मंगलवार, 16 मई 2017


प्रसंगवश   
शुभ सन्देश
डॉ. शिवगोपाल मिश्र, संपादक विज्ञान, प्रधानमंत्री विज्ञान परिषद् प्रयाग

    यूं तो हिन्दी में विज्ञान विषयक पत्रिकाआें की कमी बताई जाती है किन्तु साथ ही यह देखकर प्रसन्नता होती है कि कुछ विज्ञान पत्रिकाएँ प्रतिकुल परिस्थितियों में भी लगातार प्रकाशित होती आ रही है । संभवत: पर्यावरण डाइजेस्ट भी ऐसी ही पत्रिका है । यह एक मासिक लघु आकार की मासिक पत्रिका है जिसमें पर्यावरण विषयक प्रचुर सामग्री रहती है जो छोटे बड़े मौलिक लेखों के अलावा कविताआें एवं संक्षिप्त् सामयिक वैज्ञानिक सूचनाआें से संपृक्त रहती है । यह पत्रिका अपने नाम पर्यावरण डाइजेस्ट को पूरी तरह चरितार्थ करती है । हिन्दी - अंग्रेजी का मिश्रण है जिसमें डाइजेस्ट अंग्रेजी है । मुझे स्मरण हो आता है नवनीत नामक हिन्दी डाइजेस्ट पत्रिका का । उसने कितनी ख्याति अर्जित की । उसी तरह पर्यावरण डाइजेस्ट निरन्तर ख्याति - अभिमुख होती जा रही है । बिना किसी भेदभाव में उसमें लेख प्रकाशित होते है, सामयिक उपयोगी सामग्री अन्य स्त्रोंतों से भी ली जाती   है ।
    पर्यावरण डाइजेस्ट के सम्पादक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित बहुत ही कर्मठ एवं कार्यकुशल व्यक्ति है । वे मध्यप्रदेश के एक छोटे से शहर रतलाम से विगत ३० वर्षो से इसका सम्पादन करते आ रहे है । यह कोई छोटी अवधि नहीं है । डॉ. पुरोहित की लगन और निष्ठा से ही यह पत्रिका प्रगति के पथ पर है ।
    इस पत्रिका में स्थायी स्तंभ, प्रसंगवश, पर्यावरण परिक्रमा, ज्ञान-विज्ञान और पर्यावरण समाचार के अन्तर्गत पर्यावरण के क्षेत्र में हो रही नित नवीन हलचलों का समावेश रहता है । भाषा के मामले में यह पत्रिका उदार है । पारिभाषिक शब्दों को लेकर उलझती नहीं, फलत: सर्वसाधारण को भी समझने में कठिनाई नहीं आती ।
    मैं इस पत्रिका का प्रारंभ से ही पाठक रहा हॅू । मैं विज्ञान परिषद् परिवार की ओर से पर्यावरण डाइजेस्ट के ३० वर्ष पूरा होने पर बधाई देता हॅू तथा कामना करता हॅू कि यह निरन्तर प्रगति करती रहे । 
सम्पादकीय
पर्यावरण चेतना के संकल्प के तीन दशक
  क्रांतिकुमार वैद्य
    इस वर्ष जनवरी माह से पर्यावरण डाइजेस्ट प्रकाशन के ३१वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है । तीन दशक की प्रकाशन यात्रा मेंपत्रिका को अपने पाठकों, लेखकों एवं सहयोगियों का निरन्तर स्नेह मिला, इसी स्नेह की ऊर्जा से इस संकल्प का सातत्य बना हुआ है ।
    म.प्र. के रतलाम शहर से सन् १९८७ में ट्रेडल मशीन पर मुद्रण से लेकर वर्तमान में ऑफसेट पर बहुरंगी आवरण सहित मुद्रण और इंटरनेट संस्करण तक की यात्रा में पत्रिका में पर्यावरण से जुड़े विभिन्न विषयों पर राष्ट्रीय/अन्तराष्ट्रीय लेखकों, पत्रकारों सामाजिक कार्यकर्ताआें और विचारकों के लगभग चार हजार से अधिक लेख प्रकाशित हुए हैं । इनमें पर्यावरण से जुड़ी ज्वलंत राष्ट्रीय समस्याआें, पर्यावरण और विकास, रचनात्मक प्रयास, प्रदूषण, पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता प्रबंधन और वन संरक्षण जैसे सैकड़ों विषय शामिल हैं ।
    पर्यावरण संतुलन के मार्ग को प्रशस्त करने वाली पर्यावरण डाइजेस्ट केवल पत्रिका ही नहीं है, अपितु जन चेतना का एक सशक्त अभियान है । पर्यावरण चेतना का यह छोटा सा दीप अनेक झंझावातों के बावजूद शिशु मृत्यु के कठिन समय को पार कर यहां तक पहुंच गया है, तो इसके पीछे पर्यावरण प्रेमी मित्रों का संबल रहा है । यह संबल ही वर्तमान और भविष्य की यात्रा की गति एवं शक्ति का आधार है । पर्यावरण डाइजेस्ट ने आज तक कभी किसी सरकार संस्थान या आंदोलन का मुख पत्र बनने का प्रयास नहीं किया । पत्रिका की प्रतिबद्धता सदैव सामान्य जन के प्रति रही है ।
    आज मानवीय असंवेदनशीलता और प्रकृति के प्रति आदर भाव मे कमी आने से पर्यावरण के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया । इन खतरों के प्रति लोक चेतना पैदा करने में पर्यावरण डाइजेस्ट अग्रणी रही है । पर्यावरण डाइजेस्ट की ३० बरसों की प्रकाशन यात्रा में जिन मित्रों का सहयोग और आशीर्वाद मिला उनके प्रति आभार के साथ ही इस बीच कुछ सहयोगी बिछड़ गये, उनका पुण्य स्मरण करते हुए उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते है ।  इन्हीं शब्दों के साथ.....             
पत्रिका - १
जन-जागरण के निकष पर पर्यावरण डाइजेस्ट
डॉ. मेहता नगेन्द्र सिंह

    मेरे लिए एक सुखद संयोग रहा कि जिस वर्ष यानी १९८७ से डॉ. खुशालसिंह पुरोहित के कुशल सम्पादन में पर्यावरण डाइजेस्ट का प्रकाशन शुरू हुआ, उसी वर्ष (१४ सितम्बर १९८७) मैंने भी शेष उम्र हिन्दी की सेवा करने का व्रत बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन पटना के मंच से लिया था ।
    बाद में वर्ष १९९२ से मेरे द्वारा दलित-साहित्य और स्त्री-विमर्श आन्दोलन के सदृश्य पर्यावरण-साहित्य सृजन का संकल्प लिया गया । इसलिए कि पर्यावरण ही एकमात्र ऐसा विषय है, जिसका सीधा संबंध हमारे जीवन-अस्तित्व से है । इस संकल्प में स्वनिर्मित दो मंत्र यथा-हरा वृक्ष काटना प्रज्ञा-अपराध है और वृक्ष शरणं गच्छामि को शामिल किया, जो आगे चलकर पर्यावरण-साहित्य सृजन और आन्दोलन का मूलाधार बना ।
    इस बीच आचार्य शिवपूजन सहाय के भाषा अग्रदूत साहित्यवाचस्पति डॉ. श्रीरंजन सूरिदेवजी का सानिध्य और सम्पादकीय मार्गदर्शन प्राप्त् हुआ । ये बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना से प्रकाशित परिषद पत्रिका जो आचार्य शिवपूजन सहाय द्वारा प्रारंभ हुई थी, का बहुत दिनोंतक सम्पादन करते  रहे ।
    इन्हीं से अनुप्रेरित होकर वर्ष १९९५ में मेरे द्वारा पर्यावरण शिक्षा और जनचेतना की साहित्यकी त्रैमासिकी हरितवसुन्धरा का प्रकाशन शुरू किया गया । इस क्रम में हरित वसुन्धरा के सम्पादन-परामर्शी डॉ. श्रीरंजन सूरिदेवजी से समय-समय पर सम्पादन कला की बारीकी को आत्मसात करने का अवसर मिला । इनके निम्न कथन -
    (१) हिन्दी की साहित्यकी पत्रकारिता के क्षेत्र में सम्पादन कला की विशिष्ट परम्परा रही है । सम्पादक लेखक के अनगढ़ निर्माण को फिर से गढ़ता है । उसकी अव्यवस्थित सृष्टि को फिर से व्यवस्थित करता   है । इस गढ़ने और व्यवस्थित करने के कार्यमें सम्पादक अपनी कारयित्री और भावियित्री, दोनों प्रकार की प्रतिभाआें का विनियोग करता है । कुल मिलाकर, रचनाआें में निखार लाना ही सम्पादक का मुख्य लक्ष्य  है ।
    इसीलिए, सम्पादक कुशल कलाकार माली के समान होता है, जो लेखक द्वारा लगाई गई रचना पौध के बेतरबीब और अनावश्यक फैलाव को काट-छाँट कर न केवल सजाता-सँवरता है, अपितु उसमें कई नये वृत्तों का पुनर्विन्यास करके उसे और अधिक निखार देता है ।
    (२) सम्पादन वस्तुत: साधना का पर्याय है । सम्पादन - कार्य के लिए मनोवाक्याय का पूर्ण योग या बहिरन्त: ऐन्द्रिय चेतना की पूर्ण समानता अपेक्षित होती है, क्योंकि सम्पादक के समक्ष विभिन्न लेखकों की विभिन्न रचनाएँ अपनी विभिन्न भाषा भंगिमाआें के साथ उपस्थित होती है और सम्पादक जिस पत्र-पत्रिका का प्रभारी होता है उसकी अपनी स्वीकृत भाषा नीति होती है । विशेषकर वैज्ञानिक शोध-पत्रिका के सम्पादन को तो भाषा और वर्त्तनी की शोध मूल्यात्मक एकरूपता पर अधिक ध्यान देना पड़ता है ।
    (३) सम्पादक, प्रछन्न लेखक होता है, क्योंकि उसकी लेखकीय प्रतिभा व्यक्त न होकर सम्पाद्य रचनाआें की प्रसाधन-क्रियामें अन्तर्निहित रहती है । इसलिए सम्पादन-कार्य सहज ही श्रमसाध्य होता है और यही श्रमसाध्यता सम्पादन कला के नाम से अभिधेय होती है । जो सम्पादक जितना अधिक कलामिनिवेशी या तत्वामिनिवेशी होगा, उनकी सम्पादन शैली उतनी ही अधिक कलारूचिर एवं मनोज्ञ    होगी । को मैंने अपना सम्पादकीय-निकष बनाया और यह भी जाना कि एक श्रेष्ठ सम्पादन के लिए सुतीक्ष्ण प्रतिभा और शास्त्रज्ञता के साथ-साथ रचना के विवेचन और चुनाव की भी दक्षता होनी चाहिए । इसके लिए विषयक-ज्ञान भी जरूरी है ।
    प्रस्तुत आलेख तैयार करने तक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुआ, लेकिन समय-समय पर दूरभाष पर बातें होती रही है । उनके श्रमसाध्य सम्पादकीय सूझ-बूझ को नमन करना मेरा सहकार्मिक दायित्व है । डॉ. खुशालसिंह पुरोहित से मेरा शाब्दिक-सम्बन्ध वर्ष १९९६ से ही स्थापित हो चुका था, तब से लगातार पर्यावरण डाइजेस्ट का नियमित पाठक हॅू ।
    विषय-बोध के साथ-साथ सम्पादकीय कला के विभिन्न पहलुआें को एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपनाता रहा, इसलिए कि डॉ. पुरोहित पूर्व कथित निष्कर्ष पर खड़े उतरे । इनका सम्पादन कार्य एक मिशन के तहत प्रतीत होता है । पत्रिका-प्रकाशन की निरन्तरता सम्पादक के श्रम और कुशल-प्रबंधन पर निर्भर करती है ।
    पर्यावरण विषय-बोधक जनजागरण के निष्कर्ष पर पर्यावरण डाइजेस्ट की अहम् भूमिका रही है । माना कि पत्रिका के प्रकाशन में कतिपय सरकारी सहयोग मिलता रहा, लेकिन उससे ज्यादा पाठकों का प्यार और सहकर्मियों का सहयोग भी रहा । डॉ. पुरोहित यह भी भलीभांति जानते है कि सम्पादक, लेखक की प्रतिभा का हनन नहीं करता है उसकी रचना को विकृत नहीं करता बल्कि उसकी रचना में चार चाँद ला देता  है ।
    इनका भी मानना है कि जहाँ पर्यावरण के प्रति आस्था हो और समर्पित भाव से रचनात्मक प्रयास किये जाएँ तो साधन-सुविधा के अभाव में भी जीवटता के साथ कार्य सम्पादित हो सकते है । जैसा कि मैंने भी हरित वसुन्धरा के माध्यम से इसे स्वीकारा है ।
    कहने के बहुत कुछ है, लेकिन फिलहाल पर्यावरण डाइजेस्ट के विषयक पहलुआें पर केन्द्रित होना चाहॅूंगा । क्योंकि पहली बार डॉ. पुरोहित ने मुझसे समीक्षार्थ अनुरोध किया है । अनुरोध का अनुपालन करना मेरी विवशता नहीं बल्कि पर्यावरण संरक्षण के प्रति मेरी प्रतिबद्धता है ।
    हरित वसुन्धरा कार्यालय में पर्यावरण डाइजेस्ट का ५२ चयनित अंक उपलब्ध हैं जिनमें पर्यावरण से संबंधित कई महत्वपूर्ण आलेखों का प्रकाशन किया गया है । जिनका फिर से अवलोकन निम्न सूची के अनुसार किया जा सकता है, जो पुनर्पठनीय  हैं -
१.  वर्ष १० अंक ९ (१९९६)
(i) अमृता और पर्यावरण रक्षक विश्नोई समाज
(ii) दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष
(ii) छीजती ओजोन छतरी
२.  वर्ष ११ अंक १२ (१९९७)
(i) विकास बनाम जिंदा रहने का  सवाल
(ii) सेबी ने प्लान्टेशन योजनाआें पर प्रतिबंध लगाया
३.  वर्ष १२ अंक १ (१९९८)
(i) प्लास्टिक का बढ़ता उपयोग
(ii) पर्यावरण प्रदूषण का बढ़ाता दौर
(iii) गाँवों के शहरीकरण की सनक
४.  वर्ष १२ अंक ४ (१९९८)
(i) प्राकृतिक विपदाएँऔर विकास  की गतिविधियाँ
(ii) अन्नपूर्णा मिट्टी को बचाइये
(iii) पर्यावरण शिक्षा की उपायदेयता
५.  वर्ष १२ अंक १२ (१९९८)
(i) ऊर्जा-संकट और हमारी प्राथमिकताएँ
(ii) एकल वृक्षारोपण से बिगड़ता पर्यावरण
(iii) ओजोन परत का टूटता कवच
६.  वर्ष १६ अंक २ (२००२)
(i) नदियों को जोड़ने की योजना
(ii) इको-फ्रेन्डलीप्लास्टिक
७.  वर्ष १६ अंक ९ (२००२)
(i) पानी का निजीकरण
८.  वर्ष १७ अंक २ (२००३)
(i) जैविक विविधता का आंकलन
(ii) पर्यावरण में प्लास्टिक का खतरा
(iii) सूखा और मरूस्थलीकरण
९.  वर्ष १८ अंक १० (२००४)
(i) चुनिन्दा पौधे लगाइये और किस्मत चमकाइये
१०.  वर्ष १९ अंक ५-६ (२००५)
(i) पर्यावरण चेतना का आधार
(ii) वेदों में पर्यावरण चेतना
(iii) बोतल में बंद पानी का कमाल
११.  वर्ष १९ अंक ८ (२००५)
(i) पर्यावरण सरंक्षक और सम्पोषक सूर्य
(ii) जानवर भी व्यक्तित्व के धनी है
(iii) क्योटो संधि ठेगे पर
१२.  वर्ष १९ अंक ९ (२००५)
(i) जैव संरक्षण क्यों जरूरी है
(ii) रसोई घर में धुएँ का प्रदूषण
(iii) वन हमारे जीवन प्राण
१३.  वर्ष २० अंक २ (२००६)
(i) आपदाआें से बचाते है मैन्ग्रोव
(ii) घातक अपशिष्ट का आयात
(iii) पैसों से तुलेंगे पेड़
१४.  वर्ष २० अंक ३ (२००६)
(i) प्रकृति में होली का रंग
(ii) पर्यावरणीय मुल्यांकन
(iii) भारतीय पानी पर विश्व बैंक की रिपोर्ट
१५.  वर्ष २० अंक ६ (१९९६)
(i) बोतल बंद पानी से बढ़ता प्लास्टिक कूड़ा
(ii) पर्यावरण शिक्षा कैसी हो
(iii) अनुमानों से ज्यादा गर्म होगी धरती
१६.  वर्ष २० अंक ७ (२००६)
(i) कहर ढा रहा ई-कचरा
(ii) गाँव में प्रदूषण और नियंत्रण
(iii) पौधारोपण का पौराणिक महत्व
१७.  वर्ष २० अंक ८ (२००६)
(i) भारत में जल के निजीकरण के खतरे
(ii) शीतल पेय में कीट नाशक
१८.  वर्ष २० अंक १० (२००७)
(i) जल का निजीकरण : यक्ष प्रश्न
(ii) अलनीनों के कारण धरती को खतरा
१९.  वर्ष २१ अंक २ (२००७)
(i) संजीवन बूटी
(ii) विकास या विकास का आंतक
(iii) अलनीनों के कारण गर्म वर्ष २००७
(iv) ओजोन परत में क्षरण
२०.  वर्ष २१ अंक ४ (२००७)
(i) जलवायु-परितर्वन पर कई लेख
(ii) ग्लोबल वार्मिग पर विशेष
२१.  वर्ष २१ अंक ६ (२००७)
(i) पानी पर सरकार की नीतियाँ
(ii) भारत और ग्लोबल वार्मिग का  सामना
(iii) विलुप्त् होते जीव-जन्तु और पर्यावरण
(iv) प्रार्थना के स्वर (कविता)
२२.  वर्ष २१ अंक ७ (२००७)
(i) दिल्ली के पेड़ों की व्यथा कथा
(ii) ग्लोबल वार्मिग : दूसरे का अपराध
(iii) पेड़-पौधों में भी प्राण
२३.  वर्ष २१ अंक ९ (२००७)
(i) जीवाश्म: हमारे काल-प्रहरी
(ii) जलवायु - परिवर्तन के खतरे
(iii) जीवाश्म - ईधन का संरक्षण और विकास
२४.  वर्ष २१ अंक १० (२००७)
(i) जल का निजीकरण या जल-डकैती 
(ii) जल है एक उपहार
२५.  वर्ष २२ अंक १ (२००८)
(i) जलाशयों की जीवन्त विरासत
(ii) वन रहवास और वनवासी
(iii) जलवायु-परिवर्तन पर भविष्य की चिन्ता
२६.  वर्ष २२ अंक ३ (२००८)
(i) संश्लेषित रंग करते जीवन बदरंग
(ii) वन और जलवायु परिवर्तन
(iii) पर्यावरण-संरक्षण और महिलाएँ
२७.  वर्ष २२ अंक ४ (२००८)
(i) विकल्पहीन नहीं है खेती
(ii) सुन्दरवन : ग्लोबल वार्मिग का पहला शिकार
(iii) नर्मदा घाटी : विस्थापन और पुनर्वास
२८.  वर्ष २२ अंक ५ (२००८)
(i) अब क्यों नहीं बौराता वसंत
(ii) कहानी कहते पत्थर
(iii) खतरे में कोरल भित्ति
२९.  वर्ष २३ अंक २ (२००९)
(i) गंदा पानी का गणित
(ii) पेड़ भी करते हैं तर्पण
(iii) पर्यावरण सही रहे
३०.  वर्ष २३ अंक २ (२००९)
(i) प्लास्टिक और पर्यावरण
(ii) जलवायु परिवर्तन एक नई चुनौती
(iii) पॉलीथीन-अपशिष्ट (दोहे)
(iv) पशु-पक्षियों की स्मरण शक्ति
३१.  वर्ष २३ अंक ३ (२००९)
(i) दुनिया का प्रथम हरित संविधान
(ii) कल्पतरू की कल्पना
(iii) कार्बन ट्रेडिंग एवं वैश्विक तापन
(iv) वन है मानव जीवन का आधार
३२.  वर्ष २३ अंक ४ (२००९)
(i) भारतीय दर्शन में जल की महत्ता
(ii) पर्यावरण और व्यक्तिगत चेतना
(iii) तेजाबी बारिश के आसार
३३.  वर्ष २३ अंक ११ (२००९)
(i) हिंग-सर्वाधिक गंध वाला मसाला
(ii) निर्जला होती नदियाँ
(iii) हिमालय का पर्यावरण और जन भागीदारी
३४.  वर्ष २३ अंक १२ (२००९)
(i) भूमि प्रदूषण : संरक्षण और नियंत्रण
(ii) पेड़ हमारे प्राणदाता
(iii) प्रकृति के प्रांगण में
(iv) संजीवनी-कितना सच कितना मिथक
३५.  वर्ष २४ अंक २ (२०१०)
(i) जलवायु परिवर्तन के शिकार होते बच्च्े
(ii) भू-आकृति नियोजन और पर्यावरण
(iii) गुलमोहर
३६. वर्ष २४ अंक ३ (२०१०)
(i) प्रकृति और अर्थव्यवस्था
(ii) जैव विविधता का संरक्षण
(iii) पर्यावरण-प्रदूषण
३७.  वर्ष २४ अंक ४ (२०१०)
(i) पृथ्वी और ग्रीन पॉलीटिक्स
(ii) प्रदूषण मापने का नया पैमाना
(iii) पशु-पक्षियों के प्रेम-प्रसंग
३८.  वर्ष २४ अंक ५-६ (२०१०)
(i) धर्म और पर्यावरण
(ii) ग्लोबल वार्मिग के न्युनीकरण
(iii) पानी साफ करने वाली जादुई फली
३९.  वर्ष २४ अंक ७ (२०१०)
(i) धरती का अमृत पानी
(ii) आपदाआें को निमंत्रित करता समाज
(iii) देश की जल-संग्रह क्षमता में कमी
(iv) परम्परागत जलाशयों का संरक्षण
४०.  वर्ष २४ अंक ८ (२०१०)
(i) जलवायु को प्रभावित करते जीव
(ii) धरती क्यों सूखी : बारिश क्यों रूठी
४१.  वर्ष २४ अंक ९ (२०१०)
(i) कैसे हुई पृथ्वी की उत्पत्ति
(ii) जैविक नकल और वास्तविक जीवन
(iii) प्रकृति से विज्ञान पोषित
४२.  वर्ष २५ अंक २ (२०११)
(i) जैव-विविधता : हानि की गणना
(ii) जलवायु-परितर्वन और भारतीय कृषि
(iii) सहजन : चमत्कारी पेड़
४३.  वर्ष २५ अंक ४ (२०११)
(i) प्लास्टिक पर अधूरा प्रतिबंध
(ii) जीवन मूल्यों की अहमियत
४४.  वर्ष २५ अंक ५-६ (२०११)
(i) जैव-विविधता और पर्यावरण-संरक्षण
(ii) सुनामी के पर्यावरणीय दुष्परिणाम
४५.  वर्ष २५ अंक ९ (२०११)
(i) वन हमारी धरोहर
(ii) बिहार: विकास में पिसता गरीब
(iii) सूरज और ग्रहों के निर्माण की कहानी
४६.  वर्ष २६ अंक ४-५ (२०१२)
(i) क्या है जंगल की परिभाषा
(ii) कितनी ऊर्जा उत्पन्न करता है सूर्य
(iii) हल, बैल, छोड़ मुसीबत में किसान
४७.  वर्ष २६ अंक ७ (२०१२)
(i) हमारे धर्म ग्रंथों में वृक्ष-महिमा
(ii) कर्क रेखा के सरकने से जलवायु पर प्रभाव
४८.  वर्ष २६ अंक ९ (२०१२)
(i) हम दरख्त वापस नहीं ला सकते
(ii) पहाड़ और पानी
४९.  वर्ष २७ अंक ३ (२०१३)
(i) मूर्तियां बनी प्रदूषण सूचक
(ii) जैव-विविधता: संकट में जीवन की विरासत
५०.  वर्ष २७ अंक ६ (२०१३)
(i) तत्वों की उत्पत्ति की कहानी
(ii) पर्यावरण लेखन: दशा और दृष्टि
(iii) खतरे में है चंबल नदी की डाल्फिन
(iv) मानव निर्मित है बाढ़
५१.  वर्ष २९ अंक १ (२०१५)
(i) पर्यावरण का मुख्य धारा मीडिया
(ii) पर्यावरण का प्रदूषण कैसेदूर हो
(iii) भूगोल का आध्यात्म
५२.  वर्ष ३० अंक १ (२०१६)
(i) भारत की प्राकृतिक सम्पदा की लूट
(ii) भूकम्प क्षेत्रों का पुननिर्धारण
(iii) बदलते पर्यावरण का बढ़ता प्रकोप
    उपर्युक्त सूची की संक्षिप्त् विवरणी से यह ज्ञात होता है कि पर्यावरण डाइजेस्ट में पर्यावरण से संबंधित विविध पक्षों को उजागर करते हुए आलेख प्रकाशित होते रहे हैं । उम्मीद हीं नहीं, बल्कि विश्वास है कि आगे भी इसी तरह पर्यावरणीय जन-जागरण के क्षेत्र में यह पत्रिका अग्रणी बनी रहेगी ।
    एक बात और जो विशेष रूप से रेखांकित करने योग्य है कि सम्पादन की श्रमसाध्यता के लिए डॉ. खुशालसिंह पुरोहित को सरकारी और गैर सरकारी संस्थाआें के द्वारा समय-समय पर सम्मानित और पुरस्कृत भी किया गया, जिनमें राष्ट्रीय पर्यावरण सेवा सम्मान, पर्यावरण रत्न सम्मान, राष्ट्र गौरव सम्मान, रामेश्वरगुरू पुरस्कार और सम्पादक शिरोमणि उपाधि आदि प्रमुख हैं ।
    युग मनीषी साहित्यकार डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन ने अपनी टिप्पणी में लिखा था कि पर्यावरण डाइजेस्ट के सुयोग्य सम्पादक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित के सम्पादन में पत्रिका नैरन्तर्य के साथ ही स्तरीयता के मानक को बनाए रख सकी है, जो आज के समय को देखते हुए मूल्य आधारित पत्रकारिता और जीवन शैली का द्योतक है ।
    आज सारा विश्व पर्यावरण के निम्नीकरण को लेकर चिंतित है । यह भी ज्ञातव्य है कि जहाँ प्रकृति और पर्यावरण के प्रति आस्था हो और उसके संरक्षण हेतु समर्पित भाव से रचनात्मक प्रयास किये जाये तो साधन और सुविधा की कमी के बावजूद भी कार्य सम्पादित किये जा सकते है ।
    ऐसे अभावों के बीच डॉ. खुशालसिंह पुरोहित पर्यावरणीय संकटों के समय भी स्वयं और जनमानस को स्वच्छ, स्वस्थ और खुशाल बनाये रखने मेंपीछे नहीं    है । जन जागरण के निकष पर्यावरण डाइजेस्ट के साथ सम्पादक शिरोमणि डॉ. खुशालसिंह खरे उतरे हैं । कोटिश: साधुवाद ।
पत्रिका-२
हिन्दी पत्रकारिता में रतलाम का योगदान
डॉ. मोहन परमार
    रतलाम का हिन्दी पत्रकारिता इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है । भारत में हिन्दी के प्रथम समाचार पत्र उदन्त  मार्तंड के सन् १८२६ में प्रकाशन के २३ वर्ष पश्चात् मध्यप्रदेश में इन्दौर से १८४९ में पहला समाचार पत्र मालवा अखबार प्रकाशित हुआ ।
    रतलाम में सबसे पहले १८६७ में रत्नप्रकाश समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ । उस समय भारतीय पत्रकारिता में हिन्दुस्तानी हिन्दी एवं उर्दू भाषा में संयुक्त रूप से समाचार सामग्री प्रकाशित करने का प्रचलन था । उस दौर में प्रकाशित बनारस अखबार एवं मालवा अखबार इसी प्रकार के समाचार पत्र थे । रत्नप्रकाश साहित्यिक एवं समकालीन सांस्कृतिक गतिविधियों की जानकारी देने वाला पत्र था ।
     रतलाम के पंडित रामकिशोर नागर के संपादन में प्रकाशित इस पत्र में कौशल उन्नयन के अन्तर्गत मदरसों एवं विश्वविद्यालयों में रोजगारमूलक शिक्षा को महत्व दिया जाता था । क्षेत्रीय भाषा को प्राथमिकता के साथ ही स्त्री शिक्षा के विकास पर भी सामग्री होती थी । इस प्रकार राज्याश्रय प्राप्त् प्रथम पत्र रत्नप्रकाश अक्टूबर १८८७ तक नियमित प्रकाशित होता रहा ।
    रतलाम में हिन्दी पत्रकारिता में ऐसे प्रकाश स्तम्भ दिखायी पड़ते है जिनकी ज्योति हिन्दी पत्रकारिता के लिए  मशाल के समान है । रतलाम शहर को हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की दो गौरवशाली घटनाआें के साक्षी होने का सम्मान प्राप्त् है । भारत की पहली महिला पत्रिका और पहली पर्यावरण पत्रिका के प्रकाशन का गौरव रतलाम को प्राप्त् है ।
    सन १८८८ में रतलाम से श्रीमती हेमन्त कुमारी चौधरी के संपादन मेंदेश की पहली महिला पत्रिका सुगृहिणी मासिक का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था । श्रीमती हेमन्त कुमारी लाहौर में महाविद्यालय के प्राचार्य नवीनचन्द्र राय की बेटी थी और उनके पति आर.एस. चौधरी रतलाम राज्य की सेवा मेंथे । सुगृहिणी में स्त्री शिक्षा का प्रचार प्रसार एवं सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध महिलाआें में जागृति पैदा करने संबंधी सामग्री रहती थी ।
    देश की पहली महिला पत्रिका के प्रकाशन के लगभग एक शताब्दी पश्चात १९८७ में रतलाम से ही पर्यावरण पर देश की पहली राष्ट्रीय हिन्दी मासिक पर्यावरण डाइजेस्ट का प्रकाशन पर्यावरणविद डॉ. खुशालसिंह पुरोहित के संपादन में प्रारंभ हुआ । विगत तीन दशकों से पत्रिका का प्रकाशन नियमित हो रहा है । पर्यावरण डाइजेस्ट की यह विशेषता है कि इसमें समाचार, विचार एवं दृष्टिकोण का समन्वय है जो पत्रिका की पठनीयता को बनाये रखता है । समसामयिक मुद्दों ऊर्जा स्वास्थ्य, रहन सहन, वन्य जीवन, स्थायी विकास और प्रौघोगिक जैसे मुद्दों से जुड़ी वैचारिक सामग्री के प्रचार प्रसार में पत्रिका हमेशा अग्रणी रही है ।
    हिन्दी पत्रकारिता के विकास में रतलाम की पत्रकारिता ने उल्लेखनीय भूमिका का निर्वहन किया है जिसका वर्तमान स्वरूप हमारे सामने है । रतलाम पत्रकारिता की दृष्टि से सदैव विचारशील एवं प्रेरक रहा है । सन् १९३४ में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि गोपाल सिंह नेपाली के संपादन में साप्तहिक रतलाम टाइम्स का प्रकाशन प्रारंभ हुआ । इस पत्र में जैन जगत के समाचारों के साथ कहानी, कविता और लेख आदि प्रकाशित होते थे ।
    रतलाम टाइम्स तत्कालीन साहित्य का प्रवक्ता रहा है । स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान रतलाम टाइम्स द्वारा प्रकाशित हिन्दी विशेषांक मेंदेश भर के प्रमुख कवियों की रचनायें प्रकाशित की गयी थी । श्री नेपाली के संपादन में रतलाम से ही पुण्यभूमि नामक साप्तहिक पत्र का प्रकाशन भी हुआ था । अब तक रतलाम से प्रकाशित प्रमुख पत्रों में दैनिक प्रसारण, हमदेश, आलोकन, दैनिक चेतना, दैनिक प्रकाश किरण एवं स्वतंत्र ऐलान के साथ ही साप्तहिक गगन घोष, लोक राज्य, उपग्रह, प्रचंड, रतलाम समचार, रतलाम केसरी और रतलाम क्रानिकल आदि पत्रों का प्रकाशन होता रहा है । इन पत्र पत्रिकाआें का रतलाम के पत्रकारिता एवं साहित्य के विकास में अपना अमूल्य योगदान रहा है ।
    हिन्दी के बड़े समाचार पत्रों के आंचलिक संस्करणों की शुरूआत हुई तो पिछले कुछ वर्षोमें रतलाम से दैनिक भास्कर, राज एक्सप्रेस, दबंग दुनिया और पत्रिका के स्थानीय संस्करणों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ । इन दिनों रतलाम शहर से ६ दैनिक, २१ साप्तहिक, २ पाक्षिक एवं २६ मासिक पत्रों का प्रकाशन हो रहा  है ।
पत्रिका-३
जनसचेतक पत्रिका के पच्चीस वर्ष
डॉ. सुनीलकुमार अग्रवाल

    पर्यावरण पर प्रथम राष्ट्रीय हिन्दी मासिक पत्रिका का गौरव प्राप्त् है पर्यावरण डाइजेस्ट को । सवेदनशील पर्यावरणविद् एवं पत्रकार डॉ. खुशालसिंह पुरोहित के निर्देशन एवं सम्पादन में रतलाम (म.प्र.) में सन् १९८७ से निरन्तर उत्सापूर्वक प्रकाशित हो रही है यह उत्कृष्ट पत्रिका । और यह भी सुखद है कि दिसम्बर २०११ में अपने प्रकाशन के पच्चीस वर्ष पूर्ण कर लिये है ।
    अपने अथक प्रयास से देश-विदेश के पर्यावरण चिंतको, विचारकों एवं लेखकों को विस्तृत एवं बहुआयामी फलक प्रदान किया है इस प्रकृति- सचतेक पत्रिका ने । 
     आज दुनिया भर में पर्यावरण ध्वंस को लेकर गहरी चिंता है । ऐसे में जन मानस में पर्यावरण के प्रति समझ विकसित करने में पत्रिका ने अपना दायित्व बखूबी निभाया है तथा जन चेतना का सशक्त माध्यम सिद्ध हुई है ।
    विगत पच्चीस वर्षो से पत्रिका का हर अंक सुरूचिपूर्ण एवं सधा हुआ रहा है । सरल बोधगम्य सुगठित शैली में लिखे गये आलेख केवल सूचनापरक एवं गुणवत्ता पूर्ण रहे है वरन् पूर्ण संवेदनशीलता के साथ झकझोरते भी रहे हैं । प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति जनजन में आस्था जागने का काम पत्रिका ने किया है तथा मानवीय मूल्यों का रचनात्मक प्रस्तुति दी है ।
    पत्रिका की अपनी मौलिक पहचान है जिसमें ज्ञान-विज्ञान, समाचार, विचार और दृष्टिकोण, विमर्श पूर्ण आलेख तो शामिल हैं ही साथ ही साथ सामाजिक सराकारों, विकास एवं आर्थिक पहुलआें पर भी चर्चा होती है । जन स्वास्थ्य एवं रहन-सहन के तौर तरीकों पर भी ध्यान रहता है । वन एवं वन्य जीवन, प्रदूषण जनसंख्या एवं भूख जैसे ज्वलंत मुद्दो पर भी चिंता रहती हैं ।
    पत्रिका ने प्रकृतिएवं मानवीय संबधों को भी प्रभाव पूर्ण अभिव्यक्ति दी है । पत्रिका ने समय-समय पर सत्य अहिंसा प्रेम की भावना को उकेरा है और यही मूल भाव हमें पर्यावरण संरक्षण के प्रति सचेष्ट करता है । पत्रिका के माध्यम से हम पर्यावरण के धर्म-मर्म को भी समझ सके हैं ।
    पर्यावरण चिंतन एवं समकालीन सोच के साथ कदमताल करते हुए पत्रिका ने पच्चीस वर्ष की प्रकाशन यात्रा तय कर ली है । इस यात्रा में पूर्ण मनस्विता एवं निष्ठा के साथ अनेक पर्यावरणविद् एवं लेखक जुड़े है । पत्रिका ने सभी को गौरवान्वित किया है तथा गौरव पाया भी है जिससे हिन्दी में पर्यावरण पर प्रकाशित पत्रिकाआें में प्रतिष्ठा के शीर्ष पर है यह लघुपत्रिका ।
    पत्रिका कहीं भी अनर्गल प्रलाप नहीं करती है । पत्रिका जन-गण-मन को जागरूक तो करती है किन्तु किसी को आहत करने वाला या पीड़ा पहुँचाने वाला कटाक्ष नहीं करती । यही कारण है कि पर्यावरण डाइजेस्ट निरन्तर निर्विवादित रही है तथा स्वस्थ्य मानसिकता की द्योतक है और लोक चेतना का सशक्त माध्यम है ।
    पत्रिका का मुख पृष्ठ सुरूचिपूर्ण होता है । यह सम्पादक की विषयगत सूझबूझ एवं भाव प्रवणता का परिचायक है । मन-मस्तिष्क को झंकृत करने वाले चित्र हमारे चिंतन को भी उत्स प्रदान करते हैं । पत्रिका में कविता को भी स्थान है । कविता की संप्रेषणीयता मन को गहराई तक स्पर्श करती है ।
    पत्रिका प्रयोजन मूलक है जो विशेष जागरूकता दिवसों एवं पर्वोत्सव अवसरों पर विशेष सामग्री भी देने का प्रयास करती है तथा ताकीद करती हैं कि हम स्वस्थ्य परम्पराएं निभाएं । अपने पर्यावरण के प्रति बेखबर न हो जायें । पत्रिका विभिन्न विद्रूपताआें पर प्रमाणिक ढंग से हमारा ध्यान आकृष्ट करती हुए सम्यक दिशा देती है ।
    कहा जाता है कि शब्द ब्रह्म रूप हैं । ब्रह्म विवर्तित संसार के सृजन में यदि हमारा किचिंत भी रचनात्मक सहयोग हुआ तो यह परम सौभाग्य की बात होती है । शायद यही संबल है कि बिना किसी बड़ी साधन सुविधा के पर्यावरण डाइजेस्ट का रचनात्मक प्रयास जीवटता के साथ जारी है । हमेंभी पत्रिका के सृजनात्मक प्रयास के प्रति अपनी आस्था बनाये रखनी है ।
    पत्रिका सदैव वस्तु स्थिति का समाकलन करती है । पत्रिका सभी से निरपेक्ष भाव रखती है । किसी सरकारी या संस्थान की पिछलग्गू नहीं है और न ही किसी आन्दोलन का हिस्सा । पत्रिका तथ्यपूर्ण एवं तर्कपूर्ण ढंग से अपनी बात ओजस्विता के साथ रखती है । इसी निर्भिकता तथा मौलिकता ने पत्रिका को अग्रणी बनाया है । पत्रिका में कभी भी अपने कसाव को ढीला नहीं पड़ने दिया और पत्रिका का कलेवर निरन्तर निखार पर है ।
    यह पर्यावरण डाइजेस्ट सरीखी पत्रिकाआें का ही श्रमसाध्य प्रयास है कि जन-जन की जुबान पर पर्यावरण की चर्चा रहने लगी है । यह पत्रिकाएं ही तो सहज, सरल, सुबोध रूप में पर्यावरण जैसे जटिल विषय के गूढ तथ्यों को हमारे सामने लाती   है । जब कोई विचार जन्मता है तो वह वाणी और शब्द बनता है जो कलम की सहायता से कागज पर उतर कर प्रसार पाता है । चिंतन से चिंतन जुड़कर व्यापक चर्चा का विषय बन जाता है और देखते ही देखते हमारे लिए हितकारी एवं श्रेयसकारी आन्दोलन खड़ा हो जाता है । अत: वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हमें लघुपत्रिकाआें की भूमिका को रेखांकित करते हुए उन्हें जीवंत बनाये रखने में कुछ न कुछ सहयोग अवश्य करना चाहिए ।
    पर्यावरण संचेतना की ध्वज वाहक बनी है पर्यावरण डाइजेस्ट । पत्रिका ने न केवल पर्यावरण सरोकारों से हमको जोड़ा है वरन समाज की जड़ता को भी तोड़ा है तथा प्रकृति के साथ मैत्री र्पूा प्रेम संबंध कायम करने में महती भूमिका निभाई है । ऐसी अनन्य पत्रिका के उज्जवल भविष्य की कामना करना हमारा पुनीत कर्तव्य  है ।
पत्रिका-४
जहां से हिन्दी पत्रकारिता को पहली पत्रिका मिली
आशीष दशोत्तर

    हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की गौरवगाथा मेंमध्यप्रदेश के रतलाम का नाम उल्लेखनीय उपलब्धि के साथ शुमार किया जाता है क्योंकि यहीं से हिन्दी की पहली पत्रिका प्रकाशित हुई थी और हिन्दी को पहली पत्रिका देने वाले रतलाम ने ही सौ साल बाद फिर से देश को हिन्दी में पर्यावरण पत्रकारिता की पहली पत्रिका देने का गौरव भी हासिल किया ।
    इस लिहाज से रतलाम को हिन्दी का प्रथम पत्रिका प्रदाता शहर कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में पहली हिन्दी पत्रिका का प्रकाशन रतलाम से हुआ । विदुषी एवं महिला हितों के लिए कार्य करने वाली महिला श्रीमती हेमन्तकुमारी देवी चौधरी ने रतलाम से देश की पहली हिन्दी पत्रिका सुगृहणी का प्रकाशन सन् १८८८ में किया । 
    लाहौर में १७ अक्टूबर १८६८ को बाबू नवीनचन्द्र राय के यहां जन्मी हेमन्तकुमारी देवी की मातृ भाषा बांग्ला थी परन्तु हिन्दी से उन्हें विशेष अनुराग था । आगरा, लाहौर और कोलकाता में पढ़ी हेमन्तकुमारी देवी का विवाह सिलहट निवासी रामचन्द्र चौधुरी से हुआ  । श्री चौधुरी रतलाम रियासत में नौकरी के लिए आए तो पति के साथ हेमन्तकुमारी देवी भी रतलाम आ गई । अपनी मातृभाषा मेंहो रहे महिला उत्थान के प्रयासों के कारण उनकी प्रबल इच्छा थी कि हिन्दी में भी कोई पत्रिका प्रकाशित की जाए जो महिलाआेंको जागरूक बना  सके । वे रतलाम की तत्कालीन महारानी को हिन्दी की शिक्षा भी देने लगी थी । अपने हिन्दी प्रेम को आगे बढ़ाने और महिला हितों के प्रयासों को समाज के सामने लाने के उद्देश्य से उन्होंने फरवरी १८८८ में रतलाम से सुगृहिणी नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया ।
    इस प्रकार हिन्दी पत्रकारिता को पहली महिला विषयक पत्रिका देने का श्रेय रतलाम को मिला । जिस समय उन्होंने सुगृहिणी का प्रकाशन किया उस समय उनकी उम्र मात्र बीस वर्ष की थी । इस लिहाज से देश को पहली महिला और युवा संपादक को पाने का अवसर मिला । रतलाम में उस समय मुद्रण की बेहतर व्यवस्था न होने से उन्होंने पत्रिका का मुद्रण लखनऊ और बाद में लाहौर से भी कराया । हालांकि रतलाम से इसका प्रकाशन एक वर्ष ही हुआ इसके बाद पति के साथ वे शिलांग और उसके बाद सिलहट चली गई । मगर पत्रिका का प्रकाशन तमाम कठिनाईयों के बाद भी वे लगातार तीन-चार वर्षो तक करती रही । इसके बाद उन्होंने बंगाली मासिक अंत:पुर का प्रकाशन भी किया । वे देहरादून म्युनिसिपल कमिश्नर भी बनी । उनका देहावसान १९५३ में देहरादून में हुआ ।
    इसे संयोग कहे या हेमन्तकुमारी देवी चौधरी द्वारा किए गए पत्रकारिता के बीजारोपण का प्रभाव कि उनके द्वारा रतलाम में किए गए ऐतिहासिक पहल के ठीक सौ साल बाद यानी १९८७ में रतलाम ने देश को पहली पर्यावरण पत्रिका दी जिसे देश ने पर्यावरण डाइजेस्ट के नाम से जाना । मध्यप्रदेश के रतलाम शहर से जनवरी ८७ से सतत् प्रकाशित हो रही मासिक पर्यावरण डाइजेस्ट ने बेहद सीमित संसाधनोंऔर प्रबल इच्छाशक्ति के बलबूते तीस बरसों का लम्बा सफर तय किया है ।
    देश की पहली महिला संपादक श्रीमती हेमन्तकुमारी देवी की पत्रिका की शुरूआत के समय उम्र बीस वर्ष की थी तो पर्यावरण की पहली पत्रिका देने वाले संपादक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित ने मात्र तीस वर्ष की आयु मेंअपने कुशल संपादन से हिन्दी पत्रकारिता को पर्यावरण डाइजेस्ट के माध्यम से एक नई परम्परा कायम कर विशिष्ट स्थान बनाया । पत्रिका ने क्षेत्रीय होते हुए भी राष्ट्रीय स्तर को छुआ । मध्यप्रदेश के पत्रकारिता इतिहास में पर्यावरण पत्रकारिता के आगाज का श्रेय इस पत्रिका के नाम लिखा जा सकता    है ।
    पर्यावरण के जिस विचार को मुश्किल समझा जाता है पत्रिका उसका सरलीकरण करने में सफल हुई है । इसमें आलेखों की सारगर्भिता, सरलता, संक्षिप्त और भाषा की प्रवाहमयता अपने आप में अनूठी है । प्रकृतिऔर मानवीय सरोकार से ओतप्रोत पत्रिका की प्रतिबद्धता हर समय पाठकों के प्रति रही है । युग मनीषी साहित्यकार डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन ने अपनी टिप्पणी में लिखा था कि पर्यावरण डाइजेस्ट पत्रिका नैरन्तर्य के साथ ही स्तरीयता के मानक को बनाए रख सकी है जो आज के समय को देखते हुए मूल्य आधारित पत्रकारिता का द्योतक है ।
    भारत में विकसित हो रही पर्यावरण रक्षण चेतना के आरंभिक काल में ही जिन लोगों ने इस खतरे की गंभीरता को समझकर इसके विरूद्ध जीवन समर्पण का व्रत लिया, ऐसे कृति व्यक्तियों में डॉ. खुशालसिंह पुरोहित शामिल है । पर्यावरण संरक्षण की लोक चेतना के पर्याय बन चुके वरिष्ठ पत्रकार डॉ. खुशालसिंह पुरोहित का जन्म १० जून १९५५ को मध्यप्रदेश के धार जिले के ग्राम काछीबडौदा के एक किसान परिवार में हुआ । डॉ. शिवमंगल सुमन के निर्देशन में हिन्दी पत्रकारिता विषय पर लिखे शोध प्रबंध पर आपने पीएच.डी. की उपाधि ली । इसके बाद पर्यावरण विषय में नीदरलैण्ड से डी.लिट् की उपाधि प्राप्त् की ।
    प्रख्यात पत्रकार यदुनाथ थते के. नरेन्द्र, बालेश्वर अग्रवाल, समाजवादी विचारक मामा बालेश्वर दयाल, प्रसिद्ध पर्यावरणवादी सुन्दरलाल बहुगणा, चण्डीप्रसाद भट्ट और अनिल अग्रवाल का सानिध्य मिला, इनके विचारों और कार्यो ने आपके युवा मन के सपनों को जीवन का संकल्प बनाने में सहायता की । इसी संकल्प की परिणति हुई पर्यावरण डाइजेस्ट के प्रकाशन के रूप में ।
    प्रकृति और मानवीय संबंधों की अभिव्यक्तियों से ओतप्रोत यह पत्रिका पर्यावरण की असंख्य सूचनाआें, जानकारियों से भरी हुई है, जो आंखे खोलने के लिए ही नहीं बल्कि दुनिया के पर्यावरण की सही स्थिति से अवगत कराते हुए आमजन को भागीदारी के लिये उकसाती है ।
    पर्यावरण डाइजेस्ट की विशेषता है कि इसमें समाचार विचार और दृष्टिकोण का समन्वय है जो पत्रिका की पठनीयता को बढ़ाता है । समसामयिक मुद्दों ऊर्जा, स्वास्थ्य, रहन-सहन, वन्य जीवन, स्थायी विकास, प्रौघोगिकी जैसे मुद्दों से जुड़ी वैचारिक सामग्री के प्रचार-प्रसार में पत्रिका अग्रणी रही है । पर्यावरणीय वैचारिक प्रचार-प्रसार की सफलता के लिए यह जरूरी है कि सच्च्े मायनों में जनजागृति और लोक शिक्षा से जन्मा और जगा स्वयंसेवी समझदार प्रयास हो ।
    देश की पहली पत्रिका देने वाली श्रीमती हेमन्तकुमारी देवी चौधरी ने महिला शिक्षा महिलाआें की स्थिति में सुधार और महिला हितों की अलख अपनी पत्रिका के माध्यम से जगाई थी और देश को पहली पर्यावरण पत्रिका देने वाले डॉ. खुशालसिंह पुरोहित ने पर्यावरण के संवेदनशील विषय को केन्द्र बनाकर देश के वातावरण को पवित्र करने का प्रयास किया है । हेमन्त कुमार देवी के प्रयास से अब तक कितनी ही पत्रिकाएं प्रकाशित हो चुकी है मगर इस प्रयास का नाम हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास मेंगौरव के साथ दर्ज है ।
पत्रिका-५
पर्यावरण डाइजेस्ट : एक सृजनात्मक अभिव्यक्ति
नन्दलाल उपाध्याय

    प्रख्यात कवि श्री रघुवीर सहाय ने यह कितनासही कहा था कि  लूट ने जमीन के/भीतर तक की/मिट्टी को तोड़ दिया है ।  आज प्रकृति के साथ समाज की अंतर्क्रिया इतनी व्यापक और जटिल हो गई   है कि सम्पूर्ण मनुष्य जाति का गहराई से प्रभावित करने का एक नया खतरा उत्पन्न हो गया है ।
    इस खतरे को हम पर्यावरण की संज्ञा दे सकते है । इस समय हम वर्तमान शताब्दी के अन्तिम दशक की ओर यात्रा कर रहे हैं । अब वह समय आ गया है कि हमें एकजुट होकर इस खतरे को सामना करना चाहिए ।
    इस खतरे को उत्तर देने के लिए एक कृषक पुत्र ने असीम साहस दिखाया उसका नाम है -डॉ. खुशालसिंह पुरोहित । आज से दस वर्ष पूर्व एक एक पत्रिका निकाली, जिसे नाम दिया पर्यावरण डाइजेस्ट आज पर्यावरण पर्यावरण डाइजेस्ट अपनी वय के दस वर्ष पूर्ण कर ११ वें वर्ष में प्रवेश कर रही है । 
     यदि गंभीरता पूर्वक विचार किया जाए तो यह तथ्य भी हमारे सामने आ जाएगा कि समाचार पत्र वाचन करते समय कतिपय व्यक्ति अखबार में पर्यावरण शब्द पढ़ते ही उससे दूर भागने की कोशिश करते   हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि हमसे ही अधिकांश व्यक्ति मात्र दिखवा करने को पर्यावरण की नकली चिन्ता अवश्य करते हैं वैसे बहुगुणाजी ने इस नकली चिन्ता पर भी अपनी सहमति की मोहर लगाते हुए कहा था कि भाई चाहे लोग भले ही नकली ढंग से जाने लेकिन उन्हें पर्यावरण को अवश्य जानना चाहिए । इस अर्थ में यदि हम डॉ. खुशालसिंह के इस संवेदनशील कार्य के विषय में चिन्तन करें तो इस प्रकार का काम करने का साहस बहुत कम लोग दिखाते हैं । प्रथम तथ्य तो यह है कि पर्यावरण एक बहुत ही संवेदनशील विषय है, इसके प्रति वही व्यक्ति आकर्षित होगा जिसमें मानवीय संवेदना कुट-कुटकर भरी हुई हो ।
    पर्यावरण पत्रिका के युवा सम्पादक डॉ. खुशालसिंह नगर के उन बिरले नवयुवक में से एक है जिसकी कथनी और करनी में भेद नहीं हैं वे पर्यावरण ही जीते हैं और यदि आप कोई से भी चर्चा करेंगे तो वे फोरन अपनी पर यानि पर्यावरण पर आ जाएगे । ऐसा लगता है कि वे एक प्रकार से पर्यावरण के साथ ही आत्मसात हो गए हैं । उनकी एक और बहुत बड़ी विशेषता है कि वे पर्यावरण और सार्वजनिक जीवन अर्थात दोनों का एक साथ नेतृत्व कर सकते हैं दुध और पानी की     तरह ।
    मैं उनके सम्पर्क में आज से लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व आया था । तब मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की कि इस दुबले-पतले शरीर में एक मेघावी पर्यावरण विद् की आत्मा छुपी हुई है । सन् १९८७ में जब उन्होंने पर्यावरण डाइजेस्ट का प्रकाशन किया तो उनके निकट के मित्रों ने भी यह नहीं सोचा था कि इस घोर प्रतियोगितापूर्ण आर्थिक युग में यह पत्रिका अपने प्रकाशन का एक वर्ष पूर्ण कर लेगी ।
    बढ़ते हुए पर्यावरण अनुभव के प्रकाश में सन् १९९२ में उन्होंने मालवा का पर्यावरण नामक पुस्तक लिखकर की थी । तब उनके द्वारा गठित पर्यावरण परिषद् के एक दल ने समूचे मालवा क्षेत्र का भ्रमण कर यह रिपोर्ट तैयार की थी । इसमें वैज्ञानिकता की बजाय सत्य सापेक्ष तथ्यात्मकता पर विशेष रूप से जोर दिया गया । इस रिपोर्ट में कहा गया था कि आजकल मालवा में पेयजल का संकट है । सभी नदियों की जल धारण क्षमता में भी कमी आती जा रही है । भूजल स्तर वर्ष दर वर्ष नीचे जा रहा है और कस्बों तथा नगरों में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है । हरित क्रांति के द्वार पर पहुँचा मालवा एक विचित्र, अनावश्यक और अज्ञानपूर्ण प्रदूषण से संक्रमित हो रहा है । जीवनाशी रसायन अथवा पेस्टीसाइड्स के उपयोग में भारी वृद्धि हुई है ।
    पर्यावरण डाइजेस्ट के माध्यम से सम्पादक द्वारा पर्यावरण संबंधी अनेक प्रश्न उठाए गए है । यहां मैं दसवें वर्ष के अंक ७, १० और १२ की और जनमानस का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा । अंक १० गाँधी विशेषांक के रूप में निकाला गया था । इसमें यह दर्शाया गया कि आज गाँधी भी वैसे का वैसा नहीं चलेगा, क्योंकि गाँधीजी हमारे लिए एक व्यक्ति नहीं वरन् विचार है। अंक ७ वन महोत्सव विशेषांक के रूप में आया था, इसमें पर्यावरण के प्रति अपनी अंतर्व्यथा बताते हुए पर्यावरण ऋषि सुन्दरलाल बहुगुणा ने कहा था कि हम अवश्य ही तकनीकी क्रांति के युग में रहते हैं और तकनीकी का प्रभाव इतना प्रचंड है कि इसके नीचे मानवी समस्याएँ दफनाई जाती है ।
    अंक १२ एड्स के बढ़ते खतरे और युवा पीढ़ी को समर्पित था इसमें इस बात पर विशेष बल दिया था कि एड्स पीड़ित लोगों को समाज में अपनाने तथा उसके मानवीय अधिकारों के संरक्षण के लिए अनुकूल वातावरण बनाया जाना चाहिए । युवाआें की यौन समस्याआें के निवारण हेतु ऐसे सेवा केन्द्रों का प्रावधान किया जाना चाहिए जहाँ वे सूचना, परामर्श तथा सहायता प्राप्त् कर सकें । सार रूप में अब यह निर्विवाद माना जा रहा है कि लड़के और लड़कियों को यौन शिक्षा देना बहुत जरूरी है ।
    २३ जनवरी १९८९ का वह दिन मुझे आज भी याद है जब मैंने बसंत के उपासक सुन्दरलाल बहुगुणा से पर्यावरण डाइजेस्ट के लिए एक आत्मीय साक्षात्कार लिया था तब उन्होंने कहा था व्यवस्था स्थापित गुब्बारे की तरह है इसे समाप्त् करने के लिए एक नुकीली सुई बनाना है जिससे एक ऐसे समाज की स्थापना हो सके जिससे सुख, शान्ति और संतोष हो । यह एक कठिन कार्य है, लेकिन इसके लिए पूर्ण निष्ठा और सम्पूर्ण चाहिए ।
    पर्यावरण डाइजेस्ट ने अपनी सृजनात्मक यात्रा के दस वर्ष पूरे कर लिए है, उसकी यात्रा निरन्तर चलती रहेगी ।
साहित्य जगत
लोक साहित्य में पर्यावरण चेतना
गोवर्धन यादव

    लोक साहित्य पढ़ने-लिखने में एक शब्द है, पर वह वस्तुत: यह दो गहरे भावों का गठबंधन है, लोक और साहित्य एक दूसरे के संपूरक, एक दूसरे में संश्लिष्ट, जहां लोक होगा, वहां उसकी संस्कृति और साहित्य होगा, विश्व में कोई भी ऐसा स्थान नहीं है, जहां लोक हो और वहां उसकी संस्कृति न हो ।
    मानव मन के उद्गगारों व उसकी सूक्ष्मतम अनुभूतियों का सजीव चित्रण यदि कहीं मिलता है तो वह लोक साहित्य में ही मिलता है । यदि हम लोक साहित्य को जीवन का दर्पण कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । लोक साहित्य के इस महत्व को समझा जा सकता है कि लोक कथा को लोक साहित्य का जनक माना जाता है और लोकगीत को काव्य की जननी, लोक साहित्यमें कल्पना प्रधान साहित्य की अपेक्षा लोकजीवन का यथार्थ सहज ही देखने में मिलता है ।
     लोक साहित्य हम धरतीवासियों का साहित्य है क्योंकि हम सदैव ही अपनी मिट्टी, जलवायु तथा सांस्कृतिक संवेदना से जुड़े रहते हैं । अत: हमें जो भी उपलब्ध होता है वह गहन अनुभूतियों तथा अभावों के कटु सत्यों पर आधारित होता है, जिसकी छाया में वह पलता और विकसित होता है इसीलिए लोक साहित्य हमारी सभ्यता का संरक्षक भी है ।
    साहित्य का केन्द्र लोकमंगल है, इसका पूरा ताना-बाना लोकहित के आधार पर खड़ा है । किसी भी देश अथवा युग का साहित्यकार इस तथ्य की उपेक्षा नहीं कर सकता, जहाँ अनिष्ठ की कामना है, वहॉ साहित्य नहीं हो सकता, वह तो प्रकृृति की तरह ही सर्वजनहिताय की भावना से आगे बढ़ता है ।
    संत शिरोमणि तुलसीदास की ये पंक्तियां कीरति भनिति भूरिमल सोई सुरसरि के सम सब कह हित होई अमरत्व लिए हुए है, गंगा की तरह ही साहित्य भी सभी का हित सोचता    है । वह गंगा की तरह पवित्र और प्रवाहमय है, वह धरती को जीवन देता है.... श्रृंगार देता है और सार्थकता भी, प्रकृति साहित्य की आत्मा है । वह अपनी मिट्टी से, अपनी जमीन से जुड़ा रहना भी साहित्य की अनिवार्यता समझता है । मिट्टी में सारे रचनाकर्म का अमृतवास रहता है । रचनाकर उसे नए-नए रूप देकर रूपायित करता है । गुरू-शिष्य परम्परा हमें प्रकृति के उपादानों के नजदीक ले आती है ।
    जहॉ कबीर का कथन प्रासंगिक है - गुरू कुम्हार सिख कुंभ गढ़ी-गढ़ी काठै खोट-अन्तर हाथ सहार दे बाहर वाहे खोट संस्कारों से दीक्षित व्यक्ति सभी प्रकार के दोषों-खोटों से मुक्त रहता है, इसमें लोकहित की भावना समाहित है । मलूकदास भी इन्सानियत की परिभाषा अपने शब्दों में यूं देते हैं - मलुका सोई पीर है, जो जाने पर पीर जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर । दूसरों की पीड़ा समझने वाला इन्सान पशु-पक्षी का भी अहित नहीं सोच सकता, उसके वनस्पति के प्रति मैत्री का वह विस्तार साहित्य ही तो है ।
    जिज्ञासु व्यक्ति कुछ न कुछ सोचने की चेष्टा करता है । इस प्रकृति के सहचर्य से उसने बहुत कुछ सीखा है । उस काल के वेदज ब्राहम्ण चौदह विद्याआें का अध्ययन करना अपना अभीष्ठ मानते थे । सोलह कलाआें और चौदह विद्याआें के अलावा वे संगीत, सामुद्रिक, ज्योतिष, वेदाध्ययन काव्य, भाषा शास्त्र, पशु भाषा, ज्ञान, तैरना, धातु विज्ञान, रसायन, रत्न परख, चातुर्य एवं अंग विज्ञान आदि अनेक विषयों में गहरी रूचियाँ रखते थे । इस बात के साक्षी है पुरातन भारतीय - ग्रंथ जो समय की सीमा को पार कर चुके है ।
    मनुष्य के संचित ज्ञान और अनुभव के पहले पुस्तकाकार स्वरूप की याद आते ही दृष्टि स्वमेव ही वेदों की ओर चली जाती है । वेद वे वाड मय जो ज्ञान कोष के रूप में सदियों से हमारा साथ देते आए है । ऋगवेद को सृष्टि विज्ञान की प्रथम पुस्तक होने का गौरव प्राप्त् है । जल, अग्नि, वायु, मृदा, चारों वेदों की रचना के पीछे ये ही तत्व प्रमुख रूप से काम करते है । ऋगवेद में अग्नि के रूपान्तरण कार्य और गुणों की व्याख्या है..., तो यजुर्वेद में विधि रूपों और गुण धर्मो की, सामवेद का प्रधान तत्व जल है, तो अथर्वेवेद पृथ्वी (मृदा) पर केन्द्रित है । पांचत तत्व आकाश तत्व है । सृष्टि की रचना करने वाले उस महान कुंभकार ने इन्हीं पांचों तत्वों के कच्च्े माल को मिलाकर एक ऐसी ही रचना की जो बेजोड़ है ।
    हमारी धरती के अस्तित्व का जो आधार है जिसे भारतीय मेधा ने भूमि माँ कहकर अभिनंदन के स्वर अर्पित किए माताभुमि: पुत्रोव्है पृथिव्या, अर्चन अभिनंदन के इन स्वरों में बहुत ही सार्थक भावभीना स्वर है । यह वैदिक पृथ्वी समूह मां पृथ्वी की स्तुति का पावन सूत्र, प्रकृति प्रेम की अद्भूत मिसाल, पर्यावरण विमर्श का महत्वपूर्ण घोषणा-पत्र, पर्यावरण प्रतिष्ठा का सारस्वत अनुष्ठान और उसके संरक्षण के लिए समर्पित शिव संकल्प, आसुरी वृत्तियों के अस्वीकार तथा दैवी वृत्तियों के स्वीकार का घोषणा पत्र है । यह पृथ्वी की समस्त निधियों के विवेक सम्मत प्रयोग का आग्रही है । यह प्रेम के लिए नहीं, श्रेय के लिए समर्पित शोध का पक्षधर है । यह सामाजिकता, मंगलमयता में लीन हो जाने का आव्हान है ।
    आज के पर्यावरण संकट की समस्त युक्तियों का एक सूत्रिय समाधान है । बीस कांडों, इकतीस सूत्रों और पंाच हजार नौ सौ इकहत्तर मंत्रों का महाकोष है । व्यक्ति सुखी रहे, दीर्घायु प्रािप्त् करे । सदनीति पर चले, पशु-पक्षियों, वनस्पतियों एवं जीव जगत के साथ साहचर्य रहे, इन्हीं कामनाआें से ओत-प्रोत यह अद्भूत ग्रंथ है ।
    लोक चेतना तो संस्कृति और साहित्य की परिचालक शक्ति मानी जाती है  किन्तु वर्तमान मशीनी और कम्प्युटरी समाज से लोक चेतना शून्य होती जा रही है । आज जरूरी है कि साहित्य का मूल्यांकन लोकजीवन, लोक संस्कृति की दृष्टि से किया जाना चाहिए । जो लोक साहित्य का मूल्यांकन लोकजीवन, लोक संस्कृति की दृष्टि से किया जाना चाहिए । जो लोक साहित्य लोकजीवन से जुडा होगा वही जीवन्त होगा । माना भूमि: प्रयोग है पृथीव्या: अर्थवेवेद कि ऋचा का महाप्राण है । लोकजीवन इस ऋचा के आशय का प्रतिनिधित्व युगों से करता आ रहा है । यही लोक साहित्य की आधार शीला है ।
    लोक साहित्य परम्परा पर आधारित होता है । अत: अपन प्रकृति में विकासशील है । इसमें नित्यप्रति परिवर्तन की संभावना बनी रहती है, इसका सृजन युगपीड़ा एवं सामाजिक दबाव को भी निरन्तर महसूस करता रहता है । सांस्कृतिक परिस्थितियों का निर्वहन ही सभ्यता कहलाती है । कुछ विद्वान सभ्यता और संस्कृति को एक ही मानते है और उसके विचार में सभ्यता और संस्कृति का विकास समान रूप से होता है । काफी गहराई से चिंतन करे तो सभ्यता का ज्यों-ज्यों विकास होता है, त्यों-त्यों संस्कृति का ह्ास होता है । खान-पान, पहनावा सब बदलता जाता है और उसका प्रत्येक पर प्रभाव पड़ता है ।
    लोक साहित्य में लोककथा लोकनाटक तथा लोकगीतों के रखा जा सकता है जिसमें जनपदीय भाषाआें का रसपूर्ण कोमल भावनाआें से युक्त साहित्य होता है । भारतीय लोक साहित्य के मर्मज आर.सी. टेम्पुल के मतानुसार लोक साहित्य कि साहित्यिक दृष्टिकोण से विवेचना करना उसी सीमा तक करना उचित होगा, जिस सीमा तक उसमें निहित सुन्दरता और आकर्षण को किसी प्रकार की हानि न पहुॅचे । यदि लोक साहित्य की वैज्ञानिक विवेचना की जाती है तो मूल विषय निरस और बेजान हो जाएगा । लोक के हर पहलू मे संस्कृति के दिव्य दर्शन होते है । जरूरत है तीक्ष्ण दृष्टि और सरचल सोच की । लोक साहित्य के उद्रट विद्वान देवेन्द्र सत्यार्थी ने साहित्य के अटूट भण्डार को स्पष्ट तौर पर स्वीकार करते हुए कहा था - मैं तो जिस जनपद में गया, झोलियां भरकर मोती लाया ।
    परलोक की धारणाएँ भी इन्हीं से जुड़ी है । सभी कर्मकाण्ड, पूजा-अनुष्ठान तथा उन्नत सांस्कृतिक  समाज में मनुष्य के आचरण का निर्धारण इसी लोक में होता है । लोक हमारी सामाजिकता प्रभावित किया उतना शायद किसी अन्य पुस्तक ने नहीं किया । वैष्णवी तंत्र ने गीता की जो व्याख्या की है, उसमें प्रतीक के रूप में पशु जीवन का महत्व प्रतिपादित होता है ।
    सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपाल नन्दन: ।
    पार्थो वत्स सुधीभॉक्ता दुग्धं गीतामृतं महत ।
    अर्थात् उपनिषद गाय है, कृष्ण उनको दुहने वाले है, अर्जुन बछड़ा है और गीता दुध है, गीता में प्रकृति को ईश्वर की माया के रूप मेंदर्शाया है । गीता के कुछ श्लोको को (अर्थ) रेखांकित किया जा सकता है । जो तेज सूर्य और चन्द्रमा में है, उसे मेरा ही तेज मानों, मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके सभी भूत-प्राणियों के धारण करता हॅू । चन्द्रमा बनकर औषधियों का पोषण करता हॅू । जठ-राग्नि बनकर प्राणियों की देह में प्रविष्ठ हॅू । प्राणवायु अपानवायु से संयुक्त होकर चारों प्रकार से भोजन किए हुए प्राणियों के अन्न को पचाता हॅू । सम्पूर्ण भूतों (प्राणियों) के ह्दय क्षमता में निवास करता हॅू ।
    श्रीकृष्ण ने अपनी प्रकृति को अष्टकोणी बताया है । इसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश के साथ-साथ मन-बुद्धि एवं अहंकार की गणणा की गई है । अपनी बाल लीलाआें के माध्यम से उन्होंने जो दिव्य संदेश दिया उसका व्यापक प्रभाव लोकजीवन तथा लोक परम्पराआें पर पड़ा, उस दिव्य संदेश के पीछे तात्पर्य यह था कि वनस्पति, नदियां, पहाड़, पशु पक्षी गौवे, जलचर और मनुष्य सभी इस प्रकृति के अंगीभूत स्वरूप है और सबका रक्षण, पोषण और विकास जरूरी    है ।
    पर्व ओर त्योहारों के इतिहास में हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता का इतिहास सृष्टि वस्तुत: सारे त्योहार ऐसे हैं जो प्रकृति की गोद में और प्रकृति के संरक्षण में मनाए जाते हैं, जैसे गोवर्धन पूजा, आवंला पूजन, गंगा सप्त्मी, माह कार्तिक में तुलसी पूजन आदि । ये सभी पर्व हमें अपनी प्राकृतिकता से सह संबंधों की परम्पराआें की याद दिलाते है । ऐसे पर्व जो प्रकृति के विभिन्न घटकों को पूजने के दिन के रूप में मनाए जाते है, उसी पर्व के अवसर पर सम्पन्न क्रिया - कलाप और समारोह प्रकृति प्रेम एवं प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता का नया वातावरण हमें प्रदान कर पर्यावरण को शुद्ध रखने के लिए उत्प्रेरित करते है ।
    प्रकृति घटकों के सहसंबंध हमें नई उमंग और प्रकृति प्रेम के नए उत्साह का अनुभव कराता है । भौतिक, सांस्कृतिक एवं लोभ मानसपटल पर नहीं होगे तो स्वार्थमय भौतिक संस्कृति जैसे प्रदूषण प्रकट नहीं होंगे और पर्यावरण शुद्ध बना रहेगा ।
    विभिन्न तथ्यों एवं लोक जीवन की शैली के आधार पर निष्कर्ष में कह सकते है कि वृक्ष हमारी संस्कृतिके विभिन्न अंग रहे है । भारत कृषि प्रधान देश है । अत: मृदा का संरक्षण आवश्यक है । प्राकृतिक अवस्था में मैदानी एवं पहाड़ी स्थानों पर लगे वृक्षों की जड़े जमीन को पकड़े रहती है जिससे पानी का प्रवाह एवं हवा संतुलित रहती है । वृक्षों के अभाव में हवा एवं पानी पर नियंत्रण नहीं रहने से भूमिके रेगिस्थान में परिवर्तन होने की प्रबल संभावनाएं बनती जा रही है । वनों की कटाई न करने के प्रति जन चेतना फैलाने के उद्देश्य से आंदोलनों को शुरू किया जाना चाहिए ।
    मनुष्य की प्रदूषित मानसिकता प्रकृति को किसी न किसी रूप मे प्रदूषित करती है । अस्तु प्रकृति के प्रदूषण को रोकने के लिए संस्कृति की आत्मा, जिसमें प्रकृति की गूंज है, से अनुप्राणित होकर शिक्षा प्रदान करनी चाहिए, अत: शिक्षण संस्थाआें में अध्ययनरत बालक-बालिकाआें को परम्परागत भारतीय शिक्षा प्रदान की जानी  चाहिए ।
    पूर्व की पीढ़ियों ने अपने समय में प्रकृति का पूर्ण विकास कर उनको भौतिक संपत्ति के रूप में बदलकर अगली पीढ़ियों को प्रदान किया जाना है और यह माना है कि आने वाली पीढी उन पूर्वजों का उपकार मानेगी, लेकिन वर्तमान पीढ़ी की तो भावी मानव के लिए जटिल समस्याएं और प्रकृति के विध्वंस का आधार छोड़ कर जाने की संभावनाएं बन रही है । आज रेगिस्थान बढ़ रहे है । जीव-जन्तुआें की बहुत सी प्रजातियां लुप्त् हो रही है । प्रकृति के वर्तमान दोहन के भविष्य की आवश्यकताआें को दृष्टि में रखकर ही अपनी योजनाआें का निर्माण करना चाहिए ।
विज्ञान जगत
पानी को आवेशित किया जा सकता है
एस. अनंतनारायणन

    दो-तिहाई धरती पर फैला पानी एक अद्भूत पदार्थ है । इसे दबाया नहीं जा सकता, यह पृथ्वी पर मौजूद लगभग हर चीज को घोल लेता है, जब पानी से बर्फ बनता है तो आयतन बढ़ता है और इसे माइक्रोवेव से गर्म किया जा सकता है ।
    सचमुच पानी हरफनमौला है । कैलिफोर्निया व वांशिगटन के वैज्ञानिकों रिचर्ड बेल और जेम्स कोविन ने जर्नल ऑफ अमेरिकन केमिकल सोसायटी में बताया है कि तापमान बदलने के साथ पानी विद्युतीय दृष्टि से आवेशित भी हो सकता है । इस मायने में इसके गुण क्रिस्टलों से मेल खाते हैं ।
     कुछ क्रिस्टलों का एक जाना-माना गुण है कि यदि उन्हें कुछ निश्चित दिशाआें में दबाया जाए या खींचा जाए तो उनमें विद्युत आवेश विकसित हो जाता है । यह गुण इस वजह से होता है क्योंकि क्रिस्टल में ऋणात्मक व धनात्मक आयन होते हैं किन्तु उनकी जमावट सममित यानी सिमेट्रिकल नहीं होती । इसलिए जब क्रिस्टलपर दबाव पड़ता है तो ये आवेश थोड़े अलग-अलग हो जाते हैं। इसकी वजह से जो विद्युत उत्पन्न होती है उसे पीजो-विद्युत कहते है । आवेशों का यह पृथक्करण इतना सूक्ष्म और इतनी तेज गति से होता है कि इसके आधार पर नए किस्म के माइक्रोफोन और अन्य श्रव्य उपकरण बनाए गए हैं ।
    इसी प्रक्रिया को उल्टी तरफ से भी देखा जा सकता है । जब किसी क्रिस्टल को आवेदश के संपर्क में लाया जाता है तो वह फैलता और सिकुड़ता है । यानी वह कंपन करने लगता है । चूंकि ठोस क्रिस्टलों की एक सटीक कंपन गति होती है, इसलिए इनका उपयोग धारा की आवृत्ति को स्थिरता देने में किया जा सकता है । क्रिस्टलों के इस गुण के आधार पर सटीक घड़ियां बनाई गई हैं । इन्हें आप क्वाट्र्ज घड़ियों के नाम से जानते हैं । इन घड़ियों ने हर जगह पुरानी कमानी यानी स्प्रिंग वाली घड़ियों का स्थान ले लिया है ।
    कुछ पदार्थो में यह गुण पाया जाता है कि उन्हें गर्म करने या ठंडा करने पर वे आवेशित हो जाते हैं । यह गुण पीजो विद्युत से संबंधित है और यह क्वाट्र्ज जैसे उन सारे क्रिस्टलों में पाया जाता है निमें पीजो विद्युत गुण होता है । इसे पायरो - विद्युत कहते हैं । यह गुण भी असमित क्रिस्टलों में ही पाया जाता है । जब क्रिस्टल को गर्म किया जाता है तो उसमें मौजूद धनावेश और ऋणावेश थोड़ी अलग-अलग दिशाआें में गति करते हैं । विद्युत आवेश की मौजूदगी इस बात पर असर डालती है कि पदार्थ के परमाणु किस तरह गति करेंगे ।
    पायरो-विद्युत भी अत्यन्त संवेदनशील गुण है और तापमान में थोड़ा सा भी फर्क मापन योग्य आवेश उत्पन्न कर सकता है । ऐसे पायरो-विद्युत गुण वाले पदार्थो की मदद से ही इंफ्रारेड डिटेक्टर्स बनाए जाते हैं जो काफी दूरी पर खड़े व्यक्ति के शरीर को गर्मी को भी भांप सकते हैं ।
    अब आते है पानी के अणु  पर । पानी का अणु भी असमित होता है । इसमें दो हाइड्रोजन (क) परमाणु और एक ऑक्सीजन (ज) परमाणु होते हैं । ये आपसे में जुड़कर इस तरह व्यवस्थित होते हैं कि हाइड्रोजन के परमाणु ऑक्सीजन के दोनों और एक सीध में नहीं होते । इस व्यवस्था की वजह से पानी का अणु धु्रवीकृत होता है (यानी उसमें धन और ऋण ध्रुव एक-दूसरे को पूरी तरह निरस्त नहीं करते) । यही कारण है कि पानी इतना अच्छा विलायक है ।
    और यही कारण है कि पानी पर माइक्रोवेव का असर पड़ता है । धु्रवीय प्रकृति के कारण पानी का प्रत्येक अणु एक नन्हे छड़ चुंबक की तरह व्यवहार करता है । यदि पानी को एक ऐसे विद्युत क्षेत्र में रखा जाए तो तेजी से कंपन कर रहा हो तो पानी के अणु घूमने लगते हैं यानी तकनीकी भाषा में घूर्णन करने लगते हैं । चूंकि माइक्रोवेव की कंपन आवृत्ति पानी के अणुआें की साइज से मेल खाती है, इसलिए माइक्रोवेव के असर से पानी के अणु काफी तेजी से घूर्णन करने लगते हैं । इस वजह से जिस खाद्य पदार्थ को माइक्रोवेव ओवन में रखा गया है उसमें उपस्थित पानी के अणु घूर्णन करने लगते हैं और खाना गर्म हो जाता है । आपने ध्यान दिया होगा कि माइक्रोवेव ओवन में रखे खली बर्तन गर्म नहीं होते । यहां तक कि बर्फ भी माइक्रोवेव ओवन में गर्म नहीं होता क्योंकि बर्फ में पानी के अणु गति करने को स्वतंत्र नहीं होते ।
    आम तौर पर जब पानी जमकर बर्फ बनता है तो उसके अणु बेतरतीबी से जम जाते हैं - वे क्वाट्र्ज क्रिस्टल के परमाणुआें के समान असमित व्यवस्था नहींबनाते । किन्तु चूंकि पानी के अणु धु्रवीकृत होते हैं, इसलिए यह संभव कि विद्युत क्षेत्र आरोपित करके उन्हें एक विशेष ढंग से जमाया जा सके । अमेरिकी वैज्ञानिक बेल, कोविन और उनके साथियों ने आवेशित परमाणुआें (यानी आयनों) को बर्फ  की १ माइक्रॉन मोटी चिप पर जमाया - यह काम उन्होंने शून्य डिग्री सेल्सियस से ११३ डिग्री कम तापमान पर किया । सतह पर जो परमाणु जमे उन्होंने बर्फ के अणुआें को घुमाकर एक सीध में जमा   दिया । फिर जब बर्फ कोऔर ठंडा किया गया तो धु्रवीकरण का यह असर फ्रीज हो गया । इतने कम तापमान पर बर्फ के अणुआें की तापीय हलचल इतनी थी कि तापमान में परिवर्तन के साथ विद्युतीय असर देखें जा सके ।
    अब थोड़ा सा ठंडा या गर्म करने पर उक्त बर्फ की दो सतहों के बीच वोल्टेज का अंतर नापना संभव हो गया । यह अंतर लगभग अन्य पायरो विद्युत पदार्थो के बराबर था । पानी के अणुआें का यह गुण बाह्ा अंतरिक्ष में उपयोगी साबित हो । इसकी वजह से बर्फीले कण एक-दूसरे को आकर्षित करेंगे और एक ढेर में जमा हो जाएंगे । अंतरिक्ष के निम्न तापमान पर बर्फ के कणों के रासायनिक गुण भी बदल जाएं ।
स्वास्थ्य
मसालेदार भोजन से उम्र बढ़ती है
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

    पिछले पांच सालों से हमने इस बारे में काफी कुछ सीख है कि हम कैसे और क्या खाते हैं । इस दौरान कई शोध पत्रों में हमारे भोजन पैटर्न, पसंद और अनुकूलन पर जानकारी दी गई है । यहां हम ऐसे तीन शोध पत्रों को देखेंगे ।
    याद कीजिए हम मनुष्य वानर और चिपैंजी के वंशज हैं । ये प्राइमेट्स शाकाहारी हैं, अत: आदिमानव भी शाकाहारी रहे होंगे । लेकिन अफ्रीका में रहने वाले प्राइमेट के विपरीत, हम आगे बढ़े और पूरी दुनिया में फैल गए । उस दौरान भोजन के रूप में जो उपलब्ध था वही खाते रहे, जैसे वनस्पति, मछली या मांस । समय बीतने के साथ हममें से कुछ लोगों ने सिर्फ वनस्पति को ही भोजन के रूप में चुना जबकि अन्य इतने नखरैल नहीं थे । बहरहाल, दोनों ही स्थितियों में हमने परिस्थितियों के साथ अनुकूलन किया । यह चयन के दबाव का एक उदाहरण है । 
     यह अनुकूलन शरीर के उन जीन्स में भिन्नता में दिखाई देता है जो प्रोटीन्स और एंजाइम्स के कोड़ होते हैं । ये एंजाइम्स हमारे खाए हुए भोजन को कोशिकाआें के काम करने के लिए आवश्यक अणुआें में परिवर्तित करते हैं । कॉर्नेल युनिवर्सिटी के शोधकर्ताआें के एक समूह ने इसी तरह के एक जीन, जिसे ऋअऊड कहते हैं, पर ध्यान केन्द्रित किया है । यह हमारी कोशिका में जरूरी ओमेगा ३ और ६ वसा अम्लों का कोड है । ऋअऊड शाकाहारियों द्वारा खाए जाने वाले वनस्पति तेल और वसा को ओमेगा ६ वसा अम्लों में परिवर्तित करता है । वसा अमल हमारी कोशिका भित्ती के जरूरी घटक हैं और कोशिका के अन्दर बाहर अणुआें के आवागमन के नियमन मेंमदद करते हैं । इसके विपरीत मांसाहारी लोग ये ओमेगा वसा अम्ल पशुआें के मांस से सीधे प्राप्त् कर लेते हैं ।
    थॉमस ब्रेना और कुमार कोठापल्ली के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल ने कुछ शाकाहारियों (महाराष्ट्र, पुणे के शाकाहारी परिवार जो सख्ती से शाकाहार का पालन करते हैं) तथा दूसरी ओर कुछ मांसाहारियों के ऋअऊड जीन्स में भिन्नता का अध्ययन करने का फैसला किया । शाकाहारियों में ऋअऊड जीन्समें एक इंसर्शन (ख) की दो प्रतियां थी । यह इंसर्शन यानी प्रविष्टि जीन अनुक्रम के अंदर २२ अक्षरों से बनी थी ।
    मांसाहारियों में ऋअऊड के इस तत्व की बजाय डीलोट (ऊ यानी विलोप) मिला यानी यह तत्व गायब हो गया था । अर्थात शाकाहारियों के गुणसूत्रों में ख/ख जबकि मांसाहारियों में ऊ/ऊ । वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि दक्षिण एशियाई आबादी में यह ख/ख संस्करण सबसे ज्यादा होता है लेकिन यूरोपियन और पूर्वी एशिया में यह सबसे कम होता है । (संयोग से निएंडरथल के ऋअऊड जीन्स में यह ख/ख संस्करण पाया गया है ।)
    दूसरी रोमांचक खोज वाशिंगटन स्टेट युनिवर्सिटी की अरूणिमा कश्यप और स्टीव वेबर द्वारा की गई है । उन्होंने हरियाणा के प्राचीन शहर फरमाना (प्रसिद्ध हड़प्पा स्थल) में पाए गए मानव दांतों के अवशेषों का विश्लेषण कर दांतों पर उपस्थित अदरक और हल्दी की पहचान की । ऐसा लगता है कि जो चीजें आज हम बनाते और इस्तेमाल करते हैं वैसी हमारे पूर्वज ४००० साल पहले भी करते थे । अदरक और हल्दी के अलावा हड़प्पा भोजन में मसूर व मूंग दाल, चावल, बाजरा और केले भी शामिल थे ।
    यह बहुत ही रोचक है कि कैसे ४००० साल पहले सिंधु घाटी सभ्यता में इस तरह के मसाले इस्तेमाल किए जाते थे । अब हम जानते हैं कि अदरक में उपस्थित अणु सृजन में मददगार होते हैं । साथ ही ऑस्टियो - आर्थराइटिस और प्रतिरक्षा तंत्र को नियमित करते हैं । और हैदराबाद के राष्ट्रीय पोषण संस्थान के शोध कार्य से हम यह भी जानते हैं कि हल्दी कितनी महत्वपूर्ण औषधि है ।
    लेकिन क्या हड़प्पावासी लाल मिर्च या काली मिर्च के बारे में जानते या इस्तेमाल करते थे ? हालांकि इस बारे में विवाद है कि काली मिर्च भारत की ही है या बाहर से लाई गई थी किन्तु लाल मिर्च के बारे में साफ है कि इसे पश्चिम से समुद्री व्यापारियों द्वारा लाया गया   था । डॉ. के.टी. अचया और अन्य ने बताया है कि लाल मिर्च की उत्पत्ति मेक्सिको और मध्य अमेरिका में हुई है और वहां से इसे पुर्तगालियों द्वारा भारत और दक्षिणी एशिया में १६वीं सदी में लाया गया था । इससे पहले भारत में तीखा भोजन अदरक, हल्दी वगैरह चीजों का इस्तेमाल कर बनाया जाता था ।
    एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका में भोजन को तीखा करने के लिए अधिकांशत: लाल मिर्च का इस्तेमाल किया जाता है । और १६वीं सदी में भारतीय भोजन में इसने अपना जोरदार कदम रखा था । इसे इतने सम्मान से देखा जाता था कि मशहूर संत कवि पुरंदरदास (१४८०-१५६४) ने भगवान कृष्ण की प्रशंसा एक लाल मिर्च मणि कहकर की   है । हाल ही में हुए दो अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि यह लाल मिर्च स्वाद ही नहीं बढ़ाती बल्कि स्वस्थ रहने में भी योगदान देती है । पहला अध्ययन चीन का है, जहां पाया गया कि जो लोग अपने भेाजन में लाल मिर्च का इस्तेमाल करते हैं वे सामान्य से ज्यादा उम्र तक जिन्दा रहे बजाय लाल मिर्च का इस्तेमाल नहीं करने वालों के । इसके एक साल बाद ऐसा ही ध्ययन यूएस के चोपान और लिटेनबर्ग द्वारा किया गया था । इसका निष्कर्ष भी यही निकला कि लाल मिर्च खोन का सम्बंध मृत्यु दर में कमी से है ।
    लाल मिर्च में कैप्सेसिन और अन्य जादुई अणु बहुतायत में होते है जो बैक्टीरिया संक्रमण से लड़ने, ऑक्सीडेटिव क्षति रोकने आदि में मददगार होते है । इनके चलते यह अधिक उम्र तक जीने में मदद करती है ।
प्राणी जगत
औषधीय गुणों से भरपूर दैत्य
डॉ. अरविन्द गुप्त्
    छिपकलियां संसार के हर भाग मेंपाई जाती हैं । अधिकतर छिपकलियां जमीन पर रहती हैं । भारत में पाई जाने वाली कई प्रजातियों में सबसे परिचित छिपकलियां घरेलू छिपकली (जो घरों की दीवारों पर रहती है), झड़ियों में रहने वाला गिरगिट और सुनसान इलाकों में रहने वाली गोह हैं । यहां हम एक अनोखी छिपकली के बारे में चर्चा करेंगे ।
    इन्डोनेशिया ऐसा देश है जिसमें सत्रह हजार द्वीप हैं । इनमें से केवलपांच द्वीपों पर एक दैत्याकार छिपकली पाई जाती है जो ८ से १० फीट लम्बी और और ७० किलोग्राम वजनी है । दिखने में यह मगरमच्छ के समान है, किंतु वास्तव मेंयह हमारे यहां पाई जाने वाली गोह की बहुत करीबी है । पांच मेंसे एक द्वीप कोमोडो के नाम पर इस छिपकली का नाम कोमोडो ड्रैगन रखा गया   है । ड्रैगन एक खूंखार मिथकीय जंतु का नाम है जिसके बारे में माना जाता है कि उसके मुंह मेंआग की लपटें निकलती हैं । 
     कोमोडो ड्रैगन विशुद्ध रूप से मांसाहारी जंतु है जो मरे हुए जानवरों का मांस खाता है, किंतु मौका लगने पर यह हिरन और भैंसे जैसे जंतुआें का शिकार भी कर लेता हैं । शिकार को मारने का इसका तरीका यह है कि वह शिकार के गले पर काटता   है । कोमोडो ड्रैगन के सिर मेंदो विष ग्रंथियां होती हैंजिनसे एक हल्का विष निकलता है । किन्तु विष से अधिक घातक इसकी लार में रहने वाले कम से कम ५७ प्रजातियों के बैक्टीरिया होते है जो शिकार को बीमार कर देते हैं । विष और बैक्टीरिया के मिले-जुले प्रभाव से शिकार थोड़ समय में पस्त हो जाता है और फिर उसका पीछा करता हुआ कोमोडो ड्रैगन उसे आराम से खा लेता है ।
    रोचक बात यह है कि जब दो कोमोडो ड्रैगन आपस में लड़ते है और एक-दूसरे को काटते हैं तब उन पर न तो इस विष का प्रभाव होता है न उन सारे बैक्टीरिया का । वैसे हर जन्तु के शरीर में प्रोटीन्स होते हैं जो जो बैक्टीरिया का सामना करते हुए संक्रमण को रोकते हैं । इन्हें एन्टीमाइक्रोबियल पेप्टाइड (अचझड) यानी सूक्ष्मजीव रोधी पेप्टाइड कहते  हैं ।
    वैज्ञानिकों ने सोचा कि क्या कोमोडो ड्रैगन में कुछ विशेष प्रकार के अचझड होते हैं जिनके कारण अपनी ही प्रजाति के सदस्यों द्वारा काटे जाने का उस पर कोई असर नहीं होता ?
    आजकल ऐसे बैक्टीरिया तेजी से विकसित होते जा रहे हैं जिन पर एंटीबायोटिक दवाइयों का असर नहीं होता । इन्हें प्रतिरोधी बैक्टीरिया कहते हैं और इनके कारण संसार में प्रति वर्ष लगभग ७ हजार व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है क्योंकि इन सूक्ष्मजीवों पर शक्तिशाली एंटीबायोटिक का भी असर नहीं    होता ।
    इस प्रश्न का हल खोजने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के जॉर्ज मेसन विश्वविद्यालय के बार्नीबिशप और मोनिक फान हुक ने कोमेडो ड्रैगन के रक्त का विश्लेषण किया । डॉ. बिशप ने एक चिड़ियाघर से कोमोडो ड्रैगन का रक्त प्राप्त् किया और उसका ऋणोवेशित हाइड्रोजेल कणों के साथ ऊष्मायन (इनक्युवेशन) किया । चूंकि पेप्टाइड धनोवेशित होते हैं, वे हाइड्रोजेल कणों से बंध जाते हैं ।
    इन पेप्टाइड्स का स्पेक्ट्रोफोटोमीटर से विश्लेषण करने पर पता चला कि कोमोडो ड्रैगन में ४८ ऐसे अचझड है जिन्हें पहले कभी नहीं देखा गया था । डॉ. फान हुक ने इनमें से ८ अचझड का परीक्षण रोगजनक बैक्टीरिया की दो प्रजातियों झीर्शीविािरिी रर्शीीसळििरी और डींरहिूश्रलिलिर्लीी र्रीीर्शीी के साथ    किया । आठ में से सात ने दोनों प्रजातियों की वृद्धि को रोक दिया । आठवा अचझड केवल झ.रर्शीीसळििरी  पर ही कारगर रहा । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इन दोनों प्रजातियों को बहुत खतरनाक घोषित किया है ।
    इस शोध काय्र का विवरण जर्नल ऑफ प्रोटीयोम रिसर्च में प्रकाशित किया गया है । इससे नए और अधिक कारगर एंटीबायोटिक बनाने की संभावनाएं खुल गई है ।
जीवन शैली
घटती प्रसन्नता और बढ़ता प्रदूषण
डॉ. ओ.पी. जोशी
    किसी देश की समृद्धि तब मायने रखती है जब वह नागरिकों के स्तर पर हो । लेकिन दुर्भाग्य है कि देश का जोर आम लोगों की खुशहाली के बजाय राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के  आकार को बढ़ाने पर है ।
    इसके चलते 'प्रसन्नता` का ग्राफ लगातार घट रहा है । इसकी एक वजह बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण हो सकती हैं। विडंबना है कि आंनद की तलाश में प्रकृति के बीच रहने वाला मनुष्य अपने स्वास्थ्य खतरों से जूझ रहा   है । 
   अभी कुछ माह पूर्व ही वर्ल्ड हेप्पीनेस रिपोर्ट में बताया गया कि हमारा देश हेप्पीनेस, खुशहाली या प्रसन्नता के आंकलन में आसपास के देश नेपाल, चीन एवं पाकिस्तान से भी पीछे या नीचे है । जिन ८-९ पैमानों पर खुशी का आकलन किया गया, उनमें स्वास्थ्य भी एक था । स्वास्थ्य का सीधा संबंध हमारे आसपास के वातावरण या पर्यावरण से होता है। स्वस्थ आदमी तो खुशहाल या प्रसन्न रहता है जबकि बीमार परेशान ।
    देश में बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण देशवासियों पर प्रभाव डालकर उसमें कई प्रकार के रोग पैदा कर रहा है तो फिर वे खुश कैसे रहेंगे ? इसका तात्पर्य यही हुआ कि बढ़ता प्रदूषण देशवासियों को बीमार कर उनकी खुशियां या प्रसन्नता को कम या समाप्त कर रहा है । प्रदूषण के संदर्भ में चीन हम से आगे था, परंतु पिछले कुछ वर्षों में वहां विभिन्न स्तरों पर प्रदूषण कम करने के  सफल प्रयास हुए एवं शायद इसलिए वहां खुशहाली बढ़ी एवं वह हमसे आगे हो गया । पुराने जमाने में एक कहावत कही जाती थी ``सौ दवा की एक दवा, ताजी व साफ हवा``। परंतु अब बढ़ते प्रदूषण के कारण हवा न ताजी रही न साफ । वायु प्रदूषण अब महानगरों के साथ साथ छोटे शहरों व कस्बांे में भी फैल गया है। देश के १२० से ज्यादा शहरों में वायु प्रदूषण की स्थिति खतरनाक है ।
    वायु प्रदूषण के कारण भारत व चीन में फेफड़े तथा त्वचा कैंसर के रोग बढ़े है । बैंगलुरु अस्थमा की राजधानी बन गया है । एक अध्ययन के अनुसार बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण देश के लोगों की श्वसन क्षमता यूरोप के लोगों की तुलना में २५ से ३० प्रतिशत कम है ।
    अमेरीकी एजेंसी नासा के सेटेलाइट इमेज से प्राप्त जानकारी के अनुसार वर्ष २००५ से २०१५ के  मध्य देश में वायु प्रदूषण काफी   बढ़ा । एक अध्ययन के अनुसार दिल्ली शहर के ४४ लाख स्कूली बच्चें में से आधों के फेफड़े विषैली हवा से खराब हो गये हैं ये बच्च्े जब बड़े होकर रोगग्रस्त हांेगे तो खुशी का तो प्रश्न ही नहीं ।
    विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष २०१६ में दुनिया के जो २० प्रदूषित शहर बताये थे उनमें १० हमारे देश के थे । पर्यावरण प्रदूषण बाबद् नियम कानून बनाकर लागू करने वाली हमारे देश की राजधानी दिल्ली तो वर्षांे से प्रदूषण में अव्वल है । हर वर्ष लगभग १० लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण के कारण देश में होती है । परंतु केन्द्र का पर्यावरण विभाग इससे सहमत नहीं है । आंकड़े व संख्या तथा मानना नहीं मानना इन सबको छोड़ दें परंतु वह सच्चई है कि वायु प्रदूषण हमारा स्वास्थ्य बिगाड़ रहा है एवं इससे अस्थमा, दमा, हृदयाघात, आंखों के रोग एवं फेफड़ें, त्वचा, रक्त, स्तन तथा ब्लड कैंसर फैल रहे हैं ।
    वायु के साथ-साथ अब देश का जल भी स्वास्थ्यवर्धक न होकर रोग जन्य हो गया है । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के अनुसार देश के १५० यदि क्षेत्र प्रदूषित है एवं ९०० शहरों का ७० प्रतिशत गंदा पानी बगैर उपचार के आसपास के स्त्रोतों में छोड़ दिया जाता है । वर्ष २०१० से एक (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) ने संसद में प्रस्तुत रिपोर्ट में बताया था कि घरेलू उपयोग का पेयजल अक्सर प्रदूषित तथा रोग फैलाने वाले विशाणुओं से युक्त होता है । जल संसाधन मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति ने सितंबर २०१६ में बताया था कि १० राज्यों के ८९ जिलों, २० राज्योें के ३१७ जिलों एवं २० राज्यों के ही ३८७ जिलों में क्रमश: आर्सेनिक, लोराइड व नाइट्रेट की अधिकता जल से है। कानपुर के उन्नाव के क्षेत्र में आर्सेनिक के कारण विकलांगता व गोरखपुर में जल जनित रोगों से बच्चें की मौत की भी कई घटनाएं हुई है ।
    विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी हाल ही में जारी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि भारत में मल युक्त स्त्रोत से प्राप्त जल का उपयोग अधिकांश लोग कर रहे है जिससे डायरिया पीलिया, टाईफाइड़ व हैजा जैसे रोग फैल रहे हैं । ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव से डेंगू व चिकनगुनिया का प्रकोप भी बढ़ रहा है । देश के ४०० से ज्यादा जिलों में भूजल भी प्रदूषित पाया गया है। प्रतिवर्ष ३.५ करोड़ लोग जल जनित रोगों का शिकार होते हैं ।
    खुशियांे को शोर से दर्शाने वाले हमारे देश में अब शोर में इतना प्रदूषण होने लगा है कि खुशियां गायब होने लगी है एवं मानसिक तनाव बढ़ने लगा है । मुंबई, दिल्ली व हैदराबाद दुनिया के सर्वाधिक शोर वाले शहरों में शामिल है। महानगरांे के साथ-साथ मध्यम तथा छोटे शहरों में भी शोर प्रदूषण फैल गया है । शोर का प्रभाव स्वास्थ्य पर धीमे जहर के समान लम्बे समय से दिखायी देता   है । सिरदर्द, नींद में कमी, पाचनक्रिया में गड़बड़, चिड़चिड़ापन एवं आक्रामकता आदि शोर प्रदूषण के सामान्य प्रभाव है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने ग्वालियर में एक मोबाइल टॉवर बंद करने का आदेश इस आधार पर दिया कि इसके कारण वहां के निवासी श्री हरीशचन्द्र तिवारी को कैंंसर हुआ ।
    इटली के एक कोर्ट में भी अभी-अभी ट्यूमर का कारण मोबाइल बताया है । पूर्व में भी जर्मनी, इज़राइल तथा अन्य देशों में किये अध्ययनों के अनुसार टावर्स के आसपास लगभग ५०० मीटर के  क्षेत्र में कैंसर का खतरा ज्यादा रहता है। वर्तमान में देश में पांच लाख से ज्यादा मोबाइल टावर्स है जिससे पैदा रेडियेशन के प्रभावों का कोई विस्तृत वैज्ञाानिक अध्ययन हमारे पास नहीं है या बताया नहीं जा रहा है क्योंकि दूर संचार के इस व्यापार से देश की जानी मानी हस्तियां जुड़ी हैं ।
    आई.आई.टी., चेन्नई का अध्ययन कहता है कि टावर्स के रेडियेशन अंर्तराष्ट्रीय मानकांे के अनुसार है, जबकि आई.आई.टी., मुंबई के अनुसार ये स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है । यही के प्रोफेसर गिरीश कुमार का मत है कि टावर्स २० गुना ज्यादा रेडियेशन फैला रहे   हैं ।
    प्रदूषण के इन प्रभावांे से पैदा रोग एवं मौतांे के अलावा देश में बिकने वाले कई प्रकार के खाद्य व पेय पदार्थांे में कीटनाशकों की उपस्थिति निर्धारित स्तर से ज्यादा आंकी गयी है, जो स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालकर कई प्रकार की बीमारियां पैदा कर रही है ।
    देश के कुछ क्षेत्रों में तो महिलाओं के दूध में डी.डी.टी की मात्रा का आकलन हुआ है । इसके साथ ही खाने-पीने की कई वस्तुओं में मिलावट से भी स्वास्थ्य पर विपरीत असर होकर रोग पैदा हो रहे हैं । अत: लोगों में खुशहाली बढ़ाने हेतु पर्यावरण प्रदूषण तथा मिलावट पर नियंत्रण जरूरी है ।
वातावरण
बढ़ते ताप के संकट से उबरने के रास्ते
कुमार सिद्धार्थ
    देश के अनेक इलाकों में तापमान ४८ डिग्री सेल्सियस पार करने की खबरें आ रही है । दिल्ली से लेकर महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में `पारे का प्रताप` दिनांे दिन बढ़ता ही जा रहा   है ।
    बढ़ते तापमान के `प्रचंड` को लेकर चिंताएं होना स्वाभाविक-सी बात है । कयास लगाए जा रहे है कि इस वर्ष गर्मी पिछले सालों की तुलना में कहीं अधिक होने की संभावना    है । यूं तो गर्मी का ट्रेलर मार्च के पहले-दूसरे सप्ताह में ही देखने को मिल गया था । 
    अमेरिका स्थित नासा का ताजा अध्ययन इस बात की ओर इशारा करता है कि वर्ष २०१७ का यह तीसरा जनवरी माह है, जो सबसे गरम रहा । दूसरा सबसे गरम जनवरी माह वर्ष २०१६ का था और पहली बार वर्ष २००७ का जनवरी माह । 
    इन मौसमी रिकार्ड के मुताबिक पहले वर्ष २०१५ सबसे गर्म साबित हुआ, फिर वर्ष २०१६ अगर मौसम में ऐसे ही बदलाव जारी रहे तो शायद वर्ष २०१७ अब तक का सबसे गर्म साल साबित हो जाए, और पारा पचास डिग्री सेल्सियस को छू लें। क्या समाज को अब ५० डिग्री सेल्सियस तापमान के अनुरूप अपनी जीवन शैली विकसित करनी पड़ेगी ? बढ़ते तापमान के पैटर्न को देखने से समझ में आ रहा है कि साल दर साल गरमी का `संताप` बढ़ने वाला है ।
    पीयू रिसर्च सेंटर (वॉशिंगटन स्थित यह रिसर्च सेंटर उन राजनैतिक, सामाजिक और भौगोलिक मुद्दों पर शोध तथा सर्वेक्षण करता है, जिनका अमेरिका या दुनिया से संबंध होता है और जो भविष्य में उपयोगी साबित हो सकते हैं) ने हाल ही में अपने सर्वेक्षण के निष्कर्षों को रखते हुए बताया कि धरती के बढ़ते तापमान को लेकर ६७ प्रतिशत भारतीय चिंतित हैं। चीन में यह महज ३० प्रतिशत है। प्रदूषण में अहम योगदान देने वाले तीन प्रमुख देशों अमेरिका, रूस और चीन में लोग अपेक्षाकृत कम चिंतित हैं । रूस और अमेरिका में यह प्रतिशत केवल ४४ फीसदी है ।
    निश्चित ही बढ़ता तापमान भारतीय समाज के लिए चिंताजनक है । दुर्भाग्य है कि एक तरफ गर्माती धरती के नाम पर गाल बजाए जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ उसे बढ़ाने के सारे उपक्रम भी किए जा रहे हैं । भोगवादी प्रवृत्ति और चमक-दमक वाले विकास के पीछे भागते हुए इंसान ने विकास के नाम पर फ्लाईओवर, कंक्रीट के जंगल, बांध, जंगलों का सफाया करने जैसे कारनामे किये । इनके दुष्परिणामों की वजह से ऐसे गंभीर हालात में पहुंच गए हैं । भूमि, जल, हवा, ध्वनि जैसे प्रदूषणों को फैलाकर तापमान बढ़ाने में हम सब भागीदारी निभा रहे हैं । नतीजन साल-दर-साल देश के लोग बढ़ते गरम ताप से झुलसने को मजबूर हो रहे हैं । इसका ज्यादा खामियाजा देश की ८० प्रतिशत जनता भोगने को अभिशप्त है ।
    दुनिया स्तर पर होने वाली राजनीति उठा पटक को देखें तो पाएंगे कि दुनिया की १५ फीसदी जनसंख्या वाले देश दुनिया के ४० फीसदी प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग करते हैं । अमेरिका में आज प्रति हजार ७६५ वाहन है, उसकी तुलना में भारत में यह १२ और बांग्लादेश में केवल दो वाहन हैं । इसी तरह अमेरिका में प्रति व्यक्ति  रोजाना बिजली की खपत १,४६० वॉट है, जबकि भारत में यह ५१ और बांग्लादेश में केवल १५ वॉट है जो आज की दुनिया का असली चित्र है ।
पर्यावरण समाचार
    विश्व स्वच्छ पर्यावरण शिखर सम्मेलन ५ एवं ६ जून २०१७ को नई दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के सभागार में भारतीय पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण संस्थान, नई दिल्ली तथा पर्यावरण डाइजेस्ट मासिक पत्रिका के संयुक्त तत्ववाधान में आयोजित किया गया है जिसका प्रायोजन राष्ट्रीय स्वच्छता शिक्षण एवं शोध संस्थान तथा भारतीय विश्वविघालय परिसंघ द्वारा किया जायेगा ।
    इस संबंध में भारतीय विश्वविघालय परिसंघ के कुलाध्यक्ष डॉ. प्रिय रंजन त्रिवेदी तथा पर्यावरण डाइजेस्ट के संपादक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित ने संयुक्त प्रेस विज्ञिप्त् के माध्यम से बताया कि पर्यावरण डाइजेस्ट मासिक पत्रिका के ३० वर्ष पूरे होने पर यह कार्यक्रम विशेष रूप से नई दिल्ली मेंआयोजित  किया गया है, जिसमें ५ एवं ६ जून २०१७ को देश-विदेश के प्रतिभागी सम्मिलित होंगे तथा इस शिखर सम्मेलन के मुख्य विषय : स्वच्छ भारत के लिए स्वच्छ पर्यावरण पर विस्तार से चर्चा होगी ।
    ज्ञातव्य है कि इस अवसर पर १५ चुने हुए देशों के राजदूत तथा उच्चयुक्त भाग लेकर अपने-अपने देशों में स्वच्छता आंदोलन संबंधी प्रयासों पर प्रकाश डालेंगे ।
    इस अवसर पर कौशल विकास के माध्यम से स्वच्छता के क्षेत्र में रोजगारमूलक शिक्षा पर बल देते हुए पर्यानुकूलित उद्यमिता विकास के क्षेत्र में विशेष प्रशिक्षण संबंधी नीतियों पर एक पुस्तक का लोकार्पण ६ जून २०१७ को शिखर सम्मेलन के समापन सत्र में भारत सरकार के मंत्री एवं वरिष्ठ अधिकारी भाग    लेगें । 
    इस अवसर पर प्रायोजकों की ओर से डॉ. उत्कर्ष शर्मा, निदेशक, राष्ट्रीय स्वच्छता शिक्षण एवं शोध संस्थान ने बताया कि उनकी संस्था द्वारा प्रकाशित स्वच्छता शिक्षण एवं शोध विश्वकोश के बारे में भारत सरकार तथा राज्य सरकारों के विभिन्न मंत्रालयों एवं विभागों के अतिरिक्त सभी विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों के अधिकारियों को इस अवसर पर आमंत्रित कर उन्हें स्वच्छ भारत अभियान को सफल बनाने हेतु अनौपचारिक तथा औपचारिक रूप से प्रबोधित किया जायेगा । इस अवसर पर पर्यावरण शिक्षण, आपदा प्रबंधन, प्रतिपालनीय विकास, स्वच्छता तथा संबंधित क्षेत्रों में कार्यरत विद्वानों, नीति-निर्धारकों, पत्रकारों, वैज्ञानिकों तथा उद्यमियों को सम्मानित किया जायेगा ।
    भारतीय पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण संस्थान की स्थापना नई दिल्ली में ५ जून १९८० को तब हुई थी जब भारतवर्ष में कोई पर्यावरण मंत्रालय नहीं था । इसी संस्थान ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर केन्द्र सरकार को प्रेरित कर पर्यावरण मंत्रालय की स्थापना संबंधी प्रस्ताव पारित करवाते हुए एक कीर्तिमान स्थापित करते हुए सफलता हासिल की । । पिछले ३७ वर्षो में संस्थान ने लगभग दो लाख व्यक्तियों को पर्यावरण विज्ञान के क्षेत्र में स्नातकोत्तर स्तर पर प्रशिक्षित कर प्रदूषण नियंत्रक के क्षेत्र में वैज्ञानिकों का एक विशेष बल तैयार करने में सफलता हासिल की है ।     पर्यावरण विषय पर भारत की पहली हिन्दी राष्ट्रीय मासिक के रूप में पर्यावरण डाइजेस्ट का प्रकाशन जनवरी १९८७ से नियमित हो रहा है ।
    आयोजकों के अनुसार इस ऐतिहासिक शिखर सम्मेलन में लिए गये निर्णयों को विश्व के सभी देशों की सरकारों को सूचित किया जायेगा ताकि पर्यावरण संरक्षण संबंधी नीति-निर्धारण करने में उन्हें आसानी हो ।
गांधी जहां पढ़े थे, १६४ साल बाद बंद हुआ वह स्कूल
    राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन से जुड़े उनकी विद्यालयीन शिक्षा के आधार स्तम्भ अलफ्रेड हाई स्कूल को राजकोट प्रशासन ने म्यूजियम बनाने के लिए इस १६४ साल पुराने स्कूल को बंद कर दिया है । यह वही स्कूल है जहां से १८८७ में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी १८ साल की उम्र में पढ़कर निकले थे । इस स्कूल को मोहनदास गांधी स्कूल के नाम से भी जाना जाता है ।
    गुजराती माध्यम वाले इस सरकारी स्कूल को म्यूजियम में बदलने के राजकोट नगर निगम के प्रस्ताव को गुजरात सरकार ने पिछले साल ही मंजूरी दी थी । स्कूल प्रशासन ने सभी १२५ छात्रोंको स्कूल छोड़ने का प्रमाण पत्र जारी करना शुरू कर दिया है ।
    जिला शिक्षा अधिकारी ने बताया कि अब ये छात्र अगले शैक्षणिक सत्र के लिए किसी भी स्कूल में प्रवेश ले सकते है ।