गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014



सामयिक
वानिकी विकास और सामाजिक संस्थाएें 
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

    वृक्ष और मानव जाति का रिश्ता अनंतकाल से चला आ रहा है । किसी देश की समृद्धि उस देश की वन संपदा पर निर्भर करती है । देश के पर्यावरण में वनों की प्रमुख भूमिका है । पिछले तीन चार दशकों में देश में उभर रही पर्यावरण विघटन की समस्याआें में सबसे ज्यादा जलवायु में जो आश्चर्यजनक परिवर्तन परिलक्षित हो रहे है इनका प्रमुख कारण वनों का विनाश है ।
    मानव जीवन के तीन बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी और उपजाऊ मिट्टी मुख्य रूप से वनों पर ही आधारित है । वनों से हमें कई प्रत्यक्ष लाभ है, इनमें खाद्य पदार्थ औषधियां, फल-फूल, ईधन, पशु आहार, इमारती लकड़ी, वर्षा-संतुलन, भू-जल संरक्षण, भू-संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता आदि प्रमुख है । 
    हमारे देश में प्राचीन काल से ही वृक्षा पूजा का प्रचलन रहा है । देश में एक तरफ तो पेड़ों के प्रति श्रद्धा और आस्था का यह दौर चलता रहा तो दूसरी और बड़ी बेरहमी से वनों को उजाड़ा जाता रहा और यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है । इन दिनों पहाड़ और नदियां नग्न होती जा रही है, इससे देश में बाढ़, सूखा और भूकंप के खतरे बढ़ते जा रहे है । वनों के विनाश ने ग्लोबल वार्मिग की विश्व व्यापी समस्या को जन्म दिया है जिसके कई दुष्परिणाम धीरे-धीरे सामने आ रहे   है ।
    भारतीय कृषि अनुसंधन संस्थान का कहना है कि यदि तापमान में ३ डिग्री सेलसियस की वृद्धि होती है तो देश में गेहूं की सालाना पैदावार में १०-१५ प्रतिशत की कमी हो   जायेगी । पेड लगाने और उन्हें सुरक्षित रखने के लिये हमारे  देश में प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रयास होते रहे है जिसमें सरकार व समाज दोनों ही समान रूप से भागीदार होते थे । राजशाही के दौर में सभी राजाआें ने तालाबों और उद्यानों का विकास  किया । सड़क किनारे छायादार पेड़ लगवाये तो जन-सामान्य ने इनके संरक्षण में अपनी भूमिका निभायी । इस प्रकार राज और समाज के परस्पर सहकार से देश में एक हरित-संस्कृति का विकास हुआ, जिसने वर्षो तक देश को हरा-भरा रखा । वानिकी-विकास की इस समृद्ध परम्परा में कुछ ऐतिहासिक घटनाये हुई जिसने सम्पूर्ण विश्व में भारत की वृक्ष प्रेमी संस्कृति का परिचय दिया । इसमें केवल एक उदाहरण भी चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा ।
    राजस्थान में जोधपुर के पास छोटे से गांव खेजडली में वर्ष १७३० में खेजड़ी के एक पेड़ को बचाने और क्षेत्र की हरियाली को बनाये रखने के लिये ३६३ विश्नोईयों ने अपने प्राणों की आहूति दे दी थी । विश्व में किसी भी समाज में इस प्रकार की घटना का कहीं कोई उल्लेख नहीं आता है कि पेड़ की रक्षा में लोग स्वयं अपने प्राण न्यौछावर कर दे । प्रकृति रक्षा की इस अभूतपूर्व घटना से समूची मानवता गौरवान्वित हुई । विश्व के अनेक देशों में इस घटना से प्रेरणा लेकर लोग पेड़ बचाने के प्रयासोें में लग गये । इस घटना से हमने विश्व के सामने वृक्षों के साथ सहजीवन की परम्परा का परिचय देते हुए यह तथ्य रखा कि प्रकृति और संस्कृति के साहचर्य से ही सभ्यता दीर्घजीवी होती है । इसी भावना को विस्तारित कर हम मानवता के भविष्य को सुरक्षित रख सकते है ।
    वानिकी विकास में सामाजिक संस्थाआें और जन-सामान्य की सक्रिय भागीदारी की परम्परा में सन् १९७३ में गांधीवादी लोक सेवक चंदीप्रसाद भट्ट के नेतृत्व में चिपको आंदोलन शुरू करने वाली उ.प्र. के चमोली जिले की संस्था दशोली ग्राम स्वराज मण्डल ने वन संवर्धन और सुरक्षा के कार्यो में ग्राम समाज का सक्रिय सहयोग प्राप्त् करने में भारी सफलता प्राप्त् की । चिपको आंदोलन की विश्वव्यापी लोकप्रियता ने यह भी सिद्ध किया कि स्वयं सेवी संस्थायें लोगों की बुनियादी जरूरतों को ध्यान में रखकर वानिकी विकास की योजना बनायेगी तो उसे सम्पूर्ण समाज का सहयोग और समर्थन प्राप्त् होगा । चिपको की परम्परा का विकास हमें देश में अनेक भागों में देखने को मिला । देश मेंअनेक सामाजिक संस्थायें और व्यक्ति आगे आये जिन्होनें पेड़ लगाने और उन्हें सुरक्षित रखने में विविध आयामी कार्यक्रमों में न केवल अपनी शक्ति लगायी अपितु समूचे समाज का सहकार भी प्राप्त् कर सफलता के कीर्तिमान रचे ।
    चिपको के बाद वनों की रक्षा का प्रेरणादायी आंदोलन है - रक्षा सूत्र आंदोलन, इसमें भी लोगों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की । उत्तराचंल में सहेली समतियों के माध्यम से युवतियां पौधारोपण एवं उसके संरक्षण में महत्वपूर्ण  भूमिका निभा रही है । समिति द्वारा लड़की की शादी में गांव में कुछ पौधे रोपे जाते है । इनके देखरेख का खर्च वर पक्ष से वसूला जाता है । इस राशि से सहेली समिति द्वारा पौधों का रख-रखाव किया जाता है । इस कार्यक्रम को मिल रहे भारी समर्थन से संकेत मिलता है कि लोगों की रोजमर्रा की जरूरतों यानी ईधन, चारा, लकड़ी आदि की पूर्ति की दृष्टि से पेड़ लगाने के प्रयास स्वयं सेवी संस्थाआें द्वारा या जन अभिक्रम से हो रहे है, वहां लोग पूरे उत्साह और तत्परता के साथ शामिल होते है । भारत में वनाश्रित श्रम जीवियों की लगभग १५ करोड़ है, जो वनों में स्वरोजगारी आजीविका से जुड़े है। वनों में रहने वाले इन श्रम जीवी समाज में बड़ी संख्या महिलाआें की है ।
    वानिकी विकास में समाजसेवी संस्थाआें की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिये समय-समय पर सरकारी प्रयास भी होते रहे है । राष्ट्रीय कृषि आयोग ने १९७६ में ईधन, चारा, लकड़ी और छोटे मोेटे वन उत्पादों की पूर्ति करने वाले पेड़ लगाने के लिये सामाजिक-वानिकी कार्यक्रम की सिफारिश की थी । सामाजिक वानिकी के मुख्य रूप से तीन लक्ष्य है । खेतों में पेड़ लगाना यानि नि:शुल्क या सस्ते दरों पर किसानों को उनके अपने खेतों में पौधे लगाने के लिये प्रोत्साहित करना, स्थानीय लोगों की जरूरतों के लिये वन विभाग द्वारा सड़कों, नहरों के किनारे और ऐसी सार्वजनिक जगहों पर पौधे लगाना और सामुदायिक भूमि पर समुदाय द्वारा पौधारोपण करना जिसका लाभ सभी लोगों को समान रूप से मिल सके । इस अभियान में शैक्षणिक और सामाजिक संस्थाआें के साथ ही बड़ी संख्या में युवा जुड़े और पौधारोपण को एक जन अभियान बनाया जा सका ।
    सामाजिक संस्थाआें द्वारा इस अभियान को चलाने में कई अनुभव आये, ज्यादातर लोगों का विचार बना कि वानिकी विकास के लिये स्थानीय लोगों, वन विभाग एवं सरकारी अधिकारियों, सामाजिक संस्थाआें और विाान्की विशेषज्ञों की सामूहिक शक्ति से ही वानिकी कार्यक्रमों में वांछित परिणाम प्राप्त् किये जा सकते है । स्थानीय आवश्यकता और क्षेत्र विशेष की परिस्थिति में अनुकूल पौधों का चयन कर उनको लगाने के लिये समर्पण भाव से काम करने वाले सामाजिक संगठनों को ही अपेक्षित जन सहयोग मिलता है । सामुदायिक भागीदारी से जंगलों की रक्षा की जा सकती है । स्थानीय लोग ही पर्यावरण को समृद्ध एवं संरक्षित कर सकते है, इसलिये गावों में ग्राम पंचायतें एवं शहरों में शहरी निकाय पौधे लगाकर उनके रख-रखाव की जिम्मेदारी निकटवर्ती रहवासी लोगों एवं खासकर युवाआें को देकर न केवल अपने क्षेत्र को हरा-भरा करने में सफल हो सकते है अपितु वानिकी विकास में सामाजिक संस्थाआें की भूमिका को भी सार्थकता प्रदान कर सकते है ।
    भारत में भौगोलिक क्षेत्र के १८-३४ प्रतिशत वन क्षेत्र है । देश में वनों में लगभग आधे वन म.प्र. में  है । वन सम्पदा की दृष्टि से मध्यप्रदेश समृद्ध राज्य माना जाता है । प्रदेश में वानिकी विकास में समाज की भागीदारी मजबूत करने के लिये संयुक्त वन प्रबंधन की अवधारणा को लागू किया है ।
    हमारे संविधान में अनुच्छेद ४८ में राज्यों को वन एवं पर्यावरण संरक्षण का दायित्व सौंपा गया है, वहीं अनुच्छेद ५१ में जन-सामान्य के लिये प्राकृतिक पर्यावरण जिसमें वन, झील, नदी और वन्य जीव की रक्षा और संवर्धन करने तथा प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखने का दायित्व बताया गया है । हमारे संविधान ने वानिकी विकास की जिम्मेदारी सरकार और समाज दोनोंको सौंपी है इसलिए दोनों को ही अपनी भूमिका का निर्वहन संपूर्ण शक्ति से करना है तभी हम हरा भरा और समृद्ध भारत बना सकेंगे ।
हमारा भूमण्डल
मानव क्लोनिंग, हकीकत के बेहद करीब
संध्या रॉय चौधरी

    वैज्ञानिकों ने त्वचा की स्टेम कोशिकाआें को प्रारंभिक भ्रूणों में बदल कर मानव क्लोनिंग में एक बहुत बड़ी सफलता प्राप्त् की है । स्टेम कोशिकाएें वे कोशिकाएं होती हैं, जो विभाजित होने के बाद शरीर की किसी भी विशिष्ट कोशिका के रूप में विकसित हो सकती हैं । नई तकनीक से तैयार किए गए भू्रणों का इस्तेमाल प्रत्यारोपण ऑपरेशनों के लिए विशिष्ट मानव ऊतक विकसित करने में किया गया है ।
    क्लोनिंग तकनीक में यह सफलता डॉली नामक भेड़ के जन्म के १७ वर्ष के बाद हासिल हुई है और इससे ह्वदय रोग और पार्किंसन जैसी बीमारियों के बेहतर इलाज की उम्मीदें जागी हैं । 
     लेकिन इस सफलता से कुछ नए विवाद खड़े हो सकते हैं । कुछ लोग चिकित्सा कार्य के लिए मानव भ्रूण विकसित करने पर नैतिक सवाल उठाएंगे । सबसे बड़ा खतरा वैज्ञानिक यह मान रहे हैं कि शिशु क्लोन चाहने वाले दंपतियों के लिए इसी तकनीक से परखनली भ्रूण उत्पन्न किए जा सकते हैं । बहरहाल, नई तकनीक विकसित करने वाले वैज्ञानिकों का दावा है कि उनके शोध का मुख्य उद्देश्य मरीज की अपनी स्टेम कोशिकाआें से ऐसे विशिष्ट ऊतक उत्पन्न करने का है, जिन्हें प्रत्यारोपण के लिए इस्तेमाल किया जा सके । उनका यह भी कहना है कि इस तकनीक का प्रजनन से कोई लेना-देना नहीं है । लेकिन दूसरे वैज्ञानिकों का मानना है कि इस उपलब्धि से हम शिशु क्लोन की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ गए हैं ।
    मरीज की स्टेम कोशिकाआें से समुचित मात्रा में भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करना चिकित्सा विज्ञान के लिए एक बड़ी चुनौती थी । अमेरिका में पोर्टलैंड स्थित ओरेगन हेल्थ एंड साइंस युनिवर्सिटी के प्रमुख शोधकर्ता शोहरत मितालिपोव ने एक साक्षात्कार मेंबताया कि उन्होनें बहुत कम मात्रा में मानव अंडाणुआें से भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करने के लिए कोशिका के कल्चर में कैफीन मिलाई थी । पहले यह सोचा गया था कि ऐसा करने के लिए हजारोंमानव अंडाणुआें की जरूरत पडेगी । लेकिन मितालिपोव की टीम ने सिर्फ दो मानव अंडाणुआें से एक भ्रूण स्टेम कोशिका विकसित करने में सफलता प्राप्त् की ।
    डॉ. मितालिपोव का कहना है कि यह तरीका चिकित्सा इस्तेमाल के लिए ज्यादा कारगर और व्यावहारिक है । इस विधि से उन मरीजों के लिए स्टेम कोशिकाएं तैयार की जा सकती हैं, जिनके अंग बेकार या अशक्त हो चुके हैं । इससे उन रोगों से छुटकारा पाने में मदद मिलेगी, जो दुनिया में लाखों लोगों को प्रभावित करते हैं । शोधकर्ताआें ने अपनी नई तकनीक में आनुवंशिक रोग वाले शिशु की त्वचा कोशिकाएं निकाल कर उन्हें डोनेट किए गए मानव अंडाणुआें में प्रत्यारोपित कर दिया । इस विधि से उत्पन्न मानव भ्रूण आनुवंशिक दृष्टि से आठ महीने के भ्रूण से मिलते-जुलते थे । भ्रूण से उत्पन्न कोशिकाआें में मरीज का ही डीएनए था, लिहाजा इन्हें बेहिचक मरीज के शरीर में प्रत्यारोपित किया जा सकता था । शरीर की प्रतिरोधी प्रणाली द्वारा उन्हें ठुकराने का कोई खतरा नहीं था । प्रयोगशाला में चूहों और बंदरों जैसे जानवरों में इस तकनीक से भ्रूण स्टेम कोशिकाएं तैयार करने में सफलता मिल चुकी थी, लेकिन मनुष्यों में इसको दोहराने के प्रयास विफल रहे थे ।
    विज्ञान पत्रिका सेल में प्रकाशित शोध पत्र में वैज्ञानिकों ने अंडाणु के विकास में आने वाली समस्याआें से बचने के तरीके बताए और सिद्ध किया कि इस तकनीक से दिल, लिवर और स्नायु कोशिकाएं विकसित की जा सकती है । शोधकर्ताआें का विचार है कि पिछली क्लोनिंग तकनीकों की तुलना में नई विधि नैतिक दृष्टि से ज्यादा स्वीकार्य है क्योंकि इसमें निषेचित भू्रणों का प्रयोग नहीं किया जाता ।
    जापानी शोधकर्ताआें ने कुछ समय पहले मानव त्वचा से स्टेम सेल निकालने का तरीका विकसित किया था, लेकिन इसमें उन्होनें रसायनों का इस्तेमाल किया था । कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि इस तरीके से जीन्स में हानिकारक बदलाव हो सकते हैं । दक्षिण कोरिया की सोल नेशनल युनिवर्सिटी के वू सुक ह्ववांग के नेतृत्व में कुछ वैज्ञानिकों ने २००४ में क्लोनिंग से मानव भ्रूण उत्पन्न करने का दावा किया था । बाद में उन्होनें इन भू्रणों से भ्रूण स्टेम कोशिकाएं भी निकालने का दावा किया था । लेकिन अनैतिक आचरण और धोखाधड़ी के आरोपों के बाद उन्हें शोध के नतीजों को वापस लेना पड़ा था । इस प्रकरण से ह्ववांग की काफी बदनामी भी हुई ।
    कुछ अन्य शोधकर्ताआें ने भी क्लोनिंग से मानव भ्रूण विकसित करने का दावा किया था, लेकिन इनमें कोई भी यह साबित नहीं कर सका कि इन भ्रूणों से समुचित मात्रा में ऐसी भ्रूणीय कोशिकाएं विकसित करना संभव है, जिन्हें प्रयोगशाला में विशिष्ट ऊतकों में बदला जा सके ।
    डॉ. मितालिपोव की तकनीक की खास बात यह है कि क्लोन किए गए मानव भ्रूण १५० कोशिकाआें वाली अवस्था तक जीवित रह सकते हैं । इस अवस्था को ब्लास्टोसिस्ट कहते हैं । इस अवस्था से भ्रूण स्टेम कोशिकाएं निकाली जा सकती है, जिन्हें बाद में स्नायु कोशिकाआें, ह्दय कोशिकाआें या जिगर की कोशिकाआें के रूप में विकसित किया जा सकता है । प्रत्यारोपण के दौरान मरीज द्वारा इन्हें खारिज किए जाने की कई आशंक नहीं है क्योंकि इन कोशिकाआें को मरीज की अपनी आनुवंशिक सामग्री से ही उत्पन्न किया गया है ।
    इस क्लोनिंग तकनीक का दुरूपयोग संभव है । ह्यूमन जेनेटिक्स अलर्ट के निदेशक डेविग किंग का कहना है कि वैज्ञानिकों ने अंतत: वह रास्ता दिखा दिया है, जिसका मानव क्लोन बनाने में जुटे शोधकर्ताआें को बेसब्री से इंतजार था । उन्होंने कहा कि नए शोध को प्रकाशित करना एक गैर-जिम्मेदाराना कदम है । इस संबंध में और आगे रिसर्च शुरू होने से पहले ही हमें मानव क्लोनिंग पर अंतर्राष्ट्रीय  प्रतिबंध लगाने पर शीघ्र विचार करना चाहिए । कमेंट ऑन रिप्रोडक्शन एथिक्स की जोसेफीन क्विंटावाल ने इस शोध के औचित्य पर ही सवाल उठाया है । उन्होनें कहा कि स्टेम कोशिका विकसित करने के अविवादित तरीके पहले से उपलब्ध है । ऐसे में इस शोध की जरूरत क्या थी ।
    हमें उम्मीद करनी चाहिए कि इस शोध को प्रजनन क्लोनिंग की तरफ मोड़ने की कोशिश नहीं की जाएगी । डॉ. मितालिपोव का कहना है कि वे क्लोनिंग के जरिए बंदर शिशु उत्पन्न करने में असफल रहे हैं । अत: इस बात की संभावना बहुत कम है कि इस तकनीक का प्रयोग मनुष्य के क्लोन उत्पन्न करने के लिए किया जाएगा । ब्रिटेन की न्यू कैसल युनिवर्सिटी की प्रोफेसर मैरी हर्बर्ट का मानना है कि नई तकनीक शरीर को अशक्त बनाने वाली बीमारियों के इलाज के लिए मरीज की जरूरत के हिसाब से स्टेम कोशिकाएं तैयार करने में मदद कर सकती है । एडिनबरा विश्वविघालय के डॉ. पॉल डिसूजा का मानना है कि महिलाआें के अंडाणुआें के बारे में हमारी बेहतर समझदारी से इनफर्टिलिटी के नए इलाज खोजे जा सकते हैं ।
प्राणी जगत 
वन्यजीवन और सामाजिक संघर्ष
जो लोफ्टस-फारीन

    वनों व जलस्त्रोतोंमें घटती जैवविविधता अब सामाजिक संघर्ष का कारण बनती जा रही है । मानव आबादी का बड़ा हिस्सा समुद्रों, नदियों अन्य जलस्त्रोतों व वनों पर न केवल अपनी आजीविका के लिए बल्कि पोषण के लिए भी निर्भर है । भारत की स्थिति भी इससे पृथक नहीं है ।  आधुनिक विकास के  पैरोकार प्रत्येक प्राकृतिक संपदा को उत्पाद में बदलकर उसका आर्थिक दोहन ही करना जानते हैं। 
     मछलियों का अत्यधिक दोहन, वन्यजीवन की तस्करी और विलुप्त होती प्रजातियां इन सबमें क्या साझा है ? साइंस पत्रिका में हाल ही में छपे एक प्रपत्र के अनुसार सभी पर्यावरणीय चुनौतियों के सतत सामाजिक परिणाम निकलेंगे । जबरिया श्रम, संगि त अपराध और यहां तक कि समुद्री डकैती तक की बात करें तो आप इनके पीछे भी पर्यावरणीय परिस्थितियां खोज सकते हैं। यह प्रपत्र केलिफोर्निया विश्वविद्यालय के बर्कले शोधार्थियों ने प्रकाशित कराया है जिसमें संसाधनों के क्षरण और इसके अनपेक्षित सामाजिक परिणामों में आपसी संबंध सामने आए हैं। बर्कले के शोधार्थी डाउग मॅकाले का कहना है, `हमने इस दस्तावेज में विशेष रूप से उस प्रक्रिया को सामने लाने का प्रयास किया है, जिसके माध्यम से वन्य जीवन का नाश होता है और वह यांत्रिकता से जुड़ती है । जोखिम में पड़े प्रजातियों की हानि कैसे होती है और एक महत्वपूर्ण खाद्य संसाधन का नष्ट होना वास्तव में किस प्रकार अनपेक्षित ढंग से बाल श्रम एवं आंचलिक विवादों को बढ़ाता है ।`
    उनका यह भी कहना है कि `जाहिर सी बात है कि इस तरह की कुछ प्रजातियों का विलुप्त होना यहां पर निवास करने वाले को प्रभावित करता है लेकिन अन्य प्रजातियों का नाश ज्यादा हानिकारक है और इससे सबसे ज्यादा गंभीर बात यह है कि इस वजह से हम हिंसा के लगातार बढ़ने और जबरिया श्रम जैसे बढ़ते सामाजिक अन्यायों से भी दो चार हो रहे हैं।`
    संसाधनों के नष्ट होने के परिणामस्वरूप बढ़ते सामाजिक संघर्षों का संभवत: सबसे ज्वलंत उदाहरण मछली उद्योग है । जैसे-जैसे विश्वभर में मछलियां कम होती जा रही हैं, मछुआरों को और अधिक दूर तक सफर करना पड़ता है और मछलियां पकड़ने में ज्यादा समय लगाना पड़ता है । इससे इनकी व्यापारिक लागत भी बढ़ जाती है । जैसे ही श्रम की मांग बढ़ती है वैसे ही मछली मारने वाली नौकाएं मानव तस्करी में जुट जाती हैं और बच्चें और पलायन कर आए मजदूरों को इसने मुत में काम पर रख लिया जाता है । उदाहरण के लिए थाईलैंण्ड में पलायन श्रमिकों को १८ से २० घंटों तक थकाकर चूर कर देने वाला शारीरिक श्रम करना पड़ता है । इसके अलावा उनका शारीरिक शोषण भी होता है तथा उन्हें खाने को बहुत कम दिया जाता है । इतना नहीं उन्हें ठ ीक से सोने भी नहीं दिया जाता ।
    लेखकों का मानना है कि इसी तरह मछली मारने के अधिकारों में बढ़ती प्रतियोगिता के समानांतर कमजोर राष्ट्रीय सरकार के चलते सोमालिया तट पर समुद्री डकैती में वृद्धि हुई है और इनसे प्रेरित होकर स्थानीय मछुआरे अब जाल के माध्यम से हथियारों का व्यापार करने लगे हैं। अध्ययन के मुताबिक ठीक ऐसा ही सेनेगल, नाईजीरिया और बेनिन में भी दोहराया जा रहा है ।
    हालांकि सभी लोग इस बात से सहमत नहीं हैंकि संसाधनों की कमी मछली उद्योग के सामने मुख्य मुद्दा है । अमेरिका के जार्जटाऊन विश्वविद्यालय में विदेश सेवा के  प्रोफेसर एवं अमेरिका के मानव तस्करों से निपटने वाले अभियान के राजदूत मार्क लेगोन का कहना है, `समुद्री खाने (सी-फूड) की मांग में लगातार वृद्धि हो रही है, लेकिन सीफूड की उपलब्धता में आ रही कमी से भी बड़ा मुद्दा श्रम की कमी का है। उदाहरण के लिए थाईलैण्ड की स्थिति को लें वहां पर मौसमी मछुआरों की कमी हो गई है और उस आवश्यकता की पूर्ति हेतु उत्तरपूर्वी एशियाई देशों से मजदूरों को बुलाना पड़ रहा है ।
    संसाधन से संबंधित तनाव सिर्फ मछली उद्योग तक ही सीमित नहीं है, यह भीतरी या आंतरिक स्थानों तक फैल गए हैं। उदाहरण के लिए पश्चिमी अफ्रीका में मछलियों की संख्या में कमी आने से स्थानीय समुदाय अब प्रोटीन हेतु काफी हद तक स्थलीय या जमीन पर विचरण करने वाले जानवरों पर निर्भर हो गए हैं। ये स्थलीय प्रजातियां भी अब छितरा गई हैं(कम हो गई हैं) । शिकार करना अधिक कठिन हो गया है तथा इसमें ज्यादा समय लगने लगा है । इसे पुन: इस संदर्भ में देखना होगा कि खाना प्राप्त करने में आ रही मुश्किलों को कम करने के लिए शिकारी अब बाल श्रम पर अधिक निर्भर हो गए हैं। अफ्रीका मेंे हो रही वन्यजीवन तस्करी के सामाजिक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। उदाहरण के लिए हाथी दांत के अधिक मूल्य मिलने की वजह से संगठित अपराध वर्ग अब अवैध वन्यजीव व्यापार की ओर आकर्षित हुआ है और इसके स्थानीय समुदायों पर भयंकर प्रभाव पड़ रहे हैं।
    प्रो. जस्टिन ब्राभोयर का कहना है कि, यह दस्तावेज बताता है कि वन्यजीवन में गिरावट सामाजिक संघर्ष का महज लक्षण नहीं बल्कि उसका स्रोत है । अरबों लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर अपनी आय एवं पोषण हेतु यहां से प्राप्त मांस एवं हेतु वनों पर निर्भर हैंऔर यह स्त्रोत लगातार घटते जा रहे हैं। मानव आजीविका के इतने महत्वपूर्ण पक्ष में आई गिरावट के व्यापक सामाजिक परिणाम भुगतना कतई आश्चर्यजनक नहीं है ।
    इस दस्तावेज में इस तरह के अनेक उदाहरण दक्षिण पूर्व एशिया एवं अफ्रीका से उद्धत किए गए हैं। परंतु वन्यजीवन हृास के सामाजिक प्रभाव तो पूरे विश्व में दिखाई पड़ रहे हैं। मकॉले ने कनाडा के पूर्वी समुद्री तट पर कॉड समुदाय के वहां से पूरी तरह से चले जाने और उसके परिणाम स्वरूप स्थानीय मछली उद्योग की बर्बादी के मद्देनजर कहा है कि कुछ देश संसाधनों के कम होने से उपजी परिस्थितियों का ठीक से मुकाबला कर पाए हैं। परंतु उनका कहना है `गंभीर संकट में पड़े पूरे समुदाय को उबारना या वन्यजीवन में आ रही गिरावट से उत्पन्न व्यापक मानवीय त्रासदी से निपट पाना कनाडा, अमेरिका या यूरोप के किसी देश के लिए संभव हो सकता है । लेकिन उप सहारा अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया के अधिकांश देशों के पास इतना धन नहीं है वे इतने बड़े पैमाने पर `बेलआऊट` दे सकें । ऐसी स्थिति में वहां पर इसके प्रभाव अधिक स्पष्ट रूप में दिखेंगे । उन्हें और भी अधिक चोट पहुंचेगी ।
    शोधार्थियों के अनुसार हमें और अधिक समावेशी नीति बनाने की आवश्यकता है । पर्यावरणीय एवं सामाजिक चुनौतियों से निपटने के लिए सभी संबंधित पक्षों को मिलजुल कर कार्य करना होगा । नीति निर्माताओं को भी अपनी दृष्टि को सिर्फ कानूनों को लागू करने तक सीमित नहीं रखना चाहिए । अवैध शिकार संबंधी कानूनों या श्रम कानूनों को लागू करने के साथ ही साथ सरकारों को इन समस्याओं की जड़, जिसमें वन्यजीव संख्या में आ रही कमी भी शामिल है, से भी निपटना चाहिए । 
ऊर्जा-जगत
हरित ऊर्जा में चीन का चमत्कार
डॉ. माई-वान हो

    चीन ने अपने यहां प्रदूषण के खात्मे एवं जीवाष्म इंर्धन को लेकर आयात पर निर्भरता समाप्त करने के  उद्देश्य से जल, वायु और सौर ऊर्जा को जबरदस्त प्रोत्साहन दिया और इसमें असाधारण सफलता भी अर्जित की । आज चीन दुनिया में सर्वाधिक ऊर्जा उत्पादन करने वाला देश बन गया है और दूसरी ओर अमेरिका की निर्भरता अभी भी जीवाष्म इंर्धन से विद्युत उत्पादन पर है । चीन को विकास का अपना आदर्श मानने वाला भारत क्या चीन की इस विकास नीति को अपनाएगा ? 
     प्यू चेरीटेबल ट्रस्ट की वार्षिक रिपोर्ट `स्वच्छ ऊर्जा की दौड़ का विजेता` में बताया है कि चीन ने लगातार दूसरी बार `स्वच्छ ऊर्जा निवेश दौड़` में बाजी मार ली है । चीन ने सन् २०१३ में इस पर ५४ अरब डॉलर का निवेश किया, जबकि अमेरिका ३६.७ अरब डॉलर के साथ दूसरे, जापान २८.६ अरब डॉलर के साथ तीसरे एवं ब्रिटेन १२.४ अरब डॉलर के साथ चौथे स्थान पर रहा । परंतु इस मद में वैश्विक निवेश में लगातार दूसरे वर्ष कमी आई है । इस वर्ष वैश्विक निवेश २५४ अरब डॉलर रहा जो कि सन् २०११ के मुकाबले ११ प्रतिशत और सन् २०११ में जब निवेश अपने चरम पर यानी ३१८ अरब डॉलर था, से २० प्रतिशत क्कम रहा । चीन ने सन् २०१३ में अपनी पवन ऊर्जा की क्षमता में १३ गीगावाट और सौर ऊर्जा में १२ गीगावाट की वृद्धि की । जबकि इस दौरान अमेरिका ने पवन ऊर्जा में मात्र एक गीगावाट और कर में छूट के बाद सौर ऊर्जा उत्पादन में मात्र ४.३ गीगावाट की वृद्धि की । एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पहली बार बजाए पवन ऊर्जा के टर्बाइन सौर ऊर्जा संयंत्र निर्माण से अधिक रहे । इस अवधि में सौर ऊर्जा की एक तिहाई क्षमता विकसित हुई है । परंतु चीन में इससे कहीं अधिक कार्य जारी है ।
    सन् २०१२ के अंत में चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ ने `ऊर्जा उत्पादन व उपभोग में क्रांति` का नारा दिया । मई २०१४ में चीन की सर्वोच्च् आर्थिक योजना एजेंसी ने बताया इसका वास्तविक अर्थ है वायु, सौर और जल से घरेलू रिन्युबल (नवीकरण) ऊर्जा निर्माण का व्यापक विस्तार । सिर्फ सन् २०१३ में ही चीन ने बाकी सारी दुनिया की सम्मिलित गणना से अधिक पवन ऊर्जा स्थापित कर ली और यह अमेरिका ने जितनी पिछले पूरे दशक में की थी, से भी ज्यादा थी । अगले कुछ वर्षों में चीन अपने बनाए इन लक्ष्यों को भी तोड़ देगा । चीन की योजना है कि वह सन् २०१७ तक अपनी पवन ऊर्जा क्षमता को दुगुनी अर्थात् ७८ गीगावाट से १५० गीगावाट पर और सौर ऊर्जा की क्षमता को तीन गुना करके यानि २० गीगावाट से ७० गीगावाट पर ले जाएगा । दूसरे शब्दों में कहें तो अगले तीन वर्षों में चीन ब्रिटेन की पवन टर्बाइनों की वर्तमान क्षमता से ६ गुना अधिक पवन ऊर्जा बनाने लगेगा । इस बात का भी आभास मिल रहा है कि चीन अब ताप (कोयला आधारित) विद्युतगृहों से स्वयं को छुटकारा दिलाएगा जो कि वर्तमान में देश की विद्युत का तीन चौथाई उत्पादित करते हैं ।
    सन् २०१४ की शुरुआत से चीन के अनेक प्रांतों ने कोयले के इस्तेमाल की अधिकतम सीमा तय करना प्रारंभ कर दिया है । यह भी देखना होगा कि क्या यह नई परियोजनाएं महाकाय के बजाए भागीदारी मूलक होंगी ? पिछला इतिहास बताता है कि चीन का झुकाव महाकाय परियोजनाओं की ओर ही होगा । लेकिन वहां यह जागरूकता भी बढ़ती जा रही है कि छोटे स्तर का विकेंद्रीकृत उत्पादन भी उतना ही महत्वपूर्ण है ।
    पिछले दो वर्षों में चीन के नीति निर्माताओं ने विकेंद्रित सौर ऊर्जा की व्यापकता और लोगों को अपनी ऊर्जा स्वयं उत्पादित करने हेतु प्रोत्साहित किया है । साथ ही नए लक्ष्यों के अनुसार सन् २०१५ तक चीन की सौर ऊर्जा का ५० प्रतिशत छोटे स्तर की परियोजनाओं से आने लगेगा । इसके अलावा सरकार ने ऊर्जा उत्पादन हेतु तयशुदा भुगतान प्रणाली स्थापित की है तथा घोषणा की है कि कम लागत वित्त को प्रोत्साहन दिया जाएगा । ऐसे संकेत मिले हैं    कि ये उपाय कारगर साबित हो रहे    हैं । 
    एक अनुमान है कि इस योजना के अंतर्गत सन् २०१३ में ३ गीगावाट क्षमता के सौर पीवी स्थापित किए गए और सन् २०१४ में ८ गीगावाट की स्थापना संभावित है, जो कि ३.२ करोड़ सोलर पेनल के बराबर है । इस रफ्तार से चीन शीघ्र ही सौर ऊर्जा क्षेत्र में जर्मनी को पीछे छोड़ देगा । विश्व वन्य जीव कोष एवं एनर्जी ट्रांजिशन रिसर्च संस्थान ने भविष्यवाणी की है कि चीन सन् २०५० तक अपनी क्षमता का ८० प्रतिशत रिन्युबल विद्युत से प्राप्त करेगा और तब तक कोयले की  बजाए इसकी लागत भी कम हो जाएगी ।
    ऑस्ट्रेलिया के मेक्यावर विश्वविद्यालय सिडनी के जॉन मेथ्यु एवं न्यू केसल विश्वविद्यालय के हाओतान के विस्तृत अध्ययन के अनुसार चीन से सन् २०१३ में अपनी उत्पादन क्षमता में ९४ गीगा वाट की वृद्धि की है । इसमें से ५५.३ गीगावाट रिन्युबल ऊर्जा यानि जल, वायु एवं सौर से एवं ३६.५ गीगावाट ताप विद्युत (मुख्यतया कोयला) से आया है । इसके अलावा चीन ने परमाणु स्त्रोतों से मात्र २.२ गीगावाट विद्युत उत्पादन वृद्धि की है । इस तरह चीन की नवनिर्मित क्षमता का ६० प्रतिशत रिन्युबल स्त्रोतों और बाकी का ४० प्रतिशत गैर रिन्युबल यानि जीवाष्म इंर्धन और परमाणु से आया है ।
    चीन को दुनिया के सबसे अधिक कोयला उत्पादन एवं उपभोग वाले और विश्व के सर्वाधिक ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जित करने वाले देश के रूप में जाना जाता है । परंतु अब यह विश्व का सबसे बड़ा, रिन्युबल ऊर्जा प्रणाली का निर्माण कर रहा है । यह सन् २०१३ में करीब एक खरब किलोवाट घंटे थी जो कि फ्रांस एवं जर्मनी द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित विद्युत ऊर्जा जितनी है ।
    अमेरिका और चीन दोनों की विद्युत शक्ति प्रणाली १ अरब वाट को पार कर चुकी है और चीन इसमें भी थोड़ा आगे यानि १.२५ अरब वाट है जबकिअमेरिका की क्षमता १.१६ अरब वाट है । इस तरह चीन इस ग्रह पर सर्वाधिक विद्युत उत्पादन करने वाला देश बन गया है जबकि अमेरिका में प्रति व्यक्ति विद्युत उपभोग अभी भी चीन से चार गुना ज्यादा है । हालांकि ताप विद्युतगृहों में कोयले की मांग बढ़ती जा रही है लेकिन सरकार ने कोयले के उपभोग की `सीमा` ३५० करोड़ टन निश्चित कर दी है । एक तरह से यह काले होते आकाश और जहरीले होते पानी एवं वायु को बचाने का एक दु:साहसी प्रयास है ।
    रिन्युबल ऊर्जा की ओर तीव्र झुकाव से चीन इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्पादक बन गया और सन् २०१३ में इसकी क्षमता विश्व में सर्वाधिक हो गई थी । चीन ने अपनी १२वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत सन् २०१५ तक अपनी विद्युत ऊर्जा का ३० प्रतिशत रिन्युबल ऊर्जा से प्राप्त करने का लक्ष्य बनाया था । लेकिन उसने इस लक्ष्य को तीन वर्ष पूर्व ही प्राप्त कर लिया । इसके  विपरीत अमेरिका की जीवाष्म इंर्धन पर निर्भरता बढ़ती ही जा रही है, इसमें विशेषकर गैस आधारित संयंत्र शामिल हैं । अमेरिका ने सन् २०१३ में अपनी क्षमता में १६ गीगावाट की वृद्धि की थी जिसमें से ७.३ गीगावाट प्राकृतिक  गैस से थी ।
    इस प्रकार अमेरिका की मुख्य प्रवृत्ति स्पष्टतया कोयला सीम गैस और जीवाष्म इंर्धन इस्तेमाल की थी न कि रिन्युबल ऊर्जा की । धुएं से भरे आकाश एवं जल स्त्रोतोंके जबरदस्त प्रदूषण ने चीन को तुरत-फूरत रिन्युबल की ओर मुड़ने हेतु प्रेरित किया । यह जीवाष्म इंर्धन आपूर्ति खासकर इनके आयात पर से निर्भरता कम करेगा । इतना ही इसने ऊर्जा से संबंधित निर्यात उद्योग की नींव भी डाल दी । चीन द्वारा अपनी १२वीं पंचवर्षीय योजना (सन् २०११ से २०१५ तक) में कम कार्बन व स्वच्छ उद्योग को विकास की रणनीति का आधार बनाया गया । इसके बाद ही चीन सौर पेनल एवं पवन टर्बाइन का विशेषज्ञ बन गया । मेक्युज एवं हान का निष्कर्ष है कि `रिन्युबल का विकल्प रोजगार एवं निर्यात हेतु हरित उत्पाद के रूप में `चीन की भविष्य की विकासात्मक रणनीति` एक सुविचारित व्यापार रणनीति भी है ।
स्वास्थ्य
डिब्बाबंद भोजन यानि धीमा जहर
सचिन कुमार जैन

    बहुराष्ट्रीय कंंपनियों के दबाव में आकर भारत सरकार एकबार पुन: मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम के अंतर्गत विद्यालयों में डिब्बाबंद भोजन के वितरण पर पुन: विचार कर रही है ।   पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने भी कुछ वर्ष ऐसा करने का प्रयास किया था, जिसकी चहुंओर कड़ी आलोचना हुई थी और वैज्ञानिक आधारों पर इस प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा था ।
    नई सरकार से उम्मीद थी कि वह मध्यान्ह भोजन योजना को और सुदृढ़ एकं आर्थिक सक्षम बनाएगी । लेकिन वह तो अफसोसजनक रूप से इसके निजीकरण की ओर बढ़ रही है । 
     भारत सरकार द्वारा आहूत बैठक ने एक नयी चुनौती सामने आने का संकेत दे दिया है । २६ अगस्त २०१४ को खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर और पेप्सी की अध्यक्ष इन्द्रा नूयी के बीच मध्यान्ह भोजन योजना (इसमें आठवीं कक्षा तक के  १२ करोड़ विद्यालयीन बच्चें को हर रोज उनके हक के रूप में भोजन दिया जाता है) में स्वास्थ्यकर प्रसंस्कृत भोजन दिए जाने के विषय पर चर्चा हुई । इस बैठक ने उनके सबके मन में एक भय पैदा कर दिया है, जो जानते हैंकि बड़ी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जिस तरह के पेय और खाने की सामग्री का उत्पादन और व्यापार करती हैं, उनमें बड़ी मात्रा में बच्चें को बीमार बनाने वाले तत्व है ।
    शीतल पेय और डिब्बाबंद खाद्यसामग्री बनाने वाली कम्पनियां अब आंगनवाड़ी के पोषण आहार कार्यक्रम और स्कूल मध्यान्ह भोजन योजना में ठेका लेने की कोशिश कर रही हैं । यह कोई नयी कोशिश नहीं है । वर्ष २००६-०७ में भी भारत की बिस्किट बनाने वाली कंपनियों ने तत्कालीन सरकार को प्रभावित करके मध्यान्ह भोजन योजना और आंगनवाड़ी में ताजे व गरम खाने की जगह प्रसंस्कृत भोजन की वकालत की थी । इसकी वजह से उन्हें ३५ हजार करोड़ रुपए का धंधा मिलता है और लत लगाने के लिए मुफ्त  सरकारी कार्यक्रम । उनका मकसद था कि इस भोजन की आपूर्ति स्वयं सहायता समूहों के स्थान कुछ बड़ी कंपनियां करें ।
    वास्तव में इन खाद्य सामग्रियों में परिरक्षक (प्रिजर्वेटिव) के रूप में बड़ी कंपनियां जिन रसायनों का उपयोग करती हैं, उससे उस प्रकार के भोजन की लत लगती है । इन कंपनियों के लिए स्वास्थ्यप्रद भोजन का मतलब है कारखाने से निकला डिब्बाबंद भोजन । वैसे भी ये तो यही मानते हैंकि वही भोजन स्वच्छ है जिसे इंसान ने न छुआ हो । इस सोच को मान्यता देना देश की पोषण सुरक्षा के साथ सबसे बड़ा समझौता होगा ।
    इस विषय को हमें दो नजरियों से देखना होगा । एक जिस तरह से मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम में मिलने वाले खाने की गुणवत्ता पर सवाल उठे और कुछ ऐसी घटनाएं हुई, जिनमें भोजन में कीड़े, छिपकली और दूषित तत्व पाए गए और बच्च्े बीमार भी हुए और उनकी मृत्यु भी हुई । इन दुर्घटनाओं के आधार पर मध्यान्ह भोजन योजना की बहुत आलोचना हुई और इसे बंद करने की वकालत भी की गयी ।
    किन्तु प्रश्न यह है कि जब सरकार ही प्राथमिक स्तर के बच्च्े के लिए ३.५ और माध्यमिक स्तर के बच्च्े के भोजन के लिए ५ रुपए प्रतिदिन का प्रावधान करती है, तो भोजन की गुणवत्ता के ऊंचे मानकों का पालन कैसे होगा ? ऐसी हर घटना बताती है कि सामुदायिक निगरानी जरूरी है । यह व्यवस्था मजबूत नहीं बनाई गई । देश में हर अंचल में भोजन की अपनी एक संस्कृति होती है और यह संस्कृति  क्षेत्र में उत्पादित होने वाली सामग्री के आधार पर ही आकार लेती है । मध्यान्ह भोजन योजना में अभी भी यह प्रावधान नहीं है कि हर गांव या बसाहट खुद यह निर्णय ले सके कि बच्चें के भोजन में स्थानीय सामग्री शामिल हो । मूल निर्णय तो सरकारें ही लेती हैंकि प्रदेश-देश के बच्च्े क्या खाएंगे ! गौरतलब है भारत सरकार निर्णय का यह हक अपने क्यों रखती है ? इसका सीधा सा जवाब है कि वह पेप्सी जैसी कंपनियों के साथ वाणिज्यिक और व्यापारिक समझौता कर सके ।
    इसका दूसरा पक्ष है भोजन के  स्वास्थ्यप्रद होने का । जरा इस बात से अंदाज लगाइए कि दुनिया भर में आज तक एक भी ऐसा वैज्ञानिक विश्लेषण सामने नहीं आया है, जो यह कहता हो कि प्राकृतिक भोजन की तुलना में प्रसंस्कृत (डिब्बा या पैकेट बंद) खाना अधिक स्वास्थ्यकर है ।  वास्तव में भोजन को डिब्बे या पैकेट में रखने की शुरुआत यात्राओं में सहूलियत के नजरिए से हुई थी । परंतु आज इसे एक सामान्य व्यवहार बना कर बाजार में रख दिया गया है ।
    जाहिर सी बात है कि खाने की किसी भी सामग्री को लंबे समय तक रखने के लिए उसमें कुछ रसायन मिलाए जाते हैं या उसे तेल में तल कर रख जाता है । कुछ सामग्रियों में तेल और नमक मिला कर सुरक्षित रखा जाता  है । डिब्बाबंद खाने में चार घातक तत्व होते है । पहला है ट्रांसफेट, यह खराब किस्म का वसा है, जो इंसान की धमनियों में जाकर जम जाता है । वैसे मक्खन, घी, नारियल तेल, सरसों के तेल में पाया जाने वाला वसा स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है । परंतु इनके विकल्प के रूप में हायड्रोजेनेटेड वसा का उपयोग बाजार में मिलने वाली सामग्री में खूब उपयोग होता है । डिब्बाबंद खाने के कारण अमेरिका में हृदयघात से हजारों ऐसी मौतें होती हैं, जिनमें इस भोजन से मिलने वाला ट्रांसफेट अहम भूमिका निभाता है ।
    परिष्कृत (रिफाइंड) अनाज से बनी सामग्री जैसे सफेद ब्रेड, कम रेशे वाले अनाज से बनी शर्करा युक्त सामग्री, सफेद चावल, सफेद अनाज पास्ता खाते हैं, तो हृदयाघात की सम्भावना ३० प्रतिशत तक बढ़ जाती है । एक अध्ययन के अनुसार जब कोई उत्पाद यह दावा करे कि सामग्री ७ अनाजों या गेहूं के आटे से बनी है, तो किसी भुलावे में मत आइए क्योंकि यह धोखा है । अध्ययनों से पता चला कि सम्पूर्ण अनाज (जिसका कोई भी हिस्सा निकाला नहीं गया हो) खाने वालों में हृदयाघात का खतरा २० से ३० प्रतिशत कम होता है । तीसरा घातक तत्व है नमक । इसे हम सोडियम नामकतत्व पाने के लिए खाते हैं । इससे दिमाग और शरीर संचालन के बीच सामंजस्य बनता    है । यह खून के दाब को नियंत्रित रखता है, पानी का संतुलन बना कर रखता है, मांसपेशियों और दिल के  बीच संपर्क बनाता है । जरूरत का तीन-चौथाई सोडियम हमें अनाजों, सब्जियों और फलों से मिल जाता है ।
    परन्तु प्रसंस्कृत भोजन में यह बहुत ज्यादा मात्रा में होता है । डिब्बाबंद सूप, चटनी, सॉस, बर्गर और मांस सामग्री में इसे बहुत ज्यादा मात्रा में डाला जाता है । ज्यादा सोडियम होने से शरीर में पानी का संग्रह बढ़ता है और हृदय को खून का प्रवाह बढ़ाने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत करना पड़ती है । यहीं से उच्च् रक्तचाप की शुरुआत होती है । एक व्यक्ति को दिनभर में १५०० मिलीग्राम सोडियम की जरूरत होती है, जो हमें चाय की तीन चौथाई चम्मच से मिल जाता है । सिर्फ एक बर्गर हमें इससे ज्यादा सोडियम दे देता है । ज्यादा सोडियम नाइट्रेट सांस की बीमारी, अस्थमा और फेफड़ों की कार्यप्रणाली में अवरोध पैदा करता है ।
    इसी तरह डिब्बाबंद सामग्री में हाई फ्रक्टोस कार्न सिरप (एचएफ सीएस) और शक्कर का भी अधिक मात्रा में उपयोग होता है। जहां एचएफसीएस का ज्यादा उपयोग होता है, वहां मोटापा और मधुमेह से प्रभावित लोगों की संख्या बहुत बढ़ जाती है । इससे उच्च् रक्तचाप, मायोकार्डियल इन्फ्रक्शन (हृदयाघात)  डिसलिपिडिमिया, अग्नाशय ग्रंथि में सूजन, यकृत रोगों की समस्या होती है । किसी की आर्थिक लाभ को सुनिश्चित करने के लिए क्या हम बच्चें के हितों को दांव पर लगाने के  लिए भी तैयार हो सकते हैं ?
प्रयास
आदिवासियों को विशेषज्ञों से बचाना है
साकेत दुबे

    हमारे देश में आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने की मुहीम के  चलते हमने उनका जीना दूभर कर दिया है । कोई भी समाज या समुदाय अपनी आंतरिक चेतना से ही बदलाव को अपना पाता है। हमारे नीति नियंताओं ने भारत के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने के निमित्त आदिवासियों को जंगल से बाहर खदेड़ने के लिए एक काल्पनिक मुख्यधारा प्रवाहित कर ली है और यह बहाकर कहा ले जाएगी इसका भान किसी को भी नहीं है । 
     आदिवासी समस्याआेंके प्रमुख चिंतक डॉ. कपिल तिवारी से किए गए संवाद पर आधारित है यह आलेख ।
    आदिवासियों का जीवन नैसर्गिक है । वह प्रकृति से भिन्न नहीं है । जल, जंगल, जमीन सब कुछ उसका अपना घर है । उनमें स्वामित्व का बोध भी नहींे है । आदिवासी जंगल या खेत में अपनी झोपड़ी बनाकर जरूर रहता है, लेकिन वह अपनी प्रकृति से किसी भी तरह अलग नहीं होता बल्कि यूं कहना चाहिए कि वह प्रकृति में ही समाहित है । उसकी स्वतंत्रता भी नैसर्गिक है । उसका जीवन सत्य पर आधारित है । वह राज्य की अवधारणा की छाया में दी जाने वाली स्वतंत्रता में कभी नहीं जिया । उसकी अपनी ही स्वतंत्रता    है । ये बातें जाने-माने चिंतक और आदिवासियों के बीच में लंबा समय व्यतीत करने वाले कपिल तिवारी ने एक बातचीत में कहीं ।
    उनका मानना है कि दुनिया में एक मात्र यही ऐसा समाज है जो वर्तमान में जीता है । अपने अतीत या भविष्य में नहीं । इसलिए उनमें संग्रह की प्रवृत्ति नहीं है । गौरतलब है कि यह समाज कभी बीमार समाज नहीं रहा और यदि रहा होता तो कब का खत्म हो गया होता । आज उसकी खाद्यसुरक्षा और पोषण का मामला गड़बड़ा गया है और उसकी संतानें कुपोषण की शिकार हैंतो उसके गहरे और मूल कारण हैं, जिन्हें हमें बहुत गहराई से समझना होगा । याद रखिए यह सारा मामला पिछली डेढ़-दो सदियों में ही गड़बड़ाया है । इसके  मूल कारणों में आदिवासी के नैसर्गिक जीवन का प्रभावित होना, उनकी नैसर्गिक स्वतंत्रता पर हमला, उनके मनोविज्ञान का बदलना और उन्हें हीनता का बोध कराना, विकास में उनकी भागीदारी सुनिश्चित नहीं करना, सब कुछ लिखे-पढ़े अपढ़ों के द्वारा तय करना और उनसे पूछना तक नहीं, आदि शामिल हैं। 
    श्री तिवारी ने आदिवासियों की खाद्यसुरक्षा और पोषण का मामला गड़बड़ाने और कुपोषण के कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा, ''दरअसल, तथाकथित बुद्धिजीवियों की दृष्टि में आदिवासी को प्रकृति से अलग देखा जाता है । यह एक बड़ी भूल है । सभ्य कहे जाने वाले समाजों ने उसकी नैसर्गिक स्वतंत्रता पर हमला किया । उनके मनोविज्ञान को हीनता का बोध कराया और उसे समझाया कि तुम असभ्य हो, पिछड़े हो, जंगली हो, गंवार हो, बेचारे हो आदि आदि । इसने उसका मन ग्लानि से भर दिया । वह स्वयं को हीन समझने लगा । इसलिए वह हमारे आपके द्वारा तय कथित मुख्यधारा (जिसके बारे में किसी को पता नहीं है कि यह धारा तय करने वाला कौन है) में शामिल होने की जद्दोजहद में लग गया । इससे उसका जीवनचक्र बदला है ।
    जिस आदिवासी समाज का अपने जल, जंगल और जमीन पर स्वामित्व का भाव ही नहीं था उस पर हमने वह भाव विकसित करने का प्रयास किया । स्वामित्व की अवधारणा के संघर्ष में सभ्य कहे जाने वाला समाज उसका शोषकबन गया । आदिवासी से उसका जंगल, नदी, पहाड़ सबकुछ तो छीन लिया  गया । स्वामित्व के बोध का तत्व कुछ इस तरह शामिल किया गया कि अब वह अपनी प्राकृतिक परिवेश में रह ही नहीं पा रहा है । उसके खेत, घर सब कुछ को बहुत सीमित दायरे में कर दिया । उसे यह बताया गया कि यह थोड़ी सी जमीन और छोटा सा घर ही उसका है । जंगल केवल उसके नहीं  है । यही विस्थापन खतरनाक साबित हुआ है । 
    श्री तिवारी ने कहा, ''मुगलों ने भी देश के आदिवासियों के जीवन में कभी हस्तक्षेप नहीं किया । अकबर के जमाने में बीरबल ने भू-राजस्व की अवधारणा प्रस्तुत की । यह लगान वसूलने के लिए थी । अंग्रेजों के आगमन के बाद भूमि कानूनों और मध्यप्रदेश के पचमढ़ी में वन विभाग की स्थापना के साथ जंगलों में इनके जीवन को प्रभावित करना आरंभ किया । वन और भूमि कानूनों ने भी इन पर कुठाराघात किया है । कानूनों के जरिये इनसे यह सब छीना गया  है । अंग्रेजी शासनकाल में पश्चिमी नृतत्वशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों ने आदिवासियों को समझने-बूझने की जो तकरीरें दीं, वे गलत थीं । इन्हीं के काल में विकास की कथित आधुनिक अवधारणा ने जन्म लिया ।
    हमारे विकास नियंताओं ने कभी आदिवासियों से नहीं पूछा कि वे किस तरह का विकास चाहते हैं? यदि पूछा जाता तो वे बताते कि उन्हें किस तरह का विकास चाहिए । आदिवासियों का हर समुदाय अपने विकास की बात अलग-अलग तरीके से करता । लेकिन हमने ही उनका विकास तय किया । इतना ही नहीं हमने तय कर दिया कि उन्हें किस तरह पढ़ना चाहिए । विद्यालय खोल दिए । अस्पताल खोल दिए । सड़कें बना दीं । घर बना दिए । जमीन के कुछ टुकड़े आवंटित कर दिए और बदले में उनके जंगलों को अभयारण्य में बदल दिया और उन्हें वहां से खदेड़ दिया । उन पर आरोप मढ़ दिए कि वे जंगल नष्ट करते हैं, शिकार करते हैंऔर इससे वन्य प्राणियों को नुकसान पहुंच रहा है । जबकि ऐसा नहीं था । उनके रहते जंगल कभी भी नष्ट नहीं हुए, बल्कि सुरक्षित रहे ।
    जंगलों और वन्य प्राणियों को नुकसान तो हमारे आगमन के बाद पहुंचा । जंगलों से विस्थापन एक बड़ा कारण है, जिसने उसके जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है । हमारे विकास नियंताओं ने विकास में उनकी सही भागीदारी ही सुनिश्चित नहीं की । ''कलेक्टर और पत्रकार`` जिन्हें मैं सर्वविषयक विशेषज्ञ कहता हूं ने भी आदिवासियों का कबाड़ा ही किया है ।
    श्री तिवारी ने जोर देकर कहा, ''आदिवासियों को उनके अपने तई उनके परिवेश के परिपेक्ष्य में गहराई से समझने की जरूरत है । हमें उनके  नैसर्गिक जीवन को लौटना होगा । उन्हें उनकी नैसर्गिक स्वतंत्रता भी बख्शनी होगी । उनके अंदर जो हीनता का बोध हमने भर दिया है उससे उन्हेें मुक्त करना होगा । उनके जल, जंगल, जमीन के उस भाव की स्थापना करनी होगी जिसमें उसका स्वामित्व का भाव ही नहीं था, उन्हें वह सबका समझता आया है । विकास में उसकी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी । उससे पूछना होगा कि वह किस तरह का विकास चाहता है ।``
    श्री तिवारी ने कहा, ''जल, जंगल और जमीन के अधिकारों को लेकर जो तमाम किस्म के आंदोलन चल रहे हैं, लड़ाइयां लड़ी जा रहीं हैं, उन्हे भी आदिवासियों की नैसर्गिकता को गंभीरता से समझना चाहिए । क्योंकि इन लड़ाइयों से उनका कुछ बनने वाला नहीं है । मुझे आशंका है राज्य की ताकत जिस दिन चाहेगी वह इन सब आंदोलनों और लड़ाइयों को समाप्त कर देगी । इसलिए जरूरी है कि आदिवासियों को जिम्मेदारी गंभीरता और समझ-बूझकर से अपने अधिकारों की लड़ाइयों के लिए स्व प्रेरित किया जाए । उनके साथ मिलकर चल रहे संघर्षों का तौर तरीका भी बदलना  होगा ।
पर्यावरण परिक्रमा
अब तक शहीद शब्द को परिभाषित नहीं किया गया

सेना और अर्धसैनिक बलों के जवानों को मुआवजा और सम्मान प्रदान करने में किसी तरह का भेदभाव किये जाने को सिरे से खारिज करते हुए गृह मंत्रालय ने कहा है कि भारत सरकार ने कहीं पर भी शहीद शब्द को परिभाषित नहीं किया है ।
    सूचना के अधिकार के तहत गृह मंत्रालय के पुनर्वास एवं कल्याण निदेशालय से प्राप्त् जानकारी के अनुसार, सरकार द्वारा केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बलोंतथा रक्षा बलों में दोहरा मानक नहीं अपनाया जाता है तथा न ही कोई फर्क किया जाता है । केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बलोंतथा रक्षा बलों की सेवा शर्ते विभिन्न अधिनियमों तथा नियमों के तहत प्रशासित होती हैं । इन नियमों के अन्तर्गत दिए गए प्रावधानों के अनुसार ही ये बल कार्य करते हैं और इन्हीं के अनुसार सेवाकाल एवं सेवानिवृत्ति के लाभों के पात्र हैं । गृह मंत्रालय के पुनर्वास एवं कल्याण निदेशालय ने कहा भारत सरकार द्वारा कहीं पर भी शहीद शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है ।
    सरकार विभिन्न सशस्त्र बलों के कर्मियों द्वारा किये गये बलिदान में कोई भेदभाव नहीं करती है । आर.टी.आई. के तहत् मंत्रालय ने बताया कि केन्द्रीय सशस्त्र बलों के ऐसे कर्मियों को जिनकी कर्तव्य निर्वहन के दौरान मृत्यु हो गई हो, उनके संबंध में गृह मंत्रालय की ओर से कोई आदेश या अधिसूचना (शहीद या मृत घोषित करने के संबंध में) जारी नहीं की गई है ।
तेजी से पिघल रहा है हिमालय
    पिछले १०० वर्षो में हिमालय के पश्चिमोत्तर हिस्से का तापमान १.४ डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, जो कि शेष विश्व के तापमान में हुए औसत इजाफे (०.५-१.१ डिग्री सेल्सियस) से अधिक है । रक्षा शोध एवं विकास संस्थान (डीआरडीओ) और पुणे विश्वविघालय के भूगर्भ विज्ञान विभाग के वैज्ञानिकोंने क्षेत्र में बर्फबारी और बारिश की विविधता का अध्ययन किया और पाया कि बढ़ती गर्मी के कारण सर्दियों की शुरूआत देर से हो रही है और बर्फबारी में कमी आ रही हैं ।
    शोधकर्ताआें ने पाया कि पश्चिमोत्तर हिमालय का इलाका पिछली शताब्दी में १.४ डिग्री सेल्सियस गर्म हुआ है, जबकि दुनिया भर में तापमान बढ़ने की औसत दर ०.५ से १.१ डिग्री सेल्सियस रही है । शोध का नेतृत्व करने वाली डीआरडीओ के वैज्ञानिक एमआर भुटियानी ने बताया कि अध्ययन का सबसे रोचक निष्कर्ष है कि पिछले तीन दशकों के दौरान पश्चिमोत्तर हिमालय क्षेत्र के अधिकतम और न्यूनतम तापमान में तेज इजाफा, जबकि दुनिया के अन्य पर्वतीय क्षेत्रों जैसे कि आल्प्स और रॉकीज में न्यूनतम तापमान में अधिकतम तापमान की अपेक्षा अधिक तेजी से वृद्धि हुई है ।
    श्री भुटियानी ने कहा इस इलाके के गर्म होने की मुख्य वजह भी यही है । उसके अधिकतम और न्युनतम तापमान में वृद्धि होना । खासतौर पर अधिकतम तापमान में तेजी से वृद्धि होना । इस क्षेत्र से संबंधित आंकड़े भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी), स्त्रो एंड अवलांच स्टडी इस्टेब्लिशमेंट (एसएसई) मनाली और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रापिकल मीटरोलॉजी से जुटाए गए थे । अध्ययन के मुताबिक वर्ष १८६६ से २००६ के दरमियान मानसून और बारिश के औसत समय मेंभी महत्वपूर्ण कमी आई है ।
    ठंड के दिनों में अब बर्फबारी कम और बारिश अधिक हो रही है । इसके अलावा ठंड के मौसम की अवधि पर भी नकारात्मक असर पड़ा है । ये सारे संकेत इलाके के   पर्यावरण में हो रहे परिवर्तनों को दर्शाते हैं ।
एबी ब्लड ग्रुप वालों की याददाश्त होती है कमजोर
    एक शोध में कहा गया है कि जिन लोगों का ब्लड ग्रुप एबी है उनमें ज्यादा सोचने और याददाश्त कमजोर पड़ने की समस्या ज्यादा होती है । इसी वजह से भविष्य में उन्हें अन्य रक्त समूहों वाले लोगों की अपेक्षा मनोभ्रंश होने का खतरा ज्यादा रहता है । बलिगंटन मेंे यूनिवर्सिटी ऑफ वरमॉन्ट के कॉलेज ऑफ मेडिसीन में शोधरत मेरी कशमैन ने बताया कि हमारे शोध में ब्ल्ड ग्रुप और संज्ञानात्मक हानि पर अध्ययन किया गया ।
    जिन लोगों का रक्त समूह एबी होता है उनमें स्मृति संबंधी समस्याएं होने का खतरा अन्य लोगों की अपेक्षा ८२ फीसदी ज्यादा होता है । ब्लड ग्रुप स्ट्रोक जैसी दिल की बीमारियों से भी संबंधित है, इसलिए परिणाम संवहनी और मस्तिष्क स्वास्थ्य के बीच संबंध को दर्शाते हैं । यह अध्ययन एक बड़े अध्ययन (रीजंस फॉर जियोग्राफिक एण्ड रेशल डिफरेंसेज इन स्ट्रोक) का  हिस्सा था जिसमें ३०००० से ज्यादा लोग शामिल थे । अध्ययन में पाया गया कि एबी ब्लड ग्रुप वाले समूह में छह फीसदी लोगों को संज्ञानात्मक हानि हुई, जो कि अन्य लोगों के समूह में चार फीसदी थी ।
    शोधकर्ताआें ने रक्त जमने में मदद करने वाले फैक्टर सात पर भी नजर डाली । फैक्टर सात उच्च् स्तर होने से संज्ञानात्मक हानि का खतरा ज्यादा होता है । एबी ब्ल्ड ग्रुप के लोगों में अन्य ब्लड ग्रुप के लोगों की अपेक्षा फैक्टर सात का औसत स्तर अधिक पाया गया ।
अंटार्कटिका मेंअब माउंट सिन्हा
    अमेरिका ने अंटार्कटिका के एक पर्वत का नामकरण एक प्रतिष्ठित भारतवंशी वैज्ञानिक के नाम पर किया गया है । यूनिवर्सिटी ऑफ मिन्नेसोटा मेंडिपार्टमेंट ऑफ जेनेटिक्स, सेल बायोलॉजी एण्ड डेवलपमेंट में सहायक प्रोफेसररहे अखौरी सिन्हा के नाम पर अमेरिकी भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने पर्वत का नामकरण माउंट सिन्हा रखा      है ।
    वर्ष १९७१-७२ में किए गए उनके कार्य के लिए अमेरिकी भूगर्भ सर्वेक्षण ने उन्हें सम्मानित किया है । सिन्हा उस दल के सदस्य थे, जिन्होनें वर्ष १९७२ और १९७४ में बेलिंगशॉसेन और आमंडसेन समुद्री क्षेत्र में अमेरिकी कोस्ट गार्ड कटर्स साउथविंड और ग्लेशियरों में सील, व्हेल और पक्षियों पर्वत का नामकरण अंटार्कटिका नेम्स (यूएस-एसीएएन) और अमेरिकी भूगर्भ सर्वेक्षण की सलाहकार समिति द्वारा किया गया ।
    माउंट सिन्हा पर्वत (९९० मीटर) मैकडोनाल्ड पर्वत श्रृंखला के दक्षिणी हिस्से एरिकसन ब्लफ्स के दक्षिण पूर्वी छोर पर स्थित है । श्री सिन्हा ने कहा कि कोई भी गूगल डॉट कॉम या बिंग डॉट कॉम पर माउंट सिन्हा को देख सकता है । अखौरी सिन्हा ने कहा कि यह सम्मान यह दिखाता है कि आप सक्षम है इसलिए आज लोगों से संपर्क करनेसे नहीं डरना चाहिए और हर अवसर को आजमाना  चाहिए । श्री सिन्हा ने वर्ष १९५४ में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से विज्ञान में स्नातक की डिग्री हासिल की थी । इस नामकरण से भारतीय वैज्ञानिक को प्रतिष्ठा मिली है और इससे देश का गौरव बढ़ा है ।
चूहे में डाला इंसानी दिमाग
    मस्तिष्क के प्रत्यारोपण की दिशा में वैज्ञानिकों ने एक अहम कदम आगे बढ़ाया है । मानव दिमाग का अहम जीन जब उन्होनें चूहे में प्रत्यारोपित किया तो पाया कि चूहे का दिमाग सामान्य से ज्यादा तेज चलने लगा । रिसचरों के मुताबिक इस प्रयोग का लक्ष्य यह देखना था कि अन्य प्रजातियों में मानव दिमाग का कुछ हिस्सा लगाने पर उनकी प्रक्रिया पर कैसा असर पड़ता है । इस तरह के प्रत्यारोपण के बाद चूहा अन्य चूहों के मुकाबले अपना खाना ढूंढने में ज्यादा चालाक पाया गया । उसके  पास नए तरीकों की समझ देखी गई ।
    एक जीन के प्रभाव को अलग करके देखने पर क्रमिक विकास के बारे मेंभी काफी कुछ पता चलता है कि इंसान में कुछ बेहद अनूठी खूबियां कैसे आई । यह बोलचाल और भाषा से संबंधित है, इसे फॉक्सपी २ कहते है । जिस चूहे में ये जीन डाला गया उसमें जटिल न्यूरॉन पैदा हुए और ज्यादा क्षमतावान दिमाग पाया गया । इसके बाद मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट के रिसचरों ने चूहे को एक भूलभुलैया वाले रास्ते में चॉकलेट ढूंढने की ट्रेनिंग दी । इंसानी जीन वाले चूहे ने इसे ८ दिनों में सीख लिया जबकि आम चूहे को इसमें ११ दिन लग गए ।
    इसके बाद वैज्ञानिकों ने कमरे से उन तमाम चीजों को निकाल दिया जिनसे रास्ते की पहचान होती हो । अब चूहे रास्ता समझने के लिए सिर्फ फर्श का की संरचना पर ही निर्भर थे । इसके विपरीत एक टेस्ट यूं भी किया गया कि कैमरे की चीजें वहीं रहीं लेकिन टाइल्स निकाल दी गई । इन दोनों प्रयोगों में आम चूहों को मानव जीवन वाले चूहों जितना ही सक्षम पाया गया । यानि नतीजा यह निकला कि उनको सिखाने में जो तकनीक इस्तेमाल की गई है वे   सिर्फ उसी के इस्तेमाल होने पर  ज्यादा सक्षम दिखाई देते हैं । मानव दिमाग का यह जीन ज्ञान संबंधी क्षमता को बढ़ाता है । यह जीन सीखी हुई चीजों को याद दिलाने में मदद करता है ।
गांधी जंयती पर विशेष
बापू का अंतिम जन्मदिन
प्यारेलाल

    २ अक्टूबर, १९४७ को गांधीजी का जन्मदिन था । यह उनके  जीवनकाल में मनाया जाने वाला अंतिम जन्मदिन था । उनकी मंडली के लोग प्रात:काल ही उन्हें प्रणाम करने आ पहुंचे । उनमें से एक साथी ने कहा `हमारे जन्मदिन पर हम दूसरों के पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लेते हैं, परंतु आपके मामले में उल्टी बात है । क्या यह न्याय है ?` गांधीजी ने हंसकर कहा, `महात्माओं की बातें दूसरी ही होती हैं । इसमें मेरा कसूर नहीं है । तुमने मुझे महात्मा बना दिया, यद्यपि झूठा महात्मा; इसलिए तुम्हें दंड भुगतना चाहिए ।`
     उन्होंने अपना जन्मदिन सदा की भांति उपवास, प्रार्थना और अधिक कताई करके मनाया । उन्होंने समझाया: ''उपवास आत्मशुद्धि के  लिए है और कताई इस प्रतिज्ञा को दोहराने का चिन्ह है कि ईश्वर के  नीचे से नीचे और छोटे से छोटे प्राणी की सेवा में अपने आपको अर्पित   करूं ।` उन्होंने अपने जन्मदिन के उत्सव को चरखे के पुनर्जन्म का उत्सव बना दिया था । चरखा अहिंसा का प्रतीक था । यह प्रतीक तो विलीन हो गया लगता था, परंतु गांधीजी ने उत्सव मनाना नहीं छोड़ा था, क्योंकि उन्हें यह आशा थी कि कम से कम कुछ छुटपुट व्यक्ति तो भी चरखे के  संदेश के प्रति वफादार होंगे । इन्हींलोगों की खातिर गांधीजी ने इस उत्सव को जारी रहने दिया था ।
    जब साढ़े आ ठ बजे गांधीजी स्नान करके अपने कमरे में घुसे, तो घनिष्ठ मित्रों का एक छोटा सा दल वहां उनकी प्रतीक्षा कर रहा था । उनमें पं. नेहरू और सरदार, उनके यजमान घनश्यामदास बिड़ला और दिल्ली के बिड़ला परिवार के सभी सदस्य थे । मीराबहन ने उनकी बैठक को खूब सजाया था । उसके सामने उन्होंने एक कलापूर्ण क्रॉस, हे राम और पवित्र ऊँ कई रंग के फूलों से बना दिए थे । एक छोटी सी प्रार्थना हुई । उसके बाद गांधीजी का प्रिय भजन `वेन आई सर्वे द  वण्डरस क्रॉस` और दूसरा उनकी पसंद का हिंदी भजन `हे गोविन्द राखो शरण` गाया गया ।
    मुलाकाती और मित्र दिनभर राष्ट्रपिता को श्रद्धांजलि अर्पण करने आते रहे । इसी प्रकार विभिन्न देशों के राजदूत भी आए । उनमें से कुछ अपनी-अपनी सरकारों की तरफ से गांधीजी के लिए अभिनंदन और अभिवादन लाये थे। अंत में श्रीमती माउंटबेटन गांधीजी के नाम आए हुए पत्रों और तारों का ढेर लेकर पहुंची । उन सबसे गांधीजी यही प्रार्थना करने का अनुरोध किया कि ` या तो वर्तमान में उठा दावानल शांत हो जाए या ईश्वर मुझे उठा ले । मैं नहीं चाहता कि आग से जलते हुए भारत वर्ष में मेरी दूसरी वर्षगांठ आए ।
    जन्मदिन का यह अवसर आने वालों की स्मृतियों पर गांधीजी के जीवन का एक अत्यंत दु:खद अवसर बनकर रह गया । उन्होंने सरदार से कहा, `मैंने ऐसा कौन सा पाप किया होगा कि ईश्वर ने मुझे ये तमाम भयंकर घटनाएं देखने को जिंदा रखा है ?` चारों और फैले हुए दावानल के सामने लाचारी की भावना से गांधीजी जले जा रहे थे । सरदार की पुत्री मणिबहन ने उस दिन की अपनी डायरी में दुख: के साथ यह लिखा : `उनकी (बापूकी) पीड़ा असहनीय थी । हम खुशी से उछलते उनके पास गए थे, लेकिन भारी दिल के साथ घर लौटे ।`
    मिलने वालों के चले जाने के बाद गांधीजी को खांसी का दूसरा दौरा हुआ । वे मन ही मन बोले -`यदि प्रभु का नाम मेरे लिए सब रोगों की रामबाण दवा सिद्ध नहीं होता, तो मैं इस शरीर को छोड़ देना अधिक पसंद करूंगा । इस सतत जारी रहने वाले भातृवध के कारण सवा सौ वर्ष जीने की मेरी इच्छा बिल्कुल नहीं रह गई है । मैं इसका असहाय साक्षी बनना नहीं चाहता । `किसी ने बीच में ही कहा : तो सवा सौ वर्ष से आप शून्य पर उतर आए हैं ।` उनका उत्तर था, `हां यदि दावानल बंद नहीं हो जाता ।`
    शाम की प्रार्थना में गांधीजी ने  कहा - बहुत से लोग मुझे बधाइयां देने आए थे । देश और विदेश दोनों से मुझे पचासों तार मिले हैं । निराश्रितों ने मेरे पास फूल भेजे हैं और अनेक श्रद्धांजलियां तथा शुभकामनाएं मुझे प्राप्त हुई है । परंतु मेरे हृदय में पीड़ा के सिवा कुछ नहीं है । मेरी आवाज एकाकी है । सब जगह यही शोर मचा हुआ है कि हम मुसलमानों को भारतीय संघ में नहीं रहने देंगे । इसलिए मैंआपकी कोई भी बधाई स्वीकार करने मेें सर्वथा असमर्थ हूं । बधाई किसलिए? `क्या संवेदना प्रकट करना अधिक उपयुक्त नहीं होगा ?` जब द्वेष और हत्याकांड वातावरण में फैलकर हमारा गला घोट रहे हों, तब मैंजिंदा नहीं रह सकता । मेरी सब लोगों से प्रार्थना है कि जो पागलपन आप पर सवार हो गया है, उसे आप छोड़ दें और अपने हृदयों को द्वेष और घृणा से मुक्त कर लें ।
    एक सिक्ख नेता के साथ गांधीजी की बातचीत हुई थी । इन सज्जन ने गांधीजी को बताया था कि यह कहना बिल्कुल गलत है कि दसवें सिक्ख गुरु गोविंदसिंह ने अपने अनुयायियों को मुसलमानों की हत्या करने की शिक्षा दी थी । इसके बजाए गुरु ने यह कहा था कि इस बात का कोई महत्व नहीं कि मनुष्य ईश्वर की पूजा कैसे, कहां और किस नाम से करता है, क्योंकि ईश्वर सबके लिए एक ही है, इतना ही नहीं मनुष्य सर्वत्र एक ही अर्थात एक ही प्रकार का प्राणी है । `सब एक ही ढांचे में ढले हुए है, सबकी समान भावनाएं होती हैं, सब मरते हैं और सब उसी मिट्टी में मिल जाते हैं । वायु और सूर्य भी सबके लिए एक हैं ।गंगा किसी मुसलमान को अपना ताजगी लाने वाला पानी देने से इन्कार नहीं करती । बादल सभी पर पानी बरसाते हैं । अपने और अपने साथियों के बीच भेद करने वाला मनुष्य निरा अज्ञान है ।`
    आकाशवाणी ने गांधीजी की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में एक विशेष कार्यक्रम रखा था । उनसे पूछा गया: क्या आप विशेष कार्यक्रम एक बार भी नहीं सुनेंगे ? उन्होंने उत्तर दिया: `नहीं ।` मुझे `रेडियो` से `रेंटियो` अधिक पसंद है । चरखे की गूंज मुझे अधिक मीठी लगती है।
प्रदेश चर्चा
राजस्थान : औद्योगिक गुलामी का पुनर्पाठ
गौतम मोदी

    राजस्थान सरकार द्वारा विभिन्न श्रम एवं औद्योगिककानूनों में संशोधन कमोवेश उन परिस्थितियों में लौटना है जहां से संघर्ष कर दुनियाभर के मजदूरों ने अपने अधिकार प्राप्त किए थे । देशभर की ट्रेड यूनियनों, जनसंगठनों एवं गैरसरकारी संगठनों की इस विषय पर चुप्पी चौकाने वाली है। बढ़ते पूंजीवाद व उपभोक्तावाद की दौड़ में मानव अधिकारों के उल्लघंन की अनदेखी समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकती है ।  
     राजस्थान सरकार द्वारा कारखाना अधिनियम में संशोधन का निर्णय समय की गति को दो सौ वर्ष पीछे ले गया है । संशोधन के अनुसार अब विनिर्माण प्रक्रिया में वर्तमान १० की बजाए २० कामगार जुड़े होने पर ही कारखाना अधिनियम में पंजीयन अनिवार्य होगा । यानि कि अब १९ कामगारों तक कारखाने के अंदर सुरक्षा प्रबंध से संबंधित कानूनी बाध्यता नहीं रहेगी । इस संशोधनों ने काम के घंटों, साप्ताहिक छुट्टी और बेहतर कार्य स्थितियों से संबंधित कानूनी संरक्षण को भी कमतर कर दिया है । सार्वभौमिक सुरक्षा के संघर्ष के परिणाम के तौर पर अनेक देशों में उन्नीसवीं शताब्दी में प्रथम कारखाना अधिनियम अस्तित्व में आया था । दूसरी ओर राजस्थान सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधन हमें दो शताब्दी पीछे ले जा रहे हैं । सन् १९८४ में हुई भोपाल गैस त्रासदी के  पश्चात कामगारों की सुरक्षा एवं स्वास्थ्य जोखिमों के दृष्टिगत कारखाना अधिनियम १९४८ मे महत्वपूर्ण संशोधन किए गए थे और नियोक्ता की जवाबदारी सुनिश्चित की गई थी ।
    कारखाना अधिनियम में संशोधन के साथ ही राजस्थान ने ठेका (संविदा) मजदूर (नियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम १९७०, प्रशिक्षु अधिनियम १९६१ एवं औद्योगिक विवाद अधिनियम १९४८ की महत्वपूर्ण धाराओं में भी संशोधन किए हैं । ठेका मजदूर अधिनियम में संशोधन के अनुसार इस अधिनियम के लागू होने की सीमा ५० या अधिक कर दी गई है। जबकि देशभर में (राजस्थान सहित) वर्तमान में यह सीमा २० या इससे अधिक है । ऐसे वातावरण में जहां कि लघु एवं मध्यम उद्योगों द्वारा कामगारों संख्या कम करके बताई जाती है, एक ही पते पर अनेक कारखानों की अनुमति प्राप्त हो जाती है और बिना किसी रुकावट से कारखाने के अंदर एक और कारखाना संचालित हो जाता है वहां १०० से भी ज्यादा कामगारों के काम करने के बावजूद वह संस्थान अब कारखाना अधिनियम एवं ठेका  मजदूर अधिनियम के दायरे में बाहर ही रहेगा ।
    प्रशिक्षु अधिनियम मेें हुए संशोधनों के अनुसार, प्रशिक्षुओं को मिलने वाला प्रशिक्षु मुआवजे को नियोक्ता भी `साझा` कर सकता है । इसी के साथ नियोक्ता को इस बात की स्वतंत्रता दे दी गई है कि वह प्रशिक्षण अवधि के दौरान प्रशिक्षु को बर्खास्त भी कर सकता है और इसमें अस्थाई या संविदा श्रेणी में रखे गए प्रशिक्षु भी शामिल हैं । आजकल कम वेतन और अधिकारों से मुक्त पाने के लिए यूनियन से बचने एवं सामुहिक मोलतोल के  मद्देनजर विनिर्माण क्षेत्र में बड़ी संख्या में प्रशिक्षुओं को नियुक्त  किया जाता है । इस संशोधनों का लक्ष्य इस प्रक्रिया को कानूनी संरक्षण उपलब्ध करवाना है । हालांकि सरकार कौशल निर्माण और नौकरीशुदा कर्मिकों की बात कर रही है, लेकिन इस संशोधन में प्रभावशाली ढंग से कुशल कामगारों को कामगारों की परिभाषा से बाहर कर उन्हें प्रशिक्षुकों की श्रेणी में डाल दिया है ।
    राजस्थान की भाजपा सरकार का देश के श्रम कानूनों के  मूलभूत ढांचे में परिवर्तन के प्रयास को औद्योगिक विवाद अधिनियम (आईडीए) १९४८ के अनुच्छेद ५-बी में संशोधन से साफ समझा जा   सकता है । इस अधिनियम की धारा २५ के अनुसार जिस भी कारखाने में १०० से अधिक कामगार हों उसे संस्थान बंद करने या कर्मचारियों की छंटनी हेतु पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य है ।
    औद्योगिक विवाद अधिनियम के अध्याय ५-ब में तालाबंदी, छंटनी या बंद करने को लेकर दो स्पष्ट प्रावधान हैंं, (अ) संस्थान द्वारा इस हेतु बताए गए कारणों की विश्वसनीयता एवं उपयुक्ता (ब) कामगारों के हित ।   राजस्थान सरकार इस अधिनियम के  अंतर्गत वर्तमान प्रावधान जो कि १०० कामगार है को बढ़ाकर ३०० पर ले जाना चाहती है और इस हेतु वह कोई संतोषजनक कारण भी नहीं बताना चाहती । इस संशोधन के लागू होते ही २९९ या उससे कम कामगारों वाले कारखाने जो कि अध्याय ५-अ से संचालित होते थे को कर्मचारियों को बर्खास्त करने/छंटनी करने या ले-ऑफ (्तालाबंदी) एवं संस्थान को बंद करने के लिए किसी पूर्व सरकारी अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी ।
    औद्योगिक विवाद अधिनियम में हुए संशोधनों में `धीरे कार्य करो` की विस्तृत परिभाषा दी गई है और अनुच्छेद ५ में इसे `खराब श्रम प्रक्रिया` बताया गया है । यदि किसी कामगार को `धीरे कार्य करो` जिसमें `नियम से काम करो` भी शामिल है को अपनाने के लिए छंटनी, ले-ऑफ या बर्खास्त किया जाता है (इसमें उत्पादन का तयशुदा या औसत या सामान्य स्तर का उत्पादन भी शामिल है या लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाता है)    तो भी तो यह संशोधन प्रस्तावित  करता है कि कामगारों को किसी भी प्रकार के मुआवजे की पात्रता नहीं होगी ।
    वर्तमान संशोधन राजस्थान सरकार के सन् १९५८ के उस प्रगतिशील कदम को भी वापस ले लेगा जिसमें कि ठेका श्रमिक को भी कामगार की परिभाषा में शामिल किया गया था । इसी के  साथ संस्थान में कामगारों की संख्या की गणना में  ठेका श्रमिकों की गणना छूट की वजह से नियोक्ता अपने यहां इनकी संख्या २९९ से नीचे रखने में आसानी से सफल हो जाएंगे । इतना ही नहीं मान्यता प्राप्त यूनियन के  लिए जहां पहले १५ प्रतिशत कामगारों की ही सदस्यता अनिवार्य थी अब इसे बढ़ाकर ३० प्रतिशत किया जा रहा है। इससे ट्रेड यूनियनों के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो जाएगा । इस प्रकार किया गया प्रत्येक संशोधन कामगारों के अधिकारों पर मूलभूत हमला है और नियोक्ताआेंद्वारा अक्सर की जाने वाली अनुचित श्रम प्रक्रियाओं को सुरक्षा कवच उपलब्ध कराना है ।
    राजस्थान की भाजपा सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधन देश के संविधान के अनुच्छेद २५४ का उल्लंघन है । ज्ञातव्य है इसे बाद में न्यायिक समीक्षा ने भी उचित  ठहराया था । इसमें स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि राज्यों को राष्ट्रीय कानूनों में संशोधन का अत्यंत सीमित अधिकार है और यह कठिनाईयों को निवारण और राज्य के नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के विचार हेतु ही किए जा सकते हैं ।
    पिछले दो दशकों के विकास के ढांचे ने निवेश को लेकर राज्यों के बीच तीव्र प्रतिस्पर्धा खड़ी कर दी है और इसकी परिणिति भूमि अनुदान, करों में छूट और गुजरात के मामले में तो निजी कंपनियों को बड़ी रकम के असुरक्षित ऋण या कमोवेश ब्याज रहित ऋणों के रूप में हुई है ।  राजस्थान भी अब नियमन में कमी कर रहा है जिससे मजदूरी में कमी आएगी और इससे राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा भी कटु होगी ।
    जहां तक कामगारों के अधिकारों की बात है पिछले दो दशकों से श्रम अधिकार लागू करने वाली प्रणाली पूरी तरह से निष्क्रिय है । यह तथ्य भी है कि छंटनी या बंद किए जाने वाले वातावरण का सामना केवल वहीं किया जा सकता है जहां पर कि लोकतांत्रिक यूनियनें आक्रामक तरीकें से अपने सदस्यों को अधिकार दिलवाए लेकिन यूनियन की अनुपस्थिति में बड़ी संख्या में कामगार सुरक्षाहीन हो जाएंगे । राजस्थान की भाजपा सरकार का निर्णय न तो निष्कपट है और न ही यह महज राजस्थान तक सीमित है । इसे केन्द्र सरकार के उस निर्णय के तारतम्य में देखा जाना चाहिए जिसमें कि उसने कारखाना अधिनियम एवं प्रशिक्षु अधिनियम में संशोधन की अनुमति दी है। यह औद्योगिक कर्मचारियों पर राजनीतिक हमला है और उनके द्वारा यूनियन की सदस्यता लेने के उस अधिकार का अतिक्रमण भी है जिसके माध्यम से वह कार्यस्थल पर एवं रोजगार संबंधी अपने अधिकारों को सुरक्षित रख पाते थे ।
जनजीवन
कोयला घोटाले का लेखा जोखा
जयन्त वर्मा

    सर्वोच्च् न्यायालय द्वारा कोयला घोटाले को लेकर दिया गया निर्णय इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि इसने एक बार पुन: प्राकृतिक संसाधनों को राष्ट्रीय संपत्ति के रूप में स्थापित करने का सफल प्रयास किया है । पिछले दो दशकों से जारी कोयले की दलाली में सभी ने हंसी खुशी से अपने हाथ ही नहीं मुंह भी काले किए हैं ।
    सर्वोच्च् न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर.एम. लोढ़ा, न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर और न्यायमूति कुरियन जोसेफ की त्रिसदस्यीय पीठ  ने अपने एक अहम फैसले में भारत के विभिन्न राज्यों में पिछली केन्द्र सरकारों द्वारा वर्ष १९९३ से २०१० के दौरान निजी कम्पनियों को केप्टिव उपयोग हेतु आबंटित २१८ में से २१४ कोल ब्लाक्स के आबंटन को आधारहीन पाते हुए रद्द कर दिया है । स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड को आबंटित तासरा कोल ब्लाक, एन.टी.पी.सी. को आबंटित पाकरी बरवाडीह तथा सिंगरौली के अल्ट्रा मेगा पॉवर प्रोजेक्ट सासन पॉवर लिमिटेड को आबंटित दो कोयला खदानों का आबंटन कायम रखा गया है । आदेश में कहा गया है कि न्यायालय की देख-रेख में चल रही कोयला खान आबंटन घोटाले की सी.बी.आई. जांच चलती रहेगी । कई कम्पनियों द्वारा खदान से कोयला उत्पादन शुरू  नहीं किए जाने की वजह से सरकार को हुई २९५ रु. प्रति टन की दर से राजस्व हानि की भरपाई भी करने का न्यायालय ने आदेश दिया है । जिन ४६ खदानों ने उत्पादन शुरू कर दिया है, उनमें से ४२ को अपना कारोबार समेटने के लिए ६ माह का समय दिया गया है ।
    प्रभावित कोयला ब्लाक में २९ मध्यप्रदेश के हैं, जो रिलायंस, हिन्डाल्को, बिरला कार्पोरेशन, एस्सार, जेपी एसोसिएट्स, बीएलए स्टील एवं जिन्दल स्टील आदि को आबंटित किए गए थे । रिलांयस ने सिंगरौली जिले में (प्रत्येक) ३९६० मेगावाट क्षमता के दो ताप विद्युत संयंत्र स्थापित किए थे, जिनको कोयला आबंटन जारी रहेगा । इनमें से सासन अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट, सिंगरौली में उत्पादन प्रारंभ हो चुका है, जिसे मुहेर, मुहेर अमरौली एक्सटेंशन ब्लाक से कोयला उपलब्ध किया जा रहा है । फैसले से सिंगरौली के महान कोल ब्लाक का आबंटन निरस्त हो गया है, जो एस्सार एम.पी. पावर लिमिटेड और हिंडाल्को को संयुक्त रूप से आबंटित था ।
    कोयला खदानों की बंदरबांट का खेल १९९२ से प्रारंभ हुआ था। प्राय: सभी राजनीतिक दलों की धन्नासेठों और बड़े कार्पोरेट घरानों से सांठगांठ के चलते यह घोटाला निर्बाध गति से चलता रहा । नरसिंहराव से लेकर मनमोहन सिंह के कार्यकाल तक अलग-अलग सरकारों ने ये आबंटन किए थे। अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली एन.डी.ए. सरकार ने भी अपने कार्यकाल में ३३ कोयला खदानों का आबंटन किया   था । मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में यह घोटाला तब उजागर हुआ, जब मार्च २०१२ में नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) की ड्राट रिपोर्ट सामने आई । मई २०१२ में प्रमुख सतर्कता आयुक्त ने सीबीआई से आबंटन की जांच करने को कहा। १७ अगस्त, २०१२ को कैग की रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत हुई, जिसके अनुसार कोयला ब्लाक की बंदरबांट से सरकार को १ लाख ८६ हजार करोड़ रूपए का घाटा हुआ । सितम्बर २०१२ में सुप्रीम कोर्ट ने कोयला ब्लाक आबंटन की सीबीआई जांच की निगरानी का फैसला लिया । अप्रैल २०१३ में संसदीय समिति ने वर्ष १९९३ से २००८ तक के आबंटनों को अवैध हराया । सीबीआई की सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत रिपोर्ट में मनमोहन सरकार के विधिमंत्री अश्विनी कुमार ने २० प्रतिशत बदलाव किए तो न्यायालय ने सीबीआई को सरकारी '''पिंजरे का तोता`` कहा । अंतत: अश्विनी कुमार को त्यागपत्र देना पड़ा । प्रधानमंत्री कार्यालय से कोयला ब्लाक आबंटन संबंधी फाइलों के गायब होने से दाल में काला होने का संदेह पुख्ता हुआ था ।
    कैग की रिपोर्ट के अनुसार कोयला खदानों की बंदरबांट से कम्पनियों को १७० खरब रूपयों का फायदा हुआ । वर्ष २००६ में कोयला ब्लाक आबंटन के वक्त केप्टिव प्लांटों के लिए खदान की नीलामी का विकल्प मौजूद था, जिसकी अनदेखी कर चुनिंदा निजी कम्पनियों को मुनाफा पहुंचाया गया । सन् १९९३ से २००५ के बीच लगभग ७०; २००६ में ५३; २००७ में ५२; २००८ में २४; २००९ में १६ तथा २०१० में एक कोयला ब्लाक आबंटित हुए थे । राज्य सरकारों की सिफारिश पर केन्द्र सरकार ने इन कोयला ब्लॉक का आबंटन किया था । आबंटित कोयला ब्लॉक महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, ओड़ीशा, झारखण्ड, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के हैंं, अत: इन राज्यों की सरकारें भी अवैध आबंटन में सहयोगी रही हैं । कोयला ब्लाक घोटाले के पूर्व कैग की रिपोर्ट से ही २जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आया, इनके आबंटन को भी उच्च्तम न्यायालय ने निरस्त किया था । इन घोटालों के दौर में राडिया टेप उजागर हुए, जिनसे सिद्ध हुआ कि कार्पोरेट घरानों के हाथ में सरकार की लगाम होती है । प्राय: सभी पार्टियां ऐसे गोरखधंधोंे को प्रोत्साहित करती हैं ।
    प्राय: सभी राजनीतिक दलों में इसी वर्ग का वर्चस्व रहा है, इसलिए भारत में औद्योगिक पूंजीवाद की बजाय लंपट पूंजीवाद आया । इस व्यवस्था में व्यावसायिक दक्षता के  बजाय सत्ता-संबंध महत्वपूर्ण होता है। व्यवसाय की सफलता के लिए राजसत्ता से संबंध या मिलीभगत आवश्यक होती है । यही कारण है कि भारतीय प्रतिभाएं मातृ-भूमि को छोड़कर अमेरिका, यूरोप, अरब मुल्कों आदि देशों में जाकर व्यावसायिक रूप से सफल हो जाती हैं । २जी स्पेक्ट्रम और कोयला ब्लाक घोटालों पर उच्च्तम न्यायालय के फैसलों और भ्रष्ट राजनेताओं को जेल भेजे जाने की ताजा घटनाओं ने भारत में पनप रहे लंपट पूंजीवाद पर अंकुश लगाने की ऐतिहासिक पहल की है ।
ज्ञान विज्ञानसोलर सेल सूर्य की ऊर्जा 
    सोलर सेल सूर्य की ऊर्जा को बिजली में बदलने का एक उपाय है ।  ऊर्जा संकट के इस दौर में सस्ती सोलर सेल एक उपयोगी उपकरण होगा । मगर सोलर सेल बहुत महंगी पड़ती हैं । अब एक नई तकनीक खोजी गई है जो सोलर सेल को सस्ता बनाने का वायदा करती है । 
     अधिकांश प्रकाश विघुत मॉड्यूलर अत्यन्त शुद्ध सिकिॉन की परतों पर आधारित होते हैं । ये परतें प्रकाश को सोखती है और यह प्रकाश इनमें इलेक्ट्रॉन का प्रवाह शुरू कर देता है । यह प्रवाह ही बिजली है । प्रकाश-विघुत मॉड्यूल बनाने का दूसरा तरीका यह है कि ऐसे पदार्थ की पतली झिल्ली बनाई जाए जो प्रकाश को बेहतर ढंग से सोख सके । चूंकि ये पदार्थ प्रकाश को बेहतर ढंग से सोखते हैं इसलिए आपको बहुत शुद्ध पदार्थ की जरूरत नहीं पड़ती और परत भी काफी पतली बनाई जा सकती है । इसका मतलब है कि पदार्थ भी कम लगेगा और सेल सस्ती हो जाएगी । इसके अलावा ऐसी अत्यन्त पतली परतें कांच की सख्त सतह पर बनाना जरूरी नहीं होता, इन्हें प्लास्टिक जैसे लचीली सतह पर भी बनाया जा सकता है ।
       इस तरह की  पहली पतली परत वाली सोलर सेल कैडमियम टेलुराइड नामक पदार्थ से बनी थीं । ये सिलिकॉन सेल से बहुत सस्ती और उनके मुकाबले थोड़ी ही कम कार्यक्षम थी । मगर फिर चीन में कीमतों के उतार-चढ़ाव के चलते मामला बिगड़ गया था । कैडमियम टेलुराइड सेल के लिए प्रतिस्पर्धा में टिके रहना कठिन होता गया ।
    कैडमियम टेलुराइड सेल के साथ एक समस्या और भी रही है । इस सेल पर कैडमियम क्लोराइड के घोल का लेप चढ़ाना पड़ता है । यह रसायन सेल की कार्यक्षमता को तो बढ़ा देता है मगर काफी घातक है । इसमें मौजूद कैडमियम आयन पानी में घुलनशील होते हैं और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं । शायद इनमें कैंसरकारी गुण भी होता है । इन गुणों के चलते सेल बनाते समय सुरक्षा का बहुत ध्यान रखना पड़ता है और ऐसे कारखानों से निकलने वाले पानी वगैरह का गहन उपचार करना पड़ता है । इस वजह से सेल बहुत महंगी हो जाती है ।
    अब लिवरपूल विश्वविघालय के भौतिक शास्त्री जॉन मेजर ने कैडमियम क्लोराइड का एक विकल्प खोज निकाला है जो बहुत सस्ता और सुरक्षित है । विभिन्न पदार्थो के साथ प्रयोग करके उन्होनेंपाया कि मैग्नीशियम क्लोराइड ठीक वही काम करता है जो कैडमियम क्लोराइड करता है । मैग्नीशियम क्लोराइड कई खाद्य पदार्थोंा में उपयोग किया जाता है और पूरी तरह सुरक्षित है । मेजर और उनके साथियों का मत है कि मैग्नीशियम क्लोराइड के उपयोग से एक बार कैडमियम टेलुराइड सेल को जीवनदान मिलेगी और वे बाजार में टिक पाएंगी ।

कोयल की चालाकी से बचाव के उपाय
    कोयल दूसरे पक्षियोंके घोंसलों में अंडे देने के लिए बदनाम  है । मगर ये अन्य पक्षी, जो अनजाने में कोयल के अंडों के मेजबान बनते हैं भी पीछे नहीं है । हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि इन पक्षियों में अपने अंडों की पहचान के लिए कुछ उपाय विकसित हुए हैं हालांकि अभी पता नहीं है कि ये उपाय कितने कारगर और कामयाब हैं ।
    कोयल (कुकुलस केनोरस) ऐसे अंडे देने मेें सक्षम है जो किसी मेजबान पक्षी के अंडों जैसे दिखें । और तो और, कोयल के अंडे मेजबान पक्षी के अंडों से पहले फूटते हैंऔर इनमें से निकले चूजे मेजबान पक्षी के अंडोंया चूजों को बाहर गिरा देते हैं । परिणाम यह होता है कि मेजबान पक्षी कोयल के चूजों को अपना समझकर दाना देते रहते हैं । 
     इन घुसपैठियों से बचने के लिए मेजबान पक्षियों को करना यह होगा कि फूटनेसे पहले इन अण्डों को पहचानकर अपने घोंसले से बाहर कर दें । नेचर कम्यूनिकेशन्स में प्रकाशित एक शोध पत्र से तो लगता है कि मेजबान पक्षी इसका प्रयास करते भी है । हारवर्ड विश्वविघालय की जीव वैज्ञानिक मैरी केसवेल स्टोडार्ड ने कम्प्यूटर की मदद से एक अध्ययन करके बताया है कि मेजबान पक्षियों के अंडो पर ऐसे पैटर्न विकसित हुए हैं जिनके आधार पर वे अपने अंडों को पहचान सकते हैं ।
    स्टोडार्ड और उनके साथियों ने लंदन के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय से ६८९ अंडों की तस्वीरें खींची । ये अंडे उन पक्षी प्रजातियों के थे जिनके घोसलों में कोयल अण्डे देती है । तस्वीरें एक ऐसे कैमरे से खींची गई थी जो उस प्रकाश को पकड़ता है जिसे पक्षी देख पाते हैं । अर्थात ये तस्वीरें बताती हैं कि ये अण्डे पक्षियों को कैसेदिखते होंगे ।
    अब शोधकर्ता यह देखना चाहते थे कि पक्षी इन अंडों पर बने चितकबरे पैटर्न को कैसेदेखते-समझते होंगे । इसके लिए एक पैटर्न पहचान सूत्र विकसित किया गया जिसे नेचरपैटर्नमैच कहते हैं । जब एक-एक प्रजाति के अंडों के पैटर्न का अध्ययन किया गया तो काफी विविधता सामने आई । सबसे प्रमुख निष्कर्ष तो यह था कि अधिकांश मेजबान प्रजातियों में अंडों पर विशिष्ट सिग्नेचर पैटर्न थे । यह भी देखा गया कि कोयल जिन पक्षियों के घोसलों का ज्यादा शोषण करती हैं, उनके अण्डों के पैटर्न कहीं ज्यादा जटिल थे । कुछ प्रजातियों में एक ही मादा के सारे अंडों में एक-सा पैटर्न था जबकि कुछ पक्षियों में एक ही मादा द्वारा अलग-अलग समय पर दिए गए अंडों के पैटर्न अलग-अलग थे ।
    शोधकर्ताआें का निष्कर्ष है कि मेजबान पक्षी पूरी कोशिश करते हैं कि कोयल उनका शोषण न कर पाए । मगर तथ्य यह है कि कोयल फिर भी करतब दिखा जाती है । इसलिए कई वैज्ञानिकों को लगता है कि यह अध्ययन अभी भी इस मान्यता पर टिका है कि कम्प्यूटर वही देख रहा है जो पक्षी देखते हैं । यह मान्यता कितनी सच के करीब है यह प्रमाणित नहीं हुआ है । फिर लगता है कि स्टोडार्ड ने एक तकनीक विकसित की है जिसमें और परिष्कार करके विहंगमदृष्टि के बारे मेंऔर प्रयोग किए जा सकेंगे ।

बगैर जुते खेत ठंडक पैदा करते हैं

    प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज मेंप्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि यदि खेत में जुताई न की जाए तो फसल क्षेत्र के आसपास के तापमान में २ डिग्री सेल्सियस तक की कमी आती है । एक प्रकार की प्राकृतिक खेती में बीज बोने से पहले खेत की जुताई नहीं की जाती ।
     यह अध्ययन स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलोजी की जलवायु विशेषज्ञ सोनिया सेनेविरत्ने और उनके साथियों ने फ्रांस के दक्षिण-पूर्व में स्थित प्रोवेंस क्षेत्र में किया है । 


     आम तौर पर गैर-जुताई खेती इसलिए अपनाई जाती है ताकि भूक्षरण कम से कम हो । जब खेत में जुताई नहीं की जाती और पिछली फसल के अवशेषों को वहीं छोड़ दिया जाता है तो मिट्टी में से पानी का वाष्पन नहीं होता । इसके चलते मिट्टी में नमी बनी रहती है । मगर पानी के वाष्पन की वजह से मिट्टी का तापमान भी कम होता है । इसलिए जब वाष्पन नहीं होता तो तापमान कम नहीं होता । मगर हाल के अध्ययन से पता चलता है कि बिना जुते खेतों के आसपास का तापमान अपेक्षाकृत कम रहता है।
       सेनेविरत्ने का कहना है कि बिना जुते खेतों का तापमान कम रहने का कारण यह है कि ऐसे खेत धूप को ज्यादा मात्रा में परावर्तित कर देते हैं । इसे एल्बीडो प्रभाव कहते हैं । उन्होनें पाया कि गर्मी के महीनों में बगैर जूते खेत सामान्य खेतों की अपेक्षा ५० प्रतिशत ज्यादा परावर्तक होते हैं । शोधकर्ताआें के मुताबिक होता यह है कि आम दिनोंमें धूप के कारण तापमान बढ़ता है और मिट्टी से पानी के वाष्पन की वजह से कम होता है । चूंकि जुते हुए खेतोंमें तापमान में अंतर ज्यादा नहीं होता । मगर बहुत गर्म दिनों में धूप और उसके परावर्तन का असर हावी हो जाता है और इन परिस्थितियों से  बिना जुते खेत अपेक्षाकृत ठंडे बने रहते हैं ।
कविता
पर्यावरण प्रदूषण
डॉ. रामसनेही लाल शर्मा

पीपरपांती कट गयी, सूखे कुंज-निकुंज
यमुना तट से कट गये, श्याम-स्नेह के पुंज
श्याम-स्नेह के पुंज, रो रही सूखी यमुना
उठे बगूले गर्म, रेत लावा का झरना
यमुना, कंुज, कदम्ब, कहां ? पूछेगा नाती
बाबा ! कब कट गयी, हमारी पीपर पांती ?
बर्बादी हंसने लगी, रोने लगा विकास
जल, ध्वनि, पवन-विनाश का, जब गूंजा कटु हास
जब गूंजा कटु हास, पवन लगती जहरीली
नदी लिए तेजाब, हुई हर लहर विषैली
बढ़ता जाता शोर, बढ़ रही है आबादी
दूषित पर्यावरण, रच रहा है बर्बादी ।
पेड़ धरा के पुत्र हैं, उन पर किया प्रहार
उस दिन मानव ने लिखा, अपना उपसंहार
अपना उपसंहार, कटे जब आम नीम बट
कटे कदम्ब, पलाश, करौंदा, जामुन नटखट
अब मधुऋतु की पवन, हंसे किसको सिहरा के
जब अशोक तरू जुही, कट गये पेड़ धरा के
वन-उपवन, पर्वत, धरा, जल, नभ, संस्कृति-रूप ।
सबको देकर यातना, करता मनुज कुरूप ।।
करता मनुज कुरूप, काटता है वृक्षों को
सजा रहा है मरे, वृक्ष से निज कक्षों को
कल्पवृक्ष को रखता, था पावन नन्दन वन
देवों को प्रिय विपिन, काटते हम वन-उपवन
अपसंस्कृतिदे तरूण को, देकर ऊब किशोर
हम नवशिशु के कान को, सौंपें बढ़ता शोर
सौंपे बढ़ता शोर, नीर देते जहरीला
नहीं रहा अब उषा, काल मोहक शहदीला
सब्जी, दूध, अनाज, सभी में आयी विकृति
संस्कृति मिटती गयी, रह गयी बस अपसंस्कृति ।
पर्यावरण समाचार
भारत मां को गंदगी से मुक्त करें
    प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की १४५ वीं जयंती पर स्वच्छ भारत महाभियान का शुभारंभ किया ।
    नईदिल्ली के राजपथ पर आयोजित कार्यक्रम में मोदी ने इसे राजनीति से परे और देशभक्ति से प्रेरित अभियान बताते हुए देशवासियों से भारत मां को गंदगी के कलंक से मुक्त करने का आह्वान किया । उन्होंने कहा कि गांधीजी का स्वच्छ और विकसित भारत का सपना अधूरा है, इसे उनकी १५०वीं जयंती तक पूरा करना है । पांच साल चलने वाले स्वच्छ भारत अभियान पर सरकार दो लाख करोड़ रूपये खर्च करेगी । देशभर में आयोजित कार्यक्रमोंमें लाखों कर्मचारियों और नागरिकों को शपथ दिलाई गई ।
    राजपथ पर प्रधानमंत्री ने कहा, मैं जानता हॅूं कि इस अभियान की आलोचना होगी, पर मुझे इसकी परवाह नहीं है । लेकिन देशवासियों को इससे घबराना नहीं है, हमें इस अभियान को मिल-जुलकर सफल बनाना है । स्वच्छता सिर्फ सफाई कर्मचारियों का ही दायित्व नहीं बल्कि हम सभी की जिम्मेदारी   है ।
    प्रधानमंत्री ने दिल्ली में सफाई कर्मचारियों की बस्ती में जाकर खुद झाडू लगाकर देश और दुनिया के सामने मिसाल पेश की । इसके बाद उन्होनें राजपथ पर आयोजित कार्यक्रम में कर्मचारियों और उपस्थित लोगों को स्वच्छता की शपथ दिलाई ।
    प्रधानमंत्री ने सफाई अभियान को आइसबकैट चैलेंज के रूप में एक चुनौती के रूप में पेश करते हुए ९-९ लोगों की श्रृंखला में सचिन तेन्दुलकर, सलमान खान, प्रियंका चौपड़ा, कमल हसन, उद्योगपति अनिल अंबानी, कांग्रेस नेता शशि थरूर, गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा, बाबा रामदेव और तारक मेहता का उल्टा चश्मा की पूरी टीम को शामिल किया है ।

पान मसाले में मिला मैग्नीशियम कार्बोनेट

    अगर आप पान मसाला सुरक्षित मान कर खा रहे हैं तो सावधान हो जाएं । गौरतलब है कि खाद्य सुरक्षा अधिकारियों ने भोपाल में रजनीगंधा के वितरक दक्ष एजेंसी के यहां कार्यवाही करते हुए सेंपल लिए एवं उनको प्रयोगशाला में भेजा गया । रिपोर्ट में सेंपल सब स्टेंडर्ड अनसेफ और इसमें मैग्नीशियम कार्बोनेट पाया गया । रिपोर्ट के बाद अधिकारियों ने मामला दर्ज किया है जिसमें कंपनी पर दस लाख का जुर्माना एवं आजीवन कारावास का प्रावधान भी है ।