बिगड़ सकता है चाय का जायका
जलवायु में हो रहें गंभीर परिवर्तन के बुरे परिणामोे की वजह से असम चाय का अस्तित्व खतरें में है । यह खतरा लंबे समय तक सूखे की स्थिति बने रहने को लेकर है । चाय के लिए अक्सर होने वाली बारिश की जलवायु सबसे उपयुक्त मानी जाती है । काफी दिनों तक सूखा पड़ने से चाय पौधे के कोंपल वाली नाजुक पत्तियाँ विकसित नहीं हो पाती हैं । चाय पत्तियाँ जितनी नाजुक होती हैं, चाय उतनी ही अच्छी मानी जाती है जिस तरह असम की जलवायु में बदलाव आ रहा है, उसने चाय विशेषज्ञों को चितंा में डाल दिया है । गुवाहाटी के क्षेत्रीय मौसम केंद्र के अध्ययन पर भरोसा करें तो पिछले एक दशक से इस क्षेत्र में बारिश का औसत कम होता जा रहाहै । चाय पर शोध के लिए जोरहाट में स्थापित संस्थान- टोकलाई एक्सपेरिमेंटल स्टेशन के विशेषज्ञोें ने चाय की गुणवत्ता पर जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि का प्रभाव पर अध्ययन भी आरंभ कर दिया है । निदेशक मृदुल हजारिका के अनुसार संस्थान के वैज्ञानिकों ने चाय के जायके पर जैविक दबाव के प्रभाव पर अध्ययन आरंभ कर दिया है । खास बात यह है कि पूर्वोतर को विश्व का सबसे नमी वाला क्षेत्र माना जाता है । सबसे ज्यादा बारिश के लिए चेरापूंजी प्रसिद्ध है । लेकिन अब चेरापूंजी में भी बारिश कम होती है । अब सबसे अधिक बारिश का केंद्र वहाँ से हटकर मेघालय के ही मौसमग्राम चला गया है। तथ्य सामने आए हैं कि पिछले तीस वर्षोंा में पूर्वोत्तर में बारिश में सर्वाधिक कमी आई हैं । कभी-कभी तो औसत से सैंतीस फीसदी तक कम बारिश हो रही है । पिछले दो दशकों के दौरान गर्मी के दिनों में औसत तापमान में पाँच फीसद तक की वृद्धि दर्ज की गई है । आज से दस साल पहले तक शिलांग में हर मौसम में रात को ठंड हो जाती थी । वहाँ घरों में पंखे और फ्रीज का जरूरत नहीं पड़ती थी । अब गर्मीं में वहाँ भी पंखे और ऐसी का उपयोग हो रहा है । विशेषज्ञ मानते हैं कि लंबे समय तक सूखे की स्थिति रहने से चाय के पौधे का आकार भी बदल सकता है । इसलिए वैकल्पिक उपाय की तलाश जरूरी है । कुछ चाय बागानों ने कृत्रिम बारिश की व्यवस्था अपने बागानों में की है । जलवायु में हो रहें गंभीर परिवर्तन के बुरे परिणामोे की वजह से असम चाय का अस्तित्व खतरें में है । यह खतरा लंबे समय तक सूखे की स्थिति बने रहने को लेकर है । चाय के लिए अक्सर होने वाली बारिश की जलवायु सबसे उपयुक्त मानी जाती है । काफी दिनों तक सूखा पड़ने से चाय पौधे के कोंपल वाली नाजुक पत्तियाँ विकसित नहीं हो पाती हैं । चाय पत्तियाँ जितनी नाजुक होती हैं, चाय उतनी ही अच्छी मानी जाती है जिस तरह असम की जलवायु में बदलाव आ रहा है, उसने चाय विशेषज्ञों को चितंा में डाल दिया है । गुवाहाटी के क्षेत्रीय मौसम केंद्र के अध्ययन पर भरोसा करें तो पिछले एक दशक से इस क्षेत्र में बारिश का औसत कम होता जा रहाहै । चाय पर शोध के लिए जोरहाट में स्थापित संस्थान- टोकलाई एक्सपेरिमेंटल स्टेशन के विशेषज्ञोें ने चाय की गुणवत्ता पर जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि का प्रभाव पर अध्ययन भी आरंभ कर दिया है । निदेशक मृदुल हजारिका के अनुसार संस्थान के वैज्ञानिकों ने चाय के जायके पर जैविक दबाव के प्रभाव पर अध्ययन आरंभ कर दिया है । खास बात यह है कि पूर्वोतर को विश्व का सबसे नमी वाला क्षेत्र माना जाता है । सबसे ज्यादा बारिश के लिए चेरापूंजी प्रसिद्ध है । लेकिन अब चेरापूंजी में भी बारिश कम होती है । अब सबसे अधिक बारिश का केंद्र वहाँ से हटकर मेघालय के ही मौसमग्राम चला गया है। तथ्य सामने आए हैं कि पिछले तीस वर्षोंा में पूर्वोत्तर में बारिश में सर्वाधिक कमी आई हैं । कभी-कभी तो औसत से सैंतीस फीसदी तक कम बारिश हो रही है । पिछले दो दशकों के दौरान गर्मी के दिनों में औसत तापमान में पाँच फीसद तक की वृद्धि दर्ज की गई है । आज से दस साल पहले तक शिलांग में हर मौसम में रात को ठंड हो जाती थी । वहाँ घरों में पंखे और फ्रीज का जरूरत नहीं पड़ती थी । अब गर्मीं में वहाँ भी पंखे और ऐसी का उपयोग हो रहा है । विशेषज्ञ मानते हैं कि लंबे समय तक सूखे की स्थिति रहने से चाय के पौधे का आकार भी बदल सकता है । इसलिए वैकल्पिक उपाय की तलाश जरूरी है । कुछ चाय बागानों ने कृत्रिम बारिश की व्यवस्था अपने बागानों में की है ।
बादलों की बुवाई
मानसून के बादलों के नखरों से आजिज आ चुके भारतीय मौसम वैज्ञानिकों ने अब बादलों की बुवाई करने की दिशा में गंभीरतापूर्वक कदम बढ़ा दिए हैं और इस बार आकाश में जाकर बादलों के मिजाज को परखने की तैयारी कर ली गई हैं । भारतीय मौसम वैज्ञानिकों ने यह कदम ऐसे समय उठाया है जब इस साल सामान्य से कम बारिश की भविष्यवाणी से देश त्रस्त है और विशेष रूप से उत्तर-पश्चिमी भाग को सिर्फ ८१ प्रतिशत वर्षा मिलने की खबर से सरकार के माथे पर भी पसीना आ रहा है । इस साल देश में ९३ प्रतिशत दीर्घावधि औसत वर्षा का अनुमान जाहिर किया गया है । पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय में सचिव डॉ. शैलेश नायक ने बताया कि बादलों की बुवाई यानी क्लाउड सीडिंग की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए भारतीय वैज्ञानिक आकाश में बादलों के पास जाकर उनकी रासायनिक प्रकृति और गुणों के बारे में जानकारी हासिल करेंगें । इससे वैज्ञानिकों को बादलों के मिजाज का पता चलेगा और इस बात की सही-सही जानकारी मिल सकेगी कि कौन से बादल सिर्फ गरजते हैं और कौन से बादल वाकई बरसते हैं । भारतीय मौसम विभाग के विशेषज्ञो ने इस मानसून में बादलों के साथ बैठकर वहाँ उनके साथ प्रयोग विवादों से भी दूर नहीं है । इसे बारिश की चोरी भी माना जाता रहा है क्योंकि इसमें उन बादलों को एक क्षेत्र विशेष में बरसने के लिए विवश किया जा सकता है जो किसी दूसरे इलाके में बरसने थे । इससे प्रकृति के संतुलन और क्षेत्रीय विवाद पढ़ने के भी खतरे हैं ।
सौर-ऊर्जा आयोग के गठन की योजना
परमाणु ऊर्जा के बाद अब प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह सौर-ऊर्जा की संभावनाआेंका दोहन करने की दिशा में बड़े पैमाने पर कदम उठाने की तैयारी कर रहे हैं । सौर-ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए परमाणु आयोग की तरह सौर-ऊर्जा आयोग के गठन के प्रस्ताव पर विचार किया जा रहा है । डॉ.सिंह चाहते है कि जिस तरह हैंडपंप ने ग्रामीण इलाकों में पीने के पानी की समस्या का एक हद तक समाधान किया था, ठीक उसी तरह सौर-उर्जा के माध्यम से ऊर्जा समस्या का हल निकाला जाए । पिछले दिनों जलवायु परिवर्तन से संबंधित सलाहकार परिषद की बैठक में डॉ.सिंह ने इस बात पर जोर दिया कि भारत को साफ-सुथरी ऊर्जा के विकल्पों का बड़े पैमाने पर दोहन करना चाहिए । सौर-ऊर्जा टेक्नोलॉजी का ग्रामीण इलाकों में प्रचार-प्रसार करने के लिए मिशन मोड में अभियान चलाने की जरूरत महसूस की गई । सौर-ऊर्जा को लोकप्रिय बनाने में सबसे बड़ी बाधा आरंभिक खर्च के रूप में बड़ी राशि है । डॉ. मनमोहन सिंह चाहते हैं कि सौर-ऊर्जा अभियान में निजी क्षेत्र की कंपनियों के साथ मिलकर इसकी लागत में भारी कटौती की जा सकतीहै । भारत सरकार का लक्ष्य यह है कि वर्ष २०५० तक सौर-ऊर्जा में माध्यम से २ लाख मेगावाट बिजली का उत्पादन होना चाहिए । इस लक्ष्य को प्राप्त् करने के लिए सरकार को कई हजार करोड़ रूपए सबसिडी के तौर पर खर्च करने होंगे । प्रधानमंत्री ने बैठक में कहा कि सौर-ऊर्जा की लागत घटाने के लिए वैज्ञानिको को विशेष प्रयास करनेचाहिए । सौर-ऊर्जा के विकास से जुड़े वैज्ञानिकों को विशेष प्रोत्साहन दिया जाएगा, ताकि वे इस क्षेत्र में नई व सस्ती टेक्नोलॉजी का विकास कर सकें ।
गरीब, गरीबी और आंकड़ो का खेल
इस देश में ठीक-ठीक कितने गरीब हैं, यह केंद्र सरकार भी नहीं जानती, हालाँकि उसके लिए यह जानना बेहद जरूरी है । यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह देश से गरीबी दूर करे । अगर उसे पता ही नहीं होगा कि कितने प्रतिशत लोग गरीब हैं तो वह उन तक पहुँचेगी कैसे ? सरकार ने खाद्य-सुरक्षा का नया कानून भी पास किया है जिसके अंतर्गत गरीब परिवारोंको तीन रूपए किलो पर प्रतिमाह २५ किलो अनाज दिया जाएगा । लेकिन सरकारी आँकड़े गरीबी के बारे में अलग-अलग कहानी कहते है । अभी इसमें एक और कहानी प्रधानमंत्री के पूर्व आर्थिक सलाहकार सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में बनी एक समिति ने जोड़ दी है । योजना आयोग ने २००४-०५ में कहा था कि देश के २७.५ प्रतिशत लोग गरीब हैं, जबकि उसने १९९३-९४ में इनकी संख्या ३६ प्रतिशत बताई थी । सन् २००७ में अर्जुनसेन गुप्त की अध्यक्षता में बनी एक समिति ने अपनी चर्चित रिपोर्ट में गरीबों की संख्या ७७ प्रतिशत बताई थी, जिनकी आमदनी २० रूपए या उससे कम है । बाद में इस वर्ष जून में एन.सी. सक्सेना की अध्यक्षता में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने जो समिति बनाई थी, उसने गरीबों की संख्या आबादी का ५० प्रतिशत बताई थी । अब तेंदुलकर समिति ने गरीबों की संख्या ३८ प्रतिशत बताई है । आँकड़ों के इस खेल से एक बात जरूर स्पष्ट है कि योजना आयोग ने गरीबी और गरीबों के जो आँकड़े दिए थे, वे पूरी तरह गलत थे, जबकि योजना आयोग वह सर्वोच्च् संस्था है, जो देश के विकासकी दीर्घकालिक-सुविचारित योजना बनाने के लिए जिम्मेदार है और जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री हैं। बहरहाल सरकार किन आँकड़ों पर विश्वास करें ? शायद वह ताजा आँकड़ों पर विश्वास करना पसंद करेगी, जो योजना आयोग के आँकड़ों के मुकाबले भले ही १०.५० प्रतिशत अधिक हों, मगर फिर भी अर्जुन सेन गुप्त तथा एनसी सक्सेना समिति के आँकड़ो के आधार पर गरीबों का अनाज पर सबसिडी देनी है । वैसे गरीबी का आकलन कैसे किया जाए, यह हमेशा अर्थशास्त्रियों में विवाद का विषय रहा है। अभी तक ग्रामीण इलाकों में २४०० कैलोरी तथा शहरी क्षेत्रों में २१०० कैलोरी भोजन खरीदने की उनकी क्षमता, गरीबी को मापने का आधार रहा है, लेकिन अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग कहता रहा है कि गरीब के लिए कपड़ा, मकान की चिंता कौन करेगा ? उसके लिए सम्मानजनक जीवन जीने के लिए जरूरी संसाधनों की चिंता कौन करेगा, जिसमें बच्चें को उचित शिक्षा देना भी शामिल है । बहरहाल तेंदुलकर समिति ने गरीबी के आँकड़ों के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता, पौष्टिक भोजन, आय आदि को आधार बनाया है, यह स्वागत योग्य है । इसके साथ ही गरीब और गरीबी को लेकर एक सर्वसम्मत राय बननी चाहिए , जिससे गरीबों की भलाई की योजनायें ठीक से लागू हो सके ।***
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