गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

ऊर्जा जगत

ऊर्जा का भ्रम
रावलिन कौर / टॉम केन्डाल
विश्व की प्राचीनतम सभ्यता की साक्षी गंगा आज विलुप्त् होने के कगार पर है। इस इलाके में कुछ किलोमीटर के अंतराल के पश्चात एक के बाद एक गंगा व सहायक नदियों का प्रवाह मोड़कर विद्युत उत्पादन के प्रयास किये जा रहे हैं । एक ओर जहां हिमालय क्षेत्र की नदियों में इतना पानी ही नहीं बचा है जिससे कि टरबाईन चल सकें वहीं इसके बावजूद निवेशकों द्वारा यहां पर विद्युत परियोजनाआें की स्थापना नए संशय को जन्म दे रही है । टिहरी से पावन गंगौत्री जाने वाले घुमावदार रास्ते पर आपको प्रत्येक पांच सौ मीटर पर अशुभ सूचना देते बोर्ड लगे मिल जाएंगे जिन पर लिखा होता है आगे विस्फोट क्षेत्र है । गंगा के अलौकिक दर्शन को आए श्रृद्धालुआें को इन सूचना पटों के साथ ही बांध गंगा की हत्या है और गंगा को अविरल बहने दो जैसे नारे भी बहुतायत में दिखाई देते है । गंगा अब पनबिजली परियोजनाआें के निशाने पर है । साथ ही इसकी सहायक भागीरथी और अलकनंदा के जलग्रहण क्षेत्र में पचपन पनबिजली परियोजनाआें पर या तो निर्माण जारी है या शीघ्र ही शुरू होने वाला है। गंगोत्री से देवप्रयाग व अलकनंदा तक के १४५ किलोमीटर के हिस्से पर नौ बड़े बांधों के अलावा कई छोटे बांध आकार लेने वाले हैं । इनमें से सबसे ज्यादा ऊँचाई पर है गंगोत्री से मात्र २७ किलोमीटर पर स्थित भैरोंघाटी बांध । इस सारी कवायद को केन्द्रीय प्रदूषण निवारण मंडल के पूर्व सदस्य सचिव जी.डी.अग्रवाल ने अपने नौ दिवसीय उपवास के माध्यम से चुनौती देते हुए मांग रखी थी कि उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच के १२५ किलोमीटर के हिस्से पर कोई परियोजना लागू नहीं की जाये । ऐसा होने पर नदी का प्रवाह बाधित होगा । परंतु उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड के सभापति एवं मुख्यमंत्री के सलाहकार योगेन्द्र प्रसाद का कहना है कि हमारे पास राजस्व के स्त्रोत बहुत सीमित हैं । फिर इनमें हम बाढ़ एवं सिंचाई के लिए जल नियंत्रण भी कर पाएंगे । गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र का मानना है इंजीनियरों को नदी का सिंचाई अथवा विद्युत उत्पादन किए बगैर समुद्र में जा मिलना व्यर्थ प्रतीत होता है । किंतु नदी के नैसर्गिक प्रवाह के साथ इस तरह की छेड़छाड़ के भंयकर परिणाम निकलेगें । नदीजल के समुद्र में मिलने से खारे पानी के फैलाव को रोकने में मदद मिलती है । यह अनिवार्य है , लेकिन दुर्भाग्य से इसे अवैज्ञानिक ठहराया जाता है । फिर हिमालय क्षेत्र में बड़े भूकंप की आशंका को भी तो नकारा नहीं जा सकता । बांध के टूटने के बाद निचले इलाकों की बाढ़ से कैसे रक्षा होगी ? केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का मानना है कि सभी नदियोें के लिए न्यूनतम बहाव का एक ऐसा पूर्व निर्धारित स्तर तय नहीं हो सकता । क्षेत्र विशेष की परिस्थिति के अनुसार ही प्रत्येक मामले में न्यूनतम बहाव का निर्धारण किया जाना चाहिए । पर्यावरण प्रभाव का आकलन की शर्त है कि नदियों में न्यूनतम बहाव कायम रखा जाए । इसका आकलन नदी के बहाव के पिछले ३०-४० वर्षोंा के आंकड़ों के आधार पर करते हैं । परंतु अधिकांश मामलों में इन रिपोर्टस् को गंभीरता से नहीं लिया जाता । डब्ल्यू डब्ल्यू एफ की नीति एवं कार्यक्रम विकास विभाग की वरिष्ठ संयोजक विद्या सुंदरराजन का न्यूनतम बहाव की अवधारणा को सिरे से नकारते हुए कहना है कि इसका आकलन मात्र ेंमनुष्यों की आवश्यकता के लिहाज से किया जाता है । वस्तुत: इसके आकलन के समय पर्यावरण की आवश्यकताआें व भूमिगत जलपुनर्भरण, सिंचाई, शहरी आवश्यकताएं, जलवायु, जलीय ऑक्सीजन मिट्टी का जमाव जैसे मुद्दों पर भी विचार किया जाना चाहिए । ईआयए बांधों में मिट्टी के जमाव के मुद्दे पर भी खामोश है, जबकि जमाव से निपटने का खर्च परियोजना लागत का २० से ३० प्रतिशत तक होता है । मानेरी भाली खख के बैराज में नौ करोड़ टन मिट्टी प्रतिवर्ष बहकर आती है। गंगाा के निचले इलाके व बंगाल की खाड़ी स्थित कृषकों के लिए बहकर आई यह मिट्टी बहुत उपयोगी होती है । किंतु नए बांध इसे वहीं रोक लेंगे । इस मुद्दे पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया है । बांधों की ईआयए रपटों पर अमेरिका की एनवायमेंट लॉ अलायंस वर्ल्डवाइड द्वारा किए गए आकलन के अनुसार मिट्टी का यह जमाव निचले इलाके में गंगा को एक भुखी नदी बना देगा । चूकिं पानी में मिट्टी की कमी होगी अत: निचले इलाकोंमें यह अपनी प्राकृतिक क्षुधा को अपने ही किनारों को काटकर शांत करेगी । इस वजह से जैविक खाद्य श्रंृखला प्रभावित होने से निचले इलाकों में कई किलोमीटर तक मत्स्यपालन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा । राज्य विद्युत मंडल जो इनके प्रमुख ग्राहक हैं को भी नुकसान उठाना पड़ेगा । क्योंकि विद्युत मिले या न मिले वे तो एक निश्चित रकम चुकाने के लिए बाध्य है । सब्सिडी आधारित वर्तमान शुल्क संरचना पनबिजली परियोजनाआें को निवेश के लिए आकर्षक विकल्प तो बनाती है किन्तु उन्हें विद्युत उत्पादन को ऊँचा रखने अथवा संसाधनों के पूर्ण उपयोग हेतु प्रोत्साहित नहीं करती है । विशेषज्ञों का कहना है परियोजना स्थापित करने वाले उद्यमियों की रूचि बहाव और मिट्टी के जमाव के सही आकलन में नहीं होती । योजना बनाते समय बहाव के पुराने आकड़ों का ही उपयोग किया जाता है ऐसे में विद्युत उत्पादन अनुमान से काफी कम होता है । भारत में निगरानीशुदा जलाशयों में गत बारह वर्षोंा के दौरान संग्रहण क्षमता से २५ प्रतिशत तक कम जलभराव हुआ है और प्रति मेगावाट स्थापित क्षमता में १९९४ की अपेक्षा २१ प्रतिशत की कमी हुई है । वास्तविकता यह है कि ज्यादातर बांध और पनबिजली परियोजनाएं गत ५० वर्षोंा के बहाव के आधार पर बनाई गई हैं न कि वास्तविक बहाव और जलवायु एवं बहाव में संभावित परिवर्तन का आकलन करके । दक्षिण एशिया बांध, नदी व व्यक्तियों के नेटवर्क के हिमांशु ठक्कर का कहना है कि परियोजनाआें को इस दावे के आधार पर स्वीकृति मिल जाती है कि वे अवलम्बित स्तर पर ९० प्रतिशत तक विद्युत उत्पादन में समक्ष होंगी । (इसका अर्थ यह भी है कि वे अपने अनुमानित जीवनकाल में क्षमता का ९० प्रतिशत विद्युत उत्पादन करती रहेंगी) इसे डिजाइन जनरेशन भी कहा जाता है । वहीं केन्द्रीय विद्युत प्राधिकारी से प्राप्त् पिछले २३ वर्षोंा के आंकड़े बताते है कि वर्तमान कार्यशील परियोजनाआें में से ८९ प्रतिशत निर्धारित स्तर से कम विद्युत उत्पादन कर रहीं है । हिमालय पर्वतश्रृंखला अपेक्षाकृत नयी है । जिससे यहां बारिश के मौसम मेंं भूस्खलन आदि का खतरा बना रहता है । विस्पोट, खुदाई, सुरंग निर्माण और मिट्टी के बड़ी मात्रा में ढेर लगाने से यह खतरा और बढ़ सकता है । इस क्षेत्र में भूकंप की आशंका भी बनी रहती है । अत: सबसे बड़ा खतरा तो यही है । हालांकि उद्यमियों को इसकी कोई चिंता नहीं है । एनटीपीसी के अधिकारी कहते है कि अब तकनीक बहुत उन्नत हो गई है अत: बांधों को कोई खतरा नहीं है । वहीं नेशनल जिओफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट हैदराबाद के हर्ष गुप्त का प्रश्न है कि बांधों के आसपास के पर्यावरण का क्या होगा ? अगर भूकंप आता है तो नदी मलबे से भर जाएगी और वह जब बांधों में इकट्ठा होगा तो उनका जीवनकाल वैसे ही सिकुड़ जाएगा । इसी संस्थान के वी.पी. डिमारि का कहना है, हिमालय अंचल में चट्टाने ठीक से जमी हुई नहीं है । खासतौर से सतह से थोड़ा नीचे । इसलिए जब सुरंगे खोदी जाएंगी तो ऐसी ढ़ीली चट्टाने भी उसमें मिलने की संभावना है । ऐसे में सुरंग में उपर अगर पर्याप्त् ठोस छत नहीं होगी तो सुरंग के दरकने के खतरे ज्यादा होंगे। स्थानीय निवासियों से किए जाने वाले क्षतिपूरक जमीन और रोजगार के वादे भी पूरे नहीं होते । यहां प्रभावित सत्तर परिवारों में से सिर्फ ३५ लोगों को रोजगार मिला, वह भी चौकीदारी का । इतनी कवायद, विस्थापन, पर्यावरण हास और खतरों को नियंत्रण की कीमत पर भी विद्युत उत्पादन एक सपना ही रह जाता है । त्रुटिपूर्ण नीतियां अक्षम परियोजनों को प्रभावित करेगी । अगर प्रत्येक योजना का अधिकतम लाभ उठाया जाए तो पूरे दृष्यपटल को ही बदल देने वाली योजनाआें की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी । किसी परियोजना को अनुमति देने के पूर्व ही जलवायु परिवर्तन, जल संबंधी आकड़ों ग्लेशियर के पिघलने और विस्तृत तलछट भार संबंधी अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए । योजनाकर्ताआें को यह ध्यान में रखना होगा कि नदी एक महत्वपूर्ण सम्पदा है । ***

३ ग्लोबल वार्मिंग

कार्बन डाईऑक्साइड और जलवायु परिवर्तन
पी. बालाराम
कार्बन डाईऑक्साइड (उज२) बहुत ही साधारण अणु है जिसके बारे में रसायन शास्त्र के प्रारंभिक पाठ्यक्रमों में जानकारी दी जाती है । शिक्षक इसे एक ऐसे उदाहरण के रूप में पढ़ाते हैं जिसके तीनों परमाणु एक ही सीधी रेखा में होते हैं । जिसे लिनियर या रेखीय अणु कहा जाता है । यह पानी (क२ज) जैसे उन समान्य त्रिपरमाण्विक अणुआें से अलग है जिनमें परमाणु एक-दूसरे से झुकी हुई अवस्था में रहते हैं । जैव-रसायन शास्त्र (बायो केमिस्ट्री) में को उज२ प्राणियों की श्वसन प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न एक ऐसा उत्पाद माना जाता है । जो पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया के लिए बेहद ज़रूरी होता है । इस प्रक्रिया में उज२ पानी के साथ जुड़कर ग्लूकोज़ में परिवर्तित हो जाती है । इस प्रकार प्राणी और पौधे अपने अस्तित्व के लिए एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं । भू-विज्ञान में भी पानी में लाइमस्टोन व कार्बोनेट्स के अध्ययन के ज़रिए की उज२उपस्थिति दर्ज होती है । एक वर्णक्रम विशेषज्ञ के लिए उज२ का मतलब है अवरक्त विकिरण (इन्फ्रारेड रेडिएशन) को अवशोषित करने वाला पदार्थ । मैंने वैज्ञानिक के रूप में अपने कैरियर में अक्सर देखा है कि कार्बन हाईऑक्साइड का ज़िक्र अण्विक आकारों, प्रकाश संश्लेषण क्रिया और वर्णक्रम अध्ययन इत्यादि से संबंधित विज्ञान चर्चाआें में होता है, लेकिन यह कभी न सोचा था कि यह अणु एक दिन दुनिया के राजनीतिक व आर्थिक विचार-विमर्श के केंद्र में आ जाएगा । आज दुनिया में बढ़ते वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन के लिए इसे ही ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है । दरअसल, मानव की प्रत्येक गतिविधि के लिए जीवाश्म इंर्धन ज़रूरी बन गया है । जीवाश्म इंर्धन के जलने की क्रिया में कार्बनिक कार्बन ही उज२ में बदलता है जिससे वातावरण में इसका स्तर लगातार बढ़ता जा रहा है । सही-सही कसर तेज़ी से घटते जंगलों ने पूरी कर दी है । जंगलों को उज२ का प्राकृतिक अवशोषक माना जाता है, लेकिन उनके कम होते जाने से वातावरण में उज२ का अवशोषण भी कम हो चला है । उज२ में बढ़ोतरी से धरती से निकलने वाली गर्मी वातावरण से बाहर नहीं जा पा रही है । इसी का नतीजा है ग्लोबल वार्मिंग या वैश्विक गर्माहट । ये दो शब्द आज हर व्यक्ति की जुबान पर रहते हैं । जैसे-जैसे धरती का वातावरण गर्म होग, वैसे-वैसे ग्लेशियर और ध्रुवीय प्रदेशों की बर्फ पिघलेगी । ज़ाहिर है कि महासागरों व नदियों में जल स्तर भी बढ़ेगा और निचले इलाके जलमग्न हो जाएंगे । इसका सबसे ज़्यादा असर गरीब देशों की जनता पर पड़ेगा । ग्लोबल वार्मिंग के अलावा शिक्षित लोगों के शब्दकोष में एक और शब्द जुड़ चुका है - `क्लाइमेट चेंज' यानी जलवायु परिवर्तन । हॉलीवुड फिल्मों में भी अब परमाणु युद्ध से होने वाली बर्बादी के काल्पनिक दृश्यों की बजाय नव-हिमयुग में फंसे महानगरों के दृश्य दिखाए जाने लगे हैं । देखा जाए तो ग्लोबल वार्मिंग के नाम पर एक पूरा उद्योग ही खड़ा हो गया है । इस मुद्दे पर लुभावनी जगहों पर अतंर्राष्ट्रीय सेमीनार आयोजित किए जाने लगे हैं, कुछ देशों द्वारा संधियां या समझौते प्रस्तावित किए जाते हैं तो कुछ उनका विरोध करते हैं । नोबल पुरस्कार भी उन्हें दिए जाने लगे हैं जो बढ़ते जा वैश्विक तापमान के खिलाफ लोगों को आगाह करते दिखाई पड़ते हैं । साथ ही जिओ इंजीनियरिंग (भू-यांत्रिकी) नामक एक नए विषय का भी प्रादुर्भाव हो रहा है । इस प्रकार आज हम शब्दकोष में ग्लोबल वार्मिंग, क्लाइमेट चेंज, जिओ इंजीनियरिंग, कार्बन ट्रेडिंग, कार्बन फुटप्रिंट्स इत्यादि के रूप में नए शब्द देख रहे हैं । इन सभी का उद्भव रसायन शास्त्र और जीव विज्ञान में पाए जाने वाले उज२ में देखा जा सकता है । जलवायु परिवर्तन पर होने वाले प्रत्येक व्याख्यान में वह प्रसिद्ध ग्राफ ज़रूर दिखाया जाता है जिसमें बताया जाता है जिसमें बताया जाता है कि कैसे समय के साथ वातावरण मेंउज२ की मात्रा बढ़ती गई है । इसमें १९५० के दशक के उत्तरार्द्ध मेंउज२ की मात्रा का माप बताया जाता है । सवाल यह उठता है कि आखिर उस दौर में उज२ को इतने सटीक ढंग से नापने की ज़रूरत क्यों पड़ गई थी जब `न्यूक्लियर विंटर' जैसी शब्दावली प्रचलन में थी और `ग्लोबल वार्मिंग' जैसे शब्दों का उदय भी नहीं हुआ था ? हवा मेंउज२ की मात्रा को सबसे पहले १९५० के दशक में मध्य में एक शोध छात्र चार्ल्स कीलिंग ने मापा था । कीलिंग का निधन २००५ में हुआ । कीलिंग ने `पृथ्वी की निगरानी का इनाम व दंड' नामक बेहद पठनीय आलेख में बताया है कि इस विषय में उनकी रूचि उनके गुरू हैरिसन ब्राउन के इस मत से पैदा हुई थी कि भू-विज्ञान में रासायनिक सिद्धांतों को लागू करना उपयोगी होगा । बकौल कीलिंग, `उन्होनंे सुझाया था कि सतही जल और सतह के निकट भूमिगत जल में कार्बोनेट की मात्रा का अनुमान इस आधार पर लगाया जा सकता है कि पानी लाइमस्टोन और वातावरण की कार्बन डाईऑक्साइड के साथ एक संतुलन में रहता है ।'' कीलिंग ने रसायन शास्त्र और भू-विज्ञान को जोड़ने वाली एक परियोजना पर कार्य किया जो उनके लिए `लाइफटाइम' कार्य साबित हुआ । हवा में की उज२ की सांद्रता को नापने वाला उपकरण बनाने के प्रयास का विवरण देते हुए कीलिंग उस युग की यादें ताज़ा करा देते हैं जिसमें सफल प्रयोगों की डिज़ाइनें अक्सर बहुत ही साधारण हुआ करती थी । अपने प्रयोग के लिए कीलिंग ने वर्ष १९१६ की एक डिज़ाइन पर आधारित गैस मैनोमीटर और पांच लीटर की क्षमता वाले दर्जन भर कांच के फ्लास्क का इस्तेमाल किया था । प्रत्येक फ्लास्क को उन्होनें स्टॉप कॉर्क से बंद कर रखा था ताकि उनमें अच्छा निर्वात बन सके । कीलिंग जल्दी ही इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पसाडीना मेंउज२की सांद्रता लगातार परिवर्तनशील थी और इसका कारण मानवीय गतिविधियां थीं । इसे बाद कीलिंग ने प्रशांत महासागर के पास अप्रदूषित हवा के नमूने एकत्र करने के लिए कैलिफार्निया के बिग सुर की यात्रा की । इसके लिए उन्होंने नमूना-चयन की व्यापक रणनीति विकसित की । दशकों बाद कीलिंग ने स्वीकार किया कि उनकी इस रणनीति की संभवत: कोई ज़रूरत ही नहीं थी । तो फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया ? कीलिंग ने इसका बहुत ही मज़ेदार जवाब दिया है: ``मैंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि मुझे उसमें मज़ा आ रहा था। उपकरणों की डिज़ाइन बनाने व उन्हें असेंबल करना मुझे अच्छा लग रहा था । मुझ पर अत्यंत कम समय में कोई नतीजा पेश करने का दबाव नहीं था और न ही मुझे परमाणु ऊर्जा आयोग के समक्ष अपनी गतिविधियों को उचित ठहराने की ज़रूरत थी ।'' कीलिंग की इस बात से मैं चकित हूं कि जो प्रयोग उन्होंने केवल मजें की खातिर किए थे, जलवायु परिवर्तन पर आज हो रहीं व्यापक चर्चाएं उनके उन्ही प्रयोगों के नतीजों पर आधारित हैं। कीलिंग कहते हैं कि यहां कुछ संशयवादी ऐसे भी हैं जिन्हें इस बात पर यकीन ही नहीं है कि दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग नामक कोई समस्या भी है, वहीं कुछ लोगों को इसमें संदेह है कि वातावरण में उज२ की मात्रा में बढ़ोतरी हो रही है । वैसे अब इस बात मे कोई दो राय नहंी है कि कीलिंग और अन्य ने हवा मे उज२ की मात्रा को मापन के लिए जिस प्रणाली का विकास किया थ, वह बिल्ुकल ठोस धरातल पर विकसित की गई थी । आज इस बात पर सहमति बनती जा रही है कि जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और इसलिए जीवाश्म इंर्धन के उपयोग को सीमित करने की गंभीर रणनीति बनाने की जरूरत है ताकि उज२ के उत्सर्जन को कम किया जा सके । यही वह क्षेत्र है जहां सार्वजनिक नीति पर चर्चा करते समय विज्ञान का प्रत्यक्ष प्रभाव नज़र आता है । जलवायु परिवर्तन को लेकर चल रही बहस ने लेखकों व फिल्मकारों को भी आकर्षित किया है । माइकल क्रिकटन ने अपनी पुस्तक स्टेट ऑफ फीयर में जलवायु विज्ञान से सम्बंधित शोध कार्योंा और उनमें संलग्न वैज्ञानिकों को जमकर आड़े हाथों लिया है। जुरासिक पार्क के विपरीत यह किताब हमें कल्पना लोक में नहीं ले जाती है । वहीं, जलवायु परिवर्तन की भयावहता पर ही `एन एंकन्वीनियेंट ट्रूथ' नामक फिल्म बनाई गई है जिसमें अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अलगोर ने भी भूमिका निभाई है । इसमें वे जलवायु परिवर्तन को काबू में करने की ज़रूरत पर भाषण देते हुए दिखाई देते हैं । फ्रीमेन डायसन न्यूयार्क रिव्यू ऑफ बुक्स में जलवायु परिवर्तन पर अपनी समीक्षा में दो पुस्तकों की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं जो वैश्विक नीति और अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों पर केंद्रित है । अपनी समीक्षा के अंत में डायसन लिखते हैं , पूरा मुद्दा वैज्ञानिक नहीं होकर धार्मिक है । दुनिया भर में एक ही धर्मनिरपेक्ष धर्म हैं जिसे हम पर्यावरणवाद कह सकते हैं । इस पर्यावरणवाद के नियम कायदे बच्चें को किंडरगार्टन से लेकर कॉलेजों तक में सिखाये जा रहे हैं । अब तक एक धर्मनिरपेक्षवाद के रूप में समाजवादी ही सबसे आगे थे, लेकिन पर्यावरणवाद ने उसे भी पीछे कर दिया है। पर्यावरणवाद के सिद्धांत मूलत: बेहद ठोस हैं । पर्यावरणवाद ही ऐसा धर्म है जो प्रकृति का सम्मान करना सिखाता है, यह उम्मीदों का धर्म है और इसी में टिके रहने की संभावना है । ग्लोबल वार्मिंग को हम खतरनाक मानें या न मानें, इस धर्म में हम सबकी भागीदारी ज़रूर है । तो क्या वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन को और भी तकनीकी शब्दों में बाध्ंाने का समय आ गया है ? वैज्ञानिक बिरादरी के एक नए शब्द जिओ इंजीनियरिंग का बड़ी तेजी के साथ प्रादुर्भाव होता जा रहा है । इसके तहत यह विचार किया जा रहा है कि क्यों न ऐसी किसी तकनीक का विकास किया जाए जिससे धरती तक पहुंचने वाले सौर विकिरण में ही कमी कर दी जाए । नोबल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक पॉल कर्टज़न द्वारा २००६ में इस सम्बंध में लिखे गए आलेख के बाद तो इस सुझाव की ओर बड़ी तेजी से ध्यान गया है ।कर्टज़न ने स्ट्रेटोस्फेरिक सल्फर इंजेक्शन का सुझाव दिया है । यह ऐसी प्रक्रिया है जिसमें वातावरण की ऊपरी परत से सल्फर डाइऑक्साइड को खुला छोड़ दिया जाता है और फिर वह एक बड़ी मात्रा में माइक्रोमीटर से छोटे आकार के सल्फेट के कणोंमें परिवर्तित हो जाती है । वातावरण में बिखरे सल्फेट के ये कण सौर विकिरण को फिर से अंतरिक्ष की ओर मोड़ देते हैं। इस तरह के कई अन्य सुझाव दिए गए हैं। पर्याप्त् मात्रा में उपलब्ध जीवाश्म इंर्धन ऊर्जा का , बगैर किसी दुष्प्रभाव के, लाभ उठाने की चाहत ने जिओ इंजीनियरिंग को कम्प्यूटर सिम्युलेशंस के लिए बेहद उर्वर क्षेत्र बना दिया है । जिओ इंजीनियरिंग क्षेत्र पर लिखे गए एक आलेख जलवायु परिवर्तन : क्या इसी से दुनिया बचेगी ? में ओ. मार्टिन द्वारा एक बहुत ``ही दिलचस्प विचार पेश किया गया है , मानव ने दिखाया है कि मात्र जिंदगी जीने के प्रयास में वह किस हद तक गुड़ गोबर कर सकता है । लेकिन यह इंजीनियरिंग नहीं है । इंजीनियरिंग में एक लक्ष्य होताहै । '' राष्ट्रसंघ विकास कार्यक्रम ने ``जलवायु परिवर्तन से सामना: अविभाजित विश्व में मानव एकता'' नाम से एक रिपोर्ट तैयार की है । इसके ``खतरनाक जलवायु परिवर्तन से बचाव : असर को कम करने की रणनीति'' नामक अध्याय की शुरूआत गांधीजी के एक उद्धरण से की गई है - ``अगर आप गलत दिशा में जा रहे हैं तो रफ्तार बेमानी हो जाती है ।'' जलवायु परिवर्तन और उससे जुड़े विज्ञान के बारे में पढ़ते हुए मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि कीलिंग से शुरूआत करके हमने कितनी लंबी दूरी तय कर ली है । हम आज उस दुनिया में पहुंच चुके हैं जहां अर्थशास्त्री और राजनीतिज्ञ अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों में कार्बन डाईऑक्साइड का इस्तेमाल एक नई वित्तिय मुद्रा के रूप में कर सकते हैं । ***
केबल टीवी ऑपरेटरों से ले सकते हैं शुल्क वापस सरकार भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) की कुछ नई सिफारिशें मान ले तो सभी इलाकों में केबल टीवी ग्राहकों को भी खराब सेवा और कनेक्शन देने में विलंब आदि के लिए ऑपरेटरों के खिलाफ मासिक शुल्क में छूट का दावा करने का अधिकार मिल जाएगा। ट्राई ने उन इलाकों के ग्राहकों के अधिकारों की भी सुध ली है जहाँ कंडिशनल एस्सेस सिस्टम (कैस) लागू नहीं है । नियामक एजेंसी ने कैस इलाकों के अनुभवों के आधार पर दूसरे इलाकों और डीटीएच सेवाआें में सेवा की गुणवत्ता (क्यूओएस) और ग्राहकों के अधिकारों के बारे में कुछ प्रस्ताव परामर्श के लिए जारी किए हैं । परामर्श के लिए जारी नए प्रस्ताव में कनेक्शन की प्रक्रिया, लगाने, काटने और स्थानंतरित करने की समयावधि, बिल जारी करने और शिकायत निवारण तथा गैस कैस इलाकों में डिजिटल डिकोडर और सेटटॉप बॉक्स लगाने के बारे में दिशा-निर्देशों पर भी सुझाव माँगे हैं । इससे सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को गैर कैस इलाकों में भी सेटटॉप बॉक्स लगाने के विषय में निर्णय लेने में मदद मिलेगी । ट्राई के अनुसार, गैर कैस इलाकों में ६० हजार से अधिक छोटे केबल ऑपरेटर ७.८ करोड़ कनेक्शन संचालित कर रहे हैं । इतने असंगठित बाजार में ग्राहक अधिकार संरक्षण एक चुनौती है ।

४ निजीकरण

पानी के निजीकरण के खतरे
रेहमत
हाल ही में उत्तरप्रदेश विधानसभा द्वारा पारित जल संसाधन प्रबंधन और नियामक आयोग के गठन संबंधी कानून से स्पष्ट हो गया है कि अब देश में पानी का इस्तेमाल भी गरीबों और किसानों की पहुंच से बाहर किया जा रहा है । इस कानून के उल्लंघन को संज्ञेय अपराध माना गया है तथा उल्लंघन करने वाले व्यक्ति अथवा संस्था पर एक लाख तक जुर्माना और एक वर्ष तक की कैद अथवा दोनों सजाएं एक साथ दी जा सकती हैं । नियामक आयोग के अधिकारों में थोक हकदारी , (किसी क्षेत्र विशेष से गुजरने वाली नदी अथवा क्षेत्र में स्थित तालाबों और अन्य जल संसाधनों को एक मुश्त ठेके या एकाधिकार पर देना ) उपयोग की श्रेणी तथा जल दरें निर्धारित करना शामिल है । डेढ़ दशक पूर्व प्रारंभ ढांचागत समायोजन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन से पानी सहित जीवन के लिए जरूरी संसाधन आम जनता से दूर जा रहे हैं। ढांचागत समायोजन कार्यक्रम लागू करवाने हेतु अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों ने लूट समर्थक नीतियां बनाई हैं । विश्व बैंक की जल संसाधन रणनीति (२००२) कहती है कि जल क्षेत्र में बाजार के सिद्धांतों को लागू करने की कोशिश की जाए ताकि जल अधिकार अधिक कीमत चुकाने वालों को हस्तांतरित किया जा सके । वहीं एशियाई विकास बैंक की जल नीति पानी को प्रकृति की देन नहीं बल्कि एक ऐसा संसाधन मानती है जिसका सटीक प्रबंधन होना चाहिए । इसलिए विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक जैसी वित्तीय एजेंसियों ने विभिन्न राज्य सरकारों को जल क्षेत्र सुधार हेतु कर्ज दिए हैं । इन्हीं कर्जो की एक शर्त जल क्षेत्र को राजनैतिक हस्तेक्षप से मुक्त करवाने हेतु नियामक व्यवस्था कायम करवाना भी होती है । उत्तरप्रदेश का जल नियामक आयोग संबंधी कानून भी विश्व बैंक द्वारा आबंटित कर्ज की शर्त के तहत ही बनाया गया है । मध्यप्रदेश सरकार भी विश्व बैंक से ३९.६ करोड़ डॉलर का कर्ज लेकर चंबल, सिंध, बेतवा, केन और टोंस (तमस) नदी कछारों मेंे `मध्यप्रदेश जलक्षेत्र पुनर्रचना परियोजना संचालित कर रही है । चँूकि यह कर्ज भी सेक्टर रिफार्म (क्षेत्र सुधार) के तहत लिया गया है अत: विश्व बैंक ने प्रदेश के जल क्षेत्र में बदलाव हेतु १४ शर्ते रखी है । इन्हीं में से एक शर्त पानी का बाजार खड़ा करने वाले जल नियामक आयोग का गठन करना भी है । इसके द्वारा पानी को निजी हाथों में सौंप दिया जाएगा । विश्व बैंक ने कर्ज दस्तावेज में साफ लिख दिया है कि जलक्षेत्र पुनर्रचना परियोजना (मध्यप्रदेश) का रूपांकन निजी-सार्वजनिक भागीदारी अर्थात निजीकरण को ध्यान मेें रखकर किया गया है तथा जलक्षेत्र सुधार का मुख्य आधार निजीकरण और बाजारीकरण ही होगा । परियोजना के प्रारंभिक लक्ष्यों में १ मध्यम और २५ छोटी सिंचाई योजनाओ का निजीकरण का लक्ष्य तय कर दिया गया है । निजीकरण का प्रमुख उद्देश्य होता है मुनाफा कमाना। पानी की कीमतें अत्याधिक बढ़ने पर जिनके पास पानी खरीदने की क्षमता होगी उन्हें ही पानी मिलेगा । क्रयशक्ति विहीन लोगों को जरूरत का पानी उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी सेवा प्रदाताआें पर नहीं होगी । ऐसे में किसानों और गरीबों के जीने के हक का क्या होगा ? पानी के निजीकरण से नागरिकों के जीने के हक को ही नकार दिया जाएगा। किसानों की आजीविका का आधार ही पानी है । फसल उत्पादन के लिए उन्हें बड़ी मात्रा में (बल्क) पानी की आवश्यकता होती है । यदि वे पूर्ण लागत वापसी के सिद्धांत के अनुसार ऊँची दरों पर भुगतान नहीं कर पाए तो प्रदेश की एक तिहाई आबादी के समक्ष न केवल आजीविका का संकट पैदा हो जाएगा बल्कि इसका नकारात्मक प्रभाव देश की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता पर भी पड़ेगा । मध्यप्रदेश में भी जल नियामक आयोग के गठन के बाद प्रदेश की सीमाआें में उपलब्ध समस्त जल संसाधन (जिनमें निजी कुएं, ट्यूबवेल तथा भूगर्भीय जल भी शामिल है । )जल नियामक आयोग के अधीन हो जाएगें, जिसकी दरें आयोग ही तय करेगा । देश में किसानों की आर्थिक स्थिति इतनी खस्ता है कि वे सिंचाई हेतु ली जा रही बिजली का बिल ही नहीं चुका पा रहे हैं । केन्द्रीय कृषि मंत्री पहले ही छोटी जोतों को अव्यवहारिक बता चुके हैं । ऐसे में यदि किसानों को उनकी खुद की पूंजी/श्रम से तैयार कुआेंऔर ट्यूबवेलों के साथ नदी-नालों के पानी का बिल भी चुकाना पड़ा तो क्या होगा ? सूचना का अधिकार देने वाली मध्यप्रदेश सरकार जल क्षेत्र के नियामक संबंधी मामले में अत्यधिक गोपनीयता बरत रही है । आयोग के गठन संबंधी कानून का प्रारूप मार्च २००७ के भी पहले से तैयार है लेकिन इसे प्रदेशवासियोंसे छिपाया जा रहा है । मंथन अध्ययन केंद्र द्वारा कई बार सूचना के अधिकार के तहत इसे मांगा गया लेकिन हर बार इसे उपलब्ध करवाने से इंकार कर दिया गया । इसके विपरीत महाराष्ट्र में जब इस प्रकार का प्रारूप कानून बना तब सरकार ने कार्यशलाआें के माध्यम से इसका प्रचार कर जनता के सुझाव मांगे थे । वैसे दुनिया में पानी का निजीकरण कोई नई बात नहीं है । सन् १९९९ में लेटिन अमेरिकी देश बोलिविया में पानी का निजीकरण किया गया था । ठेकदार कंपनी एगुअम डेल तुनारी ने अनुबंध के बाद न सिर्फ तीन गुना दाम बढ़ाए बल्कि उसने कुआें और ट्यूबवेलों पर भी कब्जा कर उन पर मीटर लगा दिए थे । पानी की दर वृद्धि से उत्पन्न जनाक्रोश ने वहां गृहयुद्ध की स्थिति निर्मित कर दी थी। बोलिविया की तरह पानी के निजीकरण के अन्य असफल प्रयासें के बाद दुनिया के कई देशेंमें पानी पर समुदाय के अधिकार को न्यायपूर्ण समाज की बुनियाद मानते हुए इसे संवैधानिक अधिकार घोषित किया गया । इन देशों में स्पेन , हॉलैण्ड (यूरोप), दक्षिण अफ्रीका, नाईजीरिया, केन्या , कांगो , इथियोपिया, जाम्बिया, युगाण्डा (अफ्रीका), ईरान, फिलिपिन्स (एशिया), कोलम्बिया, इक्वाडोर, ग्वाटेमाला ,ऊरूग्वे, वेनेजुएला, बोलिविया, क्यूबा और पनामा (अमेरिका महाद्वीप) शामिल है । संभव है भारत में भी निजीकरण का इतिहास दोहराते हुए बाद में इसे लोगों का अधिकार बनाया जाए । लेकिन तब तक देश के अधिकांश किसान या तो खेती से अथवा दुनिया से ही पलायन कर चुके होंगें । ***
पाठकों सेपिछले दिनों प्रदेश विधानसभा के चुनावोंके कारण पर्यावरण डाइजेस्ट की मुद्रक प्रेस की व्यस्तता के कारण पत्रिका का नवम्बर अंक समय पर नहीं निकल पाया , इसका हमें खेद है । यह नवम्बर-दिसम्बर का संयुक्तांक आपकी सेवा में प्रस्तुत है ।प्र. सम्पादक

६ उर्जा जगत

जीवाश्म बनाम जैव इंर्धन
डॉ.अरविंद गुप्त्े
आज दुनिया के सामने खड़े कई संकटों में से शायद सबसे गंभीर संकट ऊर्जा का है । संसार की अधिकांश मशीनें खनिज तेलों पर चलती हैं । इन खनिज तेलों को जीवाश्म इंर्धन भी कहा जाता है क्योंकि वे उन जीवधारियों के शरीरों से बने हैं जो करोड़ों वर्षोंा पहले ज़मीन के नीचे दफन हो गए थे । कोयला भी इसी श्रेणी का पदार्थ है । संसार के ताप बिजली घर इंर्धन के रूप में कोयले या खनिज तेल का इस्तेमाल करते हैं । बढ़ते औद्योगीकरण से बिजली और मशीनों की मांग बढ़ी है ं इसके कारण खनिज तेल और कोयले की खपत भी बढ़ी है । किंतु खनिज इंर्धनों में दो बड़ी खामियां है । पहली तो यह कि उनकी मात्रा सीमित है और ये जल्द ही समाप्त् हो जाएंगे । दूसरी यह है कि इनके जलने से कई ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं जो पृथ्वी का तापमान बढ़ाने में योगदान देती है । इसे ग्लोबल वॉर्मिंग कहते हैं । ग्रीनहाउस गैसों में प्रमुख कार्बन डाइऑक्साइड है । तापमान बढ़ने से पृथ्वी के पर्यावरण में कई ऐसे हानिकारक परिवर्तन होने लगे हैं जिन्हें यदि रोका न गया तो मानव का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। अत: मनुष्य के सामने विकट समस्या है । यदि खनिज इंर्धनों का इस्तेमाल इसी तरह होता रहा तो ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण मानव का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा । मगर यदि खनिज इंर्धनों का इस्तेमाल न करें तो सारे वाहन, सारे हवाई जहाज, सारे कारखाने ठप्प हो जाएंगे । इस दुविधा से निपटने के लिए अब मनुष्य ने ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों की खोज शुरू कर दी है । वैकल्पिक ऊर्जा का सबसे बड़ा और निकट भविष्य में समाप्त् न होने वाला स्त्रोत सूर्य है । इससे प्राप्त् होने वाली ऊर्जा इस मायने में `स्वच्छ' होती है कि इसके उपयोग में ग्रीनहाउस गैसें नहीं बनती । सूर्य का प्रकाश मुक्त होने के कारण इस ऊर्जा का की कोई लागत भी नहीं होती । किंतु दुर्भाग्य से इसकी टेक्नॉलॉजी अभी तक पर्याप्त् रूप से विकसित नहीं हो पाई है । सूर्य के प्रकाश को विद्युत में बदलने के उपकरण इतने सक्षम नहीं हुए हैं कि वे हमारी सारी ज़रूरतों को पूरा कर सकें । फिर इन उपकरणों की लागत भी अभी बहुत अधिक है । ऊर्जा के अन्य वैकल्पिक स्त्रोत पवन ऊर्जा और समुद्र में आने वाले ज्वार-भाटे की ऊर्जा है, किन्तु इनसे प्राप्त् होने वाली ऊर्जा बहुत ही कम होती है । परमाणु ऊर्जा एक ऐसा विकल्प है जो ग्रनीहाउस गैसों को जन्म नही देता और इससे बड़ी मात्रा मेंे ऊर्जा पैदा की जा सकती है, किंतु इसके अपने खतरे हैं । पिछले कुछ वर्षोंा में जैव इंर्धन खनिज इंर्धनों के विकल्प के रूप में उभरे हैं । आंतरिक दहन इंजिन दो प्रकार के जैव इंर्धनों से चलाए जाते हैं- अल्कोहल और खाद्य तेल । अल्कोहल मक्का और शक्कर से बनाया जाता है । इंर्धन के रूप में कोई भी खाद्य तेल इस्तेमाल किया जा सकता है । रोचक बात यह है कि वाहनों के इंजिन सबसे पहले जैव इंर्धनों से ही चलाने का इरादा था । जब रूडॉल्फ डीज़ल ने बीसवीं सदी की शुरूआत में पहला आंतरिक दहन इंजन (जिससे वाहन चलते हैं) बनाया तो उन्होंने इंर्धन के रूप में मूंगफली तेल की ही कल्पना की थी। इसी प्रकार, जब हेनरी फोर्ड ने बड़े पैमाने पर मोटर कारों का उत्पादन शुरू किया था तो उन्होंने अल्कोहल को ही इंर्धन के रूप में देखा था क्योंकि अमेरिका में मक्का की पैदावार खूब होती है और मक्का से अल्कोहल बनाया जा सकता है । किंतु बाद में खनिज तेलों की उपलब्धता सरल हो जाने के कारण जैव इंर्धनों को भुला दिया गया । सत्तर के दशक में खनिज तेल की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई तो जैव इंर्धनों का इस्तेमाल किया जाए तो जीवाश्म इंर्धनों से छुटकारा मिल सकता है । यह कहा गया कि जीवाश्म इंर्धनों के निर्माण में जितनी कार्बन डाईऑक्साइड बनती है, जैव इंर्धनों के निर्माण में उससे कम बनेगी। इसके अलावा जैव इंर्धनों के इस्तेमाल से वाहन भी कम कार्बन डाईऑक्साइड उगलेंगे। जैव इंर्धन का नारा बुलंद करने वालों में एक प्रमुख आवाज़ पर्यावरण में काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनों की थी। १९८७ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें टिकाऊ विकास के लिए जैव इंर्धनों का इस्तेमाल करने की सिफारिश की गई थी । इराक की पहली लड़ाई के बाद जब खनिज तेल की कीमतें बढ़ी त्तब १९९२ में अमेरिका और युरोपीय संघ ने सोचा कि उनके पास आवश्यकता से अधिक जो कृषि उत्पाद हैं उन्हें जैव इंर्धन में बदलने से आयतित खनिज तेल पर उनकी निर्भरता कम की जा सकती है। इसी समय एक और घटना हुई । रियो डी जेनीरों में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित सम्मेलन में ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने के एक प्रमुख हथियार के रूप में जैव इंर्धनों की भूमिका को स्वीकार किया गया । २००२ से २००७ की अवधि में ग्लोबल वॉर्मिंग का हौवा पूरी दुनिया के सिर चढ़कर बोलने लगा । अमेरिका में किसनों का एक सशक्त समूह उभरा जिसे अपनी फसलों को जैव इंर्धन में बदलने से फायदा-ही-फायदा होने लगा था । किंतु युरापीय संघ पर तो जैव इंर्धन की सनक सवार हो गई । हालांकि यह जानी-मानी बात थी कि यदि कृषि योग्य भूमि का बड़ा हिस्सा जैव इंर्धनों के उत्पादन में लगाया गया तो खाद्यान्न की कमी हो जाएगी और उसकी कीमतें तेज़ी से बढ़ेंगी, मगर इसके बावजूद युरोपीय संघ ने जैव इंर्धन को एक मंत्र की तरह जपना शुरू कर दिया । पिछले लगभग एक-डेढ़ साल से जैस-जैसे जैव इंर्धनों के दुष्परिणाम सामने आने लगे, यह सुहाना सपना चूर-चूर होता दिखाई दे रहा है। २००८ में खाद्यान्न की भयंकर कमी के कारण उनकी कीमतों में ऐसी बढ़ोत्तरी हुई है कि पुरी दुनिया में हाहाकार मच गया है । इस कमी का एक प्रमुख कारण खाद्यान्न फसलों की जगह इंर्धन फसलों की बढ़ती खेती है। इसी से जुड़ा हुआ तथ्य यह है कि कई खाद्यान्नों, जिनमें प्रमुख मक्का है, से ईधन बनाया जा रहा है । ग्रीनपीस और फ्रेन्ड्स ऑफ अर्थ जैसे स्वयंसंवी संगठन, जो जैव इंर्धनों के गुण गाते अघाते नहीं थें, वही उनके प्रमुख आलोचक बन गए। ब्राज़ील के वर्षा वन दुनिया के सबसे बड़े वर्षा वन हैं, और ये जैव विविधता के भंडार हैं । इनमें पेड़-पौधों और जंतुआें की ऐसी प्रजातियां पाई जाती हैं जो संसार में अन्यत्र कहीं नहीं मिलतीं। हरे पेड़-पौधे हवा में से कार्बन डाईऑक्साइड लेकर उससे पोषण प्राप्त् करते हैं । अत: पर्यावरण की दृष्टि से वनों का अत्यधिक महत्व होता है, किंतु अब ब्राज़ील के इन वर्षा वनों का सफाया करके इन्ही जगह खेती की जा रही है । इसका कारण रोचक है । अमेरिका मेंे सोयाबीन और मक्का की खेती बड़े पैमाने पर होती है । किंतु जैव इंर्धन के लिए मक्का इस्तेमाल होने के कारण किसानों ने सोयाबीन की जगह मक्का उगाना शुरू कर दिया । इसके फलस्वरूप सोयाबीन की कमी होने लगी और उसकी कीमतें बढ़ने लगी । ब्राज़ील के किसानों ने जंगल साफ करके सोयाबीन उगाना शरू कर दिया । जिस ज़मीन पर पशुपालकों ने जंगलों का रूख किया। पशुआेंं के चरने से और अधिक जंगल नष्ट होने लगे । सन २००७ के केवल अंतिम ६ महिनों में ब्राज़ील के ३००० वर्ग किलोमीटर से अधिक जंगलों का नाश हो चुका था । यही हाल मलेशिया, इंडोनेशिया, आदि अन्य विकासशील देशों के जंगलों का भी हुआ । इंडोनेशिया ने जैव इंर्धन के रूप में पाम ऑइल बनाने हेतु जंगल काटकर पाम के पेड़ लगाना शुरू किया। नतीजा यह हुआ कि सबसे अधिक कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ने वाले देशों में वह इक्कीसवें से तीसरे नंबर पर आ गया। केवल जंगलों का कटना ही पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाला अकेला कारक नहीं है । ब्राजील, इंडोनेशिया और मेलेशिया में जंगलों को जलाकर भी साफ किया गया । इससे निकली ग्रीनहाउस गैसें भी पर्यावरण में फैलीं । इसके अलावा जंगल काटते समय ट्रैक्टरों, ट्रकों और अन्य भारी मशीनों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है । इनसे भी ग्रीनहाउस गैसे निकलती हैं । विडम्बना यह है कि यह दावा भी झूठा साबित होने लगा है कि जैव इंर्धनों के जलने पर कम ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं । साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला है कि यदि इन सब कारकों को गणना में शामिल किया जाए तो मक्का से बने इथेनॉल और खाद्य तेलों से बने डीज़ल जैसे जैव इंर्धनों के इस्तेमाल से खनिज तेलों की तुलना में दुगना प्रदुषण पैदा होता है । केवल शक्कर से बने अल्कोहल (इथेनॉल) के इस्तेमाल से ही कम ग्रीनहाउस गैसे निकलती हैं । यदि कचरे से जैव इंर्धन बनाया जाए तो वह पर्यावरण की दृष्टि से लाभप्रद हो सकता है । किंतु इसकी टेक्नॉलॉजी अभी विकसित नहीं हो पाई है । अब दुनिया के सामने यह समस्या है कि गरीबों का पेट भरने के लिए अनाज पैदा किया जाए या उस अनाज से अमीरों के वाहनों के लिए जैव इंर्धन बनाया जाए। वैसे तो उत्तर स्वत: स्पष्ट है, किंतु जैव इंर्धनों के साथ अब इतने राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक स्वार्थ और दुराग्रह जुड़ गए हैं कि लोग इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं कि स्पष्ट कह दें कि `राजा नंगा हैं'। यदि मक्का से इथेनॉल बनाया जाए तो एक बड़ी कार की टंकी को इथेनॉल से पूरा भरने के लिए जितनी मक्का आवश्यक होगी उतनी मक्का से एक व्यक्ति एक साल तक भरपेट भोजन कर सकेगा। मक्का कहां जाए, इसका फैसला करना ही होगा । ***
विज्ञान और अभियांत्रिकी परिषद् का गठन होगा प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने कहा है कि केंद्र सरकार की अमेरिका के राष्ट्रीय विज्ञान फाउंडेशन की तर्ज पर राष्ट्रीय विज्ञान और अभियांत्रिकी परिषद के गठन की योजना है । इससे शोधार्थियों, अकादमिक संस्थाआें, प्रयोगशालाआें और उद्योगों के लिए निर्बाध वित्तीय सहायता उपलब्ध हो सकेगी । डॉ. सिंह ने पिछले दिनों बैंगलोर में अंतर्राष्ट्रीय पदार्थ विज्ञान केंद्र (आईसीएमएस) को राष्ट्र को समर्पित करने के बाद समारोह में कहा कि परिषद् का भारतीय विज्ञान के रूपांतरण के लिए एक स्वायत्तशाली इकाई के रूप में गठन किया जाएगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि उनकी सरकार विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए वित्तीय सहायता दुगुनी करने के लिए वचनबद्ध है । उन्होंने कहा कि भारतीय विज्ञान के रूपांतरण के लिए इस सहायता के प्रभावी और सृजनात्मक उपयोग के वास्ते एक ब्लूप्रिंट बनाया जाना समय की माँग है । इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने सीएनआर राव विज्ञान सभागार का भी उद्घान किया ।

७ पर्यावरण परिक्रमा

अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भारत की ऐतिहासिक सफलता
पिछले दिनों श्रीहरिकोटा से २२ अक्टूबर को उड़ चले चन्द्रयान-१ ने ८ नवम्बर ०८ शाम ५ बजकर ४ मिनट पर चंद्रमा की कक्षा में पहुँचकर उसका अभिवादन किया । इसी के साथ भारत के पहले ३८६ करोड़ रू. के चन्द्र मिशन की सफलता ने नया इतिहास रच दिया। खास यह है कि दो हफ्तों की चंद्रयान की यात्रा पूरी तरह त्रुटीरहित रही है । यह सफलता इसलिए ऐतिहासिक है क्योंकि अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ के लगभग ३० प्रतिशत मानवरहित मिशन चंद्रमा की कक्षा में पहँुचने के दौरान विफल हो गए । भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अनुसार कक्षा में उसकी बाहरी परिधि में ७५०२ किलोमीटर और भीतरी परिधि में ५०० किमी दूर चक्कर काट रहा है । यह सबसे बड़ी उपलब्धि है । यह काम खतरे से खाली नहीं होता । क्योंकि उस समय धरती और चंद्रमा दोनों का गुरूत्वाकर्षण यान को अपनी ओर खींच रहा होता है । जार-सा भटकाव यान को या तो चंद्रमा या धरती के कक्ष में धकेल सकता है ।चंद्रयान-१ : सफलता के सोपान* २२ अक्टूबर ०८ : ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) सी-११ द्वारा सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र श्रीहरिकोटा से चंद्रयान-प्रथम का सफल प्रक्षेपण ।* २३ अक्टूबर ०८ : चंद्रयान-प्रथम कक्षा विस्तार कर आगे बढ़ा चंद्रयान-प्रथम । पृथ्वी से ७४ हजार ७१५ किमी दूर ।* २५ अक्टूबर ०८ : दूसरी बार कक्षा विस्तार कर आगे बढ़ा चंद्रयान-प्रथम । पृथ्वी से ७४ हजार ७१५ किमी दूर ।* २६ अक्टूबर ०८ : चंद्रयान गहरे अंतरिक्ष में पहँुचा, पृथ्वी से डेढ़ लाख किमी दूर ।२९ अक्टूबर ०८: चंद्रयान की कक्षा चंद्रमा के और करीब पृथ्वी से २ लाख ६७ हजार किमी दूर । * ४ नवम्बर ०८ : चंद्रयान-प्रथम ने पाँचवी कक्षा विस्तार के बाद चंद्रमा के पथ में प्रवेश किया । पृथ्वी से ३ लाख ८० किमी दूर ।* ८ नवंबर ०८ : चंद्रयान-प्रथम का सफलता पूर्वक चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश।एशिया के बड़े शहरों मे सूरज की रोशनी में कमी नई दिल्ली से लेकर बीजिंग तक रात में रोशनी से जगमगाते बड़े शहरों में दिन में धूप की चमक कम हो रही है यानी अँधेरा बढ़ रहा है, हिमालय के ग्लेशियर पहले से कहीं तेजी से पिघल रहे हैं तथा मौसम चक्र और बिगड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र के के एक अध्ययन में यह चेतावनी दी गई है । यह खतरनाक परिवर्तन मुंबई, कोलकाता, बैंकॉक, तेहरान, काहिरा, सिओल, कराची, ढाका और श्ंाघाई में भी फैलने लगा है । इन सभी शहरों के नागरिकों को समान रूप से क्या महसूस होता है, सर्दियाँ अब जल्दी नहीं आती । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की प्रमुख आशिम स्टेनर ने ग्लोबल वार्मिंग पर ताजा रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि जैविक इंर्धन (पेट्रोलियम) और बायोमॉस के जलने के परिणामस्वरूप वातावरणीय भूरे बादलों की तीन किलोमीटर से भी मोटी चादर बन चुकी है । ये भूरे बादल काजल और अन्य मानव निर्मित कणो से बने है । पिछले दिनों जारी यूएनईपी रिपोर्ट में कहा गया है कि नई दिल्ली, कराची, बीजिंग और शंघाई जैसे शहरों में दिन के प्रकाश में यह कमी १० से २५ प्रश तक जा पहँुची है । सबसे बुरे हाल चीनी शहर गुआंगझाऊ के हैं, जहाँ ७० के दशक से ही सूर्य की रोशनी में २० फीसदी की कमी आ चुकी है । रिपोर्ट के अनुसार यदि भारत के लिहाज से देखें तो १९६० से २००० के बीच हर दशक में सूरज की राशनी में दो फीसद की कमी आती चली गई और १९८० से २००४ के बीच यह दोगुनी हो गई । चीन ने १९५० से १९९० के बीच हर दशक मेंसूरज की रोशनी में कमी ३ से ४ प्रतिशत प्रति दशक रही और ७० के दशक के बाद तो यह समस्या बढ़ती ही गई । रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि अरब प्रायद्वीप से लेकर प्रशांत महासागर तक फैले इन बादलों के कारण मौसम परिवर्तन की समस्याएँ भी आ सकती हैं। इन्हीं बादलों के जटिल असर के कारण भारत में जहाँ मानसून की अवधि कम होती जा रही है, वहीं भारत के कुछ हिस्सों तथा दक्षिणी चीन में अतिवर्षां से यह बाढ़ का कारण भी बन रहा है । रिपोर्ट के अनुसार प्रदूषण के कारण फेफडों, दिल और कैंसर के कारण दुनिया भर में करीब तीन लाख ४० हजार लोग बेमौत मर रहे है । इन बादलों से गिरने वाले जहरीले पदार्थोंा से फसलों को हो रहे नुकसान का आकलन किया जा रहा है ।मौसम परिवर्तन से हिमयुग की शुरूआत बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण भविष्य में होने वाला जलवायु परिवर्तन पूरे विश्व के लिए खतरनाक साबित हो सकता है । माना जा रहा है कि जो बदलाव होंगें वे ऐसे क्रांतिकारी होंगें जिसके कारण धरती पर हिम युग से भी भीषण बर्फ जम जाएगी । कनाडा स्थित टोरंटो विश्वविद्यालय और ब्रिटिश वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण धरती के तापमान मेंबढ़ोतरी होगी और इसके परिणामस्वरूप धरती पर नए हिमयुग की शुरूआत हो सकती है । उल्लेखनीय है कि पृथ्वी के उद्भव के शुरूआती दस हजार साल तक हिमयुग था जिसमें पूरे ग्रह पर हर जगह बर्फ ही जमी थी । समुद्री जीवाश्मों और पृथ्वी कक्षा में परिवर्तन पर आधारित शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में फिलहाल रोकथाम की कोई उम्मीद नहीं दिखती इसलिए ग्लोबल वार्मिंग की आशंका निरंतर बढ़ती ही जा रहीहै । डाँ. क्रावली ने बताया कि पहले धरती पर तापमान बढ़ेगा और लंबे समय के बाद इसका परिणाम तापमान में अचानक गिरावट के रूप में देखने को मिल सकती है । भारतीय पर्यावरणविद् नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. आरके पचोरी का कहना है कि माँसाहार भोजन का प्रसंस्करण और उत्पादन ग्रीन हाउस गैसों को सर्वाधिक जन्म देता है । बढ़ते तापमान पर नियंत्रण के लिए शाकाहार की ओर जाना एक बेहतर विकल्प है । डॉ. पाचोरी ने कहा कि इस शताब्दी में १.१ से ६.४ डिग्री सेल्सियस तक तापमान में वृद्धि हो सकती है । गंगोत्री ग्लेशियर सहित हिमालय के ग्लेशियर सहित हिमालय के ग्लेशियरों का पिघलना चिंता का विषय है । उन्होने जलवायु परिवर्तन के लिए विकसित देशों को अधिक जिम्मेदार बताते हुए कहा कि उनके विकास की गतिविधियाँ इस समस्या को और गंभीर बना रही हैं । डॉ. पचौरी ने कहा कि प्राकृतिक सम्पदाआें का अंधाधुध दोहन विनाश की ओर ले जा रहा है । मैदानों में अपनाया जा रहा विलासितापूर्ण जीवन और विकास का मॉडल पहाड़ों के लिए उपयुक्त नही है । उ.प्र. में तुलसी की खेती बनी वरदान ! तुलसी एक देवी और पवित्र पौधा माना जाता है, लेकिन तुलसी की जैविक खेती को लेकर भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में उत्तरप्रदेश का आजमढ़ जनपद अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाता जा रहा है । इस खेती ने आतंकवाद की नर्सरी कहे जाने वाले आजमढ़ के किसानों का जीवन ही बदल दिया है । वैसे तुलसी की जैविक खेती कई राज्यों में होने लगी है , लेकिन इसकी शुरूआत का खेती कई राज्यों में होने लगा है, लेकिन इसकी शुरूआत का श्रेय आजमगढ़ को है । यहाँ की जैविक खेती की जैविक खेती से उत्पादित तुलसी की अमेरिका, जर्मनी, जापान, स्विट्जरलैंड सहित दुनिया के अनेक स्थानों पर आपूर्ति हो रही है । इस खेती ने किसानों को इतना आत्मनिर्भर बना दिया कि इसकी खेती में लगे किसानों ने इसे अपनी नौकरी मान लिया है । अब तक आजमढ़ जिले के किसान रबी, व खरीफ फसलों की रासायनिक खेती पर आत्मनिर्भर थे, लेकिन आजमढ़ शहर के करीब कम्हेनपुर गाँव में जन्में डॉ. नरेन्द्र सिंह ने तुलसी पर शोध क्या किया कि आजमगढ़में कृषि के क्षेत्र में एक नई क्रांति ला दी । डॉ. नरेन्द्र सिंह और जापान से आए भारत मित्रा की वैचारिक समानताआें ने वर्ष २००० में तुलसी की जैविक खेती का सूत्रपात किया । पहले डॉ. नरेन्द्र ने अपने गाँव कम्हेनपुर से अपने ही खेत में इसकी शुरूआत की । पहले ३ वर्षोंा तक खेत को रासायनिक खादों के कुप्रभाव से बाहर किया, फिर शुरू हुआ जैविक खेती में तुलसी के पौधों की बुवाई का सिलसिला । एक करोड़ सालाना आय: इस जैविक खेती के पीछे इन लोगों की यह सोच थी कि एक तो यह नई खेती होगी । दूसरे इस जनपद में बेहाल पड़े किसानों को सफलतापूर्वक आर्थिक ढाँचे में ढालने का संकल्प । यह संकल्प रंग लाया और सहज ६ वर्ष के सफल प्रयासों में कम्हेनपुर गाँव से शुरू हुई खेती आज १३ गाँवों में ७०० एकड़ से अधिक क्षेत्र में हो रही है । इससे यहाँ का किसान लगभग एक करोड़ रूपया सालाना प्राप्त् कर रहा है । यह देख अब अन्य किसानों में भी इसके प्रति रूझान बढ़ रहा है । राजनीतिक रूप से काफी मजबूत, किंतु उद्योग-धंधों की दृष्टि से पूरी तरह शून्य और कृषि के लिहाज से अधिसंख्य ऊसर क्षेत्र, इसे विडम्बना ही कहा जाए । पिछले डेढ़ दशक से अधिक समय से विधानसभा, विधान परिषद, लोकसभा और राज्यसभा में लगभग दो दर्जन जनप्रतिनिधियों की भागीदारी के बाद भी इस जनपद में उद्योग-धंधों के नाम पर कुछ हो न सका । किसानों के लिए `कैश क्राप' के रूप में पैदा होने वाले गन्ने में निरंतर इस कदर गिरावट आई कि अब तो गन्ने की फसल नहीं के बराबर है । उद्योग के नाम पर रही-सही एक चीनी मिल भी बचा न सके । इस वर्ष वह भी पूरी तरह बंद हो चुकी है । ऐसे में इसी जनपद के एक मामूली शोधकर्ता डॉ. नरेन्द्र सिंह के प्रयास ने किसानोंको `कैश क्रेप' के रूप में जैविक खेती विकसित कर आशा की एक नई किरण जरूर जगा दी है । ***

९ ज्ञान विज्ञान

क्या संदिग्ध आतंकवादी जीव विज्ञान न पढ़ें ?




एक ब्रिटिश जज ने फैसला दिया है कि एक संदिग्ध आतंकवादी रसायन और मानव जीव विज्ञान विषयों के हाई स्कूल स्तर के कोर्स नहीं पढ़ सकता । हाईकोर्ट के जज स्टीफन सिल्बर का मत है कि ये पाठ्यक्रम संदिग्ध आतंकवादी को ऐसी क्षमता प्रदान करेंगें कि वह जैविक व रासायनिक हमले कर सकेगा । नाम गुप्त् रखने के लिए उक्त व्यक्ति को ए.ई. नाम दिया गया है । अलबत्ता वैज्ञानिकों को यकीन है कि मानव जीव विज्ञान में हाई स्कूल स्तर का कोर्स शायद ही किसी आतंकवादी को हुनर के रूप में कुछ दे पाएगा । उन्हें नहीं लगता कि यह कोई वास्तविक खतरा है । वैज्ञानिकों को लगता है कि जज का निर्णय इस गलतफहमी पर आधारित है कि हाई स्कूल का रसायन शास्त्र पढ़कर कोई व्यक्ति रासायनिक हथियार बना लेगा । वैसे आजकल इस कोर्स की सारी सामग्री इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध होती है । ए.ई. एक इराकी नागरिक है और उस पर अल कायदा से सम्बंध रखने का संदेह है । २००६ में उसे `नियंत्रण आदेश' के तहत रखा गया है अर्थात उसकी स्वतंत्रता पर कुछ रोक लगाई गई है । कोई भी कोर्स करने से पहले उसे गृह विभाग से अनुमति लेनी होती है । सितम्बर २००७ में उसने हाई स्कूल स्तर के रसायन शास्त्र और मानव जीव विज्ञान के कोर्सोंा में दाखिला लेने की अनुमति चाही । इराक में ए.ई. डॉक्टर के तौर पर ट्रेनिंग ले रहा था और ये कोसई उसकी डॉक्टरी पढ़ाई के लिए जरूरी है गृह विभाग ने उसकी प्रार्थना यह कहकर अस्वीकार कर दी थी कि इस कोर्स की पढ़ाई को आतंकी गतिविधियों में लिए उपयोग किया जा सकता है । ए.ई. ने अदालत के दरवाजे पर दस्तक दी है । उसका दावा है कि ये कोर्स पूरी तरह से हानिरहित है । २१ जुलाई को अदालत ने अपने आदेश में गृह विभाग के दावे को सही ठहराया । अदालत ने यह फैसला एक अज्ञात सुरक्षा अधिकारी (जिसका नाम ु बताया गया है) की गवाही के आधार पर दिया है । न्यायमूर्ति सिल्बर ने कहा है कि इस कोर्स से ए.ई. को ऐसे हुनर प्राप्त् होंगें और ऐसे उपकरणों का उपयोग करने की क्षमता हासिल होगी जिनका उपयोग आतंकी गतिविधियों में किया जा सकेगा। लेकिन वैज्ञानिकों को लगता है कि विश्वविद्यालय स्तर के विद्यार्थियों को भी एंथ््रोक्स रोगाणु की अधिक मात्रा बनाने में परेशानी आती है । उनका जीव विज्ञान कोर्स उन्हें यह सब नहीं सिखाता । सिल्बर ने इराक में हुई ए.ई. की मेडिकल ट्रेनिंग पर भी सवाल उठाया है । उसके वकील का कहना है कि इस कोर्स से ए.ई. को मात्र वह याद करने में मदद मिलेगी जो वह पहले ही सीख चुका है । मगर जज पर इस दलील का कोई असर नहीं हुआ । अब ए.ई. इस फैसले के खिलाफ अपील करने पर विचार कर रहा है । दुनिया का सबसे लंबा कीट दुनिया का अब तक का सबसे लंबा कीट हाल ही में मलेशिया के बोर्नियो द्वीप के जंगलों में से खोजा गया है। कीट का नाम सुनते ही तितलियों, कॉकरोच वगैरह की याद आती है। मगर जो नया कीट मिला है वह पूरे ५६.७ से.मी. लंबा है । यानी आधा मीटर से भी ज्यादा । यह लंबाई तब मापी गई है त उसकी टागों को एक सीध में रखा गया । टांगों को छोड़कर बात करें तो भी वह ३५.७ से.मी. लंबा है । इसे सबसे पहले खोजा था डाबुक चान ने । उनके ही नाम पर इसका नामकरण फोबेटिकस चानी किया गया है । वैसे साधारण भाषा में इसे चान मेगास्टिक कहते हैं । इस प्रजाति का विस्तृत वर्णन तैयार करने व नामकरण का काम ब्रिटिश वैज्ञानिक फिलिप ब्रैग ने किया । यह उन कीटो मे से है जो बिल्कुल टहनी जैसे दिख्ते है । यदि आपको ऐसा कीट दिखेगा तो काृफी संभावना है कि आप इसे कोई तिनका या टहनी मानकर आगे बढ जाएंगे। इससे पहले जो सबसे लंबा कीट ज्ञात था वह भी एक टहनी कीट ही था- फोबेटिकस सिरेटाइपस। उसकी लंबाई चान मेगास्टिक की अपेक्ष१ से.मी. से भी कम थी और यदि सिर्फ शरीर की लंबाई की बात करे तो चान मेगास्टिक पिछले रिकार्डधारी फोबेटिकस किर्बाई से लगभग २ से.मी. लंबा है । फोबेटिकस कीटो की करीब ३०० प्रजातियां पाइंर् जाती हैं । रोचक बात यह है कि पहले के रिकार्डधारी कीट तो हम १०० वर्षोंा से जानते हैं मगर यह वाला अक्टूबर २००८ में ही जाकर हाथ लगा है । वैसे अभी भी हमें इसकी जीवनचर्या के बारे में कुछ नहंी मालूम । ऐसे कीट साधारणतया बरसाती जंगल में वृक्षों की छाया में पाए जाते है । अब इसके तीन प्रादर्श उपलब्ध है और तीनों संग्रहालय में रखे हैं । साईज़ के अलावा इस कीट के अंडे भी कम विचित्र नहीं है । आम तौर पर हम सुनते आए हैं कि बीजों में ऐसी संरचनाएं पाई जाती हैं , जो उनको दूर-दूर तक बिखेरने में सहायक होती हैं । मगर इस मेगास्टिक के अंडों में दोनों तरफ पंखनुमा संरचनाएं होती हैं, जो इसे हवा में उड़कर दूर-दूर तक पहुंचाने में सहायता करती हैं ।पौधों में अलार्म घड़ी पौधों में सुबह होने सेएकदम पहले वृद्धि बहुत तेज़ होती है । तो पौधों को पता कैसे चलता है कि सुबह होने वाली है ? दरअसल उषाकाल में वृद्धि की इस तेजी के लिए पौधों की अंदरूनी घड़ी जिम्मेदार है । इस घड़ी का एक चक्र करीब २४ घंटे का होता है । यह घड़ी सुबह व शाम के समय प्रकाश की मात्रा के अनुसार एडजस्ट भी होती रहती है । इसी घड़ी से तय होता है कि पौधों में शारीरिक क्रियाएं (जैसे पानी का अवशोषण या स्टार्च का विखंडन) सबसे तेज़ कब होगा । सवाल यह है कि पौधे को पता कैसे चलता है कि दिन निकलने वाला है? यह तो काफी समय से पता रहा है कि कुछ जीन्स मिलकर इस घड़ी की लय को निर्धारित करते हैं । मगर अब जीव वैाानिकों ने वे जीन्स खोज निकाले हैं तो पौधे को दिन निकलने की सूचना देकर जगाते हैं । होता यह है कि जागने का यह अलार्म कुछ हार्मेान के निर्माण से शुरू होता है । ये हार्मोन सुबह से कुछ समय पहले बनने लगते हैं । इन हार्र्मोन्स के प्रभाव से पौधें की वृदि्घ प्रेरित होती है। इन हार्मोन्स के निर्माण के लिए ज़िम्मेदार जीन्स की खोज साल्क इंस्टीट्यूट फॉर बायोलॉजिकल स्टडीज़के टॉड माइकल और उनके साथियोंने की है । माइकल व साथियो ने सरसों के पौधों में इन जीन्स का पता लगाया है । उन्होंने चार-चार घंटे के अंतराल पर सरसो के नमूने लिए और उनका विश्लेषण डी.एन.ए. माइक्रो-एक्सरे चिप्स से किया। इससे पता चल जाता है कि उस समय कौन सा जीन्स सक्रिय है । उन्होंने पाया कि ७१ हार्मोन्स के जीन्स सुबह से ठीक पहले सक्रिय होते हैं जबकि पूरी रात निष्क्रिय पड़े रहते हैं । इन ७१ जीन्स के डी.एन.ए. के विश्लेषण में देखा गया है कि इनमें से ५३ जीन्स में एक जैसे खंड थे जो एक खास प्रोटीन से जुड़ने पर हार्मोन्स का उत्पादन करते हैं । यही हार्मोन सरसों की दैनिक घड़ी को अलार्म घड़ी से जोड़ता है । अभी उस प्रोटीन की खोज नहंी हुई है कि इन जीन्स को हार्मोन बनाने को सक्रिय करता है । यदि इस प्रोटीन के उत्पादन को बढ़ाय जा सके या समय से पहले शुरू किया जा सके तो पेड़-पौधे जल्दी `जाग' जाएंगें और उनको वृद्धि के लिए ज्यादा समय मिलेगा । इस तरह उत्पादन बढ़ाया जा सकेगा । इस खोज का यह उपयोग भी हो सकता है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए नए किस्म के पौधे तैयार किए जा सकेंगें । इसके अलावा उन्हीं फसलों को नए-नए क्षेत्रों के अनुकूल बनाने में भी मदद मिल सकती है ।चांद पर बस्ती चांद पर बस्ती बसाने के आसार थोड़े बढ़ गए हैं । स्मार्ट १ मिशन से प्राप्त् ताजा अंाकड़ों के अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों का मानना है कि शायद चांद के शेकलेटन क्रेटर में पानी और बर्फ मिल सकती है । ऐसा इसलिए लगता है कि क्योंकि यह क्रेटर पूर्व में लगाए गए अनुमानों से अधिक पुराना है और इसमें बर्फ एकत्रित होने के लिए कहीं ज्यादा समय मिला होगा । यह आकर्षक निष्कर्ष लूनर एण्ड प्लेनेटरी इंस्टीट्यूट , टेक्सास के वैज्ञानिकों ने क्रेटर की उम्र का पता लगाने के लिए भेजे गए स्मार्ट-१ द्वारा भेजी गई तस्वीरों और सूक्ष्म निरीक्षण परिमाणामों के आधार पर पॉल स्पुडिस के नेतृत्व में निकाला है। चांद के दक्षिणी ध्रुव के नज़दीक स्थित शेकलेटन क्रेटर २० कि.मी. चौड़ा है । इसके अंदर हमेशा छाया होती है क्योंकि इसके ऊपरी किनारों पर सदा धूप रहती है । इसके चलते यह क्रेटर सौर-ऊर्जा से चलने वाले स्टेशन के लिए उपयुक्त स्थान हो सकता है । ***

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

१० सरोकार

विश्व बैंक : विनाश के लिए ऋण
रियाज. के. तैयब
विश्व बैंक मे २३ वर्ष सेवारत् रहे एक जाने-माने पर्यावरण वैज्ञानिक का मानना है कि विश्व बैंक अपनी योजनाआें और नीतियों के कारण मौसम में आ रहे परिवर्तनों के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी है। यह परिवर्तन उसकी यातायात , ऊर्जा, औद्योगिक पशुपालन और अ-वनीकरण की नीतियों द्वारा ग्रीन हाउस गैस के बढ़ते उत्सर्जन का परिणाम है । यह विध्वंसकारी आलोचना तब सामने आई जबकि विश्व बैंक विकासशील देशों में मौसम परिवर्तन संबंधी मसलों के हल हेतु वैश्विक धन उपलब्ध करवाने का प्रमुख स्त्रोत बनने हेतु लालायित है । वह मौसम संबंधित ५ से १० अरब डॉलर का एक कोष स्थापित करना चाहता है । परंतु उसके इस कदम की विकासशील देशों ने संयुक्त राष्ट्र मौसम परिवर्तन ढांचागत सम्मेलन (यू.एन.एफ.सी.सी.सी.) में आलोचना की है । जी-७७ समूह और चीन ने मौसम संबंधित कार्यक्रमों को धन उपलब्धता के लिए विश्वबैंक की ओर मेाड़ने की बजाए स्वयं यू.एन.एफ. सी.सी.सी. के अंतर्गत बहुस्तरीय मौसम कोष की स्थापना की वकालत की है । पर्यावरण वैज्ञानिक राबर्ट गुडलेण्ड ने बैंक की नीतियों और कोष वितरण नीतियों का विश्लेषण करते हुए उन्हें पर्यावरण के लिए विध्वंसक बताया है । उनका कहना है कि बैंक को वास्तव में जो करना होता है वह कमोबेश उसके उलट ही करती है। गुडलेण्ड , जिन्होंने १९७८ से २००१ तक विश्व बैंक में काम किया है ने न केवल बैंक की पर्यावरण सुरक्षा नीतियों की संरचना की है बल्कि उन्होंने विश्व बांध आयोग की स्थापना में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है । भारत की प्रसिद्ध पर्यावरण पत्रिका `डाउन टू अर्थ' में छपे अपने साक्षात्कार में उनका कहना है कि बैंक के अपने निगरानीकर्ताआें ने भी बैंक की नीतियों की आलोचना की है। साथ ही स्वतंत्र आकलन समूह (आई. ई.जी.) ने भी बैंक पर नकारात्मक टिप्पणी प्रकाशित करते हुए बताया है कि किस तरह बैंक टिकाऊ योजनाआें से दूर भाग रही है । अपनी टिप्पणी में कि बैंक के एक अनुषंग अंतर्राष्ट्रीय वित्त निगम (आई.एफ.सी.) तो `लाभों का निजीकरण' पर पर्यावरण हानि की लागत को समाज पर थोप रहा है । दूसरी ओर बैंक का दूसरा अनुषंग अंतर्राष्ट्रीय पुनसर्रचना का विकास बैंक (आई.बी.बार.डी.) पर्यावरण लागत को समाविष्ट करने की बात करता है । बैंक जो कि अपने कथन का ठीक विपरीत करती दिखाई पड़ती है को अपनी अधिकतम वृद्धि दर की रट को भी छोड़ना पड़ेगा । बैंक समूह में पारदर्शिता की कमी की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि बैंक ने यह बताने से इंकार कर दिया कि उसके द्वारा वित्तपोषित संस्थानों से कितनी ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जित होती है ? गुडलेण्ड का कहना है कि विश्व बैंक समूह में इस विषय की अनदेखी करना और सेंसरशीप एक प्रचलित प्रथा है । इसी वजह से बैंक के अध्यक्ष राबर्ट गोइलिक ने एक ऐसे व्यक्ति को अपना जनसंपर्क सलाहकार बनाया है जो कि मौसम परिवर्तन संबंधी वैज्ञानिक दृष्टिकोण को दबाने का जबरदस्त समर्थक है । यह नियुक्ति उन समाचारों के उजागर होने के बाद की गई है जिनमें बताया गया कि बैंक के वरिष्ट प्रबंधन ने मौसम परिवर्तन से संबंधित आंतरिक रिपोर्टोंा और पारम्परिक वनों में हो रही कटाई की रिपोर्ट को सेंसर कर दिया है । ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के हिसाब रखने संबंधी प्रक्रिया के विकास के संबंध में बैंक द्वारा किए गए दावों के बारे में गुडलेण्ड का कहना है कि इसमें अभी बरसों लगेंंगें । गुडलेण्ड कहते है कि जिस मात्रा में विश्व बैंक कोयला, पशुपालन और अ-वनीकरण के लिए धन दे रहा है उससे तो नहीं लगता कि वह जलवायु परिवर्तन को न्यूनतम करने का इच्छुक भी है । बैंक की ऊर्जा नीति पर उनका कहना है कि बैंक ने २००३ में दस वर्ष पूर्व बनाई अपनी उस नीति को पलट दिया है जिसमें कोयला आधारित ताप विद्युत गृहों को धन उपलब्ध कराने पर उसने प्रतिबंध लगाया था । यह प्रतिबंध तब लगाया गया था जबकि स्वतंत्र समीक्षा ने यह अनुशंसा की थी कि पांच वर्षों में इन्हें क्रमबद्ध तरीके से प्रचलन से बाहर किया जाना चाहिए । उन्होंने विकासशील देशों के ऐसे अनेक उदाहरण भी बताए जहां बैंक ने कोयला निर्यात इकाईयों को ऋण दिया है बैंक ने ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन के तीन अन्य प्रमुख स्त्रोतों हाई-वे, अ-वनीकरण और औद्योगिक पशुपालन को भी भरपूर धन उपलब्ध करवाया है । यातायात जो कि विश्व में कुल ग्रीन हाउस गैसों का २५ प्रतिशत उत्सर्जन करता है , में बैंक द्वारा उपलब्ध धन सर्वाधिक प्रश्न खड़े करता है । बैंक की एकतरफा नीति की ओर ध्यान दिलाते हुए उनका कहना है कि उसने इस क्षेत्र के लिए आरक्षित धन का ७५ प्रतिशत हाई-वे निर्माण हेतु उपलब्ध करवाया और रेल्वे को केवल ७ प्रतिशत ? बैंक की एक वर्ष पुरानी अमेजान रणनीति की गोपनीयता की चर्चा करते हुए उनका कहना है कि इसके माध्यम से वनों को जैविक इंर्धन और औद़्योगिक पशुपालन के क्षेत्र में बदला जा रहा है । उन्होंने दावा किया है कि आई.एफ.सी. ने हाल ही में औद्योगिक पशुपालन जो कि ग्रीन हाउस गैसों का दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है के क्षेत्र में २ अरब डॉलर का निवेश किया है । गाय जो कि मिथेन की सबसे बड़ी और जेट जहाज जो कि काबन के सबसे बड़े उत्सर्जक हैं और इन दोेनों का वैश्विक खाद्य संकट और मौसम संबंधी जोखिमों में सर्वाधिक योगदान है से संबंधित योजनाआें से होने वाले उत्सर्जन की मात्रा का आकलन तक बैंक ने नहीं करवाया है । उन्होंनेे बैंक द्वारा जैविक इंर्धन उत्पादन संबंधी योजनाआें को अंधाधुंध मदद के तीन उदाहरण दिए हैं ये हैं -१. दक्षिण पूर्व एशिया में पाम - आईल हेतु वृक्षारोपण हेतु ऋण प्रदान करना यह अ-वनीकरण को बढ़ावा देता है जो कि जलवायु परिवर्तन में सर्वाधिक योगदान देता है ।२. अमेजान वनों में सोया उत्पादन की दो महाकाय योजनाआें को वित्त प्रदान करना । इससे प्राप्त् अधिकांश तेल का उपयोग बायो डीजल के रूप में होगा ।३. मार्च २००८ में अमेजन में ही चीनी-एथेनाल योजना को ऋण प्रदान करने के बाद निजी निवेशकों को भी इस दिशा में प्रोत्साहित करना । ***पर्यावरण के अनुकूल जैविक-शौचालय सुबह-सुबह सड़क के किनारे, रेल की पटरियों पर या धार्मिक स्थलों के आस-पास शौच करते लोग दिख ही जाते है । इसके कारण इन जगहों पर न सिर्फ गंदगी और बदबू फैलती है बल्कि पर्यावरण भी दूषित होता है । गंदे और बदबूदार सार्वजनिक शौचालयों से निजात दिलाने के लिए जापान की एक गैर सरकारी संस्था ने जैविक-शौचालय विकसित करने मेंसफलता हासिल की है । ये खास किस्म के शौचालय गंध-रहित तो हैं ही, पर्यावरण के लिए भी सुरक्षित हैं । विकसित किया गया यह जैविक-शौचालय ऐसे सूक्ष्म कीटाणुआें को सक्रिय करता हैं, जो मल इत्यािदि को सड़ने में मदद करते हैं । इस प्रक्रिया के तहत मल सड़ने के बाद केवल नाइट्रोजन गैस और पानी ही शेष बचते हैं, जिसके बाद पानी को पुर्नचक्रित (री-साइकिल) कर शौचालयों में इस्तेमाल किया जा सकता है ।

११ कविता

पर्यावरण प्रदूषण
नागेन्द्र दत्त शर्मा
ये धरती तो हैं, सभी जीवों - निर्जीवों की जननी ।त्रस्त सब प्रदूषण से , ये सब मानव की करनी ।।उजड़ रहे हैं कहीं पहाड़, तो कहीं वन कट रहे ।कहीं रोक कर जल प्रवाह, बांध वहां बन रहे ।।हो रही वनस्पतियां विलुप्त् , धरा वृक्ष विहीन कहीं ।हो रही नष्ट वन सम्पदा , पशु - पक्षी विहीन कहीं ।।जहरीला धुआें उगले हैं, काली चिमनियां यत्र-तत्र ।असंख्य वाहन छोड़ते हैं, रोज काला धुंआ सर्वत्र ।।कभी लहलहाया करते थे, हरे - भरे खेत जहां-तहां ।इन्सान उगा रहा है अब, कांक्रीट के जंगल वहां ।।मकानों की जैसे , हर तरफ बाढ़ सी आ गयी हो ।मानों सारे खेत-खलिहान, बहा कर ले गयी हो ।।हो गया है छिद्र भी देखो अब तो, ओजोन लेयर में ।आबादी की गाड़ी चल रही हो मानों, टॉप - गीयर में ।।मानव ही कर रहा है, यह तहस-नहस चारों ओर ।लालच में फंसकर मारा उसके प्रपंचों न पूरा जोर ।।फैला होता एक प्रदूषण, तो कोई सही जुगत लगाते ।और अपनी सारी कसर, उसे दूर करने पर निकलवाते ।।ध्वनि , वायु, जल प्रदूषण की तो क्या और क्या न कहें ।जो है विचार तथा भ्रष्टाचार प्रदूषण, उसे अब कैसे सहें ?न समझ आये `नागेन्द्र' कैसे रूकेगा प्रदूषण का तूफान ।ढूंढो कोई मंत्र ऐसा, फूंक दे जो पर्यावरण में पूरी जान ।।***

12 पर्यावरण समाचार

जंगल कटाई के दोषी अफसरों सहित ८ को सजा
म.प्र. के खण्डवा जिले के तेरह वर्ष पुराने चर्चित जंगल कटाई कांड पर विशेष न्यायाधीश (भ्रष्टाचार निवारण) संजय शुक्ला ने ४ शासकीय अधिकारीयों सहित ८ लोगों को विभिन्न धाराआें के तहत दंडित किया है । अभियोजन के अनुसार तत्कालीन कलेक्टर एस के वशिष्ठ ने जिले के ग्राम नंदना की भूमि खसरा नंबर ४४९/१ रकबा १.६८ हैक्टेयर तथा खसरा नंबर ३६१.२, ३६०/१, ३८७/१ व ३८८/१ रकबा ५.९५ पर लगे ३३२ सागौन के वृक्ष तथा अनेक अरकाट के हरे वृक्ष काटने की अनुमति दी थी । इसी प्रकार खसरा नंबर ४०६/२, ४०७, ४०८ की १०.८३ हैैक्टेयर भूमि पर लगे २५४१ सागौन तथा २६४ अरकाट के वृक्ष काटने की अनुमति भी प्राप्त् की गई थी । इन स्वीकृतियों के लिए कलेक्टर ने प्रतिवेदन माँगे थे । आत्माराम मिश्रा, पटवारी भाऊलाल प्रजापति तथा नायब तहसीलदार केएन पाठक ने स्थल निरीक्षण किया था और भूमि को समतल बताते हुए वृक्षों को काटने की अनुशंसा की थी। इसी प्रकार वनमंडलाधिकारी द्वारा प्रतिवेदन माँगे जाने पर वन परिक्षेत्राधिकारी बोदे खाँ ने स्थल निरीक्षण कर उप वनमंडलाधिकारी के माध्यम से प्रस्तुत प्रतिवेदन में कहा था कि संबंधित भूमि से जंगल लगा हुआ है इसलिए पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा । एसडीओ फॉरेस्ट शिवकुमार तिवारी ने राजस्व अधिकारियों, वन विभाग के अधिकारियों के साथ स्थल निरीक्षण कर वृक्षों को काटने की अनुमति देने की अनुशंसा की थी । इस प्रतिवेदन के आधार पर कलेक्टर ने वनों को काटने की अनुमति प्रदान की थी । इस पूरे प्रकरण पर म.प्र. के प्रमुख दैनिक में समाचार प्रकाशित किया था । इस समाचार प्रकाशन के बाद लोकायुक्त ने प्राथमिक जाँच के आधार पर अपराध की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की थी । न्यायाधीश श्री शुक्ला ने फैसले में कहा कि आत्माराम मिश्रा, भाऊलाल प्रजापति, शिवकुमार तिवारी तथा बोदे खाँ ने लोकसेवक होते हुए आरोपीगण को सागौन व अरकाट के वन काटने की अनुमति हेतु अनुशंसा की थी । सह अभियुक्तों को लाभ पहुँचाने के लिए इन्होंने भ्रष्ट आचरण किया है । यह प्रमाणित है कि सबने मिलकर शासन को क्षति पहँुचाने का आपराधिक षड्यंत्र किया है । न्यायाधीश ने एसडीओ राजस्व आत्माराम मिश्रा, पटवारी भाऊलाल प्रजापति, एसडीओ फॉरेस्ट शिवकुमार तिवारी तथा रेंजर बोदे खाँ को २-२ वर्ष सश्रम कारावास व १-१ हजार जुर्माना और हरदा निवासी राजेश सिंह को दोहरे अपराध में २-२ वर्ष सश्रम कारावास तथा ५-५ हजार रूपए जुर्माना तथा निशानिया हरसूद निवासी मेहताबसिंह राठौर, बिलासपुर निवासी रतनसिंह व भोपाल के मनजीत कौर को २-२ वर्ष के कठोर कारावास और ५-५ हजार रूपए के जुर्माने की सजा से दंडित किया है ।म.प्र.मेंजीवाश्म का अवैध कारोबार जारी पश्चिमी म.प्र. में धार जिले के जिस मनावर क्षेत्र को केंन्द्र सरकार को राष्ट्रीय जीवाश्म पॉर्क बनाने के लिए प्रस्ताव बनाने की तैयारी की जा रही है , उस क्षेत्र में अवैध रूप से जीवाश्मों का खनन कर बेचे जाने की शिकायत की गई है । साथ ही बाग क्षेत्र में भी इसी तरह की स्थिति बनी है । शिकायत के अनुसार बड़ी मात्रा में प्रतिदिन यहाँ से जीवाश्म बाहर भेज जा रहा है । इधर पुलिस अधीक्षक ने इस मामले में जाँच करने की बात कही है । जीवाश्म स्थल मप्र में ही नहीं बल्कि दुनिया में छाया रहा था । इसकी वजह यह है कि यहाँ पर १०० से अधिक डायनासोर के अंडे प्राप्त् हुए थे । इसके अलावा पादप जीवाश्म भी यहाँ पर पाए गए । इससे यह सिद्ध हुआ था कि करोड़ों वर्ष पूर्व मनावर व आसपास के क्षेत्र में समुद्र रहा होगा । समुद्री जीवाश्म को लेकर विदेशी विद्वान भी कई बार यहाँ भ्रमण कर चुके हैं । गौरतलब है कि धार जिले में डायनासोर के अंडे प्राप्त् हुए थे । इससे यहाँ पर करोड़ों वर्ष पूर्व के इतिहास के बारे मे खुलासा हुआ है कि ऐसे महत्वपूर्ण स्थल को सुरक्षित किए जाने को लेकर कई बार चिंता की गई, किंतु इस पर मैदानी स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं हो पाई । जीवाश्मों के संरक्षण के लिए कार्यरत् संस्था मंगल पंचायतन् परिषद के विशाल वर्मा के अनुसार क्षेत्र में अवैध रूप से जीवाश्मों का खनन कर उसकी हेराफेरी की जा रहीं है । उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि यह कार्य व्यापक रूप से काफी लंबे समय से किया जा रहा है । *** म.प्र. के खण्डवा जिले के तेरह वर्ष पुराने चर्चित जंगल कटाई कांड पर विशेष न्यायाधीश (भ्रष्टाचार निवारण) संजय शुक्ला ने ४ शासकीय अधिकारीयों सहित ८ लोगों को विभिन्न धाराआें के तहत दंडित किया है । अभियोजन के अनुसार तत्कालीन कलेक्टर एस के वशिष्ठ ने जिले के ग्राम नंदना की भूमि खसरा नंबर ४४९/१ रकबा १.६८ हैक्टेयर तथा खसरा नंबर ३६१.२, ३६०/१, ३८७/१ व ३८८/१ रकबा ५.९५ पर लगे ३३२ सागौन के वृक्ष तथा अनेक अरकाट के हरे वृक्ष काटने की अनुमति दी थी । इसी प्रकार खसरा नंबर ४०६/२, ४०७, ४०८ की १०.८३ हैैक्टेयर भूमि पर लगे २५४१ सागौन तथा २६४ अरकाट के वृक्ष काटने की अनुमति भी प्राप्त् की गई थी । इन स्वीकृतियों के लिए कलेक्टर ने प्रतिवेदन माँगे थे । आत्माराम मिश्रा, पटवारी भाऊलाल प्रजापति तथा नायब तहसीलदार केएन पाठक ने स्थल निरीक्षण किया था और भूमि को समतल बताते हुए वृक्षों को काटने की अनुशंसा की थी। इसी प्रकार वनमंडलाधिकारी द्वारा प्रतिवेदन माँगे जाने पर वन परिक्षेत्राधिकारी बोदे खाँ ने स्थल निरीक्षण कर उप वनमंडलाधिकारी के माध्यम से प्रस्तुत प्रतिवेदन में कहा था कि संबंधित भूमि से जंगल लगा हुआ है इसलिए पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा । एसडीओ फॉरेस्ट शिवकुमार तिवारी ने राजस्व अधिकारियों, वन विभाग के अधिकारियों के साथ स्थल निरीक्षण कर वृक्षों को काटने की अनुमति देने की अनुशंसा की थी । इस प्रतिवेदन के आधार पर कलेक्टर ने वनों को काटने की अनुमति प्रदान की थी । इस पूरे प्रकरण पर म.प्र. के प्रमुख दैनिक में समाचार प्रकाशित किया था । इस समाचार प्रकाशन के बाद लोकायुक्त ने प्राथमिक जाँच के आधार पर अपराध की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की थी । न्यायाधीश श्री शुक्ला ने फैसले में कहा कि आत्माराम मिश्रा, भाऊलाल प्रजापति, शिवकुमार तिवारी तथा बोदे खाँ ने लोकसेवक होते हुए आरोपीगण को सागौन व अरकाट के वन काटने की अनुमति हेतु अनुशंसा की थी । सह अभियुक्तों को लाभ पहुँचाने के लिए इन्होंने भ्रष्ट आचरण किया है । यह प्रमाणित है कि सबने मिलकर शासन को क्षति पहँुचाने का आपराधिक षड्यंत्र किया है । न्यायाधीश ने एसडीओ राजस्व आत्माराम मिश्रा, पटवारी भाऊलाल प्रजापति, एसडीओ फॉरेस्ट शिवकुमार तिवारी तथा रेंजर बोदे खाँ को २-२ वर्ष सश्रम कारावास व १-१ हजार जुर्माना और हरदा निवासी राजेश सिंह को दोहरे अपराध में २-२ वर्ष सश्रम कारावास तथा ५-५ हजार रूपए जुर्माना तथा निशानिया हरसूद निवासी मेहताबसिंह राठौर, बिलासपुर निवासी रतनसिंह व भोपाल के मनजीत कौर को २-२ वर्ष के कठोर कारावास और ५-५ हजार रूपए के जुर्माने की सजा से दंडित किया है ।म.प्र.मेंजीवाश्म का अवैध कारोबार जारी पश्चिमी म.प्र. में धार जिले के जिस मनावर क्षेत्र को केंन्द्र सरकार को राष्ट्रीय जीवाश्म पॉर्क बनाने के लिए प्रस्ताव बनाने की तैयारी की जा रही है , उस क्षेत्र में अवैध रूप से जीवाश्मों का खनन कर बेचे जाने की शिकायत की गई है । साथ ही बाग क्षेत्र में भी इसी तरह की स्थिति बनी है । शिकायत के अनुसार बड़ी मात्रा में प्रतिदिन यहाँ से जीवाश्म बाहर भेज जा रहा है । इधर पुलिस अधीक्षक ने इस मामले में जाँच करने की बात कही है । जीवाश्म स्थल मप्र में ही नहीं बल्कि दुनिया में छाया रहा था । इसकी वजह यह है कि यहाँ पर १०० से अधिक डायनासोर के अंडे प्राप्त् हुए थे । इसके अलावा पादप जीवाश्म भी यहाँ पर पाए गए । इससे यह सिद्ध हुआ था कि करोड़ों वर्ष पूर्व मनावर व आसपास के क्षेत्र में समुद्र रहा होगा । समुद्री जीवाश्म को लेकर विदेशी विद्वान भी कई बार यहाँ भ्रमण कर चुके हैं । गौरतलब है कि धार जिले में डायनासोर के अंडे प्राप्त् हुए थे । इससे यहाँ पर करोड़ों वर्ष पूर्व के इतिहास के बारे मे खुलासा हुआ है कि ऐसे महत्वपूर्ण स्थल को सुरक्षित किए जाने को लेकर कई बार चिंता की गई, किंतु इस पर मैदानी स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं हो पाई । जीवाश्मों के संरक्षण के लिए कार्यरत् संस्था मंगल पंचायतन् परिषद के विशाल वर्मा के अनुसार क्षेत्र में अवैध रूप से जीवाश्मों का खनन कर उसकी हेराफेरी की जा रहीं है । उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि यह कार्य व्यापक रूप से काफी लंबे समय से किया जा रहा है । *** म.प्र. के खण्डवा जिले के तेरह वर्ष पुराने चर्चित जंगल कटाई कांड पर विशेष न्यायाधीश (भ्रष्टाचार निवारण) संजय शुक्ला ने ४ शासकीय अधिकारीयों सहित ८ लोगों को विभिन्न धाराआें के तहत दंडित किया है । अभियोजन के अनुसार तत्कालीन कलेक्टर एस के वशिष्ठ ने जिले के ग्राम नंदना की भूमि खसरा नंबर ४४९/१ रकबा १.६८ हैक्टेयर तथा खसरा नंबर ३६१.२, ३६०/१, ३८७/१ व ३८८/१ रकबा ५.९५ पर लगे ३३२ सागौन के वृक्ष तथा अनेक अरकाट के हरे वृक्ष काटने की अनुमति दी थी । इसी प्रकार खसरा नंबर ४०६/२, ४०७, ४०८ की १०.८३ हैैक्टेयर भूमि पर लगे २५४१ सागौन तथा २६४ अरकाट के वृक्ष काटने की अनुमति भी प्राप्त् की गई थी । इन स्वीकृतियों के लिए कलेक्टर ने प्रतिवेदन माँगे थे । आत्माराम मिश्रा, पटवारी भाऊलाल प्रजापति तथा नायब तहसीलदार केएन पाठक ने स्थल निरीक्षण किया था और भूमि को समतल बताते हुए वृक्षों को काटने की अनुशंसा की थी। इसी प्रकार वनमंडलाधिकारी द्वारा प्रतिवेदन माँगे जाने पर वन परिक्षेत्राधिकारी बोदे खाँ ने स्थल निरीक्षण कर उप वनमंडलाधिकारी के माध्यम से प्रस्तुत प्रतिवेदन में कहा था कि संबंधित भूमि से जंगल लगा हुआ है इसलिए पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा । एसडीओ फॉरेस्ट शिवकुमार तिवारी ने राजस्व अधिकारियों, वन विभाग के अधिकारियों के साथ स्थल निरीक्षण कर वृक्षों को काटने की अनुमति देने की अनुशंसा की थी । इस प्रतिवेदन के आधार पर कलेक्टर ने वनों को काटने की अनुमति प्रदान की थी । इस पूरे प्रकरण पर म.प्र. के प्रमुख दैनिक में समाचार प्रकाशित किया था । इस समाचार प्रकाशन के बाद लोकायुक्त ने प्राथमिक जाँच के आधार पर अपराध की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की थी । न्यायाधीश श्री शुक्ला ने फैसले में कहा कि आत्माराम मिश्रा, भाऊलाल प्रजापति, शिवकुमार तिवारी तथा बोदे खाँ ने लोकसेवक होते हुए आरोपीगण को सागौन व अरकाट के वन काटने की अनुमति हेतु अनुशंसा की थी । सह अभियुक्तों को लाभ पहुँचाने के लिए इन्होंने भ्रष्ट आचरण किया है । यह प्रमाणित है कि सबने मिलकर शासन को क्षति पहँुचाने का आपराधिक षड्यंत्र किया है । न्यायाधीश ने एसडीओ राजस्व आत्माराम मिश्रा, पटवारी भाऊलाल प्रजापति, एसडीओ फॉरेस्ट शिवकुमार तिवारी तथा रेंजर बोदे खाँ को २-२ वर्ष सश्रम कारावास व १-१ हजार जुर्माना और हरदा निवासी राजेश सिंह को दोहरे अपराध में २-२ वर्ष सश्रम कारावास तथा ५-५ हजार रूपए जुर्माना तथा निशानिया हरसूद निवासी मेहताबसिंह राठौर, बिलासपुर निवासी रतनसिंह व भोपाल के मनजीत कौर को २-२ वर्ष के कठोर कारावास और ५-५ हजार रूपए के जुर्माने की सजा से दंडित किया है ।म.प्र.मेंजीवाश्म का अवैध कारोबार जारी पश्चिमी म.प्र. में धार जिले के जिस मनावर क्षेत्र को केंन्द्र सरकार को राष्ट्रीय जीवाश्म पॉर्क बनाने के लिए प्रस्ताव बनाने की तैयारी की जा रही है , उस क्षेत्र में अवैध रूप से जीवाश्मों का खनन कर बेचे जाने की शिकायत की गई है । साथ ही बाग क्षेत्र में भी इसी तरह की स्थिति बनी है । शिकायत के अनुसार बड़ी मात्रा में प्रतिदिन यहाँ से जीवाश्म बाहर भेज जा रहा है । इधर पुलिस अधीक्षक ने इस मामले में जाँच करने की बात कही है । जीवाश्म स्थल मप्र में ही नहीं बल्कि दुनिया में छाया रहा था । इसकी वजह यह है कि यहाँ पर १०० से अधिक डायनासोर के अंडे प्राप्त् हुए थे । इसके अलावा पादप जीवाश्म भी यहाँ पर पाए गए । इससे यह सिद्ध हुआ था कि करोड़ों वर्ष पूर्व मनावर व आसपास के क्षेत्र में समुद्र रहा होगा । समुद्री जीवाश्म को लेकर विदेशी विद्वान भी कई बार यहाँ भ्रमण कर चुके हैं । गौरतलब है कि धार जिले में डायनासोर के अंडे प्राप्त् हुए थे । इससे यहाँ पर करोड़ों वर्ष पूर्व के इतिहास के बारे मे खुलासा हुआ है कि ऐसे महत्वपूर्ण स्थल को सुरक्षित किए जाने को लेकर कई बार चिंता की गई, किंतु इस पर मैदानी स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं हो पाई । जीवाश्मों के संरक्षण के लिए कार्यरत् संस्था मंगल पंचायतन् परिषद के विशाल वर्मा के अनुसार क्षेत्र में अवैध रूप से जीवाश्मों का खनन कर उसकी हेराफेरी की जा रहीं है । उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि यह कार्य व्यापक रूप से काफी लंबे समय से किया जा रहा है । *** म.प्र. के खण्डवा जिले के तेरह वर्ष पुराने चर्चित जंगल कटाई कांड पर विशेष न्यायाधीश (भ्रष्टाचार निवारण) संजय शुक्ला ने ४ शासकीय अधिकारीयों सहित ८ लोगों को विभिन्न धाराआें के तहत दंडित किया है । अभियोजन के अनुसार तत्कालीन कलेक्टर एस के वशिष्ठ ने जिले के ग्राम नंदना की भूमि खसरा नंबर ४४९/१ रकबा १.६८ हैक्टेयर तथा खसरा नंबर ३६१.२, ३६०/१, ३८७/१ व ३८८/१ रकबा ५.९५ पर लगे ३३२ सागौन के वृक्ष तथा अनेक अरकाट के हरे वृक्ष काटने की अनुमति दी थी । इसी प्रकार खसरा नंबर ४०६/२, ४०७, ४०८ की १०.८३ हैैक्टेयर भूमि पर लगे २५४१ सागौन तथा २६४ अरकाट के वृक्ष काटने की अनुमति भी प्राप्त् की गई थी । इन स्वीकृतियों के लिए कलेक्टर ने प्रतिवेदन माँगे थे । आत्माराम मिश्रा, पटवारी भाऊलाल प्रजापति तथा नायब तहसीलदार केएन पाठक ने स्थल निरीक्षण किया था और भूमि को समतल बताते हुए वृक्षों को काटने की अनुशंसा की थी। इसी प्रकार वनमंडलाधिकारी द्वारा प्रतिवेदन माँगे जाने पर वन परिक्षेत्राधिकारी बोदे खाँ ने स्थल निरीक्षण कर उप वनमंडलाधिकारी के माध्यम से प्रस्तुत प्रतिवेदन में कहा था कि संबंधित भूमि से जंगल लगा हुआ है इसलिए पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा । एसडीओ फॉरेस्ट शिवकुमार तिवारी ने राजस्व अधिकारियों, वन विभाग के अधिकारियों के साथ स्थल निरीक्षण कर वृक्षों को काटने की अनुमति देने की अनुशंसा की थी । इस प्रतिवेदन के आधार पर कलेक्टर ने वनों को काटने की अनुमति प्रदान की थी । इस पूरे प्रकरण पर म.प्र. के प्रमुख दैनिक में समाचार प्रकाशित किया था । इस समाचार प्रकाशन के बाद लोकायुक्त ने प्राथमिक जाँच के आधार पर अपराध की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की थी । न्यायाधीश श्री शुक्ला ने फैसले में कहा कि आत्माराम मिश्रा, भाऊलाल प्रजापति, शिवकुमार तिवारी तथा बोदे खाँ ने लोकसेवक होते हुए आरोपीगण को सागौन व अरकाट के वन काटने की अनुमति हेतु अनुशंसा की थी । सह अभियुक्तों को लाभ पहुँचाने के लिए इन्होंने भ्रष्ट आचरण किया है । यह प्रमाणित है कि सबने मिलकर शासन को क्षति पहँुचाने का आपराधिक षड्यंत्र किया है । न्यायाधीश ने एसडीओ राजस्व आत्माराम मिश्रा, पटवारी भाऊलाल प्रजापति, एसडीओ फॉरेस्ट शिवकुमार तिवारी तथा रेंजर बोदे खाँ को २-२ वर्ष सश्रम कारावास व १-१ हजार जुर्माना और हरदा निवासी राजेश सिंह को दोहरे अपराध में २-२ वर्ष सश्रम कारावास तथा ५-५ हजार रूपए जुर्माना तथा निशानिया हरसूद निवासी मेहताबसिंह राठौर, बिलासपुर निवासी रतनसिंह व भोपाल के मनजीत कौर को २-२ वर्ष के कठोर कारावास और ५-५ हजार रूपए के जुर्माने की सजा से दंडित किया है ।म.प्र.मेंजीवाश्म का अवैध कारोबार जारी पश्चिमी म.प्र. में धार जिले के जिस मनावर क्षेत्र को केंन्द्र सरकार को राष्ट्रीय जीवाश्म पॉर्क बनाने के लिए प्रस्ताव बनाने की तैयारी की जा रही है , उस क्षेत्र में अवैध रूप से जीवाश्मों का खनन कर बेचे जाने की शिकायत की गई है । साथ ही बाग क्षेत्र में भी इसी तरह की स्थिति बनी है । शिकायत के अनुसार बड़ी मात्रा में प्रतिदिन यहाँ से जीवाश्म बाहर भेज जा रहा है । इधर पुलिस अधीक्षक ने इस मामले में जाँच करने की बात कही है । जीवाश्म स्थल मप्र में ही नहीं बल्कि दुनिया में छाया रहा था । इसकी वजह यह है कि यहाँ पर १०० से अधिक डायनासोर के अंडे प्राप्त् हुए थे । इसके अलावा पादप जीवाश्म भी यहाँ पर पाए गए । इससे यह सिद्ध हुआ था कि करोड़ों वर्ष पूर्व मनावर व आसपास के क्षेत्र में समुद्र रहा होगा । समुद्री जीवाश्म को लेकर विदेशी विद्वान भी कई बार यहाँ भ्रमण कर चुके हैं । गौरतलब है कि धार जिले में डायनासोर के अंडे प्राप्त् हुए थे । इससे यहाँ पर करोड़ों वर्ष पूर्व के इतिहास के बारे मे खुलासा हुआ है कि ऐसे महत्वपूर्ण स्थल को सुरक्षित किए जाने को लेकर कई बार चिंता की गई, किंतु इस पर मैदानी स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं हो पाई । जीवाश्मों के संरक्षण के लिए कार्यरत् संस्था मंगल पंचायतन् परिषद के विशाल वर्मा के अनुसार क्षेत्र में अवैध रूप से जीवाश्मों का खनन कर उसकी हेराफेरी की जा रहीं है । उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि यह कार्य व्यापक रूप से काफी लंबे समय से किया जा रहा है । ***

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

१ गांधी जयंति पर विशेष

गांधी : लघु पत्रों के महानतम संपादक
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
महात्मा गांधी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महानायक थे। भारतीय जन मानस में उन्होंने अपनी असाधारण देश भक्ति और सत्य एवं अहिंसा के उच्च आदर्शो के कारण महत्वपूर्ण स्थान बनाया, उसीसे वे राष्ट्रपिता कहलाते हैं। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने जिन सत्याग्रहों और आंदोलन का नेतृत्व किया उसकी जानकारी तो सामान्य जन को न्यूनाधिक परिणाम में है, किंतु उनके पत्रकार स्वरुप के बारे में बहुत कम लोग जानते है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत पत्रकारिता से ही की थी। उन्होंने संवाददाता के रुप में कार्य शुरु किया, अखबारों में लेख लिखे बाद में साप्ताहिक पत्रों का संपादन किया। गांधीजी ने कभी कोई बड़ा दैनिक पत्र नहीं निकाला एक अर्थ में वे लघु पत्रों के महानतम संपादक थे। लेखक के रुप में उनकी विश्व व्यापी ख्याति है, जीवन और साहित्य में उनकी लेखनी की धारा समान है। यह एक संयोग ही था कि गांधीजी ने अपना पत्रकार जीवन एक स्वतंत्र लेखक के रुप में प्रारंभ किया था। चढ़ती वय में जब वे लंदन में कानून का अध्ययन करने गये तो उन्होंने भारत की समस्या पर वहीं दैनिक टेलीग्राफ और डेलीन्यूज में समय समय पर लिखना आरंभ कर दिया था। दक्षिण अफ्रीका में भी उन्होंने भारतीयों पर होने वाले अत्याचारों के बारे में भारत से प्रकाशित टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दू तथा अमृत बाजार पत्रिका और स्टेट्समेन आदि पत्रों में अनेक लेख लिखे थे। इस प्रकार भारतीय पत्रकारिता जगत के वरिष्ठ लेखकों से उनका सीधा जुड़ाव हो गया था। एक बार गाँधीवादी विचारक आर.आर. दिवाकर ने कहा था कि गांधी कदाचित् उस अर्थ में पत्रकार नहीं थे जिस अर्थ में हम पत्रकार की परिकल्पना आज करते हैं, क्योंकि गांधीजी का मिशन मातृभूमि की मुक्ति का मिशन था ।इस मिशन में उन्होंने पत्रकारिता को एक आयुध की तरह प्रयुक्त किया था। पत्रकारिता उनके लिए व्यवसाय नहीं थी बल्कि जनमत को प्रभावित करने का एक लक्ष्योन्मुखी प्रभावी माध्यम था। गाँधीजी ने इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया, और हरिजन जैसे ऐतिहासिक पत्रों का संपादन किया था। दक्षिण अफ्रीका में जब वे इंडियन ओपिनियन साप्ताहिक का प्रकाशन कर रहे थे तो उन्होंने लिखा था पत्रकारिता को मैने पत्रकारिता की खातिर नहीं अपनाया है, बल्कि मेने इसे एक सहायक के रुप में स्वीकार किया है जिससे मेरे जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने से सहायता मिले। मैं अपने चिन्तन को आचरण में ढालकर जो कुछ देना चाहता हँू, उसमें पत्रकारिता के माध्यम से सहायता मिलेगी। पत्रकारिता के अपने उद्देश्य की उद्घोषणा उन्होंने इन शब्दों में स्पष्ट कर दी थी। गांधीजी ने विभिन्न, सत्याग्रहों और आंदोलनों के सिलसिले में जनमत को प्रभावित करने के लिए समाचार पत्रों का बड़ा प्रभावशाली उपयोग किया था। सन् १९०४ में जब उन्होंने इंडियन ओपिनियन का प्रकाशन हिन्दी, गुजराती, उर्दू और अंग्रेजी भाषाआें में प्रारंभ किया तो पत्र के इन संस्करणों ने जनचेतना को प्रभावित करने का बड़ा काम किया। इंडियन ओपिनियन के माध्यम से उन्होंने टालस्टाय, लिंकन, ईश्वरचंद विद्यासागर जैसे महापुरुषों पर न केवल प्रेरक लेख लिखे बल्कि भारत में वीर-वीरांगनाआें और संत महात्माआें के विषय में भी पाठकों को काफी जानकारी दी। भारत लौटने पर गांधीजी ने बम्बई से सत्याग्रह का प्रकाशन शुरु किया। इसके पहले ही अंक में उन्होंने रॉलेट एक्ट का तीव्र विरोध किया। बम्बई में अंग्रेजी साप्ताहिक यंग इंडिया के प्रकाशन की योजना बनने पर गांधीजी से उसके सम्पादन का दायित्व संभालने का भी आग्रह किया गया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। उसी प्रकाशन के अंतर्गत ७ अक्टूम्बर १८९१ से गुजराती मासिक नवजीवन का प्रकाशन प्रारंभ किया गया। परन्तु इन सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध पत्र था हरिजन। ११ फरवरी १९३३ को घनश्याम दास बिड़ला की सहायता से हरिजन का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ और गांधीजी ने जो उस समय सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में पूना में जेल में थे, वहीं से पत्र का संचालन करते थे। इस पत्र के संपादक के रुप में आर.वी. शास्त्री का नाम छपना प्रारम्भ हुआ। हरिजन के माध्यम से गांधीजी ने हरिजनोद्धार और ग्रामीण उद्योगों के विकास का सन्देश दिया। जब सरकार की ओर से १८ अक्टूबर १९३९ को उन्हें यह चेतावनी दी गई कि हरिजन में प्रकाशित सत्याग्रह के समाचार बिना सक्षम अधिकारी को दिखाए प्रकाशित नहीं करेे, तो गांधीजी ने इसे प्रेस की स्वाधीनता पर आक्रमण माना और १० नवंबर १९३८ को उन्होंने पाठको से बिदा मांग ली। कुछ समय बाद हरिजन का प्रकाशन फिर प्रारंभ हो गया और वह अगस्त आंदोलन का संदेशवाहक बन गया। सन् १९४२ में जब गांधीजी जेल में थे, तो बम्बई सरकार ने हरिजन पर प्रतिबंध लगा दिया और नवजीवन प्रेस से प्रकाशित साहित्य को नष्ट करने का आदेश दिया तो गाँधीजी ने इसके विरुद्ध अलख जगाये रखा इसके पीछे उनकी यही भावना थी कि वे जनता के साथ अपना सीधा संवाद कर सके और जो कुछ वे व्यक्त कर रहे हैं, उनका सीधा उत्तरदायित्व ले सके। गांधीजी ने अपने किसी भी समाचार पत्र में कभी भी विज्ञापन स्वीकार नहीं किये। गाँधीजी ने १ फरवरी १९२२ को वायसराय को अपने पत्र में लिखा था कि देश के सामने सबसे बड़ा कार्य उसे पक्षपात से बचाकर उसकी अभिव्यक्ति की स्वाधीनता की रक्षा करना है। वे वाणी की स्वाधीनता के हमेशा पक्षधर रहे, किंतु उनकी अनुशासित और संयम से नियंत्रित वाणी थी। १ जुलाई १९४० को हरिजन में अपने एक लेख में उन्होंने लिखा था कि दक्षिण अफ्रीका में जब उन्होंने इंडियन ओपिनियन प्रकाशित किया था, इस पत्र में पाठकों को लोगों की कठिनाईयों से सूचित करते थे। वे कहते थे कि समाचार पत्र में शास्त्रीय विवेचनाआें के लिए उनके पास समय नहीं है। गांधीजी ने इसे स्वीकार किया था कि सत्याग्रही लोगों को संगठित करने और उनका मार्ग प्रशस्त करने में इंडियन ओपिनियन ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। गांधीजी ने जितने भी पत्र संपादित किये उनकी एक विलक्षणता यह थी कि उनकी भाषा बहुत सरल होती थी। गाँधी का मार्ग सत्यान्वेषण का कंटकाकीर्ण पथ था, उन्होंने बड़े से बड़ा संकट मोल लेकर भी सत्य का उद्घाटन किया। किंतु इसके साथ ही वे दूसरों के विचारों के प्रति भी बहुत सहिष्णु थे। यह उल्लेखनीय है कि गांधीजी ने जननायक होने के नाते एक सम्पादक के रुप में बड़े संयम और उत्तरदायित्व के साथ काम किया। २ जुलाई १९२५ को उन्होंने यंग इंडिया में लिखा था कि मैं कभी क्षुब्ध होकर नहीं लिखता। किसी के प्रति मनोमालिन्य का भाव लेकर नहीं लिखता, मैं लोगों की भावनाआें को उत्तेजित करने के लिए भी नहीं लिखता । पाठकों के लिए यह कल्पना कठिन है कि प्रति सप्ताह मैं कितने संयम से काम ले पाता हूंू। विषयों का चुनाव करने और उन्हें उपयुक्त शब्दों में व्यक्त करने में कितना अनुशासित रहना होता हैं एक प्रकार से इसके जरिये मेरा प्रशिक्षण होता है। अक्सर मेरा अहंकार कुछ ऐसा अभिव्यक्ति करना चाहता है, जिससे आक्रोश को व्यंजना हो और उसके लिए किसी कठोर विशेषण का उपयोग आवश्यक हो जाता है। इसीलिये उसे धैर्यपूर्णक कॉंट-छाँटकर और भाषा को तराशकर इन सब दुर्गुणों से बचना पड़ा कठिन मानसिक व्यायाम होता है। यंग इंडिया का हर शब्द सुचिन्तित होता था । गांधीजी ने स्वयं कहा था कि यंग-इंडिया को पढ़कर लोग सोचते होंगे कि वह वृद्ध कितना सदाशयता पूर्ण हैं पर उन्हें यह पता नहीं कि मैं कितनी प्रार्थनाएं करके और कितने संयम के साथ भाषा को वह स्वरुप प्रदान करता हँू। गांधीजी भले ही व्यवसाय से पत्रकार न रहे हों, किंतु उन्होंने अपनी लेखनी का जिस उत्तरदायित्व के साथ उपयोग किया था और जैसे संयम और अनुशासन का उन्होंने अपने संपादन में उपयोग किया था, वह आज दुर्लभ है। गांधी की जैसी सरल भाषा और सहज सम्प्रेषणीयता पत्र कारिता में आज भी आदर्श हैै। आज तो इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ गयी है । प्रेस की स्वतंत्रता के लिए गांधीजी को काफी संघर्ष करना पड़ा। वे मानते थे कि पत्र और पत्रकारिता का उद्देश्य है कि वह जनता की भावनाआें को समझे और तद्नुसार उनको अभिव्यक्त करे तथा समाज और सरकार में जो दोष दिखाई दे, उनका निर्भिकता से भण्डाफोड करें इन्हीं उद्देश्यों के लिए उन्होंने पत्र निकाले। सन् १९३९ में उनके पत्रों पर लगाये गये प्रतिबंध के उत्तर में उन्होंने लिखा था मेरे साप्ताहिक सत्य को उजागर करने के लिए निकाले जाते हैं यदि प्रेस की स्वतंत्रता पर इस तरह प्रहार किया जावेगा तो मैं उसे नहीं मानँूगा उसका विरोध करुंगा। इस प्रकार एक जिम्मेदार पत्रकार/संपादक की भूमिका गाँधी ने सफलता पूर्वक निभाई है । इसलिए एक महानतम पत्रकार/समपादक के रूप में गाँधी हमेशा याद किये जायेंगें । ***

२ सामयिक

वापस लौटने का क्षण
सतीश कुमार
जैनदर्शन की सबसे मूल्यवान धरोहर प्रतिक्रमण है । यह आत्मचिंतन का व्याकरण भी है । इसेआजकल एक तकनीक की तरह अपनाना प्रारंभ कर दिया गया है । परंतु प्रतिक्रमण अपने आप में पूर्ण चिंतन की धारा है । बढ़ते उपभोक्तावाद से नष्ट होते विश्व को बचाने का एकमात्र सूत्र स्वयं पर संयम ही है । इन दिनों चारों तरफ निराशा है। वैज्ञानिक पर्यावरणवादी व मौसम विज्ञानी सभी यही दावा कर रहे हैं कि प्रलय करीब है और मानव सभ्यता अपने विनाश की ओर बढ़ चली है । एक के बाद एक आने वाली नई किताबें हमें बताती हैं कि हमने उस चरम बिंदु को पार कर लिया है और हम एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गए हैं जहां से लौटने का कोई रास्ता नहीं है । हमारा आसमान कार्बन डाईआक्साइड जैसी जहरीली गैसों से भर गया है और वातावरण ग्रीनहाउस गैसों से । हमें यह भी बताया जाता है कि हमारी यह धरती गरम हो चली है । अब हम चाहे कुछ भी कर लें, इस बढ़ते तापमान को कम नहीं कर सकते । इस बढ़ते तापमान से उत्तरी-दक्षिणी ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी और समुद्रों का जल-स्तर ऊपर उठेगा । इससे समुद्र किनारे बसे देश, शहर, गांव सभी डूबेगें । यह अमीर-गरीब का अंतर नहीं देखेगा । लंदन भी डूबेगा और बंबई भी । पिछले वर्षोंा में जो अमेरिका के न्यू आरलीन्स में हुआ, वहीं न्यूयार्क में भी होगा । उड़ीसा, आंध्र, बंगाल, म्यांमार (बर्मा) बंगलादेश सभी जगह समुद्री तूफान तेजी से उठेंगे । धरती का गरम होना अब रूक नहीं पाएगा । विशेषज्ञों व कार्यकर्ताआें द्वारा भयावहता की एक जैसी तस्वीर प्रस्तुत की जा रही है । बढ़ते तापमान के इस संकट की भयावहता को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते । हम उन वैज्ञानिकों का आदर करते हैं जो भविष्य को मानवता के लिए खतरनाक बता रहे हैं । हमारी वर्तमान जीवनपद्धत्ति जीवाश्म इंर्धन, पेट्रोल पर इस कदर निर्भर है कि अब हम कगार तक पहुंच चुकी है । यानी यदि हम जरा भी आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से खाई में जा गिरेंगे । इसलिए ऐसे में हमारे पास वापस लौटने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है । तो आइए, हम इसे वापस लौटने का क्षण कहें । अब हमें ऐसी जीवनपद्धति की ओर लौटना ही होगा जो पेट्रोल की खतरनाक निरर्भरता से मुक्त हो । फिलहाल, हम अपनी यात्राआें, पास-दूर, आने-जाने, खाने-पीने पर, कपड़े-लत्तों पर, मकान,प्रकाश और तो और मनोरंजन पर भी प्रति दिन लाखों-करोड़ों लिटर पेट्रोलियम पदार्थ फूंकते रहते है । ऐसी जीवनपद्धति, हम सबके जीने का यह तरीका न केवल बेकार है, बहुत अस्थिर है, डगमग है बल्कि खतरनाक भी है । जिस पेट्रोल के खजाने को जमा करने में प्रकृति को कोई बीस करोड़ वर्ष लगे थे उसे हम मात्र २०० वर्षोंा के भीतर ही लगभग समाप्त् कर चुके हैं । जिस गति से हम पेट्रोल, गैस के इस दुर्लभ खजाने को लुट रहे हैं वह जरा भी ठीक नहीं कहा जा सकता है । यह न्यायसंगत नहीं है । आज नहीं तो कल हमें वापस लौटना ही होगा । इस वापसी के बिंदु के लिए संस्कृत में एक सुंदर शब्द है : प्रतिक्रमण । यह अतिक्रमण शब्द का ठीक उल्टा है । अतिक्रमण का अर्थ है अपनी स्वाभाविक सीमाआें से बाहर निकल जाना। जब हम किसी अटल नियम को तोड़ते है तों वह अतिक्रमण कहलाता है। इसके ठीक उल्टा है प्रतिक्रमण : किसी क्रिया के केन्द्र की ओर या मन की आवाज के स्त्रोत बिंदु की ओर लौटना ही प्रतिक्रमण है । संस्कृत के ये दोनों शब्द हमारे संकट व उससे उभरने के संभावित रास्ते को समझने के लिए उपयोगी दृष्टि उपलब्ध कराते हैं । अपनी आत्मा को जानने के लिए गंभीर आत्ममंथन की जरूरत है । हमें खुद से यह पूछने की जरूरत है कि क्या हम अपनी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं या बस अपने लालच को पूरा करने में उलझते जा रहे हैं और यह सब करते हुए हम इस धरती को कुछ स्वस्थ बना रहे है या उसे पहले से भी ज्यादा बीमार। बदलता तापमान और उससे लगातार गरम होती जा रही धरती के मामले में पेट्रोलियम पदार्थोंा के प्रति हमारी यह निर्भरता अतिक्रमण ही कहलाएगी । हवा, पानी व धूप से तैयार की गई ऊर्जा, बिजली की ओर लौटना प्रतिक्रमण होगा। हमारे प्रतिक्रमण की शुरूआत का पहला कदम होगा उपभोक्तावाद पर लगाम लगाना । पश्चिम के बहुत से देशों में नए हाई-वे, एक्सप्रेस-वे जैसी योजनाआें को बनने व बढ़ने से रोकना होगा । पूरी दुनिया में उद्योग बनती जा रही खेती पर तत्काल रोक लगानी ही पड़ेगी । एक बार हम जब पेट्रोल के इस्तेमाल पर रोक लगा लेंगे तभी सुधार का काम व परम्परागत संसाधनों की तरफ लौटने की अपनी यात्रा की शुरूआत हो सकेगी । यदि हम अपनी इस वापसी यात्रा पर सावधानी से चल पड़े हैं तो वह बहुप्रचारित सर्वविनाश भी थाम लिया जा सकेगा । गरम होती धरती की चुनौती से निपटने के लिए हमें अपनी उपभोक्ता की भूमिका पर आने की जरूरत है । कम-से-कम अब तो हम यह जान जाएं कि मानव जीवन की खुशहाली, शांति व आनंदपूर्ण जीवन, सादगी भरे जीवन से ही हासिल हो सकेता है । हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर, चकाचौंध से भव्यता की ओर, पीड़ा से राहत की ओर, धरती को जीतने के बदले उसके संवर्द्धन की ओर लौटने के एक शानदार मोेड़ पर खड़े है । चारों तरफ फैल रही निराशा के बीच आशा रखने का मन बनाना भी एक बड़ा कर्तव्य है ।***
केले के पत्तों से होगी खाद्य पदार्थो की पैकिंग श्रीलंका सरकार पालीथीन के कचरे से पर्यावरण को बचाने के लिए अनूठा अभियान शुरू करने जा रही है सरकार ने भविष्य में खाद्य पदार्थो को पालीथीन में पैक करने की बजाय केले के पत्ते में पैक करने का फैसला किया है । श्रीलंका के कृषि मंत्रालय का दावा है कि पैकिंग के लिए खास तकनीक से तैयार केले के पत्ते में कई औषधीय गुण मौजूद होंगे। इस केले के पत्ते में पैक किया गया खाना फ्रीज में एक महीने और कमरे के तापमान में पांच दिन तक सुरक्षित रहेगा । इस संबंध में श्रीलंका के तेलिजाविला स्थित कृषि शोध संस्थान में भी काफी शोध किए गए है । उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशियाई देशों में खाद्य पदार्थो को सुरक्षित रखने के लिए प्राचीन काल से केले के पत्तों का प्रयोग किया जाता रहा है । ऐसा करना न केवल खाने की सुरक्षा बल्कि पौष्टिकता के लिहाज से भी फायदेमंद होता है । इसके उलट पालीथीन में कई रासायनिक यौगिक होते हैं । इनके नष्ट होने में काफी समय तो लगता ही है साथ ही पर्यावरण को भी बहुत नुकसान होता है ।

३ दीपावली पर विशेष

पर्यावरण का धर्म
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
सृष्टि में दृश्यमान और अदृश्यमान शक्तियों में संतुलन होना ही योग है । योग ब्रह्मांड को ही नियमित एवं संतुलित नहीं रखता वरन हमारी देह को भी संतुलित रखता है , क्योंकि जो कुछ भी ब्रह्मांड में है वही हमारी देह पिण्ड में भी है । आज का युग धर्म और विज्ञान पर आधारित है । क्योकि विज्ञान तत्व है तो धर्म शक्ति । प्रकृति और पर्यावरण को भी तभी संतुलित रखा जा सकता है जब कि हम पर्यावरण के धर्म का पालन निष्ठापूर्वक करें। शक्तियों का संतुलन ही पर्यावरण का धर्म है । पर्यावरण का धर्म रहस्यमयी विज्ञान है जिसमें सत्कर्म का संज्ञान है । नियति का विधान है और राष्ट्र का संविधान भी है । हमारा जीवन धर्माधारित होगा तो पर्यावरण भी जीवन्त रहेगा । हम सभी पर्यावरण का अंग है । हमें अपने पर्यावरण से सामंजस्य बनाना होता है । सभी जीव-जन्तु और मनुष्य अन्योन्याश्रित हैं और परस्पर पूरक भी है। शांतिपूर्ण सामंजस्य के लिए समन्वय जरूरी है । किन्तु आज सम्पूर्ण मानवता पर्यावरण और प्रकृति के ध्वंस को देख रही है । यह संसार ईश्वर द्वारा रचित है । हम भी ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में इस सुन्दर रचना संसार के अंग है तथा हमें प्रकृति उपादान उपांग धरती अम्बर हवा पानी अर्ग्नि आदि के प्रति कृतज्ञ भाव रखना चाहिए क्योकि पंचतत्वों की अक्षरता-अक्षुण्णता ही हमारे भी अस्तित्व का आधार है । अंतरिक्ष के तत्व प्रेरक होते है । वायु हमारी भावना विचार और वाणी की संवाहक है । अग्नि तत्व की दहकता पवित्र और पावस करती है । जल जीवन दाता है इसलिये कहा जा सकता है कि जल ही जीवन है। मातृ वत्सला धरती हमारी पोषक है । माटी से ही हमारी देहयष्टि बनती है । मानवीय स्वास्थ्य हमारी देह की भौतिक तथा मानसिक स्थिति के साथ-साथ ऊर्जस्विता पर भी निर्भर करता है । जब हमारे चारों ओर का ऊर्जा क्षेत्र श्रेयस, सकारात्मक और प्रभावशाली होता है तो हम भी पूर्ण उत्साहित, उल्लासित, तेजस्वित एवं आनंदित रहते है और प्रसाद मुद्रा में रहते है । धर्म मनुष्यता का संरक्षक और ईश्वरीय आशीर्वाद है । धर्म ही समस्त संसारों की प्रकृति एवं स्थिति का कारण है । संसार में मनुष्य ही श्रेष्ठता का निर्वहन और धर्म का अनुसरण करने को कृत-कृत्य है । धर्म से पाप दूर होता है । ग्लानि दूर होती है । समस्त चराचर जगत धर्माधारित है । धर्म को ही सदैव वरेण्य वंदनीय और श्रेष्ठ बतलाया गया है । महाभारत में महर्षि व्यास का उद्भाव है -धारणाद धर्ममित्याहू: धर्मो धारयते प्रजा:।यत् स्याद धारणसंयुक्त सधर्म इति निश्चय:।।उन्नति हि निखिला जीवा धर्मेणैव क्रमादिह।विद्धाना: सावधाना लाभन्तेडन्ते पर पदम्।। धारण करने को ही धर्म कहा है। धर्म ने ही समस्त संसार को धारण कर रखा है । जो धारण है संयुक्त है वही धर्म है यह निश्चित है । धर्म के द्वारा ही समस्त जीव उन्नति तथा लाभ पाते हुए अतं मेंे परमपद को प्राप्त् होते है। अत: जिन शुभ कार्यो से सुख शान्ति ज्ञान आदि सदगुणों की विकास और वृद्ध हो अर्थात शारीरिक आत्मिक एवं मानसिक उन्नति हो वही धर्म है । पर्यावरण के धर्म का आधार प्रेम है । प्रकृति ही प्रेम की प्रमेय है । प्रेम का प्रलेख तो प्रकृति के कण-कण में प्रतिक्षण है । प्रेममय रहना सिखाती है । जहाँ प्रेम होगा वहाँ त्याग भी अवश्य ही होगा । त्याग संगतिकणका प्रतिफल होता है । सत्संग का प्रतिफल होता है जिसमें प्रथम क्रिया के बाद एक तत्व का दूसरे तत्व के साथ संयोग होता है । त्याग से दान का भाव आता है । ऋतु का भाव आता है । ऋतबद्धता तथा ऋतुबद्धता तय का ही एक रूप है । वैदिक मान्यता के अनुसार सम्पूर्ण ब्रह्मांड में ही एक प्रकार से यज्ञ चक्र अहिर्मिण चलता है । ऋतु का आशय वस्तुत: इलेक्ट्रोन तथा प्रोटोन का प्रकटीकरण ही है । त्याग और समर्पण ही समन्वय के सूत्र है । यही हमारी एक्यता के पोषक हैं । सामंजस्य के सोपान हैं । सामंजस्य सदैव शांतिदायक होता है । कहने का तात्पर्य है कि प्रेम, त्याग, समन्वय, शांति आदि ही पर्यावरण के धर्म के अंग है इन्हें हमें अवश्य ही अंगीकार एवं आत्मसात कर लेना चाहिए । जिस तरह ब्रह्मांड अपरिमित शक्ति का स्रोत है उसी तरह हमारी देह भी शक्तिपुंज है । पितृत्व शुक्राणु सुक्ष्मातिसूक्ष्म होने पर भी जीव सत्ता का निर्माण करता है उसमें देहाणु रूप में देहांग हाथ पैर आदि अंग-प्रत्पंग बीज रूप में होते हैं । गर्भ-क्षेत्र में बीजारोपण एवं अंकुरण अर्थात स्त्रीत्व डिम्ब से मिलन के पश्चात जब भ्रूण बनता है तो भ्रूण अपने भू्रणीय रक्षा कवच में ही सामर्थ्य एवं शक्ति का संचय करने लगता है वह गर्भस्थ रहते हुए भी प्रकृति पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण से तालमेल बनाना सीख जाता है उसके रोम रोम में शक्ति का संचय होने लगता है चैतन्यता एवं जीवन्तता का अभ्युदय होता है । ब्रह्मांड की तरह हमारी देह संरचना में भी पांचभूत तत्व लगभग उसी अनुपात में समाहित है हमारी दृश्यमान भौतिक देह के आसपास कुछ अदृश्य परतें भी होती है जिन्हें पारलोकिक मानवीय (ईथरिक) देह कहते हैं इसीलिए हमें कुछ अतीन्द्रिय संज्ञान भी होता है तथा उन बातों का अहसास भी रहता है जो हमारे लिए अद्भुत होता है । यह अदृश्य वायवीय आवरण, विद्युतीय, चुम्बकीय या तापीय या इनका मिला जुला रूप हो सकता है । वायवीय परतो में विद्युत परत ओरा का निर्माण करती है। इसी ओरा के प्रभाव के कारण की हम किसी से प्रभावित या अप्रभावित होते है । ओरा वस्तृत हमारी तेजस्विता का परिचायक है । हमारा ओरा हमारी आंतरिक प्रवृत्तियों, अत: करण के भावों के साथ साथ प्रकृति और पर्यावरण से भी प्रभावित होता है । यदि हम पर्यावण के धर्म का पालन सुरूचिपूर्ण ढंग से करते हैं तो हमारी तेजस्तिता उज्जवल रहती है निर्मल रहती हैं सकारात्मक रहती है स्वस्थ्य रहती है और सुखद रहती है । पर्यावरण का धर्म कहता है कि हम धरती, जल वायु, अग्नि और आकाश को संतुुलित रखें । हमारी धरती हमारा जीवनाधार है जो अपनी गोद में हमे खिलाती है । पार्थिव सकारात्मकता ही हमें स्थायित्व तथा दृढ़ता प्रदान करती है। धरती ही अनुपयुक्त ऊर्जाआें का अवशोषण करती है । प्रदूषणों को भी अवशोषित करती है । पृथ्वी पर जल की उपलब्धता पर ही हमारा जीवन निर्भर है जल ही हमें द्रव्यता प्रदान करता है । हमारी देह में ८० प्रतिशत जल होता है। जल ही अवांछनीय ऊर्जा का विलायक और प्रवाहक है । जल ही हमें शुद्ध एवं निर्मल रखता है । शुद्धता से सुचिता रहती है । वायु तो प्राणों का आधार है । वायु हमारे मन-मस्तिष्क की नियामक भी है । वायु हमारे शब्दों की वाहक है । हमारे मन-मस्तिष्क की नियामक भी है । वायु हमारे शब्दों की वाहक है । हमारे विचारों का आदान प्रदान वायु के माध्यम से ही वाणी द्वारा होती है । बौद्धिकता की शोधक भी वायु ही है । वायु ही शक्ति की प्रस्तोता है । जल और वायु के माध्यम से ही हमारी देह में अणुआें का संचालन होता है जिससे देह में संतुलन बना रहता है । अग्नि तत्व भी शक्तिशाली होता है मृदुलता तथा कठोरता की निर्धारक अग्नि ही होती है जो पदार्थोंा को भस्मीभूत कर प्रकृति के सत्य को प्रकट करती है । अग्नि से ही प्रकाश उत्पन्न होता है । प्रकाश से ही जीवन चैतन्यता है । प्रकाश की उपस्थिति ही हमारे पौषण का आधार है । हमारे नकारात्मक भाव प्रकाश की उपस्थिति से ही शामिल होते है । अग्नि और प्रकाश से संकल्प शक्ति मिलती है इसलिए अग्नि के समक्ष ही कसमें खाई जाती है और शपथ ली जाती है । प्रकाश की उपस्थिति में हमारी अशुद्ध ऊर्जा शुद्ध ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है । आकाश तत्व तो प्रत्यक्ष रूप से हमारी चेतन्य शक्ति से जुड़ा है । आकाश अनंत है वह महतो महीयान है जो हमे भी अनंतता और दिग दिगन्तता प्रदान करता है । ईश्वरीय वितान के रूप में हमे सुरक्षा से आच्छादित रखता है । सभी अन्योन्यश्रित ब्रह्मांडीय शक्ति एवं ऊर्जा हमें प्रकृति ओर पर्यावरण के धर्म पालन से ही सुलभ है । हमारा धर्म हमारे नियमित खुशहाल जीवन, सामाजिक धारणाआें एवं वर्जनाआें के साथ-साथ पर्यावरण एवं प्रकृति का भी आवश्यक एवं महत्वपूर्ण हिस्सा है । हमारे वेद पुराण उपनिषद एवं अन्य धर्मो के ग्रन्थोंमें भी दो प्रमुख तत्व प्रकृति तथा पुरूष का उल्लेख है । ब्रह्मांड रचयिता ब्रह्म ही प्रकृति तथा पुरूष के सर्तक और जनक है अत: प्रकृति और पुरूष में समन्वय जरूरी है संवाद जरूरी है । किन्तु हमारी अज्ञानता के कारण हम प्रकृति और पर्यावरण के प्रति अपने धर्म को भूल रहे है नैतिकता को भूल रहे हैं नैसर्गिकता से हम दूर हो रहे हैं । प्रकृति से हम दूर हो रहे है तथा प्रकृति पर मानवीय हस्तक्षेप बढ़ रहा है अत: पर्यावरण पर नये विषय के साथ नई सोच बनाने की महती आवश्यकता है। प्रकृति और पर्यावरण तो अपना धर्म निश्चित रूप से निभाते है प्रकृति की समस्त क्रियाएँ समय पर हमें स्वयमेव सुलभ होती है प्रकृतिके किंचित भी विचित्र होने पर हम विचलित हो जाते है । क्या हम भी ईमानदारी से अपना पर्यावरणीय धर्म निभाते है यह विचारणीय प्रश्न है । क्या हम पेड़ पौधौं वनस्पतियों एवं अन्य जीव जन्तुआें की रक्षा एवं संरक्षण करते हैं क्या हम जल वायु आकाश धरती अम्बर को प्रदूषण रहित स्वच्छ रख पा रहे है । क्या हमारी जीवन शैली प्रकृतिपरक एवं योग क्षेमकारी है सबका उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा हमें प्राकृतिक सम्पदा का संरक्षण करना होगा उपभोक्तावाद से बचना होगा । पर्यावरण के प्रति अपने नैतिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए उत्तरदायी बनना होगा । प्राकृतिक प्रक्रमोंमें संतुलन बनाना होगा अपनी संस्कृति संस्कार कर्तव्य तथा व्यवहार को सुधरना होगा । अतएव हममें से प्रत्येक को प्रकृति प्रेमी एवं पर्यावरणवादी बनना होगा । ***
ग्लोबल वार्मिंग पर वैज्ञानिकों की रिपोर्ट पर्यावरण वैज्ञानिकों ने भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग की भयावह तस्वीर पेश करते हुए कहा है कि वर्ष २०३० तक यह लोगों को ध्रुवीय क्षेत्रों पर शरणार्थी बनकर रहने को मजबूर कर देगा । ओलिंपिक खेल सिर्फ साइबर स्पेस पर आयोजित होंगे और आस्ट्रेलिया का मध्य क्षेत्र पूरी तरह निर्जन हो जाएगा । पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाली ब्रिटिश संस्था फोरम फार द फ्यूचर और ह्रूलिट पैकर्ड प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने अपनी यह ताजा रिपोर्ट पर्यावरण को हो रहे नुकसान की ओर लोगों का ध्यान खींचने और इससे निबटने के उपायों को लेकर जन जागरूकता अभियान के लिए जारी की है । रिपोर्ट में कहा गया है कि मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट ने दुनिया की अर्थ व्यवस्थाआें की जिस कदर चूलें हिला दी हैं उसी तरह एक दिन ग्लोबल वार्मिंग की समस्या भी अर्थव्यवस्थआें में ऐसा ही भूचाल लाएगी । फोरम के अध्यक्ष पीटर मैडन के मुताबिक यह रिपोर्ट कोरे कयासों पर नहीं बल्कि पूरी तरह वैज्ञानिक अनुसंधान और तथ्यों पर आधारित है । यह धरती की भविष्य की तस्वीर पेश करती है, जो निश्चित रूप से अच्छी नहीं कही जा सकती । श्री मैडन ने कहा कि चीजों को सुधारने का अभी भी वक्त है लेकिन इसके लिए पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के स्थान पर स्वच्छ और हरित ऊ र्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा देना, कम कार्बन उत्सर्जन वाली गतिविधियों पर ध्यान देना और प्राकृतिक स्रोतों के अंधाधुंध दोहन पर अंकुश लगाना होगा । उन्होने कहा भविष्य के इतिहासकार हमारे युग को जलवायु परिवर्तन के युग के नाम से पुस्तकों में दर्ज करेंगे ।

४ वन संरक्षण

वन विनाश का मूल्य क्या है ?
सिद्धार्थ कृष्णन /सीमा पुरूषोथामन
केन्द्र सरकार ने क्षतिपूरक वनीकरण के उद्देश्य से एक कोष निर्मित करने की गरज से क्षतिपूर्ति वन्यीकरण अधिनियम २००८ का प्रारूप तैयार किया है । जंगलो (यहां तक के सुरक्षित वनों तक को भी ) गैर वन्य उद्देश्यों से उजाड़ने के एवज में लिए जाने वाले शुल्क को इस मद के अंतर्गत लाए जाने की योजना है । परविर्तित वनों के क्षतिपूरक मूल्य की गणना के लिए शुद्ध वर्तमान मूल्य (एनपीवी) को एक आर्थिक औजार के रूप में मान्य किया गया है । सरकार के इस कदम पर दोहरे सवालिया निशान लग रहे हैं । पहला तो इस तरह उजाड़ने के एवज में क्या उनका मात्र आर्थिक मूल्यांकन भर करना पर्याप्त् होगा जबकि उनके पर्यावरणीय एवं सांस्कृतिक महत्व से सभी अच्छी तरह वाकिफ हैं । दूसरा, वनों जैसी महत्वपूर्ण इकाई की क्षतिपूर्ति के मूल्यांकण के लिए क्या एनपीवी एक उचित तरीका है ? पहले वनों के आर्थिक मूल्यांकन की बात करें । इसके अंतर्गत वनों से प्राप्त् होने वाले उत्पादों एवं सेवाआें के आर्थिक मूल्यांकन की बात आती है । प्रारूप में वन उत्पादों में गैर काष्ठ वन उत्पाद और जल का उल्लेख है तो वहीं दूसरी ओर इससे प्राप्त् होने वाली सेवाआें जैसे चरनोई, वन्य जीव संरक्षण, कार्बन अवशेष एवं खाद्य नियंत्रण को भी इसमें शामिल किया गया है । प्रारूप में वनो की सांस्कृतिक एवं शैक्षिक सेवाआें का भी उल्लेख है । किंतु क्या मात्र आथिक क्षतिपूर्ति से इन सेवाआें की वास्तविक क्षतिपूर्ति हो पाएगी? उदाहरण के लिए नीलगिरि के ऊ परी छोर के शोला-घास मैदानों के पर्यावरणीय महत्व को देखें । यहां फैले विस्तृत घास के मैदानों के बीच जंगल सालभर हरा-भरा रहता है । मानसून उपरांत यहां की शोला घास धीरे-धीरे पानी को अपने से पृथक कर नीचे कोंगू के मैदानी इलाकों के लिए छोड़ती है । जरा विचार कीजिए कि विकास के नाम पर इन शोला और घास मैदानों के साथ छेड़छाड़ की जाए तो क्या आर्थिक क्षतिपूर्ति इस जटिल अंर्तसंबंध की भरपाई कर पाएगी ? नीलगिरि के मैदानों इलाकों में कागज उद्योग के लिए यूकिलिप्ट्स वृक्षारोपण हेतु घास के मैदानों को उजाड़ने के दुष्परिणाम हम पहले भी भुगत चुके है । इसने उसे क्षेत्र की प्राकृतिक जल प्रणाली को हमेशा के लिए प्रभावित कर दिया है । क्षेत्र में जंगलीघास और कीट प्रजाति की विविधता का भी बड़े पैमाने का ह्रास हुआ । चूँकि ये घास के इलाके सदियों से स्थानीय टोडा समुदाय के लिा भौतिक एवं परमपरा के स्त्रोत रहे है अतएव यूकिलिप्टस वृक्षारोपण ने इनकी जीविका और पारम्परिक विद्यानों पर सीधा प्रहार हुआ । देश में ऐसे कई वन प्रदेश है जो आज भी पर्यावरण और संस्कृति को अपने योगदान से जीवित रखे हुए है । कर्नाटक स्थित बिल्लिगिरि रंगास्वामी मंदिर अभयारण्य को ही लें । यह वन पर्याविदों के बीच अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है । दूसरी ओर सोलिगा जनजाति सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी यहां निवास कर रही है और इन्हीं वनों पर आश्रित है । ये वन उनकी संस्कृति का आधार है । इससे नीचे बसे चामराजनगर के मैदानी इलाकों की जलआपूर्ति इन्हीं वनों की वजह से सुनिश्चित है । ये चीतों की शरणस्थली भी है । अब अगर इन्हें उजाड़ दिया जाएगा तो इतनी सारी वन्य प्रजातियों, जैव प्रजातियों और जनजातीय लोगों के अस्तित्व की क्षतिपूर्ति किस तरह होगी ? आरक्षित वनों के बारे में हमारी सोच का विस्तृत होना आवश्यक है क्योंकि ये हमारी अमूल्य धरोहरें हैं । ऐसी महत्वपूर्ण धरोहरों की एनपीवी तय करते समय हमें इनसे मिलने वाले समस्त लाभों को हासिल करने की लागत की न सिर्फ गणना करनी होगी बल्कि इन्हेंउजाड़ने के अतिरिक्त मौजुद अन्य बेहतर विकल्पों के बारे में भी सोचना होगा । मान लीजिए कि हम बहुत ही उन्नत वैज्ञानिक तरीके से इस एनपीवी को तय भी कर लें और उस हिसाब से अवनीकृत किए जाने उस समूचे क्षेत्रफल का कुल मूल्य ज्ञात कर कोष में जमा भी कर दें तो भी क्या हम उस कोष से उतनी उपयोगिता के सारे संसाधन जुटा पाएंगे ? एनपीवी कोष को एक अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण भूमि पर खर्च करना क्या अपने आप में ही नया सवाल नहीं खड़ा करता ? मौसम परिवर्तन के नजरिए से देखते हुए अगर एनपीवी निर्धारित करते समय पर्यावरण और सांस्कृतिक लाभों को अतिरिक्त महात्व दे दिया जाएगा तो भू-उपयोग के परिवर्तन की अनुमति मिलने की संभावना भी प्रबल हो जाएगी । इससे विभाग में इसके जरिए कोष जुटाने की प्रवृत्ति भी बढ़ जाएगी और कहीं एनपीवी कम आंकी गई तो परिवर्तन के लिए मांग भी अचानक बढ़ जाएगी । पर्यावरण से नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए एनपीवी जैसे आधार के चुनाव के साथ एक अन्य समस्या यह भी है कि एक प्रकार के वन के लिए औसत प्रति इकाई मूल्य उस समूचे क्षेत्र के वैविघ्यपूर्ण पर्यावरण संबंधी लाभ, सामाजिक-सांस्कृतिक लाभ व आर्थिक लागत और लाभ संबंधी प्रावधानों को समुचित रूप से परिलक्षित नहीं करता है । एनपीवी निर्धारण के लिए एक पृथकीकृत बहुआयामी सोच के द्वारा समस्या सुलझाई जा सकती है । पर्यावरण और सामाजिक लाभों की क्षतिपूर्ति के लिए आवश्यक एक प्रणाली के निर्माण के लिए सच्ची राजनैतिक इच्छाशक्ति की दरकार है । ***
बाघों का अवैज्ञानिक पुनर्वास चार वर्षोंा के लम्बे अंतराल के बाद सरिस्का पुन: अपने यहां बाघों की चहल- पहल देख रहा है । रणथम्भौर से बाघ का एक जोड़ा यहां लाकर छोड़ा गया है । तीन अन्य बाघों को भी शीघ्र ही यहा लाया जाएगा ।आजादी के बाद से पहला मौका है जब बाघ प्रजाति के किसी जानवर को इस तरह किसी अन्य वन्य में ले जाकर छोड़ा गया है । इस परियोजना में राजस्थान के वन विभाग, भारत सरकार और वन्य जीवन संस्था का सहयोग रहा है तो इससे बाघों की मौजूदा छोटी जनसंख्या के अनुवांशिक प्रबंधन को भी दिशा मिल जाएगी । पिछले कुछ दशकों में बाघ अभ्यारण्यों के आसपास रिहायशी और खेतीहर गतिविधियों में बहुत बढ़ोतरी हुई है जिसकी वजह से अभ्यारण्य एक दूसरे से पूरी तरह कट गए हैं अतएव सिंह प्रजाति के लिए स्थान परिवर्तन की संभावनाएं खत्म सी हो गई हैं । अभ्यारण्य के बाघों की कम जनसंख्या की वजह से आनुवांशिक अलगाव की परिणति अंत: प्रजनन में होगी । रणथम्भौर में भी ज्यादा बाघ नहीं है । यहां १९७३में प्रोजेक्ट टाइगर प्रारंभ करते समय वन- विभाग ने इनका आंकड़ा १३ बताया था । इन ३५ सालों में यह संख्या घटती - बढ़ती रही है । रणथम्भौर में बाघ की मौजूदा आबादी इन्हीं १३ मूल निवासियों की संतति है अत: इनके अंत: प्रजनन की प्रबल संभावना है । अतएव इसमें विस्तृत अध्ययन की दरकार है । सरिस्का में स्थानीय प्रजाति का वंश विषयक अध्ययन हो पाता इसके पूर्व ही वहां से बाघ विलुप्त् हो चुके थे । सरिस्का की इस बाघ बसाहट को अब वंश विषयक विविधता की आवश्यकता है । जानवरों के हित में इस दिशा में कार्य होना चाहिए परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि इस दिशा में महत्वपूर्ण आयामों की उपेक्षा की गई है । बाघों की पुर्नबसाहट के लिए अग्रिम योजना के साथ ही वर्षोंा का मैदानी अध्ययन और इसके पश्चात् लम्बे समय तक लगातार निरिक्षण की आवश्यकता होगी ।

५ ऊर्जा जगत

ऊर्जा का भ्रम
रावलिन कौर / टॉम केन्डाल
विश्व की प्राचीनतम सभ्यता की साक्षी गंगा आज विलुप्त् होने के कगार पर है। इस इलाके में कुछ किलोमीटर के अंतराल के पश्चात एक के बाद एक गंगा व सहायक नदियों का प्रवाह मोड़कर विद्युत उत्पादन के प्रयास किये जा रहे हैं । एक ओर जहां हिमालय क्षेत्र की नदियों में इतना पानी ही नहीं बचा है जिससे कि टरबाईन चल सकें वहीं इसके बावजूद निवेशकों द्वारा यहां पर विद्युत परियोजनाआें की स्थापना नए संशय को जन्म दे रही है । टिहरी से पावन गंगौत्री जाने वाले घुमावदार रास्ते पर आपको प्रत्येक पांच सौ मीटर पर अशुभ सूचना देते बोर्ड लगे मिल जाएंगे जिन पर लिखा होता है आगे विस्फोट क्षेत्र है । गंगा के अलौकिक दर्शन को आए श्रृद्धालुआें को इन सूचना पटों के साथ ही बांध गंगा की हत्या है और गंगा को अविरल बहने दो जैसे नारे भी बहुतायत में दिखाई देते है । गंगा अब पनबिजली परियोजनाआें के निशाने पर है । साथ ही इसकी सहायक भागीरथी और अलकनंदा के जलग्रहण क्षेत्र में पचपन पनबिजली परियोजनाआें पर या तो निर्माण जारी है या शीघ्र ही शुरू होने वाला है। गंगोत्री से देवप्रयाग व अलकनंदा तक के १४५ किलोमीटर के हिस्से पर नौ बड़े बांधों के अलावा कई छोटे बांध आकार लेने वाले हैं । इनमें से सबसे ज्यादा ऊँचाई पर है गंगोत्री से मात्र २७ किलोमीटर पर स्थित भैरोंघाटी बांध । इस सारी कवायद को केन्द्रीय प्रदूषण निवारण मंडल के पूर्व सदस्य सचिव जी.डी.अग्रवाल ने अपने नौ दिवसीय उपवास के माध्यम से चुनौती देते हुए मांग रखी थी कि उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच के १२५ किलोमीटर के हिस्से पर कोई परियोजना लागू नहीं की जाये । ऐसा होने पर नदी का प्रवाह बाधित होगा । परंतु उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड के सभापति एवं मुख्यमंत्री के सलाहकार योगेन्द्र प्रसाद का कहना है कि हमारे पास राजस्व के स्त्रोत बहुत सीमित हैं । फिर इनमें हम बाढ़ एवं सिंचाई के लिए जल नियंत्रण भी कर पाएंगे । गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र का मानना है इंजीनियरों को नदी का सिंचाई अथवा विद्युत उत्पादन किए बगैर समुद्र में जा मिलना व्यर्थ प्रतीत होता है । किंतु नदी के नैसर्गिक प्रवाह के साथ इस तरह की छेड़छाड़ के भंयकर परिणाम निकलेगें । नदीजल के समुद्र में मिलने से खारे पानी के फैलाव को रोकने में मदद मिलती है । यह अनिवार्य है , लेकिन दुर्भाग्य से इसे अवैज्ञानिक ठहराया जाता है । फिर हिमालय क्षेत्र में बड़े भूकंप की आशंका को भी तो नकारा नहीं जा सकता । बांध के टूटने के बाद निचले इलाकों की बाढ़ से कैसे रक्षा होगी ? केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का मानना है कि सभी नदियोें के लिए न्यूनतम बहाव का एक ऐसा पूर्व निर्धारित स्तर तय नहीं हो सकता । क्षेत्र विशेष की परिस्थिति के अनुसार ही प्रत्येक मामले में न्यूनतम बहाव का निर्धारण किया जाना चाहिए । पर्यावरण प्रभाव का आकलन की शर्त है कि नदियों में न्यूनतम बहाव कायम रखा जाए । इसका आकलन नदी के बहाव के पिछले ३०-४० वर्षोंा के आंकड़ों के आधार पर करते हैं । परंतु अधिकांश मामलों में इन रिपोर्टस् को गंभीरता से नहीं लिया जाता । डब्ल्यू डब्ल्यू एफ की नीति एवं कार्यक्रम विकास विभाग की वरिष्ठ संयोजक विद्या सुंदरराजन का न्यूनतम बहाव की अवधारणा को सिरे से नकारते हुए कहना है कि इसका आकलन मात्र ेंमनुष्यों की आवश्यकता के लिहाज से किया जाता है । वस्तुत: इसके आकलन के समय पर्यावरण की आवश्यकताआें व भूमिगत जलपुनर्भरण, सिंचाई, शहरी आवश्यकताएं, जलवायु, जलीय ऑक्सीजन मिट्टी का जमाव जैसे मुद्दों पर भी विचार किया जाना चाहिए । ईआयए बांधों में मिट्टी के जमाव के मुद्दे पर भी खामोश है, जबकि जमाव से निपटने का खर्च परियोजना लागत का २० से ३० प्रतिशत तक होता है । मानेरी भाली खख के बैराज में नौ करोड़ टन मिट्टी प्रतिवर्ष बहकर आती है। गंगाा के निचले इलाके व बंगाल की खाड़ी स्थित कृषकों के लिए बहकर आई यह मिट्टी बहुत उपयोगी होती है । किंतु नए बांध इसे वहीं रोक लेंगे । इस मुद्दे पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया है । बांधों की ईआयए रपटों पर अमेरिका की एनवायमेंट लॉ अलायंस वर्ल्डवाइड द्वारा किए गए आकलन के अनुसार मिट्टी का यह जमाव निचले इलाके में गंगा को एक भुखी नदी बना देगा । चूकिं पानी में मिट्टी की कमी होगी अत: निचले इलाकोंमें यह अपनी प्राकृतिक क्षुधा को अपने ही किनारों को काटकर शांत करेगी । इस वजह से जैविक खाद्य श्रंृखला प्रभावित होने से निचले इलाकों में कई किलोमीटर तक मत्स्यपालन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा । राज्य विद्युत मंडल जो इनके प्रमुख ग्राहक हैं को भी नुकसान उठाना पड़ेगा । क्योंकि विद्युत मिले या न मिले वे तो एक निश्चित रकम चुकाने के लिए बाध्य है । सब्सिडी आधारित वर्तमान शुल्क संरचना पनबिजली परियोजनाआें को निवेश के लिए आकर्षक विकल्प तो बनाती है किन्तु उन्हें विद्युत उत्पादन को ऊँचा रखने अथवा संसाधनों के पूर्ण उपयोग हेतु प्रोत्साहित नहीं करती है । विशेषज्ञों का कहना है परियोजना स्थापित करने वाले उद्यमियों की रूचि बहाव और मिट्टी के जमाव के सही आकलन में नहीं होती । योजना बनाते समय बहाव के पुराने आकड़ों का ही उपयोग किया जाता है ऐसे में विद्युत उत्पादन अनुमान से काफी कम होता है । भारत में निगरानीशुदा जलाशयों में गत बारह वर्षोंा के दौरान संग्रहण क्षमता से २५ प्रतिशत तक कम जलभराव हुआ है और प्रति मेगावाट स्थापित क्षमता में १९९४ की अपेक्षा २१ प्रतिशत की कमी हुई है । वास्तविकता यह है कि ज्यादातर बांध और पनबिजली परियोजनाएं गत ५० वर्षोंा के बहाव के आधार पर बनाई गई हैं न कि वास्तविक बहाव और जलवायु एवं बहाव में संभावित परिवर्तन का आकलन करके । दक्षिण एशिया बांध, नदी व व्यक्तियों के नेटवर्क के हिमांशु ठक्कर का कहना है कि परियोजनाआें को इस दावे के आधार पर स्वीकृति मिल जाती है कि वे अवलम्बित स्तर पर ९० प्रतिशत तक विद्युत उत्पादन में समक्ष होंगी । (इसका अर्थ यह भी है कि वे अपने अनुमानित जीवनकाल में क्षमता का ९० प्रतिशत विद्युत उत्पादन करती रहेंगी) इसे डिजाइन जनरेशन भी कहा जाता है । वहीं केन्द्रीय विद्युत प्राधिकारी से प्राप्त् पिछले २३ वर्षोंा के आंकड़े बताते है कि वर्तमान कार्यशील परियोजनाआें में से ८९ प्रतिशत निर्धारित स्तर से कम विद्युत उत्पादन कर रहीं है । हिमालय पर्वतश्रृंखला अपेक्षाकृत नयी है । जिससे यहां बारिश के मौसम मेंं भूस्खलन आदि का खतरा बना रहता है । विस्पोट, खुदाई, सुरंग निर्माण और मिट्टी के बड़ी मात्रा में ढेर लगाने से यह खतरा और बढ़ सकता है । इस क्षेत्र में भूकंप की आशंका भी बनी रहती है । अत: सबसे बड़ा खतरा तो यही है । हालांकि उद्यमियों को इसकी कोई चिंता नहीं है । एनटीपीसी के अधिकारी कहते है कि अब तकनीक बहुत उन्नत हो गई है अत: बांधों को कोई खतरा नहीं है । वहीं नेशनल जिओफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट हैदराबाद के हर्ष गुप्त का प्रश्न है कि बांधों के आसपास के पर्यावरण का क्या होगा ? अगर भूकंप आता है तो नदी मलबे से भर जाएगी और वह जब बांधों में इकट्ठा होगा तो उनका जीवनकाल वैसे ही सिकुड़ जाएगा । इसी संस्थान के वी.पी. डिमारि का कहना है, हिमालय अंचल में चट्टाने ठीक से जमी हुई नहीं है । खासतौर से सतह से थोड़ा नीचे । इसलिए जब सुरंगे खोदी जाएंगी तो ऐसी ढ़ीली चट्टाने भी उसमें मिलने की संभावना है । ऐसे में सुरंग में उपर अगर पर्याप्त् ठोस छत नहीं होगी तो सुरंग के दरकने के खतरे ज्यादा होंगे। स्थानीय निवासियों से किए जाने वाले क्षतिपूरक जमीन और रोजगार के वादे भी पूरे नहीं होते । यहां प्रभावित सत्तर परिवारों में से सिर्फ ३५ लोगों को रोजगार मिला, वह भी चौकीदारी का । इतनी कवायद, विस्थापन, पर्यावरण हास और खतरों को नियंत्रण की कीमत पर भी विद्युत उत्पादन एक सपना ही रह जाता है । त्रुटिपूर्ण नीतियां अक्षम परियोजनों को प्रभावित करेगी । अगर प्रत्येक योजना का अधिकतम लाभ उठाया जाए तो पूरे दृष्यपटल को ही बदल देने वाली योजनाआें की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी । किसी परियोजना को अनुमति देने के पूर्व ही जलवायु परिवर्तन, जल संबंधी आकड़ों ग्लेशियर के पिघलने और विस्तृत तलछट भार संबंधी अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए । योजनाकर्ताआें को यह ध्यान में रखना होगा कि नदी एक महत्वपूर्ण सम्पदा है । ***