मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

११ कविता

पर्यावरण प्रदूषण
नागेन्द्र दत्त शर्मा
ये धरती तो हैं, सभी जीवों - निर्जीवों की जननी ।त्रस्त सब प्रदूषण से , ये सब मानव की करनी ।।उजड़ रहे हैं कहीं पहाड़, तो कहीं वन कट रहे ।कहीं रोक कर जल प्रवाह, बांध वहां बन रहे ।।हो रही वनस्पतियां विलुप्त् , धरा वृक्ष विहीन कहीं ।हो रही नष्ट वन सम्पदा , पशु - पक्षी विहीन कहीं ।।जहरीला धुआें उगले हैं, काली चिमनियां यत्र-तत्र ।असंख्य वाहन छोड़ते हैं, रोज काला धुंआ सर्वत्र ।।कभी लहलहाया करते थे, हरे - भरे खेत जहां-तहां ।इन्सान उगा रहा है अब, कांक्रीट के जंगल वहां ।।मकानों की जैसे , हर तरफ बाढ़ सी आ गयी हो ।मानों सारे खेत-खलिहान, बहा कर ले गयी हो ।।हो गया है छिद्र भी देखो अब तो, ओजोन लेयर में ।आबादी की गाड़ी चल रही हो मानों, टॉप - गीयर में ।।मानव ही कर रहा है, यह तहस-नहस चारों ओर ।लालच में फंसकर मारा उसके प्रपंचों न पूरा जोर ।।फैला होता एक प्रदूषण, तो कोई सही जुगत लगाते ।और अपनी सारी कसर, उसे दूर करने पर निकलवाते ।।ध्वनि , वायु, जल प्रदूषण की तो क्या और क्या न कहें ।जो है विचार तथा भ्रष्टाचार प्रदूषण, उसे अब कैसे सहें ?न समझ आये `नागेन्द्र' कैसे रूकेगा प्रदूषण का तूफान ।ढूंढो कोई मंत्र ऐसा, फूंक दे जो पर्यावरण में पूरी जान ।।***

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