अंटार्कटिक में भारतीय स्टेशन २०११ तक तैयार
ध्रुवीय विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान एवं शोध की गति को तेज करने के उद्देश्य से अंटार्कटिक में भारत का तीसरा स्टेशन स्थापित किया जा रहा है और इसके २०११ तक पूरी तरह परिचालन में आने की उम्मीद है । पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव डॉ. शैलेश नायक ने कहा कि अंटार्कटिक में भारत का तीसरा स्टेशन स्थापित करने का कार्य शुरू हो गया है और पहले चरण के तहत सड़कों तथा छोटे कमरे जैसी बुनियादी संरचना का निर्माण शुरू किया गया है । उन्होंने कहा कि स्टेशन की स्थापना के संबंध में अनुसंधान से जुड़े संरचना की स्थापना का कार्य अगले वर्ष शुरू किया जाएगा । इस क्षेत्र में ९० दिनों के ग्रीष्मकालीन कैंप के मद्देनजर यह काफी महत्वपूर्ण है । श्री नायक ने कहा हमने स्टेशन की स्थापना के कार्य को एक चरण में पूरा करने के स्थान पर इसे दो हिस्सों में बांट दिया ताकि ऐसे कठिन क्षेत्र में कार्य को समय पर पूरा करने में सहुलियत हो। गौरतलब है कि अंटार्कटिक में भारत के तीसरे स्टेशन की स्थापना लार्समैनहिल के पास की जा रही है जो ६९ डिग्री दक्षिणी अक्षांश और ७६ डिग्री पूर्वी देशांतर के बीच स्थित है । श्री नायक ने कहा कि अंटार्कटिक जैसे कठिन क्षेत्र में जहाज के रखरखाव में काफी खर्च आता है और इस उद्देश्य से हमने एक परामर्शक को रखा है । इस संबंध में हमारे पास कई सुझाव आए है, जिसमें एक ऋतु में आर्कटिक क्षेत्र और दूसरी ऋतु में अंटार्कटिक क्षेत्र में अनुसंधान करने जैसी बातें शामिल हैं । अंटार्कटिक में तीसरे स्टेशन की स्थापना के लिए अंटार्कटिक पर्यावरण प्रोटोकाल संधि के तहत पर्यावरण मापदंडो के परीक्षण के अलावा लाजिस्टिक एवं वैज्ञानिक रूपरेखा के सर्वेक्षण का कार्य पूरा हो जाने के बाद निर्माण कार्य शुरू किया गया है । अंटार्कटिक में जीवन विज्ञान, पृथ्वी विज्ञान, हिसनदी से जुड़े वैज्ञानिक तथ्यों के परीक्षण के साथ वायुमंडल विज्ञान, औषध विज्ञान से जुड़े शोध किए जाएंगे ।
सोलर सिटी बनेगा शिरडी धाम
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध तीर्थ शिरडी को पूरी तरह सोलर सिटी बनाने की योजना है । इसकी शुरूआत शिरडी धाम के विशाल भोजनालय के सौर ऊर्जाकरण से हो रही है । विश्व में अपनी तरह की इस सबसे बड़ी परियोजना का उद्घाटन पिछले दिनों केन्द्रीय गैर-परंपरागत ऊर्जा मंत्री फारूक अब्दुल्ला ने किया । सांई बाबा के दर्शन के लिए प्रतिदिन हजारों लोग शिरडी पहंुचते हैं । श्रद्धालुआें के भोजन के लिए साइंर्बाबा मंदिर के निकट ही एक नए प्रसादालय (भोजनालय) का निर्माण किया गया है, जहां एक साथ पांच हजार लोग भोजन कर सकते है । इस प्रसादालय में सामान्य दिनों में प्रतिदिन ३५ से ४० हजार लोगों का भोजन पकता है और प्रसाद के लिए प्रतिदिन ३५ क्विंटल लड्डू तैयार किया जाता है श्री साइंर्बाबा संस्थान ट्रस्ट के अध्यक्ष जयंत ससाने के मुताबिक रसोई के इतने बड़े कारोबार में प्रतिवर्ष ५५५ मीट्रिक टन एलपीजी गैस खर्च होती है । इस पर आने वाले खर्च को रोकने के लिए साइंर्बाबा संस्थान ने १३३ करोड़ की लागत से स्वचालित सौर ऊर्जा संयंत्र स्थापित किया है । इस संयंत्र के लिए ५८.४ लाख रूपयों का अनुदान केंद्रीय गैर-पारंपरिक ऊर्जा विभाग ने दिया है । दुनिया में अपनी तरह के इस सबसे बड़े संयंत्र की स्थापना के बाद प्रतिवर्ष २९.८ लाख रूपए की ७४ मीट्रिक टन रसोई गैस बचाई जा सकेगी । इसके अलावा संस्थान को कार्बन के्रडिट के रूप में भी सरकार से धन प्राप्त् होगा । साथ ही २५ हजार की आबादी वाले शिरडी नगर पंचायत क्षेत्र को पुरी तरह से सोलर सिटी में परिवर्तित करने की भी योजना है । संस्थान के प्रवक्ता मोहन यादव के मुताबिक शिरडी में भक्तों के रूकने के लिए बनाए आवासों में सर्दियों में सौरऊर्जा से ही पानी गर्म होता है । इसके अलावा संस्थान ने अहमद नगर में बिजली उत्पादन के लिए दो पवनचक्कियां भी लगाई हैं जिनकी क्षमता १.२ मेगावाट है । इस परियोजना से अब तक ९२ यूनिट बिजली का उत्पादन किया जा चुका है। । संस्थान सौर ऊर्जा परियोजना की क्षमता को और बढ़ाने का विचार कर रहा है, ताकि विशाल रसोई का सारा काम सौर ऊर्जा से पूरा किया जा सके । उल्लेखनीय है कि देश में स्थापित कुछ बड़ी सौरकार्य प्रणालियों में राजस्थान के माउंट आबू, आंध्रप्रदेश के तिरूपति मंदिर और चैन्नई के सत्यभामा विश्वविद्यालय की प्रणाली भी शामिल है।
दिल्ली में हर महीने बयालीस करोड़ घंटे बर्बाद
दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में काम के लिए बाहर निकलने वाले लगभग ७० लाख लोग हर दिन ऑफिस आने-जाने में औसतन दो से ढाई घंटे बर्बाद करते हैं यानी दिल्ली सहित पूरा एनसीआर रोज करीब पौने दो करोड़ मानव घंटे केवल सड़कों पर गँवा देता है । एसोचेम ने यह जानकारी देते हुए पूरे महीने में बर्बाद हो रहे मानव घंटों का आँकड़ा दिया है । इस आँकड़े को अगर उस दौरान सड़क पर फँसी गाडियों से मिला दे तो बर्बाद होने वाले इंर्धन का गणित और भयानक होगा । इन आँकड़ों के पीछे एक ही कारण है ट्रेफिक जाम । एक ऐसी समस्या जिससे जितना निकलने की कोशिश की जा रही है, उतनी ही यह बढ़ती जा रही है । रिपोर्ट में बताया गया है कि दिल्ली में इस समय ६० लाख गाड़ियाँ हैं, जो २०१० तक बढ़कर ७५ लाख तक हो जाएँगी । पूरे एनसीआर को शामिल करें, तो २०१०तक इसके १.६ करोड तक पहुँच जाने का अनुमान है । इतनी गाडियाँ जब ट्रैफिक जाम में फँसी हों तो उनसे निकल रहे जहरीले धुएँ और जल रहे फालतू इंर्धन की आप कल्पा ही कर सकते हैं । ट्रेफिक जाम से होने वाले भारी नुकसान के इस पर्यावरणीय और व्यक्तिगत पहलू के अलावा एक बहुत महत्वपूर्ण सामाजिक पहलू भी है । आठ-नौ घंटे का ऑफिस-टाईम, आधे से एक घंटे का रास्ता और दो से ढाई घंटे का जाम यानी ढाई से साढ़े तीन घंटे की थकाऊ यात्रा सहित साढ़े दस से साढ़े बारह घंटे का व्यस्त जीवन । इसके बाद घर लौट रहे व्यक्ति से आप जिम्मेदारी उठाने की उम्मीद कर रहे हैं ? ऐसा व्यक्ति क्या अपनी सामाजिकता को जीवित रख सकता है ? ट्रैफिक जाम की समस्या परिवहन संबंधी सामान्य समस्या नहीं है । यह हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को भी गहराई से प्रभावित कर रही है, लेकिन उपाय क्या है ? इस पर काफी कुछ कहा जा चुका है । बिना निजी गाड़ियों को हतोत्साहित किए ट्रेफिक की विकराल होती समस्या पर काबू करना मुमकिन नहीं है । लेकिन सरकार यदि कुछ कड़े कदम उठाए तो उसे पहले तैयारी करनी होगी । ऐसे कदम उठाने का नैतिक अधिकार तब तक नहीं मिल सकता, जब तक कि सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को विकसित नहीं कर लिया जाता अन्यथा हम विकल्प तैयार नहीं करेंगे और मौजूदा सुविधा को रोक देंगे तो समस्या और बढ़ेगी । दिल्ली जैसे शहर में परिवहन व्यवस्था ठीक करने की जो कवायद आज चल रही है, वह १५ साल पहले हो जानी चाहिए थी और आज १५ साल आगे की योजना बनानी चाहिए थी । लेकिन बढ़ती जनसंख्या और मेट्रो शहरों में पलायन तो देश की मूल समस्या है ही और जब तक हम इन पर काबू नहीं पा लेते, ट्रेफिक की समस्या का स्थायी समाधान मुश्किल है ।
गर्म हो रहे हैं हिमालय के गांव
ग्लोबल वार्मिंग से हिमालय क्षेत्र में बसे गांव भी अछूते नहीं रहे हैं । इसका असर अनियमित बर्फबारी और छोटे ग्लेशियरोें के पिघलने के रूप में सामने आ रहा है । ऐसे में ठंडे प्रदेश के रूप में जाने वाले पश्चिमी हिमालय के गांव भी गर्म होने लगे है । आर्थिक रूप से पिछड़े स्थानीय समुदाय के लोगों को महसूस होने लगा है कि धीरे-धीरे गर्मी बढ़ती जा रही है । इसका असर जलापूर्ति, कृषि आधारित जीविका पर भी पड़ने लगा है । ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ढांचागत विकास भी प्रभावित होने लगा है । भारत-चीन सीमा पर बसे हिमाचल प्रदेश के लाहौर के एक गांव के जिला परिषद के वाइस चेयरमैन रिगजिन सैंफेल ने कहा कि वैज्ञानिक रूप से अभी हम यह स्थापित नहीं कर पा रहे हैं कि धीरे-धीरे तापमान बढ़ रहा है, लेकिन चढ़ते पारे को हम महसूस कर रहे हैं । उन्होंने कहा कि कुछ साल पहले तक गर्मी में यहां का तापमान १४ से १५ डिग्री सेल्सियस रहता था, जो अब ३० डिग्री सेल्सियस तक पहुंच रहा है । उन्होंने कहा कि छोटे ग्लेशियरों के पिघलने की वजह से पानी की कमी हो गई है । प्राकृतिक तालाब सूख रहे हैं और हम पानी के लिए झरनों पर निर्भर होते जा रहे हैं, लेकिन कृषि जरूरतों के लिए यह पर्याप्त् नहीं हैं । लेह इकोस के सेवानिवृत्त वरिष्ठ वैज्ञानिक अजीद मीर भी कुछ इस तरह का विचार रखते हैं । उन्होंने कहा कि वातावरण में काफी बदलाव आया है । उन्होंने कहा कि कुछ साल पहले तक यहां काफी बारिश होती थी, जो अब देखने को नहीं मिल रही । श्री मीर ने बताया कि खुर्दंग ग्लेशियर का अस्तित्व उनकी आंखो के सामने मिट गया । वैसे इस बदलाव के कुछ सकारात्मक असर भी देखने को मिल रहे हैं । तापमान मेंे बदलाव की वजह से अब यहां वे फसलें उगाई जाने लगी हैं, जो मैदानी इलाके में होती हैं । ***
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