी के अंदर के जल को प्रदूषित करके उसकेे उत्पादों को भी प्रदूषित कर रहे हैं । पृथ्वी के विकास में पानी का अत्यधिक प्राचीन तथा महत्वपूर्ण इतिहास रहा है । जनसंख्या बढ़ोत्तरी के कारण पृथ्वी पर लगभग ७५ प्रतिशत भाग जल से घिरे होने   के बाद भी विभिन्न उत्तरदायी कारणों से जलपूर्ति में काफी कमी हो        रही है ।
    कहा गया है कि जल ही जीवन है । जल के बिना मानों सब कुछ ही शून्य है । वर्तमान समय में जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती हैं । जल एक दुर्लभ संसाधन है इसलिए राज्य के द्वारा जल प्रबंधन नीति पर बल दिया गया है । जल संग्रह प्रबंधन के लिए ऐसी रणनीति बनाई गई जिससे जल कम खर्च हो सके । वर्षा जल के घटने और कुआें से अत्यधिक जल निकासी से भूमि जल स्तर निरन्तर घटता जा रहा है ।
    वर्षा के अभाव से उत्पादन एवं उत्पादकता में आने वाली कमी को दूर करने के लिए जल ग्रहण की पहचान  एवं इसके समग्र विकास की प्रक्रिया प्रारंभ की गई है । इसके लिए राजस्थान सरकार द्वारा जनवरी, १९९१ में जल ग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग की पृथक से स्थापना की गयी ।
    वर्षा के अभाव में उत्पादन एवं उत्पादकता में आने वाली कमी को दूर करने के लिए जल ग्रहण की पहचान एवं इसके समग्र विकास की प्रक्रिया प्रारंभ की गई है । इसके लिए राजस्थान सरकार द्वारा जनवरी, १९९१ में जल ग्रहण विकास एवं भू-सरंक्षण विभाग की पृथक से स्थापना की गयी ।
    जल ग्रहण विकास कार्य में गतिविधियाँ कृषि योग्य कृषि भूमि का उपचार, वानस्पतिक अवरोध की स्थापना, ऐलै क्रॉपिंग एवं बाउण्ड्री पर वृक्षारोपण, मिश्रित उद्यान, चारागाह विकास कार्यक्रम, वृक्षारोपण कार्यक्रम, वाटर हार्वेस्टिंग ये सब जल प्रबंधन में सहायक रहे ।
    राजस्थान सरकार द्वारा जल प्रबंधन की निम्न नीतियॉ बनाई     गई -
(१)    समन्वित जल ग्रहण विकास परियोजना - यह परियोजना राजस्थान के चार जिले में चले इसकी स्थापना १९९० ई. में हुई । इस जल प्रबंधन से कई लाभ हुये ।
(२)    वानस्पतिक तकनीक का उपयोग करके वर्षा जल का उचित संरक्षण करना तथा भूमि कटाव रोकना ताकि कृषि पैदावार का स्तर बढ़ाया जा सके । सामुदायिक एवं सरकार भूमि पर सामाजिक वानिकी, चारागाह विकास एवं अन्य भूमि उपयोग करके भूमि की उत्पादकता बढ़ाना ।
(३)    राष्ट्रीय जल ग्रहण विकास कार्यक्रम - यह कार्यक्रम जैविक पदार्थो की स्थायी उत्पादन व्यवस्था तथा विस्तृत बारानी क्षेत्रों में परिस्थितिकीय सन्तुलन को पुरस्थापित करने के दोहो उद्वेश्यों को पूर्ति करता है ।
(४)    पुष्कर गैप परियोजना जल प्रबंधन की नीति है । इस परियोजना से वृक्षारोपण, फलदार पौधारोपण, वानस्पतिक अवरोध का काय, पास के उन्नत बीजों की बुआई तथा टील स्थिरीकरण के कार्य सम्पन्न किये जाते हैं ।
(५)    पावड़ा परियोजना - जलमग्न क्षेत्रों के पुनवास एवं विकास हेतु राजस्थान सरकार और स्विस डवलप मैंट   कारपोरेशन के सहयोग से यह परियोजना चल रहा है ।
    इसी क्रम में विशेष चिंता का विषय है कि भूमिगत जल का अतिदोहन है जिसके कारण हमारी भविष्य की खाद्य सुरक्षा संकट में पड़ सकती है । धरती की गहराईयों में विशाल तालाब और नदियां होती है इनमें बरसात का पानी एकत्रित    रहता है । ट्यूबवेल से इस जल को निकालना संभव हुआ है । पानी का यह भंडार बैंक में जमा राशि की   तरह होता है । आप जितना पैसा   डालते हैं उतना ही निकाल सकते      हैं । अत: जल को बचाने के लिए    देश की भावी पीढ़ियों को आगे आना चाहिए और संसाधनों के संबंध में रचनात्मक नीतियाँ बनाये और अपने वर्तमान उपभोग पर नियंत्रण भी     करें ।
पर्यावरण परिक्रमा
अब फैक्ट्रीमें उगाई जा रही हैं सब्जियां
    अगर आपसे पूछा जाए कि सब्जियां कहां पैदा होती हैं, तो आपका जवाब होगा, खेतों में, लेकिन ये जवाब अधूरा है । चौकिंए मत ! जापान मेंे सब्जियां फैक्ट्रियों में भी उगाई जा रही हैं । वहां इस समय ३० से ज्यादा फैक्ट्रियां हैं, जिनमें सब्जियां उगाई जाती हैं  ।
    क्योटो के केमिओका शहर में सब्जियों की सबसे बड़ी फैक्ट्री है । शायद दुनिया में सब्जी पैदा करने वाली सबसे बड़ी फैक्ट्री है । यहां एक चार मंजिला विशालकाय इमारत मंे सब्जियां उगाई जाती हैं । हर मंजिल पर चार परतों में सब्जी की खेती होती है । इस लिहाज से जगह का भरपूर इस्तेमाल होता है । उत्पादन के मामले में देखा जाए तो परम्परागत खेती के  मुकाबले प्रति वर्ग इकाई क्षेत्र मंे इनका उत्पादन १०० गुना तक ज्यादा होता है ।
    विश्व की आबादी अभी सात अरब के लगभग है और २०५० तक इसके नौ अरब हो जाने का अनुमान है । ऐसे में खाघान्न उत्पादन के गैर परम्परागत तरीके ईजाद करना जरूरी हो गया है ।
    फैक्ट्री में १२ महीने सब्जी उगाना संभव नहीं है । इस तकनीक में पौधांे की बढ़ोतरी के लिए रोशनी से लेकर तापमान तक सब कुछ अपनी सुविधानुसार नियंत्रित किया जाता है । इस पद्धति में पौधे मिट्टी की बजाय सीधे पोषक तत्वों पर भरे पानी में लगाए जाते हैं । 
    वैज्ञानिकों का कहना है कि चूंकि ये पौधे बंद जगह पर बढ़ते हैं, इस कारण से इनमें किसी तरह की बीमारी या कीड़ों का डर नहीं रह  जाता । फैक्ट्रियों में सब्जियां उगाने में वातावरण की बाध्यता नहीं रह जाती है । जापान में प्रायोगिक तौर पर दक्षिणी धु्रव के शोवा बेस पर भी एक फैक्ट्री लगाई है । इस फैक्ट्री से सफलतापूर्वक सब्जियों का उत्पादन किया जा रहा है । धु्रवों पर तापमान साल के कुछ दिनों में शून्य से ४० डिग्री नीचे तक चला जाता है ।
    फैक्ट्री में हर प्रकार की सब्जी को उगाना संभव है । क्योटो की फैक्ट्री में लेट्स (एक प्रकार का सलाद का पत्ता) उगाया जाता है । कुछ फैक्ट्रियों में खीरा-ककड़ी और टमाटर आदि को भी सफलतापूर्वक उगाया गया है । एक फेक्ट्री में प्रायोगिक तौर पर चावल भी उगाने में सफलता हासिल की है ।

गंगा से खत्म हो रही देसी मछलियां
   गंगा में जल की कमी, जगह-जगह बांधों के निर्माण, अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप तथा प्रदूषण की गंभीर समस्या के कारण भारतीय उपमहाद्वीप की बेशकीमती कार्प तथा विडाल प्रजातियों की रोहू, कतला, हिलसा तथा झींगा जैसी मछलियां लगभग समाप्त हो गई है और इनकी जगह विदेशी प्रजाति की मछलियों ने ले ली है ।
    गंगा नदी में पहले भारतीय कॉर्प समूह की रोहू, कतला, मृगल, विडाल समूह की टेंगरा, पढिन, रिठा तथा अन्य प्रजातियों की बेकरी, सूती, वाम, गौछ, चेला, पोठीया, चन्ना, हिल्सा, महासीर और झींगा आदि मछलियां व्यापक पैमाने पर पायी जाती थी, लेकिन पिछले एक दशक से इनकी संख्या कुछ स्थानों पर काफी कम हो गई है । उसकी जगह अब विदेशी कामन कॉर्प, चाइना, कॉर्प, तेलापिया आदि मछलियां बहुतायता में पायी जाती   है ।
    केन्द्रीय अंतर्स्थलीय मात्स्-यकी अनुसंधन संस्थान के इलाहाबाद क्षेत्रीय केन्द्र ने वर्षोके अध्ययन के बाद इन तथ्योंको खुलासा किया है । संस्थान ने कहा है कि गंगा नदी तंत्र में भारतीय कार्प और प्रमुख विडाल मत्स्य प्रजातियां समािप्त् के कगार पर पहुंच गई है, जबकि इस प्रजाति की मछलियों की देश ही नही पूरे एशिया महाद्वीप तथा अन्य देशों में भी मत्स्य पालन में प्रमुख भूमिका है । इसलिए गंगा नदी तंत्र की देशी मछलियों को बचाना बहुत आवश्यक है ।
    गंगा नदी मत्स्य बीज का प्रमुख स्त्रोत रही है और देश में मत्स्यपालन क्षेत्र के लिए ३० प्रतिशत मत्स्य बीज यही से प्राप्त् होता था । विगत कुछ दशकों में नदी के पानी और जल तंत्र में बहुत बदलाव आया है ।
    नदी में बढ् रहे प्रदूषण के कारण जल की भौतिक और रसायनिक संरचना में आये बदलाव के कारण यह मछलियों एवं जीव जन्तुआें के रहने के अनुकूल नहीं रह गया है । देश की प्रमुख नदियों और उसकी सहायक नदियों की कुल लम्बाई लगभग ४५००० किमी है और इनमें लगभग ९३० किस्म की मछलियां पाई जाती हैं । 

होटलों में २० फीसदी खाद्य मिलावटी
    बाहर खाने से पहले एक बार इस पर जरूर ध्यान दें । देश भर की रेस्त्राआें और फास्ट फूड दुकानोंपर बेेची जाने वाली २० फीसदी खाद्य वस्तुएं अमानक या मिलावटी होती हैं । सरकारी आंकड़ों में यह निष्कर्ष निकला है । वर्ष २०१३-१४ में सरकारी प्रयोगशा-लाआें में ४६८२३ खाद्य नमूनों की जांच की गई । ये नमूने दूध, दूध से बने पदार्थ, खाद्य तेल तथा मसालों के थे । उनमें से ९२६५ नमूने मिलावटी या भ्रामक ब्रांड के पाए  गए ।
    इसमें उत्तरप्रदेश पहले नम्बर पर रहा । कुल २९३० वेडरों पर मुकदमा चलाया गया, जिनमें १९१९ दोषी पाए गए । साथ ही राज्य में दोषी वेंडरों पर ४.४७ करोड़ रूपये का जुर्माना भी लगाया गया । साल २०१२-१३ में कुल २५५१ मामले दर्ज किए गए थे, जिनमें १०१० मामलों में सजा हुई और दोषियों पर ३.७० करोड़ रूपए का जुर्माना लगाया गया । महाराष्ट्र में भी सरकारी एजेंसियों ने २५५७ केस किए । इनमें ६६ दोषी पाए गए । साल २०१३-१४ में हरियाणा में भी २६० केस हुए । इनमें १६६ केसोंमें दोष साबित हुआ और २६६१८०० रूपए का जुर्माना लगाया गया । अन्य राज्यों उत्तराखंड में १२२ केस, झारखंड में ९९, बिहार में ९० और दिल्ली में ६१ मामले खाद्य मिलावटी के मिले ।
    केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार राज्य और केन्द्र शासित प्रदेशों की सरकारें खाद्य सुरक्षा और मानक कानून, २००६ के अनुसार नियमित तौर पर चौकसी, निगरानी तथा फूड सैपलिंग करती   हैं । राज्य खाद्य सुरक्षा विभाग के नमूने लेकर भारतीय खाद्य सुरक्षा तथा मानक प्राधिकार से मान्यता प्राप्त् प्रयोगशालाआें को भेजते हैं । जांच में जो नमूने कानून के अनुसार खड़े नहीं उतरते, उन मामलों में दोषियों के खिलाफ कार्यवाही शुरू की जाती है ।
 
समुद्री कचरा खा जाएंगे सूक्ष्मजीव
     समुद्री कचरे से निपटने में सूक्ष्म जीव अहम भूमिका निभा सकते हैं । ऑस्ट्रलियाई रिसर्चरों के अनुसार एक खास तरह के सूक्ष्म जीव पानी में न सिर्फ प्लास्टिक को खा लेंगे बल्कि उसके टुकड़ों को समुद्र तल पर बैठने में मदद करेंगे ।
    दुनिया भर में समुद्रों मेंं प्लास्टिक का टनों कचरा तैर रहा है । यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया के शोधार्थियों का कहना है कि एक खास तरह के सूक्ष्म जीव पानी पर तैर रहे कचरे के विघटन में मदद करते हैं । वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि माइक्रोप्लास्टिक जो आकार में पांच मिलीेमीटर से छोटे होते हैं, समुद्र के प्राकृतिक पर्यावरण को बिगाड़ सकते हैं । संयुक्त राष्ट्र के पर्यवरण कार्यक्रम के २०१२ के आंकड़ों के अनुसार उत्तरी प्रशांत महासागर के प्रतिवर्ग किलोमीटर में माइक्रोप्लास्टिक के करीब १३ हजार टुकड़े मौजूद हैं । समुद्र का यह इलाका माइक्रोप्लास्टिक से सबसे बुरी तरह प्रभावित है ।
    विज्ञान की पत्रिका प्लोस वन में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि शोध में ऑस्ट्रेलियाई तटों पर तैरने वाले कचरे की हजार से ज्यादा तस्वीरों का विश्लेषण किया गया । इस शोध के दौरान उन्होंने पाया कि माइक्रोप्लास्टिक डेबरी पर कई सूक्ष्म जीव रह रहे हैं जो आहार के लिए माइक्रोप्लास्टिक के कचरे पर निर्भर हैं । साथ ही उन्हें इन पर कई नए प्रकार के सूक्ष्म जीव भी मिले । दुनिया भर में हर सेंकड आठ टन प्लास्टिक बनता है । हर साल कम से कम ६० लाख टन प्लास्टिक कूड़ा समुद्र में पहुंच रहा है ।
    वैज्ञानिकों का कहना है कि महासागर भी बुरी तरह इस कचरे से भर गए हैं । इसके साथ ही पहली बार किसी रिपोर्ट में पानी पर तैर रहे माइक्रोप्लस्टिक के कचरे पर रहने वाले एक विशेष सूक्ष्म जैव समुदाय का जिक्र किया गया है । समुद्र विज्ञानी जूलिया राइसर ने बताया, ऐसा लगता है समुद्र में प्लास्टिक का विघटन हो रहा है । वह इस रिसर्च को लेकर खासी उत्साहित हैं । वह कहती हैं, प्लास्टिक खाने वाले जीव जमीन पर भी कचरे से निपटने में मदद कर सकत हैं ।
    सुश्री राइसर ने बताया कि केवल दो अणुआें की संरचना वाले ये सूक्ष्म जीव माइक्रोप्लास्टिक को नाव की तरह इस्तेमाल करते हैं और समुद्री सतह पर इसी के सहारे तैरते हैं । जैसे-जैसे माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े पर सवार माइक्रोब्स की संख्या बढ़ती जाती है, प्लास्टिक का सूक्ष्म टुकड़ा डूबने लगता है और समुद्र तल मेंं जाकर बैठ जाता है ।
जनजीवन
चल बसा सरिस्का का कसाई
डॉ. महेश परिमल

    पिछले दिनों आयी एक खबर ने पर्यावरणविदों को राहत दी है । अब यदि यह कहा जाए कि संसारचंद चल बसा, तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा । पर जो संसारचंद को जानते हैं, वे यह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि उससे बड़ा कसाई आज तक पैदा नहीं हुआ । वह तो सरिस्का का वीरप्पन  था ।
    संसारचंद पर ८५० बाघों की हत्या का आरोप था । उसने २००४ में राजस्थान के सरिस्का अभयारण्य में बांघों की पूरी बस्ती का ही खात्मा कर दिया था । बाघों के अलावा उस पर  कुल ५ हजार जंगली जानवरों के शिकार का भी आरोप था । वह इनका शिकार करके उनक चमड़े और दांत का बड़ा व्यापारी था । उसने करीब ५० हजार भेड़ियों और सियारों का भी शिकार किया था । 
    ऐसा नराधम कैंसर से मर गया । लोगों का मानना है कि उसकी मौत इतनी आसानी से नहीं होनी थी । उसकी मौत इससे भी बदतर होनी थी । दिल्ली के सदर बाजार से अपनी जिंदगी शुरू करने वाले संसारचंद को इस हालत में लाने के लिए हमारे देश का भ्रष्ट तंत्र ही दोषी है । वन विभाग के रिश्वतखोर अधिकारियों के कारण ही वह इतना आगे बढ़ पाया । इतने जानवरों की हत्या के आरोपी इस व्यक्ति को सरकार ने केवल तीन साल की सजा दी थी । उसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर संसारचंद को छोड़ दिया गया, तो वह इंसानों की खाल भी बेच देगा ।
    १९७४ में संसारचंद जब पहली बार बाघ और चीते की ६८० खालों के साथ पकड़ा गया, तो लोगों की नजरों में पहली बार सामने आया । तब तक उस पर ५७ मामले चल रहे थे । उसके साथ उसकी पत्नी, पुत्र और भाई भी शामिल थे । इसके पहले वह केवल १६ वर्ष की आयु मेंपकड़ा गया था । उस समय उसे बहुत ही मामूली सजा हुई     थी । उम्र को देखते हुए हाईकोर्ट ने उसकी सज़ा कम कर दी थी ।
    सजा पूरी कर जब वह जेल से बाहर आया, तब उसने जो हरकतें की, उससे पर्यावरण प्रेमियों को लगा कि उसे और सजा मिलनी थी क्योंकि सजा पूरी करने के बाद वह वन्य प्राणियों के लिए काल बन गया । उस पर वन्य प्राणियों की हत्या का केस  चला । परन्तु वन विभाग के रिश्वतखोर अधिकारियों द्वारा साक्ष्य ठीक से न जुटाए जाने के कारण उसे वैसी सजा नहींहो पाई, जिसका वह वास्तविक रूप से हकदार था । हर बार वह कानून के जाल से  बाहर निकल जाता था इसलिए कुछ समय बाद ही वह बाघों के चमड़े का अंतर्राष्ट्रीय व्यापारी बन गया । आश्चर्य यह है कि वह बिना किसी भय के सरिस्का मेंबाघ का शिकार करता  था । उसके लिए किसी भी प्रकार की रोकटोक नहीं थी ।  इससे समझा जा सकता है कि वन विभाग में उसकी कितनी पैठ थी ।
    राजस्थान पुलिस ने २००४ में जब संसारचंद के परिवार के पास से उसकी गोपनीय डायरी कब्जे में ली, तब पता चला कि उसने ४० बाघों और ४०० चीतों की चमड़ों के सौदे किए थे । ये सौदे अक्टूबर २००३ से सितम्बर २००४ के बीच यानी केवल ११ महीनों में ही हुए थे । इस बारे में जब संसारचंद से पूछताछ हुई, तब उसने कबूला कि उसने बाघ के ४७० और चीते के २१३० चमड़े नेपाल और तिब्बत के ग्राहकोंको बेचे हैं । सितम्बर २००४ में जब उसके पास से बाघ के ६० किलो जबड़े बरामद किए गए, तब सभी चौंक उठे थे ।
    सरिस्का में उसका इतना अधिक आंतक था कि उसने एक के बाद एक सैकड़ों बाघों को मार डाला, परन्तु प्रशासन पूरी तरह से अनजान ही बना रहा । वन विभाग भी चुपचाप केवलउसका तमाशा देखता रहा ।
    वन्य प्राणियों के चमड़े और जबड़ों की मांग हमारे देश की अपेक्षा चीन में अधिक होने के कारण संसारचंद ने तगड़ी कमाई की । चीन में बाघ के अंगों से कई चीजें बनाई जाती हैं । इससे उसकी कमाई और बढ़ने लगी । तब वह और अधिक बाघों का शिकार करने लगा । कुछ समय बाद तो वह इसका इतना अधिक आदी हो गया था कि जब तक वह बाघ का शिकार न कर ले, उसे चैन नहीं मिलता था । बाद में वह वन्य प्राणियों को जहर देकर मारने लगा ।
    वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ के कार्यकर्ताआें ने जब यह बताया कि ल्हासा में बाघ और चीते के चमड़े खुले आम बिक रहे हैं, तब सरकारी तंत्र   जागा । लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी  थी । चीन के लोग बाघ और चीते के चमड़ों की मंुहमांगी कीमत देने को तैयार थे । इसलिए वह अधिक से अधिक बाघों को शिकार करके मांग के अनुसार पूर्ति करता था । संसारचंद के खिलाफ कार्यवाही के लिए चारोंतरफ से दबाव बढ़ने लगा, तब सीबीआई ने उसके खिलाफ २००५ में मकोका लगाया । उसकी पत्नी रानी, पुत्र अक्ष और भाई नारायणचंद के खिलाफ विभिन्न अदालतोंमें मामले लंबित हैं । २०१० में संसारचंद की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वह पिछले ३० सालों से यह गैरकानूनी धंधा कर रहा है । अब वह इस धंधे का आदी हो चुका है । इसलिए अदालत नरम रवैया नहीं अपना   सकती । उत्तर प्रदेश और राजस्थान की अदालतों में भी उसके खिलाफ कई मामले लंबित हैं । पिछले १८ मार्च को वह कैंसर से ग्रस्त होकर इस दुनिया से चला गया, और लाखों मूक जानवरों और अनेक पर्यावरण प्रमियों के लिए एक राहत भरी खबर छोड़ गया ।
    ऐसा केवल हमारे ही देश मेंहो सकता है कि पर्यावरण के दुश्मन को मात्र कुछ वर्षोकी सजा हो । यदि देश में पर्यावरण के खिलाफ काम करने वाले या पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वालों पर कड़ी सजा का प्रावधान हो, तो संसारचंद जैसे लोग पनप ही न  पाएं । दूसरी ओर, यदि कोई लगातार बाघों का शिकार कर रहा है, उनकी खालें बेच रहा है, तो कहीं न कहीं उसे वन विभाग की शह मिली होगी । संसारचंद ने वन विभाग के अधिकारियों को जमकर रिश्वत दी होगी, इसीलिए वह अपना व्यापार इस पैमाने पर बढ़ा   पाया । यदि रिश्वतखोर अधिकारियों पर शिकंजा कसा जाए, तो भविष्य में संसारचंद पैदा होने की संभावना को खत्म नहीं, कम अवश्य किया जा सकता है ।
विज्ञान-जगत
पहली लोकसभा के पहले वैज्ञानिक सदस्य
चक्रेश जैन
    बासठ वर्ष पहले यानी १९५१-५२ में लोकसभा के प्रथम चुनाव में वैज्ञानिक मेघनाद साहा निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में उतरे थे । उन्होनें उत्तर-पश्चिम कलकत्ता (अब कोलकाता) से नामांकन पर्चा भरा । यह वही कलकत्ता है, जो उन दिनों कई वैज्ञानिकों की कर्मभूमि रहा है ।
    श्री साहा यहां से भारी मतों से विजयी हुए । उनके निर्वाचित होने पर वैज्ञानिकों सहित सभी को अत्यधिक आश्चर्य हुआ था । मेघनाथ साहा मूलत: वैज्ञानिक थे और उनकी राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय जगत में ख्याति भौतिकीविद के रूप में थी । उनकी जीत पर सबसे अधिक खुशी जिन वैज्ञानिकों ने जाहिर की, उनमें महान वैज्ञानिक एवं विज्ञान संप्रेषक जेबीएस हाल्डेन शामिल थे । 
     वैज्ञानिकों के लिए लोक सभा चुनाव जीतना तब भी एक चुनौती था, आज भी एक चुनौती है । पहली बात, वैज्ञानिक चुनाव में हिस्सा नहीं लेते । दूसरी, चुनाव जीतने के राजनीतिक गुर उन्हें मालूम नहीं होते । हमारे वैज्ञानिक प्राय: सामाजिक जीवन से अलग-थलग शोध की दुनिया में खोए रहते हैं । उनकी लोकप्रियता फिल्म, रंगमंच, खेल और पेशेवर राजनेताआें जैसी नहीं होती । एक बार और, वे जनसभाआें में धुआंधार भाषण देने और मतदाताआें को अपने पक्ष में करने की कला में भी पारंगत नहीं होते । लेकिन इस दृष्टि से मेघनाथ साहा अन्य वैज्ञानिकों से सर्वथा भिन्न थे । उन्हें मालूम था कि अपनी बातों को मनवाने का यथोचित और सशक्त मंच लोकसभा है । जब साहा पहली बार संसद भवन पहुंचे तो एक सांसद ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि वैज्ञानिकों को अपनी प्रयोगशाला में रहकर ही रिसर्च करनी चाहिए । इस पर उनका सहज उत्तर था - मैं संसद भवन को भी अपनी प्रयोगशाला मानता हॅूं । उनके इस उत्तर से कुछ सांसद भौंचक्के रह गए थे । मेघनाद साहा ने लोकसभा में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ वैज्ञानिक मुद्दों को जोरदार ढंग से रख और अपनी अलग पहचान बनाई ।
    विद्यार्थी जीवन से ही सामाजिक गतिविधियों से उनका सरोकार रहा । आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय और जगदीशचन्द्र बसु जैसे अध्यापकों ने उनके विद्यार्थी जीवन को संवारकर नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने में अहम योगदान दिया था । साहा ने युवास्था में ग्रामीण इलाकों में निकटता से गरीबी देखी, जिसका गहरा असर उनके मन पर पड़ा था । उनका मानना था कि सभी समस्याआें का एक प्रमुख कारण आर्थिक परेशानियां है, जिनका समाधान वैज्ञानिक ढंग से किया जा सकता है ।
    मेघनाद साहा को योजना आयोग का सदस्य मनोनीत किया गया । उन दिनों वैज्ञानिकों के लिए यह बड़ा और दुर्लभ सम्मान था । उन्होनें योजना आयोग में देश की पंचवर्षीय योजनाआें में विज्ञान के समावेश पर विशेष जोर दिया । साहा ने विदेशों में विज्ञान के उपयोग में समाज में लोगों के जीवन स्तर में परिवर्तन देखा था । वे चाहते थे ऐसा परिवर्तन हमारे यहां भी दिखाई दे ।
    मेघनाद साहा बहुआयामी प्रतिभा के वैज्ञानिक थे । वे खगोल भौतिकी के विद्वान थे । उन्होनेंऊष्मीय आयनन की मौलिक व्याख्या की थी । १९५२ में वैज्ञानिक एवं औघोगिक अनुसंधान परिषद ने भारतीय कैलेण्डर समिति गठित की, जिसका अध्यक्ष मेघनाद साहा को बनाया गया । उन्होनें शक संवत कैलेण्डर के निर्माण मेंअहम योगदान किया । साहा ने देश में परमाणु भौतिकी को बढ़ावा देने के लिए १९४८ में कोलकाता में नाभिकीय भौतिकी संस्थान की स्थापना की ।
    उनकी विज्ञान समाचारों में विशेष रूचि थी । कोलकाता में १९३४ में इंडियन साइंस न्यूज एसोसिएशन की स्थापना की गई, जिसके प्रथम सचिव मेघनाद साहा थे । वे इसी वर्ष विज्ञान कांग्रेस एसोसिएशन के जनरल प्रेसीडेंट चुने गए । उन्होनें इस मंच से नदियों में बाढ़ और अखिल भारतीय विज्ञान अकादमी के गठन पर विशेष जोर दिया ।
    आरंभिक वर्षो में साहा और सत्येन्द्रनाथ बोस ने मिलकर अनुसंधान किया, लेकिन आगे चलकर साहा लोकसभा और बोस राज्यसभा में पहुंच गए । राष्ट्रपति द्वारा राज्य सभा में विज्ञान, कला, खेल, साहित्य आदि क्षेत्रों की बारह प्रतिभाआें को नामजद किया जाता है । बोस को १९५२ में राज्य सभा के लिए मनोनीत किया गया था ।
    १९५१ से आज तक लोकसभा चुनाव के इतिहास से स्पष्ट हो रहा है कि मघनाद साहा ने एक नया इतिहास रचा और एक विख्यात वैज्ञानिक और लोकप्रिय सांसद दोनों रूपों में अपनी पहचान बनाई । उन्होनें लोकसभा के विभिन्न सत्रों और अधिवेशनों में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया । उन्होनें सदन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पुरजोर समर्थन करते हुए कहा था कि वैज्ञानिकों को आमजन की अपेक्षाआें को पूरा करने के लिए सार्वजनिक जीवन से जुड़ना चाहिए ।
    वास्तव में मेघनाद साहा अकेलेवैज्ञानिक थे जिन्होनें लोकसभा में पहुंच कर वैज्ञानिकांे की अलग-थलग रहने वाली छवि को खण्डित किया । उन्होनें वैज्ञानिक बिरादरी को एक संदेश यह दिया कि अच्छे लोकप्रिय और प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों के लिए लोकसभा चुनाव चुनौती नहीं है । दूसरा यह कि हमारे वैज्ञानिकों को सामाजिक उत्तरदायित्वों से जुड़ना चाहिए । तीसरा, संसद में जनसामान्य से जुड़े वैज्ञानिक मुद्दों को उठाने के लिए वैज्ञानिक नेतृत्व को प्रोत्साहन मिलना चाहिए ।
कृषि जगत
भारतीय कृषि में संचार की उपयोगिता
अनिल सिंह सोलंकी
    भारतीय कृषि में कृषि-संचार की उपयोगिता का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि देश के ५० प्रतिशत से अधिक किसानोंने कृषि-संचार का उपयोग तक नहीं किया है ।
    कृषि-संचार, जो विज्ञान संचार का एक उपवर्ग है, को कृषि विशेषज्ञों, कृषि विस्तार अधिकारी और स्वतंत्र लेखकोंद्वारा किया जाता है । दूसरी ओर, कृषि पत्रकारिता के जिम्मे कृषि खोजोंऔर उनके क्रियान्वयन पर जनता और समाज की आवाज को सरकार तक पहुंचाने का काम है । 
     कृषि संचार का पहला काम मौसम परिवर्तन के आधार पर किसानोंको सूचना देने का होगा । हालांकि सरकारी नीतियों में इसकी अनुपस्थिति से किसानों और कृषि अनुसंधान के बीच एक अंतर बन गया है । यह उपेक्षित क्षेत्र है । अत: कृषि संचार और कृषि पत्रकारिता को फिर से एक नए रूप मोबिलाइजिंग मास मीडिया सपोर्ट फॉर शेयरिंग एग्रो इन्फॉर्मेशन शुरू किया गया है । यह परियोजना २००९ से रार्ष्टीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा देश भर के १० कृषि अनुसंधान केन्द्रोंपर शुरू की गई है । इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य जन संचार के माध्यमोंसे किसानों तक नए कृषि अनुसंधानों के परिणाम पहुंचाना है ।
    देश के लाखोंकिसान कृषि में हो रहे किसी भी नुकसान को सीधे-सीधे जलवायु परिवर्तन से जोड़कर नहीं देखते मगर ७० प्रतिशत किसानों का कहना था कि उनकी फसल बे-मौसम बारिश, सूखा और बाढ़ की वजह से बर्बाद हुई है । १९९४ में डी.जी. राव और एस.एन. सिन्हा ने बताया जलवायु परिवर्तन किसानों को क्षति पहुंचा रहा है । जैसे भारतीय कृषि में यदि आज उपस्थित कार्बन-डाईऑक्साइड की मात्रा दुगनी हो जाए, तो जलवायु परविर्तन के चलते धान और गेहूं की पैदावार लगभग २८ से ६८ प्रतिशत तक प्रभावित हो सकती है । तापमान में २ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से चावल की उपज में लगभग ०.७५ टन/हेक्टर की कमी होने की संभावना है । कम उपज वाले तटीय क्षेत्रों में लगभग ०.०६ टन/हेक्टर तक की कमी हो सकती है । ०.५ डिग्री सेल्यिसय तापमान बढ़ने से अधिक उपज देने वाले क्षेत्रों (जैसे पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश) में पैदावार में लगभग १० प्रतिशत तक कमी हो सकती है ।
    हर वर्ष करीब २.७ लाख लोगों का जीवन समुद्र तटीय इलाकों में जल स्तर में वृद्धि होने से प्रभावित होता रहा है । ऐसे में किसानों से अपेक्षा है कि वे जलवायु परिवर्तन के चलते २०३० तक कृषि की पैदावार बिना तकनीकी सहायता के बढ़ाएं । हाल यह है कि जलवायु परिवर्तन में होने वाले बदलाव को समझने के लिए देश को बाहरी रिसर्च सेंटर्स पर निर्भर रहना पड़ता है । इस समस्या से पार पाने के लिए भारत में आईपीसीसी जैसे केन्द्र स्थापित करने होंगे ।
    मौसम विभाग बारिश के बारे में पहले से जानकारी देने देने में सक्षम है । बहुत कम लोग शायद जानते हैं कि भारतीय मौसम विभाग ओलावृष्टि की पूर्व जानकारी देने में सक्षम नहीं है । खराब मौसम के चलते इस वर्ष मध्यप्रदेश में १० लाख टन गेहूं, १० लाख टन चना, ३ लाख टन दालें और अन्य फसलें  (१,५०,००० टन) बर्बाद हो चुकी हैं । मध्यप्रदेश में किसानों को राहत के तौर पर गेहूं में १५,००० रूपये प्रति हेक्टर के हिसाब से, महाराष्ट्र में १०,०००, १५,००० और २५,००० रूपये मुआवजा राशि क्रमश: वार्षिक, फलोघान और सिंचित फसलों के लिए देने का आश्वासन किसानों को दिया गया है । जबकि राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और आंधप्रदेश में अभी किसानों को मुआवजा मिलना बाकी है, क्योंकि वहां पर फसल-कटाई विधि को मानक मानकर फसल हानि का अनुमान लगाकर क्षतिपूर्ति दी जाएगी । फसल-क्षति का जो कोई भी तरीका हो, फसल क्षति समय रहते किसानों को मिल जाए तो ये उनके लिए बहुत बड़ी मदद होगी । देश में २०० करोड़ रूपये सिर्फ फसलक्षति को पूरा करने में चला गया है ।
    कृषि संचार और कृषि पत्रकारिता मेंअंतर है । किसानों पर इनके असर को लेकर हमें हाल के वर्षो के कुछ महत्वपूर्ण डैटा मिले । कृषि विशेषज्ञों के अनुसार मध्यप्रदेश में गेहूं की उपज २० क्विंटल/एकड़ है, जो अच्छे मौसम में कुछेक किसान ही ले पाते हैं । औसतन तो गेहूं १८-२० क्विंटल/एकड़ ही निकलता है, जो विशेषज्ञों द्वारा बताई गई उपज से ६-८ क्विंटल/एकड़ कम है । इस वर्ष बे-मौसम बारिश और ओलावृष्टि ने गेहूं की इसी उपज को १०-१४ क्विंटल/एकड़ तक कर दिया है जो सरकारी औसत से १६-१२ क्विंटल/एकड़  एवं किसानों के असल औसत से ६-८ क्विंटल/एकड़ तक कम है । सिर्फ किसान के औसत से ही इस वर्ष लगभग ९३०० रूपये प्रति एकड़ रूपये का नुकसान किसानों को हुआ है । सरकार ने मुआवजा की राशि ७५०० रूपये प्रति एकड़ का आश्वासन दिया है, जिसमें किसानों को ८०० रूपये प्रति एकड़ का नुकसान मुआवजे के बाद भी है । यहां पर कृषि संचार जो सरकार के तंत्र द्वारा किया गया है, को संतुलित करने के लिए कृषि पत्रकारिता की सख्त आवश्यकता है ताकि किसानों की बात और उनकी खेती-बाडी का असल हाल सरकार के समक्ष ठीक-ठीक रखा जा सके ।
    दूसरी तरफ, मध्यप्रदेश में सोयाबीन फसल विगत ३-४ सालों से खराब हो रही है । पब्लिक-प्राइवेट सोयाबीन सेंटर्स वर्ष के शुरू में ही सोयाबीन फसल के अच्छा होने का अनुमान लगा लेते हैं । यह किसान के लिए तब बुरा होता जब वे इस पर आंख मूंदकर विश्वास करने लगते हैं और अधिक बुरा तब होता है जब कृषि संचार के तहत उनकी इस भविष्यवाणी को आधार मानकर संचार किया जाता है एवं किसान की फसल-बर्बादी का नकारा जाता है । इसका कारण है कृषि पत्रकारिता जो किसानों की दशा को ठीक से माप नहीं पाती । पत्रकारों के सीमित समय देने के कारण फार्म-रिपोर्टिग ठीक से नहीं हो पाती जिसके फलस्वरूप कृषि संचार की फसल-भविष्यवाणी को ही सर्वोपरि मान लिया जाता है । राष्ट्रीय स्तर पर इसे चुनौती देने की जरूरत है । यह काम स्थानीय मीडिया भलीभांति कर सकता है और उम्मीद की जाती है कि वे फार्म-रिपोर्टिग अच्छी तरह से करें ताकि देश-दुनिया को खबर सही-सही लगे ।
    मशहूर लेखक बिल ब्रायसन कहते है - एक किसान को तीन चीजें मार सकती है : आसमान से गिरने वाली बिजली, ट्रेक्टर से कुचला जाना और बुढ़ापा । जलवायु परिवर्तन के तहत खराब मौसम चौथा कारक होगा जो कृषि को बहुत हद तक प्रभावित कर सकता है, जो आगे चलकर उनकी मौत का कारण भी बन सकता है । फरवरी-मार्च में ओलावृष्टि ने विभिन्न राज्यों में गेहूं, दलहन, गन्ना, चना, सरसों, मक्का, मूंगफली, अंगूर, पपीता, आम, केला अहौर सब्जियों को लगभग ४०-६० प्रतिशत तक बर्बाद कर दिया है ।
    हमारे देश में कुछ और ऐसे ही कारणों की वजह से लगभग २,५०,००० किसान आत्महत्या कर चुके हैं जिनमें १५ प्रतिशत महिलाएं थी । फिलहाल देश में ११ करोड़ किसान रह गए हैं, जो २०११ में १२ करोड़ थे । कुछ और सर्वे बताते हैं कि ७६ प्रतिशत किसान खेती नहीं करना चाहते हैं, वहीं ६१ प्रतिशत का कहना है कि अगर वे बड़ी जगहों पर रहते तो उच्च्-शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार के अवसरों का लाभ उठाते । समय है कृषि-संचार और कृषि पत्रकारिता पर काम करने की ताकि किसान और कृषि का विकास हो सके ।
कविता
जल पर कुछ दोहे
कृपाशंकर शर्मा अचूक

हरियाली जल ग्रहण कर चहुंदिस करे सुवास,
जन, मन, तन हो हरा, रचे नया इतिहास ।
    धरती सूखी हरित हो, रहे सभी सानन्द
    नमी बरसें जल ग्रहण से, मिटे सकल सब द्वन्द ।
सब सागर खारा दिखे, रहते जीव अनेक,
भाप करे जल ग्रहण जब, बादल रखते टेक ।
    कौन शत्रु दीखे यहाँ, कौन यहाँ पर मीत
    प्यास बुझे जलग्रहण कर, मन के जीते जीत ।
कोयल करे पुकार जब, आती नई बहार
वर्षा ऋतु जलग्रहण कर, नित प्रति करे विहार ।
    साधक साधन साध के, मन निज करे विचार,
    तन साधन जलग्रहण है जिससे हो उपकार ।
सर, तरू, सूखे बावड़ी, सूखी औषधि मूल
सरिता तट जल ग्रहण बिन, भूले सभी उसूल ।
    बाहर भीतर का जिसे, नहीं तनिक भी भान
    जला, जलगहण के बिना, जीवन ना आसान ।
सूख के साथ हैं सभी, दुख से कोसों दूर
यह जीवन जल ग्रहण कर, होता फिर भरपूर
    सागर की शोभा बढ़े, जब हो नीर अथाह,
    निश दिन करता जलग्रहण, छोड़ सभी परवाह ।
सुमिरन से सुख उपजे, कहते साधु सुजान,
तन पावन जल ग्रहण से, जो प्राणों का प्राण ।
    संास अचूक मिली तुझे पाया धन अनमोल
    निर्भय कर जल ग्रहण तू उलझी गुत्थी खोल ।
पेड़ कभी नहिं फल भखे, नदी न संचय नीर,
करें सदा जल ग्रहण जो, हों बलवान शरीर ।
    रितु वसन्त को देखके, डाल दिए द्रुम पात
    जल ग्रहण के हेतु ही, पंछी आबत-जात ।
११    ज्ञान विज्ञान
अफ्रीकी रेगिस्तान में चूहे के कद का हाथी
    वैज्ञानिकों को छोटे आकार की एक नई स्तनधारी प्रजाति मिली है । इसका वैज्ञानिक नाम मास्क्रोसेलिडस माइकस एलीफैंट  है । आम भाषा में इसे एलीफैंट शू्र या गोल कान वाले सगी का नाम मिला है । दरअसल ये चूहे के कद का हाथी है । पश्चिमी सहारा के रेगिस्तान में पाई गई इस नई प्रजाति की सबसे बड़ी खूबी है ये कि देखने में यूं तो ये लंबी चोंच जैसी नाक वाला चूहा है । इसका आकार भी चूहे का ही है । लेकिन इसके अलावा आनुवांशिक समेत इसकी अन्य खूबियां धरती पर चलने वाले सबसे विशाल स्तनपायी जीव हाथी से मेल खाती है ।
     अमेरिकी के कैलीफोर्निया एकेडमी ऑफ साइंस के वैज्ञानिक जैक डंबेचर के अनुसार सेंगी चूहे के आनुवांशिक नमूने का अध्ययन करते हुए उन्होनें पाया कि नामीबिया के सुदूर उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र में इस जीव से नजदीकी १६ अन्य जीवों के जीन्स का अध्ययन किया । इस पर वर्ष २००५ से २०११ के बीच अध्ययन जारी रहा । उन्होनें लंदन के प्रीटोरिया, लास एजिलिस और सैन फ्रांसिस्को की प्रयोगशाला में इनका विश्लेषण करवाया । तब इस बात की पुष्टि हुई की ये सेंगी चूहा एकदम नई प्रजाति है । उन्होनें बताया कि सेंगी सिर्फ और सिर्फ अफ्रीका में ही पाए गए हैं । इनके छोटे आकार के बावजूद आनुवांशिक गुणों में ये हाथी, नील गाय आदि के अधिक करीब हैं । इस शोध का जनरल ऑफ मैमोलाजी में प्रकाशित किया गया है । 
पक्षियों की मदद से कीटनाशक
    डारविन के जैव विकास के सिद्धांत के विकास में जिन पक्षियों ने मदद की थी, उनमें से कई पर अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है । फिंच नामक इन पक्षियों की कई प्रजातियां इक्वेडोर के गैलापेगीस समूह द्वीप समूह के अलग-अलग द्वीपोंपर पाई जाती हैं और डारविन ने इनमें प्रजाति निर्माण की प्रक्रिया का बारीकी से अध्ययन किया था । 
 फिलोर्निस डाउनसी नामक मक्खी इन फिंचेस के लिए गंभीर खतरा बन गई है । इस मक्खी की इल्लियां फिंचेस के नवजात चूजों का खून चूसती हैं और कई बार देखा गया है कि ये किसी क्षेत्र के सारे चूजों को मार डालती हैं ।
    इल्लियों द्वारा फिंच चूजों के सफाए की बात सबसे पहले १९९० के दशक में देखी गई थी । तभी से इकॉलॉजीविद फिचेस को इन मक्खियों की इल्लियों से बचाने के उपाय खोज रहे हैं । इस सिलसिले में उस समय गैलापेगोस के चार्ल्स डारविन रिसर्च सेन्टर में काम कर रही सारा नुटी को एक अनोखा विचार आया ।
    उन्होनें अवलोकन किया था कि फिंचेस अपने घोंसले बनाने के लिए कपड़े सूखाने की रस्सी के रेशोंका उपयोग करते हैं । जब नुटी ने उन्हें कपास के गोले उपलब्ध कराए तो फिंचेस ने उनका उपयोग भी अपने घोंसलों में कर लिया । बस यहीं से एक विचार उभरा - यदि कपास के गोलों पर कीटनाशक रसायन का छिड़काव कर दिया जाए, तो फिंचेस इनका उपयोग अपने घोंसलों में करेंगे  और यह कीटनाशक इल्लियों को मार डालेगा ।
    २०१३ में नुटी ने कुछ पैसे जुटाए और अपने विचार की जांच के लिए गैलापेगोस के सांटा क्रूंज द्वीप जा पहुंची । फिंचेस का प्रजनन का मौसम जनवरी से अप्रैल के बीच होता है । इस दौरान द्वीप के एक इलाके में ३० कपास डिस्पेंसर लगा दिए । यह इलाका करीब ६०० मीटर लम्बा और ८० मीटर चौड़ा था । आधे डिस्पेंसर में कपास को परमेथिन से उपचारित करके रखा गया था जबकि शेष में सादा कपास था । परमेथ्रिन एक कीटनाशक है जिसका उपयोग आम तौर पर जूं-नाशी शैम्पू में किया जाता है ।
    प्रजनन काल के अंत में नुटी व उनके साथियों ने २६ घोंसले देखे । इनमें से २२ में कपास का उपयोग किया गया था । जिन घोंसलों में कीटनाशक उपचारित कपास लगा था उनमें इल्लियों की संख्या शेष घोंसलों से आधी ही थी । अध्ययन से यह भी पता चला कि कीटनाशक की मात्रा का काफी असर होता है । जैसे जिन घोंसलों में कीटनाशक उपचारित कपास की मात्रा १ ग्राम थी उनमें परजीवियों की संख्या शून्य रही ।
    एक अन्य प्रयोग में पक्षियों पर सीधे-सीधे कीटनाशक का छिड़काव किया गया था । इन पक्षियों के घोसलों में ३० प्रतिशत ज्यादा चूजे जीवित रहे थे ।
    प्रयोग से तो लगता है कि यह तरीका कारगर है । मगर अब गैलापेगोस नेशनल पार्क सर्विस इस बात का अध्ययन कर रहा है कि परमेथ्रिन का फिंचेस पर क्या असर होता है ।
डीएनए में नया अक्षर जोड़ा गया
    यह तो सर्वविदित है कि डीएनए (डीऑक्सी राइबोन्यूल्कि एसिड) वह अणु है जो शरीर की क्रियाआें और आनुवंशिकी का नियंत्रण करता है । इस अणु में चार क्षर - एडिनीन (ए) थाएमीन (टी) सायटोसीन (सी) ग्वानीन (जी) विशिष्ट क्रम में जमे होते हैं । इन चार क्षारों ए,टी,सी और जी के क्रम से ही तय होता है कि डीएनए का कौन सा खंड कौन-से प्रोटीन का निर्माण करेगा । हरेक जीव में यह क्रम विशिष्ट होता है । 
     अब शोधकर्ताआें ने घोषणा की है कि उन्होनें एक ऐसी कोशिका तैयार की है जिसके डीएनए में उपरोक्त चार क्षारों के अलावा दो अन्य क्षारों को जोड़ा गया है । कैलिफोर्निया के स्क्रिप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट के फ्लॉएड रोमसबर्ग ने नेचर में स्पष्ट किया है कि डीएनए की बदौलत अब कोशिका में ज्यादा सूचना संग्रह किया जा सकता है ।
    यह सवाल तो वैज्ञानिकों ने १९६० के दशक में ही पूछना शुरू कर दिया था कि क्या डीएनए में किन्हीं अन्य रासायनिक समूहों के रूप में सूचना संग्रहित की जा सकती है । सबसे पहले स्विस फेडरल  इंस्टीट्यूट के स्टीवन बेनर ने १९८९ में डीएनए के अणु में सायटोसीन और ग्वानीन के परिवर्तित रूपों को जोड़कर ऐसा डीएनए तैयार करने में सफलता पाई थी जो आरएनए (राइबोन्यूक्लिक एसिड) बना सकता था और प्रोटीन भी बना सकता था । आरएनए वह अणु है जो डीएनए की प्रतिलिपि के रूप में बनता है और फिर कोशिका में प्रोटीन बनाने के सांचे के तौर पर काम करता है । बेनर के समूह ने २००८ में ऐसी ३६०० अणु-जोड़ियों की जांच की थी जो उक्त चार क्षारों का स्थान ले सकते   हैं । इनमें से दो क्षार थे व५डखउड और वछरच । ये दो क्षार सबसे बढ़िया उम्मीदवार थे । उसके बाद बात आई-गई हो गई ।
    अब रोमसबर्ग एक कदम आगे बढ़े हैं । उन्होनें जिन क्षारों का उपयोग किया है वे उपरोक्त चार क्षारों के परिवर्तित रूप नहीं है । इस बार रोमसबर्ग की टीम दो नए क्षारों की जोड़ी को डीएनए में जोड़ने मेे सफल हुई है और यह डीएनए प्रतिलिपि बनाकर आरएनए बनाता है ।
    इसमें पहली मुश्किल तो यह थी कि नए क्षार जोड़ने पर जो कोशिका बने वह हर विभाजन के बाद डीएनए को नई कोशिकाआें में भेज सके । इसके लिए उन्होनें डीएनए के एक छल्ले (प्लाज़्मिड) का उपयोग किया । इस प्लाज़्मिड की विशेषता यह थी कि इसमें मात्र एक जगह पर बेगानी क्षार जोड़ी का उपयोग  किया गया था । इस प्लाज़्मिड को ई.कोली नामक बैक्टीरिया की कोशिका में डाल दिया गया । ई.कोली की कोशिका में विभाजन के दौरान इस प्लाज़्मिड की प्रतिलिपि बनी और नई कोशिका में पहुंची । जब तक ये बेगाने क्षार मौजूद रहे तब तक डीएनए में इनका उपयोग हुआ और उसके बाद पुराने  जाने-पहचाने क्षार वापिस जुड़  गए । इस प्रयोग की सफलता ने जहां जीव वैज्ञानिकों के बीच उत्साह का संचार किया है, वहीं कई चिताएं व सवाल भी उभरने लगे हैं ।
पर्यावरण समाचार
    मध्यप्रदेश में बुरहानपुर जिले में हजारों पेड़-पौधों और सैकड़ों प्राणियों को अपने घर में जगह देकर दिनरात उनकी देखभाल में अपना समय बिताने वाले ४८ वर्षीय समाजसेवी शाहरूख एम. हवलदार अनोखे पर्यावरण मित्र हैं । उन्होनें हर उस सामग्री का उपयोग किया, जिन्हें लोग कचरा समझकर फेंक देते हैं ।
    श्री हवालदार ने पुराने जुते-चप्पल, बल्ब, ट्यूबलाइट्स फालतू इंजेक्शन, परखनलियां, टूथपेस्ट के खाली वैपर, सौंदर्य प्रसाधन के खाली डिब्बोंआदि में हजारों बोंसाई पेड़ व अन्य पौधे लगाकर अनोखी बगिया बना ली । करीब पौने तीन एकड़ में फैलीइस बगिया में देश-विदेश से लाए गए पक्षियों के साथ अपना एक अनोखा परिवार बसाया । बगिया के मध्य स्थित घर में अपने परिजनों के साथ इस अनोखी सुंदर पर्यावरणीय दुनिया में वे खुशमिजाज जीवन जी रहे हैं । सबसे अलग हटकर अनोखा काम कर मिसाल बने हवालदार को शासन-प्रशासन और कई संगठनों ने पुरस्कृत किया । घर में सजी सैकड़ों शील्ड व प्रमाण इस बात के सबूत हैं ।
    श्री हवालदार ने बताया गार्डनिंग का मुझ्े बचपन से ही शौक है । मेरे माता-पिता से इसकी प्रेरणा मिली । मेरी मां एमी हवालदार एवं डॉ. एम.आर. हवालदार को भी बागवानी का शौक था । मेरे माता-पिता द्वारा लगाए गए ५० से भी अधिक वर्ष पुराने पेड़-पौधों को भी मैंने सहेजकर रखा है । मेर द्वारा लगाए गए करीब २० हजार पौधे एवं बोंसाई पेड़ों के साथ      मैं उन पेड़-पौधों की भी देखरेख करता हॅू ।
ग्लोबल वार्मिग से बचा सकती है चींटी
    चींटी हमें ग्लोबल वार्मिग से बचा सकती है । शोधार्थियों के मुताबिक, चीटियों ने ६.५ करोड़ साल पहले अपनी उत्पत्ति के बाद से बड़ी मात्रा में हवा से कार्बन डाईऑक्साइड को सोखा है । एक चींटी का जीवन एक साल से अधिक का नहीं होता है । लेकिन जैसे-जैसे उसकी संख्या बढ़ती है, वैसे-वैसे वह वातावरण को ठण्डा करने में मदद करती है ।
    टेंप शहर में स्थित अरिजोना स्टेट विश्वविघालय के एक भू-गर्भशास्त्री रोनाल्ड डॉर्न ने कहा, चींटियां पर्यावरण को बदल रही हैं । डॉर्न ने पाया की चीटिंया की कुछ प्रजाति खनिज में हवा को सोख कर कैल्शियम कार्बोनेट या लाइमस्टोन बनाने में मदद करती है । लाइमस्टोन बनाने की प्रक्रिया में चींटी हवा से कार्बन डाईऑक्साइड की कुछ मात्रा घटा देती है । अध्ययन दल ने यह भी पाया कि चीटियां बेसाल्ट पत्थर के टूटने मेंभी मदद करती है । उनके मुताबिक, बेसाल्ट पत्थर को यदि खुले में छोड़ दिया जाए तो जितने समय में यह टूट-फूट कर मिट्टी में मिल जाएगा, चींटियां यह काम ५० से ३०० गुणा अधिक तेजी से कर सकती हैं । डॉर्न ने कहा, चींटियां खनिज से कैल्शियम और मैग्निशियम निकाल सकती है और उसका उपयोग लाइमस्टोन बनाने में करती हैं । इस प्रक्रियामें वे कार्बन डाईऑक्साइड गैस की कुछ मात्रा पत्थरों में कैंद कर लेती हैं ।
बच्चें को पीटा तो जेल जाना पड़ेगा
    स्कूलोंऔर घरों में बच्चें को पीटने वाले शिक्षकों और अभिभावकों को अब मारपीट की आदत छोड़ना पड़ेगी । सरकार बच्चें के साथ होने वाले इस दुर्व्यवहार को रोकने के लिए सख्त कानून बना रही हैं । इसके तहत दोष सिद्ध होने पर अधिकतम पांच साल की सजा हो सकती है ।
    बाल न्याय कानून - २००० (जुवेनाइल जस्टिस एक्ट) के स्थान पर केन्द्र सरकार नया कानून बना रही है । इसे बाल न्याय (देखभाल और संरक्षण) विधेयक २०१४ नाम दिया गया है । विधेयक संसद के चालू सत्र में पेश किया जा सकता है । नए कानून को बच्चें के अधिकारों और इस संबंध में अन्य देशों में लागू कानूनों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है ।
    नए कानून के प्रावधानों के तहत शारीरिक दण्ड को अपराध माना गया है । मंत्रिमण्डल की मंजूरी के बाद विधेयक संसद में पेश किया जाएगा । कानून को हरी झण्डी मिली तो भारत उन ४० देशों में शामिल हो जाएगा, जहां बच्चें की पिटाई करना अपराध है । पहली बार दोषी होने पर अर्थदण्ड के साथ छह महीने का कारावास हो सकता है । लेकिन दूसरी बार अपराध पर तीन से अधिकतम पांच साल की सजा हो सकती है ।