ज्ञान विज्ञानसोलर सेल सूर्य की ऊर्जा
सोलर सेल सूर्य की ऊर्जा को बिजली में बदलने का एक उपाय है । ऊर्जा संकट के इस दौर में सस्ती सोलर सेल एक उपयोगी उपकरण होगा । मगर सोलर सेल बहुत महंगी पड़ती हैं । अब एक नई तकनीक खोजी गई है जो सोलर सेल को सस्ता बनाने का वायदा करती है ।
अधिकांश प्रकाश विघुत मॉड्यूलर अत्यन्त शुद्ध सिकिॉन की परतों पर आधारित होते हैं । ये परतें प्रकाश को सोखती है और यह प्रकाश इनमें इलेक्ट्रॉन का प्रवाह शुरू कर देता है । यह प्रवाह ही बिजली है । प्रकाश-विघुत मॉड्यूल बनाने का दूसरा तरीका यह है कि ऐसे पदार्थ की पतली झिल्ली बनाई जाए जो प्रकाश को बेहतर ढंग से सोख सके । चूंकि ये पदार्थ प्रकाश को बेहतर ढंग से सोखते हैं इसलिए आपको बहुत शुद्ध पदार्थ की जरूरत नहीं पड़ती और परत भी काफी पतली बनाई जा सकती है । इसका मतलब है कि पदार्थ भी कम लगेगा और सेल सस्ती हो जाएगी । इसके अलावा ऐसी अत्यन्त पतली परतें कांच की सख्त सतह पर बनाना जरूरी नहीं होता, इन्हें प्लास्टिक जैसे लचीली सतह पर भी बनाया जा सकता है ।
इस तरह की पहली पतली परत वाली सोलर सेल कैडमियम टेलुराइड नामक पदार्थ से बनी थीं । ये सिलिकॉन सेल से बहुत सस्ती और उनके मुकाबले थोड़ी ही कम कार्यक्षम थी । मगर फिर चीन में कीमतों के उतार-चढ़ाव के चलते मामला बिगड़ गया था । कैडमियम टेलुराइड सेल के लिए प्रतिस्पर्धा में टिके रहना कठिन होता गया ।
कैडमियम टेलुराइड सेल के साथ एक समस्या और भी रही है । इस सेल पर कैडमियम क्लोराइड के घोल का लेप चढ़ाना पड़ता है । यह रसायन सेल की कार्यक्षमता को तो बढ़ा देता है मगर काफी घातक है । इसमें मौजूद कैडमियम आयन पानी में घुलनशील होते हैं और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं । शायद इनमें कैंसरकारी गुण भी होता है । इन गुणों के चलते सेल बनाते समय सुरक्षा का बहुत ध्यान रखना पड़ता है और ऐसे कारखानों से निकलने वाले पानी वगैरह का गहन उपचार करना पड़ता है । इस वजह से सेल बहुत महंगी हो जाती है ।
अब लिवरपूल विश्वविघालय के भौतिक शास्त्री जॉन मेजर ने कैडमियम क्लोराइड का एक विकल्प खोज निकाला है जो बहुत सस्ता और सुरक्षित है । विभिन्न पदार्थो के साथ प्रयोग करके उन्होनेंपाया कि मैग्नीशियम क्लोराइड ठीक वही काम करता है जो कैडमियम क्लोराइड करता है । मैग्नीशियम क्लोराइड कई खाद्य पदार्थोंा में उपयोग किया जाता है और पूरी तरह सुरक्षित है । मेजर और उनके साथियों का मत है कि मैग्नीशियम क्लोराइड के उपयोग से एक बार कैडमियम टेलुराइड सेल को जीवनदान मिलेगी और वे बाजार में टिक पाएंगी ।
कोयल की चालाकी से बचाव के उपाय
कोयल दूसरे पक्षियोंके घोंसलों में अंडे देने के लिए बदनाम है । मगर ये अन्य पक्षी, जो अनजाने में कोयल के अंडों के मेजबान बनते हैं भी पीछे नहीं है । हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि इन पक्षियों में अपने अंडों की पहचान के लिए कुछ उपाय विकसित हुए हैं हालांकि अभी पता नहीं है कि ये उपाय कितने कारगर और कामयाब हैं ।
कोयल (कुकुलस केनोरस) ऐसे अंडे देने मेें सक्षम है जो किसी मेजबान पक्षी के अंडों जैसे दिखें । और तो और, कोयल के अंडे मेजबान पक्षी के अंडों से पहले फूटते हैंऔर इनमें से निकले चूजे मेजबान पक्षी के अंडोंया चूजों को बाहर गिरा देते हैं । परिणाम यह होता है कि मेजबान पक्षी कोयल के चूजों को अपना समझकर दाना देते रहते हैं ।
इस तरह की पहली पतली परत वाली सोलर सेल कैडमियम टेलुराइड नामक पदार्थ से बनी थीं । ये सिलिकॉन सेल से बहुत सस्ती और उनके मुकाबले थोड़ी ही कम कार्यक्षम थी । मगर फिर चीन में कीमतों के उतार-चढ़ाव के चलते मामला बिगड़ गया था । कैडमियम टेलुराइड सेल के लिए प्रतिस्पर्धा में टिके रहना कठिन होता गया ।
कैडमियम टेलुराइड सेल के साथ एक समस्या और भी रही है । इस सेल पर कैडमियम क्लोराइड के घोल का लेप चढ़ाना पड़ता है । यह रसायन सेल की कार्यक्षमता को तो बढ़ा देता है मगर काफी घातक है । इसमें मौजूद कैडमियम आयन पानी में घुलनशील होते हैं और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं । शायद इनमें कैंसरकारी गुण भी होता है । इन गुणों के चलते सेल बनाते समय सुरक्षा का बहुत ध्यान रखना पड़ता है और ऐसे कारखानों से निकलने वाले पानी वगैरह का गहन उपचार करना पड़ता है । इस वजह से सेल बहुत महंगी हो जाती है ।
अब लिवरपूल विश्वविघालय के भौतिक शास्त्री जॉन मेजर ने कैडमियम क्लोराइड का एक विकल्प खोज निकाला है जो बहुत सस्ता और सुरक्षित है । विभिन्न पदार्थो के साथ प्रयोग करके उन्होनेंपाया कि मैग्नीशियम क्लोराइड ठीक वही काम करता है जो कैडमियम क्लोराइड करता है । मैग्नीशियम क्लोराइड कई खाद्य पदार्थोंा में उपयोग किया जाता है और पूरी तरह सुरक्षित है । मेजर और उनके साथियों का मत है कि मैग्नीशियम क्लोराइड के उपयोग से एक बार कैडमियम टेलुराइड सेल को जीवनदान मिलेगी और वे बाजार में टिक पाएंगी ।
कोयल की चालाकी से बचाव के उपाय
कोयल दूसरे पक्षियोंके घोंसलों में अंडे देने के लिए बदनाम है । मगर ये अन्य पक्षी, जो अनजाने में कोयल के अंडों के मेजबान बनते हैं भी पीछे नहीं है । हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि इन पक्षियों में अपने अंडों की पहचान के लिए कुछ उपाय विकसित हुए हैं हालांकि अभी पता नहीं है कि ये उपाय कितने कारगर और कामयाब हैं ।
कोयल (कुकुलस केनोरस) ऐसे अंडे देने मेें सक्षम है जो किसी मेजबान पक्षी के अंडों जैसे दिखें । और तो और, कोयल के अंडे मेजबान पक्षी के अंडों से पहले फूटते हैंऔर इनमें से निकले चूजे मेजबान पक्षी के अंडोंया चूजों को बाहर गिरा देते हैं । परिणाम यह होता है कि मेजबान पक्षी कोयल के चूजों को अपना समझकर दाना देते रहते हैं ।
इन घुसपैठियों से बचने के लिए मेजबान पक्षियों को करना यह होगा कि फूटनेसे पहले इन अण्डों को पहचानकर अपने घोंसले से बाहर कर दें । नेचर कम्यूनिकेशन्स में प्रकाशित एक शोध पत्र से तो लगता है कि मेजबान पक्षी इसका प्रयास करते भी है । हारवर्ड विश्वविघालय की जीव वैज्ञानिक मैरी केसवेल स्टोडार्ड ने कम्प्यूटर की मदद से एक अध्ययन करके बताया है कि मेजबान पक्षियों के अंडो पर ऐसे पैटर्न विकसित हुए हैं जिनके आधार पर वे अपने अंडों को पहचान सकते हैं ।
स्टोडार्ड और उनके साथियों ने लंदन के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय से ६८९ अंडों की तस्वीरें खींची । ये अंडे उन पक्षी प्रजातियों के थे जिनके घोसलों में कोयल अण्डे देती है । तस्वीरें एक ऐसे कैमरे से खींची गई थी जो उस प्रकाश को पकड़ता है जिसे पक्षी देख पाते हैं । अर्थात ये तस्वीरें बताती हैं कि ये अण्डे पक्षियों को कैसेदिखते होंगे ।
अब शोधकर्ता यह देखना चाहते थे कि पक्षी इन अंडों पर बने चितकबरे पैटर्न को कैसेदेखते-समझते होंगे । इसके लिए एक पैटर्न पहचान सूत्र विकसित किया गया जिसे नेचरपैटर्नमैच कहते हैं । जब एक-एक प्रजाति के अंडों के पैटर्न का अध्ययन किया गया तो काफी विविधता सामने आई । सबसे प्रमुख निष्कर्ष तो यह था कि अधिकांश मेजबान प्रजातियों में अंडों पर विशिष्ट सिग्नेचर पैटर्न थे । यह भी देखा गया कि कोयल जिन पक्षियों के घोसलों का ज्यादा शोषण करती हैं, उनके अण्डों के पैटर्न कहीं ज्यादा जटिल थे । कुछ प्रजातियों में एक ही मादा के सारे अंडों में एक-सा पैटर्न था जबकि कुछ पक्षियों में एक ही मादा द्वारा अलग-अलग समय पर दिए गए अंडों के पैटर्न अलग-अलग थे ।
शोधकर्ताआें का निष्कर्ष है कि मेजबान पक्षी पूरी कोशिश करते हैं कि कोयल उनका शोषण न कर पाए । मगर तथ्य यह है कि कोयल फिर भी करतब दिखा जाती है । इसलिए कई वैज्ञानिकों को लगता है कि यह अध्ययन अभी भी इस मान्यता पर टिका है कि कम्प्यूटर वही देख रहा है जो पक्षी देखते हैं । यह मान्यता कितनी सच के करीब है यह प्रमाणित नहीं हुआ है । फिर लगता है कि स्टोडार्ड ने एक तकनीक विकसित की है जिसमें और परिष्कार करके विहंगमदृष्टि के बारे मेंऔर प्रयोग किए जा सकेंगे ।
बगैर जुते खेत ठंडक पैदा करते हैं
प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज मेंप्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि यदि खेत में जुताई न की जाए तो फसल क्षेत्र के आसपास के तापमान में २ डिग्री सेल्सियस तक की कमी आती है । एक प्रकार की प्राकृतिक खेती में बीज बोने से पहले खेत की जुताई नहीं की जाती ।
यह अध्ययन स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलोजी की जलवायु विशेषज्ञ सोनिया सेनेविरत्ने और उनके साथियों ने फ्रांस के दक्षिण-पूर्व में स्थित प्रोवेंस क्षेत्र में किया है ।
स्टोडार्ड और उनके साथियों ने लंदन के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय से ६८९ अंडों की तस्वीरें खींची । ये अंडे उन पक्षी प्रजातियों के थे जिनके घोसलों में कोयल अण्डे देती है । तस्वीरें एक ऐसे कैमरे से खींची गई थी जो उस प्रकाश को पकड़ता है जिसे पक्षी देख पाते हैं । अर्थात ये तस्वीरें बताती हैं कि ये अण्डे पक्षियों को कैसेदिखते होंगे ।
अब शोधकर्ता यह देखना चाहते थे कि पक्षी इन अंडों पर बने चितकबरे पैटर्न को कैसेदेखते-समझते होंगे । इसके लिए एक पैटर्न पहचान सूत्र विकसित किया गया जिसे नेचरपैटर्नमैच कहते हैं । जब एक-एक प्रजाति के अंडों के पैटर्न का अध्ययन किया गया तो काफी विविधता सामने आई । सबसे प्रमुख निष्कर्ष तो यह था कि अधिकांश मेजबान प्रजातियों में अंडों पर विशिष्ट सिग्नेचर पैटर्न थे । यह भी देखा गया कि कोयल जिन पक्षियों के घोसलों का ज्यादा शोषण करती हैं, उनके अण्डों के पैटर्न कहीं ज्यादा जटिल थे । कुछ प्रजातियों में एक ही मादा के सारे अंडों में एक-सा पैटर्न था जबकि कुछ पक्षियों में एक ही मादा द्वारा अलग-अलग समय पर दिए गए अंडों के पैटर्न अलग-अलग थे ।
शोधकर्ताआें का निष्कर्ष है कि मेजबान पक्षी पूरी कोशिश करते हैं कि कोयल उनका शोषण न कर पाए । मगर तथ्य यह है कि कोयल फिर भी करतब दिखा जाती है । इसलिए कई वैज्ञानिकों को लगता है कि यह अध्ययन अभी भी इस मान्यता पर टिका है कि कम्प्यूटर वही देख रहा है जो पक्षी देखते हैं । यह मान्यता कितनी सच के करीब है यह प्रमाणित नहीं हुआ है । फिर लगता है कि स्टोडार्ड ने एक तकनीक विकसित की है जिसमें और परिष्कार करके विहंगमदृष्टि के बारे मेंऔर प्रयोग किए जा सकेंगे ।
बगैर जुते खेत ठंडक पैदा करते हैं
प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज मेंप्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि यदि खेत में जुताई न की जाए तो फसल क्षेत्र के आसपास के तापमान में २ डिग्री सेल्सियस तक की कमी आती है । एक प्रकार की प्राकृतिक खेती में बीज बोने से पहले खेत की जुताई नहीं की जाती ।
यह अध्ययन स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलोजी की जलवायु विशेषज्ञ सोनिया सेनेविरत्ने और उनके साथियों ने फ्रांस के दक्षिण-पूर्व में स्थित प्रोवेंस क्षेत्र में किया है ।
आम तौर पर गैर-जुताई खेती इसलिए अपनाई जाती है ताकि भूक्षरण कम से कम हो । जब खेत में जुताई नहीं की जाती और पिछली फसल के अवशेषों को वहीं छोड़ दिया जाता है तो मिट्टी में से पानी का वाष्पन नहीं होता । इसके चलते मिट्टी में नमी बनी रहती है । मगर पानी के वाष्पन की वजह से मिट्टी का तापमान भी कम होता है । इसलिए जब वाष्पन नहीं होता तो तापमान कम नहीं होता । मगर हाल के अध्ययन से पता चलता है कि बिना जुते खेतों के आसपास का तापमान अपेक्षाकृत कम रहता है।
सेनेविरत्ने का कहना है कि बिना जुते खेतों का तापमान कम रहने का कारण यह है कि ऐसे खेत धूप को ज्यादा मात्रा में परावर्तित कर देते हैं । इसे एल्बीडो प्रभाव कहते हैं । उन्होनें पाया कि गर्मी के महीनों में बगैर जूते खेत सामान्य खेतों की अपेक्षा ५० प्रतिशत ज्यादा परावर्तक होते हैं । शोधकर्ताआें के मुताबिक होता यह है कि आम दिनोंमें धूप के कारण तापमान बढ़ता है और मिट्टी से पानी के वाष्पन की वजह से कम होता है । चूंकि जुते हुए खेतोंमें तापमान में अंतर ज्यादा नहीं होता । मगर बहुत गर्म दिनों में धूप और उसके परावर्तन का असर हावी हो जाता है और इन परिस्थितियों से बिना जुते खेत अपेक्षाकृत ठंडे बने रहते हैं ।
सेनेविरत्ने का कहना है कि बिना जुते खेतों का तापमान कम रहने का कारण यह है कि ऐसे खेत धूप को ज्यादा मात्रा में परावर्तित कर देते हैं । इसे एल्बीडो प्रभाव कहते हैं । उन्होनें पाया कि गर्मी के महीनों में बगैर जूते खेत सामान्य खेतों की अपेक्षा ५० प्रतिशत ज्यादा परावर्तक होते हैं । शोधकर्ताआें के मुताबिक होता यह है कि आम दिनोंमें धूप के कारण तापमान बढ़ता है और मिट्टी से पानी के वाष्पन की वजह से कम होता है । चूंकि जुते हुए खेतोंमें तापमान में अंतर ज्यादा नहीं होता । मगर बहुत गर्म दिनों में धूप और उसके परावर्तन का असर हावी हो जाता है और इन परिस्थितियों से बिना जुते खेत अपेक्षाकृत ठंडे बने रहते हैं ।
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