ज्ञान विज्ञान
कर्क रेखा सरकने से जलवायु पर प्रभाव
कर्क रेखा के दक्षिण की ओर सरकने से जलवायु अधिक निष्ठुर हो चली है । प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक डॉ. जनार्दन नेगी का यह अनुमान सही निकला है । भारत में भीषण गर्मी, चीन में बाढ़, मेक्सिको में तूफान इसके प्रमाण हैं । स्विटरलैंड में गर्मी के मौसम में पिछले दिनों बर्फबारी ने पिछले सौ साल का रिकार्ड तोड़ा है ।
कर्क रेखा सरकने से जलवायु पर प्रभाव
कर्क रेखा के दक्षिण की ओर सरकने से जलवायु अधिक निष्ठुर हो चली है । प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक डॉ. जनार्दन नेगी का यह अनुमान सही निकला है । भारत में भीषण गर्मी, चीन में बाढ़, मेक्सिको में तूफान इसके प्रमाण हैं । स्विटरलैंड में गर्मी के मौसम में पिछले दिनों बर्फबारी ने पिछले सौ साल का रिकार्ड तोड़ा है ।
डॉ. नेगी ने बताया कि सात वर्ष पूर्व अपने इस अनुमान का शोधपत्रों के जरिए सार्वजनिक किया था । उन्होनें बताया कि मौसम कोई भी हो लेकिन उसका रौद्र रूप जलवायु के निष्ठुर होने का संकेत है । आपने बताया कि पृथ्वी की धुरी के झुकाव (टिल्टिंग) के कारण कर्क रेखा दक्षिण की ओर सरक रही है । फलस्वरूप एक ओर कर्क रेखा और उत्तरधु्रवीय वृत्त के बीच का क्षेत्र टेम्परेट जोन (शीतोष्ण कटिबंध) का दायर बढ़ रहा है । इधर, भूमध्य रेखा और कर्क रेखा के बीच का दायरा सिमट रहा है । यही वैज्ञानिकों की चिंता का विषय है । टेम्परेट जोन का बढ़ना ही जलवायु के रौद्र स्वरूप के लिए जिम्मेदार है । डॉ. नेगी बताते हैं कि कर्क रेखा गुजरात के भुज और मेहसाणा से होकर म.प्र मेंमहिदपुर से गुजरती है । महिदपुर ठीक २३.५ डिग्री उत्तर की ओर है, जो पृथ्वी के तिरछेपन का औसत परिमाण है । ताइवान के जिया-यी जिले में १९०८ में कर्क रेखा समरक का निर्माण किया गया था । आज कर्क रेखा की काल्पनिक रेखा उस जगह से १.२७ किमी दक्षिण की ओर सरकी है । इस गति से इसे अहमदाबाद पहुंचने में ४७०० साल लगेंगे ।
डॉ. नेगी कहते है कि कर्क रेखा के सरकने की गति भले ही धीमी है, लेकिन टेम्परेट जोन का दायरा बढ़ने से जलवायु के निष्ठुर होने के संकेत मिलने लगे हैं ।
पर्यावरण के हथियार से दुनिया को नष्ट करने की योजना
दुनिया मेंपरमाणु कार्यक्रम और उसके घातक प्रभाव को लेकर चिंताआें के बीच पर्यावरण को भी हथियार बनाकर दुनिया को नष्ट करने की तकनीक अब तैयार हो गई है । हालाँकि इसे शोध का नाम दिया जा रहा है लेकिन उसके भयानक परिणामों को लेकर दबी आवाज में विरोध शुरू हो चुका है ।
इस खतरनाक त्तकनीक का नाम है हार्प । हार्प यानी हाई फ्रिक्वेंसी एक्टिव एरोरल रिसर्च प्रोग्राम । इसकी मदद से वायुमण्डल की ऊपरी परतों में से एक आयनमंडल या आयनोस्फेयर को समझने और उसके बारे में और जानकारी इकट्ठा की जा रही है । गौरतलब है कि आयनमंडल हमारे वायुमंडल की वह परत है जिसका उपयोग नागरिक और रक्षा नौवहन प्रणाली में किया जाता है । अमेरिकी वायुसेना, नौसेना और अलास्का विश्वविद्यालय के सहयोग से अलास्का के गाकोन में वर्ष १९९० में हार्प कार्यक्रम को प्रारंभ किया गया था । अमेरिका ने अपने इस कार्यक्रम को बेहद गोपनीय रखा है लेकिन इसे लेकर उठने वाले हजारों सवाल के कारण अब हार्प कार्यक्रम की वेबसाईट पर कुछ जानकारी साझा जरूर की गई है । इससे जुड़े सवाल और विवादों से भी वेबसाइट अटी पड़ी है । इस कार्यक्रम को पर्यावरण का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का आरोप लगाया गया है। खुद हार्प कार्यक्रम की अधिकारिक वेबसाइट पर इस तकनीक के बारे मेंबताया गया है कि इस तकनीक में विद्युत चुंबकीय तरंगे वायुमण्डल में उच्च् आवृत्ति के तहत छोड़ी जाती हैं जिससे वायुमण्डल का एक सीमित हिस्सा नियंत्रित किया जा सकता है । इससे बाढ़ की स्थिति पैदा की जा सकती है या फिर तूफान भी लाया जा सकता है ।
प्रागैतिहासिक शार्क से जन्मा हैंमानव
संपूर्ण मानव जाति की उत्पत्ति प्रागैतिहासिक काल की अब विलुप्त् हो चुकी शार्क से हुई है । एक नए शोध के अनुसार मानव की उत्पत्ति तीन हजार लाख साल पुरानी इसी शार्क से हुई है ।
प्राचीनकाल की इस विशाल मछली जिसे वैज्ञानिक भाषा में एकाउंथोड्स ब्रोनी कहा जाता है, इंसानों समेत धरती पर पाए जाने वाले सभी जबड़े एवं पसली वाले जीवों की जनक है । मछलियों के दिमाग के नए सिरे से किए गए अध्ययन के अनुसार २९०० लाख साल पहले इंसानों समेत सभी स्तनधारियों, सरीसृप, पक्षियों, मछलियों की उत्पत्ति आगे चलकर इसी प्राचीन शार्क सेहुई है ।
एकाउंथोड्स का अर्थ यूनानी भाषा में रीढ़ है । ये उस समय की शार्क थी जब प्राचीन शार्क और पहली हड्डी वाली मछली के बीच विभाजन नहीं हुआ था । शार्क की ये प्राचीनतम प्रजाति मानव इतिहास की शुरूआत की एक ऐसी कड़ी है, जिसके जीवाश्म योरप से लेकर उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया तक में पाए गए हैं । इन एक फुट से अधिक लंबी शार्को के दाँत के बदले नुकीले जबड़े होते थे । बड़ी आँखो वाली यें शार्क समुद्र की खोह में रहा करती थी । शिकागों यूनिवर्सिटी के जीव वैज्ञानिक प्रोफेसर माइकल कोट्स के अनुसार एकाउंथोड्स हड्डी वाली मछलियों और शार्को की अब तक उपलब्ध सबसे अंतिम कड़ी है । अध्ययन से पता चला है कि ये शुरूआती मछली आजकल जैसी शार्क सरीखी ही दिखती थी । मौजूदा शार्क समेत आजकल की कार्टिलेज (अस्थी मज्जा) वाली मछलियों में हड्डी का अस्तित्व २५०० लाख साल पहले ही खत्म हो गया था । इसके बाद की मछलियों में लंबी तिकोनी दुम पाई जाने लगी ।
अब प्रयोगशाला में तैयार होगी मानव त्वचा
अब मानव त्वचा भी प्रयोगशाला में तैयार हो सकेगी । इस दिशा में भारतीय डॉक्टरों ने प्रारंभिक सफलता हासिल कर ली है । डॉक्टरों का शोध परवान चढ़ा तो त्वचा का प्रभावित जगह पर प्रत्यारोपण भी संभव हो जाएगा । इससे जली हुई त्वचा में बने दाग-धब्बे को दूर करने में काफी हद तक मदद मिलेगी । इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च से संबंधित इंस्टीट्यूट ऑफ पैथोलॉजी में शोध के पहले चरण का क्लीनिकल ट्रायल पूरा हो चुका है ।
आईओपी के बायोलॉजी प्रयोगशाला के शोधकर्ता डॉ. लक्ष्मण के येरनेनी ने बताया कि इस अध्ययन से जले हुए मरीजों की त्वचा को ठीक करने में डॉक्टरों को मदद मिलेगी । बोन मैरो और कॉड ब्लड सेल्स की तरह मानव त्वचा के अंदरूनी हिस्से में भी कैरेटिनोसाइट्स नामक स्टेम सेल्स पाई जाती है । इन सेल्स मेंउपस्थित कैरेटिन प्रोटीन अपने तरह की कई सेल्स विकसित कर त्वचा को फैलने में मदद करता है । प्रयोगशाला अध्ययन में जले हुए मरीजों की त्वचा से इन सेल्स को लेकर विकसित सेल्स की परत को दोबारा उसी जगह प्रत्यारोपित करने के बाद सफल परिणाम देखा गया । सफदरजंग अस्पताल के बर्न यूनिट के सहयोग से किए गए इस शोध में ४० फीसद जले मरीजों की कैरटिनो-साइट्स को प्रयोगशाला में लाया गया ।
डॉ. लक्ष्मण ने बताया कि प्रयोगशाला में त्वचा बनाने के लिए मरीजों की जली हुई त्वचा से पाँच सेमी हिस्सा लेकर उसकी बायोप्सी जाँच की गई । इसके बाद कल्चर प्रक्रिया का इस्तेमाल कर त्वचा को कल्चर डिश (स्पेशल डिश) में लेकर केमिकल के साथ रिएक्शन कराया गया । इस रिएक्शन की मदद से त्वचा को बढ़ाने में हम सफल हुए ।
डॉ. नेगी कहते है कि कर्क रेखा के सरकने की गति भले ही धीमी है, लेकिन टेम्परेट जोन का दायरा बढ़ने से जलवायु के निष्ठुर होने के संकेत मिलने लगे हैं ।
पर्यावरण के हथियार से दुनिया को नष्ट करने की योजना
दुनिया मेंपरमाणु कार्यक्रम और उसके घातक प्रभाव को लेकर चिंताआें के बीच पर्यावरण को भी हथियार बनाकर दुनिया को नष्ट करने की तकनीक अब तैयार हो गई है । हालाँकि इसे शोध का नाम दिया जा रहा है लेकिन उसके भयानक परिणामों को लेकर दबी आवाज में विरोध शुरू हो चुका है ।
इस खतरनाक त्तकनीक का नाम है हार्प । हार्प यानी हाई फ्रिक्वेंसी एक्टिव एरोरल रिसर्च प्रोग्राम । इसकी मदद से वायुमण्डल की ऊपरी परतों में से एक आयनमंडल या आयनोस्फेयर को समझने और उसके बारे में और जानकारी इकट्ठा की जा रही है । गौरतलब है कि आयनमंडल हमारे वायुमंडल की वह परत है जिसका उपयोग नागरिक और रक्षा नौवहन प्रणाली में किया जाता है । अमेरिकी वायुसेना, नौसेना और अलास्का विश्वविद्यालय के सहयोग से अलास्का के गाकोन में वर्ष १९९० में हार्प कार्यक्रम को प्रारंभ किया गया था । अमेरिका ने अपने इस कार्यक्रम को बेहद गोपनीय रखा है लेकिन इसे लेकर उठने वाले हजारों सवाल के कारण अब हार्प कार्यक्रम की वेबसाईट पर कुछ जानकारी साझा जरूर की गई है । इससे जुड़े सवाल और विवादों से भी वेबसाइट अटी पड़ी है । इस कार्यक्रम को पर्यावरण का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का आरोप लगाया गया है। खुद हार्प कार्यक्रम की अधिकारिक वेबसाइट पर इस तकनीक के बारे मेंबताया गया है कि इस तकनीक में विद्युत चुंबकीय तरंगे वायुमण्डल में उच्च् आवृत्ति के तहत छोड़ी जाती हैं जिससे वायुमण्डल का एक सीमित हिस्सा नियंत्रित किया जा सकता है । इससे बाढ़ की स्थिति पैदा की जा सकती है या फिर तूफान भी लाया जा सकता है ।
प्रागैतिहासिक शार्क से जन्मा हैंमानव
संपूर्ण मानव जाति की उत्पत्ति प्रागैतिहासिक काल की अब विलुप्त् हो चुकी शार्क से हुई है । एक नए शोध के अनुसार मानव की उत्पत्ति तीन हजार लाख साल पुरानी इसी शार्क से हुई है ।
प्राचीनकाल की इस विशाल मछली जिसे वैज्ञानिक भाषा में एकाउंथोड्स ब्रोनी कहा जाता है, इंसानों समेत धरती पर पाए जाने वाले सभी जबड़े एवं पसली वाले जीवों की जनक है । मछलियों के दिमाग के नए सिरे से किए गए अध्ययन के अनुसार २९०० लाख साल पहले इंसानों समेत सभी स्तनधारियों, सरीसृप, पक्षियों, मछलियों की उत्पत्ति आगे चलकर इसी प्राचीन शार्क सेहुई है ।
एकाउंथोड्स का अर्थ यूनानी भाषा में रीढ़ है । ये उस समय की शार्क थी जब प्राचीन शार्क और पहली हड्डी वाली मछली के बीच विभाजन नहीं हुआ था । शार्क की ये प्राचीनतम प्रजाति मानव इतिहास की शुरूआत की एक ऐसी कड़ी है, जिसके जीवाश्म योरप से लेकर उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया तक में पाए गए हैं । इन एक फुट से अधिक लंबी शार्को के दाँत के बदले नुकीले जबड़े होते थे । बड़ी आँखो वाली यें शार्क समुद्र की खोह में रहा करती थी । शिकागों यूनिवर्सिटी के जीव वैज्ञानिक प्रोफेसर माइकल कोट्स के अनुसार एकाउंथोड्स हड्डी वाली मछलियों और शार्को की अब तक उपलब्ध सबसे अंतिम कड़ी है । अध्ययन से पता चला है कि ये शुरूआती मछली आजकल जैसी शार्क सरीखी ही दिखती थी । मौजूदा शार्क समेत आजकल की कार्टिलेज (अस्थी मज्जा) वाली मछलियों में हड्डी का अस्तित्व २५०० लाख साल पहले ही खत्म हो गया था । इसके बाद की मछलियों में लंबी तिकोनी दुम पाई जाने लगी ।
अब प्रयोगशाला में तैयार होगी मानव त्वचा
अब मानव त्वचा भी प्रयोगशाला में तैयार हो सकेगी । इस दिशा में भारतीय डॉक्टरों ने प्रारंभिक सफलता हासिल कर ली है । डॉक्टरों का शोध परवान चढ़ा तो त्वचा का प्रभावित जगह पर प्रत्यारोपण भी संभव हो जाएगा । इससे जली हुई त्वचा में बने दाग-धब्बे को दूर करने में काफी हद तक मदद मिलेगी । इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च से संबंधित इंस्टीट्यूट ऑफ पैथोलॉजी में शोध के पहले चरण का क्लीनिकल ट्रायल पूरा हो चुका है ।
आईओपी के बायोलॉजी प्रयोगशाला के शोधकर्ता डॉ. लक्ष्मण के येरनेनी ने बताया कि इस अध्ययन से जले हुए मरीजों की त्वचा को ठीक करने में डॉक्टरों को मदद मिलेगी । बोन मैरो और कॉड ब्लड सेल्स की तरह मानव त्वचा के अंदरूनी हिस्से में भी कैरेटिनोसाइट्स नामक स्टेम सेल्स पाई जाती है । इन सेल्स मेंउपस्थित कैरेटिन प्रोटीन अपने तरह की कई सेल्स विकसित कर त्वचा को फैलने में मदद करता है । प्रयोगशाला अध्ययन में जले हुए मरीजों की त्वचा से इन सेल्स को लेकर विकसित सेल्स की परत को दोबारा उसी जगह प्रत्यारोपित करने के बाद सफल परिणाम देखा गया । सफदरजंग अस्पताल के बर्न यूनिट के सहयोग से किए गए इस शोध में ४० फीसद जले मरीजों की कैरटिनो-साइट्स को प्रयोगशाला में लाया गया ।
डॉ. लक्ष्मण ने बताया कि प्रयोगशाला में त्वचा बनाने के लिए मरीजों की जली हुई त्वचा से पाँच सेमी हिस्सा लेकर उसकी बायोप्सी जाँच की गई । इसके बाद कल्चर प्रक्रिया का इस्तेमाल कर त्वचा को कल्चर डिश (स्पेशल डिश) में लेकर केमिकल के साथ रिएक्शन कराया गया । इस रिएक्शन की मदद से त्वचा को बढ़ाने में हम सफल हुए ।
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