रविवार, 10 अगस्त 2014

सामयिक
उड़ती नदी और बहता बादल
मीनाक्षी अरोड़ा/केसर
    मानसून प्रति वर्ष घटने वाली ऐसी शुभ घटना है जिसका हमारे देश व हम पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है । मानसून का आगमन अपने आप में एक उत्सव है । इसका  आभास ही हमें उत्फूल्लता प्रदान करता है । हमारी कृषि भी मानसून पर ही निर्भर है । 
    मेघ ही वह कहार हैं, जो प्रत्येक नदी-नाला और कुआं-बावड़ी सहित हर जलस्त्रोत को तृप्त कर सबमें पानी भरते हैं । मेघ प्रति वर्ष यह काम कश्मीर से कन्याकुमारी तक अनथक करते हैं । मेघ बहुत साहसिक कहार हैं । यह खूब भारी डोली यानी ढ़ेर सारा तरल वाष्प लेकर हजारों मील दूर से भारत की यात्रा की शुरुआत करते हैं । हमारे यहां मानसून हिंद महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से आता है । कभी-कभी मानसून जम्मू-कश्मीर की सीमाओं को पार कर पाकिस्तान होते हुए ईरान की ओर यात्रा पर चला जाता है, तो कभी पूर्वी सीमा पार कर जापान की ओर । दिल्ली तक आते-आते ये मेघ लगभग पच्चीस सौ से चार हजार किलोमीटर की यात्रा कर चुके होते हैं । बूंद, बारिश, मेघ और मानसून के  इस मिले-जुले खेल का रूप है वर्षा   ऋतु ।  प्रकृति ने धरती की सतह का दो-तिहाई समुद्र बनाया है । पानी की कोई कमी नहीं छोड़ी है । सूरज के तपने से जल के हर रूप का वाष्पीकरण होता रहता है । वाष्पित होकर दक्षिण के  विशाल सागरों में विशाल आकाशी 'जलवाष्प` भंडारों का निर्माण होता रहता है ।
     सूरज का उत्तरायण और दक्षिणायन की दिशा लेना भारतीय मानसून के लिए बहुत महत्वपूर्ण है । मकर संक्रांति हमारे मानसून का एक क्रांतिकारी दिन है । इसी दिन सूरज की किरणें दक्षिण से उत्तर की दिशा की ओर बढ़ने लगती हैंऔर मैदानी इलाकों के मौसम में गर्मी आनी शुरू हो जाती है । धीरे-धीरे मार्च, अप्रैल व मई माह में सूरज की किरणें धरती की कर्क रेखा के नजदीक आती जाती  हैं । यानी, धरती के उत्तरी भूभागों में तपिश और गर्मी बढ़ती जाती है । ठीक इसके उलट, धरती के दक्षिणी हिस्सों में तापमान कम होता जाता है । धरती के उत्तरी हिस्सों में हवाएं गर्म होकर वायुमंडल में बहुत ऊपर की ओर उठने लगती हैं । इससे एक खालीपन बन जाता है जिसे मौसम विभाग के लोग 'डिप्रेशन` कहते हैं । यह डिप्रेशन ही अरब की खाड़ी और हिंद महासागर से 'जलवाष्प` भंडारों को उत्तर की ओर बुलाता है ।
    तापमान के इस बारीक से अंतर से मानसून के किसी एक आम दिन मेघ रूपी कहार ७५०० करोड़ टन जलवाष्प भारत के मैदानों की ओर लेकर आते हैं । औसतन प्रतिदिन  २५०० करोड़ टन पानी बूंद के रूप में धरती पर बरसता हैं । वार्षिक भारतीय मानसून में लगभग ४ लाख करोड़ टन पानी सागर से उठकर आसमान में उड़ते हुए भारत की धरती पर आता    है । सागर की अथाह जलराशि से भाप की बूंदें बनने के क्रम को हम देख नहीं सकते, लेकिन जब सागर से विशाल जलवाष्प लेकर मेघ कहार चलते हैं, तो जलवाष्पों से बने बादलों के कई-कई रूप हमें दिखाई देने लगते हैं ।
    बादलों के रूप में पानी की यह विशाल राशि हर साल भारत की धरती पर बरसती है । यह व्योम-प्रवाही गंगाजल होता है । हम इसे गंगाजल कहेंगे, क्योंकि इस जल से ज्यादा शुद्ध, किसी नदी-नाले की तो बात छोड़िए, बड़ी कंंपनियों का बोतलबंद पानी भी नहीं होता । वर्षा जल को कई वर्षों तक के लिए आप रख दीजिए वह खराब नहीं होगा । शुद्धता और गुणवत्ता के  हर मानक पर यह सबसे उत्कृष्ट जल है । अमृतलाल बेगड़ के शब्दों में -
पानी, जब समुद्र से आता है तब बादल
और जाता है तो नदी कहलाता है ।
बादल उड़ती नदी है, नदी बहता बादल है !
    भारतीय कहानियों में आकाश से गंगा के आने का संदर्भ हमें मिलता है, पर हम शायद इस घटना को एक पुरानी घटना के रूप में ही याद रखने लगे हैं । जरूरत है कि हर साल आकाश से उतरने वाली 'आकाशी गंगा` को हम गहरे तक याद रखें, तन-मन से उसका स्वागत करें और भगीरथ की तरह उसको रास्ता दिखाएं ।
    यह कहार बारिश की विशाल जलराशि को दक्षिण से उत्तर तक यानी कन्याकुमारी से कश्मीर तक बरसाते घूमते रहते हैं । मेघों को बुलाने के लिए लोग तरह-तरह से श्रद्धावनत जतन करते रहते हैं । कहीं नई बहुएं हल चलाने का उपक्रम करती हैं । कहीं छोटे बच्चें की नंग-धडंग टोली गांव में 'मेघा सारे पानी दे, नाहीं त आपन नानी दे` गाते घूमती है, तो कहीं यज्ञ या अल्लाह की खास इबादत कर मेघों के आने की दुआ मांगी जाती    है ।
    मेघों के पास जहां का संदेश पहुंचा वहां ज्यादा बरस जाते हैं, तो बाज वक्त  कुछ इलाकों में कम बरसते हैं या उन्हें बिसरा भी जाते हैं । यह ज्यादा-कम होने का खेल प्रकृति का अपना ही है । इस पर कोई सवाल करना बेमानी ही होगा । पिछले वर्ष बुंदेलखंड में औसत आठ  सौ मिमी. से करीब डेढ़ गुना, यानी लगभग साढ़े ग्यारह सौ मिमी. तक बारिश हुई । कोई-कोई साल बुंदेलखंड का ऐसा भी होता है, जब पांच सौ मिमी. से कम भी बारिश होती है । जरूरी है कि प्रकृति के इस खेल को समझें । जब ज्यादा पानी आए तो ताल-तलैयों को भर लें और जब भी कमी या अकाल का साल आ पड़े तो उससे काम चला लें ।
    नए विज्ञान उर्फ सिविल इंजीनियरिंग के चश्मे से देखें । अब तो बस हम इंतजार करते हैं कि आकाशगंगा का दिया हुआ पानी पठार-पहाड़ गांव-गिरांव, खेत-खलिहान से होता हुआ जब नदी में आए तब हम एक बड़े बांध में उसे रोकें और नहर बनाकर खेतों में पहुंचाएं । जब हमारे खेतों में बारिश का पानी आता है, तो उस समय क्या करना है यह अभी भी ठीक से किसी नए विज्ञान का विषय बन नहीं पाया है । 'खेत का पानी खेत में` व खेत की जरूरत पूरा होने के बाद बारिश का पानी प्यार से धरती के पेट में पहुंचाने की जरूरत है । फिलहाल तो पहले पानी बांधों में जमा होता है, फिर बड़ी नहरों, छोटी नहरों, माइनर कैनाल और कुलावों से होता हुआ जब हमारे खेतों में पहुंचता है, तो कुल बारिश का लगभग दसवां हिस्सा ही हमारे काम में आ पाता है । लेकिन यदि हम 'खेत का पानी खेत में और बाकी धरती के पेट में` वाला मंत्र अपना लेते हैं, तो बारिश के एक-तिहाई या आधे पानी तक का उपयोग कर सकते हैं । 
    सिंचाई, सीवेज, जल वितरण की जितनी भी पद्धतियां हैं सब में प्रमुख सोच धरती के नदी जल और भूजल के उपयोग की है । 'नदी जोड़' जैसी अव्यावहारिक योजनाएं ऐसी ही सोचों का परिणाम हैं । मध्यप्रदेश में नर्मदा का पानी शिप्रा में डालकर 'शिप्रा` को तथाकथित जीवनदान दिया गया है । शिप्रा का अर्थ होता है 'तेज बहने वाली नदी`। नर्मदा का पानी डालकर शिप्रा को बहाने की कितनी सार्थक होगी ? अफवाह-तंत्र के विपरीत नर्मदा का पानी शिप्रा में डालने के  लिए चार बार पंप करना पड़ता है । पंपिंग मशीनों को चलाने को लिए काफी ऊर्जा की जरूरत होती है। मध्यप्रदेश सरकार के अनुसार लगभग १०८ करोड़ रुपये हर वर्ष ऊर्जा पर खर्च होगा । वैसे भी यह भी सरकार का पुराना अनुमान है। सरकार पनबिजली, परमाणु, डीजल और कोयला जलाकर कब तक यह ऊर्जा लेती रहेगी ? हालांकिउस पूरे इलाके की औसत वार्षिक वर्षा लगभग ८०० मिमी है, जबकि दिल्ली की औसत वार्षिक वर्षा ७०० मिमी के आसपास ही है ।
    गंगा-अवतरण के लिए भगीरथ बनने पर गंगा का आशीर्वाद आज भी मिलता है । जहां भी प्यार से, श्रद्धा से आकाशी गंगा को किसी ने सहेजा, वहां आज भी एक नई गंगा प्रकट हो ही जाती हैं । जिसे भी देखना है, वह पौढ़ी गढ़वाल के ऊफरैखाल गांव में जाए । वहां अभी एक-दो दशकों के अंदर ही एक नई गंगा उद्गमित, अवतरित हुई हैं । यही मुक्ति  का मार्ग भी है ।

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