बुधवार, 16 सितंबर 2009

३ विज्ञान हमारे आसपास

जीवाणु से बनती हमारी पहचान
सुश्री सुमन नारायणन
कल्पना कीजिए कि बिल्ली चूहे पर झपट्टा मारने की तैयारी कर रही है । चूहे को बिल्ली जैसे कुछ महसूस तो होता है परंतु वह राजसी मुद्रा में कहीं और देखने लगता है । और शीघ्र ही बिल्ली का भोजन बन जाता है। इस घटना के लिए जिम्मेेदार टोक्सोप्लाज्मा गोंडी नाम का यह परजीवी अपने लिए एक यजमान की खोज में है। अगर उसे यजमान के यहां फलने फूलने में असुविधा होती है। तो वह अनेक मामलों मेंे स्वयं यौनिक पुनर्उत्पादन कर लेता है । चूहे के मस्तिष्क में बैठकर ये परजीवी उसके दिमाग में ऐसा लसदार पदार्थ डोपामीन छोड़ता है जो कि स्वभाव को नियंत्रित का लेता है। चूहे का स्नायुतंत्र इस पदार्थ से प्रभावित हो जाता है। फलस्वरूप चूहे की जिंदा रहने की प्रवृत्ति झूठी तसल्ली का शिकार हो जाती है । उसे जीवन सुहाना और बिल्ली के प्रति मैत्री भाव वाला प्रतीत होने लगता है । परंतु टी.गोंडी बच जाता है। अब और आगे की कल्पना कीजिए । उस बिल्ली की मालकिन एक गर्भवती महिला है । अब इस बात की संभावना है कि उसका अजन्मा बच्च सीजोफ्रेनिक हो सकता है । मान लीजिए वह गर्भवती महिला बिल्ली की गंदगी बाहर फेंककर रसोई में आती है । और बिना हाथ धोए सेब खा लेती है । परजीव रक्त के माध्यम से उसके मस्तिष्क में प्रवेश कर जाते है। अब उस नशीले लसदार पदार्थ डोपामीन की क्रिया प्रांरभ हो जाती है और महिला के व्यक्तित्व में परिर्वतन आना प्रांरभ हो जाता है। वह ग्लानि और अपना कर्तव्य ठीक से न निभा पाने की शिकार हो जाती है । जीवाणु गर्भनाल के माध्यम से गर्भ में प्रवेश कर उसे मानसिक अस्वस्थता की राह में धकेल सकते है । अनेक अध्ययनों से यह प्रमाणित हो चुका है कि अधिकांश सीजोफ्रेनिस मरीजों के खुन में टोक्सोंप्लाज्मा गोंडी बहुतायत में पाया गया है । पृथ्वी पर जीवन का आरंभ जीवाणुआें से ही हुआ है । जैसे ही बहुकोशकीय संरचनाआें का प्रादुर्भाव हुआ वैसे ही उनके एक कोशीय संरचनाआें से संबंध जटिल होते चले गए । परंतु प्राकृतिक चुनाव ने उन्हें साथ -साथ रहने को बाध्य कर दिया । अनेक सूक्ष्म जीवाणुआें ने बहुकोशकीय जीवों के अंदर अपना घर बना लिया । मनुष्य के शरीर में अपनी बस्ती बनाने के लिए इन जीवाणुआें ने अपनी जीवनपद्घति में कुछ परिवर्तन किए । उन्होंने अपने यजमान की जीवन पद्धति को अपनाना शुरू कर दिया । हालांकि यह आसान नहीं था क्योंकि उसका पाला सबसे जटिल और क्रमिक विकासशील जीवनशैली से पड़ा था । प्रारंभिक दौर में मनुष्य घुमंतु थे। वे शिकार करते फल और गुदेदार फल इकट्ठा करते और समुद्री खाद्य एकत्रित करते थे । ऐसे समय में विद्यमान मनुष्य जीवाणु संबंधों की प्रकृति को समझने के लिए वैज्ञानिको ने अफ्रीका के कालाहारी रेगिस्तान में रह रही बुशमेन जनजाति का अध्ययन किया । इस जनजाति के व्यक्ति छोटे और छितरे समूहों में रहते हैं और अन्य मानव समूहो के यदाकदा ही संपर्क में आते है । नृतत्वशास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि यदि जीवाणुआें को इन व्यक्तियों में जिंदा रहना है तो उन्हें भी इसी तरह जीना होगा । चूंकि ये जीवाणु भी व्यक्तियों के साथ अलग हो जाते है । अतएव वह अपने यजमान की प्रतिरोध शक्ति पर कब्जा नहीं कर पाते, न ही विषाक्त हो पाते हैं और अपने संवाहक को मारने में असमर्थ रहते हैं । इनमें से कुछ, जो धैर्यमान नहीं हाते विषैले हो जाते हैं और वे तेजी से संक्रमण फैलाकर पूरे समूह की ही हत्या कर अपने संवाहक के शरीर से बाहर निकल कर विलुप्त् हो जाते है। इसका समाधान सांमंजस्यपूर्ण सहअस्तित्व ही है । पूर्वकाल में अपने संवाहक या यजमान को मारना बुद्धिमतापूर्ण नहीं माना जाता था । खाद्य सुरक्षा और कृषि में हुई क्रांति के फलस्वरूप मनुष्य और जीवाणुआें के आपसी समीकरण मेंनाटकीय परिवर्तन आया । कृषि की वजह से मनुष्यों के समूह नजदीकआए । भंडारण आधारित कृषि उत्पादन की वजह से समय की बचत हुई । समुदाय बढ़े हुए और जनसंख्या का घनत्व भी बढ़ता गया । यही वह समय था जब जीवाणुआें ने अपनी जीवन पद्धति बदली और वे अधिक संक्रामक हो गए । जैसे-जैस मनुष्यों का अपसी संबंध बढ़ा जीवाणुआें की विषाक्तता में भी वृद्धि हेाती गई । ये आगंतुक अपने साथ नए सूक्ष्मजीवी जीवाणु लाते हैं और बदले में समुदाय उन्हें अपने जीवाणु देते हैं । यह एक अद्भुत लेन-देन है जिसके माध्यम से ये सूक्ष्मजीव पूरे विश्व में घूमते और फैलते हैं । कृृषि विस्तार से दो वस्तुआें की मांग में वृद्धि हुई एक तो खेती के लिए भूमि और दूसरी पालतू जानवरों की । पालतू जानवरों की आवश्यकता पेय पदार्थ जैस दूध व मांस और चमड़े के लिए भी बढ़ी । ह्यूमन इम्यूनो डेफिसिएन्सी वायरस (एच.आई.वी.) भी बंदर से छलांग मारकर मनुष्य में समा गया । मनुष्य को जिन १४१५ कीटाणुआें से संक्रमण होता है उनमें से ८६३ अर्थात ६० प्रतिशत से अधिक मूलत: जानवरों के संक्रमण हैं । हम प्रतिवर्ष सुनते हैं कि जानवरों से मनुष्यों कोे संक्रमण लग रहा है । इस वर्ष यह स्वाईन फ्लू है । इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उच्च्तम स्तर की महामारी घोषित किया है । मेक्सिको के सुअरबाडे से निकला यह वायरस अब सारे विश्व की सैर कर रहा है । पिछले कुछ वर्षोंा में हम मेड काऊडिसीज, एवियन इंफ्लूएंजा (बर्ड फ्लू) और सार्स के बारे में सुन चुके है । वैज्ञानिकोंने हेलिकोबेक्टर पायलोरी नामक जीवाणु की दैनन्दिनी का वर्षोंा अध्ययन कर पता लगाने में सफलता हासिल कर ली है कि यह जीवाणु मनुष्य के शरीर में किस प्रकार घर बनाता है । मनुष्य के पेट में रहने वाले इस जीवाणु के संक्रमण से शायद ही कोई मनुष्य अछूता रहा हो । यह किसी संक्रमित मनुष्य के साथ भोजन करने से लार के माध्यम से या किसी प्रभावित व्यक्ति के मल से प्रदूषित पानी या खाद्य पदार्थ से फैलता है । यह मनुष्य के पेट में बड़ी कॉलोनी बसा लेता है और इससे पेट की गंभीर बीमारियां हो जाती हैं तथा २ से २० प्रतिशत तक मरीज गेस्ट्रिक अल्सर से लेकर कैंसर तक की पीड़ा भोगते है । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने १९९४ में इसे कैंसर फैलाने में मुख्य सहायक घोषित भी कर दिया है । पश्चिम में इसके उपचार में काफी सफलता भी पा ली है । परंतु इसी दौरान इसी से मिलती जुलती बीमारियों जैसे अम्ल का बढ़ना (एसीडिटी) और आहार नली के कैंसर में जबरदस्त वृद्धि हुई है । कुछ जीवाणु मानव शरीर पर लाभकारी प्रभाव भी छोड़ते है । ये ऐसा क्यों करते हैं ? इसका उत्तर है ये पहले शरीर में एसिड को समाप्त् करके अपने संवाहक को जिंदा रखने एवं दूसरा पाचन तंत्र में रोग फैलाने वाले विषाणुआें को रोकने के लिए सबसे अधिक लाभ पहुंचाने वाले जीवाणु भी व्यक्तिगत रूप से विश्वासघाती होते है । वे वर्तमान व्यवस्था से विद्रोह कर देते हैं और अपनी पूरी ऊर्जा को पुर्नउत्पादन में लगाकर अपनी संख्या बढ़ाने में लग जाते हैं । जैसे ही ये बहुतायत में आ आते है यजमान को गेस्ट्रिक अल्सर हो जाता है । मानव शरीर का बाहरी आवरण करोड़ो सूक्ष्मजीवियों से अटा रहता है । जैसे ही हम कपड़े बदलते है वैसे ही त्वचा के जीवाणु भी बदल जाते हैं । भिन्न वस्त्र जैसे सूती या ऊनी का अर्थ है अलग प्रकार के जीवाणु । हमारे अंगूठे और उंगलियों के बीच के स्थान में एक करोड़ से अधिक जीवाणु निवास करते है । मानव व्यवहार के समझने के लिए वैज्ञानिक इन्हीं जीवाणुओ ंका सहारा ले रहे हैं । खांसने और छीकने को लेकर हमारी मान्यता यह है कि शरीर से अवांछित बाहर आ रहा है । परंतुू संभव है कि यह जीवाणु स्वयं की कभी भी बेहतरी के लिए बाहर नहीं लाता । वायरस की क्षमता है कि वह अपनी पहचान को छुपाकर अपने प्रत्येक आक्रमाण के द्वारा यजमान की रोग प्रतिरोधक क्षमता को नष्ट करता है । एचआईवी का वायरस भी ऐसे ही हमला करता है । आवश्यकता इस बात की है कि इन्हें हम मात्र संक्रमण फैलाने वाला मानने की बजाए अपने शरीर में घूमने वाले यात्री माने । ***
नदियों में पानी की गुणवत्ता की निगरानी
केन्द्रीय जल आयेग ने देश की सभी प्रमुख नदियों की घाटी में महत्वपूर्ण स्थानों पर जल की गुणवत्ता की निगरानी करने का काम अपने हाथ मे ंलिया है । एक आधिकारिक जानकारी के अनुसार देशकी प्रमुख नदियों के २५८ जल निगरानी स्थलों पर प्रथम चरण की प्रयोगशालाएं काम कर रही हैं, जकि दूसरे चरण की प्रयोगशालाएं २४ प्रखण्ड कार्यालयों में हैं और वे यह पता लगाती है कि पानी में कितना बैक्टिरिया और रासायनिक मिश्रण है । तीसरे चरण की चार प्रयोगशालाएं दिल्ली, वाराणसी, हैदराबाद और कोयम्बटूर में हैं । ये प्रयोगशालाएं ४१ मानकों पर पानी की निगरानी करती हैं और यह पता लगाती हैं कि इसमें कितना कीटनाशक एवं भारी तत्व है। आयोग इन सारे आंकड़ों को कम्प्यूटर में इकट्ठा कर हर साल स्थिति रिपोर्ट तथा हाइट्रोलोजिकल ईयर बुक निकालता है ।

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