स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
निर्माण मजदूरों का आर्थिक अहित
भारत डोगरा/रीना मेहता
भारत सरकार ने निर्माण मजदूरों के हितार्थ दो कानूनों के अंतर्गत उपकर का प्रावधान किया । इस कोष का उपयोग मजदूरों को सामाजिक व स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करना था । अफसोसजनक है कि सर्वप्रथम इस कोष में उम्मीद से आधा पैसा ही इकट्ठा हुआ और दूसरा यह इसका ८५ प्रतिशत खर्च ही नहीं किया गया ।
सौ दो सौ फीट की ऊंचाई पर बहुमंजिला इमारतों के निर्माण में लगे श्रमिकों को देखकर हम यह सोचकर सिहर उठते हैंकि असावधानी से उठा एक भी कदम का अंजाम मौत हो सकता है । हम उनके बच्चें को निर्माण स्थलों के आसपास की धूल मिट्टी में बिलखते हुए देखते हैं। मेहनत-मशक्क्त में लगी उनकी मां को उन्हें बहलाने तो क्या, दूध पिलाने तक की फूरसत मुश्किल से मिलती है । हमारी नजरों से परे दूर-दराज के दुर्गम पहाड़ों और वीरान इलाकों में वे कहीं बांध बना रहे होते हैंतो कहीं पुल, कहीं सुरंगें तो कहीं सड़कें । इन कार्यों में वे तरह तरह के जोखिम और कभी कभी तो आतंकवादियों की गोलियों तक को झेल रहे होते हैं।
निर्माण मजदूरों का आर्थिक अहित
भारत डोगरा/रीना मेहता
भारत सरकार ने निर्माण मजदूरों के हितार्थ दो कानूनों के अंतर्गत उपकर का प्रावधान किया । इस कोष का उपयोग मजदूरों को सामाजिक व स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करना था । अफसोसजनक है कि सर्वप्रथम इस कोष में उम्मीद से आधा पैसा ही इकट्ठा हुआ और दूसरा यह इसका ८५ प्रतिशत खर्च ही नहीं किया गया ।
सौ दो सौ फीट की ऊंचाई पर बहुमंजिला इमारतों के निर्माण में लगे श्रमिकों को देखकर हम यह सोचकर सिहर उठते हैंकि असावधानी से उठा एक भी कदम का अंजाम मौत हो सकता है । हम उनके बच्चें को निर्माण स्थलों के आसपास की धूल मिट्टी में बिलखते हुए देखते हैं। मेहनत-मशक्क्त में लगी उनकी मां को उन्हें बहलाने तो क्या, दूध पिलाने तक की फूरसत मुश्किल से मिलती है । हमारी नजरों से परे दूर-दराज के दुर्गम पहाड़ों और वीरान इलाकों में वे कहीं बांध बना रहे होते हैंतो कहीं पुल, कहीं सुरंगें तो कहीं सड़कें । इन कार्यों में वे तरह तरह के जोखिम और कभी कभी तो आतंकवादियों की गोलियों तक को झेल रहे होते हैं।
भारत के ४.५ करोड़ निर्माण मजदूर गगनचंुबी इमारतें बनाते हुए भी स्वयं झोपड़ियों में रहने को मजबूर हैं। तरह-तरह की दुर्घटनाओं और जोखिमों के साए में उनकी दिनचर्या चलती ही रहती है । इन निर्माण मजदूरों का दुख-दर्द बांटने के स्थान पर प्रति महीने उनके हक के करोड़ों रुपए उनसे छीने जा रहे हैं।
अनेक वर्षों की देरी के बाद वर्ष १९९६ में हमारी संसद ने निर्माण मजदूरों की बहुपक्षीय भलाई के लिए दो महत्वपूर्ण कानून 'भवन व निर्माण मजदूर (रोजगार व सेवा स्थितियों का नियमन) अधिनियम १९९६` व 'भवन तथा अन्य निर्माण मजदूर कल्याण उपकर अधिनियम, १९९६` पारित किए । विभिन्न केन्द्रीय श्रमिक संगठनों की भागीदारी से निर्माण मजदूरों की राष्ट्रीय अभियान समिति के १२ वर्षों तक सतत् प्रयास के बाद यह अधिनियम बने थे । इन कानूनों में यह व्यवस्था भी है कि जो भी नया निर्माण कार्य हो, उसकी कुल लागत के एक प्रतिशत का उपकर लगाया जाए और इसे निर्माण मजदूरों के कल्याण बोर्ड में जमा किया जाए । इस धनराशि से निर्माण मजदूरों की भलाई के बहुपक्षीय कार्य जैसे पेंशन, दुर्घटना के वक्त सहायता, आवास कर्ज, बीमा, मातृत्व सहायता, बच्चें की शिक्षा आदि किए जाएं ।
इन दो कानूनों के अन्तर्गत विभिन्न निर्माण मजदूरों का रजिस्ट्रेशन किया जाएगा व उपकर से प्राप्त धनराशि से उन्हें सामाजिक सुरक्षा के विभिन्न लाभ उपलब्ध करवाए जाएंगे । यह कानून इस तरह का है कि जैसे-जैसे निर्माण कार्य बढ़ेंगे या महंगाई बढ़ेगी, मजदूरों की भलाई के लिए उपकर के माध्यम से जमा पैसा भी अपने आप बढ़ता रहेगा ।
इस विशेष कानून के पारित होने से उम्मीद बंधी थी कि इससे निर्माण मजदूरों और उनके परिवार के सदस्यों के लिए पर्याप्त धनराशि प्राप्त हो सकेगी । कुछ हद तक यह उम्मीद पूरी हुई भी है, पर कानून के क्रियान्वयन में कमियों के दौरान निर्माण मजदूर प्रतिवर्ष सैंकड़ों करोड़ रुपए के लाभ से वंचित हो रहे हैं जिससे बीमार मजदूरों के इलाज व उनके बच्चें की शिक्षा जैसे जरूरी कार्यों के लिए उपलब्ध पैसा उन्हें नहीं मिल पा रहा है या बहुत कम मिल रहा है ।
इन कानूनों के क्रियान्वयन में बहुत देरी हुई व पहले १५ वर्षों के दौरान प्रगति भी बहुत धीमी रही । मजदूरों की भलाई के लिए जमा हुई धनराशि अधिकांश राज्यों में अनुमानित राशि से बहुत कम थी । अनुमान लगाया गया है कि निर्माण मजदूर प्रतिवर्ष सैंकड़ों करोड़ रुपए कानूनी तौर पर मान्य धन से वंचित हुए हैं। इतना ही नहीं, जितनी धनराशि जमा हुई है, उसमें से अधिकांश धनराशि अधिकतर राज्यों के निर्माण मजदूर बोर्डों ने अभी खर्च नहीं की है । इस तरह एक ओर तो निर्माण मजदूर व परिवार स्वास्थ्य सेवा व शिक्षा जैसे जरूरी लाभ से वंचित हो रहे हैं तथा दूसरी ओर कोष में धनराशि बिना खर्च किए रखी है । मजदूरों के रजिस्ट्रेशन का काम काफी पीछे चल रहा है जिससे अनेक जरूरतमंद मजदूर अभी इस लाभ के हकदार ही नहीं बन पाए हैं।
संसद की श्रम पर स्थाई समिति ने निर्माण मजदूरों के कानून पर अपनी ४५ वीं रिपोर्ट (मार्च २०१४) में बताया है कि उपलब्ध नवीनतम जानकारी के अनुसार उपकर द्वारा देश भर में ९९७३ करोड़ रुपए की राशि प्राप्त हुई जिसमें से मात्र १२६५ करोड़ रुपए की राशि ही खर्च की गई। उपरोक्त में से ८००० करोड़ रुपए तो खर्च होना चाहिए था यानि ६७०० करोड़ रुपयों का अतिरिक्त लाभ मजदूरों को मिल सकता था, जो उन्हें अभी तक नहीं मिला ।
पर यह तो इस त्रासद कहानी का अपेक्षाकृत छोटा हिस्सा है । इससे भी बड़ी बात यह है कि उपकर सेे एकत्रित राशि ९९७३ करोड़ रुपए से काफी अधिक होनी चाहिए थी । उपकर के द्वारा (विशेषकर आरंभिक वर्षों में) प्राप्त होने वाली बहुत सी राशि उपलब्ध ही नहीं हो सकी । इस स्थिति को कुछ आंकड़ों से समझा जा सकता है । केरल में उपकर एकत्र करने की स्थिति अपेक्षाकृत ठीक रही है । यह एक बहुत छोटा राज्य है । यहां ५४७ करोड़ रुपए एकत्र हुए तो फिर गुजरात में मात्र १९० करोड़ रुपए क्यों एकत्र हुए ? या अनेक बांध परियोजनाओं जैसे बड़े निर्माण कार्यों वाले हिमाचल प्रदेश में मात्र ५१ करोड़ रुपए क्यों एकत्र हुए । बिहार में केवल २५४ करोड़ रुपए छत्तीसगढ़ में मात्र १५६ करोड़ रुपए, ओडिशा में ३१२ करोड़ रुपए व पंजाब में मात्र ३३५ करोड़ रुपए एकत्र हुए । राजस्थान जैसे बड़े राज्य में केवल २८६ करोड़ रुपए एकत्र हुए व गोवा में तो केवल १२ करोड़ रुपए एकत्र हुए । स्पष्ट है कि अनेक राज्यों में उपकर के अंतर्गत एकत्रित राशि वास्तविक राशि से बहुत कम है ।
कहा जा सकता है कि जितनी राशि मजदूर-कल्याण के लिए एकत्र होनी चाहिए थी उसकी आधी या उससे भी कम राशि उपलब्ध हो सकी । इसके अलावा जो राशि उपलब्ध हुई उसका मात्र १५ प्रतिशत या उससे भी कम मजदूरों के लिए खर्च किया गया । इस त्रासद कहानी का एक अन्य पक्ष भी है । जो धन सरकारी आंकड़ों में मजदूरों के लिए खर्च हुआ दिखाया गया है, वह भी प्राय: सही प्राथमिकताओं, सही नियोजन से और पारदर्शी तौर-तरीकों से खर्च नहीं किया गया है । इतना ही नहीं, ऐसे सुझाव भी सामने आए हैं कि मजदूरोंके कल्याण के लिए जमा की गई राशि को फिर कारपोरेट को सौंप दिया जाए ताकि वे अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर व 'मजदूर कल्याण` की अपनी परिभाषा के आधार पर इसे खर्च कर सकें ।
इस तरह तो मजदूरों के हितों के लिए बनाए गए कानून की मूल भावना ही बुरी तरह क्षतिग्रस्त होगी, क्योंकि मजदूर-कल्याण पर खर्च कैसे होगा यह मूलत: निर्माण मजदूरों की भागीदारी से ही तय होना चाहिए । वैसे भी कारपोरेट पर उपकर लगाकर पैसा एकत्र कर फिर उसे ही लौटा देना तो कानून से खिलवाड़ करने जैसा होगा । राष्ट्रीय श्रम आयोग ने स्पष्ट कहा है कि निर्माण उद्योग के मजदूरों में ट्रेड यूनियन या श्रमिक संगठन बनाने की प्रवृत्ति बहुत कम है ।
आयोग ने एक ऐसे सर्वेक्षण का जिक्र किया है जिसमें ९९९ निर्माण मजदूरों में से मात्र आठ ने कहा कि वे किसी यूनियन के सदस्य हैं। श्रमिकनेताओं ने आयोग को बताया कि जमादारों व ठेकेदारों के डर के कारण, कार्यस्थल बिखरे होने के कारण व प्रवासी/मौसमी मजदूरी की स्थितियों के कारण संगठन बनाना कठिन है । इन विकट स्थितियों में इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है कि निर्माण मजदूरों की भलाई के लिए तय धनराशि उन्हें नियमित मिलती रहे ।
अनेक वर्षों की देरी के बाद वर्ष १९९६ में हमारी संसद ने निर्माण मजदूरों की बहुपक्षीय भलाई के लिए दो महत्वपूर्ण कानून 'भवन व निर्माण मजदूर (रोजगार व सेवा स्थितियों का नियमन) अधिनियम १९९६` व 'भवन तथा अन्य निर्माण मजदूर कल्याण उपकर अधिनियम, १९९६` पारित किए । विभिन्न केन्द्रीय श्रमिक संगठनों की भागीदारी से निर्माण मजदूरों की राष्ट्रीय अभियान समिति के १२ वर्षों तक सतत् प्रयास के बाद यह अधिनियम बने थे । इन कानूनों में यह व्यवस्था भी है कि जो भी नया निर्माण कार्य हो, उसकी कुल लागत के एक प्रतिशत का उपकर लगाया जाए और इसे निर्माण मजदूरों के कल्याण बोर्ड में जमा किया जाए । इस धनराशि से निर्माण मजदूरों की भलाई के बहुपक्षीय कार्य जैसे पेंशन, दुर्घटना के वक्त सहायता, आवास कर्ज, बीमा, मातृत्व सहायता, बच्चें की शिक्षा आदि किए जाएं ।
इन दो कानूनों के अन्तर्गत विभिन्न निर्माण मजदूरों का रजिस्ट्रेशन किया जाएगा व उपकर से प्राप्त धनराशि से उन्हें सामाजिक सुरक्षा के विभिन्न लाभ उपलब्ध करवाए जाएंगे । यह कानून इस तरह का है कि जैसे-जैसे निर्माण कार्य बढ़ेंगे या महंगाई बढ़ेगी, मजदूरों की भलाई के लिए उपकर के माध्यम से जमा पैसा भी अपने आप बढ़ता रहेगा ।
इस विशेष कानून के पारित होने से उम्मीद बंधी थी कि इससे निर्माण मजदूरों और उनके परिवार के सदस्यों के लिए पर्याप्त धनराशि प्राप्त हो सकेगी । कुछ हद तक यह उम्मीद पूरी हुई भी है, पर कानून के क्रियान्वयन में कमियों के दौरान निर्माण मजदूर प्रतिवर्ष सैंकड़ों करोड़ रुपए के लाभ से वंचित हो रहे हैं जिससे बीमार मजदूरों के इलाज व उनके बच्चें की शिक्षा जैसे जरूरी कार्यों के लिए उपलब्ध पैसा उन्हें नहीं मिल पा रहा है या बहुत कम मिल रहा है ।
इन कानूनों के क्रियान्वयन में बहुत देरी हुई व पहले १५ वर्षों के दौरान प्रगति भी बहुत धीमी रही । मजदूरों की भलाई के लिए जमा हुई धनराशि अधिकांश राज्यों में अनुमानित राशि से बहुत कम थी । अनुमान लगाया गया है कि निर्माण मजदूर प्रतिवर्ष सैंकड़ों करोड़ रुपए कानूनी तौर पर मान्य धन से वंचित हुए हैं। इतना ही नहीं, जितनी धनराशि जमा हुई है, उसमें से अधिकांश धनराशि अधिकतर राज्यों के निर्माण मजदूर बोर्डों ने अभी खर्च नहीं की है । इस तरह एक ओर तो निर्माण मजदूर व परिवार स्वास्थ्य सेवा व शिक्षा जैसे जरूरी लाभ से वंचित हो रहे हैं तथा दूसरी ओर कोष में धनराशि बिना खर्च किए रखी है । मजदूरों के रजिस्ट्रेशन का काम काफी पीछे चल रहा है जिससे अनेक जरूरतमंद मजदूर अभी इस लाभ के हकदार ही नहीं बन पाए हैं।
संसद की श्रम पर स्थाई समिति ने निर्माण मजदूरों के कानून पर अपनी ४५ वीं रिपोर्ट (मार्च २०१४) में बताया है कि उपलब्ध नवीनतम जानकारी के अनुसार उपकर द्वारा देश भर में ९९७३ करोड़ रुपए की राशि प्राप्त हुई जिसमें से मात्र १२६५ करोड़ रुपए की राशि ही खर्च की गई। उपरोक्त में से ८००० करोड़ रुपए तो खर्च होना चाहिए था यानि ६७०० करोड़ रुपयों का अतिरिक्त लाभ मजदूरों को मिल सकता था, जो उन्हें अभी तक नहीं मिला ।
पर यह तो इस त्रासद कहानी का अपेक्षाकृत छोटा हिस्सा है । इससे भी बड़ी बात यह है कि उपकर सेे एकत्रित राशि ९९७३ करोड़ रुपए से काफी अधिक होनी चाहिए थी । उपकर के द्वारा (विशेषकर आरंभिक वर्षों में) प्राप्त होने वाली बहुत सी राशि उपलब्ध ही नहीं हो सकी । इस स्थिति को कुछ आंकड़ों से समझा जा सकता है । केरल में उपकर एकत्र करने की स्थिति अपेक्षाकृत ठीक रही है । यह एक बहुत छोटा राज्य है । यहां ५४७ करोड़ रुपए एकत्र हुए तो फिर गुजरात में मात्र १९० करोड़ रुपए क्यों एकत्र हुए ? या अनेक बांध परियोजनाओं जैसे बड़े निर्माण कार्यों वाले हिमाचल प्रदेश में मात्र ५१ करोड़ रुपए क्यों एकत्र हुए । बिहार में केवल २५४ करोड़ रुपए छत्तीसगढ़ में मात्र १५६ करोड़ रुपए, ओडिशा में ३१२ करोड़ रुपए व पंजाब में मात्र ३३५ करोड़ रुपए एकत्र हुए । राजस्थान जैसे बड़े राज्य में केवल २८६ करोड़ रुपए एकत्र हुए व गोवा में तो केवल १२ करोड़ रुपए एकत्र हुए । स्पष्ट है कि अनेक राज्यों में उपकर के अंतर्गत एकत्रित राशि वास्तविक राशि से बहुत कम है ।
कहा जा सकता है कि जितनी राशि मजदूर-कल्याण के लिए एकत्र होनी चाहिए थी उसकी आधी या उससे भी कम राशि उपलब्ध हो सकी । इसके अलावा जो राशि उपलब्ध हुई उसका मात्र १५ प्रतिशत या उससे भी कम मजदूरों के लिए खर्च किया गया । इस त्रासद कहानी का एक अन्य पक्ष भी है । जो धन सरकारी आंकड़ों में मजदूरों के लिए खर्च हुआ दिखाया गया है, वह भी प्राय: सही प्राथमिकताओं, सही नियोजन से और पारदर्शी तौर-तरीकों से खर्च नहीं किया गया है । इतना ही नहीं, ऐसे सुझाव भी सामने आए हैं कि मजदूरोंके कल्याण के लिए जमा की गई राशि को फिर कारपोरेट को सौंप दिया जाए ताकि वे अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर व 'मजदूर कल्याण` की अपनी परिभाषा के आधार पर इसे खर्च कर सकें ।
इस तरह तो मजदूरों के हितों के लिए बनाए गए कानून की मूल भावना ही बुरी तरह क्षतिग्रस्त होगी, क्योंकि मजदूर-कल्याण पर खर्च कैसे होगा यह मूलत: निर्माण मजदूरों की भागीदारी से ही तय होना चाहिए । वैसे भी कारपोरेट पर उपकर लगाकर पैसा एकत्र कर फिर उसे ही लौटा देना तो कानून से खिलवाड़ करने जैसा होगा । राष्ट्रीय श्रम आयोग ने स्पष्ट कहा है कि निर्माण उद्योग के मजदूरों में ट्रेड यूनियन या श्रमिक संगठन बनाने की प्रवृत्ति बहुत कम है ।
आयोग ने एक ऐसे सर्वेक्षण का जिक्र किया है जिसमें ९९९ निर्माण मजदूरों में से मात्र आठ ने कहा कि वे किसी यूनियन के सदस्य हैं। श्रमिकनेताओं ने आयोग को बताया कि जमादारों व ठेकेदारों के डर के कारण, कार्यस्थल बिखरे होने के कारण व प्रवासी/मौसमी मजदूरी की स्थितियों के कारण संगठन बनाना कठिन है । इन विकट स्थितियों में इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है कि निर्माण मजदूरों की भलाई के लिए तय धनराशि उन्हें नियमित मिलती रहे ।
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