जीवाश्म बनाम जैव इंर्धन
डॉ.अरविंद गुप्त्े
आज दुनिया के सामने खड़े कई संकटों में से शायद सबसे गंभीर संकट ऊर्जा का है । संसार की अधिकांश मशीनें खनिज तेलों पर चलती हैं । इन खनिज तेलों को जीवाश्म इंर्धन भी कहा जाता है क्योंकि वे उन जीवधारियों के शरीरों से बने हैं जो करोड़ों वर्षोंा पहले ज़मीन के नीचे दफन हो गए थे । कोयला भी इसी श्रेणी का पदार्थ है । संसार के ताप बिजली घर इंर्धन के रूप में कोयले या खनिज तेल का इस्तेमाल करते हैं । बढ़ते औद्योगीकरण से बिजली और मशीनों की मांग बढ़ी है ं इसके कारण खनिज तेल और कोयले की खपत भी बढ़ी है । किंतु खनिज इंर्धनों में दो बड़ी खामियां है । पहली तो यह कि उनकी मात्रा सीमित है और ये जल्द ही समाप्त् हो जाएंगे । दूसरी यह है कि इनके जलने से कई ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं जो पृथ्वी का तापमान बढ़ाने में योगदान देती है । इसे ग्लोबल वॉर्मिंग कहते हैं । ग्रीनहाउस गैसों में प्रमुख कार्बन डाइऑक्साइड है । तापमान बढ़ने से पृथ्वी के पर्यावरण में कई ऐसे हानिकारक परिवर्तन होने लगे हैं जिन्हें यदि रोका न गया तो मानव का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। अत: मनुष्य के सामने विकट समस्या है । यदि खनिज इंर्धनों का इस्तेमाल इसी तरह होता रहा तो ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण मानव का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा । मगर यदि खनिज इंर्धनों का इस्तेमाल न करें तो सारे वाहन, सारे हवाई जहाज, सारे कारखाने ठप्प हो जाएंगे । इस दुविधा से निपटने के लिए अब मनुष्य ने ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों की खोज शुरू कर दी है । वैकल्पिक ऊर्जा का सबसे बड़ा और निकट भविष्य में समाप्त् न होने वाला स्त्रोत सूर्य है । इससे प्राप्त् होने वाली ऊर्जा इस मायने में `स्वच्छ' होती है कि इसके उपयोग में ग्रीनहाउस गैसें नहीं बनती । सूर्य का प्रकाश मुक्त होने के कारण इस ऊर्जा का की कोई लागत भी नहीं होती । किंतु दुर्भाग्य से इसकी टेक्नॉलॉजी अभी तक पर्याप्त् रूप से विकसित नहीं हो पाई है । सूर्य के प्रकाश को विद्युत में बदलने के उपकरण इतने सक्षम नहीं हुए हैं कि वे हमारी सारी ज़रूरतों को पूरा कर सकें । फिर इन उपकरणों की लागत भी अभी बहुत अधिक है । ऊर्जा के अन्य वैकल्पिक स्त्रोत पवन ऊर्जा और समुद्र में आने वाले ज्वार-भाटे की ऊर्जा है, किन्तु इनसे प्राप्त् होने वाली ऊर्जा बहुत ही कम होती है । परमाणु ऊर्जा एक ऐसा विकल्प है जो ग्रनीहाउस गैसों को जन्म नही देता और इससे बड़ी मात्रा मेंे ऊर्जा पैदा की जा सकती है, किंतु इसके अपने खतरे हैं । पिछले कुछ वर्षोंा में जैव इंर्धन खनिज इंर्धनों के विकल्प के रूप में उभरे हैं । आंतरिक दहन इंजिन दो प्रकार के जैव इंर्धनों से चलाए जाते हैं- अल्कोहल और खाद्य तेल । अल्कोहल मक्का और शक्कर से बनाया जाता है । इंर्धन के रूप में कोई भी खाद्य तेल इस्तेमाल किया जा सकता है । रोचक बात यह है कि वाहनों के इंजिन सबसे पहले जैव इंर्धनों से ही चलाने का इरादा था । जब रूडॉल्फ डीज़ल ने बीसवीं सदी की शुरूआत में पहला आंतरिक दहन इंजन (जिससे वाहन चलते हैं) बनाया तो उन्होंने इंर्धन के रूप में मूंगफली तेल की ही कल्पना की थी। इसी प्रकार, जब हेनरी फोर्ड ने बड़े पैमाने पर मोटर कारों का उत्पादन शुरू किया था तो उन्होंने अल्कोहल को ही इंर्धन के रूप में देखा था क्योंकि अमेरिका में मक्का की पैदावार खूब होती है और मक्का से अल्कोहल बनाया जा सकता है । किंतु बाद में खनिज तेलों की उपलब्धता सरल हो जाने के कारण जैव इंर्धनों को भुला दिया गया । सत्तर के दशक में खनिज तेल की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई तो जैव इंर्धनों का इस्तेमाल किया जाए तो जीवाश्म इंर्धनों से छुटकारा मिल सकता है । यह कहा गया कि जीवाश्म इंर्धनों के निर्माण में जितनी कार्बन डाईऑक्साइड बनती है, जैव इंर्धनों के निर्माण में उससे कम बनेगी। इसके अलावा जैव इंर्धनों के इस्तेमाल से वाहन भी कम कार्बन डाईऑक्साइड उगलेंगे। जैव इंर्धन का नारा बुलंद करने वालों में एक प्रमुख आवाज़ पर्यावरण में काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनों की थी। १९८७ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें टिकाऊ विकास के लिए जैव इंर्धनों का इस्तेमाल करने की सिफारिश की गई थी । इराक की पहली लड़ाई के बाद जब खनिज तेल की कीमतें बढ़ी त्तब १९९२ में अमेरिका और युरोपीय संघ ने सोचा कि उनके पास आवश्यकता से अधिक जो कृषि उत्पाद हैं उन्हें जैव इंर्धन में बदलने से आयतित खनिज तेल पर उनकी निर्भरता कम की जा सकती है। इसी समय एक और घटना हुई । रियो डी जेनीरों में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित सम्मेलन में ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने के एक प्रमुख हथियार के रूप में जैव इंर्धनों की भूमिका को स्वीकार किया गया । २००२ से २००७ की अवधि में ग्लोबल वॉर्मिंग का हौवा पूरी दुनिया के सिर चढ़कर बोलने लगा । अमेरिका में किसनों का एक सशक्त समूह उभरा जिसे अपनी फसलों को जैव इंर्धन में बदलने से फायदा-ही-फायदा होने लगा था । किंतु युरापीय संघ पर तो जैव इंर्धन की सनक सवार हो गई । हालांकि यह जानी-मानी बात थी कि यदि कृषि योग्य भूमि का बड़ा हिस्सा जैव इंर्धनों के उत्पादन में लगाया गया तो खाद्यान्न की कमी हो जाएगी और उसकी कीमतें तेज़ी से बढ़ेंगी, मगर इसके बावजूद युरोपीय संघ ने जैव इंर्धन को एक मंत्र की तरह जपना शुरू कर दिया । पिछले लगभग एक-डेढ़ साल से जैस-जैसे जैव इंर्धनों के दुष्परिणाम सामने आने लगे, यह सुहाना सपना चूर-चूर होता दिखाई दे रहा है। २००८ में खाद्यान्न की भयंकर कमी के कारण उनकी कीमतों में ऐसी बढ़ोत्तरी हुई है कि पुरी दुनिया में हाहाकार मच गया है । इस कमी का एक प्रमुख कारण खाद्यान्न फसलों की जगह इंर्धन फसलों की बढ़ती खेती है। इसी से जुड़ा हुआ तथ्य यह है कि कई खाद्यान्नों, जिनमें प्रमुख मक्का है, से ईधन बनाया जा रहा है । ग्रीनपीस और फ्रेन्ड्स ऑफ अर्थ जैसे स्वयंसंवी संगठन, जो जैव इंर्धनों के गुण गाते अघाते नहीं थें, वही उनके प्रमुख आलोचक बन गए। ब्राज़ील के वर्षा वन दुनिया के सबसे बड़े वर्षा वन हैं, और ये जैव विविधता के भंडार हैं । इनमें पेड़-पौधों और जंतुआें की ऐसी प्रजातियां पाई जाती हैं जो संसार में अन्यत्र कहीं नहीं मिलतीं। हरे पेड़-पौधे हवा में से कार्बन डाईऑक्साइड लेकर उससे पोषण प्राप्त् करते हैं । अत: पर्यावरण की दृष्टि से वनों का अत्यधिक महत्व होता है, किंतु अब ब्राज़ील के इन वर्षा वनों का सफाया करके इन्ही जगह खेती की जा रही है । इसका कारण रोचक है । अमेरिका मेंे सोयाबीन और मक्का की खेती बड़े पैमाने पर होती है । किंतु जैव इंर्धन के लिए मक्का इस्तेमाल होने के कारण किसानों ने सोयाबीन की जगह मक्का उगाना शुरू कर दिया । इसके फलस्वरूप सोयाबीन की कमी होने लगी और उसकी कीमतें बढ़ने लगी । ब्राज़ील के किसानों ने जंगल साफ करके सोयाबीन उगाना शरू कर दिया । जिस ज़मीन पर पशुपालकों ने जंगलों का रूख किया। पशुआेंं के चरने से और अधिक जंगल नष्ट होने लगे । सन २००७ के केवल अंतिम ६ महिनों में ब्राज़ील के ३००० वर्ग किलोमीटर से अधिक जंगलों का नाश हो चुका था । यही हाल मलेशिया, इंडोनेशिया, आदि अन्य विकासशील देशों के जंगलों का भी हुआ । इंडोनेशिया ने जैव इंर्धन के रूप में पाम ऑइल बनाने हेतु जंगल काटकर पाम के पेड़ लगाना शुरू किया। नतीजा यह हुआ कि सबसे अधिक कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ने वाले देशों में वह इक्कीसवें से तीसरे नंबर पर आ गया। केवल जंगलों का कटना ही पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाला अकेला कारक नहीं है । ब्राजील, इंडोनेशिया और मेलेशिया में जंगलों को जलाकर भी साफ किया गया । इससे निकली ग्रीनहाउस गैसें भी पर्यावरण में फैलीं । इसके अलावा जंगल काटते समय ट्रैक्टरों, ट्रकों और अन्य भारी मशीनों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है । इनसे भी ग्रीनहाउस गैसे निकलती हैं । विडम्बना यह है कि यह दावा भी झूठा साबित होने लगा है कि जैव इंर्धनों के जलने पर कम ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं । साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला है कि यदि इन सब कारकों को गणना में शामिल किया जाए तो मक्का से बने इथेनॉल और खाद्य तेलों से बने डीज़ल जैसे जैव इंर्धनों के इस्तेमाल से खनिज तेलों की तुलना में दुगना प्रदुषण पैदा होता है । केवल शक्कर से बने अल्कोहल (इथेनॉल) के इस्तेमाल से ही कम ग्रीनहाउस गैसे निकलती हैं । यदि कचरे से जैव इंर्धन बनाया जाए तो वह पर्यावरण की दृष्टि से लाभप्रद हो सकता है । किंतु इसकी टेक्नॉलॉजी अभी विकसित नहीं हो पाई है । अब दुनिया के सामने यह समस्या है कि गरीबों का पेट भरने के लिए अनाज पैदा किया जाए या उस अनाज से अमीरों के वाहनों के लिए जैव इंर्धन बनाया जाए। वैसे तो उत्तर स्वत: स्पष्ट है, किंतु जैव इंर्धनों के साथ अब इतने राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक स्वार्थ और दुराग्रह जुड़ गए हैं कि लोग इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं कि स्पष्ट कह दें कि `राजा नंगा हैं'। यदि मक्का से इथेनॉल बनाया जाए तो एक बड़ी कार की टंकी को इथेनॉल से पूरा भरने के लिए जितनी मक्का आवश्यक होगी उतनी मक्का से एक व्यक्ति एक साल तक भरपेट भोजन कर सकेगा। मक्का कहां जाए, इसका फैसला करना ही होगा । ***
विज्ञान और अभियांत्रिकी परिषद् का गठन होगा प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने कहा है कि केंद्र सरकार की अमेरिका के राष्ट्रीय विज्ञान फाउंडेशन की तर्ज पर राष्ट्रीय विज्ञान और अभियांत्रिकी परिषद के गठन की योजना है । इससे शोधार्थियों, अकादमिक संस्थाआें, प्रयोगशालाआें और उद्योगों के लिए निर्बाध वित्तीय सहायता उपलब्ध हो सकेगी । डॉ. सिंह ने पिछले दिनों बैंगलोर में अंतर्राष्ट्रीय पदार्थ विज्ञान केंद्र (आईसीएमएस) को राष्ट्र को समर्पित करने के बाद समारोह में कहा कि परिषद् का भारतीय विज्ञान के रूपांतरण के लिए एक स्वायत्तशाली इकाई के रूप में गठन किया जाएगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि उनकी सरकार विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए वित्तीय सहायता दुगुनी करने के लिए वचनबद्ध है । उन्होंने कहा कि भारतीय विज्ञान के रूपांतरण के लिए इस सहायता के प्रभावी और सृजनात्मक उपयोग के वास्ते एक ब्लूप्रिंट बनाया जाना समय की माँग है । इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने सीएनआर राव विज्ञान सभागार का भी उद्घान किया ।
विज्ञान और अभियांत्रिकी परिषद् का गठन होगा प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने कहा है कि केंद्र सरकार की अमेरिका के राष्ट्रीय विज्ञान फाउंडेशन की तर्ज पर राष्ट्रीय विज्ञान और अभियांत्रिकी परिषद के गठन की योजना है । इससे शोधार्थियों, अकादमिक संस्थाआें, प्रयोगशालाआें और उद्योगों के लिए निर्बाध वित्तीय सहायता उपलब्ध हो सकेगी । डॉ. सिंह ने पिछले दिनों बैंगलोर में अंतर्राष्ट्रीय पदार्थ विज्ञान केंद्र (आईसीएमएस) को राष्ट्र को समर्पित करने के बाद समारोह में कहा कि परिषद् का भारतीय विज्ञान के रूपांतरण के लिए एक स्वायत्तशाली इकाई के रूप में गठन किया जाएगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि उनकी सरकार विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए वित्तीय सहायता दुगुनी करने के लिए वचनबद्ध है । उन्होंने कहा कि भारतीय विज्ञान के रूपांतरण के लिए इस सहायता के प्रभावी और सृजनात्मक उपयोग के वास्ते एक ब्लूप्रिंट बनाया जाना समय की माँग है । इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने सीएनआर राव विज्ञान सभागार का भी उद्घान किया ।
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