शनिवार, 19 सितंबर 2009

५ जनजीवन

बाढ़ के साथ जीने के सबक
- सुश्री रेशमा भारती
बाढ़ नदी की प्रकृति का एक हिस्सा रही है । नदियों में बाढ़ का आना उतना ही स्वाभाविक है जितना कि बारिश का आना या नदियों का समुद्र में मिलना । नदी अपनी अतिरिक्त जलराशि और मिट्टी-गाद को समय-समय पर उफनकर आसपास बिखराती चलती है । हमारी सदियों की परम्परा ने हमें नदी की प्राकृतिक बाढ़ के साथ रहना और अपने जान-माल की रक्षा के प्रयास करना सिखाया है । जैसे-जैसे नदी के प्राकृतिक स्वरूप को नियंत्रित करने और नदी जल का अधिकाधिक दोहन करने के प्रयास हुए, वैसे-वैसे बाढ़ भी अस्वाभाविक और विकराल रूप में सामने आयी एक और पन बिजली उत्पादन और बाढ़ नियंत्रण के नाम पर देशभर में बांधों और तटबंधों का विशाल जाल फैला । दूसरी ओर बाढ़ भी समय, स्थान, विकरालता और तबाही की दृष्टि से अजीबोगरीब और भंयकर रूप में प्रकट हुई । प्राकृतिक बाढ़ खेती के लिए फायदेमंद हुआ करती थी । नदियों के ईद गिर्द सभ्यताआें के विकास का आधार इसमें ढूंढा जा सकता है । बाढ़ के माध्यम से नदी आसपास के क्षेत्र को उपजाऊ बनाने की क्षमता रखती है । नदी के साथ बहकर आती उपजाऊ पोषक तत्वों वाली मिट्टी या गाद बाढ़ के दौरान आसपास बिखर जाती और तटीय क्षेत्रों को खेती की दृष्टि से उपजाऊ बनाती । इस तरह खेती के लिए जमीन को उपजाऊ खाद प्राकृतिक रूप से ही मिल जाती थी और उपज के लिए बस बीज बोने भर की देर रहती । बाढ़ का पानी भूमिगत जलस्तर में बढ़ोतरी करता । देश के कुछ भागों में इस पानी को सहेजकर तालाबों में एकत्र करने की परम्परा भी रही थी । बरसों से नदी किनारे रहने वाले साधारण स्थानीय लोग नदी के साथ एक रिश्ता महसूस करते आए हैं । नदी उनके लिए माँ है, देवी है । नदी के बदलते स्वभाव से भी वे परिचित रहे और उसके अनुकूल व्यवहार से नदी की इस प्राकृतिक देन का भरपूर लाभ लिया जा सका । नदी किनारे बसे लोगों के घर, खान-पान संबंधी आदतें और जीवन शैली बाढ़ के अनुरूप विकसित हुई । स्थानीय संस्कृतियों में बाढ़ के महत्व को समझते हुए उसके आने और वापिस लौट जाने संबंधी प्रसंगों की चर्चा मिलती है । ऐसा नहीं है कि परम्परागत समुदाय बाढ़ से सुरक्षा के उपाय नहीं करते थे, पर इन उपायों ने जब भी नदी के मूल प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड़ नहीं की, तब-तब बाढ़ का लाभ भी ये समुदाय ले पाए । नदी की बाढ़ हमारे लिए वास्तविक समस्या तब बनी जब हमने अपने `विकास' के आगे नदी के प्राकृतिक स्वरूप की अवहेलना की । प्राकृतिक बदलाव के विरूद्ध जाकर जब हमने नदी को अपने अनुकूल नियंत्रित, कैद और दोहित करना चाहा, तो नदी की बाढ़ भी अप्रत्याशित विकराल रूप में प्रकट हुई । देशभर से प्राप्त् समाचार इस हकीकत को बयान कर रहे हैं कि किस तरह तरक्की और सुरक्षा के सूचक बांध, बैराज, तटबंध ही विनाश व अप्राकृतिक ढंग की बाढ़ों के सबब बन गए हैं । पहाड़ों पर बड़े पैमाने पर होने वाले वनकटाव, वृक्षकटाव ने उस प्राकृतिक कवच को छीन लिया जो बड़ी मात्रा में मिट्टी-पत्थर को बहकर नदी में गिराने से रोक सकता था । इससे नदियों के तल के जल्दी भरने और नदियों के उथले होने की प्रक्रिया शुरू हुई जिससे बाढ़ की संभावनाएं बढ़ीं । बांधों के बारे में यह दावा किया गया कि इनके जलाशय वर्षा के अतिरिक्त जल को अपने में सहेजकर फिर धीरे-धीरे नदी में उतारेंगे, जिससे नदी में बारिश का पानी एक साथ न आये । पर यह दावा भी खोखला साबित हुआ और बांध एक नए किस्म की अधिक विनाशकारी बाढ़ लाने वाले बन गए । व्यवहार में बांधों का मूल उद्देश्य बिजली उत्पादन रहा, न कि बाढ़ नियंत्रण और ये दोनों उद्देश्य परस्पर विरोधी साबित हुए । प्राय: देखा यह गया है कि अधिकाधिक बिजली प्राप्त् करने के उद्देश्य से बांध के जलाशयों को पहले से ही इतना अधिक भरके रखा जाता है कि उनमें बारिश का पानी समाने की पर्याप्त् क्षमता नहीं रहती । ऐसे में बारिश के दिनों में जलाशय के अपनी जल ग्रहण क्षमता से अधिक भर जाने से खतरा उत्पन्न हो जाता है । बांध को टूटने से बचाने के लिए ऐसी ऐसी स्थितियों में अचानक बड़ी मात्रा में पानी छोड़ने की नौबत आ जाती है । देश के कई इलाकों में ऐसी स्थितियों में अचानक बड़े पैमाने पर छोड़े गए पानी से तेजी से विकराल बाढ़ आने के समाचार आते रहे थे । कुछ क्षेत्रों मेें तो पानी छोड़े जाने की पर्याप्त् पूर्व सूचना के अभाव में ऐसे में कई तीर्थ यात्री या स्थानीय लोग मारे भी गए । बांध से अचानक कुछ पानी छोड़ने से वह पानी जिस वेग और तेजी से बहकर विनाशकारी बाढ़ लाता है । उससे ही यह कल्पना सिहरन पैदा कर देती है कि कभी कोई बांध टूट जाएगा तो कितनी भयंकर बाढ़ आएगी । ऐसी बाढ़ तो नदी किनारे के पूरे के पूरे गांवों, शहरों का अस्तित्व तक मिटा डालेगी । इसके अतिरिक्त पानी के उन्मुक्त प्रवाह को रोककर जहां-जहां बांध नदी के प्राकृतिक प्रवाह की गति को कम करता है, वहां-वहां नदी तल पर गाद अधिक बैठती जाती है और बाढ़ का कारण बनती है । बिहारी की कोसी नदी और उड़ीसा में आयी बाढ़ ने हाल के समय में बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाए गए तटबंधों की प्रतिकूल भूमिका पर बहस छेड़ दी है । इन इलाकों में यह बार-बार सिद्ध हुआ है कि बाढ़ नियंत्रण के नाम पर बनाए गए तटबंध वास्तव में विनाशकारी बाढ़ को निमंत्रण देने वाले साबित हो रहे हैं । तटबंध अगर कुछ इलाके को बाढ़ से सुरक्षित करने का दावा करते है, तो कुछ अंदर के (नदी व तटबंध के बीच) इलाके को बाढ़ व जल जमाव की दृष्टि से बहुत असुरक्षित भी बना देते हैं । यह कहा जाता है कि तटबंधों के बीच सिमट कर नदी अधिक वेग से बहेगी तो इसके जल पर ज्यादा गाद जमा नहीं होगी, पर व्यवहार में हमेशा ऐसा नहीं होता। नदी की गाद को व्यापक क्षेत्रफल मेंे न फैलाने देकर तटबंध बाढ़ की प्राकृतिक देन से वंचित कर रहे हैं । आमतौर पर देखने में यह आता है कि व्यापक क्षेत्र में न फैलकर अधिक गाद नदी के तल पर ही जमा होने लगती है और नदी का जल स्तर ऊपर उठता जाता है और तटबंध छोटा पड़ता जाता है । ऐसे में तटबंध की ऊंचाई आखिर कब तक बढ़ाई जा सकती है । कभी न कभी तो नदी तटबंध को लांघ ही लेगी । अपना मार्ग बदलने की प्रवृत्ति वाली और भारी गाद लेकर आने वाली नदियों पर तटबंध का निर्माण व्यर्थ ही है । पानी के दबाव, इंजीनियरिंग कमजोरियों, उचित रख-रखाव के अभाव, चूहों-छछूंदरों द्वारा बिल बनाए जाने आदि विविध कारणों के चलते तटबंधों में दरारें आती हैं या तटबंध टूटते हैं । और तब जो बाढ़ वेग से आती है उसका स्वरूप बहुत ही विकराल व विनाशकारी होता है। बिहार में आयी बाढ़ ज्वलंत उदाहरण है । तटबंधों से सुरक्षित हुए इलाके वास्तव में असुरक्षित अधिक हो जाते हैं। पता नहीं कब तटबंध टूट जाए या उसमें दरार आ जाए और बहुत विनाशकारी बाढ़ आ जाए । यहीं नहीं, उचित व्यवस्था के अभाव में तथाकथित सुरक्षित इलाकों का बहता या जमा पानी नदी तक नहीं आ पाता । सहायक जलधाराएं, बारिश का पानी या सहायक नदियां जब मुख्य नदी से उन्मुक्त रूप से नहीं मिल पाती, तो या तो इनका पानी उल्टा बहेगा या तटबंध के बाहर नदी के बहाव के साथ-साथ बहेगा और नए इलाकों को बाढ़ग्रस्त कर देगा । सहायक नदियों और मुख्य नदियों दोनों पर जब तटबंध बने होते है, तो ऐसे में जल जमाव की संभावनाए बढ़ जाती हैं । इस तरह देखने में प्राय: यह आ रहा है कि बाढ़ से सुरक्षा के कुछ उपाय बाढ़ के अधिक विकराल और अस्वाभाविक स्वरूप को आमंत्रण ही अधिक दे रहे हैं । ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम अपनी बाढ़ संबंधी वर्तमान सोच व नीतियों में परिवर्तन लाएं । जो बांध व तटबंध बन चुके हैं उनके रख-रखाव व प्रबंधन में विनाशक, अधिक वेग की बाढ़ से लोगों को सुरक्षा देने पर अधिकतम ध्यान दिया जाए । भविष्य में बड़े बांधों व तटबंधों के निर्माण को रोका जाए । बाढ़-नियंत्रण के लिए बेहतर निकासी व्यवस्था, नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में मिट्टी व जल संरक्षण व वनों की रक्षा पर बेहतर ध्यान दिया जाए। साथ ही सामान्य बाढ़ को सहने की बेहतर क्षमता विकसित करने की तैयारी होनी चाहिए जिससे परंपरागत ज्ञान से बहुत कुछ सीखा जा सकता है । ***

कोई टिप्पणी नहीं: