शनिवार, 19 सितंबर 2009

आवरण






आवरण


१ सामयिक

पर्यावरण : संकल्पना एवं अवधारणा
डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
पृथ्वी पर संतुलित जीवन के लिए, वायु, भूमि, जल, वनस्पति, पेड़-पौधे, मानव सब मिलकर पर्यावरण बनाते हैं । पृथ्वी पर जबसे मनुष्य, पशु-पक्षी और जीव तथा जीवाणु उपभोक्ता के रूप में प्रकट हुए तब से लेकर आज तक यह चक्र निरन्तर अबाध गति से चला आ रहा है । यहाँ पर जिन्हें जितनी आवश्यकता होती है वह उन्हें प्राप्त् हो जाता है शेष जो बचा रहता है वह प्रकृति आगे के लिए अपने पास संरक्षित कर लेती है । अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में लिखा गया है- ``हे धरती माँ, जो कुछ मैं तुझसे लूंगा, वह उतना ही होगा, जिसे तू पुन: पैदा कर सके । तेरे मर्मस्थल पर या तेरी जीवन शक्ति पर कभी आघात नहीं करूंगा । यही नहीं ऋचाआें में भी पर्यावरण के तत्वों - पृथ्वी, जल, आकाश, वायु के प्रति सभी ऋषि नत्मस्तक होकर प्रणाम करते हैं अर्थात् भारत में नदियों को माँ तुल्य स्थान एवं सम्मान दिया गया है । आज संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के कारण यह पूजन अर्चन की परम्परा कोरी कल्पना सी लगती है । भूमण्डलीकरण एवं बाजारीकरण के इस भौतिक युग में मानव ने प्रकृति पर विजय प्राप्त् करने के लिए अनेक सुख सुविधाएँ एवं वैज्ञानिक उपलब्धियां अर्जित की साथ ही बढ़ती आबादी की आवश्यकताआें की पूर्ति हेतु औद्योगिक क्रान्ति का सहारा लिया गया, यह वह निर्णायक समय था जब हमारी प्रकृति का सामान्य सा रूप विखण्डित होने लगा । हम औद्योगिक क्रांन्ति और हरित क्रांन्ति के योद्धा तो कहलाये परन्तु इसके पीछे हमारा आकाश एवं जमीन दोनो क्षतिग्रस्त हो गये और पंच तत्व का यह भैरव मिश्रण अपनी स्वच्छता खोने लगा । इससे हमारे परितंत्र एवं पारिस्थितिकी असन्तुलित हो गये । वन कटने लगे, उपजाऊ भूमि पर आवास बनने लगे, बड़े-बड़े जंगल साफ कर बांधों की योजना बनी और न जाने कितने ऐसे प्रयोग शुरू हो गये जो मानव और प्रकृति के अनुकूल नहीं थे जिससे सामान्य जीवन में अनेक परिवर्तन परिलक्षित होने लगे । पर्यावरण हितैषी जीव-जन्तुआें की बहुत सी प्रजातियाँ विलुप्त् होती गयीं और जो शेष बची हैं वे लुप्त् होने के कगार पर खड़ी हैं । सफाईकर्मी गिद्ध विलुप्त् होते जा रहे हैं । समुद्र, नदी,तालाब, जंगल और घास के मैदान का परितंत्र विनाश की ओर अग्रसर है यही नहीं वैश्विक स्तर पर प्राकृतिक असंतुलन के स्पष्ट नजारे दिखने लगे हैं क्योंकि वैश्विक उष्णता से ऋतु चक्रों के सन्तुलित परिचालन में व्यवधान उत्पन्न होने लगा है । हिमखण्ड पिघलने लगे हैं । समृद्र अपनी वर्जनाएं तोड़ रहा है । उसका जल स्तर उछाल मार कर संकट की ओर सीधा संवाद कर रहा है अर्थात जल प्रलय का आमंत्रण-पत्र तैयार हो गया है आकाश में ओजोन परत अपना धैर्य खो रही है । साथ ही अन्य प्राकृतिक आपदाएं (सुनामी) कहर ढाहने लगी हैं । पर्यावरण के इस प्रदूषण ने हमारे जनमानस के ऊपर अनेक असाध्य रोगों का आक्रमण शुरू कर दिया है । युद्ध की रणभेरी बज चुकी है । यदि इन परिस्थितियों सें मनुष्य प्रकृति के प्रति सचेत और सावधान नहीं हुआ तो भयंकर से भयंकर परिणाम उसके दहलीज पर दस्तक देते नजर आयेंगे । पर्यावरण दो शब्दों के समन्वय से बना है - परि तथा आवरण । परि से तात्पर्य चारों ओर तथा आवरण का अर्थ है चादर या घेरा अर्थात जो चारों ओर से घेरे हुए है, वह पर्यावरण कहलाता है । यह वातावरण या पर्यावरण मानव सहित अन्य जीवाणुआें को जो परिस्थितियां दर्शाए, शक्तियां और प्रभाव अपने आवरण की ओट में छिपाये हुए है । विस्तृत अर्थ में जाये तो पर्यावरण सम्पुर्ण दशाओ एवं प्रभावों को जो जीवों के जीवन एवं विकास को प्रभवित करते है । अर्थात् हम अपने चारों और अनेक प्रकार के जीव जंतु पेड़ पौधें तथा अनेक सजीव व निर्जीव वस्तुएँ देखते या महसूस करते है वही पर्यावरण है । अन्य शब्दो में कहे तो पर्यावरण वह है । जो हम अपनी आखों से सामने अवलोकित करते है । चाहे वह वायु हो,भूमि हो, अंतरिक्ष हो,या ध्वनि हो या वनस्पति हो । इस तरह से पर्यावरण उस समूची भौतिक व जैविक व्यवस्था को कहते है । जिसमें सम्पूर्ण जगत के जीवधारी जीवन जीते और अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों का विकास करते है। वास्तव में देखा जाए तो पर्यावरण अत्यन्त व्यापक सत्ता है जो धुलोक से पृथ्वी के प्रत्येक घटक मंें निहित होता है । पर्यावरण को अंग्रेजी भाषा में इनवायरमेंट (एिर्ळींीििााशिीं) कहा गया है जो फ्रांसीसी शब्द एिर्ळींीिळिी ्रशब्द से उत्पन्न हुआ है । जिसका पर्याय घेरना (ढि र्डीीीिीर्ि) होता है । अगे्रजी भाषा में पर्यावरण के लिए एक शब्द (करलळींरश्र) ५ का भी प्रयोग किया जाता है । जो लेटिन के करलळींरीश शब्द से बना है, जिसकी व्याख्या यह है कि एक सुनिश्चित स्थान जिसमें जीव उस स्थान की भौतिक एवं जैविक दशाआें मेंे समायोंजन स्थापित कर रहते है। परिभाषित तौर पर देखें तो एक विशेष वातावरण जिसमें एक विशेष जीव वर्ग या समूह निवास करता है ।पर्यावरण कहलाता है । पर्यावरण की परिभाषा भारतीय एवं पर्यावणविदों की दृष्टि से देखे तो इसका अर्थ स्पष्ट नजर आयेगा- भूगोल परिभाषा कोश के अनुसार चारों ओर उन बाहरी दशाआेंं का योग जिसके अन्दर एक जीव अथवा समुदाय रहता है या कोई वस्तु रहती है । डॉ.वी.पी.सिंह के अनुसार पर्यावरण वह आवरण या घेरा है। जो मानव समुदाय को चारों और से घेरे हुए है ।तथा मानव को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित करता है । प्रसिद्ध पर्यावरणविद् एवं वैज्ञानिक एचं फिंटिग ने पर्यावरण का अर्थ जीव के परिस्थिति कारकों का योग बताया है ।आपके अनुसार जीवन की परिस्थिति के सभी तथ्य मिलकर पर्यावरण कहलाते है । इस प्रकार पर्यावरण वह परिवृत्ति है जो मनुष्य के चारो तरफ से घेरे हुए है । तथा उसके जीवन और क्रियाआें पर प्रकाश डालती है । इस प्रकार पर्यावरण वह परिवृत्ति है जो के बाहर के समस्त तथ्य वस्तुएं स्थितियां तथा दशाएं सम्मिलित होती है । यही सब मानव के जीवन विकास को प्रभावित करती है । इसी तरह बैरिग,लैंगफील्ड और बेल्ड की मान्यता है कि व्यक्ति गर्भावस्था से लेकर मृत्यु पर्यन्त अपने आस-पास से जो भी उत्तोजनाएं ग्रहण करता है उनके समुच्च्य का मान ही पर्यावरण है । तापमान, प्रकाश, जल, वायु, मृदा तथा कोई भी बाह्म शक्ति पदार्थ या दशा जो जीव मात्र को किसी रूप में प्रभावित करती है । पर्यावरण का कारक कहलाती है । इस प्रकार से पर्यावरण एक समुच्च्य है और मानव तथा अन्य जीव पर्यावरण के अविभाज्य अंग हैं एवं पृथ्वी को एक पूर्ण इकाई का रूप भी प्रदान करते है प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अलेक्जांडर फान हम्बोल्ट ने अपने महान ग्रन्थ कॉसमॉस में इसी प्राकृतिक संश्लिष्ट एवं एकता को निम्न शब्दों में प्रतिपादित किया है । ``हम प्राकृतिक रूप से प्रत्येक जीव को सृष्टि से एक अंग के रूप में मानने के लिए बाध्य है तथा पौधे या पशु को केवल एक प्रथम प्रजाति ही नहीं समझना चाहिए बल्कि अन्य जीवित या मृत स्वरूप से जुड़ा हुआ मानना चाहिए । इसी तरह मैक आइवर नामक पर्यावरणविद् का मानना है कि पृथ्वी का धरातल एवं उसकी सभी प्राकृतिक शाक्तियां जो पृथ्वी पर विद्यमान रहकर मानव जीवन को प्रभावित करती है । पर्यावरण के अन्तगर्त आती है । वहीं .ए.जी. टान्सेन का मानना है कि पर्यावरण को उन सम्पूर्ण प्रभावी दशाआें का योग कहा जाता है । जिनमें जीव रहते है । इ.जे. रास का मानना है कि ``पर्यावरण वह बाह्म शक्ति है जो प्रभावित करती है ।'' प्रसिद्ध पर्यावरणविद् एवं भूगोलवेत्ता डडले स्टाम्प के अनुसार -``पर्यावरण प्रभावों का ऐसा योग है जो जीव के विकास एवं प्रकृति को परिवर्तित तथा निर्धारित करता है ं ईसकोविटस के अनुसार`` पर्यावरण समस्त बाह्म दशाआें एवं प्रभावों का समुच्च्य है और इसी सम्बन्ध के कारण जीव प्रतिक्रिया एवं प्रभावित करने में सक्षम होता है । स्पष्ट है कि जो तथ्य मानव के जीवन और इसी विकास को प्रभावित करते है ं उन सम्पूर्ण तथ्यों का योग पर्यावरण कहलाता हैं भले ही ये तथ्य सजीव हों अथवा निर्जीव ।इसी तरह से पर्यावरण की विस्तृत परिभाषा एन.सी.ई.आर.टी.नई दिल्ली के अनुसार ``व्यक्ति के पर्यावरण के अन्तर्गत वे समस्त प्राकृतिक एवं सामाजिक घटक आते है । जो प्रत्यक्ष रूप में जीवन और व्यवहार को प्रभावित करते है ।'' संक्षेप में हम कह सकते है कि पर्यावरण के अन्तर्गत प्राकतिक एवं मानव निर्मित कारकों का समावेश रहता है जो हमें चारों और से घेरे हुए है अर्थात पर्यावरण के अन्तर्गत भौतिक के साथ सांस्कृतिक (जैविक-अजैविक) प्रभावशील घटकों का समावेश किया जाता है ं जो जगत के जीव की दशाआें और कार्यो को प्रभावित करता है और पर्यावरण की यह गति प्राणि जगत के बीच क्रिया और प्रतिक्रिया की श्रृंखला प्राकृतिक परिवेश से प्रखर होती है । कुल मिलाकर कहा जाये तो पर्यावरण -``प्राणियों को प्रभावित करने वाली आस-पास की सभी जैविक व अजैविक स्थितियों का समुच्च्य पर्यावरण कहलाता है ।'' ***

४ कविता

कितना प्यारा पेड़
डॉ. रमेशचन्द्र
भरी दोपहरी में लगता है कितना प्यारा पेड़
शीतल छाया लाकर देता है सबको सहारा पेड़
बच्च्े खेलते छिपाछाई और खेलते आंख मिचौली
गिल्ली डंडा खेलते रहते, करते रहते हंसी ठिठौली
अपने ऊपर ले लेता है यह गर्मी सारा पेड़ ।
बड़े - बूढ़े सभी बैठ कर करते रहते वार्तालाप
कोई हुक्का पीता रहता कोई करता मंत्र का जाप
अपनी छाया में ले आता है भाईचारा पेड़ ।
कहीं बच्चें का कलरव होता कहंी बंसी की तान
जिसको छाया मिल जाती वहीं बड़ा इन्सान
सर्दी, गर्मी, वर्षा से कभी न हारा पेड़ ।
प्राणों का संचार है जब तक है ये सारे पेड़
यह उपहार है कुदरत का उनको न कोई छेड़
जीवन और जगत का है यह पालनहारा पेड़ ।
कितने बचपन बीते हैं, इन पेड़ों की छाया में
उम्र का रंग उतर आया है अब काया में
सभी बदल जाते हैं पर नहंी बदला न्यारा पेड़ ।
पेड़ों की छाया में सुनते रामायण और गीता
अपनी शीतल छया में है पूरा जीवन बीता
मंदिर -मस्जिद-गिरिजाघर और गुरूद्वारा पेड़ ।
पेड़ न होता जल न होता और न होता जीवन
बिना पेड़ के मानव जीवन में कितनी बढ़ जातीउलझन
फल देता पत्थर के बदले , किस्मत का मारा पेड़ ।
***

५ जनजीवन

बाढ़ के साथ जीने के सबक
- सुश्री रेशमा भारती
बाढ़ नदी की प्रकृति का एक हिस्सा रही है । नदियों में बाढ़ का आना उतना ही स्वाभाविक है जितना कि बारिश का आना या नदियों का समुद्र में मिलना । नदी अपनी अतिरिक्त जलराशि और मिट्टी-गाद को समय-समय पर उफनकर आसपास बिखराती चलती है । हमारी सदियों की परम्परा ने हमें नदी की प्राकृतिक बाढ़ के साथ रहना और अपने जान-माल की रक्षा के प्रयास करना सिखाया है । जैसे-जैसे नदी के प्राकृतिक स्वरूप को नियंत्रित करने और नदी जल का अधिकाधिक दोहन करने के प्रयास हुए, वैसे-वैसे बाढ़ भी अस्वाभाविक और विकराल रूप में सामने आयी एक और पन बिजली उत्पादन और बाढ़ नियंत्रण के नाम पर देशभर में बांधों और तटबंधों का विशाल जाल फैला । दूसरी ओर बाढ़ भी समय, स्थान, विकरालता और तबाही की दृष्टि से अजीबोगरीब और भंयकर रूप में प्रकट हुई । प्राकृतिक बाढ़ खेती के लिए फायदेमंद हुआ करती थी । नदियों के ईद गिर्द सभ्यताआें के विकास का आधार इसमें ढूंढा जा सकता है । बाढ़ के माध्यम से नदी आसपास के क्षेत्र को उपजाऊ बनाने की क्षमता रखती है । नदी के साथ बहकर आती उपजाऊ पोषक तत्वों वाली मिट्टी या गाद बाढ़ के दौरान आसपास बिखर जाती और तटीय क्षेत्रों को खेती की दृष्टि से उपजाऊ बनाती । इस तरह खेती के लिए जमीन को उपजाऊ खाद प्राकृतिक रूप से ही मिल जाती थी और उपज के लिए बस बीज बोने भर की देर रहती । बाढ़ का पानी भूमिगत जलस्तर में बढ़ोतरी करता । देश के कुछ भागों में इस पानी को सहेजकर तालाबों में एकत्र करने की परम्परा भी रही थी । बरसों से नदी किनारे रहने वाले साधारण स्थानीय लोग नदी के साथ एक रिश्ता महसूस करते आए हैं । नदी उनके लिए माँ है, देवी है । नदी के बदलते स्वभाव से भी वे परिचित रहे और उसके अनुकूल व्यवहार से नदी की इस प्राकृतिक देन का भरपूर लाभ लिया जा सका । नदी किनारे बसे लोगों के घर, खान-पान संबंधी आदतें और जीवन शैली बाढ़ के अनुरूप विकसित हुई । स्थानीय संस्कृतियों में बाढ़ के महत्व को समझते हुए उसके आने और वापिस लौट जाने संबंधी प्रसंगों की चर्चा मिलती है । ऐसा नहीं है कि परम्परागत समुदाय बाढ़ से सुरक्षा के उपाय नहीं करते थे, पर इन उपायों ने जब भी नदी के मूल प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड़ नहीं की, तब-तब बाढ़ का लाभ भी ये समुदाय ले पाए । नदी की बाढ़ हमारे लिए वास्तविक समस्या तब बनी जब हमने अपने `विकास' के आगे नदी के प्राकृतिक स्वरूप की अवहेलना की । प्राकृतिक बदलाव के विरूद्ध जाकर जब हमने नदी को अपने अनुकूल नियंत्रित, कैद और दोहित करना चाहा, तो नदी की बाढ़ भी अप्रत्याशित विकराल रूप में प्रकट हुई । देशभर से प्राप्त् समाचार इस हकीकत को बयान कर रहे हैं कि किस तरह तरक्की और सुरक्षा के सूचक बांध, बैराज, तटबंध ही विनाश व अप्राकृतिक ढंग की बाढ़ों के सबब बन गए हैं । पहाड़ों पर बड़े पैमाने पर होने वाले वनकटाव, वृक्षकटाव ने उस प्राकृतिक कवच को छीन लिया जो बड़ी मात्रा में मिट्टी-पत्थर को बहकर नदी में गिराने से रोक सकता था । इससे नदियों के तल के जल्दी भरने और नदियों के उथले होने की प्रक्रिया शुरू हुई जिससे बाढ़ की संभावनाएं बढ़ीं । बांधों के बारे में यह दावा किया गया कि इनके जलाशय वर्षा के अतिरिक्त जल को अपने में सहेजकर फिर धीरे-धीरे नदी में उतारेंगे, जिससे नदी में बारिश का पानी एक साथ न आये । पर यह दावा भी खोखला साबित हुआ और बांध एक नए किस्म की अधिक विनाशकारी बाढ़ लाने वाले बन गए । व्यवहार में बांधों का मूल उद्देश्य बिजली उत्पादन रहा, न कि बाढ़ नियंत्रण और ये दोनों उद्देश्य परस्पर विरोधी साबित हुए । प्राय: देखा यह गया है कि अधिकाधिक बिजली प्राप्त् करने के उद्देश्य से बांध के जलाशयों को पहले से ही इतना अधिक भरके रखा जाता है कि उनमें बारिश का पानी समाने की पर्याप्त् क्षमता नहीं रहती । ऐसे में बारिश के दिनों में जलाशय के अपनी जल ग्रहण क्षमता से अधिक भर जाने से खतरा उत्पन्न हो जाता है । बांध को टूटने से बचाने के लिए ऐसी ऐसी स्थितियों में अचानक बड़ी मात्रा में पानी छोड़ने की नौबत आ जाती है । देश के कई इलाकों में ऐसी स्थितियों में अचानक बड़े पैमाने पर छोड़े गए पानी से तेजी से विकराल बाढ़ आने के समाचार आते रहे थे । कुछ क्षेत्रों मेें तो पानी छोड़े जाने की पर्याप्त् पूर्व सूचना के अभाव में ऐसे में कई तीर्थ यात्री या स्थानीय लोग मारे भी गए । बांध से अचानक कुछ पानी छोड़ने से वह पानी जिस वेग और तेजी से बहकर विनाशकारी बाढ़ लाता है । उससे ही यह कल्पना सिहरन पैदा कर देती है कि कभी कोई बांध टूट जाएगा तो कितनी भयंकर बाढ़ आएगी । ऐसी बाढ़ तो नदी किनारे के पूरे के पूरे गांवों, शहरों का अस्तित्व तक मिटा डालेगी । इसके अतिरिक्त पानी के उन्मुक्त प्रवाह को रोककर जहां-जहां बांध नदी के प्राकृतिक प्रवाह की गति को कम करता है, वहां-वहां नदी तल पर गाद अधिक बैठती जाती है और बाढ़ का कारण बनती है । बिहारी की कोसी नदी और उड़ीसा में आयी बाढ़ ने हाल के समय में बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाए गए तटबंधों की प्रतिकूल भूमिका पर बहस छेड़ दी है । इन इलाकों में यह बार-बार सिद्ध हुआ है कि बाढ़ नियंत्रण के नाम पर बनाए गए तटबंध वास्तव में विनाशकारी बाढ़ को निमंत्रण देने वाले साबित हो रहे हैं । तटबंध अगर कुछ इलाके को बाढ़ से सुरक्षित करने का दावा करते है, तो कुछ अंदर के (नदी व तटबंध के बीच) इलाके को बाढ़ व जल जमाव की दृष्टि से बहुत असुरक्षित भी बना देते हैं । यह कहा जाता है कि तटबंधों के बीच सिमट कर नदी अधिक वेग से बहेगी तो इसके जल पर ज्यादा गाद जमा नहीं होगी, पर व्यवहार में हमेशा ऐसा नहीं होता। नदी की गाद को व्यापक क्षेत्रफल मेंे न फैलाने देकर तटबंध बाढ़ की प्राकृतिक देन से वंचित कर रहे हैं । आमतौर पर देखने में यह आता है कि व्यापक क्षेत्र में न फैलकर अधिक गाद नदी के तल पर ही जमा होने लगती है और नदी का जल स्तर ऊपर उठता जाता है और तटबंध छोटा पड़ता जाता है । ऐसे में तटबंध की ऊंचाई आखिर कब तक बढ़ाई जा सकती है । कभी न कभी तो नदी तटबंध को लांघ ही लेगी । अपना मार्ग बदलने की प्रवृत्ति वाली और भारी गाद लेकर आने वाली नदियों पर तटबंध का निर्माण व्यर्थ ही है । पानी के दबाव, इंजीनियरिंग कमजोरियों, उचित रख-रखाव के अभाव, चूहों-छछूंदरों द्वारा बिल बनाए जाने आदि विविध कारणों के चलते तटबंधों में दरारें आती हैं या तटबंध टूटते हैं । और तब जो बाढ़ वेग से आती है उसका स्वरूप बहुत ही विकराल व विनाशकारी होता है। बिहार में आयी बाढ़ ज्वलंत उदाहरण है । तटबंधों से सुरक्षित हुए इलाके वास्तव में असुरक्षित अधिक हो जाते हैं। पता नहीं कब तटबंध टूट जाए या उसमें दरार आ जाए और बहुत विनाशकारी बाढ़ आ जाए । यहीं नहीं, उचित व्यवस्था के अभाव में तथाकथित सुरक्षित इलाकों का बहता या जमा पानी नदी तक नहीं आ पाता । सहायक जलधाराएं, बारिश का पानी या सहायक नदियां जब मुख्य नदी से उन्मुक्त रूप से नहीं मिल पाती, तो या तो इनका पानी उल्टा बहेगा या तटबंध के बाहर नदी के बहाव के साथ-साथ बहेगा और नए इलाकों को बाढ़ग्रस्त कर देगा । सहायक नदियों और मुख्य नदियों दोनों पर जब तटबंध बने होते है, तो ऐसे में जल जमाव की संभावनाए बढ़ जाती हैं । इस तरह देखने में प्राय: यह आ रहा है कि बाढ़ से सुरक्षा के कुछ उपाय बाढ़ के अधिक विकराल और अस्वाभाविक स्वरूप को आमंत्रण ही अधिक दे रहे हैं । ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम अपनी बाढ़ संबंधी वर्तमान सोच व नीतियों में परिवर्तन लाएं । जो बांध व तटबंध बन चुके हैं उनके रख-रखाव व प्रबंधन में विनाशक, अधिक वेग की बाढ़ से लोगों को सुरक्षा देने पर अधिकतम ध्यान दिया जाए । भविष्य में बड़े बांधों व तटबंधों के निर्माण को रोका जाए । बाढ़-नियंत्रण के लिए बेहतर निकासी व्यवस्था, नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में मिट्टी व जल संरक्षण व वनों की रक्षा पर बेहतर ध्यान दिया जाए। साथ ही सामान्य बाढ़ को सहने की बेहतर क्षमता विकसित करने की तैयारी होनी चाहिए जिससे परंपरागत ज्ञान से बहुत कुछ सीखा जा सकता है । ***

६ विरासत

पर्यावरण और वंशानुक्रम
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल
हमारे जीवन पर पर्यावरण के विविध भौतिक एवं जैविक कारकों का प्रबल प्रभाव बाह्य उद्दीपकों के रूप में अवश्य ही पड़ता है । इन प्रभावों के योग को ही पर्यावरण कहते है । यही पर्यावरण हमें बाह्यांतर रूप से आच्छादित रखता है ।पर्यावरण का प्रभाव का निर्विवाद रूप से है किन्तु यह प्रभाव वंशानुक्रम का भी परिणामी होता है। अर्थात पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हुए वंशागत गुणों में आनुवांशिक परिवर्तन परिलक्षित हो सकते हैं । जो निश्चित रूप से पर्यावरण कारकों से प्रभावित होते है । जो गुण दोष शक्तियां माता पिता के जनन कोशिकाआें, शुकाणु एवं अण्डाणु के संयुग्मन से युग्मनज (जायगोट) के रूप में आती है ।तो गुणसुत्रों पर स्थित पित्रेक (जीन्स)ही उनके गुण-दोषों के निर्धारित होते है। तथा वही उनके वाहक होते है। इन्ही जीन्स के द्वारा जीव के शरीर और जीवन में गुणोंं एवं विशिष्टताआें का विकास होता है । इसे ही वंशानुक्रम कहते है । यह गुण संततियो में आगे बढ़ते जाते है । और इन पर वातावरण का प्रभाव जन्म से मृत्यु तक रहता है । किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण में वातावरण कुछ प्रभावी होता ही है किन्तु पित्रेक गुणों का भी प्रभाव होता है । यद्यापि कुछ लोग पर्यावरण के प्रभावों को अधिक कारगर मानते है । जबकि कुछ अन्य लोग वंशानुक्रम के प्रभावोंे की प्रभावित को अधिक महत्व देते है । किन्तु यदि सम्यक एवं संतलित चिंतन किया जाये तो यह दोनो ही दृष्टिकोण अतिवादित से ग्रसित प्रतीक होते है । वास्तव में पर्यावरण एवं वंशानुक्रम,यह दोनो ही शक्तियाँ सम्मिलित रूप से जीव पर प्रभावी है । इनमें से किसी को भी कमतर नहीं आंका जा सकता है । अनेक चिंतकों विचारको एवं दर्शन शास्त्रियों ने समय समय पर अपने मन मन्तव्य प्रकट किये है । रूसों और पीयर्सन ने वंशानुक्रम को अधिक महत्वपूर्ण माना है। उनके अनुसार व्यक्ति के शारीरिक एवं नैतिक गुणों में गहरा सम्बन्ध होता हैं गाल्टन ने भी जुड़वा बच्चें का उदाहरण देते हुए इसी बात पर बल दिया है कि वंशानुक्रम का प्रभाव प्रबल है क्योंकि अलग अलग वातावरण में रहते हुए भी जुड़वाँ बच्च्े एक समान गुण दर्शाते है । इन विचारों से इतर सोचते हुए वातावरण की प्रभाविता के पक्ष में दार्शनिक लाक ने अपना मत रखते हुए कहा है कि वातावरण की प्रभाविता के अनुसार ही जीव की प्रवृत्तियाँ बनती है और गुण विेकसित होते है । फ्रंासीसी विद्वान हेलवीसियस के अनुसार भिन्न परिस्थितियाँ में लालन पालन योग्यता को बढ़ाता है ।और उसमें नये गुण समाविष्ट होते है । इग्लैण्ड के विद्वान रावर्ट ओवेन के मतानुसार भी अच्छी परवरिश तथा शिक्षा दीक्षा के द्वारा व्यक्ति को योग्यतम बनाया जा सकता है । जर्मनी के दार्शनिक हरबार्ट के अनुसार विचार ही परिवर्तन के उद्दीपक होते है । कहा जा सकता है कि जैसी सोच वैसा ही संसार । सार रूप मेें यही निष्कर्ष निकलता है कि पर्यावरण की प्रभाविता के साथ -साथ वंशानुक्रम भी जीवन को अंतरंगत रूप से प्रभावित करता है । भारतीय मनीषा जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि के सिद्धान्त की पक्षधर है । साथ ही संस्कारों को अतिशय महत्व देती है । हमारे संस्कारों का भी हमारी गुणता से गहरा सम्बन्ध होता है । हमारे संस्कारो में इसीलिए गर्भधान को भी संस्कार माना गया है । प्राणी में गर्भाधान के समय जब बीजकोष बनता है । तो उससें माता और पिता दौनो के ही गुणसूत्र प्राप्त् होते है ं जिनका संयोजक विशिष्ट होता है । गुणसूत्रोंपर असंख्य जीन्स होंते है । प्रत्येक जीन गुण वाहक होता है । साधारणतया: वंशानुक्रम के तीन नियम प्रतिपादित है ं प्रथम के अनुसार समान से समान की उत्पति,द्वितीय भिन्नता का नियम तथा तृतीय प्रतिगमन का नियम । प्राय: शिशु अपने माता पिता,दादा दादी या नाना नानी से मिलता है । एक प्रजाति से उसी प्रजाति के जीव पैदा होते है । वातावरण के प्रभाव से प्रजातियाँ के गुणों में भिन्नता आती है । जो आगामी पीढ़ियों में चली जाती है । कभी -कभी बालक अपने कुल और वंश से अनेखा एवं विलक्षण होजाता है । ऐसे विलक्षण बच्चें के अनेकानेक उदाहरण हमें देखतें और सुनने को मिलते रहतें है । इसी आधार पर बच्च्े जन्मजात प्रतिभा के धनी होते है ंवह अबोध होने पर भी किसी कार्य विशेष में दक्ष होते है । बीजमैन ने जीवद्रव्य की निर्विहनता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया उनके अनुसार माता पिता के जीन्स संयोगों के द्वारा युग्मनज (जायगोट) बनता है जोविदलन (क्लीवेज )क्रिया से दो भागो में विभक्त हो जाता है । जीवकोष (जर्म सेल ) तथा शरीर कोष (बॉड़ी सेल) जीवकोष कभी नष्ट नही होते और पीढ़र दर पीढ़ी चलते है और वंशवृद्वि करते हैं । जीवन में कुछ गुण पत्रिका के अनुसार मिलते हैं तथा कुछ गुण पर्यावरण के प्रभाव से अर्जित होते है । जिनका अंाशिक प्रभाव आनुवंशिक हो जाता है और जो नये नये जीनी संयोग बनाता ह। इसी से प्रतिगमन जन्मता है । लेमार्क ने यह बतलाया कि प्रत्येक प्राणी अपने वातावरण के अनुकूल ही स्वयं को ढालता है। उसी के अनुरूप उसमें संरचनात्मक कार्यात्मक तथा व्यवहारी परिवर्तन परिलक्षित होते है और इन परिवर्तनों मे से कुछ परिर्वतन उसकी संतान में चले जाते है यह उत्परिर्वतन भी विभिन्नताआें का कारण है । डार्विन ने कहा कि वातावरण मुख्य भुमिका निभाता है । प्राणी सदैव वातावरण से अर्न्तक्रिया करता है । जिसके परिणाम स्वरूप परिवर्तन पीढ़ियों में हस्तांतरित हो जाते है । यहाँ यह भी सत्य है कि यह परिर्वतन उत्परिवर्तित होकर सदैव ही वंशानुगत नहीं होते है । जीव की ग्राह्यता भी महत्वपूर्ण होती है । यहाँ हमें यह बात भली भांति समझनी चाहिए कि मूलत: वंशानुक्रम और पर्यावरण परस्पर विरोधी नहीं है वरन सहयोगी है । दोनो को अलग करके नही देखा जा सकता है कोई भी प्राणी दोनो संघात से ही बनता है । दोनो के योग से ही बनता है । केवल एक के द्वारा उसका परिमार्जन एवं जीवन नहीं चल सकता है। वंशानुक्रम एवं वातावरण दोंनो की सम्मिलित शक्तियाँ उसमें सन्निहित रहती है । वंशानुक्रम एवं वातावरण के वास्तविक सम्बन्ध को बीज और वृक्ष के उदाहरण से भी समझा जा सकता है । यही तो सृष्टि के सूक्ष्म और विराट का मर्म है । प्रत्येक बीज में वह शक्ति अर्न्तनिहित होती है कि वह विशेष प्रकार के पेड़ पौधे में बदल सकता है जिसका कि वह बीज रहा है । उसकी जन्मजात शक्ति तभी मूर्तमान होती है जबकि उसे उचित वातावरण अपनी शक्तियों के विस्तार यथा अंकुरण, पल्लवन एवं पुष्पन हेतु प्राप्त् होता है । यदि इसे नमी, प्रकाश वायु और ताप न मिले वह अंकुरित नही होता है ।यदि बीज को भून दिया जाये तो भी वह अंकुरण क्षमता खों देता है। अत: वातावरण ही वंशानुक्रम को न्यासंगति देता है । जो विशिष्ट शक्तियाँ गुण एवं दोष गर्भाधान के समय जीवकोष को मिल जाते है । उन्हें हम वंशानुक्रम का परिणााम मानते है । गर्भ में आ जाने पर एवं जन्म के बाद बालक पर अनेक उद्दीपनोंं का प्रभाव पड़ता है। इन प्रभावक उद्दीपनो के योग को ही पर्यावरण कहते है। गर्भस्थ शिशु का शरीर उसकी बुद्धि एवं अनेक गुणों अवगुण उसें वंशानुक्रम से ही मिलते है एवं उनका विकास वातावरण पर निर्भर होता है । अत: हमारे जीवन में वातावरण एवं वंशानुक्रम दोनो का ही सम्मिलित महत्व है । हम जरायुज एवं योंनिज मनुष्य अपनी माँ के गर्भ में गर्भनाल के द्वारा ही तो जुड़े रहकर पोषण पाते है । यद्यपि जन्म के पश्चात माँ से नाल सम्बध टूट जाता है किन्तु माता ही अपने ऑचल के दूध से कुछ माह तक हमारा पोषण करती है। फिर धीरे -धीरे शिशु अपनी माता एवं पिता के पैतृक संरक्षण में पलता एवं बढ़ता है। वही उसकी रहनी-सहनी कर ध्यान करतें है। धीरे-धीरे विकसित होते हुए हम मातृ वत्सला धरती और पितृतुल्य आकाश के बीच अपनी गतिविधियों का अंनत विस्तार कर लेते है। हम वंशानुक्रम देने वाले जनक के भी ऋणी हैं तथा प्रकृति और पर्यावरण के ऋणी है हम परमात्मा के ऋणी है। जिन्होने कर्म हेतु हमें योनिेश्रेष्ट देह प्रदान की है । ***
स्टेमसेल से उगेंगे नए दांत
दुर्घटना में या कुछ बीमारियोंं की वजह से अपने अनमोल दांत के साथ चेहरे की खूबसूरती खो देने वालों के लिए खुशखबरी हैं क्योंकि जल्द ही नकली दांत या बत्तीसी लगवाने से छुट्टी मिल जाएगा। ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने दुनिया में पहली बार स्टेमसेल की मदद से कृत्रिम तौर पर दांत उगाने में कामयाबी पाई है । यह आपके सामान्य दांत की तरह है, जिसे दर्द महसूस होता है । इससे आप आराम से खाना चबा सकते है । वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में स्टेमसेल की मदद से चूहों में दांत उगाएं । शोधकर्ताआें का कहना है कि जल्द ही इस तरीके से इंसानो में भी नए दांत उगाए जा सकेंगे । जापानी प्रोफेसर तकाशी सुजी का दावा है कि इस तकनीक से बीमारी या दुर्घटना की वजह से खराब हुए हृदय , फेंफड़े और किडनी भी शरीर के अंदर दोबारा विकसित किये जा सकते हैं । स्टेमसेल अपनी जैसी अन्य कोशिकाआें के उत्पादन की क्षमता रखती हैं । टोक्यो यूनिवर्सिटी आफ साइंस के शोधकर्ताआें ने दो किस्म के स्टेमसेल की खोज की । ये दोनों मिलकर एक दांत को पूरी तरह से विकसित करते हैं । डॉ. काझुहिशा नाकाआें ने कहा कि हमें प्रयोगशाला में पांच दिनों बाद उसमें नन्हें दांत के चिन्ह मिले । इसे चूहे के जबड़े में टूटे हुए दांत की जगह काफी अंदर तक प्रत्यारोपित किया गया ।

७ प्रदेश चर्चा

दिल्ली : सल्तनत कायम है
सुश्री रावलीन कौर
दिल्ली में पानी को लेकर मच रही अफरातफरी का हल हजारों किलोमीटर दूर हिमाचल प्रदेश स्थित गांवों को डुबोकर निकाला जा रहा है। भारत का प्रत्येक शहरी निकाय पानी की बर्बादी के लिए गरीबों और वंचितों को दोषी ठहराता है । दिल्ली की (तथाकथित) अवैध क्रॅालोनियों में रहनेवाले भी इस देश के ही नागरिक है। अगर दिल्ली में पानी की इतनी ही कमी है तो वह मंत्रियों, संासदों, अफसरों के बंगलों के निजी लॉन पर सबसे पहले प्रतिबंध क्यों नहीं लगाती ? गावोंं को डुबोकर अपना गला तर करना क्या किसी जजिया कर से कम है ? हिमालय प्रदेश के सिरमौर जिले मेंयमुना की सहायक नदी पर प्रस्तावित रेणुका बांध' के निर्माण से ७०० परिवार पर प्रभावित होगें यह परियोजना दिल्ली को बरास्ता हरियाणा पानी पहुंचाने के लिए है । अगर यह कार्यान्वित हुई तो अनेक परिवारों का बसेरा और जीविका छिन जाएगी क्योेंकि इसके अतंर्गत मात्र मुआवजे का प्रावधान है । अतएव लोगों ने परियोजना एवं भूमि अधिग्रहण कि तौर तरीकों पर विरोध प्रकट करना प्रांरभ कर दिया है। इतना ही नहीं संबंधित राज्यों के मध्य भी दिल्ली को पानी देने पर विभ्रम है। गैर सरकारी सगंठनों का कहना है कि यदि दिल्ली पानी की आपूर्ति में हो रही वर्तमान ढीलमपोल जैसे असमान वितरण, पानी का व्यर्थ बहना और पानी की चोरी पर रोक लगा दें तो इस बांध की आवश्यकता ही नही है। स्थानीय किसान जागीरसिंह तोमर का कहना है कि सिंचित भूमि के लिए मात्र २.५० लाख प्रति बीघा का मुआवजा दिया जा रहा है जबकि वे अपने पंाच बीघा के खेत से प्रतिवर्ष ३ लाख रू. तक कमा लेते है । रेणुका बांघ संघर्ष समिति के सचिव चांद का कहना है कि पहले जहां हम अधिक मुआवजे की बात कर रहे थे वहीं अब हम अपनी जमीने देने को तैयार भी हो जाते है तो मिलने वाला मुआवजा बाजार मूल्य की तुलना में नगण्य है । इस परियोजना से पशु चराने वाला घुमंतु समुदाय भी प्रभावित होगा । हिमाचल प्रदेश विद्युत निगम के निदेशक सी.एम. वालिया गांव वालों की आशंकाआैं को निराधार बताते हुए कहते है कि , रेणुका गांव के निवासियों को दिए जाने वाला पुनर्वास पैकेज पूरे देश मेंसर्वश्रेष्ट है । ऐसी परियोजनाआें में विरोध तो हमेशा बना ही रहता है । वे इसमें कोई मदद नहीं कर सकते परंतु भूमि अधिग्रहण की वास्तविकता क्या है ? रेणुका बांध की डूब में आने वाले ३७ गंावों में से २० गंावों के बच्च्े तक अब यह जान गए है कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम १८९४ के अंतर्गत धारा १७ (४) के अतर्गत सरकारी अफसरों को यह अधिकार है कि वें भूस्वामियों द्वारा भूमि अधिग्रहण को लेकर उठाई गई आपत्तियों को दरकिनार कर सकते है । वहीं निगम के मुख्य प्रबंधक का रवैया तो कुछ अधिक ही स्पष्टवादी है उनका कहना है, यह एक सरकारी परियोजना है । अगर वह अधिग्रहण का निश्चय करती है तो उस पर उठी आपत्तियां महज औपचारिकताएं हैं वहीं सर्वोच्च् न्यायालय ने २००४ में भारत सरकार विरूद्ध कृष्णलाल अरनेजा वाले मामलें में त्वरित धारा (अरजेंसी क्लास) को असंवैधानिक बताते हुए कहा है कि बाढ़ या भूकंप जैसी असाधारण परिस्थितियों के अलावा त्वरित भूमि अधिग्रहण की अनुमति नही दी जाना चाहिए एवं प्रभावित व्यक्ति को आपत्ति का अधिकार होना चाहिए । हिमालय प्रदेश के पर्यावरण शोध एवं कार्य समूह की मानसी अशर का कहना है कि जब परियोजना को वन एवं पर्यावरण विभाग से एवं केन्द्रीय जल आयोग एवं केन्द्रीयविद्युत प्रधिकरण से विभिन्न अनुमितयां ही नहीं मिली है तो यें अरजेंसी क्लाय कैसे लगा सकतें हैं ? रेणुका बांध का विचार १९६० के दशक में आया और १९९४ में हिमालय और उत्तरप्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरियाण और उत्तरप्रदेश के मध्य सहमति बनी । परंत इस कानून मंत्रालय ने कहा कि यह समझौता वैध नहीं है क्यों कि राजस्थान ने इस पर हस्ताक्षर ही नही किए है । एक गैर सरकारी सगंठन `युमना जिये अभियान' के मनोज मिश्रा का कहना है कि हरियाणा भी इस समझौते से खुश नही है । उसका कहना है । कि पानी की मात्रा कम होने की दशा में अन्य राज्यों के हिस्सें में कमी होगी लेंकिन दिल्ली के नहीं । अतएवं हरियाणा रेणुका बांध से छोड़े जाने वाले पानी व बिजली अब दोनों में अपना हिस्सा चाह रहा है । वहीं दिल्ली में पेयजल की आपूर्ति के लिए जिम्मेदार दिल्ली जल बोर्ड का कहना है कि १९९४ के अनुबंध से यह स्पष्ट है कि में रेणुका का पानी दिल्ली को ही मिलेगा । वहीं हिमाचल विद्युत निगम के वालिया का कहना है कि इस मामले में केंन्द्र सरकार ही निर्णय लेगी । हिमाचल प्रदेश की जिम्मेदारी तों बांध के निर्माण और पानी की आपूर्ति तक सीमित है । नीचे इसका वितरण किस तरह होगा यह हमारी चितां का विषय नहीं है । दिल्ली को प्रतिदिन ३६३७ मिलियन लिटर पानी की आवश्यकता है जबकि आपूर्ति २९५५ मि.लि है । आलोचकों का कहना है कि पानी की आपूर्ति में भेदभाव बरता जा रहा है । उदाहरण के लिए लुटियन वाली दिल्ली (जहां मंत्री व वरिष्ट अफसर रहते है)को प्रतिदिन ३०० एम.एल.डी. पानी की आपूर्ति होती है । जबकि महरौली जैसे स्थानों में यह ४० एम.एल.डी. से भी कम है । दिल्ली सरकार रेणुका बांध से १२४०एम.एल.डी. अतिरिक्त पानी चाहती है । दिल्ली की जल आवश्यकता पर सवाल उठाते हुए मनोज मिश्र का कहना है कि क्या दिल्ली को और पानी की आवश्यकता है? दिल्ली जल बोर्ड की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए भारत के महालेखाकार ने २००८ मेंटिप्पणी की है कि दिल्ली में शहरी विकास मंत्रालय द्वारा तय १५ प्रतिशत आपूर्ति हानि के बजाय ४० प्रतिशत पानी व्यर्थ बह रहा है। यह अनुमानित हानि ३८२ मिलियम लिटर प्रतिदिन है । दिल्ली स्थित विज्ञान एवं पर्यावरण केंन्द्र (सीएसई) के एक अध्ययन के अनुसार शहर में गरीब १२०० मिलियन लिटर पानी प्रतिदिन बर्बाद हो रहा है । यह रेणुका बांध से होने वाली जल आपूर्ति के बराबर ही है । अगर शहर आपूर्ति की हानि कम कर ले तो उसके पास अतिरिक्त जल होगा । अध्ययन का मानना है कि बांध की आवश्यकता ही नहीं है । पंरतु दिल्ली जल बोर्ड की इस निष्कर्षो से सहमति नहीं हैं । उनका मानना है कि समस्या लीकेज से ज्यादा चोरी की है । अवैध कॉलोनियों द्वारा बड़ी मात्रा में पानी ले लिया जाता है । श्री मिश्रा का यह भी कहना है कि नदियों को बांधना कोई हल नहीं है कोई नदी कैसे पुनर्जीवित हो सकती है, यदि उसकी सहायता नदियों पर बांध बना दिए जाएगें ? नदी का तेज प्रवाह प्रदूषण से भी निपटना है । हिमाचल प्रदेश के गिरिबाटा बांध में नियुक्त एक इंजीनियर का कहा है वर्तमान में कार्यरत गिरिबाट परियोजना प्रस्तावित रेणुका बांध से नीचे ६० मेगावट बिजली उत्पादन के लिए निर्मित की गई है । गिरिबाट परियोजना मानसून को छोडकर साल के बाकी ९ महीनों में मात्र ८ से ९ मेगावट बिजली का निर्माण कर पाती है ऐसी स्थिति में रेणुका बांध ४० मेगावट बिजली किस प्रकार उत्पादित कर पाएगा ? वहीं गैर सरकारी संगठनों ने अपने ज्ञापन में कहा है कि यदि दिल्ली को साल में ९ महीनें न्यूनतम १२४० एम.एल.डी. पानी की आपूर्ति करना है तो टरबाईन चलाने के लिए पानी कहां से उपलब्ध होगा ? क्योंकि अब तो मानसून में भी जलाशय को भरने के बजाए दिल्ली को पानी देने की प्राथमिकता दी जाएगी। हिमाचल विद्युत बोर्ड का कहना है कि इसके कारण गिरिबाट बांध की कार्यक्षमता में भी वृद्धि होगी क्योंकि उसे रेणुका जलाशय से लगातार पानी मिलेगा। उनके अनुसार इस योजना से अन्य कई लाभ भी हैं जैसे कि तब हमारे पास २४ कि.मी. लम्बा जलाशय होगा । इसे हमेशा ही पर्यटन और जलीय खेलों के लिए उपयोग में लाया जा सकता है और हम इससे काफी कमाई भी कर सकते हैं । परंतु तोमर इन बातों से बहुत उत्साहित नहीं हैं । वे कहते हैं, मैं अपनी जमीन, खेती और जीविका को केवल इसलिए छोड़ दूँ जिससे कि दूसरे लोग जलीय खेलों का आनंद ले सकें ।***
अब मूंगफली से दूध और दही बनेगा
जहां अधिक मुनाफा कमाने के लिए दूध माफिया मिलावटी दूध और उसके उत्पादों से आम लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने से बाज नहीं आ रहा है, वहीं लुधियाना के सेंट्रल इंस्टीटयूट ऑफ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलाजी (सिफेट) ने मूंगफली से दूध और दही तैयार कर अनोखी क्रांति का आगाज किया है। साथ ही सिफेट ने मूंगफली के दूध को स्वास्थ्य के लिहाज से बेहतरीन बताया है । प्राप्त् जानकारी के अनुसार भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर) के अंतर्गत आने वाले सिफेट ने वाणिज्यक रूप से व्यवहारिक ऐसी तकनीक विकसित की है, जिसके जरिए मूंगफली से दूध और दही तैयार किया जा सकता है । आईसीएआर की और से जारी विज्ञिप्त् के मुताबिक प्रसंस्करण से पूर्व इस तकनीक के द्वारा मूंगफली में पाए जाने वाले लिपोक्सीजिनेसे एंजाइम को निष्क्रिय किया जाता है ।

८ पर्यावरण परिक्रमा

अंटार्कटिक में भारतीय स्टेशन २०११ तक तैयार
ध्रुवीय विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान एवं शोध की गति को तेज करने के उद्देश्य से अंटार्कटिक में भारत का तीसरा स्टेशन स्थापित किया जा रहा है और इसके २०११ तक पूरी तरह परिचालन में आने की उम्मीद है । पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव डॉ. शैलेश नायक ने कहा कि अंटार्कटिक में भारत का तीसरा स्टेशन स्थापित करने का कार्य शुरू हो गया है और पहले चरण के तहत सड़कों तथा छोटे कमरे जैसी बुनियादी संरचना का निर्माण शुरू किया गया है । उन्होंने कहा कि स्टेशन की स्थापना के संबंध में अनुसंधान से जुड़े संरचना की स्थापना का कार्य अगले वर्ष शुरू किया जाएगा । इस क्षेत्र में ९० दिनों के ग्रीष्मकालीन कैंप के मद्देनजर यह काफी महत्वपूर्ण है । श्री नायक ने कहा हमने स्टेशन की स्थापना के कार्य को एक चरण में पूरा करने के स्थान पर इसे दो हिस्सों में बांट दिया ताकि ऐसे कठिन क्षेत्र में कार्य को समय पर पूरा करने में सहुलियत हो। गौरतलब है कि अंटार्कटिक में भारत के तीसरे स्टेशन की स्थापना लार्समैनहिल के पास की जा रही है जो ६९ डिग्री दक्षिणी अक्षांश और ७६ डिग्री पूर्वी देशांतर के बीच स्थित है । श्री नायक ने कहा कि अंटार्कटिक जैसे कठिन क्षेत्र में जहाज के रखरखाव में काफी खर्च आता है और इस उद्देश्य से हमने एक परामर्शक को रखा है । इस संबंध में हमारे पास कई सुझाव आए है, जिसमें एक ऋतु में आर्कटिक क्षेत्र और दूसरी ऋतु में अंटार्कटिक क्षेत्र में अनुसंधान करने जैसी बातें शामिल हैं । अंटार्कटिक में तीसरे स्टेशन की स्थापना के लिए अंटार्कटिक पर्यावरण प्रोटोकाल संधि के तहत पर्यावरण मापदंडो के परीक्षण के अलावा लाजिस्टिक एवं वैज्ञानिक रूपरेखा के सर्वेक्षण का कार्य पूरा हो जाने के बाद निर्माण कार्य शुरू किया गया है । अंटार्कटिक में जीवन विज्ञान, पृथ्वी विज्ञान, हिसनदी से जुड़े वैज्ञानिक तथ्यों के परीक्षण के साथ वायुमंडल विज्ञान, औषध विज्ञान से जुड़े शोध किए जाएंगे ।
सोलर सिटी बनेगा शिरडी धाम
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध तीर्थ शिरडी को पूरी तरह सोलर सिटी बनाने की योजना है । इसकी शुरूआत शिरडी धाम के विशाल भोजनालय के सौर ऊर्जाकरण से हो रही है । विश्व में अपनी तरह की इस सबसे बड़ी परियोजना का उद्घाटन पिछले दिनों केन्द्रीय गैर-परंपरागत ऊर्जा मंत्री फारूक अब्दुल्ला ने किया । सांई बाबा के दर्शन के लिए प्रतिदिन हजारों लोग शिरडी पहंुचते हैं । श्रद्धालुआें के भोजन के लिए साइंर्बाबा मंदिर के निकट ही एक नए प्रसादालय (भोजनालय) का निर्माण किया गया है, जहां एक साथ पांच हजार लोग भोजन कर सकते है । इस प्रसादालय में सामान्य दिनों में प्रतिदिन ३५ से ४० हजार लोगों का भोजन पकता है और प्रसाद के लिए प्रतिदिन ३५ क्विंटल लड्डू तैयार किया जाता है श्री साइंर्बाबा संस्थान ट्रस्ट के अध्यक्ष जयंत ससाने के मुताबिक रसोई के इतने बड़े कारोबार में प्रतिवर्ष ५५५ मीट्रिक टन एलपीजी गैस खर्च होती है । इस पर आने वाले खर्च को रोकने के लिए साइंर्बाबा संस्थान ने १३३ करोड़ की लागत से स्वचालित सौर ऊर्जा संयंत्र स्थापित किया है । इस संयंत्र के लिए ५८.४ लाख रूपयों का अनुदान केंद्रीय गैर-पारंपरिक ऊर्जा विभाग ने दिया है । दुनिया में अपनी तरह के इस सबसे बड़े संयंत्र की स्थापना के बाद प्रतिवर्ष २९.८ लाख रूपए की ७४ मीट्रिक टन रसोई गैस बचाई जा सकेगी । इसके अलावा संस्थान को कार्बन के्रडिट के रूप में भी सरकार से धन प्राप्त् होगा । साथ ही २५ हजार की आबादी वाले शिरडी नगर पंचायत क्षेत्र को पुरी तरह से सोलर सिटी में परिवर्तित करने की भी योजना है । संस्थान के प्रवक्ता मोहन यादव के मुताबिक शिरडी में भक्तों के रूकने के लिए बनाए आवासों में सर्दियों में सौरऊर्जा से ही पानी गर्म होता है । इसके अलावा संस्थान ने अहमद नगर में बिजली उत्पादन के लिए दो पवनचक्कियां भी लगाई हैं जिनकी क्षमता १.२ मेगावाट है । इस परियोजना से अब तक ९२ यूनिट बिजली का उत्पादन किया जा चुका है। । संस्थान सौर ऊर्जा परियोजना की क्षमता को और बढ़ाने का विचार कर रहा है, ताकि विशाल रसोई का सारा काम सौर ऊर्जा से पूरा किया जा सके । उल्लेखनीय है कि देश में स्थापित कुछ बड़ी सौरकार्य प्रणालियों में राजस्थान के माउंट आबू, आंध्रप्रदेश के तिरूपति मंदिर और चैन्नई के सत्यभामा विश्वविद्यालय की प्रणाली भी शामिल है।
दिल्ली में हर महीने बयालीस करोड़ घंटे बर्बाद
दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में काम के लिए बाहर निकलने वाले लगभग ७० लाख लोग हर दिन ऑफिस आने-जाने में औसतन दो से ढाई घंटे बर्बाद करते हैं यानी दिल्ली सहित पूरा एनसीआर रोज करीब पौने दो करोड़ मानव घंटे केवल सड़कों पर गँवा देता है । एसोचेम ने यह जानकारी देते हुए पूरे महीने में बर्बाद हो रहे मानव घंटों का आँकड़ा दिया है । इस आँकड़े को अगर उस दौरान सड़क पर फँसी गाडियों से मिला दे तो बर्बाद होने वाले इंर्धन का गणित और भयानक होगा । इन आँकड़ों के पीछे एक ही कारण है ट्रेफिक जाम । एक ऐसी समस्या जिससे जितना निकलने की कोशिश की जा रही है, उतनी ही यह बढ़ती जा रही है । रिपोर्ट में बताया गया है कि दिल्ली में इस समय ६० लाख गाड़ियाँ हैं, जो २०१० तक बढ़कर ७५ लाख तक हो जाएँगी । पूरे एनसीआर को शामिल करें, तो २०१०तक इसके १.६ करोड तक पहुँच जाने का अनुमान है । इतनी गाडियाँ जब ट्रैफिक जाम में फँसी हों तो उनसे निकल रहे जहरीले धुएँ और जल रहे फालतू इंर्धन की आप कल्पा ही कर सकते हैं । ट्रेफिक जाम से होने वाले भारी नुकसान के इस पर्यावरणीय और व्यक्तिगत पहलू के अलावा एक बहुत महत्वपूर्ण सामाजिक पहलू भी है । आठ-नौ घंटे का ऑफिस-टाईम, आधे से एक घंटे का रास्ता और दो से ढाई घंटे का जाम यानी ढाई से साढ़े तीन घंटे की थकाऊ यात्रा सहित साढ़े दस से साढ़े बारह घंटे का व्यस्त जीवन । इसके बाद घर लौट रहे व्यक्ति से आप जिम्मेदारी उठाने की उम्मीद कर रहे हैं ? ऐसा व्यक्ति क्या अपनी सामाजिकता को जीवित रख सकता है ? ट्रैफिक जाम की समस्या परिवहन संबंधी सामान्य समस्या नहीं है । यह हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को भी गहराई से प्रभावित कर रही है, लेकिन उपाय क्या है ? इस पर काफी कुछ कहा जा चुका है । बिना निजी गाड़ियों को हतोत्साहित किए ट्रेफिक की विकराल होती समस्या पर काबू करना मुमकिन नहीं है । लेकिन सरकार यदि कुछ कड़े कदम उठाए तो उसे पहले तैयारी करनी होगी । ऐसे कदम उठाने का नैतिक अधिकार तब तक नहीं मिल सकता, जब तक कि सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को विकसित नहीं कर लिया जाता अन्यथा हम विकल्प तैयार नहीं करेंगे और मौजूदा सुविधा को रोक देंगे तो समस्या और बढ़ेगी । दिल्ली जैसे शहर में परिवहन व्यवस्था ठीक करने की जो कवायद आज चल रही है, वह १५ साल पहले हो जानी चाहिए थी और आज १५ साल आगे की योजना बनानी चाहिए थी । लेकिन बढ़ती जनसंख्या और मेट्रो शहरों में पलायन तो देश की मूल समस्या है ही और जब तक हम इन पर काबू नहीं पा लेते, ट्रेफिक की समस्या का स्थायी समाधान मुश्किल है ।
गर्म हो रहे हैं हिमालय के गांव
ग्लोबल वार्मिंग से हिमालय क्षेत्र में बसे गांव भी अछूते नहीं रहे हैं । इसका असर अनियमित बर्फबारी और छोटे ग्लेशियरोें के पिघलने के रूप में सामने आ रहा है । ऐसे में ठंडे प्रदेश के रूप में जाने वाले पश्चिमी हिमालय के गांव भी गर्म होने लगे है । आर्थिक रूप से पिछड़े स्थानीय समुदाय के लोगों को महसूस होने लगा है कि धीरे-धीरे गर्मी बढ़ती जा रही है । इसका असर जलापूर्ति, कृषि आधारित जीविका पर भी पड़ने लगा है । ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ढांचागत विकास भी प्रभावित होने लगा है । भारत-चीन सीमा पर बसे हिमाचल प्रदेश के लाहौर के एक गांव के जिला परिषद के वाइस चेयरमैन रिगजिन सैंफेल ने कहा कि वैज्ञानिक रूप से अभी हम यह स्थापित नहीं कर पा रहे हैं कि धीरे-धीरे तापमान बढ़ रहा है, लेकिन चढ़ते पारे को हम महसूस कर रहे हैं । उन्होंने कहा कि कुछ साल पहले तक गर्मी में यहां का तापमान १४ से १५ डिग्री सेल्सियस रहता था, जो अब ३० डिग्री सेल्सियस तक पहुंच रहा है । उन्होंने कहा कि छोटे ग्लेशियरों के पिघलने की वजह से पानी की कमी हो गई है । प्राकृतिक तालाब सूख रहे हैं और हम पानी के लिए झरनों पर निर्भर होते जा रहे हैं, लेकिन कृषि जरूरतों के लिए यह पर्याप्त् नहीं हैं । लेह इकोस के सेवानिवृत्त वरिष्ठ वैज्ञानिक अजीद मीर भी कुछ इस तरह का विचार रखते हैं । उन्होंने कहा कि वातावरण में काफी बदलाव आया है । उन्होंने कहा कि कुछ साल पहले तक यहां काफी बारिश होती थी, जो अब देखने को नहीं मिल रही । श्री मीर ने बताया कि खुर्दंग ग्लेशियर का अस्तित्व उनकी आंखो के सामने मिट गया । वैसे इस बदलाव के कुछ सकारात्मक असर भी देखने को मिल रहे हैं । तापमान मेंे बदलाव की वजह से अब यहां वे फसलें उगाई जाने लगी हैं, जो मैदानी इलाके में होती हैं । ***

१० मौसम

सज गया मौसम का बाजार
सुश्री अर्चना भट्ट
मौसम की भविष्यवाणी का निजीकरण भारत की बाजारवादी अर्थव्यवस्था की नवीनतम घटना है । इसके दोनों ही पक्ष हैं। भारतीय टेलीविजन पर जिस अंदाज से अब मौसम की जानकारी दी जा रही है वह व्यावसायिकता के नए युग की ओर इशारा कर रहा है । परंतु इसी के समानांतर भारतीय मौसम विभाग का सक्रिय होना जेठ में ठंडी बयार की अनुभूति दे रहा है । पुणे स्थित भारतीय मौसम विभाग (आई.एम.डी.) ने जब १७ अप्रैल ०९ को मानूसन के दौरान कम वर्षा का अंदाजा नहीं था । भविष्यवाणी के अनुसार सामान्य वर्षा की ९६ प्रतिशत होनी थी परंतु तपती जून में यह मात्र ५७ प्रतिशत ही हुई जो कि जुन १९२६ के बाद सबसे कम थी २४ जुन को आईएमडी इस आंकडे को ९३ प्रतिशत ले गया । परंतु मई में हुई दो घटनाआें ने मौसम विभाग को अचंभित कर दिया । ये थीं बंगाल में आया आईला तूफान और पश्चिम विक्षोभ की वजह से देश के उत्तरी भाग में हुई बरसात जिसकी वजह से मौसम ठंडा हो गया और उसने मानसून को कमजोर कर दिया। प्रश्न उठता है कि ऐतिहासिक आंकड़ो पर आधारित भविष्यवाणी का वर्तमान में कोई अर्थ बचा है ? शोध बताते हैं कि जून और जुलाई में वर्षा में वर्षा में कमी आई है । पुणे स्थित आईएमडी के भविष्यवाणी विभाग के प्रभारी डी.एस.पाई का कहना है कि हम १० डायनामिकल मॉडल्स के बहुमुखी स्वरूप के अंतर्गत मौसम की जानकारी इकट्ठी करते हैं । यदि हम इनके परिणामों के प्रति आवश्वस्त नहीं हो पाते तो पुराने सांख्यकीय मॉडल पर समझौता कर लेते है । डायनामिक मॉडल के अंतर्गत बादलों की प्रवृत्ति और आर्द्रता पर नजर रखी जाती है । वहीं दुसरी ओर आईएमडी के अनेक वैज्ञानिक उपरोक्त प्रणाली पर भरोसा नहीं करते क्योंकि उनके अनुसार यह भारत की परिस्थितियों पर आधारित नहीं है । आईएमडी के वैज्ञानिकों की एक पीड़ा यह भी भारत में नेशनल सेंटर फॉर मीडियम रेंज फोरकास्टिंग, अनेक आई.आई.टी., इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्राफिकल मेट्रोलाजी जैसे मौसम शोध संस्थानों और आईएमडी के मध्य कोई सामंजस्य ही नहीं है । आईएमडी स्वयं अपने द्वारा सरकार को कृषि रणनीति बनाने में दी जाने वाली मौसमी भविष्यवाणियों से बहुत संतुष्ट नहीं है । परंतु वह अपनी मध्य और लघु अवधि भविष्यवाणियां क्रमश: पांच व एक दिन अग्रिम, के मामले में विश्वास से भरा हुआ है। हवा अब किस ओर बहेगी यह जानना अब आईएमडी का विशेषाधिकार नहीं रहा है । पिछले ६ वर्षो में मौसम की भविष्यवाणी करने वाली अनेक कंपनियां अस्तित्व में आ गई हैं जो प्रतिदिन, प्रतिघंटे ओर प्रति १० मिनट फर भविष्यवाणियां कर रही है । दिल्ली में ३० मई ०९ को एकाएक आई वर्षा और तूफान के कारण तापमान में आई कमी से एयरकंडीशनरों की आवश्यकता में कमी होने की वजह से विद्युत वितरण कंपनियों ने उस दिन की विद्युत आपूर्ति में कमी कर दी थी । नई दिल्ली पावर लि. (एनडीपीएल) जो कि टाटा का संयुक्त उपक्रम है, के पास यदि अग्रिम सूचना नहीं होती तो उन्हें ५ से ८ लाख के मध्य आर्थिक हानि उठानी पड़ सकती थी । विद्युत वितरण कंपनियां, उत्पादन कंपियों से एक दिन अग्रिम विद़्युत खरीदती हैं । मौसम में एकाएक आया परिवर्तन उनके इस गणित को बिगाड़ सकता है । दिल्ली स्थित स्कायमेक सप्लाईज एनडीपीएल और रिलायन्स इन्फ्रास्ट्रक्चर लि. को उनकी जरूरत के अनुरूप मौसम संबंधी सेवाएं प्रदान करती है । २००३ में उसने १८ लाख रूपये के कारोबार से व्यापार प्रारंभ किया था जो अब बढ़कर १.४ करोड़ तक पहुंच गया है । कानपुर स्थित वेदर रिस्क मेनेजमेंट के भी इसी तरह की सेवाएं उपलब्ध करवाती है । यह कंपनी बीमा कंपनियों को कृषि आधारित बीमा पॉलिसी के जोखिम निर्धारण की गणना में सहायता करती है । स्कायमेट तो स्वयं को परिपूर्ण मौसम भंडार की संज्ञा देती है । इस व्यापार का हानि अथवा लाभ इस बात पर निर्भर करता है कि कंपनी कितनी सटीक जानकारी उपलब्ध करवा पाती है । खरी न उतरने वाली प्रत्येक भविष्यवाणी के लिए कंपनी को दंडित किया जाता है । उदाहरण के लिए तापमान के मामले में केवल एक डिग्री से तक की गलती की अनुमति है । एमडीपीएल के महाप्रबंधक जयंत चटर्जी का कहना है कि सटीक भविष्यवाणी संबंधी आकड़ों के लिए निजी मौसम कंपनियों को किए जा रहे भुगतान क माध्यम से हम २० लाख रूपए तक बचा पाते हैं । अब विद्युत का क्रय मूल्य मांग के स्वरूप पर आधारित होता है जो कि १.५० पैसे प्रति यूनिट से लेकर १५ रूपए प्रति यूनिट के मध्य तक कहीं भी हो सकता है । २८ से ३० मई मध्य दिल्लली का तापमान ४१ डिग्री सेल्सियस से घटकर ३५ डिग्री सेल्सियस पर आ गया था जिसके परिणामस्वरूप विद्युत दर ५.५० प्रति यूनिट से घटकर १.०८ पैसे प्रति यूनिट पर आ गई है । सटिक अग्रिम चेतावनी मिलने से आपात स्थिति से निपटने में भी मदद मिलती है । सार्वजनिक कंपनी पॉवरग्रिड कॉपरेशेन ने गत सर्दियों में स्कायमेट से प्राप्त् सूचनाआें के आधार पर धुंध के प्रभावों की अग्रिम गणना कर एक हेलीकॉप्टर किराये से लेकर अपनी वितरण की लाइनों से धुंध और प्रदूषण की सच्चई जिससे कि वितरण लाईनों में खराबी नहंी आई । तेल शोधन के कार्य में भी ये कंपनियां अत्यंत सहायक होती हैं क्योंकि ये समुद्री तूफान के दौरान तेल शोधन का कार्य रोकना पड़ता है अन्यथा कुएं में आग लग सकती है । इसी तरह फसल बीमा भी मौसम पर अत्यधिक निर्भर है । ये नई कंपनियां पूर्णतया स्वचालित मौसम केन्द्रों के माध्यम से संचालित होती है । यंत्र चौबीस घंटे, तापमान आर्द्रता, हवा की रफ्तार और दिश और वर्षा प्रति घंटे गणना कर सेटेलाईट या केबल के माध्यम से कंपनियों को पहुंचाते रहते हैं । नेशनल कोलेटरल मेनेजमेंट सर्विसेस लि. ने अनेक बैंकों की सहायता से २००४ में अपना कार्य १६ राज्यों में ४०० पूर्णतया स्वचालित मौसम केंद्रों से प्रारंभ किया । यी १००० रूपए से १०००० रूपए प्रति माह तक का ाुल्क लेती है । भारत में हइस समय १२०० ० निजी मौसम केंद्र कार्यरत् हैं जिनके निकट भविष्य में और वृद्धि की संभावना है । महाराष्ट्र के पूना, सांगली, नासिक क्षेत्र के अंगरू उत्पादक ृकषक आईसीआईसीआई बैंक के ग्राहक है। बैंक अपने इन ग्राहकों को मौसम संबंधी जानकारी उपलब्ध करवाती है क्योंकि किसान अभी भी मौसम कंपनियों से सीधे ग्राहक नहीं है । वैसे इन मौसम भविष्यवाणी कपंनियों के सबसे बड़े ग्राहक मीडिया समूह हैं । इसमें टेलीविजन और प्रिंट दोनों ही शामिल हैं । आज इस क्षेत्र में होने वाले व्यापार का ७० प्रतिशत यहीं से प्राप्त् होता है । मीडिया कंपनियों का कहना है कि उन्हें बजाए भारतीय मौसम विभाग के निजी कंपनियों के साथ ज्यादा साहूलियत महसूस होती है । भारतीय मौसम विभाग के आधुनिकीकरण के लिए भी केन्द्र ने ९५० करोड़ की योजना को स्वीकृति दे दी है । इसके माध्यम से अब तक १२५ नए स्वचालित केंद्र स्थापित भी हो चुके हैं । मौसम विभाग इन्हें पर्याप्त् नहीं मानता । विभाग का मानना है कि प्रत्येक जिले में कम से कम चार केंद्र होना चाहिए अतएव देश में २५०० केन्द्रों की आवश्यकता है । अमेरिका में १९८० के दशक के प्रारंभ में इन सेवाआें के निजीकरण की शुरूआत हुई । निजीकरण के संबंध में भारतीय मौसम विभाग का कहना है कि मौसम की भविष्यवाणी के लिए वर्तमाल अवलोकन के साथ ही साथ ऐतिहासिक आंकड़ों की भी आवश्यकता है । अधिकांश निजी सेवा प्रदाताआें के पास इनका अभाव है । उनका यह भी कहना है कि सामान्य भविष्यवाणी मौसम विभाग की जिम्मेदारी है परंतु निजी जरूरतों पर आधारित भविष्यवाणी आंकड़े तो निजी क्षेत्र ही बेहतर उपलब्ध करवा सकते हैं । निजी क्षेत्र के हस्तक्षेप से आईएमडी को सेवाआें की गुणवत्ता बढ़ाने पर विवश कर दिया है । वहंी विश्व मौसम संगठन का मानना है कि कोई एक सरकार या एजेंसी अकेले के दम पर यह कार्य नहीं कर सकती । राष्ट्रीय मौसम भविष्यवाणी की अनिवार्यता को इसलिए नहीं नकारा जा सकता क्योंकि भारत के करोड़ों किसानों को आज मौसम की भविष्यवाणी से कही अधिक आवश्यकता है । ***
करोंड़ो पौधे रोपे फिर भी हरियाली की रफ्तार कम
पिछले महीने देश भर में वन महोत्सव के दौरान कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और गांधीनगर से गुवाहाटी तक करोड़ों पौधे लगाए गए हर साल यही होता है, फिर भी हरियाली उस रफ्तार से नहीं बढ़ रही है, जिससे हर साल वन संपदा को हो रहे नुकसान की भरपाई की जा सके । नतीजा सामने है । बीस साल पहले वन क्षेत्र को देश के कुल भू-भाग का ३३ फीसदी तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया था, जिसे आज तक पूरा नहीं किया जा सका है । मौजूदा आंकड़ों के अनुसार इस समय देश के कुल भू-भाग का २० प्रतिशत ही वनाच्छादित है । जबकि पर्यावरण संतुलन के लिए ३५ फीसदी वन क्षेत्र जरूरी है । वन क्षेत्र के घटने के कारण पारिस्थितिकी असंतुलन पैदा हुआ है, जिसकी वजह से सूखा, बाढ़ और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाआें में इजाफा हुआ है । वन क्षेत्र में कमी आने से कई जानवरोंं के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है । पिछली सदी की शुरूआत में देश में ५० हजार बाघ थे । अब उनकी संख्या घटकर १५०० से भी कम रह गई है । यही हाल हाथियों का भी है । कई ऐसे भी जीव-जंतु हैं, जो हर साल खामोश मौत मर रहे हैं । खाद्यान्न श्रृंखला की इन महत्वपूर्ण कड़ियों के खत्म होने से पारस्थितिकी असंतुलन की समस्या गंभीर है । पर्यावरण को होने वाले इन्हीं नुकसानों को कम करने के लिए देश में १९८८ में राष्ट्रीय वन नीति बनाई गई थी ।

११ ज्ञान विज्ञान

बिना खून खींचे मलेरिया की जांच
काश, मलेरिया पुष्टि के लिए खून की जांच भी हो जाए और खून भी न निकालना पड़े- यानी सुई की चुभन और इससे होने वाले भय से मुक्ति । ऐसा लगता है कि इस सपने को हकीकत बनने में अब ज़्यादा देर नहीं है । ब्रिटेन के एक्सेटर विश्वविद्यालय के डॉ. डेव. न्यूमेन के नेतृत्व में बड़ी तेजी से एक ऐसा डिटेक्टर बनाने पर काम चल रहा है, जिसमें चुंबक का उपयोग किया जाएगा । इसे मोट-टेस्ट के नाम से भी जाना जाता है । डॉ. डेव को यह डिटेक्टर बनाने का ख्याल करीब चार साल पहले अपने एक जीव विज्ञानी मित्र से बातचीत के दौरान आया था । लेकिन बीच में एड्स को लेकर फैले भय के माहौल के चलते यह शोध पिछड़ गया । मलेरिया आज भी हर साल दुनिया भर में ५० करोड़ से अधिक लोगों को अपनी चपेट में लेता है और दस लाख से अधिक लोग मृत्यु के शिकार हो जाते हैं । मरने वालों में बच्चें की संख्या सबसे अधिक होती है । मलेरिया के टीके और उपचार के अन्य तरीकों पर काम समय-समय पर पिछड़ता रहा हैं । इसको प्राथमिकता बनाने में कभी रजानीति तो कभी व्यापारिक हित आड़े आते रहे हैं। दरअसल मलेरिया का परजीवी रक्त में मौजूद हीमोग्लोबिन को खाता है उसमें क्रिस्टल नुमा एक कण भी होता है जिसे हेमोज़ोइन कहते हैं । साधारण भाषा में हेमोज़ोइन को लोहे का ही रूप मान सकते हैं । हेमोज़ोइन के बारे में जानकारी काफी पहले से है । मलेरिया उपचार की खोज में लगे वैज्ञानिक इसका काफी अध्ययन कर चुके हैं । डॉ. डेव ने पाया कि चुंबक (या चुंबकीय प्रभाव) की उपस्थिति में हेमोज़ोइन प्रकाश को इस तरह सोखता है कि रक्त के अन्य पदार्थो के बीच आसानी से उसकी उपस्थिति का पता लगाया जा सकता है । दरअसल अभी तक मलेरिया के परजीवी की रक्त में उपस्थिति का पता लगाने का एक तरीका रहा है - सुई की मदद से रक्त के नमूने लेना और प्रयोगशाला में सुक्ष्मदर्शी की मदद से उनकी जांच करना । इसमें समय तो लगता है ही, साथ ही काफी दक्षता की भी जरूरत होती है । पिछले सालों में कुछेक एंटीबाडी आधारित जांच के तरीके आए हैं जिनके सहारे फील्ड में ही रक्त की जांच संभव है । एंटीबाडी वह पदार्थ होते हैं जिन्हें शरीर किसी बाहरी चीज़ के विरूद्ध बनाता है । लेकिन एक तो हर तरह के मलेरिया के लिए अभी ऐसे टेस्ट उपलब्ध नहीं है और दूसरे इनमेंे भी मरीज़ का खून तो निकालना ही पड़ता है । इनके अलावा गर्म इलाकों में एंटीबाडी आधारित तरीके ठीक से काम नहीं कर पाते । जांच का यह तरीका काफी मंहगा भी बैठता है ।डॉ. डेव चुंबक और प्रकाश आधारित अपनी तकनीक की एक पोर्टेबल डिज़ाइन पर काम कर रहे हैं जो बैटरी से चले । इसे त्वचा के पास रखकर एक बटन दबाने से पता चल जाएगा कि रक्त मेंे मलेरिया परजीवी है या नहीं और उसकी मात्रा कितनी है । मीटर की तरह इस रीडिंग को पढ़ा जा सकेगा । इसके लिए ज़्यादा दक्षता भी नहीं चाहिए । इस तरीके की मदद से दूर दराज़ के इलाकों में मलेरिया की जांच और उपचार त्वरित हो जाएगा और लाखों लोगों की जान बच सकेगी । इस परियोजना में युरोप के सात देश सहयोग कर रहे हैं ।
सर्कस जंगली जानवरों के लिए पाशविक
भारत में तो सर्कसों में जानवरों के उपयोग पर प्रतिबंध है मगर कई देशों में आज भी जानवर सर्कसों के सितारे हैं । अलबत्ता एक ताजा अध्ययन बताता है कि सर्कस का वातावरण जानवरों, खास तौर से जंगली जानवरों के लिए पाशविक साबित होता है । यह अध्ययन ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के स्टीफन हैरिस और उनके सहयोगियों ने किया है तथा इसके परिणाम एनिमल वेलफेयर नामक पत्रिका के ताजा अंक में प्रकाशित हुए हैं । हैरिस का कहना है कि चाहे जगह की कमी हो, या उछलकूद का अभाव हो, या सामाजिक संपर्को की कमी, कुल मिलाकर सर्कस का जीवन वन्य जीवन से बदतर होता है । अध्ययन में पाया गया कि सर्कस में रहने वाले जानवर दिन में मात्र १-९ प्रतिशत समय प्रशिक्षण में गुजारते हैं । शेष समय वे तंग दड़बों या पिंजड़ों में कैद रहते हैं । ये पिंजड़े बहुत छोटे होते हैं और चिड़ियाघरों जैसे नहीं होते । घोड़े, कुत्ते जैसे पालतु जानवर तो इसके अभ्यस्त हो जाते हैं मगर हाथी, शेर, बाघ और भालू जैसे वन्य पशुआें की शामत आ जाती है । हालत यह होती है कि सर्कस के जानवर ज़्यादातर समय तनावग्रस्त रहते हैं । वे अपने छोटे-छोटे पिंजड़ों में चहलकदमी करते दिन बिताते हैं, जो तनाव का एक लक्षण है । यदि सर्कस उनके लिए थोड़े बड़े दड़बे भी बनाता है, तो भी उनके लकड़ी के लट्ठे वगैरह जैसी चीज़े नहीं रखी जातीं जिनसे ये जानवर खेल सकें । डर यह रहता है कि इन चीज़ो का उपयोग करके कहीं ये बागड़ तोड़कर भाग न जाएं । हैरिस कहते हैं कि इन जानवरों का जीवन नारकीय हो जाता है, इस पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए । भारत के समान ऑस्ट्रिया जैसे कुछ अन्य देशों में भी सर्कस में जानवर रखने पर प्रतिबंध है मगर यूरोप तथा यूएस के सर्कसों में जानवर आज भी आकर्षण का प्रमुख केन्द्र हैं ।
ग्रीन हाऊस गैस से इंर्धन
सिंंगापुर के शोधकर्ताआें ने एक तनकीक खोजी निकाली है जिसकी मदद से कार्बन डाई ऑक्साइड को आसानी से मिथेनॉल में तब्दील किया जा सकता है। इस तकनीक की जानकारी उन्होंने जर्मनी की धोश पत्रिका अंगेवांडटे केमी के हाल के अंक में प्रकाशित की है । वैसे तो कार्बन डाइ ऑक्साइड को मिथेनॉल में तब्दील करना सदा से संभव रहा है मगर इसके लिए बहुत अधिक तापमान व दबाव की ज़रूरत पड़ती है क्योंकि कार्ग्न डाईऑक्साइड अत्यंत स्थिर अणु है । इसलिए इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया था । मगर इंस्टीट्यूट ऑफ बॉयोइंजीनियरिंग एण्ड नैनोटेक्नॉलोजी के जैकी यिंग व उनके साथियों ने एक अनोखा उत्प्रेरक विकसित करके इस प्रक्रिया को साधारण कमरे के तापमान पर संभव कर दिखाया है । यह उत्प्रेरक एन-हिटरोसायक्लिक कार्बीन (एनएचसी) समूह का पदार्थ है । इसकी विशेषता यह है कि यह विषैला बिल्कुल नहीं है और काफी कुशलता से कार्बन डाइऑक्साइड और हाइड्रोजन को मिथेनॉल में तब्दली कर देता है । मिथेनॉल का उपयोग सीधे इंर्धन के रूप में भी किया जा सकता है और अन्य कार्बनिक रसायनों के निर्माण के लिए कच्च्े माल के रूप में भी । गौरतलब है कि उत्प्रेरक उन पदार्थोंा को कहते हैं जो किसी रासायनिक क्रिया को बढ़ाते हैं मगर स्वयं अपरिवर्तित रहते हैं । लिहाज़ा इनका उपयोग बार- बार किया जा सकता है ।एनएचसी कार्बन डाईऑक्साइड और हाइड्रोजन की क्रिया को कैसे उत्प्रेतिरत करता है , यह अभी स्पष्ट नहंी है मगर शोधकर्ता दल को लगता है कि संभवत: यह कार्बन डॉई ऑक्साइड के अणु की आकृति बदल देता है जिससे हाइड्रोजन अणु के लिए कार्बन से संपर्क सहज हो जाता है । इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन का स्रोत फिलहाल हाइड्रोसाइलेन नामक पदार्थ है । यह काफी महंगा है और इसका उपयोग कंप्यूटर चिप्स बनाने में किया जाता है । सिंगापुर का दल हाइड्रोजन का सस्ता विकल्प खोजने की कोशिश में है । यदि यह तकनीक कारगर साबित होती है तो इसकी मदद से कार्बन डाइ ऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैस को वायुमंडल से लेकर मिथेनॉल में बदलकर उपयोग करना संभव हो जाएगा । वैसे सिंगापुर का दल कार्बन डाईऑक्साइड को मिथेनॉल में बदलने के लिए अन्य वैकल्पिक तकनीकों पर भी काम कर रहा है । ***

१२ हमारा भूमण्डल

औद्योगिक विकास की डूबती नब्ज
मार्टिन खोर
एशिया के देशों में भारत और चीन को छोड़कर अधिकांश देश ऋणात्मक वृद्धि दर का शिकार हो गए हैं । इस मंदी का सर्वाधिक शिकार निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था वाले देश हैं । मौजूदा आर्थिक संकट ने वैश्विक स्तर पर नई आर्थिक सोच विकसित करने को भी बाध्य किया है । इतना ही नहीं अब मध्य और पूर्वी यूरोप भी इस आर्थिक संकट की जबरदस्त चपेट में हैं और स्पेन जैसा विकसित राष्ट्र भी भयानक बेरोजगारी में उलझ गया है । वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर एक रोचक बहस चल रही है कि क्या यह सदमें से उब चुकी है या हर तरह हरा ही हरा देखने वाले हमें बहका रहे हैं क्योंकि आने वाला समय और भी बदतर हो सकता है । पश्चिम के कुछ राजनीतिज्ञ शेयर बाजार में आए आंशिक सुधार और अमेरिका और गिरावट का अंत एवं स्थिति में सुधार की शुरूआत मान रहे है । परंतु अनेक अर्थशास्त्रियों ने इस अपरिपक्व आशावाद के खिलाफ चेताया भी है । उन्होंने आधारभूत ढांचे की गंभीर समस्याआें के बने रहने की ओर इशारा किया है । इसी तरह मंदी से सर्वाधिक प्रभावित मध्य और पूर्वी यूरोप के लिए भविष्य का डरावना दृश्य बन रहा है । स्पेन जैसे एक प्रमुख विकसित देश में बेरोजगारी की दर १७.४ प्रतिशत के खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है । इस साल की पहली तिमाही में वहां बेरोजगारों की संख्या में ८ लाख की वृद्धि हुई है और अब यह कुल ४० लाख पहंुच गई है । उपलब्ध नवीनतम आंकड़े के अनुसार एशिया महाद्वीप में दक्षिण पूर्व एशिया सर्वाधिक प्रभावित है । संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा का एशिया और प्रशांत क्षेत्रों के लिए गठित आर्थिक व सामाजिक आयोग (ईस्केप) ने अपने वार्षिक सम्मेलन के लिए तैयार दस्तावेज में कहा है कि एशिया में संकट पहली श्रेणी (विकसित देशों में वित्तीय संकट का एशिया पर सीमित प्रभाव) से दूसरी श्रेणी (विकसित देशों में भयानक मंदी और एशिया पर उसके अवश्यंभावी प्रभाव) पर पहंुच चुकी है । द्वितीय श्रेणी में एशिया के देशों का निर्यात घटेगा, पिछले दशक में विद्यमान दो अंको वाली बढ़त घटकर दो अंकों वाली मंदी में परिवर्तीत हो जाएगी, घरेलू मांग में कमी आएगी एवं बेरोजगारी में वृद्धि होगी । निर्यात में आई गिरावट की गणना यदि एक वर्ष पूर्व की स्थिति से करें तो यह गिरावट क्रमश: मलेशिया में ३४ प्रतिशत, सिंगापुर में ४० प्रतिशत, फिलिसपींस में ४१ प्रतिशत, ताईवान ४४ प्रतिशत, दक्षिण कोरिया ३४ प्रतिशत, थाईलैंड २७ प्रतिशत, हांगकांग २१ प्रतिशत, चीन १८ प्रतिशत, भारत १६ प्रतिशत व जापान में ३५ प्रतिशत रही है। फरवरी में ये गिरावट कमोवेश यथावत बनी रही सिर्फ मलेशिया में यह घटकर २६ प्रतिशत हुई वहीं चीन में यह गिरावट बढ़कर २६ प्रतिशत हो गई । चीन से संबंधित प्रवृत्ति पर गौर करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि इस पूरे क्षेत्र में चीन को किए जाने वाला निर्यात अत्यधिक महत्व रखता है । यदि चीन का अमेरिका, यूरोप और जापान को निर्यात के लिए दक्षिण पूर्व एशिया से किए जा रहे आयात में भी कमी करेगा ईस्केप की रिपोर्ट के अनुसार जनवरी में आयात में भी कमी करेगा ईस्केप की रिपोर्ट के अनुसार जनवरी में आयात में खासकर चीन में आई ४३ प्रतिशत की कमी खतरे की घंटी है । रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिण पूर्व एवं पूर्व एशिया में उत्पादन का आधार आंचलिक स्तर पर काफी घुलामिला है अतएव आयात में कमी को औद्योगिक संकट का प्रारंभ भी कहा जा सकता है । रिपोर्ट में यह चेतावनी भी दी गई है कि निर्माण क्षेत्र में संकट के गहराने से वित्तीय क्षेत्र के गैर उत्पादक ऋणों की संख्या में वृद्धि हो जाएगी । साथ ही इसमें यह भी बताया गया है कि इस क्षेत्र में २००९ में बेरोजगारों की संख्या बढ़कर २.३ करोड़ हो जाएगी । वैसे इसे सकारात्मक पहलु के रूप में भी देखा जा सकता हैं, कि अकेले चीन मेंयह बात सामने आ चुकी है कि अकेले चीन में समुद्रतटीय निर्यात क्षेत्र में २ करोड़ से अधिक औद्योगिक श्रमिक अपना रोजगार गवां चुके है । दक्षिण पूर्व एशिया में आर्थिक वृद्धि में गिरावट का सर्वाधिक असर हुआ है । ईस्केप के एक अनुमान के अनुसार एशिया प्रशांत क्षेत्र के विकासशील देशों में वृद्धि दर जो २००७ में ८.८ प्रतिशत थी वह २००८ में घटकर ५.८ प्रतिशत रह गई एवं २००९ में तो यह मात्र ३ प्रतिशत रह गई ।पंरतु दक्षिण पूर्व एशिया में यह वृद्धि २००७ में ६.५ प्रतिशत २००८ में ४.३ प्रतिशत व २००९ में यह घटकर ऋणात्मक ०.७ प्रतिशत व २००९ के स्तर पर पहुंच गई । यह अकला ऐसा उपक्षेत्र है । जहां सकल घरेलु उत्पादन में वास्तविक कमी आई है । वहीं पूर्वी एवं उत्तरपूर्वी एशिया (जहां चीन का प्रभुत्व है ) अभी भी ३.३ प्रतिशत एवं दक्षिण पश्चिम एशिया में वृद्धि दर सकारात्मक ४.३ प्रतिशत रहने का अनुमान है । ईस्केप की रिपोर्ट में किसी देश विशेष पर केंद्रित वृद्धि दर का आकलन नहीं किया गया है । परंतु ईकॉनामिस्ट पत्रिका की नवीनतम भविष्यवाणी के अनुसार रूिथतियों में थोडा सुधार आ रहा है । इसके अनुसार जिन देशों में ऋणात्मक वृद्धि की संभावना है वे है वे हैं मलेशिया ३.प्रतिशत,सिंगापुर ७.५ प्रतिशत, थाईलैंड ४.४ प्रतिशत, इडोनोशिया १.३ प्रतिशत, दक्षिण कोरिया ५.९ प्रतिशत व ताईवान ६.५ प्रतिशत । वहीं दूसरी ओर चीन और भारत की वृद्धि दर में कमी तो अवश्य आएगी परंतु वह फिर भी क्रमश: ६ प्रतिशत व ५ प्रतिशत की सकारात्मक वृद्धिदर कायम रख पाएगें । ओद्योंगिक उत्पादन संबंधी नवीनतम आंकडें बताते हैं कि समस्या का स्त्रोत वे देश हैं जो कि देश में निर्मित साम्रगी के निर्यात पर टिके हैं अतएव वे ही सर्वाधिक प्रभावित भी हुए है । अगर एक वर्ष पूर्व के औद्योगिक उत्पादन की तुलना करें तो फरवरी में जिन देशों में औद्योंगिक उत्पादन में कमी आई है । वे है । क्रमश: मलेशिया १४.६ प्रतिशत, सिंगापुर २२ प्रतिशत, थाईलैंड २० प्रतिशत, ताईवान २७ प्रतिशत व दक्षिण कोरिया १० प्रतिशत की वृद्धि दर्शाती है । कि भले ही वह दुनिया का बड़ा निर्यातक देश हो पंरतु घरेलु बाजार में उसके औद्योगिक उत्पादों की जबरदस्त मांग है । इसी के साथ घरेलु मांग में वृद्धिकरने के लिए उसके द्वारा दिया गया वित्तीय प्रोत्साहन अंतत: घटते निर्यात के दुष्परिणामों को रोकने मेंं सफल हुआ है । आंकडे बताते है कि दक्षिण पूर्व एशिया में आर्थिक संकट समाप्त् नहीं हुआ है और अर्थव्यवस्था में मंदी का प्रभाव समाप्त् होने में थोंड़ा और समय लगेगा ।इस दौरान अधिकाशं एशियाई देशों ने अनेक प्रतिगामी उपाय प्रांरभ कर दिए है जिससे उन्हेें आर्थिक जकड़न से मुक्ति मिल सके । इसमें सरकारी व्यय में बढ़ोत्तरी और ब्याजदरों में कमी शामिल है । यह तो समय ही बतलाएगा कि ये नीतियां किस हद तक सकारात्मक प्रभाव डालेगी या कुछ और प्रयत्नों एवं व्यवस्थापन की आवश्यकता है । ***

१३ पर्यावरण समाचार

नये अल नीनो से भारत पर असर की संभावना
मानसून की बेरूखी से बेहाल भारत की परेशानी अगले साल और बढ़ सकती है। पहले से ही सूखे का सामना कर रहे देश में यह संकट गहराने का खतरा पैदा हो गयाहै । लंदन के मौसम वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि नया अल नीनो शुरू हो चुका है, जिसकी वजह से भारत, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया को गंभीर सूखे का सामना करना पड़ सकता है । उनका दावा है कि साल २०१० सबसे गरम वर्षोंा में से एक हो सकता है । १९९७-९८ अल नीनो और ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव की वजह से १९९८ दुनिया का सबसे गरम साल था । इसकी वजह से दक्षिण पूर्व एशिया में जबर्दस्त सूखा पड़ा था और जंगलों मेें आग लगने की भी घटनाएं हुई थी, जिससे इलाके में आसमान पर काला धुंआ छा गया था । द इंडिपेंडेंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक नए अन नीनों की वजह से भारत, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया भी सूखे से जूझेंगे, वहीं दक्षिण अमेरिका में भारी बारिश होगी । ब्रिटेन में इसकी वजह से बहुत ज्यादा ठंड और गर्मी पड़ेगी । हालांकि अब तक के पूर्वानुमानों के मुताबिक अल नीनों १९९८ के जैसा नहीं है । लेकिन यह दूसरा सबसे ताकतवर अल नीनो हो सकता है इससे चिंतित अंतराष्ट्रीय बीमा कंपनियों, कमोडिटी व्यापारियों, व्यापारियों, विज्ञापन एजेंसियोंं ने इस अल नीनो पर गहरार्द से नजर रखनी शुरू कर दी है । इसका आर्थिक और सामाजिक प्रभाव काफी गहरा हो सकता है । ब्रिटेन में हैडेल स्थित विभाग के शोध और पूर्वानुमान केन्द्र में प्रोफेसर क्रिस फॉलेंड के मुताबिक पिछले सालों के मुकाबले अब हमें ज्यादा ग्लोबल वार्मिंग का सामना करना पड़ सकता है । सच कहें तो अब ऐसा महसूस भी होने लगा है । गौरतलब है कि प्रशांत महासागर गरम है । इसकी वजह से दुनिया में हवाआें की प्रक्रिया और प्रभावित होती है । इसका तापमान बदलने से दुनिया के मौसम में बदलाव हो जाता है । यदि समुद्र की सतह के तापमान में औसत ते ०.५ डिग्री सेल्सियस के ऊपर वृद्धि होती है तो उसे अल नीनो के रूप में परिभाषित किया जाता है । लकिन अमेरिका राष्ट्रीय मौसम सेवा के पूर्वानुमान केन्द्र के मुताबिक नया अल नीनो इससे कहीं मजबूत है । केन्द्र से जारी रिपोर्ट में कहा गया हैै कि प्रशांत महासागर में भूमध्य रेखा पर समुद्र की सतह का तापमान औसत से ०.५ - १.५ डिग्री तक ऊपर रहता है । पूर्वानुमान कहते हैं कि अल नीनो की स्थिति आगे और तेज होगी । इसके उत्तरी दक्षिणी गोलार्ध में २००९-१० की ठंड तक जारी रहने की उम्मीद है । प्रशांत महासागर में भूमध्य रेखा पर दक्षिण अमेरिका से पश्चिम की तरफ बहने वाली गर्म धाराआें को अल नीनो कहा जाता है । इस प्रक्रिया में पूर्व की तरफ सतह पर गर्म धाराएं बहने लगती हैं । इससे पूर्वी प्रशांत महासागर में पानी गर्म हो जाता है, जबकि सामान्य तौर पर यह ठंडा रहता है ।
स्वछता के पर्याय फिनाइल से हो सकता है कैंसर
भारत के मध्यवर्गीय परिवारों में `स्वच्छता' का पर्याय समझे जाने वाले `फिनाइल' आधारित जीवाणुनाशकों तथा चूहों से निपटने के लिए दशकों से इस्तेमाल होते आ रहे सफेद `नेप्थालीन' गोलियों में कैसर फैलाने वाले तत्व होते है । देश की अग्रणी स्वच्छता रसायन निर्माता शेवरन लेबोरेट्रीज ने यह दावा किया है । कंपनी के महाप्रंबधक मधु कुमार ने बताया कि फिनाइल आधारित जीवाणुनाशको तथा नेप्थिलिन बॉल में मौंजूद कड़े रसायन स्वास्थ्य के लिए बेहत खतरनाक है । कई अध्ययनो में इनमें कैसरकारक तत्व होने की बात सामने आई है । इसके साथ ही एयरोसॉल आधारित एयर फ्रेशनर्स भी मानव स्वास्थ्य के लिए काफी घातक है ।श्री कुमार ने कहा कि दुर्भाग्य से अब भी इन रसायनों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है। लंबें समय से इनके इस्तेमाल की आदत की वजह से हमें इनकी सुगंध से ही सफाई का एहसास होता है । पर यह सही नही है । उन्होंने कहा यह न केवल स्वास्थ्य के लिए बेहद् खतरनाक होते है बल्कि इनमें कई विषाणुओ और जीवाणुआें का भी सफाया संभव नही है । श्री कुमार ने इस बात पर भी अफसोस जताया कि अब भी भारत में लगभग नब्बे प्रतिशत स्वच्छता संबंधी रसायनों को स्थानीय कंपनियां फिनाइल,एयरोसोल तथा सोप ऑयल की मदद से बिना किसी विशेष मानदंड के बनाती है । इनकी जगह गैर फिनाइल और पर्यावरण मित्र कार्बनिक कीटनाशी रसायनों के इस्तेमाल पर रोक लगा दी है । ***

बुधवार, 16 सितंबर 2009

आवरण




१ सामयिक

नरेगा भर सकता है भू-जल भंडार
राजेन्द्र सिंह
आज जल संकट का कारण वर्षा जल को बदलते हालात में संरक्ष्ण् के लिये राज-समाज और संगठन अपनी भूमिका भूल गये है। आवश्यकता है कि जहाँ जितनी जल वर्षा हो उसे वहीं समाने हेतु जंगल और धरती की हरियाली बढ़ाने हेतु जोहड़ बनायें । इस कार्य में सबकी भूमिका समान है । राज तो नीति नियम बनाये, जमीन और काम के लिए साधन दे और समाज श्रम दें । जल की एक अच्छी सरकारी नीति बने तभी यह संभव है । यह नीति गांव से लेकर नदी घाटी स्तर तक बनाई जाए । आवश्यकता है कि जन-जल जोड़ो आंदोलन देशव्यापी बने । जल को समझने, सजेहने वाले संगठन बने । यही संगठन जल की लूट और जल वाष्पीकरण के विरूद्ध सत्याग्रह करके बाढ़-सुखाड़ मुक्ति हेतु नीति-नियम बनाएं । पूरे देश में सामुदायिक विकेन्द्रित जल प्रबंधन का कार्य शुरू करके पूरी धरती को नम, जीवाश्मी और हरी-भरी बनाकर धरती की गर्मी और मौसम का मिजाज स्थानीय स्तर पर ही ठीक किया जा सकता है । इसी रास्ते से गरीब की गरीबी, लाचारी, बेकारी और बीमारी भी रोकी जा सकती है । तभी सभी के लिए शुद्ध पेयजल एवं खाद्य पूर्ति सुनिश्चित होगी । सामुदायिक विकेन्द्रित जल प्रबंधन ही जल संकट का समाधान है । आज भाखडा नांगल बांध में पानी नहीं रहा । मुम्बई में पेयजल पूर्ति हेतु जल राशनिंग समाधान मान लिया गया है । कर्नाटक जल संकट तो सुखाड़ के विस्तार में प्रथम स्थान पर आ गया है । बिहार में बाढ़ का समय और क्षेत्रफल का विस्तार चार गुना बढ़ गया है । महाराष्ट्र जो सबसे ज्यादा बांधों वाला प्रदेश है अपने गांवों को टैंकर से पानी पिला रहा है । यही हालात तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश के मालवा और उत्तरप्रदेश के बुन्देलखंड में भी है । देश में धरती का बढ़ता नंगापन और सूखती नदियों का कारण वैश्विक मौसम का बिगड़ता मिजाज और गर्माती धरती बताया जा रहा है । यह सब सरकारें अपने आपको बचाने की कोशिश में कर रही हैं । इस तरह ब्रहमाण्ड का धधकना और मौसम के मिजाज के बिगड़ने का आधार वैश्वीकरण और बाजारीकरण तथा ताकतवर देशों का क्योटो-प्रोटोकॉल को नहीं मानना भी है । कुछ राज्य सरकारों को भी इसी बहाने से न्यायोचित ठहरा कर स्वयं को बचा रहीं है । लेकिन इस समस्या को स्थाई और स्थानीय समाधान ढूंढने की कोशिश नहीं की जा रही है । कई जगह पानी का झगड़ा मिटाने हेतु पुलिस कारगर नहीं हुई तो सेना बुलानी पड़ती है । जल विवादों की जड़ें फैलती जा रही है । गांव और शहरों की खेती और पेयजल प्राथमिकता का विवाद है । सिंचाई प्रथम प्राथमिकता हो या उद्योग इस भ्रम को भी मिटाना होगा । बाढ़-सुखाड़ मिटाने के उद्देश्य से नदी-जोड़ योजना की बात शुरू हुई थी । यह बात पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने जोर देकर कही थी । तभी मैंने कहा था, बाढ़-सुखाड़ का इलाज नदी-जोड़ नहीं है । नदियों से समाज को जोड़कर विकेन्द्रित सामुदायिक जल प्रबंधन के जरिये समाज को नदियों से जोड़ने की जरूरत है । नदियों से समाज को जोड़ने का बड़ा का सम्पूर्ण भारत में सभी नदियों के जल ग्रहण क्षेत्रों में सूक्ष्म जल ग्रहण विकास योजना चलाकर करना चाहिए । यह कार्य अब नरेगा से भी किया जा सकता है । भारत सरकार और राज्य सरकारों को दूरदृष्टि से काम करने की जरूरत है। नदी संरक्षण हेतु नीति बने । हमारे शिक्षण पाठ्यक्रम में नदियों के मरने-सूखने से हमारी जीवन और खासकर सेहत पर पड़ने वाले बुरे असर बच्चें को भी समझाये जाएं । राजस्थान मंे समाज ने सात नदियां जीवित की हैं वैसे ही देश की सभी नदियां शुद्ध-सदानीरा बनाई जा सकती हैं। लेकिन इस हेतु एक अच्छी नदी नीति और कानून की जरूरत है । इस कार्य हेतु स्वैचिछक संस्थाआें, राज्य सरकारों तथा भारत सरकार और समाज की भूमिका निर्धारित हो । विद्यालय से विश्वविद्यालय तक की शिक्षा में इसे शामिल किया जाना जरूरी बने । हमारे संविधान में पानी प्रकृति प्रदत्त जीवन का मौलिक हक है । इस हेतु सबको पानी उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है । जो सबकों शुद्ध पानी पिलाकर जीवित रखेगा उसे ही सरकार बनाने और चलाने का हक है । इस हेतु स्वैच्छिक संस्थाआें ओर मीडिया की जिम्मेदारी सामुदायिक घटकों को प्रेरित करके पानी प्रबंधन में जन-जन को लगाना है । समाज जल संरचना का निर्माण ही नहीं बल्कि रख-रखाव भीकरे । मीडिया की बात सामने आते ही लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी याद आते है । उन्होने समाज को खड़ा कर दिया और आजादी दिला दी । आज जल आपूर्ति गुलामी से बड़ा संकट है । इससे मुक्ति दिलाने हेतु पानी की समझ विकसित कराने में मीडिया और स्वैच्छिक संगठनों की भूमिका बनती है । जल पर अतिक्रमण, जल प्रदूषण और भूजल शोषण रोकना तो सरकारी प्राथमिकताआें में आज सबसे पहला काम बनता है । इस मामले में सरकार उच्च्तम् न्यायालय के निर्णय की भी अवमानना कर रहीहै । उच्च्तम न्यायालय ने वर्ष २००१ में सरकार से कहा था कि सभी जल संरचनाआें के कब्जे हटाकर उन्हें आजादी के समय जैसी हालत में लाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ । आज भी दिल्ली शहर के पटपड़गंज के तालाब बचाने हेतु लोग लड़ रहे हैं । लेकिन सरकार बेफिक्र है । एक तरफ सरकार की बयानबाजी है कि दिल्ली के सभी तालाब कब्जा मुक्त करा दिये हैं । दूसरी तरफ तालाबों को अभी भी सीमेन्ट कांक्रीट के जंगल में तब्दील किया जा रहा है । इसके विरूद्ध देशभर में गरीब जिनका जीवन तालाबों पर टिका है, वे आज इन्हें कब्जा मुक्त कराने हेतु दबी आवाज में जूझ रहे हैं । हमारी परम्परागत जल संरचनाआें ने भूजल से भंडार भर के रख थे । आज जब हमारी परम्परागत जल संरचनायें नष्ट हो गई तो भूजल के भण्डार भी खाली हो गये हैं । पुनर्भरण रूक गया है, और भूजल शोषण बेतहाशा बढ़ रहा है । आज दो तिहाई भूजल भण्डार खाली है इस पर भी संसद और विधानसभाएंं मौन है । देश को पानीदार बनाना अब अनिवार्य है । यह सरकार की प्राथमिकता बननी चाहिए । राज-समाज जल के महत्व को समझे ।वर्षा जल को सहेजकर अनुशासित उपयोग के कायदे-कानून बनाएं। आवश्यक है कि नरेगा का पैसा जल संरक्षण पर खर्च किया जाए । समाज इसमें नदी के उपरी छोर से जुड़कर समुद्र तक जुड़ा रहे । नरेगा कानून ही नीर-नारी और नदी को जोड़ सकता है । इसी से एक तरफ बेरोजगारी दूर होगी, भूमि में नमी बड़ेगी, दूसरी तरफ जल, अन्न पूर्ति सुनिश्चित होकर हमारे समाज की लाचारी -बीमारी और बेकारी मिटेगी । इसलिए नरेगा को नीर और नमी की योजना मानकर लागू करना चाहिए । ***

३ विज्ञान हमारे आसपास

जीवाणु से बनती हमारी पहचान
सुश्री सुमन नारायणन
कल्पना कीजिए कि बिल्ली चूहे पर झपट्टा मारने की तैयारी कर रही है । चूहे को बिल्ली जैसे कुछ महसूस तो होता है परंतु वह राजसी मुद्रा में कहीं और देखने लगता है । और शीघ्र ही बिल्ली का भोजन बन जाता है। इस घटना के लिए जिम्मेेदार टोक्सोप्लाज्मा गोंडी नाम का यह परजीवी अपने लिए एक यजमान की खोज में है। अगर उसे यजमान के यहां फलने फूलने में असुविधा होती है। तो वह अनेक मामलों मेंे स्वयं यौनिक पुनर्उत्पादन कर लेता है । चूहे के मस्तिष्क में बैठकर ये परजीवी उसके दिमाग में ऐसा लसदार पदार्थ डोपामीन छोड़ता है जो कि स्वभाव को नियंत्रित का लेता है। चूहे का स्नायुतंत्र इस पदार्थ से प्रभावित हो जाता है। फलस्वरूप चूहे की जिंदा रहने की प्रवृत्ति झूठी तसल्ली का शिकार हो जाती है । उसे जीवन सुहाना और बिल्ली के प्रति मैत्री भाव वाला प्रतीत होने लगता है । परंतु टी.गोंडी बच जाता है। अब और आगे की कल्पना कीजिए । उस बिल्ली की मालकिन एक गर्भवती महिला है । अब इस बात की संभावना है कि उसका अजन्मा बच्च सीजोफ्रेनिक हो सकता है । मान लीजिए वह गर्भवती महिला बिल्ली की गंदगी बाहर फेंककर रसोई में आती है । और बिना हाथ धोए सेब खा लेती है । परजीव रक्त के माध्यम से उसके मस्तिष्क में प्रवेश कर जाते है। अब उस नशीले लसदार पदार्थ डोपामीन की क्रिया प्रांरभ हो जाती है और महिला के व्यक्तित्व में परिर्वतन आना प्रांरभ हो जाता है। वह ग्लानि और अपना कर्तव्य ठीक से न निभा पाने की शिकार हो जाती है । जीवाणु गर्भनाल के माध्यम से गर्भ में प्रवेश कर उसे मानसिक अस्वस्थता की राह में धकेल सकते है । अनेक अध्ययनों से यह प्रमाणित हो चुका है कि अधिकांश सीजोफ्रेनिस मरीजों के खुन में टोक्सोंप्लाज्मा गोंडी बहुतायत में पाया गया है । पृथ्वी पर जीवन का आरंभ जीवाणुआें से ही हुआ है । जैसे ही बहुकोशकीय संरचनाआें का प्रादुर्भाव हुआ वैसे ही उनके एक कोशीय संरचनाआें से संबंध जटिल होते चले गए । परंतु प्राकृतिक चुनाव ने उन्हें साथ -साथ रहने को बाध्य कर दिया । अनेक सूक्ष्म जीवाणुआें ने बहुकोशकीय जीवों के अंदर अपना घर बना लिया । मनुष्य के शरीर में अपनी बस्ती बनाने के लिए इन जीवाणुआें ने अपनी जीवनपद्घति में कुछ परिवर्तन किए । उन्होंने अपने यजमान की जीवन पद्धति को अपनाना शुरू कर दिया । हालांकि यह आसान नहीं था क्योंकि उसका पाला सबसे जटिल और क्रमिक विकासशील जीवनशैली से पड़ा था । प्रारंभिक दौर में मनुष्य घुमंतु थे। वे शिकार करते फल और गुदेदार फल इकट्ठा करते और समुद्री खाद्य एकत्रित करते थे । ऐसे समय में विद्यमान मनुष्य जीवाणु संबंधों की प्रकृति को समझने के लिए वैज्ञानिको ने अफ्रीका के कालाहारी रेगिस्तान में रह रही बुशमेन जनजाति का अध्ययन किया । इस जनजाति के व्यक्ति छोटे और छितरे समूहों में रहते हैं और अन्य मानव समूहो के यदाकदा ही संपर्क में आते है । नृतत्वशास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि यदि जीवाणुआें को इन व्यक्तियों में जिंदा रहना है तो उन्हें भी इसी तरह जीना होगा । चूंकि ये जीवाणु भी व्यक्तियों के साथ अलग हो जाते है । अतएव वह अपने यजमान की प्रतिरोध शक्ति पर कब्जा नहीं कर पाते, न ही विषाक्त हो पाते हैं और अपने संवाहक को मारने में असमर्थ रहते हैं । इनमें से कुछ, जो धैर्यमान नहीं हाते विषैले हो जाते हैं और वे तेजी से संक्रमण फैलाकर पूरे समूह की ही हत्या कर अपने संवाहक के शरीर से बाहर निकल कर विलुप्त् हो जाते है। इसका समाधान सांमंजस्यपूर्ण सहअस्तित्व ही है । पूर्वकाल में अपने संवाहक या यजमान को मारना बुद्धिमतापूर्ण नहीं माना जाता था । खाद्य सुरक्षा और कृषि में हुई क्रांति के फलस्वरूप मनुष्य और जीवाणुआें के आपसी समीकरण मेंनाटकीय परिवर्तन आया । कृषि की वजह से मनुष्यों के समूह नजदीकआए । भंडारण आधारित कृषि उत्पादन की वजह से समय की बचत हुई । समुदाय बढ़े हुए और जनसंख्या का घनत्व भी बढ़ता गया । यही वह समय था जब जीवाणुआें ने अपनी जीवन पद्धति बदली और वे अधिक संक्रामक हो गए । जैसे-जैस मनुष्यों का अपसी संबंध बढ़ा जीवाणुआें की विषाक्तता में भी वृद्धि हेाती गई । ये आगंतुक अपने साथ नए सूक्ष्मजीवी जीवाणु लाते हैं और बदले में समुदाय उन्हें अपने जीवाणु देते हैं । यह एक अद्भुत लेन-देन है जिसके माध्यम से ये सूक्ष्मजीव पूरे विश्व में घूमते और फैलते हैं । कृृषि विस्तार से दो वस्तुआें की मांग में वृद्धि हुई एक तो खेती के लिए भूमि और दूसरी पालतू जानवरों की । पालतू जानवरों की आवश्यकता पेय पदार्थ जैस दूध व मांस और चमड़े के लिए भी बढ़ी । ह्यूमन इम्यूनो डेफिसिएन्सी वायरस (एच.आई.वी.) भी बंदर से छलांग मारकर मनुष्य में समा गया । मनुष्य को जिन १४१५ कीटाणुआें से संक्रमण होता है उनमें से ८६३ अर्थात ६० प्रतिशत से अधिक मूलत: जानवरों के संक्रमण हैं । हम प्रतिवर्ष सुनते हैं कि जानवरों से मनुष्यों कोे संक्रमण लग रहा है । इस वर्ष यह स्वाईन फ्लू है । इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उच्च्तम स्तर की महामारी घोषित किया है । मेक्सिको के सुअरबाडे से निकला यह वायरस अब सारे विश्व की सैर कर रहा है । पिछले कुछ वर्षोंा में हम मेड काऊडिसीज, एवियन इंफ्लूएंजा (बर्ड फ्लू) और सार्स के बारे में सुन चुके है । वैज्ञानिकोंने हेलिकोबेक्टर पायलोरी नामक जीवाणु की दैनन्दिनी का वर्षोंा अध्ययन कर पता लगाने में सफलता हासिल कर ली है कि यह जीवाणु मनुष्य के शरीर में किस प्रकार घर बनाता है । मनुष्य के पेट में रहने वाले इस जीवाणु के संक्रमण से शायद ही कोई मनुष्य अछूता रहा हो । यह किसी संक्रमित मनुष्य के साथ भोजन करने से लार के माध्यम से या किसी प्रभावित व्यक्ति के मल से प्रदूषित पानी या खाद्य पदार्थ से फैलता है । यह मनुष्य के पेट में बड़ी कॉलोनी बसा लेता है और इससे पेट की गंभीर बीमारियां हो जाती हैं तथा २ से २० प्रतिशत तक मरीज गेस्ट्रिक अल्सर से लेकर कैंसर तक की पीड़ा भोगते है । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने १९९४ में इसे कैंसर फैलाने में मुख्य सहायक घोषित भी कर दिया है । पश्चिम में इसके उपचार में काफी सफलता भी पा ली है । परंतु इसी दौरान इसी से मिलती जुलती बीमारियों जैसे अम्ल का बढ़ना (एसीडिटी) और आहार नली के कैंसर में जबरदस्त वृद्धि हुई है । कुछ जीवाणु मानव शरीर पर लाभकारी प्रभाव भी छोड़ते है । ये ऐसा क्यों करते हैं ? इसका उत्तर है ये पहले शरीर में एसिड को समाप्त् करके अपने संवाहक को जिंदा रखने एवं दूसरा पाचन तंत्र में रोग फैलाने वाले विषाणुआें को रोकने के लिए सबसे अधिक लाभ पहुंचाने वाले जीवाणु भी व्यक्तिगत रूप से विश्वासघाती होते है । वे वर्तमान व्यवस्था से विद्रोह कर देते हैं और अपनी पूरी ऊर्जा को पुर्नउत्पादन में लगाकर अपनी संख्या बढ़ाने में लग जाते हैं । जैसे ही ये बहुतायत में आ आते है यजमान को गेस्ट्रिक अल्सर हो जाता है । मानव शरीर का बाहरी आवरण करोड़ो सूक्ष्मजीवियों से अटा रहता है । जैसे ही हम कपड़े बदलते है वैसे ही त्वचा के जीवाणु भी बदल जाते हैं । भिन्न वस्त्र जैसे सूती या ऊनी का अर्थ है अलग प्रकार के जीवाणु । हमारे अंगूठे और उंगलियों के बीच के स्थान में एक करोड़ से अधिक जीवाणु निवास करते है । मानव व्यवहार के समझने के लिए वैज्ञानिक इन्हीं जीवाणुओ ंका सहारा ले रहे हैं । खांसने और छीकने को लेकर हमारी मान्यता यह है कि शरीर से अवांछित बाहर आ रहा है । परंतुू संभव है कि यह जीवाणु स्वयं की कभी भी बेहतरी के लिए बाहर नहीं लाता । वायरस की क्षमता है कि वह अपनी पहचान को छुपाकर अपने प्रत्येक आक्रमाण के द्वारा यजमान की रोग प्रतिरोधक क्षमता को नष्ट करता है । एचआईवी का वायरस भी ऐसे ही हमला करता है । आवश्यकता इस बात की है कि इन्हें हम मात्र संक्रमण फैलाने वाला मानने की बजाए अपने शरीर में घूमने वाले यात्री माने । ***
नदियों में पानी की गुणवत्ता की निगरानी
केन्द्रीय जल आयेग ने देश की सभी प्रमुख नदियों की घाटी में महत्वपूर्ण स्थानों पर जल की गुणवत्ता की निगरानी करने का काम अपने हाथ मे ंलिया है । एक आधिकारिक जानकारी के अनुसार देशकी प्रमुख नदियों के २५८ जल निगरानी स्थलों पर प्रथम चरण की प्रयोगशालाएं काम कर रही हैं, जकि दूसरे चरण की प्रयोगशालाएं २४ प्रखण्ड कार्यालयों में हैं और वे यह पता लगाती है कि पानी में कितना बैक्टिरिया और रासायनिक मिश्रण है । तीसरे चरण की चार प्रयोगशालाएं दिल्ली, वाराणसी, हैदराबाद और कोयम्बटूर में हैं । ये प्रयोगशालाएं ४१ मानकों पर पानी की निगरानी करती हैं और यह पता लगाती हैं कि इसमें कितना कीटनाशक एवं भारी तत्व है। आयोग इन सारे आंकड़ों को कम्प्यूटर में इकट्ठा कर हर साल स्थिति रिपोर्ट तथा हाइट्रोलोजिकल ईयर बुक निकालता है ।

४ विशेष लेख

सूक्ष्म तरंगी अवन के दुष्प्रभाव
प्रो. ईश्वरचंद शुक्ल/बृजेश सिंह/विनोद कुमार
आधुनिक जीवन शैली में शीघ्रता हेतु उन उपकरणों का प्रयोग किया जाता है जो कि समय की बचत करे तथा कम से कम श्रम करना पड़े । भोजन बनाते तथा उसे रफ्रिजरेटर में रखकर आवश्यकता के समय पुन: गर्म करने के लिए पारम्परिक विधि के अतिरिक्त कई विद्युत एंव इलेक्ट्रानिक उपकरणों का प्रयोग भी किया जाता है । इनमें से सबसे आधुनिक एंव सुविधाजनक है सूक्ष्मतरंगी अवन (माइक्रोवेव अवन) । इसका आविष्कार सर्वप्रथम पारसी स्पेन्सर रेथियान के लिए मैग्नाट्रान बनाते समय किया गया । रेथियान ने १९४६ में सूक्ष्मतरंगों द्वारा भोजन बनाने का पेटेन्ट करवाया तथा १९४७ मे पहला सूक्ष्म तरंगी अवन तैयार किया । जिसका नाम राडोरन्ज रखा गया । इसका आकार लगभग १.८ मीटर तथा भार ३४० किग्रा. था । यह जल शीतित तथा ३००० वाट का विकिरण पैदा करता था जो कि आधुनिक सूक्ष्मतरंगी अवन से तीन गुना था । तत्पश्चात लिटन ने १९६० में छोटे आकार का नया अवन बनाया जो कि आजकल प्रयोग किया जा रहा है । सूक्ष्म तरंगी अवन में सूक्ष्म तरंगों के प्रयोग द्वारा भोजन पकाया जाता है । प्रत्येक अवन में एक मैग्नाट्रान होता है जो कि एक नली के आकार का होता है । इसमें इलेक्ट्रानों को चुम्बकीय तथा विद्युत क्षेत्र से इस प्रकार प्रभावित किया जाता है कि २४५० मोगा हर्ट्ज (चकू) या २.४५ गीगा हर्ट्ज (ऋकू) का सूक्ष्म तरंगी विकिरण प्राप्त् हो सके । यही सूक्ष्म तरंगी विकिरण भोजन के अणुआें से क्रिया करता है । सम्पूर्ण तरंग शक्ति ध्रुवता को धनात्मकता से ऋणात्मकता में प्रत्येक तरंग चक्र के साथ बदल देती है । सूक्ष्मतरंगी अवन से ध्रुवण के यह परिवर्तन प्रत्येक सेकेन्ड में लाखों बार होते हैं । भोजन में विशेषत: जल के अणु में एक धनात्मक तथा एक ऋणात्मक सिरा उसी तरह होता है जैसा कि चुम्बक में उत्तरी तथा दक्षिणी धु्रवण होता है । व्यावसायिक रूप में प्रयोग होने वाली सूक्ष्म तरंगी अवन के लिए १००० वाट की प्रत्यावर्ती धारा की आवश्यकता पड़ती है । मैग्नाट्रान द्वारा उत्पन्न सूक्ष्मतरंगें खाद्य पदार्थोंा पर बमबारी करती है, जिससे ध्रुवीय अणु का धूर्णन उसी आवृति पर एक सेकेण्ड में लाखों बार होने लगता है। यह प्रक्षोभ अणुआें में घर्षण पैदा करता है जिससे भोजन गर्म हो जाता है। इस प्रकार उत्पन्न असामान्य ताप निकटवर्ती अणुआें को सम्पूर्ण रूप में आघात भी पहुँचाता है । इससे कभी-कभी अणु का विदारण हो जाता है या बल प्रयोग के कारण विकृत हो जाते हैं । सूक्ष्म तरंगी अवन भोजन में जल के अणुआें में कम्पन पैदा करता है जिससे एक विशेष इलेक्ट्रान नली जिसे मैग्नाट्रान कहते है सूक्ष्मतरंगें पैदा करती है । समताप हेतु मैग्नाट्रान अपनी तरंगों को एक घूर्णित धातु चक्रिका की ओर निर्देशित है, जो कि पुच्छों को आफसेट करती है तथा तरंग को अवन कोटर में प्रसारित कर देती है । कभी-कभी भोजन हेतु एक घूर्णित पटि्टका का अतिरिक्त प्रयोग भी किया जाता है ।पावर अस्तम सतत् निर्गमन मैग्नाट्रान आन-आफ द्वारा परिवर्ती समय में विकिरण को कम कर सकता है। मैग्नाट्रान में क्वार्ट्ज तथा हैलोजन बल्ब लगाकर भोज्य पदार्थ को भूरा किया जा सकता है जो कि मात्र सूक्ष्म तरंगे नहीं कर सकती । सूक्ष्म तरंगे वस्तु के गुण के अनुसार पारगत, परावर्तित अथवा शेषित होती है । सूक्ष्मतरंगी अवन के कुछ लाभ भी हैं । इससे भोजन बनाने में समय की बचत होती है । प्रचलित तरीके से भोजन बनाने में समय अधिक लगता है तथा ऊर्जा की हानि भी होती है । सूक्ष्मतरंगी अवन में केवल भोज्य पदार्थ ही गर्म होता है जबकि प्रचलित तरीके से भोजन बनाने मेंजल, तेल, घी या हवा को गर्म करना पड़ता है । इसमें जिस पात्र में भोज्य पदार्थ को रखा जाता है वह गर्म नहीं होता अत: इंर्धन की बचत होती है जिसमें धन भी कम व्यय होता है । सभी पोषक पदार्थ भोजन में बने रहते हैं, नष्ट नहीं होते । सूक्ष्म तरंगी अवन में प्रोटीन युक्त भोजन भूरा नहीं होता । इस प्रकार के समानीत आक्सीकरण से भोजन में विटामिन अ तथा ए के नष्ट होने की सम्भावना कम रहती है । सूक्ष्म तरंगी अवन में शीघ्रता से गर्म किये गये भोजन के पोषक तत्व अधिक सुरक्षित रहते हैं जबकि गैस या स्टोव पर अधिक देर तक गर्म किये भोजन में इतनी सुरक्षा नहीं रहती । समान्यत: हानिकारक सूक्ष्म जीव ५०जउ-६०जउ के ताप पर पनपते हैं लेकिन जब आप सूक्ष्म तरंगी अवन में भोजन पकाते हैं तो शीघ्रता से पकता है तथा शीघ्रता से परोसा जा सकता है । इस प्रकार हानिकारक तापक्रम पर भोजन कम देर तक रहता है जिससे विषाक्तता में बचाव होता है । अब आइये उन कारणों की ओर ध्यान दें जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं । सर्व प्रथम तो भोजन शीघ्र गर्म होने के कारण समान रूप से पक नहीं पाता । सूक्ष्म तरंगी अवन का प्रयोग अधिकांशत: पहले से पकाये हुए भोजन को पुन: गर्म करने के लिए किया जाता है । इस क्रिया में कीटाणु संक्रमण पूर्ण रूप से नष्ट होने की सम्भावना रहती है । अत: आहारजनित बीमारियों के फैलने का भय रहता है । असमान ताप आशत: सूक्ष्म तरंगी ऊर्जा के असमान वितरण तथा अशत: भोजन में ऊर्जा के विभिन्न दरों पर अवशोषण के कारण होता है । इस सामान्य दोष के अतिरिक्त तीव्र खतरा अन्य कारणों से भी होता है। सूक्ष्म तरंगी अवन में जब द्रवों को चिकने तल वाले बर्तन में गर्म किया जाता है तो वे अति तप्त् हो जाते हैं अर्थात उस तापक्रम पर बिना उबले हुए ही पहुँच जाते हैं जो कि उनके क्वथनांक से कुछ अंश सेल्सियस ऊपर होता है । इसमेंउबलने की क्रिया विस्फोटक रूप से तब प्रारम्भ हो सकती है जबकि बर्तन को अवन से बाहर निकाला जाता है । इससे अवन चलाने वाला घातक रूप से जल सकता है । कुछ पात्र जैसे कांटा सूक्ष्म तरंगी अवन में रखने से चिन्गारी पैदा करतेहैं । इसका कारण यह है कि कांटा एन्टिना का कार्य करता है तथा सूक्ष्म तरंगी विकिरण का अवशोषण उसी प्रकार दूसरे धातु के बर्तन जैसे चम्मच आदि । कांटे के नुकीले सिरे विद्युत क्षेत्र को सान्द्रित करने का कार्य करते हैं । इसका प्रभाव वायु का परावैद्युत प्रवणता का अत्यधिक बढ़ाकर लगभग ३ मेगावोल्ट प्रति मीटर (३द१०६चशत/च) कर देता है, जो कि चिन्गारी उत्पन्न करता है । यह प्रभाव सेन्ट एलमा (डीं. एश्राि ी) आग के प्रभाव के समान ही होता है । सूक्ष्म तरंगी अवन के उच्छादन जैविक प्रभाव अत्यन्त हानिकारक होते हैं। लगातार सूक्ष्म तरंगी अवन में बनाया हुआ भोजन लेने से दीर्घकालिक स्थायी मस्तिष्क क्षति पैदा होती है । यह प्रभाव मस्तिष्क के ऊतकों में विद्युत आवेग को लघु बनाने अर्थात् अधु्रवीकरण या अचुम्बकीय बनाने के कारण होता है । मनुष्य का शरीर सूक्ष्मतरंगी भोजन द्वारा उत्पादित अज्ञात उपउत्पादों का उपापचयन नहीं कर सकता है । सूक्ष्मतरंगित भोजन के उपउत्पाद शरीर के अन्दर स्थायी रूप में पड़े रहते हैं । सूक्ष्म तरंगी अवन द्वारा पकाई हुई शाक-सब्जियों के खनिज कैन्सर कारक मुक्त मूलकों में परिवर्तित हो जाते हैं । सूक्ष्म तरंगित ब्रोकोली तथा गाजर पर किये गये ऊतकीय अध्ययन द्वारा ज्ञात हुआ है कि इनके पोषक तत्व उच्च् आवृत्ति उत्क्रमणीय ध्रुवण के कारण विरूपित हो जाते हैं, यहंा तक कि कोशिका भित्ति फट जाती है , जबकि पारम्परिक तरीके से पकाये गये भोजन में कोशिका संरचना सुरक्षित रहती है । कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य को सूक्ष्मतरंगी बीमारी भी हो सकती है । इनके मुख्य लक्षण है । रक्त्तचाप तथा धीमी नाड़ी गति ।बाद में सर्वाधिक सामान्य अभिव्यक्ति दीर्घकालीन अनुकंपिका नाड़ी तंत्र का उत्तजित होना तथा उच्च्रक्त चाप का होना पड़ता है । इस दशा में अधिकतर सिर दर्द, चक्कर आना,नेत्रपीडा,अनिद्रा, चिडचिडापन, संताप,पेट दर्द,तंत्रिका तनाव ध्यान केन्द्रित करने की अक्षमता,गंजापन,तथा एपेन्डि साइटिस की प्रबलता की सम्भावना, मोतियाबिन्द , प्रजनन समस्या तथा कैंसर आदि विकारों का होना होता है । इसकी भी पुष्टि की गई है कि बच्चो के सूक्ष्म तरंगित भोजन में कुछ ट्रांस अमीनो अम्ल संश्लेषित समावयवी अमीनो अम्लों में परिवर्तित हो जाते हैं । संश्लेषित समावयवी चाहे वे सिस अमीनों अम्ल हो अथवा ट्रांस वसीय अम्ल, जैविक रूप से क्रियाशील नहीं होते इसके अतिरिक्त अमीनो अम्लों मे से एक ङ- प्रोलीन व- समायवी में परिवर्तित हो जाता है जो कि तंत्रिका विषालु (तंत्रिकाआें के लिए जहरीला ) तथसा ग्रेफो विषालु (गुर्दो के लिए जहरीला) होता है । यह अत्यंत दुखद है कि अधिकांश बच्चें को दूध नहीं पिलाया जाता बल्कि उन्हें डिब्बे का दूध पिलाया जाता है जो कि सूक्ष्म तरंगित होता है । एक लघु अध्ययन में पाया गया कि सूक्ष्म तरंगित दूध तथा सब्जियों के सेवन से व्यक्ति के रूधिर में विक्षुब्ध परिवर्र्तन हो जाते हैं । आठ स्वयं सेवकों ने विभिन्न प्रकार के पकाये गये उसी भोजन को खाया । सभी भोज्य पदार्थ जो कि सूक्ष्म तरंगी अवन द्वारा पकाये गये थे से सभी स्वयं सेवकों के रक्त में परिवर्तन पैदा हो गये थे । हीमोग्लोबिन स्तर घट गया तथा सफेद रक्त कोशिका तथा कोलेस्टराल का स्तर बढ़ गया । लिम्फोसाइट की संख्या भी घट गयी । एक अन्य प्रयोग में संदीप्त् जीवाणुआें को रक्त में ऊर्जा परिवर्तन के अध्ययन हेतु उपयोग किया गया । इन जीवाणुआें को जब उस रक्त सीरम में अनाव्रत किया गया तो उनमें सार्थक संदीपन वृद्धि पायी गई । इतने दुष्परिणामों का प्रभाव बचाव के उपाय अपना कर कम किया जा सकता है । सर्वप्रथम इस बात का ध्यान रखें कि हिम शीतित भोजन को पकाने के पहले उसे सूक्ष्म तरंगी अवन में ठीक से गर्म कर लें अन्यथा शीतित बिन्दु जीवाणु स्तर को बढ़ाने का कार्य करेंगे । सम्पूर्ण पाक क्रिया के लिए आवश्यक है कि भोज्य पदार्थ को छोटे टुकड़ों में काट लिया जाय क्योंकि छोटे टुकड़े बड़े टुकड़ों की तुलना में समान रूप से पकते हैं । पाक क्रिया की थैलियां ढक्कन या बर्तन को प्लास्टिक की पतली परत से ढक दिया जाये तो भोजन समान रूप से पकेगा तथा हानिकारक कीटाणु भी नष्ट हो जायेंगे। समान ताप रखने के लिए छिछले तथा गोलाकार बर्तनों का प्रयोग करना चाहिए। चौकोर तथा गहरे बर्तन में समान ताप क्रम नहीं रह पाता । भोजन पकाते समय भोज्य पदार्थ को कम से कम एक बार अवश्य चलाना चाहिए । जिन पदार्थोंा को चलाया नहीं जा सकता उन्हें कुछ देर तक अवन में ही छोड़ दें जिससे ऊष्मा का संचालन समान रूप से हो जाय । सर्वदा मानक समय जो कि सूक्ष्मतरंगी भोज्य पदार्थ जैसे पापकार्न या पूर्व पैक भोजन पर दिया रहता है पालन करना चाहिए । स्टफ की हुई पोल्ट्री को गर्म नहीं करना चाहिए क्योंकि उसके रोगाणुआें का विनाश पहले ही हो जाता है । कभी भी छिलके सहित अण्डे को नहीं गर्म करना चाहिए अन्यथा छिलके के अन्दर बनी भाप से अण्डा फट सकता है । द्रव या अन्य भोजन अतिउष्ण हो सकता है अर्थात जब उन्हें हिलाया जायेगा या विचलित किया जायेगा तो विस्फोटक रूप से उबलने लगेंगे । सदैव दिये गये समय तक ही पाक क्रिया करें। यदि आपको नहीं ज्ञात है। कि भोजन को कितने समय तक पकाया जाय तो उसे सूक्ष्म तरंगी अवन में ही कुछ देर के लिए छोड़ दें तब बाहर निकालें । सूक्ष्म तरंगी अवन के प्रयोग के समय कुछ सुरक्षा के उपाय भी अपनाने चाहिए । अवन में दिये गये सुझावों को ध्यान से पढ़े तथा पास मेें ही रखें जिससे आवश्यकता पड़ने पर देखा जा सके । केवल सूक्ष्मतरंगी अवन के लिए बनाये गये बर्तनों का ही उपयोग करें । शीशे या चीनी मिट्टी के बने बर्तन अतितप्त् होकर हानि पहुँचा सकते है । कभी भी प्लास्टिक थैलियों, अखबार या कागज का अतिशीतित पदार्थो जैसे आइसक्रीम के पात्रों का उपयोग सूक्ष्मतरंगी अवन में न करें । प्लास्टिक पात्र या परत जो कि विशेष रूप से सूक्ष्मतरंगी अवन के लिए न बनाई गई हो, का प्रयोग भी न करें अन्यथा तप्त् प्लास्टिक के अणु भोजन में प्रवेश कर जायेंगे । कभी प्लास्टिक पर्तोंा जो कि सूक्ष्म तरंगी अवन के लिए बने हैं का भी भोजन से स्पर्श न करें, जिससे प्लास्टिक के रसायन भोजन में न जाने पावें । वसायुक्त भोजन पकाने हेतु सुक्ष्मतरंगी अवन के लिए बनाए ये शीशे के पात्रों का ही प्रयोग करें क्योंकि प्लास्टिक के योज्य उच्च् ताप पर वसा युक्त भोजन में चले जाने की संभावना रहती है । कभी भी धातु के पात्रों या धातु लगे हुए अन्य पात्रों का प्रयोग न करें । सर्वदा बच्चें को जब वे सूक्ष्म तरंगी अवन का प्रयोग कर रहे हों सिखाते रहे तथा ध्यान रखें । उन्हें सुरक्षित प्रयोग के बारे में बतायें तथा संभावित खतरों से सावधान रहने का तरीका बतावें । इस प्रकार हम पाते है कि सूक्ष्मतरंगी अवन हमारे लिए मित्र तथा शत्रु दोनों का कार्य कर सकती है । हमारा प्रयास यह है कि हम उसका प्रयोग सुविधा तथा स्वास्थ्य के लिए करें । जिस तरह विद्युत हमारे लिए विनम्र सेवक है परन्तु त्रुटि होने पर प्राण घातक भी हो जाती है, उसी प्रकार सूक्ष्मतरंगी अवन के बारे में भी सोचना चाहिए । हम आधुनिक सुविधाआें को नकार नहीं सकते लेकिन अपने स्वास्थ्य को खराब करने में भी समझदारी नहीं है । ***
बाघ संरक्षण के लिए दोगुना आवंटन
बाघ संरक्षण केंद्र सरकार की उच्च् प्राथमिकताआें में शामिल है । ऐसे में बाघ परियोजना के लिए आम बजट में २००९-१० में १८४ करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है जबकि २००८-०९ में यह रकम ७२ करोड़ रूपए थी। बाघ परियोजना एक स्वायत्तशासी व्यवस्था है जिसके तहत बाघों को संरक्षित करने की कोशिश की जा रही है । ताजा अनुमानों के अनुसार इनकी संख्या पूरे देश में घटकर १४११ रह गई है । इस बार के बजट में राष्ट्रीय नदी व झील संरक्षण योजना के लिए ५६२ करोड़ रू. का प्रावधान है जो पिछली बार की तुलना में २२७ करोड़ रूपए ज्यादा है ।

५ प्रदेश चर्चा

उ.प्र.: महिला किसान भी कम नहीं
भारत डोगरा
हमारे देश में विशेषकर छोटे किसानों के खेतों में महिलाआें की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है । परंतु खेती संबंधी निर्णय प्रक्रियामें उन्हे प्राय: समुचित महत्व नहीं दिया जाता । गोरखपुर इन्वायरेनमेंट एक्शन ग्रुप नामक पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक प्रमुख स्वैच्छिक संस्था ने इस पारम्परिक भूल को सुधारते हुए जब अपने कृषि-कार्य केन्द्र में महिलाआें को रखा तो इसके बहुत उत्साहवर्धक परिणाम मिले । इससे राष्ट्रीय स्तर पर भी कृषि संकट से बाहर निकलने हेतु उम्मीद की किरण नजर आती है । यह संस्था जिस कृषि तकनीक का प्रसार करती है, वह सस्ती आत्म-निर्भरता बढ़ाने वाली व टिकाऊ तकनीक है । इसमें स्थानीय संसाधनों के बेहतर उपयोग पर विशेष जोर दिया जाता है । जिस तरह महिला किसानों ने शीघ्र ही इस तकनीक में दक्षता हासिल की व इसे बड़े उत्साह से अपनाया उससे यह आभास होता है कि महिला किसानों का ऐसी तकनीक के प्रति विशेष रूझान है । इस तकनीक में मेहनत तो अधिक है, परन्तु खर्च कम है । महिलाआें में घर गृहस्थी को आर्थिक कठिनाई से बचाने की गहरी इच्छा होती है अतएव वे मेहनत से घबराती नहीं हैं । परिवार के पोषण से भी उनका विशेष जुड़ाव होता है परिवार के पोषण से भी उनका विशेष होता है । साग सब्जी व विविधतापूर्ण खेती के प्रति उनका आकर्षण इसलिए भी रहता है ताकि उनकी रसोई को कई तरह की सब्जियों, मसाले आदि अपने खेत से ही मिल जाएं। खेती के कार्य से जुड़े रहने के कारण उन्हें इसकी समस्याआें की पहले से ही अच्छी समझ होती है । यदि कोई तसल्ली से इन्हें दूर करने के तौर-तरीके उनकी भाषा में, उनके अपने खेत में या गांव में आकार बताए तो महिला किसानों द्वारा उन पर पूरा ध्यान देना स्वाभाविक हीहै । गोरखपुर जिले के प्रयासों में यह सारी अनुकूल स्थितियां एक दूसरे से मिलकर अच्छी तरह उभरी हैं व टिकाऊ खेती के लिए महिला किसानों का विशेष रूझान भी सामने आया है जो राष्ट्रीय स्तर पर एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है । इससे जहां एक और किसानों का खर्च कम हुआ, वहां दूसरी ओर उनका उत्पादन भी बेहतर हुआ, उसकी गुणवत्ता में सुधार हुआ व मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन भी लौटने लगा । इस तरह के सफल प्रयोगोंसे संकेत मिलते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर जो कृषि संकट है उसे किस प्रकार हल किया जा सकता है । इन प्रयासों में महिला किसानों की हकदारी पर भी ध्यान दिया गया । यह संस्था आरोह नामक व्यापक परियोजना से भी जुड़ी । जिसने महिला किसानों के कार्य के महत्व की उचित पहचान में, भूमि रिकार्ड में किसान पति--पत्नी दोनों के नाम दर्ज होने में, कृषि नीति-निर्धारण व इससे जुड़े सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों में महिलाआें की समुचित भागीदारी पर जोर दिया । आरंभ में यह कार्य गोरखपुर जिले के सरदारनगर व कंपीयरगंज ब्लाकों के कुछ गांवों में केन्द्रित रहा । बाद में धीरे-धीरे कुछ सहयोगी संस्थाआें व संगठनों के सहयोग से अन्य क्षेत्रों में भी इसका प्रचार-प्रसार हुआ । इस क्षेत्र के अनेक गांवों में महिला किसानों से मिलने पर पता चला कि हाल के वर्षोंा में रासायनिक खाद पर उनकी निर्भरता बहुत कम हो गई है । अब वे गोबर, पत्ती आदि के बेहतर उपयोग से कंपोस्ट खाद बनाती हैं । जबकि पहले गोबर का उपयोग होता भी था तो सावधानी से नहीं होता था । केंचुआें की खाद का भी वे अच्छा उपयोग कर रही है । इसी तरह अब औषधि गुणों के स्थानीय पेड़-पौधे जैसे नीम आदि व गोमूत्र का उपयोग कर हानिकारक कीड़ों व बीमारियों से अपनी फसलों का बचाव करती है । कंपीयरगंज में इस संस्था के कार्यकाल में फसलों कें उपचार के नए वैज्ञानिक तौर-तरीके भी उपलब्ध है, मिट्टी के परीक्षण की भी व्यवस्था हैं, पर साथ ही इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि किसी नये ढंग की महंगी निर्भरता से किसान बचें । विभिन्न गांवों में किसान विद्यालयों की स्थापना की गई है जहां प्रति माह एक निर्धारित तिथि को किसानों, विशेषकर महिला किसानों की सभा होती है व उनके प्रश्नों/समस्याआें का समाधान होता है । यदि समस्या अधिक जटिल होती है तो बाहर के विशेषज्ञों की राय प्राप्त् की जाती है । विभिन्न गांवों में कृषि सेवा केन्द्र भी स्थापित किए गए हैं जहां सस्ती दर पर विभिन्न कृषि उपकरण भी किराए पर मिल जाते हैं । स्वयं सहायता समूह बनाकर महिलाआें ने साहूकारों पर निर्भरता समाप्त् की व खेती के लिए अतिरिक्त भूमि प्राप्त् करने, साग-सब्जी की खेती बढ़ाने, सब्जी की दुकान प्रारंभ करने के लिए अपेक्षाकृत सस्ती दर पर कर्ज भी प्राप्त् किए । ऐसे कई समूहों को जोड़कर फेडरेशन व फिर बड़ी फेडरेशन बनाई गई जिससे अनेक महिलाएं अधिक व्यापक सरोकरों से भी जुड़ने लगी । इनमें से अनेक महिलाएं टिकाऊ खेती की अच्छी प्रशिक्षक भी बन चुकी है । अपने क्षेत्र के गांवों के अतिरिक्त उन्हें दूर-दूर के अनेक क्षेत्रों से भी प्रशिक्षण देने के लिए निमंत्रण मिलते रहते हैं । इन विभिन्न कार्योंा से यहां की महिला किसानों में योग्यता व उपलब्धि पर आधारित, कठिनाई में एक-दूसरे की सहायता करने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है । इन गांवों में प्रवासी मजदूरी की अधिक प्रवृत्ति अधिक होने के बावजूद अब महिलाएं अपनी खेती और घर-गृहस्थी दोनों को एक साथ काफी आत्म-विश्वास और कुशलता से संभाल रही है। अवधपुर गांव की उर्मिला के पति बाहर गए हुए हैं, पर वह अपनी घर-गृहस्थी व खेती संभालने के साथ कृषि सेवा केन्द्र की जिम्मेदारी भी संभालती हैं । वह अपनी फेडरेशन के अध्यक्ष भी हैं । जनकपुर गांव की मीरा चौधरी के पति का देहान्त कुछ वर्ष पहले हो गया था । यहां के गांवों में आम सोच है कि विधवा महिला दूसरों पर निर्भर होती है । परंतु मीरा चौधरी तो जैसे पूरे गांव की सहायता करने में समर्थ हैं । कुछ महिलाआें ने कहा कि इतनी सक्रिय व सहायता के लिए तत्पर महिला को तो ग्रामप्रधान के चुनाव में खड़ा होना चाहिए मीरा गांव के लघु सीमान्त कृषक मोर्चे की अध्यक्ष हैं । राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन ने उन्हें मास्टर ट्रेनर के रूप में चुना है । उन्होंने कई स्थानों पर प्रशिक्षण भी दिया है । अवधपुर की घनेश्वरी देवी टिकाऊ खेती, केंचुए की खाद बनाने व संगठन कार्य में आगे रहीं हैं व उन्हें कई पुरस्कार भी मिले हैं । यदि नरेगा के कार्य के बारे में उन्हें शिकायत होती है तो वे सीधे लखनऊ की हेल्प लाईन पर फोन कर देती है । घनेश्वरी देवी एक बड़ी फेडरेशन की सचिव भी हैं । इसी गांव की सोनपति ने बताया कि आरंभ में उन्हें घर से बाहर निकलने में भी संकोच होता था, पर अब तो वह हानिकारक कीड़ों के नियंत्रण की प्रशिक्षक हैं व प्रशिक्षण देेने के लिए दूर-दूर चली जाती है । दूधई गांव की कुसुमवती किसान विद्यालय का संचालन करती हैं, स्थानीय फेडरेशन की कोषाध्यक्ष हैं व आशा स्वास्थ्यकर्मी भी हैं । वह सुबह चार बजे उठकर घर का काम शीघ्रता से निपटाती है व इसके पश्चात गांव की स्वास्थ्य समस्याआें को जानने के लिए गांव का राऊंड लेती है । जैपुर गांव में महिला किसान सरसुति तो ग्राम प्रधान के रूप में निर्वाचित भी हो गई हैं वे उन्होंने विकास कार्य को बहुत योग्यता से आगे बड़ाया है । बिलारी गांव की गायत्री देवी आंगनवाड़ी भी चलाती हैं व फेडरेशन की कोषाध्यक्ष भी हैं । उन्होने बताया कि संस्था के आगमन के बाद हमारे गांव में बहुत सार्थक बदलाव हुआ है । पसराई गांव की कलावती चौबे स्थानीय फेडरेशन की अध्यक्ष हैं व आशा स्वास्थ्य काय्रकर्ता भी हैं । बिन्द्रावती व गंगोत्री टिकाऊ खेती के अच्छे प्रशिक्षण मास्टर ट्रेनर के रूप में काफी सफल रही हैं । सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन महिलाआें ने न केवल अपने यहां की खेती में महत्वपूर्ण सुधार किए हैं, अपितु अब वे प्रशिक्षक के रूप में अपने इस अनुभव को दूसरों के खेतों में भी ले जा रहीं हैं । ***
मुंबई का हर दूसरा व्यक्ति झुग्गी में रहता है
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई का हर दूसरा व्यक्ति झुग्गी में निवास करता है । मानव विकास रिपोर्ट और मुंबई नगर निगम द्वारा बनाई गई रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में हर तीसरा यक्ति झुग्गी में रहता है। लेकिन यह आंकड़ा मुंबई में और अधिक बढ़ जाता है, जहां २००१ की जनगणना के मुताबिक ५४.१ प्रतिशत लोग झुग्गी में रहते हैं । इसका मतलब है कि मुंबई का हर दूसरा व्यक्ति झुग्गी में रहता है । रिपोर्ट में कहा गया है कि मुंबई में यह लोग कुल जमीन के मात्र छह प्रतिशत हिस्से मेंही रहते हैं , जो यहां के डरावने संकुचन को बयान करती है । उल्लेखनीय है कि देश की राजधानी दिल्ली में जहां १८.९ प्रतिशत लोग झुग्गी में निवास करते हैं , वहीं कोलकाता में ११.७२ प्रतिशत और चेन्नई में २५.६० प्रतिशत लोग इन इलाकों में निवास करने को मजबूर हैं।