गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

हमारा भूमण्डल
मानव क्लोनिंग, हकीकत के बेहद करीब
संध्या रॉय चौधरी

    वैज्ञानिकों ने त्वचा की स्टेम कोशिकाआें को प्रारंभिक भ्रूणों में बदल कर मानव क्लोनिंग में एक बहुत बड़ी सफलता प्राप्त् की है । स्टेम कोशिकाएें वे कोशिकाएं होती हैं, जो विभाजित होने के बाद शरीर की किसी भी विशिष्ट कोशिका के रूप में विकसित हो सकती हैं । नई तकनीक से तैयार किए गए भू्रणों का इस्तेमाल प्रत्यारोपण ऑपरेशनों के लिए विशिष्ट मानव ऊतक विकसित करने में किया गया है ।
    क्लोनिंग तकनीक में यह सफलता डॉली नामक भेड़ के जन्म के १७ वर्ष के बाद हासिल हुई है और इससे ह्वदय रोग और पार्किंसन जैसी बीमारियों के बेहतर इलाज की उम्मीदें जागी हैं । 
     लेकिन इस सफलता से कुछ नए विवाद खड़े हो सकते हैं । कुछ लोग चिकित्सा कार्य के लिए मानव भ्रूण विकसित करने पर नैतिक सवाल उठाएंगे । सबसे बड़ा खतरा वैज्ञानिक यह मान रहे हैं कि शिशु क्लोन चाहने वाले दंपतियों के लिए इसी तकनीक से परखनली भ्रूण उत्पन्न किए जा सकते हैं । बहरहाल, नई तकनीक विकसित करने वाले वैज्ञानिकों का दावा है कि उनके शोध का मुख्य उद्देश्य मरीज की अपनी स्टेम कोशिकाआें से ऐसे विशिष्ट ऊतक उत्पन्न करने का है, जिन्हें प्रत्यारोपण के लिए इस्तेमाल किया जा सके । उनका यह भी कहना है कि इस तकनीक का प्रजनन से कोई लेना-देना नहीं है । लेकिन दूसरे वैज्ञानिकों का मानना है कि इस उपलब्धि से हम शिशु क्लोन की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ गए हैं ।
    मरीज की स्टेम कोशिकाआें से समुचित मात्रा में भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करना चिकित्सा विज्ञान के लिए एक बड़ी चुनौती थी । अमेरिका में पोर्टलैंड स्थित ओरेगन हेल्थ एंड साइंस युनिवर्सिटी के प्रमुख शोधकर्ता शोहरत मितालिपोव ने एक साक्षात्कार मेंबताया कि उन्होनें बहुत कम मात्रा में मानव अंडाणुआें से भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करने के लिए कोशिका के कल्चर में कैफीन मिलाई थी । पहले यह सोचा गया था कि ऐसा करने के लिए हजारोंमानव अंडाणुआें की जरूरत पडेगी । लेकिन मितालिपोव की टीम ने सिर्फ दो मानव अंडाणुआें से एक भ्रूण स्टेम कोशिका विकसित करने में सफलता प्राप्त् की ।
    डॉ. मितालिपोव का कहना है कि यह तरीका चिकित्सा इस्तेमाल के लिए ज्यादा कारगर और व्यावहारिक है । इस विधि से उन मरीजों के लिए स्टेम कोशिकाएं तैयार की जा सकती हैं, जिनके अंग बेकार या अशक्त हो चुके हैं । इससे उन रोगों से छुटकारा पाने में मदद मिलेगी, जो दुनिया में लाखों लोगों को प्रभावित करते हैं । शोधकर्ताआें ने अपनी नई तकनीक में आनुवंशिक रोग वाले शिशु की त्वचा कोशिकाएं निकाल कर उन्हें डोनेट किए गए मानव अंडाणुआें में प्रत्यारोपित कर दिया । इस विधि से उत्पन्न मानव भ्रूण आनुवंशिक दृष्टि से आठ महीने के भ्रूण से मिलते-जुलते थे । भ्रूण से उत्पन्न कोशिकाआें में मरीज का ही डीएनए था, लिहाजा इन्हें बेहिचक मरीज के शरीर में प्रत्यारोपित किया जा सकता था । शरीर की प्रतिरोधी प्रणाली द्वारा उन्हें ठुकराने का कोई खतरा नहीं था । प्रयोगशाला में चूहों और बंदरों जैसे जानवरों में इस तकनीक से भ्रूण स्टेम कोशिकाएं तैयार करने में सफलता मिल चुकी थी, लेकिन मनुष्यों में इसको दोहराने के प्रयास विफल रहे थे ।
    विज्ञान पत्रिका सेल में प्रकाशित शोध पत्र में वैज्ञानिकों ने अंडाणु के विकास में आने वाली समस्याआें से बचने के तरीके बताए और सिद्ध किया कि इस तकनीक से दिल, लिवर और स्नायु कोशिकाएं विकसित की जा सकती है । शोधकर्ताआें का विचार है कि पिछली क्लोनिंग तकनीकों की तुलना में नई विधि नैतिक दृष्टि से ज्यादा स्वीकार्य है क्योंकि इसमें निषेचित भू्रणों का प्रयोग नहीं किया जाता ।
    जापानी शोधकर्ताआें ने कुछ समय पहले मानव त्वचा से स्टेम सेल निकालने का तरीका विकसित किया था, लेकिन इसमें उन्होनें रसायनों का इस्तेमाल किया था । कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि इस तरीके से जीन्स में हानिकारक बदलाव हो सकते हैं । दक्षिण कोरिया की सोल नेशनल युनिवर्सिटी के वू सुक ह्ववांग के नेतृत्व में कुछ वैज्ञानिकों ने २००४ में क्लोनिंग से मानव भ्रूण उत्पन्न करने का दावा किया था । बाद में उन्होनें इन भू्रणों से भ्रूण स्टेम कोशिकाएं भी निकालने का दावा किया था । लेकिन अनैतिक आचरण और धोखाधड़ी के आरोपों के बाद उन्हें शोध के नतीजों को वापस लेना पड़ा था । इस प्रकरण से ह्ववांग की काफी बदनामी भी हुई ।
    कुछ अन्य शोधकर्ताआें ने भी क्लोनिंग से मानव भ्रूण विकसित करने का दावा किया था, लेकिन इनमें कोई भी यह साबित नहीं कर सका कि इन भ्रूणों से समुचित मात्रा में ऐसी भ्रूणीय कोशिकाएं विकसित करना संभव है, जिन्हें प्रयोगशाला में विशिष्ट ऊतकों में बदला जा सके ।
    डॉ. मितालिपोव की तकनीक की खास बात यह है कि क्लोन किए गए मानव भ्रूण १५० कोशिकाआें वाली अवस्था तक जीवित रह सकते हैं । इस अवस्था को ब्लास्टोसिस्ट कहते हैं । इस अवस्था से भ्रूण स्टेम कोशिकाएं निकाली जा सकती है, जिन्हें बाद में स्नायु कोशिकाआें, ह्दय कोशिकाआें या जिगर की कोशिकाआें के रूप में विकसित किया जा सकता है । प्रत्यारोपण के दौरान मरीज द्वारा इन्हें खारिज किए जाने की कई आशंक नहीं है क्योंकि इन कोशिकाआें को मरीज की अपनी आनुवंशिक सामग्री से ही उत्पन्न किया गया है ।
    इस क्लोनिंग तकनीक का दुरूपयोग संभव है । ह्यूमन जेनेटिक्स अलर्ट के निदेशक डेविग किंग का कहना है कि वैज्ञानिकों ने अंतत: वह रास्ता दिखा दिया है, जिसका मानव क्लोन बनाने में जुटे शोधकर्ताआें को बेसब्री से इंतजार था । उन्होंने कहा कि नए शोध को प्रकाशित करना एक गैर-जिम्मेदाराना कदम है । इस संबंध में और आगे रिसर्च शुरू होने से पहले ही हमें मानव क्लोनिंग पर अंतर्राष्ट्रीय  प्रतिबंध लगाने पर शीघ्र विचार करना चाहिए । कमेंट ऑन रिप्रोडक्शन एथिक्स की जोसेफीन क्विंटावाल ने इस शोध के औचित्य पर ही सवाल उठाया है । उन्होनें कहा कि स्टेम कोशिका विकसित करने के अविवादित तरीके पहले से उपलब्ध है । ऐसे में इस शोध की जरूरत क्या थी ।
    हमें उम्मीद करनी चाहिए कि इस शोध को प्रजनन क्लोनिंग की तरफ मोड़ने की कोशिश नहीं की जाएगी । डॉ. मितालिपोव का कहना है कि वे क्लोनिंग के जरिए बंदर शिशु उत्पन्न करने में असफल रहे हैं । अत: इस बात की संभावना बहुत कम है कि इस तकनीक का प्रयोग मनुष्य के क्लोन उत्पन्न करने के लिए किया जाएगा । ब्रिटेन की न्यू कैसल युनिवर्सिटी की प्रोफेसर मैरी हर्बर्ट का मानना है कि नई तकनीक शरीर को अशक्त बनाने वाली बीमारियों के इलाज के लिए मरीज की जरूरत के हिसाब से स्टेम कोशिकाएं तैयार करने में मदद कर सकती है । एडिनबरा विश्वविघालय के डॉ. पॉल डिसूजा का मानना है कि महिलाआें के अंडाणुआें के बारे में हमारी बेहतर समझदारी से इनफर्टिलिटी के नए इलाज खोजे जा सकते हैं ।

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