अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भारत की ऐतिहासिक सफलता
पिछले दिनों श्रीहरिकोटा से २२ अक्टूबर को उड़ चले चन्द्रयान-१ ने ८ नवम्बर ०८ शाम ५ बजकर ४ मिनट पर चंद्रमा की कक्षा में पहुँचकर उसका अभिवादन किया । इसी के साथ भारत के पहले ३८६ करोड़ रू. के चन्द्र मिशन की सफलता ने नया इतिहास रच दिया। खास यह है कि दो हफ्तों की चंद्रयान की यात्रा पूरी तरह त्रुटीरहित रही है । यह सफलता इसलिए ऐतिहासिक है क्योंकि अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ के लगभग ३० प्रतिशत मानवरहित मिशन चंद्रमा की कक्षा में पहँुचने के दौरान विफल हो गए । भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अनुसार कक्षा में उसकी बाहरी परिधि में ७५०२ किलोमीटर और भीतरी परिधि में ५०० किमी दूर चक्कर काट रहा है । यह सबसे बड़ी उपलब्धि है । यह काम खतरे से खाली नहीं होता । क्योंकि उस समय धरती और चंद्रमा दोनों का गुरूत्वाकर्षण यान को अपनी ओर खींच रहा होता है । जार-सा भटकाव यान को या तो चंद्रमा या धरती के कक्ष में धकेल सकता है ।चंद्रयान-१ : सफलता के सोपान* २२ अक्टूबर ०८ : ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) सी-११ द्वारा सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र श्रीहरिकोटा से चंद्रयान-प्रथम का सफल प्रक्षेपण ।* २३ अक्टूबर ०८ : चंद्रयान-प्रथम कक्षा विस्तार कर आगे बढ़ा चंद्रयान-प्रथम । पृथ्वी से ७४ हजार ७१५ किमी दूर ।* २५ अक्टूबर ०८ : दूसरी बार कक्षा विस्तार कर आगे बढ़ा चंद्रयान-प्रथम । पृथ्वी से ७४ हजार ७१५ किमी दूर ।* २६ अक्टूबर ०८ : चंद्रयान गहरे अंतरिक्ष में पहँुचा, पृथ्वी से डेढ़ लाख किमी दूर ।२९ अक्टूबर ०८: चंद्रयान की कक्षा चंद्रमा के और करीब पृथ्वी से २ लाख ६७ हजार किमी दूर । * ४ नवम्बर ०८ : चंद्रयान-प्रथम ने पाँचवी कक्षा विस्तार के बाद चंद्रमा के पथ में प्रवेश किया । पृथ्वी से ३ लाख ८० किमी दूर ।* ८ नवंबर ०८ : चंद्रयान-प्रथम का सफलता पूर्वक चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश।एशिया के बड़े शहरों मे सूरज की रोशनी में कमी नई दिल्ली से लेकर बीजिंग तक रात में रोशनी से जगमगाते बड़े शहरों में दिन में धूप की चमक कम हो रही है यानी अँधेरा बढ़ रहा है, हिमालय के ग्लेशियर पहले से कहीं तेजी से पिघल रहे हैं तथा मौसम चक्र और बिगड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र के के एक अध्ययन में यह चेतावनी दी गई है । यह खतरनाक परिवर्तन मुंबई, कोलकाता, बैंकॉक, तेहरान, काहिरा, सिओल, कराची, ढाका और श्ंाघाई में भी फैलने लगा है । इन सभी शहरों के नागरिकों को समान रूप से क्या महसूस होता है, सर्दियाँ अब जल्दी नहीं आती । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की प्रमुख आशिम स्टेनर ने ग्लोबल वार्मिंग पर ताजा रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि जैविक इंर्धन (पेट्रोलियम) और बायोमॉस के जलने के परिणामस्वरूप वातावरणीय भूरे बादलों की तीन किलोमीटर से भी मोटी चादर बन चुकी है । ये भूरे बादल काजल और अन्य मानव निर्मित कणो से बने है । पिछले दिनों जारी यूएनईपी रिपोर्ट में कहा गया है कि नई दिल्ली, कराची, बीजिंग और शंघाई जैसे शहरों में दिन के प्रकाश में यह कमी १० से २५ प्रश तक जा पहँुची है । सबसे बुरे हाल चीनी शहर गुआंगझाऊ के हैं, जहाँ ७० के दशक से ही सूर्य की रोशनी में २० फीसदी की कमी आ चुकी है । रिपोर्ट के अनुसार यदि भारत के लिहाज से देखें तो १९६० से २००० के बीच हर दशक में सूरज की राशनी में दो फीसद की कमी आती चली गई और १९८० से २००४ के बीच यह दोगुनी हो गई । चीन ने १९५० से १९९० के बीच हर दशक मेंसूरज की रोशनी में कमी ३ से ४ प्रतिशत प्रति दशक रही और ७० के दशक के बाद तो यह समस्या बढ़ती ही गई । रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि अरब प्रायद्वीप से लेकर प्रशांत महासागर तक फैले इन बादलों के कारण मौसम परिवर्तन की समस्याएँ भी आ सकती हैं। इन्हीं बादलों के जटिल असर के कारण भारत में जहाँ मानसून की अवधि कम होती जा रही है, वहीं भारत के कुछ हिस्सों तथा दक्षिणी चीन में अतिवर्षां से यह बाढ़ का कारण भी बन रहा है । रिपोर्ट के अनुसार प्रदूषण के कारण फेफडों, दिल और कैंसर के कारण दुनिया भर में करीब तीन लाख ४० हजार लोग बेमौत मर रहे है । इन बादलों से गिरने वाले जहरीले पदार्थोंा से फसलों को हो रहे नुकसान का आकलन किया जा रहा है ।मौसम परिवर्तन से हिमयुग की शुरूआत बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण भविष्य में होने वाला जलवायु परिवर्तन पूरे विश्व के लिए खतरनाक साबित हो सकता है । माना जा रहा है कि जो बदलाव होंगें वे ऐसे क्रांतिकारी होंगें जिसके कारण धरती पर हिम युग से भी भीषण बर्फ जम जाएगी । कनाडा स्थित टोरंटो विश्वविद्यालय और ब्रिटिश वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण धरती के तापमान मेंबढ़ोतरी होगी और इसके परिणामस्वरूप धरती पर नए हिमयुग की शुरूआत हो सकती है । उल्लेखनीय है कि पृथ्वी के उद्भव के शुरूआती दस हजार साल तक हिमयुग था जिसमें पूरे ग्रह पर हर जगह बर्फ ही जमी थी । समुद्री जीवाश्मों और पृथ्वी कक्षा में परिवर्तन पर आधारित शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में फिलहाल रोकथाम की कोई उम्मीद नहीं दिखती इसलिए ग्लोबल वार्मिंग की आशंका निरंतर बढ़ती ही जा रहीहै । डाँ. क्रावली ने बताया कि पहले धरती पर तापमान बढ़ेगा और लंबे समय के बाद इसका परिणाम तापमान में अचानक गिरावट के रूप में देखने को मिल सकती है । भारतीय पर्यावरणविद् नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. आरके पचोरी का कहना है कि माँसाहार भोजन का प्रसंस्करण और उत्पादन ग्रीन हाउस गैसों को सर्वाधिक जन्म देता है । बढ़ते तापमान पर नियंत्रण के लिए शाकाहार की ओर जाना एक बेहतर विकल्प है । डॉ. पाचोरी ने कहा कि इस शताब्दी में १.१ से ६.४ डिग्री सेल्सियस तक तापमान में वृद्धि हो सकती है । गंगोत्री ग्लेशियर सहित हिमालय के ग्लेशियर सहित हिमालय के ग्लेशियरों का पिघलना चिंता का विषय है । उन्होने जलवायु परिवर्तन के लिए विकसित देशों को अधिक जिम्मेदार बताते हुए कहा कि उनके विकास की गतिविधियाँ इस समस्या को और गंभीर बना रही हैं । डॉ. पचौरी ने कहा कि प्राकृतिक सम्पदाआें का अंधाधुध दोहन विनाश की ओर ले जा रहा है । मैदानों में अपनाया जा रहा विलासितापूर्ण जीवन और विकास का मॉडल पहाड़ों के लिए उपयुक्त नही है । उ.प्र. में तुलसी की खेती बनी वरदान ! तुलसी एक देवी और पवित्र पौधा माना जाता है, लेकिन तुलसी की जैविक खेती को लेकर भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में उत्तरप्रदेश का आजमढ़ जनपद अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाता जा रहा है । इस खेती ने आतंकवाद की नर्सरी कहे जाने वाले आजमढ़ के किसानों का जीवन ही बदल दिया है । वैसे तुलसी की जैविक खेती कई राज्यों में होने लगी है , लेकिन इसकी शुरूआत का खेती कई राज्यों में होने लगा है, लेकिन इसकी शुरूआत का श्रेय आजमगढ़ को है । यहाँ की जैविक खेती की जैविक खेती से उत्पादित तुलसी की अमेरिका, जर्मनी, जापान, स्विट्जरलैंड सहित दुनिया के अनेक स्थानों पर आपूर्ति हो रही है । इस खेती ने किसानों को इतना आत्मनिर्भर बना दिया कि इसकी खेती में लगे किसानों ने इसे अपनी नौकरी मान लिया है । अब तक आजमढ़ जिले के किसान रबी, व खरीफ फसलों की रासायनिक खेती पर आत्मनिर्भर थे, लेकिन आजमढ़ शहर के करीब कम्हेनपुर गाँव में जन्में डॉ. नरेन्द्र सिंह ने तुलसी पर शोध क्या किया कि आजमगढ़में कृषि के क्षेत्र में एक नई क्रांति ला दी । डॉ. नरेन्द्र सिंह और जापान से आए भारत मित्रा की वैचारिक समानताआें ने वर्ष २००० में तुलसी की जैविक खेती का सूत्रपात किया । पहले डॉ. नरेन्द्र ने अपने गाँव कम्हेनपुर से अपने ही खेत में इसकी शुरूआत की । पहले ३ वर्षोंा तक खेत को रासायनिक खादों के कुप्रभाव से बाहर किया, फिर शुरू हुआ जैविक खेती में तुलसी के पौधों की बुवाई का सिलसिला । एक करोड़ सालाना आय: इस जैविक खेती के पीछे इन लोगों की यह सोच थी कि एक तो यह नई खेती होगी । दूसरे इस जनपद में बेहाल पड़े किसानों को सफलतापूर्वक आर्थिक ढाँचे में ढालने का संकल्प । यह संकल्प रंग लाया और सहज ६ वर्ष के सफल प्रयासों में कम्हेनपुर गाँव से शुरू हुई खेती आज १३ गाँवों में ७०० एकड़ से अधिक क्षेत्र में हो रही है । इससे यहाँ का किसान लगभग एक करोड़ रूपया सालाना प्राप्त् कर रहा है । यह देख अब अन्य किसानों में भी इसके प्रति रूझान बढ़ रहा है । राजनीतिक रूप से काफी मजबूत, किंतु उद्योग-धंधों की दृष्टि से पूरी तरह शून्य और कृषि के लिहाज से अधिसंख्य ऊसर क्षेत्र, इसे विडम्बना ही कहा जाए । पिछले डेढ़ दशक से अधिक समय से विधानसभा, विधान परिषद, लोकसभा और राज्यसभा में लगभग दो दर्जन जनप्रतिनिधियों की भागीदारी के बाद भी इस जनपद में उद्योग-धंधों के नाम पर कुछ हो न सका । किसानों के लिए `कैश क्राप' के रूप में पैदा होने वाले गन्ने में निरंतर इस कदर गिरावट आई कि अब तो गन्ने की फसल नहीं के बराबर है । उद्योग के नाम पर रही-सही एक चीनी मिल भी बचा न सके । इस वर्ष वह भी पूरी तरह बंद हो चुकी है । ऐसे में इसी जनपद के एक मामूली शोधकर्ता डॉ. नरेन्द्र सिंह के प्रयास ने किसानोंको `कैश क्रेप' के रूप में जैविक खेती विकसित कर आशा की एक नई किरण जरूर जगा दी है । ***
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