रविवार, 15 जुलाई 2012



बुधवार, 11 जुलाई 2012

प्रसंगवश 
विदेशों में भारतीय खेती फैलाता अंग्रेज
    अलबर्ट  हॉवर्ड को अंग्रेजी हुकुमत ने सन् १९०५ में भारतीय किसानों को रासायनिक खेती सिखाने भेजा था क्योंकि सन् १८४० में जर्मनी में प्रारंभ हुई रासायनिक खेती २० वीं सदी के प्रारंभ तक सारे संसार में फैल चुकी थी । केवल भारत बचा था । यहाँ आकर पूसा (बिहार) में जब उसने शासकीय अनुसंधान केन्द्र पर कदम रखा तो जिज्ञासावश वह केन्द्र के आसपास के खेत देखने लगा । उसे आश्चर्य हुआ कि मात्र गोबर गोमूत्र की खाद और बहुफसलीय खेती से बिहारी किसान इतनी ज्यादा उपज कैसे ले लेते हैं । उसने नियमित भारतीय खेती का और किसानों के रहन-सहन का अभ्यास शुरू किया । उसकी जिज्ञासा उसे पूरे देश का भ्रमण करने ले गई, उसने शासकीय अनुसंधान केन्द्र छोड़ा । वह बगैर किसी हस्तक्षेप के अपनी मर्जी से शोध और अनुसंधान करना चाहता था । उसे यह अवसर दिया इन्दौर के महाराज होल्कर ने सन् १९२४ में महाराजा ने उसे इन्दौर में ३०० एकड़ जमीन मुहैय्या करायी और उसने यहाँ इन्स्टीट्यूट ऑफ प्लांट इंण्डस्ट्री प्रारंभ की (जो आज कृषि महाविद्यालय नाम से जाना जाता है) ७ साल के शोध के बाद उसने बगैर किसी बाहरी आदान के गोबर, गोमूत्र और   फसल अवशेषों से जैविक खाद बनाने की विधि खोज निकाली जिसे इन्दौर मेथड ऑफ कम्पोस्ट मेकिंग नाम दिया गया । धीरे-धीरे पूरे संसार में इन्दौर खाद बिकने लगा । मात्र सिलोन और भारत के चाय बागानों में उन दिनों दस लाख मेट्रिक टन इन्दौर का खाद बिकता था ।
    सन् १९३४ में अलबर्ट हॉवर्ड वापिस इंग्लैण्ड लौट गए  । सन् ४० में उनकी मृत्यु हुई । उनकी पत्नी ने सन् १९४८ में भारतीय खेती पर सर अलबर्ट हॉवर्ड की लिखी पुस्तक एन एग्रीकल्चरल टेस्टामेन्ट प्रकाशित की जो सन् १९५६ के बाद लुप्त् हो      गई । गोवा के द अदर इंडिया प्रेस के सौजन्य से वह पुस्तक सन् १९९६ में पुन: मुद्रित  हुई । उसका मराठी और हिन्दी में अनुवाद भी हो चुका है । हिन्दी में यह पुस्तक एक खेती का वसीयतनामा नाम से उपलब्ध है, जिसका मूल्य रूपये १००/- है।
    अन्य सुरक्षा की वैश्विक चिंता के मद्देनजर जहाँ जी.एम.  फसलों जैसी खतरनाक खेती भारत पर लादी जा रही है वहाँ हमें हमारी खेती वैज्ञानिक ढंग से समझना अब जरूरी हो गया है । उसके लिए सर अलबर्ट हॉवर्ड हमारे मार्गदर्शक बन सकते हैं ।       अरूण डिके, इन्दौर (म.प्र.)
   
   


   

   


समाज, नदी और सरकार

               संपादकीय जीवन के लिये जल जरूरी है । जल संरक्षण सरकार और समाज का साझा दायित्व है । आज नदियों को जोड़ने के स्थान पर समाज नदी से जुड़े, इसकी आवश्यकता है ।
    समाज के नदी से अलगाव के कारण आज नदी और समाज के अस्तित्व पर संकट के बादल घने होते जा रहे है । नदी के प्रति समाज की लगातार उपेक्षा ने दोनों को रोगी बना दिया है । जिस प्रकार मनुष्य का शरीर बाहरी दवाईयों से नहीं अपितु अदरूनी शक्ति के विकास से स्वस्थ एवं दीर्घायु होता है, उसी प्रकार किसी सूखती नदी में दूसरी नदी का जल डाल देने से नदी सजल नहीं होती, नदी में जल प्रवाहमान तभी होता है जब नदी की निजी जल क्षमता का विकास होगा । स्वयं नदी अपनी जलग्रहण शक्ति से सदानीरा बनकर स्वस्थ एवं दीर्घायु होती है । यह कोई असंभव काम नहीं है, समाज इस दिशा में एक बार संकल्पित हो जाये तो फिर परिणाम आने में ज्यादा देर नहीं    लगेगी । पिछले वर्षो में राजस्थान में तरूण भारत संघ के नेतृत्व में समाज के सहयोग से मृतप्राय ६ नदियां सजीव हो चुकी है ।
    हर साल बरसात में जो पानी हमें मिलता है, उसे सहेजना और किफायती तरीके से उपयोग करना हमारे विवेक और तकनीकी दक्षता पर निर्भर करता है । हमारी वन विनाशकारी एवं पर्यावरण विरोधी विकास प्रक्रिया भी जल संरक्षण के प्रयासों की सफलता में बड़ा अवरोध है । हमें विकास की हमारी अवधारणा और जीवन शैली में पर्यावरण सम्मत परिवर्तन लाना होंगे । इस प्रकार व्यक्तिगत, सामाजिक और सरकारी प्रयासों की सफलता से न केवलजल अपितु जंगल, जमीन और जीवधारी सभी दीर्घ जीवन प्राप्त् कर सकेंगे ।
    हम समाज और सरकार के सकारात्मक प्रयास से ही हमारी नदियों को सदानीरा बनाकर समृद्धि के नये आयाम स्थापित करेंगे ।
सामयिक
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की खिंचाई
                                  कुमार संभव श्रीवास्तव

    संसद की लोक लेखा समिति द्वारा वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में व्याप्त् अनिमितताआें, लेट लतीफी, भ्रष्टाचार एवं लापरवाही को उजागर किए जाने के बाद जो तस्वीर उभरी है वह चौका देने वाली   है । देश की बहुमुल्य विरासत के प्रति बरती गई लापरवाही अक्षम्य है और दोषियों पर कड़ी कार्यवाई की अपेक्षा की जाती है । देखना है कि हमारी संसद और पर्यावरणविद् इसका अब क्या हल निकालते हैं ।
      संसद की लोक लेखा समिति ने लोकसभा के पटल पर रखी अपनी रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा है कि संघीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय देश के पर्यावरण को प्रभावशाली ढंग से संरक्षित कर पाने में असफल रहा है । इस रिपोर्ट में वनीकरण, जैव विविधता संरक्षण, प्रदूषण  नियंत्रण एवं पर्यावरण एवं  वन मंत्रालय के अंतर्गत पर्यावरणीय शिक्षा से संबद्ध पर्यावरणीय कार्यक्रमों के  क्रियान्वयन एवं संस्थानों की कार्यप्रणाली में गंभीर कमियों को दर्शाया गया है । समिति की रिपोर्ट वर्ष २००८-०९ में विभाग के कार्योंा का महालेखाकार द्वारा किए गए अंकेक्षण की उस रिपोर्ट पर आधारित है, जिसे नवम्बर २०१० में लोकसभा के पटल पर रखा गया था । भारतीय जनता पार्टी के मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली  इस समिति ने इस रिपोर्ट की विवेचना एवं मंत्रालय से प्राप्त् मौखिक जानकारी एवं दस्तावेजों के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की है । इसमें पर्यावरण संरक्षण हेतु मंत्रालय से तुरंत प्रभावशाली हस्तक्षेप करने को कहा गया है ।
    लोक लेखा समिति की रिपोर्ट के अनुसार मंत्रालय की विभिन्न योजनाआें के अंतर्गत परियोजनाआें की पूर्णता की दर बहुत ही कमजोर है । इतना ही नहीं इस बात की भी कम संभावना नजर आती है कि जारी किया गया धन का उपयोग उन्हीं कार्योंा के लिए किया गया हो जिसके लिए कि स्वीकृति दी गई थी । रिपोर्ट में इस ओर इंगित करते हुए बताया गया है कि वर्ष २००३ से २००८ के  मध्य मंत्रालय ने राष्ट्रीय वनीकरण एवं पर्यावरण विकास बोर्ड द्वारा ५९.४८ करोड़ लागत की ६४७ वनीकरण परियोजनाआें की स्वीकृति दी गई थी । इनमें से केवल २० परियोजनाएं पूरी हुई एवं इस मद से जारी कुल ४७.०३ करोड़ रूपए में से केवल ५.६५ प्रतिशत ही इन पूर्ण इुई परियोजनाआें पर खर्च किया गया । बाकी मामलों में जिन स्वैच्छिक संस्थाआें को इन परियोजनाआें का क्रियान्वयन करना था वे पहली ओर दूसरी किश्तें मिलने के बाद गायब हो गई ।
    वनीकरण के बहाने - मंत्रालय द्वारा गबन करने वाली सात संस्थाआें को काली सूची में डाला गया और पुलिस में एफआईआर दर्ज की गई वही दूसरी ओर केवल एक दोषी अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही हुई । रिपोर्ट में कहा गया है समिति को यह देख कर धक्का पहुंचा है कि वनीकरण के नाम पर सार्वजनिक धन   की लूट हुई और सरकार ने इन गबनकर्ताआें के खिलाफ मामला दर्ज करने हेतु बहुत ही कम ठोस प्रयास किए हैं । वर्ष २००१ में योजना आयोग ने वर्ष २०१२ तक वन/वृक्ष आच्छादन के लक्ष्य को बढ़ाकर ३३ प्रतिशत कर दिया था । जबकि  नवीनतम वन सर्वेक्षण बताता है कि वन आच्छादन मात्र २१ प्रतिशत ही   है ।
    समिति की रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि वनीकरण के राष्ट्रीय कार्यक्रम को महज स्वैच्छिक या गैर सरकारी संगठनोें के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है । यदि चाहे गए लक्ष्य की पूर्ति करना है तो संघीय सरकार के साथ ही साथ राज्य सरकारों के सभी विभागों एवं संस्थाआें और पंचायती राज संस्थानों को प्रभावशाली ढंग से इसमें शामिल करना होगा । समिति ने प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के संबंध में अनुशंसा करते हुए कहा है कि इस हेतु ऐसे तीसरे पक्ष को निगरानी का कार्य सौंपा जाना चाहिए जो कि सेटेलाइट के माध्यम से वनीकरण का सत्यापन कर पाने में सक्षम हो ।
    जैव विविधता -  जैव विविधता के संरक्षण वाले मोर्चे पर भी वन एवं पर्यावरण मंत्रालय असफल सिद्ध हुआ है । ४५५०० वनस्पति प्रजातियों एवं ९१००० जैव प्रजातियों की उपस्थिति भारत को विश्व के १७ व्यापक जैव विविधता वाले क्षेत्रों में शामिल करती है । ऐसी अपेक्षा थी कि राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण स्थानीय जैव संसाधनों की उपलब्धता एवं इससे संबंधित ज्ञान की परिपूर्ण जानकारी एकत्रित करने हेतु नागरिकों से सलाह मशविरा कर अपनी आंचलिक जैव विविधता प्रबंधन समितियों के माध्यम से जन जैव विविधता रजिस्टर तैयार करेगा । रिपोर्ट में कहा गया है कि गत अक्टूबर तक जहां इस प्रकार के १४००० रजिस्टर तैयार करने थे, इसके मुकाबलेे में महज १,१२१ रजिस्टरों का दस्तावेजीकरण हो पाया है । भूमंडलीकरण युग के प्रारंभ होने के १५ वर्षोंा में गुम या लूट ली गई  जैव विविधता के बारे में समिति के सवालों पर मंत्रालय के एक प्रतिनिधि ने बताया कि भारतीय वानस्पतिक सर्वेक्षण (बीसीआई) केवल ४६००० वनस्पतीय प्रजातियों एवं ८१००० जीव जंतु प्रजातियों की ही पहचान कर पाया है, जबकि भारत में यह लाखों की संख्या में पाई जाती हैं । इस तरह यह कुल संख्या के आस-पास भी नहींपहुंचा है ।
    रिपोर्ट में समिति के सदस्यों ने बेईमान विदेशी वैज्ञानिकों, वनस्पति विज्ञानियों और व्यापारियों द्वारा बहुमुल्य विविधता भरी जैव विविधता प्रजातियों के दुरूपयोग (ले जाने) पर दु:ख प्रकट करते हुए कहा है कि इससे जहां भारतीय जैव विविधता को न केवल गणनातीत नुकसान पहुंचा है बल्कि राष्ट्रीय खजाने को भी अपरिमित हानि हुई है । रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि राष्ट्रीय जैव विविधता बोर्ड की कार्यप्रणाली को देखकर दुख होता है क्योंकि यह अपने गठन के छ: वर्ष पश्चात भी कई महत्वपूर्ण विषयों जैसे जैव विविधता तक पहुंच, शोध परिणामों का हस्तान्तरण और बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के संबंध में यिमन बनाने एवं पर्याप्त् संख्या में वर्गीकरण करने वाले को भर्ती करने या उन्हें संविदा पर रखने एवं एक नियमित कानूनी सेल (एकांश) बनाने में असफंल रहा है ।
    लोक लेखा समिति ने यह भी पाया कि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को भारत से बाहर ले जाए गए अनेक वानस्पतिक संसाधनों को लेकर दिए गए बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के संबंध में भी कोई जानकारी नहीं है । इसने अनुशंसा की है कि एनबीए इस पर निगाह रखने के लिए तुरन्त एक निगरानी सेल स्थापित करे और इसकी मदद के लिए एक कानूनी सेल भी स्थापित करे । समिति का यह भी कहना है कि भारतीय वानस्पतिक सर्वेक्षण भी वानस्पतिक प्रजातियों के दस्तावेजी-करण एवं निगरानी प्रक्रिया में अपर्याप्त्ता की वजह से जैव विविधता सम्मेलन के प्रावधानों के उद्देश्यों को पूरा कर पाने में असमर्थ रहा है । इतना हीं नहीं वर्ष १९९० के बाद बीएसआई ने विभिन्न वनस्पति प्रजातियों को लेकर विभिन्न जातीय समूहों जो कि अनेक कारणों से इनका प्रयोग करते हैं एवं इनसे जुडाव संबंधी कोई सर्वेक्षण नहीं किया है । समिति ने यह भी पाया कि वर्ष २००२ से २००९ के मध्य २१ राष्ट्रीय पार्क, चार जैव रिजर्व एवं २७ वन्य जीव अभ्यारण्यों का पहली बार लोक लेखा समिति द्वारा या तो पूर्ण या आंशिक अध्ययन किया गया । वर्ष २००९ तक ६४ प्रतिशत राष्ट्रीय पार्क, ५४ प्रतिशत जैव विविधता रिजर्व एवं ९४ प्रतिशत वन्यजीव अभ्यारण्यों का अध्ययन होना शेष है ।
    इसी प्रकार वर्ष २००९ तक देश में मौजूद कुल १५३९७ पवित्र उपवनों में से ३ पवित्र उपवनों का अध्ययन किया गया था । इस पर अपना मत देते हुए मंत्रालय ने बताया कि जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है पवित्र उपवनों को पवित्र इसलिए माना जाता है क्योंकि उनसे जुड़े  व्यक्तियों के धार्मिक विश्वास उन्हें पर लौकिक शक्तियों से जुड़ते हैं, अधिकांश मामलों में इस तरह के उपवनों का संरक्षण स्वयं लोग ही करते हैं । अतएव प्राथमिकता के लिहाज से ये उपवन संरक्षित क्षेत्रों, जैव विविधता प्रमुख स्थलों और नाजुक इकोसिस्टम से कम महत्व रखते हैं जिन्हें बाहरी तत्वों से जबरदस्त खतरा है । समिति का कहना है कि बीएसआई गंभीर वित्तीय एवं अधोसरंचनात्मक संकट एवं कर्मचारियों की कमी से जूझ रहा है और समिति ने इस मृतप्राय संस्थान को वित्तीय पोषण उपलब्ध करवाकर इसमें प्राण फूंकने को कहा है ।
    लोक लेख समिति ने केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के ३० करोड़ रूपए के ईको सिटी कार्यक्रम मेंभी चौका देने वाली अनियमितताएं पाई हैं । इस कार्यक्रम का क्रियान्वयन १०वीं पंचवर्षीय योजना (२००२-२००७) के मध्य ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व के बारह शहरों के पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए किया गया था । समिति ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि इस परियोजना के लिए धन जारी करना न केवल तयशुदा वित्तीय प्रक्रिया का उल्लघंन था बल्कि असंतोषजनक क्रियान्वयन की सूचना मिलने के बावजूद धन जारी कर दिया   गया । समिति ने रिपोर्ट में कहा है अतएव समिति सरकार से अनुरोध करती है कि लापरवाही के कारणों का पता लगाया जाए। अंत में केवल इतना ही वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से बार-बार अनुरोध किए जाने के बावजूद उन्होनें इस विषय पर किसी भी तरह की टिप्पणी नहीं की ।
हमारा भूमण्डल
कयामत से पहले जागना होगा
                                             के. जयलक्ष्मी

    यदि आंकड़ों पर भरोसा किया जाए तो एक और वैज्ञानिक अध्ययन ने साबित कर दिया है कि जलवायु परिवर्तन एक कड़वी सच्चई है और धरती पर खतरा मंडरा रहा है ।
    जलवायु परिवर्तन को नकारने वाले लोगों की बढ़ती संख्या के बीच बर्कले अर्थ सर्फेस टेम्परेचर प्रोजेक्ट ग्रुप को सच्चई का पता लगाने का जिम्मा सौंपा गया था । इसके लिए ग्रुप को एक लाख डॉलर दिए गए थे । अमरीका में जलवायु परिवर्तन को नकारने वाले लागों को इस फंडिंग के लिए मनाना ही एक  भारी काम था ।
    अध्ययन  के  नतीजे बताते हैं कि जलवायु  परिवर्तन का ग्राफ लगभग वैसा ही है  जैसा विश्व के तीन बेहद अहम और स्थापित समूहों एनओएए, नासा और मेट ऑफिस एंड क्लाइमेट रिसर्च यूनिट ने प्रस्तुत किया है । हालांकि शंकालु लोगों ने इनके कार्योंा को भी अविश्वसनीय    और नाकारा करार दिया था ।
    धरती तप रही है, यह साबित करने के लिए प्रोजेक्ट ने १८वीं सदी से लेकर अब तक के तापमान के एक अरब से भी अधिक आंकड़ों का परीक्षण किया । ये आंकड़े दुनिया भर में १५ अलग-अलग स्त्रोतों से हासिल किए गए थे । पाया गया कि १९५०  के बाद से धरती के औसत तापमान में करीब एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ातरी हुई है । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि २०वीं सदी में तापमान में औसत बढ़ोतरी जहां ०.७३ डिग्री सेल्सियस थी, वहीं १९६० से २००० के बीच २.७६ डिग्री सेल्सियस और १९९८ से २०१० के बीच २.८४ डिग्री सेल्सियस रही ।
    ग्रुप ने मीन-मेख निकालने वाले ब्लॉगरों के उस दावे की भी पड़ताल की कि जलवायु स्टेशनों के तापमान सम्बन्धी आंकड़े वैश्विक तापमान के सही टें्रड को प्रदर्शित नहीं करते । दावा यह था कि इन स्टेशनों पर अधिक तापमान रिकॉर्ड होता है, क्योंकि वे शहरों में या उनके निकट होते हैं । ये शहर लगातार बढ़ते जा रहे हैं और शहरी ऊष्मा टापू प्रभाव में अपना योगदान दे रहे हैं । उनका मानना है कि शहरी ऊष्मा टापू प्रभाव तो एक सच्चई है, लेकिन समग्र तापमान के टें्रड पर उसका असर काफी नगण्य ही पड़ता है ।
    लगभग ९७ फीसदी जलवायु वैज्ञानिक मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और  इसकी मुख्य वजह मानवीय गतिविधियां ही हैं । लेकिन इस बात में संदेह ही है कि यह नया अध्ययन भी इससे आंख चुराने वालों को बदल  सकेगा।अगर कोई चीज साफ दृष्टिगोचर नहीं है और उसे सीधे मापना संभव नहीं है, तो वहां निश्चित तौर पर दो मत होंगे और दोनों ही अपने-अपने तर्कोंा पर अडिग रहेंगे । जैसा कि नासा के जेम्स हैन्सेन कहते हैं, आंखें चुराने वाले लोग वैज्ञानिक जैसा नहीं, बल्कि वकील जैसा बर्ताव करते हैं । जैसे ही वे अपने मुवक्किल जीवाश्म इंर्धन उद्योग के खिलाफ कोई सबूत देखते हैं, वे उसे नकार देते हैं और वह सब कुछ प्रस्तुत करने की कोशिश करते जिससे कि जजों और जूरी को भ्रमित किया जा सके ।
    यदि हम मानते हें कि जलवायु परिवर्तन के मूल में मानव है, तो हमें एक और चुनौती से निपटना होगा। यह चुनौती है बढ़ती आबादी ।     हम सात अरब की आबादी को पार कर चुके हैं । हम असंख्य जीवों के लिए खतरा बन गए हैं । वर्ष १९९९ में हम छह अरब हुए थे । इस तरह छह से सात अरब होने में हमें महज १२ साल      लगे । इससे १२ साल पहले १९८७ में हमारी आबादी पांच अरब हुई थी । और साफ शब्दों में कहें तो पिछले पांच दशकों में ही हमारी आबादी में चार अरब की बढ़ोतरी हो चुकी है । अगले १२ सालों में हमारी आबादी के आठ अरब  तक पहुंचने का अनुमान है । वर्ष २०५० तक ९.३ अरब और २१०० तक आबादी १०.१ अरब हो जाएगी ।
    वर्ष २१०० तक धरती पर ताजे पानी की मात्रा में १० फीसदी तक की कमी हो सकती है । यही स्थिति खेती की भी हो सकती है, जो बर्फ रहित धरती के करीब ४० फीसदी हिस्से में आती है । अगर यही हालात बने रहते हैं या उनमें गिरावट आती है तो उसका मतलब है कि भोजन की आवश्यकता के लिए जंगलों का सफाया करना होगा ताकि अधिक से अधिक खेती की जा सके । इसका नतीजा कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के रूप में सामने आएगा । साथ ही अन्य कई समस्यांए भी पैदा होंगी, जैसे मिट्टी  का कटाव, नदियों का सूखना इत्यादि ।
    प्रख्यात अर्थशास्त्री जेफ्री सेचेस का कहना है कि सात अरब लोगों का पेट भरने के लिए हमें बहुत अधिक  उर्वरकों की जरूरत है, ताकि कृषि का उत्पादन बढ़ाया जा सके । इस वजह से दुनिया के जल भंडार पहले से ही खतरे में हैं जिसके परिणाम नजर आने भी लगे हैं । सौ से भी अधिक नदियों के मुहाने सूखते जा रहे हैं, ऊर्जा की बहुत अधिक खपत और वनों के विनाश के कारण कार्बन की मात्रा भी बढ़ती जा रही है ।
    सवाल यह है कि जमीन तो सीमित है । तो ऐसे में २०५० में हम नौ अरब लागों का पेट कैसे भर सकेंगे । कनाडा, अमरीका, स्वीडन और जर्मनी के शोधकर्ताआें की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने दुनिया भर में होने वाली फसलों के आंकड़ों और उपग्रह तस्वीरों का संयोजन करके कृषि प्रणालियों व पर्यावरणीय प्रभावों के ग्लोबल मॉडल्स का इस्तेमाल यह योजना बनाने में किया है कि पर्यावरण पर विपरीत असर पड़े बिना खाद्य उत्पादन को किस तरह से दुगना किया जा सकता है ।  इन शोधकर्ताआें के अध्ययन पर कार्य करने पर मैकगिल युनिवर्सिटी में भूगोल के प्रोफेसर नवीन रामनकुट्टी ने नेचर पत्रिका में इस पांच सूत्रीय योजना की बात करते हुए इसे कुछ-कुछ नाटकीय करार दिया है, लेकिन टीम का दावा है कि इस लक्ष्य को पाना संभव है ।
    टीम ने जो उपाय सुझाए हैं, उनमें शामिल हैं - कृषि के लिए जंगलों को साफ करने की प्रवृत्ति पर विराम लगाना, विकासशील देशों में कृषि की उत्पादकता में ६० फीसदी तक की बढ़ोतरी करके उसे विकसित देशों के समकक्ष लाना, उर्वरकों और अन्य कृषि रसायनों का आवश्यकतानुसार ही किफायत से इस्तेमाल करना, वनस्पति आधारित भोजन को बढ़ावा देना और पशु आहार या बायोफ्यूल के लिए अन्य अनाज का कम से कम उपयोग करना । साथ ही अनाज की बर्बादी को रोकना, अनाज के कुल उत्पादन का एक तिहाई हिस्सा यूं ही बर्बाद हो जाता है ।
    यह कवायद हमारे बचे-खुचे उष्णकटिबंधी वनों अथवा ऊपरी मृदा को नुकसान पहुंचाए बगैर दुनिया के एक बड़े हिस्से का पेट भरने का गणितीय समाधान सुझाती है । लेकिन कृषि में सुधार की राह में राजनीतिक और सामाजिक कारण सामने आएंगे । जंगलों को साफ करके खेती के लिए नई जमीन हासिल करने अथवा जीवाश्म ईधन के इस्तेमाल वाले उपकरणों पर निर्भरता कम करने वाली प्रणाली की तरफ बढ़ने के लिए एक दृष्टि तथा अभूतपूर्व वैश्विक प्रयासों की जरूरत होगी ।
    जलवायु परिवर्तन का सबसे पहला शिकार गरीब होगे । ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रायोजित एक रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन की वजह से संभावित मानवीय विपदा को लेकर आगाह करती है  । रिपोर्ट चिंता जताती  है  कि  जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले पर्यावरणीय विनाश से लाखों तथाकथित जलवायु शरणार्थी अपनी बंजर जमीनों को छोड़कर उन देशों में पलायन करेंगे जहां कम नुकसान होगा ।
    रिपोर्ट कहती है कि अभी से सक्रिय होना आर्थिक दृष्टि से भी लाभदायक होगा । स्थिति में सुधार करने के लिए हमें आज जो खर्च करना होगा, वह जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले संघर्षोऔर जीवन की क्षति की तुलना में बहुत कम रहेगा । पलायन और वैश्विक पर्यावरणीय परिवर्तन संबंधी दूरगामी रिपोर्ट मानव पलायन के पैटर्न के मुद्दे पर केंद्रित है । अगले ५० सालों में बाढ़, सूखा और समुद्र सतह के स्तर में बढ़ोतरी का मानव पलायन के पैटर्न पर क्या असर पड़ेगा, इस संबंध में इसमें विस्तृत अध्ययन किया गया है । यह रिपोर्ट कहती है कि तीन-चौथाई पलायन देशों के भीतर ही होगा । खासकर, लोग ग्रामीण से शहरी इलाकों में जाएंगे । इससे सबसे बड़ा मुद्दा यह खड़ा होता है कि आबादी के इतने व्यापक दबाव में इन शहरों का प्रबंधन कैसे होगा । कोलंबिया में जनसंख्या के प्रोफेसर जोएल कोहेन कहते हैं कि जनसंख्या विस्फोट को संभालने के लिए हमेंअगले ४० सालों के दौरान हर पांच दिन में ऐसे एक-एक शहर का विकास करना होगा, जहां दस-दस लाख लोग रह सकें ।
    समस्या की जड़ या उसका समाधान हमारे अस्त-व्यस्त व्यवहार और प्रेरणाआें में समाहित है । लंदन स्थित युनिवर्सिटी कॉलेज में एक वरिष्ठ रिसर्च एसोसिएट जॉन बर्ड ने हाल ही में दक्षिण लंदन के तटीय शहर में ऐसे १७ परिवारों का समूह बनाया जो अपने घरों में बिजली के इस्तेमाल का रोजाना रिकॉर्ड रखने को तैयार हो गए । उनकी प्रगति को साफ-साफ चित्रित किया जा सके, इस उद्देश्य से उन्होनें पड़ोस के गोल्डस्मिथ कॉलेज के कुछ कलाकारों को सड़क पर विशालकाय ग्राफ बनाने के लिए भी राजी किया ।
    शुरू में सब कुछ योजनानुसार हुआ । तीन सप्तह में नागरिकों ने अपने बिजली के बिल में १५ फीसदी तक की कटौती कर दी । लोग उनके प्रयासों की सराहना कर रहे थे । जो लोग प्रयास नहीं कर रहे थे, उनकी खिंचाई भी की जा रही थी । अगले तीन सप्तह के दौरान कुछ घर इससे अलग हो गए । लेकिन अब भी ८०फीसदी परिवार इसे जारी रखे हुए थे । मगर छह सप्तह के भीतर उनकी संख्या घटकर ५० फीसदी रह गई । छह माह के बाद केवल तीन परिवार ही अपने मीटर की जांच रोजना कर रहे थे । इनमें से भी दो ही बिजली की खपत को कम रखने में सफल रहे ।
    लोगों के पास अगर आंकड़े हो तो उनके बर्ताव में बदलाव तो होता है । अगर साथ ही कुछ प्रेरणा मिल जाए तो बदलाव सकारात्मक भी होता है । लेकिन यह बदलाव लंबे समय तक नहींचलता । कहते भी हैं, पुरानी आदतें मुश्किल से ही जाती हैं । सच तो यह है कि हम इन्सान तब तक बदलाव को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते हैं, जब तक कि समस्या हमारे सिर पर खड़ी नहीं हो जाती ।      और फिर हम कहते हैं, यह तो होना ही था ।
वन महोत्सव पर विशेष
हमारे धर्मग्रंथों में वृक्ष महिमा
                                  डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

    भारतीय संस्कृति वृक्ष-पूजक संस्कृति है । वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उसकी पूजा की परम्परा हमारे देश में प्राचीन काल से रही है । वृक्षों की पूजा प्रकृति के प्रति आदर प्रकट करने का सरल माध्यम है, वृक्षों के प्रति केसा प्रेम शायद ही किसी देश की संस्कृति में हो जहां वृक्ष को मनुष्य से भी ऊंचा स्थान दिया गया है ।
    वैदिक काल में प्रकृति के आराधक भारतीय ऋषि भी अपने अनुष्ठानों में वनस्पति पूजा को विशेष महत्व देते थे । वेदों और आरण्यक ग्रथों में प्रकृति की महिमा का सर्वाधिक गुणगान है । इस काल में वृक्षों को लोक देवता की मान्यता दी गयी थी । वृक्षों में देवत्व की अवधारणा का उल्लेख वेदों के अतिरिक्त प्रमुख रूप से मत्स्यपुराण,अग्निपुराण, भविष्यपुराण, नारदपुराण, रामायण, भगवदगीता और शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रंथों में मिलता है । मोटे रूप में देखे तो वेद, पुराण, संस्कृत और सूफी साहित्य, आगम, पंचतंत्र, जातक कथायें, कुरान, बाइबिल, गुरूग्रंथ साहब हो या अन्य कोई धार्मिक ग्रंथ हो सभी में वृक्षों में लोक मंगलकारी स्वरूप का परिचय मिलता है ।
    दुनिया में सभी प्राचीन सभ्यताआें का आधार मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और आदर का रिश्ता है । इसी कारण पेड़, पहाड़, नदी और मनुष्येत्तर प्राणियों की पूजा की परम्परा का प्रचलन हुआ । मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्ति पूजा के साथ ही पेड़-पौधों एवं जीव जन्तुआें की पूजा की परम्परा भी थी । भारतीय प्राचीन साहित्यिक ग्रंथों में चित्रकला, वास्तुकला और वृक्ष पूजा के अनेक प्रसंग मिलते है । अंजता के गुफा, चित्रों और सांची के तोरण स्तंभों की विभिन्न आकृतियों में वृक्ष-पूजा के अनेक प्रसंग मिलते है । अंजता के गुफा चित्रों और सांची में तोरण स्ंतभों की विभिन्न आकृतियों में वृक्ष-पूजा के दृश्य है । जैन और बौद्ध साहित्य में वृक्ष-पूजा का विशेष स्थान रहा है ।
    हमारे सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद में प्रकृतिकी परमात्मा स्वरूप में स्तुति है । इसके बाद वाल्मिकी रामायण, महाभारत, मनुस्मृति और नारद संहिता में वृक्ष-पूजा की विविध विधियों का विस्तार से वर्णन है । सभी धार्मिक आयोजनों एवं पूजा पाठ में पंच पल्लव (पीपल, गुलर, पलाश, आम और वट वृक्ष के पत्ते)की उपस्थिति अनिवार्य होती है । हमारे प्राचीन साहित्य में जिन पवित्र और अलौकिक वृक्षों का उल्लेख है उनमें कल्पवृक्ष प्रमुख है । कल्पवृक्ष को देवताआें का वृक्ष कहा जाता है । पौराणिक ग्रंथ स्कंदपुराण में पांच पवित्र छायादार वृक्षों (पीपल, बेल, बरगद, आंवला व अशोक) के समुह को पंचवटी कहा गया है ।
    हमारे सभी धर्मग्रंथ पेड़ पौधों के प्रति प्रेम और आदर का पाठ पढ़ाते है । भगवान बुद्ध के जीवन की सभी घटनायें वृक्षों की छाया में घटी थी । आपका बचपन साकवन में बीता, इसके बाद प्रथम समाधि जामुन वृक्ष की छाया में, बोधि प्रािप्त् पीपल की छाया में और निर्वाण साल वृक्ष की छाया में हुआ । भगवान बुद्ध ने भ्रमणकाल में अनेकों वनों/बागों में प्रवास किया था इनमें वैशाली की आम्रपाली का ताम्रवन, पिपिला का सखादेव आम्रवन और नालंदा में पुखारीन आम्रवन के नाम उल्लेखनीय है । जैन धर्म में जैन शब्द जिन से बना है, इसका अर्थ है समस्त मानवीय वासनाआें पर विजय प्राप्त् करने वाला । तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है नदी पार करने का स्थान अर्थात घाट । धर्म रूपी तीर्थ का जो प्रवर्तन करते है वे तीर्थंकर कहलाते है । तपस्या के पश्चात सभी तीर्थंकरों को कैवल्य ज्ञान (विशुद्ध ज्ञान) की प्रािप्त् किसी न किसी वृक्ष की छाया में हुई थी, इन वृक्षों को कैवलीवृक्ष कहा जाता है ।  
    सिख धर्म में वृक्षों का अत्याधिक महत्व है, देशभर में ४८ गुरूद्वारों का नाम वृक्ष पर है । वृक्ष को देवता और धर्मस्थल के पास स्थित वृक्ष समूह को गुरू के बाग  कहा जाता है । इनमें गुरू से जुड़े कुछ प्रमुख वृक्ष है - नानकममता का पीपल वृक्ष, रीढा साहब का रीढा वृक्ष, टाली साख का शीशम, और बेर साहब का बेर का वृक्ष प्रमुख   है । इसके साथ ही कुछ अन्य पूजनीय वृक्षों में दुख भंजनी बेरी, बाबा की बेरी और मेहताब सिंह की बेरी प्रमुख है ।
    पृथ्वी पर पाये जाने वाले जिन पेड़-पौधों का नाम कुरान-मजीद में आया है, उन पेड़ों को मुस्लिम धर्मांवलंबी पूजनीय मानते है। इन पवित्र पेड़ों में खजूर, बेरी, पीलू, मेहंदी, जैतून, अनार, अंजीर, बबूल, अंगूर और तुलसी प्रमुख है । इनमें से कुछ पेडों के बारे में मोहम्मद साहब (रहमतुल्लाह अलैहे) ने वर्णन किया है, इस कारण इन पेड-पौधों का महत्व और भी बढ़ जाता है ।
    भारतीय संस्कृति की परम्परा वृक्षों के साथ सह-जीवन की रही है । पेड़ संस्कृति के वाहक है । प्रकृति और संस्कृति के साहचर्य से ही सभ्यता दीर्घजीवी होती है । इसलिए जंभोजी महाराज की सीख में कहा गया है सिर सारे रूख रहे तो सस्ते जाण, इसी क्रम में धराड़ी और ओरण जैसी परम्पराआें ने जातीय चेतना को प्रकृति चेतना से आत्मसात कर वृक्ष पूजा और वृक्षा रक्षा से जीवन में सुख-समृद्धि और आनंद की कामना की है । आज      इसी भावना को विस्तारित कर हम मानवता के भविष्य को सुरक्षित रख सकते है ।
शिक्षा जगत
वेनेजुएला : शिक्षा में संगीत की भागीदारी
                                                     सुनील

    दक्षिण अमेरिकी देश वेनेजुएला ने क्यूबा से शिक्षा का पाठ पढ़कर उसे अपनी परिस्थितियों के हिसाब से    ढाला । अन्य विशेषताआें के साथ संगीत को विशिष्ट या एक वर्ग के विद्यर्थियों के लिए आरक्षित करने के बजाए यह मानना कि भाषा की तरह संगीत भी सीख सकते हैं और यह सभी को उपलब्ध होना चहिए, वास्तव में एक क्रांतिकारी अवधारणा है । एक गाता- बजाता समाज वास्तव में कितना खुशहाल होता है यह हमें हमारा आदिवासी समाज शताब्दियों से बताता आ रहा है । लेकिन हम तो  एक रूखे सामाजिक वातावरण के आदी होते जा रहे है ।
    दक्षिण अमरीका के देश वेनेजुएला पर सबकी नजर है । इसके राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज ने दक्षिण अमरीका   के महाद्वीप मेंअमरीकी प्रभुत्व को खुली चुनौती दी है । उन्होंने नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का खुलकर विरोध किया है । अपने देश के अंदर भी वे एक नए प्रकार के समाजवाद का प्रयोग कर रहे है, जिसे वे इक्कीसवीं सदी का समाजवाद कहते हैं ।
    वेनेजुएला का समाजवाद का यह प्रयोग इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि शावेज किसी हिंसक क्रांति या विद्रोह से सत्ता में नहीं आए, बल्कि लोकतांत्रिक तरीके सेचुनाव लड़कर राष्ट्रपति बने  है । शावेज १९९८ में पहली बार चुनकर आए थे । परिवर्तन का यह लोकतांत्रिक रास्ता वेनेजुएला के समाजवाद की ताकत भी है और उसकी सीमा भी है ।
    वेनेजुएला मेंपेट्रोल का काफी भंडार है । पेट्रोल व्यवसाय को पुरी तरह अपने नियंत्रण में लेकर शावेज ने उसकी आय का भरपूर उपयोग देश की साधारण जनता को शिक्षा, इलाज, भोजन, आवास और रोजगार उपलब्ध कराने में किया है । कुछ अन्य उद्योगों (बिजली, संचार, बैंक, तेल आधारित उद्योग) का राष्ट्रीयकरण भी शावेज ने किया है । किन्तु निजी संपत्ति का खतम नहीं किया है । इसलिए वेनेजुएला के अमीर लोग अभी भी ताकतवर बने हुए है और शावेज के सुधारों का जमकर विरोध करते हैं । उन्हेंे संयुक्त राज्य अमेरिका का भी परोक्ष समर्थन मिलता है ।
    शावेज के पहले वेनेजुएला में काफी निरक्षरता और अशिक्षा थी । केवल ५० फीसदी बच्च्े ही कक्षा ६ में पहुंच पाते थे, ३० फीसदी कक्षा ९ में और १५ फीसदी से भी कम कक्षा ११ में पहुंच पाते थे । नए संविधान की धारा १०२ में कहा गया है, शिक्षा एक बुनियादी मानव अधिकार और सामाजिक दायित्व है जो मुफ्त, अनिवार्य और लोकतांत्रिक हो । धारा १०३ कहती है कि हर व्यक्ति को समान दशाआें में समान अवसरों के साथ समग्र व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पाने का अधिकार है, चाहे उसकी क्षमताएं, आकांक्षाएं और उसका व्यवसाय चाहे जो हो ।
    इन संवैधानिक दायित्वों को पूरा करने के लिए अनेक कदम उठाए गए । शिक्षा से वंचित रह गए लोगों के लिए चार मिशन शुरू किए गए जो उन्हें साक्षरता, प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा और अंत में विश्वविद्यालयीन शिक्षा देने में लग गए । गरीब विद्यार्थियों के लिए ४ लाख छात्रवृत्तियां भी दी गई जो १०० डॉलर प्रतिमाह (करीब ५००० रू.) की न्यूनतम मजदूरी के ७० फीसदी के बराबर है ।
    गरीब अफ्रीकी और वेनेजुएला के मूल निवासी (आदिवासी) समुदायों को भी शिक्षा में शामिल करने की विशेष कोशिश की गई । सरकारी स्कूलों में फीस पूरी तरह खतम कर दी गई, स्कूलोंमें तीन वक्त भोजन (सुबह का नाश्ता, दोपहर का भोजन, और अपरान्ह का नाश्ता) की व्यवस्था की गई, स्कूल आने-जाने के लिए परिवहन की व्यवस्था की गई और पर्याप्त् छात्रवृत्तियां प्रदान की गई । जब १९९८ में शावेज पहली बार राष्ट्रपति बने, तब सरकार कुल राष्ट्रीय का ३.३८ प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करती थी । २००७ में यह बढ़कर ५.४३ प्रतिशत हो गया । यदि इसमें नीचे के सरकारों द्वारा शिक्षा मिशनों पर किया जाने वाला खर्च जोड़ दिया जाए तो यह ७ प्रतिशत से ज्यादा हो जाता है ।
    इसका नतीजा भी दिखाई देने लगा है । पिछली सरकार में प्राथमिकता शाला में केवल ४३ प्रतिशत बच्च्े जाते थे । अब हाईस्कूल तक जाने वाले बच्चेंका प्रतिशत ९३ हो गया है । उच्च् शिक्षा में नामांकन में तो साढ़े तीन गुना बढ़ोत्तरी हुई है । १९९८ में वेनेजुएला के विश्वविघालयों में ६.६८ लाख विद्यार्थी पढ़ते थे । यह संख्या २०११ में २३ लाख पर पहुंच गई है ।
    उच्च् शिक्षा भी वेनेजुएला में पूरी तरह मुफ्त कर दी गई है । नए विश्वविद्यालयों में भोजन व शैक्षणिक सामग्री नि:शुल्क होती है और विद्यार्थियों के स्वास्थ्य के देखरेख की व्यवस्था भी होती है । उच्च् शिक्षा के पुराने अभिजात्य चरित्र के जवाब मेंएक वेनेजुएला का बोलीवारवादी विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है, जो पूरी तरह मुफ्त तथा खुला है । कोई भी इसमें दाखिला ले सकता है । इसके विद्यार्थियों को अपने विषय में स्थानीय लोगों के साथ काम करना होता है । शाम को उनकी कक्षा लगती है, जिसमें वे किताबी सिद्धांतों और अपने व्यवहारिक अनुभवों को जोड़ने का काम करते है ।
    पाठ्यक्रमोंऔर पाठ्यचर्चा को भी नयी व्यवस्था के अनुरूप बदलने की कोशिश की जा रही है । दक्षिण अमरीका के क्रांतिकारी चे ग्वारा तथा शिक्षाशास्त्री पालो फ्रेरे के विचारों के अनुरूप इनको ढाला जा रहा है । बोलीवारवादी समाजवाद के इस प्रयोग मेंशिक्षा का मकसद ऐसे नागरिक तैयार करना है जो इस प्रयोग में और इसके निर्माण में सक्रिय हिस्सा ले सके । यदि पूंजीवाद मेंशिक्षा का निजीकरण हो रहा है तो बोलीवारवादी समाजवाद में शिक्षा मानवीय, लोकतांत्रिक, सहभागी, बहु-नस्ली, बहु-भाषी, बहु-सांस्कृतिक समाज को मजबूत करने के लिए समर्पित हो, ऐसी कोशिश की जा रही   है । वर्ष २००८ में एक नयी राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा रूपरेखा बनाई गई है । उच्च् शिक्षा में भी अभी तक चले आ रहे यूरोप-केन्द्रित पाठ्यक्रमों को बदला जा रहा है और उसे दक्षिण अमरीका के राजनैतिक विचारों, कानूनी इतिहास, आदिवासी कानूनों और वेनेजुएलाके नए संविधान पर केन्द्रित किया जा रहा है ।
    यहां शिक्षा और रोजगार का रिश्ता जोड़ने तथा बेरोजगारी कम करने के लिए ज्ञान एवं काम मिशन शुरू किया गया है । इसमेंहजारों युवाआें को एवं विकलांग बच्चें को विशेष शिक्षा आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है । कम से कम तीन महीने चलने वाले इस प्रशिक्षण में उन्हें करीब १०० डॉलर (५००० रू.) महीने की छात्रवृत्ति दी जाती है । इसमें विशेष उल्लेखनीय विकलांग बच्चें की विशेष शिक्षा के लिए शिक्षक, चिकित्सक व सामाजिक कार्यकर्ता तैयार करने का प्रशिक्षण है, जो छ: महीने का होता है ।
    दूसरी अनूठी पहल संगीत शिक्षा के बारे मेंहै । वेनेजुएला में ३०० संगीत शालाएं चल रही हैं, जिन्हें नुक्लेओ कहा जाता है । इनमें से एक तो अमेजन के जंगलों में है, जहां केवलनाव से पहुंचा जा सकता है । स्कूल के बाद शाम को चलने वाली संगीत शालाआें में बड़ी संख्या में बच्च्े गरीब बस्तियों से आते हैं, किन्तु मध्यम वर्ग और उच्च् वर्ग के बच्च्े भी उनमें आकर्षित होते हैं । वहां वाद्ययंत्र और भोजन मुफ्त दिए जाते हैं और दूर-दराज इलाकों में घर से आने-जाने के परिवहन की व्यवस्था भी की जाती है । ये शालाएं शावेज के पहले से चली आ रही हैं, किन्तु शावेज ने उन्हें काफी बढ़ावा दिया है । इन दिनों वेनेजुएला में शास्त्रीय संगीत की धूम मची हुई है । वहां का सबसे लोकप्रिय संगीत कलाकार गुस्तावो डुडामल इसी संगीत शिक्षा कार्यक्रम की उपज है, जिसे एल-सिस्तेमा कहा जाता है ।
    एल-सिस्तेमा की संगीता शिक्षा का अभिजात्य विरोधी चरित्र भी है । इसके संस्थापक जोस एंटोनिओ एब्रेऊ का मानना है कि संगीत एक मानव अधिकार है और सबके लिए है । एन-सिस्तेमा मेंसंगीत की प्रतिभाआें को खोजने और विकसित करने पर जोर नहीं होता, बल्कि यह माना जाता है कि हर व्यक्ति में संगीत की क्षमता होती है । भाषा की ही तरह, यदि कम उम्र में संगीत अच्छी तरह सिखाया जाए, तो संगीत की बुनियादी काबिलियत सब हासिल कर सकते है । एल-सिस्तेमा को भी एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के बजाय सामाजिक कार्यक्रम का दर्जा दिया गया   है ।    
    कुल मिलाकर, वेनेजुएला मेंएक शैक्षणिक क्रांति आकार ले रही है, जो वहां पर बड़े सामाजिक राजनैतिक बदलाव का हिस्सा है । भारत की स्थिति बिल्कुल उलटी है । कहने को तो भारत में भी साक्षरता का मिशन और सर्वशिक्षा अभियान है, शिक्षा अधिकार कानून बना है और स्कूलों में नामांकन में भारी प्रगति के वादे किये गए हैं । किन्तु नवउदारवादी व्यवस्था में वेनेजुएला से ठीक विपरीत भारतीय शिक्षा महंगी होकर सामाजिक भेदभाव बढ़ा रही है ।
   
कृषि जगत
खेती का आत्मघाती संकट
                                         जयन्त वर्मा

    पंद्रह वर्षो में ढाई लाख से अधिक किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने के बावजूद कृषि संबंधित सरकारी नीति में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा है । बढ़ती लागत की वजह से कृषि अब तक अलाभकारी होती जा रही है ।
    भारत में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या की घटनाआें में निरन्तर वृद्धि हो रही है । राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष १९९५ से २०१० के दौरान २,५६,९१३ किसानोंने आत्महत्या की है । किसानों द्वारा आत्महत्या करने के पीछे मुख्य कारणों की विवेचना आवश्यक है ।
    यदि देश में सर्वाधिक रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र को विकास प्रक्रिया के केन्द्र मेंरखकर उद्योगों को उसका सहायक बनाया जायेगा तो ही राष्ट्र कृषि संकट से उबर सकता है । विडम्बना है कि खेती किसान में लागत निरन्तर बढ़ती जा रही है और श्रम मूल्य को घटाया जा रहा है । इस कारण किसान कर्ज लेकर खेती करने को मजबूर हो जाता है और इस जाल में फंस जाता    है । भुखमरी और गरीबी के चलते किसान कर्ज को चुकाने मेंअसमर्थ  रहता है । कर्ज लेने के बाद चक्रवृद्धि ब्याज के चक्कर मेंअदायगी राशि दो-चार और सौ गुनी हो जाती है, जिसे लाचार किसान अपना खेत खलिहान बेचकर भी नहीं चुका सकता । अंतत: अपना आत्मसम्मान बचाने के लिए वह आत्महत्या कर लेता है ।
    किसानी के संकट के मूल में बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२१(क) है, जो १९१८ में अंग्रेज हुकूमतद्वारा साहूकारों पर अंकुश लगाने के लिए बनाये गये अति ब्याज उधार अधिनियम को बाधित करती है, जिसके अनुसार किसी भी हालत में ब्याज की राशि मूलधन से अधिक नहीं वसूली जा सकती । अत: किसानों को राहत देने बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२१(क) को भूतलक्षी प्रभाव से समाप्त् किया जाना चाहिए ।
    फरवरी १९८४ में इंदिरागांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने बैंकों को साहूकारी संस्था से अलग कर उनके द्वारा ब्याज की सीमा पर लगी रोक हटा ली । इसके फलस्वरूप अब किसानोंको अत्यधिक धन चुकाना पड़ता है । वर्ष २००७ में कृषि मंत्री शरद पंवार ने इस धारा को वापस लेने से इंकार कर    दिया । १४वीं लोकसभा में संदर्भित स्थायी समिति ने अनुशंसा की है कि किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याआें के लिए उपरोक्त धारा सर्वाधिक उत्तरदायी है अतएव इसे विलोपित किया जाए ।
    सन् १९५०-५१ में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी ५३.१ प्रतिशत थी जो वर्ष २०११-१२ में घटकर मात्र १३.९ प्रतिशत रह गई । योजना आयोग के दृष्टिपत्र के अनुसार सन् २०२० में सकल घरेलू उत्पाद में खेती किसानी के योगदान को ६ प्रतिशत तक लाने का लक्ष्य रखा गया  है । इस तरह प्रतिवर्ष सरकार स.घ.उ. से खेती किसानी की हिस्सेदारी लगभग ०.७ प्रतिशत की दर से कम कर रही   है । किसान के श्रम मूल्य से इस वर्ष लगभग ५४ हजार करोड़ रूपये निकाला गया है । इस राशि में मात्र १५००० करोड़ रूपये जोड़कर सरकार ने किसानों सहित समस्त ग्रामीण भारत के लिये वर्ष २०१२-१३ के केन्द्रीय बजट मेंकुल राशि ६९,६९६ करोड़ रूपये का आवंटन कर दिया है । वर्ष २०१२-१३ के बजट में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना सहित अन्य योजनाआें को मिलाकर ग्रामीण विकास के लिए आवंटित बजट ५०,७२९ करोड़ रूपये  है । कृषि और संबद्ध क्रियाकलाप के लिए १७,६९२ करोड़ तथा सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण के लिए १२७५ करोड़ रूपये केन्द्रीय आयोजना के तहत आवंटित किए गए है ।
    सरकार खाद्यान्न के समर्थन मूल्य को जान बूझकर घटाकर किसानी को घाटे का सौदा बनाने पर आमाद    है । अर्जुन सेनगुप्त रिपोर्ट के अनुसार वर्ष २००५-०६ में भारत में किसान की औसत आमदनी मात्र १४ रूपये प्रतिदिन थी । किसान को उड़ीसा में ६ रूपये और मध्यप्रदेश में ९ रूपये प्रतिदिन आमदनी होती है । डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की राष्ट्रीय किसान आयोग की रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि भारत के चालीस फीसदी किसान अब खेती छोड़ने को तत्पर हैं क्योंकि किसान को मिलने वाली खाद्यान्न की कीमत में ८० फीसदी लागत और मात्र २० फीसदी उसका श्रम मूल्य होता है ।
    वर्ष १९६० में १० ग्राम सोने का मूल्य १११ रूपये और एक क्विंटल गेहूं का दाम ४१ रूपये था । आज १० ग्राम सोने का मूल्य लगभग ३०,००० रूपये और एक क्विंटल गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य १,२८५ रूपये है । इसी प्रकार वर्ष १९६० में प्रथम श्रेणी शासकीय सेवक का जो वेतन था उसमें ६ क्विंटल गेहूं मिलता था । आज प्रथम श्रेणी शासकीय सेवक के एक माह के वेतन में २५ क्विंटल गेहूं खरीदा जा सकता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार किसानों के श्रम मूल्य को जान बूझकर घटा रही है ।
    केन्द्रीय कृषि मंत्रालय में एक भी अधिकारी ऐसा नहीं है, जिसने जीवन में कभी हल पकड़ा हो । भारत में कृषि की नीतियां बनाने वाले वर्ग किसानी की वास्तविकता से अनभिज्ञ है और वह एग्री बिजनेस को बढ़ावा देेने में लगा    है । नतीजा यह है कि किसान दिन-ब-दिन कंगाल हो रहा है और किसान के साथ धंधा करने वाला व्यापारी और कम्पनियां मालामाल हो रही है । सरकार कार्पोरेट खेती को प्रोत्साहन देने का काम कर रही है और देश में सर्वाधिक रोजगार देने वाले इस व्यवसाय से लोगों को बेदखल करने पर उतारू है । किसानी घाटे का सौदा बन रही है और सरकार इस घाटे की पूर्ति के लिए किसान को कर्ज के जाल में फंसारही है । वित्तीय वर्ष २०१२-१३ का केन्द्रीय बजट १४,९०,९२५ करोड़ रूपये का है । इसकी तुलना में किसानों को ५,७५,००० करोड़ रूपये कर्ज के रूप में देना प्रस्तावित किया गया है जो कि बजट की राशि के ३८.५७ प्रतिशत के बराबर है । भारत का किसान अब बैंक का कर्ज चुकाने वाला बन्धुआ मजदूर बनकर रह गया है । यही किसानी की सबसे बड़ी त्रासदी है ।
    नवउदारीकरण के पश्चात् किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याआें की बढ़ती संख्या भी हमारे देश को अधिक विचलित नहीं कर पा रही है । यदि वर्ष १९९५ से २०१० तक के किसान आत्महत्याआें के मामलों पर नजर डालें तो स्थितियों की भयावहता का सहज ही अंदाजा लग जाता है । इस दौरान राज्यों एवं केन्द्र शास्ति प्रदेशों में कुल २,५६,९१३ किसानों ने आत्महत्या की इनमें से २,१६,७८७ पुरूष एवं ४०,१२६ महिलाएं थीं । जिन पांच राज्यों में सर्वाधिक आत्महत्याएं दर्ज की गई वे हैं - महाराष्ट्र ५०,४८१ कर्नाटक ३५,०५३ आंध्रप्रदेश ३१,१२० मध्यप्रदेश २६,७२२ (छत्तीसगढ़ २००१ में पृथक राज्य बना और वहां तब से १४,३४० किसानों ने आत्महत्या की है) पश्चिम बंगाल १९,३३१ एवं केरल १८,९०७ ।
    किसानी के संकट से देश को उबारने के लिए तत्काल यह कदम उठाये जाना चाहिये -
(१) खाद्यान्न का समर्थन मूल्य इतना तय किया जाये कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान बढ़कर ४५ फीसदी हो जाए । (२) यह सुनिश्चित किया जाए कि किसान की न्यूनतम आमदनी छठे वेतन आयोग में निर्धारित तृतीय श्रेणी सरकारी कर्मचारी के वेतन के बराबर हो जाए । (३) अधिक लागत और कम मूल्य की चक्की में पिसते किसान को राहत देने हेतु खेती किसानी की समस्त लागत शासन द्वारा लगाई जाए तथा किसान को संगठित वर्ग के समतुल्य श्रम मूल्य दिया जाए । (४) बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२१(क) को भूतलक्षी प्रभाव से समाप्त् किया जाये । (५) कृषि क्षेत्र को विकास प्रक्रिया के केन्द्र मेंरखकर उसमें सार्वजनिक विनिवेश बढ़ाया जाये और उद्योगों की भूमिका कृषि कार्यो में सहायक के रूप में रखी जाए । (६) खेती किसान में लागत को घटाने के लिए रसायन मुक्त जैविक/प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जाये तथा एग्री बिजनेस को बढ़ावा देने की नीति का परित्याग किया जाए ।
विज्ञान हमारे आसपास
प्रकृति और चुंबकीय कंपास
                                   एस. अनंतनारायणन

    नीले रंग का प्रकाश और एक विशेष प्रकार के प्रोटीन की मदद से पक्षी पृथ्वी की चुंबकीय शक्ति का इस्तेमाल रास्ता खोजने में करते हैं । यह तो कई दशकों से ज्ञात है कि पक्षियों सहित बहुत से जीवों के व्यवहार पर पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति का प्रभाव पड़ता है, पर इस संवेदनशीलता की भौतिक क्रियाविधि क्या हो सकती है, यह अब तक रहस्य ही रहा है । एक संभावना यह दिखती है कि पक्षियों के सिर में कोई चुंबकीय पदार्थ है जो उन्हें चुंबकीय बल को महसूस करने में मदद करता  है । एक अन्य संभावना है कि शरीर में कुछ रासायनिक पदार्थ होते हैं जो चुंबकत्व के प्रति संवेदी होते हैं । वैसे साक्ष्य तो दोनों ही मान्यताआें के समर्थन में मिले हैं ।
सूंघकर चलते हैं कबतूर
    घर वापस जाते कबूतरों को दिशा की बहुत ही असाधारण समझ होती है । कबूतरों की रास्ते की याददाश्त किन्हें दृश्य चिन्हों पर आश्रित नहीं    होती । जैसे यदि इन्हें अपना आशियाना खोजना हो और आसपास के चिन्ह भी मिट जाएं, तो भी ये अपने घोंसले वाला घर ढूंढ ही लेंगे । कबूतर यह काम तब भी कर सकते हैं जब दिन के अलग-अलग समय पर सूरज अलग-अलग दिशाआें में चमक रहा हो या बादल छाए हों और सूरज को देख पाना भी संभव न हो ।
    ऑकलैंड, न्यूजीलैंड के डॉ. कोर्डुल मोरा और उनकी टीम ने पाया कि कबूतरों की चोंच लौह युक्त सामग्री से मिलकर बनी होती है जो उसे चुंबकीय क्षेत्र का ज्ञान कराती है । बहुत से पक्षियों को एक खोखले बेलन में रखा गया जिसके दोनों सिरों पर भोजन भरी तश्तरी रखी गई । बेलन में चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करने के लिए एक कुंडली लगाई गई थी । जब पक्षी चुंबकीय क्षेत्र के अनुसार सही दिशा में चलते तो तश्तरी में रखे भोजन के रूप में उन्हें पुरस्कृत भी किया जाता था । पक्षी बहुत ही जल्द सही दिशा में पहुंचना सीख लेते हैं । इसका मतलब साफ है कि पक्षी चुंबकीय क्षेत्र को आसानी से पकड़ लेते है । जैसे यह कोई एक विशेष रंग या आवाज     हो ।
    लेकिन जब पक्षी की चोंच में एक चुंबक लगा दिया गया या फिर चोंच को चेतना शून्य कर दिया गया तब उन्होंने चुंबकीय क्षेत्र की दिशा बदलने पर कोई प्रतिक्रियानहीं दी । इससे यह साफ पता चलता है कि चोंच ही चुंबकीय क्षेत्र के प्रति संवेदनशील उपकरण है ।
प्रकाश के प्रति संवेदनशील
    यहां इस बात के प्रमाण भी है कि बहुत से पक्षियों में चुंबकीय क्षेत्र का सेंसर उनकी आंखों में होता है जो निश्चित रंग के प्रकाश की उपस्थिति पर निर्भर करता है । यह एक अलग ही कार्य प्रणाली की ओर इशारा करता है । इसमें प्रत्येक विशिष्ट ऊर्जा के प्रकाश की वजह से एक रासायनिक अभिक्रिया होती हे, जो चुंबकीय क्षेत्र की दिशा पर निर्भर करती है । यदि यह बात पक्षियों पर लागू होती है तो फिर पक्षी चुंबकीय क्षेत्र अनुसार अपने उड़ान की दिशा को समायोजित कर सकते हैं । नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट इसकी पुष्टि करती है ।
    सबसे साधारण रासायनिक व्यवस्था जो चुंबकीय क्षेत्र के प्रति संवेदनशील हो, विघुत आवेशित अणुआेंके समूहोंकी जोड़ियां होगी । अणु मूलत: परमाणुआें के समूहों से मिलकर बने होते हैं जो स्थायित्व प्राप्त् करने के लिए आपस में आवेशित कणों का आदान-प्रदान करते है । यह एक प्रकार का सहयोगी सह-अस्तित्व है । परन्तु कभी-कभी ये पार्टनर एक-दूसरे से अलग भी हो जाते हैं मगर इस स्थिति में उन पर आवेश रहता है । परमाणुआें के ऐसे समूह, जो आवेशित रहते हुए स्वतंत्र घूमते रहते हैं, मूलक कहलाते हैं और इनके जोड़े मूलक युग्म ।
    ये मूलक युग्म शक्तिशाली चुंबकीय गुण वाले होते हैं और रासायनिक क्रियाआें में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । चूंकि इनमें चुंबकत्व होता है इसलिए इनके उन्मुखीकरण पर इस बात का असर पड़ता है कि बाहरी चुंबकीय क्षेत्र प्रबल है या दुर्बल । लिहाजा ये मूलक एक तरह के चुंबकीय क्षेत्र में एक तरह से क्रिया करेंगे और दूसरे तरह के चुंबकीय क्षेत्र मेंदूसरी तरह से । यदि ये अलग-अलग अभिक्रियाएं आंखों की संवेदनशीलता को प्रभावित कर सकती हैं, तो चुंबकीय क्षेत्र में अंतर दृष्टि में अंतर के रूप में पहचाना जाएगा ।
क्रिप्टोक्रोम
    क्रिप्टोक्रोम एक प्रकार का प्रोटीन है जो बहुत से जानवरोंऔर पौधों में पाया जाता है । यह किसी विशेष रंग के प्रकाश के संपर्क में आने से रासायनिक रूप से सक्रिय हो जाता है । ये प्रोटीन पौधों में बहुत सी क्रियाआें को संचालित करते हैं । जैसे पौधों में प्रकाश के स्त्रोत की ओर बढ़ने की  प्रवृत्ति । क्रिप्टोक्रोम पौधोंमें दिन या रात की अवधि को पहचानने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । और इस बातके साक्ष्य भी उपलब्ध हैं कि क्रिप्टोक्रोम पक्षियों की आंखों के रेटिना में पाया जाता है और उनकी चुम्बकीय संवेदना में मदद करता हैं।
    मैसाचुसेट्स मेडिकल स्कूल युनिवर्सिटी, अमरीका की टीम ने फ्रूट फ्लाई की आंखों में क्रिप्टोक्रोम पाया  है । इससे पता चलता है कि यह प्रोटीन चुंबकीय-संवेदनशीलता के लिए आवश्यक है जो अवरक्त प्रकाश या चटख नीले प्रकाश की उपस्थिति में नजर आती है ।
    वैज्ञानिकों ने एक ऐसा उपकरण तैयार किया जिसमें फ्रूट फ्लाई को एक चुंबकीय क्षेत्र और साथ ही विशेष रंग के प्रकाश के सामने छोड़ा जाता है । उड़ते हुए मक्खियां अपने रास्ते में पड़ने वाले दोराहों पर दो में से कोई एक रास्ता चुनती हैं । जब वे चुम्बकीय क्षेत्र की उपस्थिति में सही रास्ता चुनती हैं तो उन्हें शकर को घोल इनाम में मिलता   है । ऐसा देखा गया कि मक्खियों को चुम्बकीय क्षेत्र की उपस्थिति में रास्ता चुनने में आसानी तब होती है तब नीले रंग का प्रकाश मौजूद हो । जब फिल्टर का प्रयोग करके नीले प्रकाश को अलग कर दिया जाता है तो मक्खियां सही प्रतिक्रिया नहींदे पाती । यह दर्शाता है कि प्रकाश का यह विशेष रंग चुम्बकीय प्रतिक्रिया तंत्र के काम करने के लिए आवश्यक होता है ।
    ऐसा ही प्रयोग ऐसी फ्रूट फ्लाई के साथ किया गया जिन्हेंइस तरह विकसित किया गया था जिनमें क्रिप्टोक्रोम नहीं था । ऐसा देखा गया है ये परिवर्तित मक्खियां दुर्बल-प्रबल किसी भी चुम्बकीय क्षेत्र के प्रति कोई संवेदनशीलता नहीं दर्शाती, चाहे किसी भी रंग का प्रकाश मौजूद हो । स्पष्ट है कि क्रिप्टोक्रोम ही नीले प्रकाश की उपस्थिति में चुंबकीय क्षेत्र को भांपने का काम करता है ।
    एक और प्रोटीन की पहचान की गई है जिसे टाइमलेस प्रोटीन कहा गया है । यह कई जीवों में दिन-रात की लय का संचालन करता है । टाइमलेस प्रकाश-ग्राही क्रिप्टोक्रोम और पीरियड नामक एक प्रोटीन के साथ काम करता है जो जैविक लय सुनिश्चित करता है । इसका उदाहरण हम सूर्य से संचालित होने वाले पौधों की पत्तियों के सुबह खुलने और शाम को बंद होने के रूप में देख सकते है ।        
    क्रिप्टोक्रोम दिन-रात के चक्र को व्यवस्थित करने के लिए टाइमलेस प्रोटीन के साथ सूचना का आदान-प्रदान करता है । इस बात को जांचने के लिए कि क्या क्रिप्टोक्रोम की चुंबकीय संवेदनशीलता के लिए एक कामकाजी दिन-रात नियामक तंत्र की आवश्यकता होती है, सबसे पहले फूट फ्लाई को लगातार प्रकाश के संपर्क में रखकर उसके दिन-रात नियामक तंत्र की लय को तोड़ा गया । इस तरह की कार्यवाही क्रिप्टोक्रोम के साथ-साथ टाइमलेस और पीरियड को भी नुकसान पहंुचाती है । इस प्रक्रिया के पांचवे दिन, दिन-रात व्यवहार की नियमितता टूट गई । जब उक्त प्रयोग इन लयहीन फ्रूट फ्लाई के साथ किया गया तो पता चला कि उन्हें चुंबकीय क्षेत्र के प्रति जवाब देेेने के लिए प्रशिक्षित करना उतना ही आसाना था जितना तब, जब उनका दिन-रात चक्र बरकरार था ।
    लगता है कि क्रिप्टोक्रोम ही चुंबकीय संवेदनशीलता दर्शाता है और नीले प्रकाश मेंसक्रिय होता है ।

   
पर्यावरण परिक्रमा
क्या लुप्त् हो जाएगा मोहन जोदड़ो ?

    पुरातत्व विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि अगर कांस्य युग की ऐतिहासिक धरोहर और दक्षिण एशिया के सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल मोहनजोदड़ों को बचाने के लिए कड़े कदम नहीं उठाए गए, तो यह धरोहर हमेशा के लिए लुप्त् हो जाएगी । हालांकि पाकिस्तानी अधिकारियों का कहना है कि वे मोहनजोदड़ों के अवशेषों की रक्षा के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे है ।
    दक्षिण पाकिस्तान में स्थित मोहनजोदड़ों दुनिया के सबसे प्राचीन शहरों में से एक था । २६०० ईसा पूर्व बना यह शहर अपनी जटिल योजनाबद्ध व्यवस्था, अविश्वसनीय वास्तुशास्त्र और जटिल जल व सफाई व्यवस्था के कारण दुनिया की सबसे विकसित शहरी व्यवस्था वाला शहर हुआ करता था । समझा जाता है कि महान सिंधु घाटी सभ्यता के इस शहर में३५ हजार लोग रहा करते थे । पुरातत्वविद् डॉ. अस्मा इब्राहीम के अनुसार, जब भी मैंयहां आती है, हर बार इसके लिए बुरा अनुभव करती  हूँ । मैं यहां दो तीन साल से नहीं   आई । और अब यह नुकसान देखकर मुझे बहुत दुख हो रहा है । मोहनजोदड़ों के निचले इलाके में, जहां कि मध्यवर्ग और कामगार तबके के लोग रहा करते थे, दीवारें नीचे से ऊपर की ओर दरक रही हैं । यह नई क्षति है । भूमिगत जल में मौजूद लवण ईटों को खा रहा है, जो खुदाई से पहले हजारों साल तक सुरक्षित रही थी । जैसे-जैसे ऊपरी हिस्से की और बढ़ते हैं, जहां कि सिंधु घाटी सभ्यता की संपन्न आबादी बसा करती थी और जहां बड़े स्नानघर होने के संकेत मिलते हैं, वहां हालात काफी खराब हो गए हैं।
    सुश्री इब्राहीम ने कहा, संरक्षण के लिहाज से यह एक जटिल स्थान है। यहां लवणता, आर्द्रता और बारिश की  समस्याएं हैं । मगर इनके संरक्षण के अधिकतर प्रयास इतने बेकार और बचकाने हैंकि उनसे नुकसान और बढ़ ही रहा है । अगर यही हाल रहा तो यह स्थल अगले २० साल में लुप्त् हो जाएगा।

कृत्रिम माँस विकसित करने की तैयारी

       अमेरिकी वैज्ञानिक प्रयोगशाला में कृत्रिम माँस विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं, जिसके भविष्य में उपयोग में आने पर माँस आपूर्ति के लिए मूक प्राणियों के कत्लपर रोक लग सकेगी ।
    ब्रिटिश दैनिक गार्जियन की रिपोर्ट के अनुसार सैन फ्रांसिस्को के मैनेलो पार्क के पास स्थित प्रयोगशाला में प्रो.पैट्रिक ब्राउन इस कृत्रिक माँस को विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होनें कहा - मैं उन लोगों के लिए भोजन विकसित करने का प्रयास कर रहा हॅू, जो रोजमर्रा के भोजन में माँस का सेवन करते हैं । मेरे इस प्रयास से संभव है कि पृथ्वी पर इंसानों की और जानवरों की आबादी ५०-५० फीसदी के अनुपात में सिमट जाएगी ।
    कृत्रिम तरीके से माँस बनाने का दशकों से प्रयास किया जा रहा है और बाजारों में कई तरह के विकल्प मौजूद है जो सोया से बने होते हैं । इन कृत्रिम खाद्य पदार्थो के स्वाद में कुछ खास दम नहीं होता है । प्रो. ब्राउन द्वारा विकसित किया गया माँस या तो कृत्रिम ऊतकों से विकसित किया जाएगा अथवा वनस्पति के जरिए । वैज्ञानिकों के आगे सबसे बड़ी चुनौती इस नकली माँस के स्वाद को लेकर होगी । माँस का असली स्वाद बहुत लजीज होता है जो दुनियाभर की एक बड़ी जनसंख्या को अपनी ओर आकर्षित करता है ।
    कच्च माँस बेस्वाद होता है, लेकिन जब इसे भूना जाता है तो इसमेंहोने वाली बहुत सी रासायनिक प्रतिक्रियाएँमाँस को स्वादिष्ट बना देती हैं । वैज्ञानिकों के आगे नकली माँस के टुकड़ें में भी इस तरह का स्वाद विकसित करने की चुनौती  होगी । प्रो. ब्राउन का यह क्रांतिकारी प्रयोग दरअसल पर्यावरण के लिए बहुत फायदेमंद होगा । साथ ही जानवरोंको मारे जाने से कुछ खास किस्म के पशुआें के लुप्त् हो जाने का खतरा भी मंडरा रहा है, इसे भी रोका जा सकेगा ।
    पूरी दुनिया मेंहर सेंकड १६०० पशुआें को माँस की आपूर्ति के लिए मार दिया जाता है । माँस उत्पादन की वजह से विश्व में कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में पांच प्रश, मीथेन में ४० प्रश, और दूसरी नाइट्रोजन गैसों में ४० प्रश बढ़ोतरी होती है । अगर माँस उत्पादन इसी रफ्तार से जारी रहा तो वर्ष २०४०   तक यह इन हानिकारक गैसों के उत्पादन में वाहनों को कहीं पीछे छोड़ देगा ।

ब्रह्मांड का रहस्य खोजने के करीब है वैज्ञानिक

    ब्रह्मांड की उत्पत्ति खोजने में जुटे वैज्ञानिक गॉड पार्टिकल (हिम्स बोसोन) की खोज के करीब पहुँच चुके हैं। बिग बैंग थ्योरी के मुताबिक, इसी तत्व की मदद से पहले तारे फिर ग्रह और आखिरकार जीवन की उत्पत्ति     हुई । पिछले कई सालोंकी प्रयासों के बाद वैज्ञानिकों के पास ढेर सारे आँकड़े उपलब्ध हो चुके हैं । ऐसे में वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि जल्द ही गॉड पार्टिकल सामने आ सकता है।
    इस तत्व की खोज के लिए योरपियन ऑर्गेनाइजेशन फॉर न्यूक्लियर रिसर्च (सर्ने) लार्ज हेड्रोन कोलाइडर (एचएचसी) का इस्तेमाल कर रही है । यह कणों को तेजी से घुमाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी मशीन है । शोधकर्ताआें का मानना है कि जुलाई के मध्य में मेलबोर्न में होन वाली कॉन्फ्रेंस में वैज्ञानिक शोध-पत्र का खुलासा कर सकते हैं । सर्न के प्रवक्ता जेम्स गिलीस ने कहा कि इस शोध को गुप्त् रखा जा रहा है । केवल कुछ प्रमुख लोग ही इन आँकड़ों का अध्ययन कर रहे हैं । हमें जैसे ही कोई ठोस जानकारी प्राप्त् होगी, उसे दुनिया के सामने रखा जाएगा । वैज्ञानिकों ने कहा कि हिग्स बोसोन के मजबूत संकेत उसी ऊर्जा स्तर पर देखे जा रहे हैं, जो पिछले साल अस्थायी तौर पर देखे गए थे । हालांकि इन अणुआें की जिंदगी इतनी अल्प है कि इन्हें इनके द्वारा छोड़े गए अवशेषों के आधार पर ही पकड़ा जा सकता है ।
    भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस के शोध को भौतिक जगत ने स्वीकार करते हुए उनके नाम पर एक उप-परमाण्विक कण का नाम बोसोन रखा है । सन १९२४ में बोस ने एक सांख्यिकीय गणना का जिक्र करते हुए एक पत्र आइस्टीन के पास भेजा था, जिसके आधार पर बोस आइस्टीन के गैस को द्रवीकृत करने के सिद्धांत का जन्म हुआ । इस सिद्धांत के आधार पर ही प्राथमिक कणोंको दो भागों में बाँटा जा सका और इनमें से एक का नाम बोसोन रखा गया, जबकि दूसरे का नाम इटली के भौतिक वैज्ञानिक इनरिको फैरमी के नाम पर रखा गया । दशकों बाद १९६४ में ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिग्स ने बिग बैंग के बाद एक सेंकड के अरबवें हिस्से में ब्रह्मांड के द्रव्यों को मिलने वाले भार का सिद्धांत दिया, जो बोस के बोसोन सिद्धांत पर ही आधारित था । इसे बाद में हिग्स-बोसोन के नाम से जाना गया ।

एक कीड़े की कीमत ७ लाख रूपये
    साधारण सा दिखने वाला एक कीड़ा इन दिनों ७ से ८ लाख रूपए तक बिक रहा है । बद्रीनाथ से जोशीमठ के रास्ते मेंमिलने वाले इस कीड़े के बेशकीमती होने के पीछे इसकी यौन शक्ति बढ़ाने की अद्भूत क्षमता है । तस्करों की निगाह में उत्तराखंड के वन्य जीवों के अंगोंके साथ ही यह कीड़े की इंटरनेशनल मार्केट मेंजबरदस्त मांग है । चमोली जिले के जोशीमठ, दशोली और घाट क्षेत्रों के बुग्याली हिस्सोंमें कीड़ा जड़ी यानी कीड़े के मरने से बनने वाली जड़ी के ऊंचे दाम मिलने से यहां इनका जमकर दोहन हो रहा है । अब तस्करोंकी निगाह इसके जिंदा कीड़े पर लग गई है । तस्कर एक कीड़े के सात लाख रूपये तक देने को तैयार है ।
    वन विभाग के सूत्रोंके मुताबिक दशोली प्रखंड के बुग्याली क्षेत्रों में कीड़ा जड़ी तलाशने वाले ग्रामीण के आगे एक तस्कर ने जिंदा कीड़ों को ढूंढ निकालने पर ऊंचे दामोंकी पेशकश की है । बताते हैं कि आइस बॉक्स में रखकर जिंदा कीड़ों को चीन सहित अन्य देशों में ले जाया जा रहा है ।
    उल्लेखनीय है कि चमोली जनपद में जोशीमठ, कानीति और माणा घाटी, तपोवन, करछों, उर्गम पाणा, ईराणी, झींझी, घुनी, रामणी, कनौल आदि ऊंचाई वाले क्षेत्रों में यह कीड़ा मिलता है । स्थानीय ग्रामीण मई और जून में इन स्थानों में बाकायदा कैंप लगाकर कीड़ा जड़ी खोजते हैं । कीड़ा-जड़ी का वानस्पतिक नाम यारसागंबू है ।
विशेष लेख
परम्पराएं, आधुनिकता और पर्यावरण
                            डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
    पर्यावरण शब्द अब लोक मानस के लिए नया नहींहै और उसकी सार्थकता से भी हम अनजान नहीं है। परम्पराआें के प्रकल्प में ही लोक जीवन चला आ रहा है । परम्पराएं सदा वर्तमान की गोद में पलती है । (यह बात अलग है कि वर्तमान प्रतिपल भूत में विलीन होता है) परम्पराएं आधुनिकता के कलेवर में और भी अधिक परिष्कृत होती है । किन्तु यदि आधुनिकता के ताने बाने से संवेदना कही छीजकर या छनकर दूर हो जाती है तो परम्पराएं टूट जाती है । यही टूटन तो पर्यावरण और परिवेश परिकर में घुटन का कारण बनती है ।
    आधुनिक होना बुरा नहीं है । सभ्यता की सीढ़िया चढ़ना भी बुरा नहीं है क्योंकि इससे आत्मानुशासन और आत्मैक्यता बढ़ती है । आधुनिकता तो हमारे जीवन दर्शन को नित नया आयाम देती है । नई दृष्टि देती है और मोहब्बत का पैगाम देती है । रवीन्द्र नाथ टेगोर के अनुसार भी विश्व को आसक्त भाव से न निहार कर निर्विकार तद्भव भाव से देखना आधुनिकता है ।
    आधुनिकता आनंद सम्मोहिता एवं आनंदमत्ता होती है । आधारभूत, आधारशक्ति (शक्ति रूपा प्रकृति माया) पर ही आधुनिकता का आनुषंगिक महल खड़ा होता है जहाँ प्रेम रहता है । व्यष्टि को समष्टि और सृष्टि के प्रति प्रेमातुर होना ही चाहिए । प्रेम का प्रयोजन सिद्ध भी होना चाहिए क्योंकि प्रेम परसार (रसीप्रोकेट) होता है । हमारा हर क्रिया कलाप सृष्टि और पर्यावरण के प्रति प्रयोगधर्मी होना चाहिए । हमें प्रासंगिकता के साथ कदम ताल करना चाहिए । हमें परम्परा के पाथेय को समझना चाहिए और सदैव ही परिवेशगत रहना चाहिए ।
    पर्यावरण का उदबोध यही है कि हम परम्परा के पाथेय पर नई दृष्टि एवं सर्जनात्मकता के साथ चलें। सृजन की प्रेरणा प्रकृति से मिलती है । परम्परा ही प्रीति की प्रस्तावक है । नवीन के प्रति आकर्षक सहज ही होता है किन्तु पुराने को भी तो कोई समझदार यकायक नहींखोता है । परम्पराएं अनेक परिवर्तनों के बीच से गुजर कर पल्लवित पुष्पित तथा सुवासित होती है । इस प्रक्रिया में वक्त लगता है जो परिवर्तन ग्राह्य नहीं होते हैं वह रूढ़ि कहलाते है । अत: हमें परम्परा और रूढ़ि में भेददृष्टि रखनी होगी । हर परम्परा बारंबार प्रासंगिकता के निकष पर कसनी    होगी । प्रकृति एवं पर्यावरण पोषिता मिथकीय परम्पराएं भी सार्थक सिद्ध रही हैं । परम्परा पोषी आधुनिकता ही हमारे पर्यावरण का संबल है ।
    परम्पराआें तथा समकालीन परिस्थितियों पर सम्यक चिंतन और विवेचन जरूरी है । देशकाल परिस्थितियों के अनुसार संवेदन तथा मूल्यबोध विकसित होता है । मनीषियों के अनुसार आधुनिकता स्वयं भी मूल्यों की प्रस्तोता एवं जननी है जो कि मूल्यों को प्रतिवर्ती दृष्टि भी देती है । यह मूल्य पारम्परिक होते है जिनमें समकालिक प्रवृत्तियाँ पनपती हैं । यह प्रवृत्तियाँ पर्यावरण की पोषक होनी चाहिए न कि उसकी    शोषक । यह प्रवृत्तियां पर्यावरण की शोधक होनी चाहिए न कि प्रदूषक ।
    हमें परम्परा के निर्वहन के नाम पर संकीर्ण रूढ़िवाद तथा आधुनिकता के नाम पर उद्दंड - उंदृखलता से सावधान रहना होगा क्योंकि दोनों ही प्रवृत्तियाँ पर्यावरण के लिए घातक है । हमें लोक हितकारी लोकायित धर्म निभाना चाहिए । दूसरों के काम आना, सुख-दुख में साथ निभाना, हाथ बंटाना आदि कर्म, लोक धर्म है । सामुहिकता ही प्रकृति एवं पर्यावरण का मूल तत्व   है । हमें परम्पराआें का सम्यक मूल्यांकन भी करते रहना चाहिए तथा स्वस्थ्य परम्पराआें को जीवंत रखना चाहिए ।
    हमारी सांस्कृतिक परम्पराएं आरण्यक रहीं, जिनमें प्रेमास्पद सौन्दर्यता तथा नेतृत्व सदैव रहा । परम्पराआें के मानवीय पक्ष की प्रतिष्ठा रही । अब आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के पाथ पर मानवीय पक्ष छीज रहा है क्योंछीज रहा है ? यही यक्ष प्रश्न है जिसके उत्तर की तलाश में है हम । परम्पराएं तो सरस धारा बन कर हमारी तृष्णा को संतृप्त् करती रही हैं वैसे ही जैसे वन-प्रांतर को सरस सलिलाएं समासक्त रखती है । हमें सरसता को शुष्क एवं रूक्ष नहीं होने देना है । मधुरता के साथ सतरंगी इंद्रधनुषी भाव संजोना है ।
    हमारी चिंता परम्पराआें के उस आधुनिक एवं उत्तर आधुनिक रंग में रंगने से नहीं है जो समय की मांग के अनुरूप है । कैनवास में नये-नये शेड्स भी अच्छे लगते है किन्तु हमारी चिंता उन वीभत्सताआें को लेकर अवश्य है जो कुतर्को के सहारे हरित विश्वास को धकिया रही है । और प्रकृति की नैसर्गिकता को तोड़ रही है । प्रकृति को छेड़ रही है । उन कुत्साआें से है जो परिवेश को विषाक्त कर रही हैं । उस अवमूल्यन से है जो अच्छे बुरे का भेद भूल रहा है क्योंकि केन्द्र में धन ऐश्वर्य हैं जिसके ईदगिर्द उत्तर आधुनिकता के प्रेत नृत्य कर रहे है और नई नई परिभाषाआें को गढ़ रहे हैं । हमें उनके विनाशक नृत्य को रोकना ही होगा ।
    परम्परा को वर्जित मानते हुए विकास विरोधी समझना बड़ी भूल है । परम्पराएँ तो प्रगति की प्रस्तावक प्रशस्थक तथा प्रशंसक है । परम्पराएँ पर्यावरण पर दृष्टि तो रखती ही हैं साथ ही उसे पुष्ट भी करती है । प्रकृति में कुछ भी स्थाई नहीं है । प्रकृति में प्रगति है, परिवर्तन है । परिवर्तन परम्परा को सदैव नई अर्थवत्ता के साथ आगे बढ़ाता है । वरणीय आगे बढ़ जाता है । अस्वीकार पीछे टूट जाता है । चिंता यह है कि कही कभी भी हम अपनी  अद्वमन्यता में वरणीय का तिरस्कार न कर दे । परम्परा को अस्वीकार न कर दें । हमारी प्रगति पारम्परिक विचारों से ही अनुप्राणित होती है ।
    परम्परा तो सुदीर्घकालिक होती है । गत्यात्मकता जिसका नैसर्गिक गुण होता है जिसमें वरणेय गत्यात्मकता नहीं होती वह रूढ़ि कहलाती है । हमें रूढ़िगत नहीं वरन् प्रगतिशील समुन्नत सुविचारित पर्यावरणीय दृष्टि रखनी चाहिए । परम्परा प्रवाह है तो आधुनिकता उसकी तरणता, और वही उसकी तारन हार भी है । आदिम से आधुनिक होने की अपनी परम्परा में प्रकृति और संस्कृति का समादर करना ही होगा । आधुनिकता में हम कभी भी कहीं भी अपनी मौलिकता न छोड़े । तथ्यों को स्वार्थान्धता में न तोड़े-मरोड़े । हम अपनी प्रकृति पर आघात न करें । प्रकृति ने हमें जीवन दिया है हम प्रकृति के लिए मरना सीखें ।
    देश में संस्कृतिकी जड़े गहराई तक जमी है इसके बावजूद हम गंदगी ढो रहे है । इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि हम अनात्म हो रहे है । हमारी आत्मा मर रही है । अपनी जड़ों से कट रहे हैं हम । हम आयातित को अपना रहे हैं, अपनी अस्मिता को भूलते जा रहे   है । हम आततायी और अत्मीय का भेद भी भूल गए है । आदिम से आधुनिक हुए, अब उत्तर आधुनिकता की ओर बढ़ रहे है । यह कहॅूं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा कि स्वयं को स्वयं से छल रहे हैं । उत्तर आधुनिक विदूषता की सलीब को कांधों पर उठाये मर रहा है    पर्यावरण । चारों ओर हो रहा है सुचिता का ही हरण । हमारी सेाच बड़ी ही सोचनीय हो गई है । अब तो उच्च् स्तरीय जीवन से उच्च् स्तरीय सोच विचार की भी गारंटी नहीं है क्योंकि सोच विचार पूरी तरह स्वार्थ से जुड़ गया है ।
    हमारे पास अकूत प्राकृतिक सम्पदा है किन्तु इसे मुक्त हस्त से लुटने को भी स्वतंत्रता है । तभी तो लुटे पिटे पर्यावरण के घेरे में है हम । हमारे अंदर उलझन, अनिर्णय एवं असंतोष समाया रहता है । यूँ तो हम भाव विभोर होकर गाते-बजाते है - गो धन गज धन बाजिधन और रतनधन खान, जब आवे संतोष धन सब धन धूरि  समान । किन्तु संतोष होता कहाँ है । आधी मिले तो आदमी पूरी के लिए दौड़ता है । वह अपनी तृष्णा कभी नहीं छोड़ता है । हम नैतिकता से दूर है, क्रूर है । हम स्वार्थी है तभी तो हमें खुशी नहीं मिलती है । एक खालीपन और रिक्तता घेरे रहती है हमें हरदम । भीड़ में भी आदमी अकेला है । यही तो उत्तर आधुनिकता का खेल है ।
    वर्तमान में हम संस्कार एवं संस्कृति के स्तर पर उत्तर आधुनिकता विकास आपदा से जूझ रहे है । आधुनिकीकरण, वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद ने हमें हमारी जड़ों से काटकर वह आकाश कुसुम दिखला दिया है जो हमारी निगाह को तप्त् सूर्य के नजदीक ले आया है । झुलसते हुए भी हम उसे देखना ही नहीं, पकड़ना चाह रहे है । अपने ऐश्वर्यपूर्ण जीवन की जद्दोजहद में हम अपनी धरती आकाश और रक्षा आवरण को ही नष्ट करते आ रहे है, छटपटा रहे हैं । ऐसे में आत्म विश्वास की जरूरत है । इस तरह भला अमृर्त्य कब तक रहेगें हम ?
    अत: अब वक्त आ गया है कि हम अपनी पोषिता को पहचाने अपनी प्रकृति की माने । अपनी जड़ों को  पहचाने । अपने बीज को पकड़े अपने लक्ष्य को देखे । अपने संभावनाशील पंखों को खोले, संवेदी बने, उड़ान भरें, गलत से नहीं डरें । नैतिक एवं आध्यात्मिक हो जायें और अपने विश्वास को मजबूत बनाये । सर्वहारा हो जायें और अपनी संस्कृति का हर द्वार खुला पाये । मिथकीय परम्पराएं भी कही न कहीं यथार्थ से जुड़ी होती है, उस यथार्थ की तह तक जायें ।
    यह निर्विवाद सत्य है कि समय की शिला पर परम्परा नित्य नये-नये प्रतिमान गढ़ती है और आधुनिकता कालान्तर में परम्परा का रूप धरती      है । फिर नई आधुनातन अवस्था आती है । परिवर्तन तो जीवन की थाती है । हम कहीं भी और कभी भी अंधानुकरण न करें किन्तु सही का वरण अवश्य करें । हमारी पर्वोत्सव परम्पराएं एवं हमारी सभ्यता, संस्कृति का अंग रही पेड़-पौधों एवं जीव जन्तुआें में देवाधिष्ठान परिकल्पानाएं पर्यावरण की रक्षक है । हमारी ग्राम्या कृषि प्रधान संस्कृति सदैव वरणीय है । हम गोपद के पूजक हैं । आधुनिकता का अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम भारतीय यशगान न भूले । वैदिक संस्कृतिको भूलकर पाश्चात्य विकृतियों को पूजने लगें । अंत में यही कहूंगा कि हम अपनी पहचान न भूले । 
ज्ञान विज्ञान
कर्क रेखा सरकने से जलवायु पर प्रभाव

    कर्क रेखा के दक्षिण की ओर सरकने से जलवायु अधिक निष्ठुर हो चली है । प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक डॉ. जनार्दन नेगी का यह अनुमान सही निकला है । भारत में भीषण गर्मी, चीन में बाढ़, मेक्सिको में तूफान इसके प्रमाण हैं । स्विटरलैंड में गर्मी के मौसम में पिछले दिनों बर्फबारी ने पिछले सौ साल का रिकार्ड तोड़ा है । 
      डॉ. नेगी ने बताया कि सात वर्ष पूर्व अपने इस अनुमान का शोधपत्रों के जरिए सार्वजनिक किया था । उन्होनें बताया कि मौसम कोई भी हो लेकिन उसका रौद्र रूप जलवायु के निष्ठुर होने का संकेत है । आपने बताया कि पृथ्वी की धुरी के झुकाव (टिल्टिंग) के कारण कर्क रेखा दक्षिण की ओर सरक रही है । फलस्वरूप एक ओर कर्क रेखा और उत्तरधु्रवीय वृत्त के बीच का क्षेत्र टेम्परेट जोन (शीतोष्ण कटिबंध) का दायर बढ़ रहा है । इधर, भूमध्य रेखा और कर्क रेखा के बीच का दायरा सिमट रहा है । यही वैज्ञानिकों की चिंता का विषय है । टेम्परेट जोन का बढ़ना ही जलवायु के रौद्र स्वरूप के लिए जिम्मेदार है । डॉ. नेगी बताते हैं कि कर्क रेखा गुजरात के भुज और मेहसाणा से होकर म.प्र मेंमहिदपुर से गुजरती है । महिदपुर ठीक २३.५ डिग्री उत्तर की ओर है, जो पृथ्वी के तिरछेपन का औसत परिमाण है । ताइवान के जिया-यी जिले में १९०८ में कर्क रेखा समरक का निर्माण किया गया था । आज कर्क रेखा की काल्पनिक रेखा उस जगह से १.२७ किमी दक्षिण की ओर सरकी है । इस गति से  इसे अहमदाबाद पहुंचने में ४७०० साल लगेंगे ।
    डॉ. नेगी कहते है कि कर्क रेखा के सरकने की गति भले ही धीमी है, लेकिन टेम्परेट जोन का दायरा बढ़ने से जलवायु के निष्ठुर होने के संकेत मिलने लगे हैं ।


पर्यावरण के हथियार से दुनिया को नष्ट करने की योजना
    दुनिया मेंपरमाणु कार्यक्रम और  उसके घातक प्रभाव को लेकर चिंताआें के बीच पर्यावरण को भी हथियार बनाकर दुनिया को नष्ट करने की तकनीक अब तैयार हो गई है । हालाँकि इसे शोध का नाम दिया जा रहा है लेकिन उसके भयानक परिणामों को लेकर दबी आवाज में विरोध शुरू हो चुका है ।


    इस खतरनाक त्तकनीक का नाम है   हार्प  ।  हार्प यानी हाई फ्रिक्वेंसी एक्टिव एरोरल रिसर्च प्रोग्राम । इसकी मदद से वायुमण्डल की ऊपरी परतों में से एक आयनमंडल या आयनोस्फेयर को समझने और उसके बारे में और जानकारी इकट्ठा की जा रही है । गौरतलब है कि आयनमंडल हमारे वायुमंडल की वह परत है जिसका उपयोग नागरिक और रक्षा नौवहन प्रणाली में किया जाता है । अमेरिकी वायुसेना, नौसेना और अलास्का विश्वविद्यालय के सहयोग से अलास्का के गाकोन में वर्ष १९९० में हार्प कार्यक्रम को प्रारंभ किया गया था । अमेरिका ने अपने इस कार्यक्रम को बेहद गोपनीय रखा है लेकिन इसे लेकर उठने वाले हजारों सवाल के कारण अब हार्प कार्यक्रम की वेबसाईट पर कुछ जानकारी साझा जरूर की गई है । इससे जुड़े सवाल और विवादों से भी वेबसाइट अटी पड़ी है । इस कार्यक्रम को पर्यावरण का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का आरोप लगाया गया है। खुद हार्प कार्यक्रम की अधिकारिक वेबसाइट पर इस तकनीक के बारे मेंबताया गया है कि इस तकनीक में विद्युत चुंबकीय तरंगे वायुमण्डल में उच्च् आवृत्ति के तहत छोड़ी जाती हैं जिससे वायुमण्डल का एक सीमित हिस्सा नियंत्रित किया जा सकता है । इससे बाढ़ की स्थिति पैदा की जा सकती है या फिर तूफान भी लाया जा सकता है ।


प्रागैतिहासिक शार्क से जन्मा हैंमानव

    संपूर्ण मानव जाति की उत्पत्ति प्रागैतिहासिक काल की अब विलुप्त् हो चुकी शार्क से हुई है । एक नए शोध के अनुसार मानव की उत्पत्ति तीन हजार लाख साल पुरानी इसी शार्क से हुई  है ।
    प्राचीनकाल की इस विशाल मछली जिसे वैज्ञानिक भाषा में एकाउंथोड्स ब्रोनी कहा जाता है, इंसानों समेत धरती पर पाए जाने वाले सभी जबड़े एवं पसली वाले जीवों की जनक है । मछलियों के दिमाग के नए सिरे से किए गए अध्ययन के अनुसार २९०० लाख साल पहले इंसानों समेत सभी स्तनधारियों, सरीसृप, पक्षियों, मछलियों की उत्पत्ति आगे चलकर इसी प्राचीन शार्क सेहुई है । 
 एकाउंथोड्स का अर्थ यूनानी भाषा में रीढ़ है । ये उस समय की शार्क थी जब प्राचीन शार्क और पहली हड्डी वाली मछली के बीच विभाजन नहीं हुआ था । शार्क की ये प्राचीनतम प्रजाति मानव इतिहास की शुरूआत की एक ऐसी कड़ी है, जिसके जीवाश्म योरप से लेकर उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया तक में पाए गए हैं । इन एक फुट से अधिक लंबी शार्को के दाँत के बदले नुकीले जबड़े होते थे । बड़ी आँखो वाली यें शार्क समुद्र की खोह में रहा करती थी । शिकागों यूनिवर्सिटी के जीव वैज्ञानिक प्रोफेसर माइकल कोट्स के अनुसार एकाउंथोड्स हड्डी वाली मछलियों और शार्को की अब तक उपलब्ध सबसे अंतिम कड़ी है । अध्ययन से पता चला है कि ये शुरूआती मछली आजकल जैसी शार्क सरीखी ही दिखती थी । मौजूदा शार्क समेत आजकल की कार्टिलेज (अस्थी मज्जा) वाली मछलियों में हड्डी का अस्तित्व २५०० लाख साल पहले ही खत्म हो गया था । इसके बाद की मछलियों में लंबी तिकोनी दुम पाई जाने लगी ।


अब प्रयोगशाला में तैयार होगी मानव त्वचा

    अब मानव त्वचा भी प्रयोगशाला में तैयार हो सकेगी । इस दिशा में भारतीय डॉक्टरों ने प्रारंभिक सफलता हासिल कर ली है । डॉक्टरों का शोध परवान चढ़ा तो त्वचा का प्रभावित जगह पर प्रत्यारोपण भी संभव हो जाएगा । इससे जली हुई त्वचा में बने दाग-धब्बे को दूर करने में काफी हद तक मदद मिलेगी । इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च से संबंधित इंस्टीट्यूट ऑफ पैथोलॉजी में शोध के पहले चरण का क्लीनिकल ट्रायल पूरा हो चुका है ।  


आईओपी के बायोलॉजी प्रयोगशाला के शोधकर्ता डॉ. लक्ष्मण के येरनेनी ने बताया कि इस अध्ययन से जले हुए मरीजों की त्वचा को ठीक करने में डॉक्टरों को मदद  मिलेगी । बोन मैरो और कॉड ब्लड सेल्स की तरह मानव त्वचा के अंदरूनी हिस्से में भी कैरेटिनोसाइट्स नामक स्टेम सेल्स पाई जाती है । इन सेल्स मेंउपस्थित कैरेटिन प्रोटीन अपने तरह की कई सेल्स विकसित कर त्वचा को फैलने में मदद करता है । प्रयोगशाला अध्ययन में जले हुए मरीजों की त्वचा से इन सेल्स को लेकर विकसित सेल्स की परत को दोबारा उसी जगह प्रत्यारोपित करने के बाद सफल परिणाम देखा गया । सफदरजंग अस्पताल के बर्न यूनिट के सहयोग से किए गए इस शोध में ४०  फीसद जले मरीजों की कैरटिनो-साइट्स को प्रयोगशाला  में लाया गया ।
    डॉ. लक्ष्मण ने बताया कि प्रयोगशाला में त्वचा बनाने के लिए मरीजों की जली हुई त्वचा से पाँच सेमी हिस्सा लेकर उसकी बायोप्सी जाँच की गई । इसके बाद कल्चर प्रक्रिया का इस्तेमाल कर त्वचा को कल्चर डिश (स्पेशल डिश) में लेकर केमिकल के साथ रिएक्शन कराया गया । इस रिएक्शन की मदद से त्वचा को बढ़ाने में हम सफल हुए ।    
प्रदेश चर्चा
महाराष्ट्र : ग्रामीणोंको वन के लाभ
                                                            सुश्री अपर्णा पल्लवी

    महाराष्ट्र सरकार ने १० गांवों को वन उत्पाद बिक्री में से उनका हिस्सा देने की प्रशंसनीय शुरूआत की है । लेकिन इसमें कुछ प्रक्रियागत कमियां भी सामने आई है । आवश्यकता इस बात की है कि इस हिस्सेदारी के हिसाब-किताब को और अधिक पारदर्शी बनाया जाए । इसी के साथ यह उम्मीद भी की जानी चाहिए कि संयुक्त वन प्रबंधन एवं हिस्सेदारी की यह योजना महाराष्ट्र के अन्य गांवों के साथ देश भर में शीघ्र ही क्रियान्वित हो ।
    महाराष्ट्र में अब तक किसी भी गांव को संयुक्त वन प्रबंधन के अन्तर्गत वन लाभों में से अपना हिस्सा प्राप्त् नहीं हुआ था । अपने तरह की प्रथम पहल में महाराष्ट्र वन विभाग ने संयुक्त वन प्रबंधन योजना के अन्तर्गत १० गांवों को लाभ में से उनका हिस्सा देने का निर्णय लिया है। इस संदर्भ में गढ़चिरौली जिले के आठ एवं  गोंदिया जिले के दो गांवों को कुल ७४,५१,०६३ रूपए की राशि प्रदान की जाएगी । यह राशि उन्हें वन उत्पादों की बिक्री से प्राप्त् धन पर लगने वाले ७ प्रतिशत वन विकास कर के माध्यम से प्रदान की जाएगी । संयुक्त सचिव द्वारा २४ मई को मुख्य वन संरक्षक को लिखे गए पत्र में यह जानकारी दी गई कि संयुक्त वन प्रबंधन योजना के अन्तर्गत ग्रामीणों को वन उत्पाद में से उनका हिस्सा दिया जाना अनिवार्य    है । हालांकि वर्ष १९९२ से लागू इस योजना से अब तक किसी भी गांव को कोई राशि प्राप्त् नहीं हुई है ।
    वन विभाग के प्रमुख सचिव प्रवीण परदेशी का कहना है कि यह कदम उठाने में देरी इसलिए हुई क्योंकि अप्रैल २००३ के एक शासकीय प्रस्ताव के अनुसार संयुक्त वन प्रबंधन समिति गांवों को तभी भुगतान करेगी जबकि यह सुनिश्चित हो गया हो कि उन्होनें कम से कम दस वर्षो तक वनों का संरक्षण किया हो । उनका कहना है कि चूंकि भुगतान सन् २०१३ में होना है । अतएव संयुक्त वन प्रबंधन के खाते से भुगतान नहीं किया जा सकता । इसलिए यह तय किया गया वन सरचार्ज जो कि वनों का जिला स्तरीय विकास कोष है, के माध्यम से भुगतान का निर्णय लिया गया है । संयुक्त वन प्रबंधन समितियां वन की सुरक्षा करती है । अतएव उनका ही इस पर पहला दावा है । इस योजना के अन्तर्गत आने वाले गांवों को विभिन्न चरणों में इसी तरह भुगतान किया जाएगा ।
    वन अधिकार समूहों ने इस पहल का स्वागत किया है । लेकिन वे इस तथ्य से असंतुष्ट है कि वन विभाग ने राज्य सरकार के १६ मार्च १९९२ के निर्णय की अवहेलना की है । क्षेत्र के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता एवं वरिष्ठ वन अधिकार कार्यकर्ता मोहन हीराबाई हीरालाल का कहना है कि सरकार का प्रथम निर्णय संयुक्त वन प्रबंधन गांवों के लिए बेहतर अवसर प्रदान करता था । इसके अन्तर्गत प्राकृतिक वनों को पांच वर्षो तक संरक्षित करने के बाद लाभ प्रािप्त् की पात्रता थी ।
    उनका कहना है कि वर्ष १९९२ एवं २००३ के मध्य गठित संयुक्त वन प्रबंधन समितियों को १९९२ के सरकारी निर्णय के हिसाब से लाभ दिया जाना चाहिए । वहीं दूसरे सरकारी निर्णय के अन्तर्गत संयुक्त वन प्रबंधन समितियों द्वारा प्राकृतिक वनों एवं रोपे गए वनों दोनों के लिए १० वर्ष  की प्रतीक्षा अवधि अनिवार्य कर दी गई है ।
    वहीं श्री परदेशी प्रथम सरकारी निर्णय को गांववासियों के लिए लाभप्रद नहीं मानतें  क्योंकि उनके अनुसार इसमें मुख्य लकड़ी पर भुगतान मिलने की पात्रता नहीं है । हालांकि सन् १९९२ के सरकारी प्रस्ताव की धारा ९ इस बात को अनुचित मानती है । इसमें साफ लिखा है कि संयुक्त वन  प्रबंधन  वनों के सभी उत्पाद जिसमें निरस्तार आवश्यकताएं एवं वन उत्पादों के इस्तेमाल से संबंधित सामुदायिक अधिकार शामिल हैं, प्राथमिकता के आधार पर समितियों को दिए जाएं । शेष ५० प्रतिशत समितियों को नकद प्रदान किया जाए ।
    मोहनभाई ने आरोप लगाया है कि विभाग जानबूझकर मूल सरकारी प्रस्ताव से खिलवाड़ कर रहा है और ग्रामीण को नुकसान पहुंचा रहा है । विभाग प्रत्येक गांव से वर्षानुसार एवं उत्पाद के हिसाब से अर्जित धन की विस्तृत जानकारी भी नहीं दे रहा है । उनका कहना है कि ग्रामीण को सिर्फ धन देना ही काफी नहीं है । सभी तरह के रिकार्ड में पारदर्शिता होनी चाहिए और ग्रामसभाआें को इस बात की जानकारी देना चाहिए कि इस धन की गणना किस प्रकार की गई है । इस संबंध में ग्रामसभाआें से अनुमति भी ली जानी चाहिए  ।
जन जीवन
सूखे से निपटती छोटी जल परियोजनाएं
                                                                       भारत डोगरा

    देश के सूखा प्रभावित ग्रामीण अंचलोंके निवासी अपनी पारम्परिक जलसमझ के माध्यम से अपने क्षेत्र की जल समस्याआें का निराकरण करने में काफी हद तक पारंगत है । आवश्यकता इस बात की है कि उन्हें इन परियोजनाआें की परिकल्पना में शामिल किया जाए ।
    जहां एक ओर बहुत महंगी व विशालकाय जल-परियोजनाआें के अपेक्षित लाभ नहीं मिल रहे हैं, वहां दूसरी ओर स्थानीय लोगों की भागेदारी से कार्यान्वित अनेक छोटी परियोजनाआें से कम लागत में ही जल संरक्षण व संग्रहण का अधिक लाभ मिल रहा है । राजस्थान व बुंदेलखण्ड के जलसंकट ग्रस्त क्षेत्रों में ऐसे कुछ प्रेरणादायक प्रयासों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है ।
    कोरसीना पंचायत व आसपास के कुछ गांव पेयजल के संकट से इतने त्रस्त हो गए थे कि कुछ वर्षोमें इन गांवों के अस्तित्व का संकट उत्पन्न होने वाला था । दरअसल राजस्थान के जयपुर जिले के दुधू ब्लॉक मेंस्थित यह गांव सांभर झील में नमक बनता है पर इसका प्रतिकूल असर आसपास के गांवोंमें खारे पानी की बढ़ती समस्या के रूप में सामने आता रहा है ।
    गांववासियों व वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मी नारायण ने खोजबीन कर पता लगाया कि पंचायत के पास के पहाड़ों के ऊपरी क्षेत्र में एक जगह बहुत पहले किसी राजा-रजवाड़े के समय एक जल-संग्रहण प्रयास किया गया था । इस ऊंचे पहाड़ी स्थान पर जल-ग्रहण क्षेत्र काफी अच्छा है व कम स्थान में काफी पानी एकत्र हो जाता है । अधिक ऊंचाई के कारण यहां सांभर झील के नमक का असर भी वहां नहीं पहुंचता है । पर अब यह टूट-फूट गया था व बांध स्थल मेंगाद भर गई थी । काफी प्रयास किया गया कि यहां नए सिरे से पानी रोकने के लिए जरूरी निर्माण कार्य किया जाए । परन्तु सफलता नहीं मिली । इस बीच एक सड़क दुर्घटना में लक्ष्मीनारायणजी का देहान्त हो गया ।
    इस स्थिति में पड़ौस के गांवों में कई सार्थक कार्योंा में लगी संस्था बेयरफुट कालेज ने यह निर्णय लिया कि लक्ष्मी नारायण के इस अधूरे कार्य को जैसे भी हो अवश्य पूरा करना है । इस बीच बेलू वाटर नामक संस्थान ने कोरसीना बांध परियोजना के लिए १८ लाख रूपये का अनुदान देना स्वीकार कर लिया ।
    इस छोटे बांध की योजना में न तो कोई विस्थापन है न पर्यावरण की क्षति । अनुदान की राशि का अधिकांश उपयोग गांववासियों को मजदूरी देने के लिए किया गया । मजदूरी समय पर मिली व कानूनी रेट पर मिली । इस तरह गांववासियों की आर्थिक जरूरतें भी पूरी हुई तथा साथ ही ऊंचे पहाड़ी क्षेत्र में पानी रोकने का कार्य तेजी से आगे बढ़ने लगा । जल ग्रहण क्षेत्र का उपचार कर इसकी हरियाली बढ़ाई   गई । खुदाई से जो मिट्टी व बालू मिली उसका उपयोग मुख्य बांध स्थल के नीचे और मेढ़बंदी के लिए भी किया गया ताकि  आगे भी कुछ पानी रूक सके ।
    कोरसीना बांध के पूरा होने के एक वर्ष बाद ही इसके लाभ ही इसके लाभ के बारे मेंस्थानीय गांववासियों ने बताया कि इससे लगभग ५० कुआें का जलस्तर ऊपर उठ गया । अनेक हैडपंपों व तालाबों को भी लाभ मिला । कोरसीना के एक मुख्य कुंए से पाईपलाईन अन्य गांवोंतक पहुंचती है जिससे पेयजल लाभ अनेक अन्य गांवों तक भी पहुंचता है ।
    यदि यह परियोजना अपनी पूरी क्षमता प्राप्त् कर पाई तो इसका लाभ २० गांवों, १३८७४ गांववासियों व खेती-किसानी से जुड़े पशुआें को भी मिल सकता है । इसके अतिरिक्त वन्य जीव-जन्तुआें, पक्षियों की जो प्यास बुझेगी वह अलग है ।
    इसी तरह जिला अजमेर के मंडावरिया व पालोना गांवों में भी कम बजट में बहुत से गांववासियों व पशुआें की प्यास बुझाने वाली परियोजनाएं हाल ही में कार्यान्वित हुई हैं जिनमें बेयरफुट कालेज ने भरपूर सहयोग दिया है । इन दोनों परियोजनाआें का क्रियान्वयन सहयोगी संस्था तिलोनिया शोध एवं विकास संस्थान ने किया है ।
    बुंदेलखंड के चित्रकूट जिले के पाठा क्षेत्र का नाम तो बार-बार जल संकट के कारण वर्षो तक चर्चित होता रहा है । हाल के समय में मानिकपुर प्रखंड की तीन पंचायतों में वाटरशेड विकास की तीन परियाजनाआें ने एक नई उम्मीद जगाई है कि सूखी धरती व प्यासे लोगों को राहत देने के सस्ते उपाय भी असरदार व टिकाऊ समाधान दे सकते हैं । ये उपाय मूलत: वर्षो के  जल के संग्रहण आर संरक्षण पर आधारित हैं । भूमि प्रबंधन ऐसा किया जाता है कि वर्षा का जल तेजी से न बह जाए अपितु  जगह-जगह रूकता हुआ, रेंगता हुआ आगे बढ़े और जितना हो सके यहां की धरती में ही समा जाए । खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में बच सके, यहां के तालाबोंमें पानी आए, कुंआेंव हैडपंप का जल-स्तर ऊपर आ जाए व धरती में इतनी आद्रता बनी रहे कि तरह-तरह की हरियाली पनप सके ।
    इटवा पंचायत में इस कार्य के लिए राष्ट्रीय कृषि भूमि विकास बैंक ने धन दिया तो टिकरिया पंचायत के लिए जिला ग्रामीण विकास एजेंसी ने । मनगवां पंचायत के लिए बजट उपलब्ध करवाया दोराबजी टाटा ट्रस्ट ने । इन तीनोंपरियोजनों का क्रियान्वयन अखिल भारतीय समाज सेवा संस्थान ने किया । इनमें से एक परियोजना पूर्ण हुई तो शेष दो पर अभी कार्य चल रहा है । अभी तक इनपर लगभग २ करोड़ रूपए व्यय हुए, जिनमें से ६० प्रतिशत राशि यानि एक करोड़ बीस लाख रूपये सबसे गरीब परिवारों को मजदूरी के रूप में ही मिल गया । साथ में बेहतर जल संरक्षण, कृषि व हरियाली में प्रगति का लाभ तो इन तीन वाटरशेड़ों के सभी दस हजार लोगों को कम या अधिक मिला । खेती-किसानी के पशुआें के साथ अन्य जीव जन्तुआें को भी वर्ष भर प्यास बुझाने के स्त्रोत मिले । दूसरे शब्दों में, तकनीकी कुशलता, सावधानी व ईमानदारी से खर्च हो तो जितने बजट में किसी महानगर के पॉश इलाकों में एक फ्लैट मिलता है, उतने धन में दस हजार गांववासियों व पांच हजार पशुआें की प्यास बुझाने के साथ कृषि उत्पादन बढ़ाने की महत्वपूर्ण उपलब्धि हो सकती है ।
    वर्षा के जल को संजोने-समेटने के लिए इन परियोजनाआें में  मेढ़बंदी की गई, बंधे व चेक डेम बनाए गए । नए तालाब बनाए गए व पुराने तालाबों का जीर्णोद्वार भी किया गया । वेग से बहते हुए पानी को रोकने के लिए उचित स्थानों पर खाईयां बनाई गई, वृक्षारोपण किया गया । हाल के समय में आर्गेनिक खेती का यथासंभव प्रसार किया गया जिससे मिट्टी की नमी ग्रहण क्षमता बढ़ती है । श्री या एस.आर.आई. खेती की नई तकनीक अपनाई गई जिसमें उचित दूरी पर पौध लगाने व खरपतवार से हरी खाद बनाने जैसे उपायों से उत्पादन बढ़ाने के साथ पानी की बचत भी संभव है ।
    इस तरह की छोटी परियोजनाआें का बड़ा सबक यह है कि हमें जल संकट हल करने के लिए ऐसी परियोजनाआें पर निर्भर होना जरूरी नहीं है जिससे बहुत विस्थापन होता हो या अनेक पर्यावरणीय दुष्परिणाम होते हों । ऐसी परियोजनाआें पर भी निर्भर होना जरूरी नहीं है जो बहुत महंगी हों व जिनके अनिश्चित लाभ बहुत देर से मिलें ।
कविता
गगन का चांद
                                           रामधारी सिंह दिनकर

    रात यों कहने लगा मुझसे  गगन का चाँद,
    आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
    उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
    और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।
    जानता है तू कि मैं कितना पुराना हॅूं ?
    मैं चुका हॅूं देख मनु को जनमते-मरते ।
    और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
    चाँदनी में बैठे स्वप्नों पर सही करते ।
    आदमी का स्वप्न ? वह बुलबूला जल का
    आज उठता और कल फिर फूट जाता    है ।
    किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
    बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।
    मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
    देख फिर से चाँद ! मुझको जानता है तू ?
    स्वप्न मेरे बुलबुले हैं ? है यही पानी,
    आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू ?
    मैं न वह जो स्वप्न पर केवलसही करते,
    आग में उसको गला लोहा बनाता हॅू ।
    और उस पर नींव रखता हँू नये घर को,
    इस तरह दीवार फौलादी उठाता हॅू ।
    मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
    कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
    वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
    स्वप्न के भी हाथ मेंतलवार होती है ।
    स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
    रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे है वे ।
    रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
    स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे ।
पर्यावरण समाचार
यूको पर्यावरणीय क्षति के लिए जिम्मेदार नहीं 

    एक अमेरिकी अदालत ने विश्व की भीषणतम भोपाल गैस त्रासदी से भोपाल में पानी और जमीन को हुए नुकसान के लिए यूनियन कार्बाइड को दोषी मानने से इंकार कर दिया है । अदालत ने अपने आदेश में कहा है कि कंपनी के भोपाल संयंत्र से पर्यावरण को हुए नुकसान के लिए न तो यूनियन कार्बाइड और न ही उसके तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन जिम्मेदार है ।
    पिछले दिनों मेनहट्टन के जिला न्यायाधीश जॉन कीना ने १९८४ की भोपाल गैस त्रासदी के कारण मिट्टी और पानी में फैले प्रदूषण के लिए कंपनी को जिम्मेदार बताने वाली याचिका खारिज कर दी । अदालत ने कहा कि पर्यावरण से संबंधित नुकसान की भरपाई का यूनियन कार्बाइड या एंडरसन पर कोई दायित्व नहींहै । संयंत्र के अवशिष्टोंके कारण पेयजल दूषित होने के लिए यूनियन कार्बाइड इंडिया लि. (यूसीआईएल) जिम्मेदार है, न कि पितृ कंपनी यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन (यूसीसी) । अदालत ने यह भी कहा कि पर्यावरण को पहुँची क्षति के लिए राज्य सरकार जिम्मेदार है । परिवादी जानकीबाई साहू व अन्य ने अमेरिकी अदालत में याचिका दायर की थी ।
    याचिका में कहा गया था कि संयंत्र के विषैले तत्वों के जलीय चट्टानों में रिसाव के कारण मिट्टी और पेयजल दूषित हुआ । इससे संयंत्र के आसपास की बस्तियों के रहवासियोंमें बीमारियाँ फैली। अदालत ने अपने फैसले मेंकहा कि इस बात के कोई सबूत नहींमिले हैं कि यूसीआईएल अपनी पितृ कंपनी के लिए कीटनाशक बना रही थी या उसने यूसीसी के नाम का उपयोग करते हुए कोई व्यावसायिक अनुबंध किया अथवा कोई अन्य काम किया । न्यायमूर्ति श्री कीन ने कहा कि ऐसे मेंयूसीसी ने तो सीधे तौर पर और न ही यूसीआईएल के  एक एजेंट के रूप मेंपर्यावरण क्षति की भरपाई के लिए जिम्मेदार है । २-३ दिसम्बर १९८४ की दरमियानी रात में भोपाल में जहरीली गैस-मिथाइल आइसोसइनेट के रिसाव से हजारों लोगों की मौत हो गई थी । यह विश्व और भारत का भीषणतम औद्योगिक हादसा था ।