पर्यावरण और वंशानुक्रम
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल
हमारे जीवन पर पर्यावरण के विविध भौतिक एवं जैविक कारकों का प्रबल प्रभाव बाह्य उद्दीपकों के रूप में अवश्य ही पड़ता है । इन प्रभावों के योग को ही पर्यावरण कहते है । यही पर्यावरण हमें बाह्यांतर रूप से आच्छादित रखता है ।पर्यावरण का प्रभाव का निर्विवाद रूप से है किन्तु यह प्रभाव वंशानुक्रम का भी परिणामी होता है। अर्थात पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हुए वंशागत गुणों में आनुवांशिक परिवर्तन परिलक्षित हो सकते हैं । जो निश्चित रूप से पर्यावरण कारकों से प्रभावित होते है । जो गुण दोष शक्तियां माता पिता के जनन कोशिकाआें, शुकाणु एवं अण्डाणु के संयुग्मन से युग्मनज (जायगोट) के रूप में आती है ।तो गुणसुत्रों पर स्थित पित्रेक (जीन्स)ही उनके गुण-दोषों के निर्धारित होते है। तथा वही उनके वाहक होते है। इन्ही जीन्स के द्वारा जीव के शरीर और जीवन में गुणोंं एवं विशिष्टताआें का विकास होता है । इसे ही वंशानुक्रम कहते है । यह गुण संततियो में आगे बढ़ते जाते है । और इन पर वातावरण का प्रभाव जन्म से मृत्यु तक रहता है । किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण में वातावरण कुछ प्रभावी होता ही है किन्तु पित्रेक गुणों का भी प्रभाव होता है । यद्यापि कुछ लोग पर्यावरण के प्रभावों को अधिक कारगर मानते है । जबकि कुछ अन्य लोग वंशानुक्रम के प्रभावोंे की प्रभावित को अधिक महत्व देते है । किन्तु यदि सम्यक एवं संतलित चिंतन किया जाये तो यह दोनो ही दृष्टिकोण अतिवादित से ग्रसित प्रतीक होते है । वास्तव में पर्यावरण एवं वंशानुक्रम,यह दोनो ही शक्तियाँ सम्मिलित रूप से जीव पर प्रभावी है । इनमें से किसी को भी कमतर नहीं आंका जा सकता है । अनेक चिंतकों विचारको एवं दर्शन शास्त्रियों ने समय समय पर अपने मन मन्तव्य प्रकट किये है । रूसों और पीयर्सन ने वंशानुक्रम को अधिक महत्वपूर्ण माना है। उनके अनुसार व्यक्ति के शारीरिक एवं नैतिक गुणों में गहरा सम्बन्ध होता हैं गाल्टन ने भी जुड़वा बच्चें का उदाहरण देते हुए इसी बात पर बल दिया है कि वंशानुक्रम का प्रभाव प्रबल है क्योंकि अलग अलग वातावरण में रहते हुए भी जुड़वाँ बच्च्े एक समान गुण दर्शाते है । इन विचारों से इतर सोचते हुए वातावरण की प्रभाविता के पक्ष में दार्शनिक लाक ने अपना मत रखते हुए कहा है कि वातावरण की प्रभाविता के अनुसार ही जीव की प्रवृत्तियाँ बनती है और गुण विेकसित होते है । फ्रंासीसी विद्वान हेलवीसियस के अनुसार भिन्न परिस्थितियाँ में लालन पालन योग्यता को बढ़ाता है ।और उसमें नये गुण समाविष्ट होते है । इग्लैण्ड के विद्वान रावर्ट ओवेन के मतानुसार भी अच्छी परवरिश तथा शिक्षा दीक्षा के द्वारा व्यक्ति को योग्यतम बनाया जा सकता है । जर्मनी के दार्शनिक हरबार्ट के अनुसार विचार ही परिवर्तन के उद्दीपक होते है । कहा जा सकता है कि जैसी सोच वैसा ही संसार । सार रूप मेें यही निष्कर्ष निकलता है कि पर्यावरण की प्रभाविता के साथ -साथ वंशानुक्रम भी जीवन को अंतरंगत रूप से प्रभावित करता है । भारतीय मनीषा जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि के सिद्धान्त की पक्षधर है । साथ ही संस्कारों को अतिशय महत्व देती है । हमारे संस्कारों का भी हमारी गुणता से गहरा सम्बन्ध होता है । हमारे संस्कारो में इसीलिए गर्भधान को भी संस्कार माना गया है । प्राणी में गर्भाधान के समय जब बीजकोष बनता है । तो उससें माता और पिता दौनो के ही गुणसूत्र प्राप्त् होते है ं जिनका संयोजक विशिष्ट होता है । गुणसूत्रोंपर असंख्य जीन्स होंते है । प्रत्येक जीन गुण वाहक होता है । साधारणतया: वंशानुक्रम के तीन नियम प्रतिपादित है ं प्रथम के अनुसार समान से समान की उत्पति,द्वितीय भिन्नता का नियम तथा तृतीय प्रतिगमन का नियम । प्राय: शिशु अपने माता पिता,दादा दादी या नाना नानी से मिलता है । एक प्रजाति से उसी प्रजाति के जीव पैदा होते है । वातावरण के प्रभाव से प्रजातियाँ के गुणों में भिन्नता आती है । जो आगामी पीढ़ियों में चली जाती है । कभी -कभी बालक अपने कुल और वंश से अनेखा एवं विलक्षण होजाता है । ऐसे विलक्षण बच्चें के अनेकानेक उदाहरण हमें देखतें और सुनने को मिलते रहतें है । इसी आधार पर बच्च्े जन्मजात प्रतिभा के धनी होते है ंवह अबोध होने पर भी किसी कार्य विशेष में दक्ष होते है । बीजमैन ने जीवद्रव्य की निर्विहनता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया उनके अनुसार माता पिता के जीन्स संयोगों के द्वारा युग्मनज (जायगोट) बनता है जोविदलन (क्लीवेज )क्रिया से दो भागो में विभक्त हो जाता है । जीवकोष (जर्म सेल ) तथा शरीर कोष (बॉड़ी सेल) जीवकोष कभी नष्ट नही होते और पीढ़र दर पीढ़ी चलते है और वंशवृद्वि करते हैं । जीवन में कुछ गुण पत्रिका के अनुसार मिलते हैं तथा कुछ गुण पर्यावरण के प्रभाव से अर्जित होते है । जिनका अंाशिक प्रभाव आनुवंशिक हो जाता है और जो नये नये जीनी संयोग बनाता ह। इसी से प्रतिगमन जन्मता है । लेमार्क ने यह बतलाया कि प्रत्येक प्राणी अपने वातावरण के अनुकूल ही स्वयं को ढालता है। उसी के अनुरूप उसमें संरचनात्मक कार्यात्मक तथा व्यवहारी परिवर्तन परिलक्षित होते है और इन परिवर्तनों मे से कुछ परिर्वतन उसकी संतान में चले जाते है यह उत्परिर्वतन भी विभिन्नताआें का कारण है । डार्विन ने कहा कि वातावरण मुख्य भुमिका निभाता है । प्राणी सदैव वातावरण से अर्न्तक्रिया करता है । जिसके परिणाम स्वरूप परिवर्तन पीढ़ियों में हस्तांतरित हो जाते है । यहाँ यह भी सत्य है कि यह परिर्वतन उत्परिवर्तित होकर सदैव ही वंशानुगत नहीं होते है । जीव की ग्राह्यता भी महत्वपूर्ण होती है । यहाँ हमें यह बात भली भांति समझनी चाहिए कि मूलत: वंशानुक्रम और पर्यावरण परस्पर विरोधी नहीं है वरन सहयोगी है । दोनो को अलग करके नही देखा जा सकता है कोई भी प्राणी दोनो संघात से ही बनता है । दोनो के योग से ही बनता है । केवल एक के द्वारा उसका परिमार्जन एवं जीवन नहीं चल सकता है। वंशानुक्रम एवं वातावरण दोंनो की सम्मिलित शक्तियाँ उसमें सन्निहित रहती है । वंशानुक्रम एवं वातावरण के वास्तविक सम्बन्ध को बीज और वृक्ष के उदाहरण से भी समझा जा सकता है । यही तो सृष्टि के सूक्ष्म और विराट का मर्म है । प्रत्येक बीज में वह शक्ति अर्न्तनिहित होती है कि वह विशेष प्रकार के पेड़ पौधे में बदल सकता है जिसका कि वह बीज रहा है । उसकी जन्मजात शक्ति तभी मूर्तमान होती है जबकि उसे उचित वातावरण अपनी शक्तियों के विस्तार यथा अंकुरण, पल्लवन एवं पुष्पन हेतु प्राप्त् होता है । यदि इसे नमी, प्रकाश वायु और ताप न मिले वह अंकुरित नही होता है ।यदि बीज को भून दिया जाये तो भी वह अंकुरण क्षमता खों देता है। अत: वातावरण ही वंशानुक्रम को न्यासंगति देता है । जो विशिष्ट शक्तियाँ गुण एवं दोष गर्भाधान के समय जीवकोष को मिल जाते है । उन्हें हम वंशानुक्रम का परिणााम मानते है । गर्भ में आ जाने पर एवं जन्म के बाद बालक पर अनेक उद्दीपनोंं का प्रभाव पड़ता है। इन प्रभावक उद्दीपनो के योग को ही पर्यावरण कहते है। गर्भस्थ शिशु का शरीर उसकी बुद्धि एवं अनेक गुणों अवगुण उसें वंशानुक्रम से ही मिलते है एवं उनका विकास वातावरण पर निर्भर होता है । अत: हमारे जीवन में वातावरण एवं वंशानुक्रम दोनो का ही सम्मिलित महत्व है । हम जरायुज एवं योंनिज मनुष्य अपनी माँ के गर्भ में गर्भनाल के द्वारा ही तो जुड़े रहकर पोषण पाते है । यद्यपि जन्म के पश्चात माँ से नाल सम्बध टूट जाता है किन्तु माता ही अपने ऑचल के दूध से कुछ माह तक हमारा पोषण करती है। फिर धीरे -धीरे शिशु अपनी माता एवं पिता के पैतृक संरक्षण में पलता एवं बढ़ता है। वही उसकी रहनी-सहनी कर ध्यान करतें है। धीरे-धीरे विकसित होते हुए हम मातृ वत्सला धरती और पितृतुल्य आकाश के बीच अपनी गतिविधियों का अंनत विस्तार कर लेते है। हम वंशानुक्रम देने वाले जनक के भी ऋणी हैं तथा प्रकृति और पर्यावरण के ऋणी है हम परमात्मा के ऋणी है। जिन्होने कर्म हेतु हमें योनिेश्रेष्ट देह प्रदान की है । ***
स्टेमसेल से उगेंगे नए दांत
दुर्घटना में या कुछ बीमारियोंं की वजह से अपने अनमोल दांत के साथ चेहरे की खूबसूरती खो देने वालों के लिए खुशखबरी हैं क्योंकि जल्द ही नकली दांत या बत्तीसी लगवाने से छुट्टी मिल जाएगा। ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने दुनिया में पहली बार स्टेमसेल की मदद से कृत्रिम तौर पर दांत उगाने में कामयाबी पाई है । यह आपके सामान्य दांत की तरह है, जिसे दर्द महसूस होता है । इससे आप आराम से खाना चबा सकते है । वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में स्टेमसेल की मदद से चूहों में दांत उगाएं । शोधकर्ताआें का कहना है कि जल्द ही इस तरीके से इंसानो में भी नए दांत उगाए जा सकेंगे । जापानी प्रोफेसर तकाशी सुजी का दावा है कि इस तकनीक से बीमारी या दुर्घटना की वजह से खराब हुए हृदय , फेंफड़े और किडनी भी शरीर के अंदर दोबारा विकसित किये जा सकते हैं । स्टेमसेल अपनी जैसी अन्य कोशिकाआें के उत्पादन की क्षमता रखती हैं । टोक्यो यूनिवर्सिटी आफ साइंस के शोधकर्ताआें ने दो किस्म के स्टेमसेल की खोज की । ये दोनों मिलकर एक दांत को पूरी तरह से विकसित करते हैं । डॉ. काझुहिशा नाकाआें ने कहा कि हमें प्रयोगशाला में पांच दिनों बाद उसमें नन्हें दांत के चिन्ह मिले । इसे चूहे के जबड़े में टूटे हुए दांत की जगह काफी अंदर तक प्रत्यारोपित किया गया ।
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