गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

ऊर्जा जगत

ऊर्जा का भ्रम
रावलिन कौर / टॉम केन्डाल
विश्व की प्राचीनतम सभ्यता की साक्षी गंगा आज विलुप्त् होने के कगार पर है। इस इलाके में कुछ किलोमीटर के अंतराल के पश्चात एक के बाद एक गंगा व सहायक नदियों का प्रवाह मोड़कर विद्युत उत्पादन के प्रयास किये जा रहे हैं । एक ओर जहां हिमालय क्षेत्र की नदियों में इतना पानी ही नहीं बचा है जिससे कि टरबाईन चल सकें वहीं इसके बावजूद निवेशकों द्वारा यहां पर विद्युत परियोजनाआें की स्थापना नए संशय को जन्म दे रही है । टिहरी से पावन गंगौत्री जाने वाले घुमावदार रास्ते पर आपको प्रत्येक पांच सौ मीटर पर अशुभ सूचना देते बोर्ड लगे मिल जाएंगे जिन पर लिखा होता है आगे विस्फोट क्षेत्र है । गंगा के अलौकिक दर्शन को आए श्रृद्धालुआें को इन सूचना पटों के साथ ही बांध गंगा की हत्या है और गंगा को अविरल बहने दो जैसे नारे भी बहुतायत में दिखाई देते है । गंगा अब पनबिजली परियोजनाआें के निशाने पर है । साथ ही इसकी सहायक भागीरथी और अलकनंदा के जलग्रहण क्षेत्र में पचपन पनबिजली परियोजनाआें पर या तो निर्माण जारी है या शीघ्र ही शुरू होने वाला है। गंगोत्री से देवप्रयाग व अलकनंदा तक के १४५ किलोमीटर के हिस्से पर नौ बड़े बांधों के अलावा कई छोटे बांध आकार लेने वाले हैं । इनमें से सबसे ज्यादा ऊँचाई पर है गंगोत्री से मात्र २७ किलोमीटर पर स्थित भैरोंघाटी बांध । इस सारी कवायद को केन्द्रीय प्रदूषण निवारण मंडल के पूर्व सदस्य सचिव जी.डी.अग्रवाल ने अपने नौ दिवसीय उपवास के माध्यम से चुनौती देते हुए मांग रखी थी कि उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच के १२५ किलोमीटर के हिस्से पर कोई परियोजना लागू नहीं की जाये । ऐसा होने पर नदी का प्रवाह बाधित होगा । परंतु उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड के सभापति एवं मुख्यमंत्री के सलाहकार योगेन्द्र प्रसाद का कहना है कि हमारे पास राजस्व के स्त्रोत बहुत सीमित हैं । फिर इनमें हम बाढ़ एवं सिंचाई के लिए जल नियंत्रण भी कर पाएंगे । गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र का मानना है इंजीनियरों को नदी का सिंचाई अथवा विद्युत उत्पादन किए बगैर समुद्र में जा मिलना व्यर्थ प्रतीत होता है । किंतु नदी के नैसर्गिक प्रवाह के साथ इस तरह की छेड़छाड़ के भंयकर परिणाम निकलेगें । नदीजल के समुद्र में मिलने से खारे पानी के फैलाव को रोकने में मदद मिलती है । यह अनिवार्य है , लेकिन दुर्भाग्य से इसे अवैज्ञानिक ठहराया जाता है । फिर हिमालय क्षेत्र में बड़े भूकंप की आशंका को भी तो नकारा नहीं जा सकता । बांध के टूटने के बाद निचले इलाकों की बाढ़ से कैसे रक्षा होगी ? केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का मानना है कि सभी नदियोें के लिए न्यूनतम बहाव का एक ऐसा पूर्व निर्धारित स्तर तय नहीं हो सकता । क्षेत्र विशेष की परिस्थिति के अनुसार ही प्रत्येक मामले में न्यूनतम बहाव का निर्धारण किया जाना चाहिए । पर्यावरण प्रभाव का आकलन की शर्त है कि नदियों में न्यूनतम बहाव कायम रखा जाए । इसका आकलन नदी के बहाव के पिछले ३०-४० वर्षोंा के आंकड़ों के आधार पर करते हैं । परंतु अधिकांश मामलों में इन रिपोर्टस् को गंभीरता से नहीं लिया जाता । डब्ल्यू डब्ल्यू एफ की नीति एवं कार्यक्रम विकास विभाग की वरिष्ठ संयोजक विद्या सुंदरराजन का न्यूनतम बहाव की अवधारणा को सिरे से नकारते हुए कहना है कि इसका आकलन मात्र ेंमनुष्यों की आवश्यकता के लिहाज से किया जाता है । वस्तुत: इसके आकलन के समय पर्यावरण की आवश्यकताआें व भूमिगत जलपुनर्भरण, सिंचाई, शहरी आवश्यकताएं, जलवायु, जलीय ऑक्सीजन मिट्टी का जमाव जैसे मुद्दों पर भी विचार किया जाना चाहिए । ईआयए बांधों में मिट्टी के जमाव के मुद्दे पर भी खामोश है, जबकि जमाव से निपटने का खर्च परियोजना लागत का २० से ३० प्रतिशत तक होता है । मानेरी भाली खख के बैराज में नौ करोड़ टन मिट्टी प्रतिवर्ष बहकर आती है। गंगाा के निचले इलाके व बंगाल की खाड़ी स्थित कृषकों के लिए बहकर आई यह मिट्टी बहुत उपयोगी होती है । किंतु नए बांध इसे वहीं रोक लेंगे । इस मुद्दे पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया है । बांधों की ईआयए रपटों पर अमेरिका की एनवायमेंट लॉ अलायंस वर्ल्डवाइड द्वारा किए गए आकलन के अनुसार मिट्टी का यह जमाव निचले इलाके में गंगा को एक भुखी नदी बना देगा । चूकिं पानी में मिट्टी की कमी होगी अत: निचले इलाकोंमें यह अपनी प्राकृतिक क्षुधा को अपने ही किनारों को काटकर शांत करेगी । इस वजह से जैविक खाद्य श्रंृखला प्रभावित होने से निचले इलाकों में कई किलोमीटर तक मत्स्यपालन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा । राज्य विद्युत मंडल जो इनके प्रमुख ग्राहक हैं को भी नुकसान उठाना पड़ेगा । क्योंकि विद्युत मिले या न मिले वे तो एक निश्चित रकम चुकाने के लिए बाध्य है । सब्सिडी आधारित वर्तमान शुल्क संरचना पनबिजली परियोजनाआें को निवेश के लिए आकर्षक विकल्प तो बनाती है किन्तु उन्हें विद्युत उत्पादन को ऊँचा रखने अथवा संसाधनों के पूर्ण उपयोग हेतु प्रोत्साहित नहीं करती है । विशेषज्ञों का कहना है परियोजना स्थापित करने वाले उद्यमियों की रूचि बहाव और मिट्टी के जमाव के सही आकलन में नहीं होती । योजना बनाते समय बहाव के पुराने आकड़ों का ही उपयोग किया जाता है ऐसे में विद्युत उत्पादन अनुमान से काफी कम होता है । भारत में निगरानीशुदा जलाशयों में गत बारह वर्षोंा के दौरान संग्रहण क्षमता से २५ प्रतिशत तक कम जलभराव हुआ है और प्रति मेगावाट स्थापित क्षमता में १९९४ की अपेक्षा २१ प्रतिशत की कमी हुई है । वास्तविकता यह है कि ज्यादातर बांध और पनबिजली परियोजनाएं गत ५० वर्षोंा के बहाव के आधार पर बनाई गई हैं न कि वास्तविक बहाव और जलवायु एवं बहाव में संभावित परिवर्तन का आकलन करके । दक्षिण एशिया बांध, नदी व व्यक्तियों के नेटवर्क के हिमांशु ठक्कर का कहना है कि परियोजनाआें को इस दावे के आधार पर स्वीकृति मिल जाती है कि वे अवलम्बित स्तर पर ९० प्रतिशत तक विद्युत उत्पादन में समक्ष होंगी । (इसका अर्थ यह भी है कि वे अपने अनुमानित जीवनकाल में क्षमता का ९० प्रतिशत विद्युत उत्पादन करती रहेंगी) इसे डिजाइन जनरेशन भी कहा जाता है । वहीं केन्द्रीय विद्युत प्राधिकारी से प्राप्त् पिछले २३ वर्षोंा के आंकड़े बताते है कि वर्तमान कार्यशील परियोजनाआें में से ८९ प्रतिशत निर्धारित स्तर से कम विद्युत उत्पादन कर रहीं है । हिमालय पर्वतश्रृंखला अपेक्षाकृत नयी है । जिससे यहां बारिश के मौसम मेंं भूस्खलन आदि का खतरा बना रहता है । विस्पोट, खुदाई, सुरंग निर्माण और मिट्टी के बड़ी मात्रा में ढेर लगाने से यह खतरा और बढ़ सकता है । इस क्षेत्र में भूकंप की आशंका भी बनी रहती है । अत: सबसे बड़ा खतरा तो यही है । हालांकि उद्यमियों को इसकी कोई चिंता नहीं है । एनटीपीसी के अधिकारी कहते है कि अब तकनीक बहुत उन्नत हो गई है अत: बांधों को कोई खतरा नहीं है । वहीं नेशनल जिओफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट हैदराबाद के हर्ष गुप्त का प्रश्न है कि बांधों के आसपास के पर्यावरण का क्या होगा ? अगर भूकंप आता है तो नदी मलबे से भर जाएगी और वह जब बांधों में इकट्ठा होगा तो उनका जीवनकाल वैसे ही सिकुड़ जाएगा । इसी संस्थान के वी.पी. डिमारि का कहना है, हिमालय अंचल में चट्टाने ठीक से जमी हुई नहीं है । खासतौर से सतह से थोड़ा नीचे । इसलिए जब सुरंगे खोदी जाएंगी तो ऐसी ढ़ीली चट्टाने भी उसमें मिलने की संभावना है । ऐसे में सुरंग में उपर अगर पर्याप्त् ठोस छत नहीं होगी तो सुरंग के दरकने के खतरे ज्यादा होंगे। स्थानीय निवासियों से किए जाने वाले क्षतिपूरक जमीन और रोजगार के वादे भी पूरे नहीं होते । यहां प्रभावित सत्तर परिवारों में से सिर्फ ३५ लोगों को रोजगार मिला, वह भी चौकीदारी का । इतनी कवायद, विस्थापन, पर्यावरण हास और खतरों को नियंत्रण की कीमत पर भी विद्युत उत्पादन एक सपना ही रह जाता है । त्रुटिपूर्ण नीतियां अक्षम परियोजनों को प्रभावित करेगी । अगर प्रत्येक योजना का अधिकतम लाभ उठाया जाए तो पूरे दृष्यपटल को ही बदल देने वाली योजनाआें की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी । किसी परियोजना को अनुमति देने के पूर्व ही जलवायु परिवर्तन, जल संबंधी आकड़ों ग्लेशियर के पिघलने और विस्तृत तलछट भार संबंधी अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए । योजनाकर्ताआें को यह ध्यान में रखना होगा कि नदी एक महत्वपूर्ण सम्पदा है । ***

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