पर्यावरण परिक्रमा
अब फैक्ट्रीमें उगाई जा रही हैं सब्जियां
अगर आपसे पूछा जाए कि सब्जियां कहां पैदा होती हैं, तो आपका जवाब होगा, खेतों में, लेकिन ये जवाब अधूरा है । चौकिंए मत ! जापान मेंे सब्जियां फैक्ट्रियों में भी उगाई जा रही हैं । वहां इस समय ३० से ज्यादा फैक्ट्रियां हैं, जिनमें सब्जियां उगाई जाती हैं ।
क्योटो के केमिओका शहर में सब्जियों की सबसे बड़ी फैक्ट्री है । शायद दुनिया में सब्जी पैदा करने वाली सबसे बड़ी फैक्ट्री है । यहां एक चार मंजिला विशालकाय इमारत मंे सब्जियां उगाई जाती हैं । हर मंजिल पर चार परतों में सब्जी की खेती होती है । इस लिहाज से जगह का भरपूर इस्तेमाल होता है । उत्पादन के मामले में देखा जाए तो परम्परागत खेती के मुकाबले प्रति वर्ग इकाई क्षेत्र मंे इनका उत्पादन १०० गुना तक ज्यादा होता है ।
विश्व की आबादी अभी सात अरब के लगभग है और २०५० तक इसके नौ अरब हो जाने का अनुमान है । ऐसे में खाघान्न उत्पादन के गैर परम्परागत तरीके ईजाद करना जरूरी हो गया है ।
फैक्ट्री में १२ महीने सब्जी उगाना संभव नहीं है । इस तकनीक में पौधांे की बढ़ोतरी के लिए रोशनी से लेकर तापमान तक सब कुछ अपनी सुविधानुसार नियंत्रित किया जाता है । इस पद्धति में पौधे मिट्टी की बजाय सीधे पोषक तत्वों पर भरे पानी में लगाए जाते हैं ।
वैज्ञानिकों का कहना है कि चूंकि ये पौधे बंद जगह पर बढ़ते हैं, इस कारण से इनमें किसी तरह की बीमारी या कीड़ों का डर नहीं रह जाता । फैक्ट्रियों में सब्जियां उगाने में वातावरण की बाध्यता नहीं रह जाती है । जापान में प्रायोगिक तौर पर दक्षिणी धु्रव के शोवा बेस पर भी एक फैक्ट्री लगाई है । इस फैक्ट्री से सफलतापूर्वक सब्जियों का उत्पादन किया जा रहा है । धु्रवों पर तापमान साल के कुछ दिनों में शून्य से ४० डिग्री नीचे तक चला जाता है ।
फैक्ट्री में हर प्रकार की सब्जी को उगाना संभव है । क्योटो की फैक्ट्री में लेट्स (एक प्रकार का सलाद का पत्ता) उगाया जाता है । कुछ फैक्ट्रियों में खीरा-ककड़ी और टमाटर आदि को भी सफलतापूर्वक उगाया गया है । एक फेक्ट्री में प्रायोगिक तौर पर चावल भी उगाने में सफलता हासिल की है ।
गंगा से खत्म हो रही देसी मछलियां
गंगा में जल की कमी, जगह-जगह बांधों के निर्माण, अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप तथा प्रदूषण की गंभीर समस्या के कारण भारतीय उपमहाद्वीप की बेशकीमती कार्प तथा विडाल प्रजातियों की रोहू, कतला, हिलसा तथा झींगा जैसी मछलियां लगभग समाप्त हो गई है और इनकी जगह विदेशी प्रजाति की मछलियों ने ले ली है ।
गंगा नदी में पहले भारतीय कॉर्प समूह की रोहू, कतला, मृगल, विडाल समूह की टेंगरा, पढिन, रिठा तथा अन्य प्रजातियों की बेकरी, सूती, वाम, गौछ, चेला, पोठीया, चन्ना, हिल्सा, महासीर और झींगा आदि मछलियां व्यापक पैमाने पर पायी जाती थी, लेकिन पिछले एक दशक से इनकी संख्या कुछ स्थानों पर काफी कम हो गई है । उसकी जगह अब विदेशी कामन कॉर्प, चाइना, कॉर्प, तेलापिया आदि मछलियां बहुतायता में पायी जाती है ।
केन्द्रीय अंतर्स्थलीय मात्स्-यकी अनुसंधन संस्थान के इलाहाबाद क्षेत्रीय केन्द्र ने वर्षोके अध्ययन के बाद इन तथ्योंको खुलासा किया है । संस्थान ने कहा है कि गंगा नदी तंत्र में भारतीय कार्प और प्रमुख विडाल मत्स्य प्रजातियां समािप्त् के कगार पर पहुंच गई है, जबकि इस प्रजाति की मछलियों की देश ही नही पूरे एशिया महाद्वीप तथा अन्य देशों में भी मत्स्य पालन में प्रमुख भूमिका है । इसलिए गंगा नदी तंत्र की देशी मछलियों को बचाना बहुत आवश्यक है ।
गंगा नदी मत्स्य बीज का प्रमुख स्त्रोत रही है और देश में मत्स्यपालन क्षेत्र के लिए ३० प्रतिशत मत्स्य बीज यही से प्राप्त् होता था । विगत कुछ दशकों में नदी के पानी और जल तंत्र में बहुत बदलाव आया है ।
नदी में बढ् रहे प्रदूषण के कारण जल की भौतिक और रसायनिक संरचना में आये बदलाव के कारण यह मछलियों एवं जीव जन्तुआें के रहने के अनुकूल नहीं रह गया है । देश की प्रमुख नदियों और उसकी सहायक नदियों की कुल लम्बाई लगभग ४५००० किमी है और इनमें लगभग ९३० किस्म की मछलियां पाई जाती हैं ।
होटलों में २० फीसदी खाद्य मिलावटी
बाहर खाने से पहले एक बार इस पर जरूर ध्यान दें । देश भर की रेस्त्राआें और फास्ट फूड दुकानोंपर बेेची जाने वाली २० फीसदी खाद्य वस्तुएं अमानक या मिलावटी होती हैं । सरकारी आंकड़ों में यह निष्कर्ष निकला है । वर्ष २०१३-१४ में सरकारी प्रयोगशा-लाआें में ४६८२३ खाद्य नमूनों की जांच की गई । ये नमूने दूध, दूध से बने पदार्थ, खाद्य तेल तथा मसालों के थे । उनमें से ९२६५ नमूने मिलावटी या भ्रामक ब्रांड के पाए गए ।
इसमें उत्तरप्रदेश पहले नम्बर पर रहा । कुल २९३० वेडरों पर मुकदमा चलाया गया, जिनमें १९१९ दोषी पाए गए । साथ ही राज्य में दोषी वेंडरों पर ४.४७ करोड़ रूपये का जुर्माना भी लगाया गया । साल २०१२-१३ में कुल २५५१ मामले दर्ज किए गए थे, जिनमें १०१० मामलों में सजा हुई और दोषियों पर ३.७० करोड़ रूपए का जुर्माना लगाया गया । महाराष्ट्र में भी सरकारी एजेंसियों ने २५५७ केस किए । इनमें ६६ दोषी पाए गए । साल २०१३-१४ में हरियाणा में भी २६० केस हुए । इनमें १६६ केसोंमें दोष साबित हुआ और २६६१८०० रूपए का जुर्माना लगाया गया । अन्य राज्यों उत्तराखंड में १२२ केस, झारखंड में ९९, बिहार में ९० और दिल्ली में ६१ मामले खाद्य मिलावटी के मिले ।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार राज्य और केन्द्र शासित प्रदेशों की सरकारें खाद्य सुरक्षा और मानक कानून, २००६ के अनुसार नियमित तौर पर चौकसी, निगरानी तथा फूड सैपलिंग करती हैं । राज्य खाद्य सुरक्षा विभाग के नमूने लेकर भारतीय खाद्य सुरक्षा तथा मानक प्राधिकार से मान्यता प्राप्त् प्रयोगशालाआें को भेजते हैं । जांच में जो नमूने कानून के अनुसार खड़े नहीं उतरते, उन मामलों में दोषियों के खिलाफ कार्यवाही शुरू की जाती है ।
अब फैक्ट्रीमें उगाई जा रही हैं सब्जियां
अगर आपसे पूछा जाए कि सब्जियां कहां पैदा होती हैं, तो आपका जवाब होगा, खेतों में, लेकिन ये जवाब अधूरा है । चौकिंए मत ! जापान मेंे सब्जियां फैक्ट्रियों में भी उगाई जा रही हैं । वहां इस समय ३० से ज्यादा फैक्ट्रियां हैं, जिनमें सब्जियां उगाई जाती हैं ।
क्योटो के केमिओका शहर में सब्जियों की सबसे बड़ी फैक्ट्री है । शायद दुनिया में सब्जी पैदा करने वाली सबसे बड़ी फैक्ट्री है । यहां एक चार मंजिला विशालकाय इमारत मंे सब्जियां उगाई जाती हैं । हर मंजिल पर चार परतों में सब्जी की खेती होती है । इस लिहाज से जगह का भरपूर इस्तेमाल होता है । उत्पादन के मामले में देखा जाए तो परम्परागत खेती के मुकाबले प्रति वर्ग इकाई क्षेत्र मंे इनका उत्पादन १०० गुना तक ज्यादा होता है ।
विश्व की आबादी अभी सात अरब के लगभग है और २०५० तक इसके नौ अरब हो जाने का अनुमान है । ऐसे में खाघान्न उत्पादन के गैर परम्परागत तरीके ईजाद करना जरूरी हो गया है ।
फैक्ट्री में १२ महीने सब्जी उगाना संभव नहीं है । इस तकनीक में पौधांे की बढ़ोतरी के लिए रोशनी से लेकर तापमान तक सब कुछ अपनी सुविधानुसार नियंत्रित किया जाता है । इस पद्धति में पौधे मिट्टी की बजाय सीधे पोषक तत्वों पर भरे पानी में लगाए जाते हैं ।
वैज्ञानिकों का कहना है कि चूंकि ये पौधे बंद जगह पर बढ़ते हैं, इस कारण से इनमें किसी तरह की बीमारी या कीड़ों का डर नहीं रह जाता । फैक्ट्रियों में सब्जियां उगाने में वातावरण की बाध्यता नहीं रह जाती है । जापान में प्रायोगिक तौर पर दक्षिणी धु्रव के शोवा बेस पर भी एक फैक्ट्री लगाई है । इस फैक्ट्री से सफलतापूर्वक सब्जियों का उत्पादन किया जा रहा है । धु्रवों पर तापमान साल के कुछ दिनों में शून्य से ४० डिग्री नीचे तक चला जाता है ।
फैक्ट्री में हर प्रकार की सब्जी को उगाना संभव है । क्योटो की फैक्ट्री में लेट्स (एक प्रकार का सलाद का पत्ता) उगाया जाता है । कुछ फैक्ट्रियों में खीरा-ककड़ी और टमाटर आदि को भी सफलतापूर्वक उगाया गया है । एक फेक्ट्री में प्रायोगिक तौर पर चावल भी उगाने में सफलता हासिल की है ।
गंगा से खत्म हो रही देसी मछलियां
गंगा में जल की कमी, जगह-जगह बांधों के निर्माण, अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप तथा प्रदूषण की गंभीर समस्या के कारण भारतीय उपमहाद्वीप की बेशकीमती कार्प तथा विडाल प्रजातियों की रोहू, कतला, हिलसा तथा झींगा जैसी मछलियां लगभग समाप्त हो गई है और इनकी जगह विदेशी प्रजाति की मछलियों ने ले ली है ।
गंगा नदी में पहले भारतीय कॉर्प समूह की रोहू, कतला, मृगल, विडाल समूह की टेंगरा, पढिन, रिठा तथा अन्य प्रजातियों की बेकरी, सूती, वाम, गौछ, चेला, पोठीया, चन्ना, हिल्सा, महासीर और झींगा आदि मछलियां व्यापक पैमाने पर पायी जाती थी, लेकिन पिछले एक दशक से इनकी संख्या कुछ स्थानों पर काफी कम हो गई है । उसकी जगह अब विदेशी कामन कॉर्प, चाइना, कॉर्प, तेलापिया आदि मछलियां बहुतायता में पायी जाती है ।
केन्द्रीय अंतर्स्थलीय मात्स्-यकी अनुसंधन संस्थान के इलाहाबाद क्षेत्रीय केन्द्र ने वर्षोके अध्ययन के बाद इन तथ्योंको खुलासा किया है । संस्थान ने कहा है कि गंगा नदी तंत्र में भारतीय कार्प और प्रमुख विडाल मत्स्य प्रजातियां समािप्त् के कगार पर पहुंच गई है, जबकि इस प्रजाति की मछलियों की देश ही नही पूरे एशिया महाद्वीप तथा अन्य देशों में भी मत्स्य पालन में प्रमुख भूमिका है । इसलिए गंगा नदी तंत्र की देशी मछलियों को बचाना बहुत आवश्यक है ।
गंगा नदी मत्स्य बीज का प्रमुख स्त्रोत रही है और देश में मत्स्यपालन क्षेत्र के लिए ३० प्रतिशत मत्स्य बीज यही से प्राप्त् होता था । विगत कुछ दशकों में नदी के पानी और जल तंत्र में बहुत बदलाव आया है ।
नदी में बढ् रहे प्रदूषण के कारण जल की भौतिक और रसायनिक संरचना में आये बदलाव के कारण यह मछलियों एवं जीव जन्तुआें के रहने के अनुकूल नहीं रह गया है । देश की प्रमुख नदियों और उसकी सहायक नदियों की कुल लम्बाई लगभग ४५००० किमी है और इनमें लगभग ९३० किस्म की मछलियां पाई जाती हैं ।
होटलों में २० फीसदी खाद्य मिलावटी
बाहर खाने से पहले एक बार इस पर जरूर ध्यान दें । देश भर की रेस्त्राआें और फास्ट फूड दुकानोंपर बेेची जाने वाली २० फीसदी खाद्य वस्तुएं अमानक या मिलावटी होती हैं । सरकारी आंकड़ों में यह निष्कर्ष निकला है । वर्ष २०१३-१४ में सरकारी प्रयोगशा-लाआें में ४६८२३ खाद्य नमूनों की जांच की गई । ये नमूने दूध, दूध से बने पदार्थ, खाद्य तेल तथा मसालों के थे । उनमें से ९२६५ नमूने मिलावटी या भ्रामक ब्रांड के पाए गए ।
इसमें उत्तरप्रदेश पहले नम्बर पर रहा । कुल २९३० वेडरों पर मुकदमा चलाया गया, जिनमें १९१९ दोषी पाए गए । साथ ही राज्य में दोषी वेंडरों पर ४.४७ करोड़ रूपये का जुर्माना भी लगाया गया । साल २०१२-१३ में कुल २५५१ मामले दर्ज किए गए थे, जिनमें १०१० मामलों में सजा हुई और दोषियों पर ३.७० करोड़ रूपए का जुर्माना लगाया गया । महाराष्ट्र में भी सरकारी एजेंसियों ने २५५७ केस किए । इनमें ६६ दोषी पाए गए । साल २०१३-१४ में हरियाणा में भी २६० केस हुए । इनमें १६६ केसोंमें दोष साबित हुआ और २६६१८०० रूपए का जुर्माना लगाया गया । अन्य राज्यों उत्तराखंड में १२२ केस, झारखंड में ९९, बिहार में ९० और दिल्ली में ६१ मामले खाद्य मिलावटी के मिले ।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार राज्य और केन्द्र शासित प्रदेशों की सरकारें खाद्य सुरक्षा और मानक कानून, २००६ के अनुसार नियमित तौर पर चौकसी, निगरानी तथा फूड सैपलिंग करती हैं । राज्य खाद्य सुरक्षा विभाग के नमूने लेकर भारतीय खाद्य सुरक्षा तथा मानक प्राधिकार से मान्यता प्राप्त् प्रयोगशालाआें को भेजते हैं । जांच में जो नमूने कानून के अनुसार खड़े नहीं उतरते, उन मामलों में दोषियों के खिलाफ कार्यवाही शुरू की जाती है ।
समुद्री कचरा खा जाएंगे सूक्ष्मजीव
समुद्री कचरे से निपटने में सूक्ष्म जीव अहम भूमिका निभा सकते हैं । ऑस्ट्रलियाई रिसर्चरों के अनुसार एक खास तरह के सूक्ष्म जीव पानी में न सिर्फ प्लास्टिक को खा लेंगे बल्कि उसके टुकड़ों को समुद्र तल पर बैठने में मदद करेंगे ।
दुनिया भर में समुद्रों मेंं प्लास्टिक का टनों कचरा तैर रहा है । यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया के शोधार्थियों का कहना है कि एक खास तरह के सूक्ष्म जीव पानी पर तैर रहे कचरे के विघटन में मदद करते हैं । वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि माइक्रोप्लास्टिक जो आकार में पांच मिलीेमीटर से छोटे होते हैं, समुद्र के प्राकृतिक पर्यावरण को बिगाड़ सकते हैं । संयुक्त राष्ट्र के पर्यवरण कार्यक्रम के २०१२ के आंकड़ों के अनुसार उत्तरी प्रशांत महासागर के प्रतिवर्ग किलोमीटर में माइक्रोप्लास्टिक के करीब १३ हजार टुकड़े मौजूद हैं । समुद्र का यह इलाका माइक्रोप्लास्टिक से सबसे बुरी तरह प्रभावित है ।
विज्ञान की पत्रिका प्लोस वन में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि शोध में ऑस्ट्रेलियाई तटों पर तैरने वाले कचरे की हजार से ज्यादा तस्वीरों का विश्लेषण किया गया । इस शोध के दौरान उन्होंने पाया कि माइक्रोप्लास्टिक डेबरी पर कई सूक्ष्म जीव रह रहे हैं जो आहार के लिए माइक्रोप्लास्टिक के कचरे पर निर्भर हैं । साथ ही उन्हें इन पर कई नए प्रकार के सूक्ष्म जीव भी मिले । दुनिया भर में हर सेंकड आठ टन प्लास्टिक बनता है । हर साल कम से कम ६० लाख टन प्लास्टिक कूड़ा समुद्र में पहुंच रहा है ।
वैज्ञानिकों का कहना है कि महासागर भी बुरी तरह इस कचरे से भर गए हैं । इसके साथ ही पहली बार किसी रिपोर्ट में पानी पर तैर रहे माइक्रोप्लस्टिक के कचरे पर रहने वाले एक विशेष सूक्ष्म जैव समुदाय का जिक्र किया गया है । समुद्र विज्ञानी जूलिया राइसर ने बताया, ऐसा लगता है समुद्र में प्लास्टिक का विघटन हो रहा है । वह इस रिसर्च को लेकर खासी उत्साहित हैं । वह कहती हैं, प्लास्टिक खाने वाले जीव जमीन पर भी कचरे से निपटने में मदद कर सकत हैं ।
सुश्री राइसर ने बताया कि केवल दो अणुआें की संरचना वाले ये सूक्ष्म जीव माइक्रोप्लास्टिक को नाव की तरह इस्तेमाल करते हैं और समुद्री सतह पर इसी के सहारे तैरते हैं । जैसे-जैसे माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े पर सवार माइक्रोब्स की संख्या बढ़ती जाती है, प्लास्टिक का सूक्ष्म टुकड़ा डूबने लगता है और समुद्र तल मेंं जाकर बैठ जाता है ।
समुद्री कचरे से निपटने में सूक्ष्म जीव अहम भूमिका निभा सकते हैं । ऑस्ट्रलियाई रिसर्चरों के अनुसार एक खास तरह के सूक्ष्म जीव पानी में न सिर्फ प्लास्टिक को खा लेंगे बल्कि उसके टुकड़ों को समुद्र तल पर बैठने में मदद करेंगे ।
दुनिया भर में समुद्रों मेंं प्लास्टिक का टनों कचरा तैर रहा है । यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया के शोधार्थियों का कहना है कि एक खास तरह के सूक्ष्म जीव पानी पर तैर रहे कचरे के विघटन में मदद करते हैं । वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि माइक्रोप्लास्टिक जो आकार में पांच मिलीेमीटर से छोटे होते हैं, समुद्र के प्राकृतिक पर्यावरण को बिगाड़ सकते हैं । संयुक्त राष्ट्र के पर्यवरण कार्यक्रम के २०१२ के आंकड़ों के अनुसार उत्तरी प्रशांत महासागर के प्रतिवर्ग किलोमीटर में माइक्रोप्लास्टिक के करीब १३ हजार टुकड़े मौजूद हैं । समुद्र का यह इलाका माइक्रोप्लास्टिक से सबसे बुरी तरह प्रभावित है ।
विज्ञान की पत्रिका प्लोस वन में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि शोध में ऑस्ट्रेलियाई तटों पर तैरने वाले कचरे की हजार से ज्यादा तस्वीरों का विश्लेषण किया गया । इस शोध के दौरान उन्होंने पाया कि माइक्रोप्लास्टिक डेबरी पर कई सूक्ष्म जीव रह रहे हैं जो आहार के लिए माइक्रोप्लास्टिक के कचरे पर निर्भर हैं । साथ ही उन्हें इन पर कई नए प्रकार के सूक्ष्म जीव भी मिले । दुनिया भर में हर सेंकड आठ टन प्लास्टिक बनता है । हर साल कम से कम ६० लाख टन प्लास्टिक कूड़ा समुद्र में पहुंच रहा है ।
वैज्ञानिकों का कहना है कि महासागर भी बुरी तरह इस कचरे से भर गए हैं । इसके साथ ही पहली बार किसी रिपोर्ट में पानी पर तैर रहे माइक्रोप्लस्टिक के कचरे पर रहने वाले एक विशेष सूक्ष्म जैव समुदाय का जिक्र किया गया है । समुद्र विज्ञानी जूलिया राइसर ने बताया, ऐसा लगता है समुद्र में प्लास्टिक का विघटन हो रहा है । वह इस रिसर्च को लेकर खासी उत्साहित हैं । वह कहती हैं, प्लास्टिक खाने वाले जीव जमीन पर भी कचरे से निपटने में मदद कर सकत हैं ।
सुश्री राइसर ने बताया कि केवल दो अणुआें की संरचना वाले ये सूक्ष्म जीव माइक्रोप्लास्टिक को नाव की तरह इस्तेमाल करते हैं और समुद्री सतह पर इसी के सहारे तैरते हैं । जैसे-जैसे माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े पर सवार माइक्रोब्स की संख्या बढ़ती जाती है, प्लास्टिक का सूक्ष्म टुकड़ा डूबने लगता है और समुद्र तल मेंं जाकर बैठ जाता है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें