रविवार, 10 अगस्त 2014

महिला जगत
मातृत्व हकदारियों को नकारती निर्मम शर्तें
सचिन कुमार जैन
    गरीब लोगों के कल्याण के लिए बनी योजनाओं में ही अक्सर ऐसे प्रावधान कर दिए जाते हैं जिससे कि उन्हें कानूनन इस योजना का लाभ न मिल पाए । मातृत्व हक को लेकर बनी योजनाएं भी इसी मर्ज का शिकार हैं । इसमें निहित अमानवीयता को आप इस आंकड़े से जान सकते हैं कि ९९.७ प्रतिशत कामकाजी महिलाएं मातृत्व हक पाने के सरकारी दायरे से बाहर ही हैं । 
     टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइसेंस का अध्ययन बताता है कि मातृत्व हक संबंधी मौजूदा कार्यक्रमों का लाभ लेनेेके लिए जो शर्तें तय की गई हैं उनमें व्याप्त निर्ममता के चलते १०.१ करोड़ कामकाजी महिलाओं में से १० करोड़ यानि ९९.७ प्रतिशत मातृत्व हक के दायरे से ही बाहर हो जाती हैं । भारत उन १० देशों में शुमार है, जहां दुनिया की ५८ फीसदी मातृ मृत्यु होती हैं । अन्य नौ देश हैं-नाइजीरिया, कांगो, इथियोपिया, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, तंजानिया, कीनिया, चीन और युगांडा । बीते १० साल में संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देकर इस तस्वीर को बदलने की कोशिश हुई। कुछ हद तक इसका असर भी हुआ । लेकिन जिस देश में स्त्री रोग विशेषज्ञों और चिकित्सकों के ४० प्रतिशत पद खाली हों, अस्पतालों में २५०० लोगों पर एक  बिस्तर हो तथा दवाएं और जांच की सुविधाएं न हों, वहां केवल संस्थागत प्रसव से सुरक्षित मातृत्व की उम्मीद तो स्वयं ही ज्यादा देर जिंदा नहीं रह सकती ।
    संयुक्त  राष्ट्र संघ की ताजा रिपोर्ट (२०१४) के मुताबिक वर्ष २०१३ के दौरान भारत में ५० हजार (१७ प्रतिशत) और नाइजीरिया में ४० हजार (१४ प्रतिशत) महिलाओं की मातृत्व मृत्यु हुई, यानी दुनिया की एक-तिहाई मातृत्व मौतें इन्हीं दो देशों में हुई हैं । हैरत की बात है कि इसके  बावजूद संयुक्त  राष्ट्र संघ ने मातृ मृत्यु अनुपात से सम्बंधित सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य की रणनीति में मातृत्व हकों की पुरजोर वकालत नहीं की ।  
    आज भी सरकार और समाज की सोच यही है कि अस्पताल में प्रसव होने मात्र से महिलाओं के प्रति सारी जिम्मेदारी पूरी हो जाती है । यह कोई नहीं सोचता कि एक स्त्री के  जीवन को केवल ४८ घंटे के लिए अस्पताल में नहीं रखने, बल्कि उसे सुरक्षित होने का अहसास दिलाने वाली संवेदनशील व्यवस्था की जरूरत है । स्वास्थ्य और सुरक्षित मातृत्व से संबंधित सरकारी जागरूकता कार्यक्रम यह सन्देश देते हैं कि गर्भावस्था में महिला को पर्याप्त आराम मिलना चाहिए । जबकि असंगठित क्षेत्र की कामगार महिलाओं के लिए एक दिन भी काम से दूर रहना लगभग असंभव होता है। वह तो लगभग प्रसव के समय तक मेहनत करती है । दूसरा सन्देश कहता है कि महिला को पूरा पोषण मिले । राष्ट्रीय प्रतिदर्श (नमूना) सर्वेक्षण के ६८वें चक्र की रिपोर्ट के मुताबिक, गांव में प्रति व्यक्ति  प्रतिदिन दाल पर खर्च १.३१ रुपए, दूध/दुग्ध उत्पादों पर ३.८३ रुपए, अंडा, मांस, मछली पर २.२८ रुपए का खर्च करता है । शहरों में दाल पर प्रति व्यक्ति  प्रतिदिन १.७० रुपए और अंडा, मांस, मछली पर ३.२ रुपए का खर्च है ।
    जरा अनुमान लगाएं कि इन हालातों में गर्भवती महिलाओं को कितना पोषण मिल पाता होगा ? इसके अतिरिक्त गरीबी सिर्फ आर्थिक विपन्नता ही नहीं है, बल्कि यह उपेक्षा, लैंगिक उत्पीड़न, गैर जवाबदेही और बहुआयामी भ्रष्टाचार का जाल भी बुनती है । इससे महिलाओं की जिंदगी जंग का मैदान बन जाती है, जहां उनके पास लड़ाई के लिए हथियार भी नहीं होते ।
    भारत में हितग्राहीमूलक योजनाओं का ५० साल का इतिहास दर्शाता है कि केन्द्र और राज्य सरकारों के द्वारा १९ कार्यक्रमों में मातृत्व हक से जुड़ी एक भी योजना या कानूनी प्रावधान नहीं हैं । मौजूदा मातृत्व हक कार्यक्रमों का लाभ लेने के लिए कुछ शर्तें जैसे १९ साल की उम्र हो, दो बच्चें तक ही लाभ मिलेगा, संस्थागत प्रसव होना अनिवार्य आदि रखी गई हैं । इनका अध्ययन कर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस ने बताया कि इन्हीं शर्तों के आधार पर १०.१ करोड़ कामकाजी महिलाओं में से १० करोड़ यानी ९९.७ प्रतिशत मातृत्व हक के  दायरे से ही बाहर हो जाती हैं ।  
    वर्ष २०१३ में बने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून में पहली बार यह प्रावधान हुआ है कि हर महिला को मातृत्व हक के बतौर ६००० रुपए की आर्थिक सहायता दी जाएगी । गौरतलब तमिलनाडु सरकार १९८७ से गरीबी रेखा के नीचे गुजारा करने वाली महिलाओं को दो किस्तों में १२ हजार रुपए की मातृत्व सहायता दे रही है । वर्ष २००६-०७ के दौरान रोजाना औसतन १६०० महिलाओं ने इसका लाभ उठाया । इस पर अध्ययन हुए और कहीं भी भ्रष्टाचार नहीं मिला । केन्द्र सरकार ने इसी तर्ज पर लेकिन कुछ निर्मम शर्तों के साथ इंदिरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना शुरू  की । वैसे भी केन्द्र सरकार का यह प्रयोग अभी देश के ५२ चुनिन्दा जिलों तक ही सीमित है ।
    अप्रैल २००६ में लागू जननी सुरक्षा योजना में मातृत्व सहायता को मिलाया गया है । घर में प्रसव होने पर योजना के तहत ५०० रुपए और संस्थागत प्रसव पर गांव में १४०० और शहर में १००० रुपए की सहायता का प्रावधान है। हालांकि हितग्राही महिला को गर्भावस्था (जब पोषण और आराम के लिए आर्थिक सहयोग सबसे ज्यादा जरुरत है) के दौरान नहीं, बल्कि प्रसव के बाद आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया गया है। वैसे जननी सुरक्षा योजना को मातृत्व हक का कार्यक्रम इसलिए नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसका मकसद एकमात्र संस्थागत प्रसव को बढ़ाना ही था ।
    भारत में २० करोड़ महिलाएं घर में ही कार्य करती हैं । उनके काम को नापने की कोई अधिकृत व्यवस्था नहीं है। यदि एक मजदूर महिला गर्भवती है तो क्या उसे पर्याप्त आराम नहीं मिलना चाहिए ?  क्या आराम करने पर उसे मजदूरी से वंचित कर देना चाहिए ? यदि वो मजदूरी न करे तो क्या उसे पोषण मिल पाएगा ? क्या इन महिलाओं को पर्याप्त पोषण मिलना जरूरी नहीं है ? प्रसव के बाद छह माह तक बच्च्े को मां के दूध और संवेदनशील देखभाल की जरूरत होती है । लेकिन यदि महिला अपने १५ दिन के बच्च्े के साथ काम पर जाए,       तो क्या दोनों का स्वास्थ्य सुरक्षित रहेगा ? यानी कम से कम छह माह तक मां को क ोर श्रम से छुटकारा तो हर हाल में जरूरी है । ऐसे में उनके  मातृत्व हक सुनिश्चित करना एक बड़ी और महत्वपूर्ण चुनौती है ।
    बेहतर होगा कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के  तहत किए गए `कम से कम ६००० रुपए के प्रसूति लाभ` को १८० दिन की न्यूनतम मजदूरी के बराबर भुगतान योग्य` अवकाश से जोड़ा  जाए । सरकार की यह निर्णयात्मक पहल न केवल मातृ मृत्यु को बहुत कम करेगी, बल्कि महिलाओं की ताकत को एक नया आयाम देगी या अपना अमानवीय बर्ताव कायम रखेगी । महिलाओं के लिए अच्छे दिन लाने हेतु सार्वभौमिक मातृत्व हकों की कानूनी व्यवस्था स्थापित करनी ही होगी । दुखद यह है संस्कृति संपन्न देश भारत में सरकारें इस संवेदनशील जरूरत को पूरी तरह से नजरंदाज करती रही   हैं । 

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