बिना खून खींचे मलेरिया की जांच
काश, मलेरिया पुष्टि के लिए खून की जांच भी हो जाए और खून भी न निकालना पड़े- यानी सुई की चुभन और इससे होने वाले भय से मुक्ति । ऐसा लगता है कि इस सपने को हकीकत बनने में अब ज़्यादा देर नहीं है । ब्रिटेन के एक्सेटर विश्वविद्यालय के डॉ. डेव. न्यूमेन के नेतृत्व में बड़ी तेजी से एक ऐसा डिटेक्टर बनाने पर काम चल रहा है, जिसमें चुंबक का उपयोग किया जाएगा । इसे मोट-टेस्ट के नाम से भी जाना जाता है । डॉ. डेव को यह डिटेक्टर बनाने का ख्याल करीब चार साल पहले अपने एक जीव विज्ञानी मित्र से बातचीत के दौरान आया था । लेकिन बीच में एड्स को लेकर फैले भय के माहौल के चलते यह शोध पिछड़ गया । मलेरिया आज भी हर साल दुनिया भर में ५० करोड़ से अधिक लोगों को अपनी चपेट में लेता है और दस लाख से अधिक लोग मृत्यु के शिकार हो जाते हैं । मरने वालों में बच्चें की संख्या सबसे अधिक होती है । मलेरिया के टीके और उपचार के अन्य तरीकों पर काम समय-समय पर पिछड़ता रहा हैं । इसको प्राथमिकता बनाने में कभी रजानीति तो कभी व्यापारिक हित आड़े आते रहे हैं। दरअसल मलेरिया का परजीवी रक्त में मौजूद हीमोग्लोबिन को खाता है उसमें क्रिस्टल नुमा एक कण भी होता है जिसे हेमोज़ोइन कहते हैं । साधारण भाषा में हेमोज़ोइन को लोहे का ही रूप मान सकते हैं । हेमोज़ोइन के बारे में जानकारी काफी पहले से है । मलेरिया उपचार की खोज में लगे वैज्ञानिक इसका काफी अध्ययन कर चुके हैं । डॉ. डेव ने पाया कि चुंबक (या चुंबकीय प्रभाव) की उपस्थिति में हेमोज़ोइन प्रकाश को इस तरह सोखता है कि रक्त के अन्य पदार्थो के बीच आसानी से उसकी उपस्थिति का पता लगाया जा सकता है । दरअसल अभी तक मलेरिया के परजीवी की रक्त में उपस्थिति का पता लगाने का एक तरीका रहा है - सुई की मदद से रक्त के नमूने लेना और प्रयोगशाला में सुक्ष्मदर्शी की मदद से उनकी जांच करना । इसमें समय तो लगता है ही, साथ ही काफी दक्षता की भी जरूरत होती है । पिछले सालों में कुछेक एंटीबाडी आधारित जांच के तरीके आए हैं जिनके सहारे फील्ड में ही रक्त की जांच संभव है । एंटीबाडी वह पदार्थ होते हैं जिन्हें शरीर किसी बाहरी चीज़ के विरूद्ध बनाता है । लेकिन एक तो हर तरह के मलेरिया के लिए अभी ऐसे टेस्ट उपलब्ध नहीं है और दूसरे इनमेंे भी मरीज़ का खून तो निकालना ही पड़ता है । इनके अलावा गर्म इलाकों में एंटीबाडी आधारित तरीके ठीक से काम नहीं कर पाते । जांच का यह तरीका काफी मंहगा भी बैठता है ।डॉ. डेव चुंबक और प्रकाश आधारित अपनी तकनीक की एक पोर्टेबल डिज़ाइन पर काम कर रहे हैं जो बैटरी से चले । इसे त्वचा के पास रखकर एक बटन दबाने से पता चल जाएगा कि रक्त मेंे मलेरिया परजीवी है या नहीं और उसकी मात्रा कितनी है । मीटर की तरह इस रीडिंग को पढ़ा जा सकेगा । इसके लिए ज़्यादा दक्षता भी नहीं चाहिए । इस तरीके की मदद से दूर दराज़ के इलाकों में मलेरिया की जांच और उपचार त्वरित हो जाएगा और लाखों लोगों की जान बच सकेगी । इस परियोजना में युरोप के सात देश सहयोग कर रहे हैं ।
सर्कस जंगली जानवरों के लिए पाशविक
भारत में तो सर्कसों में जानवरों के उपयोग पर प्रतिबंध है मगर कई देशों में आज भी जानवर सर्कसों के सितारे हैं । अलबत्ता एक ताजा अध्ययन बताता है कि सर्कस का वातावरण जानवरों, खास तौर से जंगली जानवरों के लिए पाशविक साबित होता है । यह अध्ययन ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के स्टीफन हैरिस और उनके सहयोगियों ने किया है तथा इसके परिणाम एनिमल वेलफेयर नामक पत्रिका के ताजा अंक में प्रकाशित हुए हैं । हैरिस का कहना है कि चाहे जगह की कमी हो, या उछलकूद का अभाव हो, या सामाजिक संपर्को की कमी, कुल मिलाकर सर्कस का जीवन वन्य जीवन से बदतर होता है । अध्ययन में पाया गया कि सर्कस में रहने वाले जानवर दिन में मात्र १-९ प्रतिशत समय प्रशिक्षण में गुजारते हैं । शेष समय वे तंग दड़बों या पिंजड़ों में कैद रहते हैं । ये पिंजड़े बहुत छोटे होते हैं और चिड़ियाघरों जैसे नहीं होते । घोड़े, कुत्ते जैसे पालतु जानवर तो इसके अभ्यस्त हो जाते हैं मगर हाथी, शेर, बाघ और भालू जैसे वन्य पशुआें की शामत आ जाती है । हालत यह होती है कि सर्कस के जानवर ज़्यादातर समय तनावग्रस्त रहते हैं । वे अपने छोटे-छोटे पिंजड़ों में चहलकदमी करते दिन बिताते हैं, जो तनाव का एक लक्षण है । यदि सर्कस उनके लिए थोड़े बड़े दड़बे भी बनाता है, तो भी उनके लकड़ी के लट्ठे वगैरह जैसी चीज़े नहीं रखी जातीं जिनसे ये जानवर खेल सकें । डर यह रहता है कि इन चीज़ो का उपयोग करके कहीं ये बागड़ तोड़कर भाग न जाएं । हैरिस कहते हैं कि इन जानवरों का जीवन नारकीय हो जाता है, इस पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए । भारत के समान ऑस्ट्रिया जैसे कुछ अन्य देशों में भी सर्कस में जानवर रखने पर प्रतिबंध है मगर यूरोप तथा यूएस के सर्कसों में जानवर आज भी आकर्षण का प्रमुख केन्द्र हैं ।
ग्रीन हाऊस गैस से इंर्धन
सिंंगापुर के शोधकर्ताआें ने एक तनकीक खोजी निकाली है जिसकी मदद से कार्बन डाई ऑक्साइड को आसानी से मिथेनॉल में तब्दील किया जा सकता है। इस तकनीक की जानकारी उन्होंने जर्मनी की धोश पत्रिका अंगेवांडटे केमी के हाल के अंक में प्रकाशित की है । वैसे तो कार्बन डाइ ऑक्साइड को मिथेनॉल में तब्दील करना सदा से संभव रहा है मगर इसके लिए बहुत अधिक तापमान व दबाव की ज़रूरत पड़ती है क्योंकि कार्ग्न डाईऑक्साइड अत्यंत स्थिर अणु है । इसलिए इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया था । मगर इंस्टीट्यूट ऑफ बॉयोइंजीनियरिंग एण्ड नैनोटेक्नॉलोजी के जैकी यिंग व उनके साथियों ने एक अनोखा उत्प्रेरक विकसित करके इस प्रक्रिया को साधारण कमरे के तापमान पर संभव कर दिखाया है । यह उत्प्रेरक एन-हिटरोसायक्लिक कार्बीन (एनएचसी) समूह का पदार्थ है । इसकी विशेषता यह है कि यह विषैला बिल्कुल नहीं है और काफी कुशलता से कार्बन डाइऑक्साइड और हाइड्रोजन को मिथेनॉल में तब्दली कर देता है । मिथेनॉल का उपयोग सीधे इंर्धन के रूप में भी किया जा सकता है और अन्य कार्बनिक रसायनों के निर्माण के लिए कच्च्े माल के रूप में भी । गौरतलब है कि उत्प्रेरक उन पदार्थोंा को कहते हैं जो किसी रासायनिक क्रिया को बढ़ाते हैं मगर स्वयं अपरिवर्तित रहते हैं । लिहाज़ा इनका उपयोग बार- बार किया जा सकता है ।एनएचसी कार्बन डाईऑक्साइड और हाइड्रोजन की क्रिया को कैसे उत्प्रेतिरत करता है , यह अभी स्पष्ट नहंी है मगर शोधकर्ता दल को लगता है कि संभवत: यह कार्बन डॉई ऑक्साइड के अणु की आकृति बदल देता है जिससे हाइड्रोजन अणु के लिए कार्बन से संपर्क सहज हो जाता है । इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन का स्रोत फिलहाल हाइड्रोसाइलेन नामक पदार्थ है । यह काफी महंगा है और इसका उपयोग कंप्यूटर चिप्स बनाने में किया जाता है । सिंगापुर का दल हाइड्रोजन का सस्ता विकल्प खोजने की कोशिश में है । यदि यह तकनीक कारगर साबित होती है तो इसकी मदद से कार्बन डाइ ऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैस को वायुमंडल से लेकर मिथेनॉल में बदलकर उपयोग करना संभव हो जाएगा । वैसे सिंगापुर का दल कार्बन डाईऑक्साइड को मिथेनॉल में बदलने के लिए अन्य वैकल्पिक तकनीकों पर भी काम कर रहा है । ***
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