११ ज्ञान विज्ञान
अफ्रीकी रेगिस्तान में चूहे के कद का हाथी
वैज्ञानिकों को छोटे आकार की एक नई स्तनधारी प्रजाति मिली है । इसका वैज्ञानिक नाम मास्क्रोसेलिडस माइकस एलीफैंट है । आम भाषा में इसे एलीफैंट शू्र या गोल कान वाले सगी का नाम मिला है । दरअसल ये चूहे के कद का हाथी है । पश्चिमी सहारा के रेगिस्तान में पाई गई इस नई प्रजाति की सबसे बड़ी खूबी है ये कि देखने में यूं तो ये लंबी चोंच जैसी नाक वाला चूहा है । इसका आकार भी चूहे का ही है । लेकिन इसके अलावा आनुवांशिक समेत इसकी अन्य खूबियां धरती पर चलने वाले सबसे विशाल स्तनपायी जीव हाथी से मेल खाती है ।
अफ्रीकी रेगिस्तान में चूहे के कद का हाथी
वैज्ञानिकों को छोटे आकार की एक नई स्तनधारी प्रजाति मिली है । इसका वैज्ञानिक नाम मास्क्रोसेलिडस माइकस एलीफैंट है । आम भाषा में इसे एलीफैंट शू्र या गोल कान वाले सगी का नाम मिला है । दरअसल ये चूहे के कद का हाथी है । पश्चिमी सहारा के रेगिस्तान में पाई गई इस नई प्रजाति की सबसे बड़ी खूबी है ये कि देखने में यूं तो ये लंबी चोंच जैसी नाक वाला चूहा है । इसका आकार भी चूहे का ही है । लेकिन इसके अलावा आनुवांशिक समेत इसकी अन्य खूबियां धरती पर चलने वाले सबसे विशाल स्तनपायी जीव हाथी से मेल खाती है ।
अमेरिकी के कैलीफोर्निया एकेडमी ऑफ साइंस के वैज्ञानिक जैक डंबेचर के अनुसार सेंगी चूहे के आनुवांशिक नमूने का अध्ययन करते हुए उन्होनें पाया कि नामीबिया के सुदूर उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र में इस जीव से नजदीकी १६ अन्य जीवों के जीन्स का अध्ययन किया । इस पर वर्ष २००५ से २०११ के बीच अध्ययन जारी रहा । उन्होनें लंदन के प्रीटोरिया, लास एजिलिस और सैन फ्रांसिस्को की प्रयोगशाला में इनका विश्लेषण करवाया । तब इस बात की पुष्टि हुई की ये सेंगी चूहा एकदम नई प्रजाति है । उन्होनें बताया कि सेंगी सिर्फ और सिर्फ अफ्रीका में ही पाए गए हैं । इनके छोटे आकार के बावजूद आनुवांशिक गुणों में ये हाथी, नील गाय आदि के अधिक करीब हैं । इस शोध का जनरल ऑफ मैमोलाजी में प्रकाशित किया गया है ।
पक्षियों की मदद से कीटनाशक
डारविन के जैव विकास के सिद्धांत के विकास में जिन पक्षियों ने मदद की थी, उनमें से कई पर अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है । फिंच नामक इन पक्षियों की कई प्रजातियां इक्वेडोर के गैलापेगीस समूह द्वीप समूह के अलग-अलग द्वीपोंपर पाई जाती हैं और डारविन ने इनमें प्रजाति निर्माण की प्रक्रिया का बारीकी से अध्ययन किया था ।
पक्षियों की मदद से कीटनाशक
डारविन के जैव विकास के सिद्धांत के विकास में जिन पक्षियों ने मदद की थी, उनमें से कई पर अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है । फिंच नामक इन पक्षियों की कई प्रजातियां इक्वेडोर के गैलापेगीस समूह द्वीप समूह के अलग-अलग द्वीपोंपर पाई जाती हैं और डारविन ने इनमें प्रजाति निर्माण की प्रक्रिया का बारीकी से अध्ययन किया था ।
फिलोर्निस डाउनसी नामक मक्खी इन फिंचेस के लिए गंभीर खतरा बन गई है । इस मक्खी की इल्लियां फिंचेस के नवजात चूजों का खून चूसती हैं और कई बार देखा गया है कि ये किसी क्षेत्र के सारे चूजों को मार डालती हैं ।
इल्लियों द्वारा फिंच चूजों के सफाए की बात सबसे पहले १९९० के दशक में देखी गई थी । तभी से इकॉलॉजीविद फिचेस को इन मक्खियों की इल्लियों से बचाने के उपाय खोज रहे हैं । इस सिलसिले में उस समय गैलापेगोस के चार्ल्स डारविन रिसर्च सेन्टर में काम कर रही सारा नुटी को एक अनोखा विचार आया ।
उन्होनें अवलोकन किया था कि फिंचेस अपने घोंसले बनाने के लिए कपड़े सूखाने की रस्सी के रेशोंका उपयोग करते हैं । जब नुटी ने उन्हें कपास के गोले उपलब्ध कराए तो फिंचेस ने उनका उपयोग भी अपने घोंसलों में कर लिया । बस यहीं से एक विचार उभरा - यदि कपास के गोलों पर कीटनाशक रसायन का छिड़काव कर दिया जाए, तो फिंचेस इनका उपयोग अपने घोंसलों में करेंगे और यह कीटनाशक इल्लियों को मार डालेगा ।
२०१३ में नुटी ने कुछ पैसे जुटाए और अपने विचार की जांच के लिए गैलापेगोस के सांटा क्रूंज द्वीप जा पहुंची । फिंचेस का प्रजनन का मौसम जनवरी से अप्रैल के बीच होता है । इस दौरान द्वीप के एक इलाके में ३० कपास डिस्पेंसर लगा दिए । यह इलाका करीब ६०० मीटर लम्बा और ८० मीटर चौड़ा था । आधे डिस्पेंसर में कपास को परमेथिन से उपचारित करके रखा गया था जबकि शेष में सादा कपास था । परमेथ्रिन एक कीटनाशक है जिसका उपयोग आम तौर पर जूं-नाशी शैम्पू में किया जाता है ।
प्रजनन काल के अंत में नुटी व उनके साथियों ने २६ घोंसले देखे । इनमें से २२ में कपास का उपयोग किया गया था । जिन घोंसलों में कीटनाशक उपचारित कपास लगा था उनमें इल्लियों की संख्या शेष घोंसलों से आधी ही थी । अध्ययन से यह भी पता चला कि कीटनाशक की मात्रा का काफी असर होता है । जैसे जिन घोंसलों में कीटनाशक उपचारित कपास की मात्रा १ ग्राम थी उनमें परजीवियों की संख्या शून्य रही ।
एक अन्य प्रयोग में पक्षियों पर सीधे-सीधे कीटनाशक का छिड़काव किया गया था । इन पक्षियों के घोसलों में ३० प्रतिशत ज्यादा चूजे जीवित रहे थे ।
प्रयोग से तो लगता है कि यह तरीका कारगर है । मगर अब गैलापेगोस नेशनल पार्क सर्विस इस बात का अध्ययन कर रहा है कि परमेथ्रिन का फिंचेस पर क्या असर होता है ।
डीएनए में नया अक्षर जोड़ा गया
यह तो सर्वविदित है कि डीएनए (डीऑक्सी राइबोन्यूल्कि एसिड) वह अणु है जो शरीर की क्रियाआें और आनुवंशिकी का नियंत्रण करता है । इस अणु में चार क्षर - एडिनीन (ए) थाएमीन (टी) सायटोसीन (सी) ग्वानीन (जी) विशिष्ट क्रम में जमे होते हैं । इन चार क्षारों ए,टी,सी और जी के क्रम से ही तय होता है कि डीएनए का कौन सा खंड कौन-से प्रोटीन का निर्माण करेगा । हरेक जीव में यह क्रम विशिष्ट होता है ।
इल्लियों द्वारा फिंच चूजों के सफाए की बात सबसे पहले १९९० के दशक में देखी गई थी । तभी से इकॉलॉजीविद फिचेस को इन मक्खियों की इल्लियों से बचाने के उपाय खोज रहे हैं । इस सिलसिले में उस समय गैलापेगोस के चार्ल्स डारविन रिसर्च सेन्टर में काम कर रही सारा नुटी को एक अनोखा विचार आया ।
उन्होनें अवलोकन किया था कि फिंचेस अपने घोंसले बनाने के लिए कपड़े सूखाने की रस्सी के रेशोंका उपयोग करते हैं । जब नुटी ने उन्हें कपास के गोले उपलब्ध कराए तो फिंचेस ने उनका उपयोग भी अपने घोंसलों में कर लिया । बस यहीं से एक विचार उभरा - यदि कपास के गोलों पर कीटनाशक रसायन का छिड़काव कर दिया जाए, तो फिंचेस इनका उपयोग अपने घोंसलों में करेंगे और यह कीटनाशक इल्लियों को मार डालेगा ।
२०१३ में नुटी ने कुछ पैसे जुटाए और अपने विचार की जांच के लिए गैलापेगोस के सांटा क्रूंज द्वीप जा पहुंची । फिंचेस का प्रजनन का मौसम जनवरी से अप्रैल के बीच होता है । इस दौरान द्वीप के एक इलाके में ३० कपास डिस्पेंसर लगा दिए । यह इलाका करीब ६०० मीटर लम्बा और ८० मीटर चौड़ा था । आधे डिस्पेंसर में कपास को परमेथिन से उपचारित करके रखा गया था जबकि शेष में सादा कपास था । परमेथ्रिन एक कीटनाशक है जिसका उपयोग आम तौर पर जूं-नाशी शैम्पू में किया जाता है ।
प्रजनन काल के अंत में नुटी व उनके साथियों ने २६ घोंसले देखे । इनमें से २२ में कपास का उपयोग किया गया था । जिन घोंसलों में कीटनाशक उपचारित कपास लगा था उनमें इल्लियों की संख्या शेष घोंसलों से आधी ही थी । अध्ययन से यह भी पता चला कि कीटनाशक की मात्रा का काफी असर होता है । जैसे जिन घोंसलों में कीटनाशक उपचारित कपास की मात्रा १ ग्राम थी उनमें परजीवियों की संख्या शून्य रही ।
एक अन्य प्रयोग में पक्षियों पर सीधे-सीधे कीटनाशक का छिड़काव किया गया था । इन पक्षियों के घोसलों में ३० प्रतिशत ज्यादा चूजे जीवित रहे थे ।
प्रयोग से तो लगता है कि यह तरीका कारगर है । मगर अब गैलापेगोस नेशनल पार्क सर्विस इस बात का अध्ययन कर रहा है कि परमेथ्रिन का फिंचेस पर क्या असर होता है ।
डीएनए में नया अक्षर जोड़ा गया
यह तो सर्वविदित है कि डीएनए (डीऑक्सी राइबोन्यूल्कि एसिड) वह अणु है जो शरीर की क्रियाआें और आनुवंशिकी का नियंत्रण करता है । इस अणु में चार क्षर - एडिनीन (ए) थाएमीन (टी) सायटोसीन (सी) ग्वानीन (जी) विशिष्ट क्रम में जमे होते हैं । इन चार क्षारों ए,टी,सी और जी के क्रम से ही तय होता है कि डीएनए का कौन सा खंड कौन-से प्रोटीन का निर्माण करेगा । हरेक जीव में यह क्रम विशिष्ट होता है ।
अब शोधकर्ताआें ने घोषणा की है कि उन्होनें एक ऐसी कोशिका तैयार की है जिसके डीएनए में उपरोक्त चार क्षारों के अलावा दो अन्य क्षारों को जोड़ा गया है । कैलिफोर्निया के स्क्रिप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट के फ्लॉएड रोमसबर्ग ने नेचर में स्पष्ट किया है कि डीएनए की बदौलत अब कोशिका में ज्यादा सूचना संग्रह किया जा सकता है ।
यह सवाल तो वैज्ञानिकों ने १९६० के दशक में ही पूछना शुरू कर दिया था कि क्या डीएनए में किन्हीं अन्य रासायनिक समूहों के रूप में सूचना संग्रहित की जा सकती है । सबसे पहले स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट के स्टीवन बेनर ने १९८९ में डीएनए के अणु में सायटोसीन और ग्वानीन के परिवर्तित रूपों को जोड़कर ऐसा डीएनए तैयार करने में सफलता पाई थी जो आरएनए (राइबोन्यूक्लिक एसिड) बना सकता था और प्रोटीन भी बना सकता था । आरएनए वह अणु है जो डीएनए की प्रतिलिपि के रूप में बनता है और फिर कोशिका में प्रोटीन बनाने के सांचे के तौर पर काम करता है । बेनर के समूह ने २००८ में ऐसी ३६०० अणु-जोड़ियों की जांच की थी जो उक्त चार क्षारों का स्थान ले सकते हैं । इनमें से दो क्षार थे व५डखउड और वछरच । ये दो क्षार सबसे बढ़िया उम्मीदवार थे । उसके बाद बात आई-गई हो गई ।
अब रोमसबर्ग एक कदम आगे बढ़े हैं । उन्होनें जिन क्षारों का उपयोग किया है वे उपरोक्त चार क्षारों के परिवर्तित रूप नहीं है । इस बार रोमसबर्ग की टीम दो नए क्षारों की जोड़ी को डीएनए में जोड़ने मेे सफल हुई है और यह डीएनए प्रतिलिपि बनाकर आरएनए बनाता है ।
इसमें पहली मुश्किल तो यह थी कि नए क्षार जोड़ने पर जो कोशिका बने वह हर विभाजन के बाद डीएनए को नई कोशिकाआें में भेज सके । इसके लिए उन्होनें डीएनए के एक छल्ले (प्लाज़्मिड) का उपयोग किया । इस प्लाज़्मिड की विशेषता यह थी कि इसमें मात्र एक जगह पर बेगानी क्षार जोड़ी का उपयोग किया गया था । इस प्लाज़्मिड को ई.कोली नामक बैक्टीरिया की कोशिका में डाल दिया गया । ई.कोली की कोशिका में विभाजन के दौरान इस प्लाज़्मिड की प्रतिलिपि बनी और नई कोशिका में पहुंची । जब तक ये बेगाने क्षार मौजूद रहे तब तक डीएनए में इनका उपयोग हुआ और उसके बाद पुराने जाने-पहचाने क्षार वापिस जुड़ गए । इस प्रयोग की सफलता ने जहां जीव वैज्ञानिकों के बीच उत्साह का संचार किया है, वहीं कई चिताएं व सवाल भी उभरने लगे हैं ।
यह सवाल तो वैज्ञानिकों ने १९६० के दशक में ही पूछना शुरू कर दिया था कि क्या डीएनए में किन्हीं अन्य रासायनिक समूहों के रूप में सूचना संग्रहित की जा सकती है । सबसे पहले स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट के स्टीवन बेनर ने १९८९ में डीएनए के अणु में सायटोसीन और ग्वानीन के परिवर्तित रूपों को जोड़कर ऐसा डीएनए तैयार करने में सफलता पाई थी जो आरएनए (राइबोन्यूक्लिक एसिड) बना सकता था और प्रोटीन भी बना सकता था । आरएनए वह अणु है जो डीएनए की प्रतिलिपि के रूप में बनता है और फिर कोशिका में प्रोटीन बनाने के सांचे के तौर पर काम करता है । बेनर के समूह ने २००८ में ऐसी ३६०० अणु-जोड़ियों की जांच की थी जो उक्त चार क्षारों का स्थान ले सकते हैं । इनमें से दो क्षार थे व५डखउड और वछरच । ये दो क्षार सबसे बढ़िया उम्मीदवार थे । उसके बाद बात आई-गई हो गई ।
अब रोमसबर्ग एक कदम आगे बढ़े हैं । उन्होनें जिन क्षारों का उपयोग किया है वे उपरोक्त चार क्षारों के परिवर्तित रूप नहीं है । इस बार रोमसबर्ग की टीम दो नए क्षारों की जोड़ी को डीएनए में जोड़ने मेे सफल हुई है और यह डीएनए प्रतिलिपि बनाकर आरएनए बनाता है ।
इसमें पहली मुश्किल तो यह थी कि नए क्षार जोड़ने पर जो कोशिका बने वह हर विभाजन के बाद डीएनए को नई कोशिकाआें में भेज सके । इसके लिए उन्होनें डीएनए के एक छल्ले (प्लाज़्मिड) का उपयोग किया । इस प्लाज़्मिड की विशेषता यह थी कि इसमें मात्र एक जगह पर बेगानी क्षार जोड़ी का उपयोग किया गया था । इस प्लाज़्मिड को ई.कोली नामक बैक्टीरिया की कोशिका में डाल दिया गया । ई.कोली की कोशिका में विभाजन के दौरान इस प्लाज़्मिड की प्रतिलिपि बनी और नई कोशिका में पहुंची । जब तक ये बेगाने क्षार मौजूद रहे तब तक डीएनए में इनका उपयोग हुआ और उसके बाद पुराने जाने-पहचाने क्षार वापिस जुड़ गए । इस प्रयोग की सफलता ने जहां जीव वैज्ञानिकों के बीच उत्साह का संचार किया है, वहीं कई चिताएं व सवाल भी उभरने लगे हैं ।
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