बुधवार, 16 सितंबर 2009

५ प्रदेश चर्चा

उ.प्र.: महिला किसान भी कम नहीं
भारत डोगरा
हमारे देश में विशेषकर छोटे किसानों के खेतों में महिलाआें की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है । परंतु खेती संबंधी निर्णय प्रक्रियामें उन्हे प्राय: समुचित महत्व नहीं दिया जाता । गोरखपुर इन्वायरेनमेंट एक्शन ग्रुप नामक पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक प्रमुख स्वैच्छिक संस्था ने इस पारम्परिक भूल को सुधारते हुए जब अपने कृषि-कार्य केन्द्र में महिलाआें को रखा तो इसके बहुत उत्साहवर्धक परिणाम मिले । इससे राष्ट्रीय स्तर पर भी कृषि संकट से बाहर निकलने हेतु उम्मीद की किरण नजर आती है । यह संस्था जिस कृषि तकनीक का प्रसार करती है, वह सस्ती आत्म-निर्भरता बढ़ाने वाली व टिकाऊ तकनीक है । इसमें स्थानीय संसाधनों के बेहतर उपयोग पर विशेष जोर दिया जाता है । जिस तरह महिला किसानों ने शीघ्र ही इस तकनीक में दक्षता हासिल की व इसे बड़े उत्साह से अपनाया उससे यह आभास होता है कि महिला किसानों का ऐसी तकनीक के प्रति विशेष रूझान है । इस तकनीक में मेहनत तो अधिक है, परन्तु खर्च कम है । महिलाआें में घर गृहस्थी को आर्थिक कठिनाई से बचाने की गहरी इच्छा होती है अतएव वे मेहनत से घबराती नहीं हैं । परिवार के पोषण से भी उनका विशेष जुड़ाव होता है परिवार के पोषण से भी उनका विशेष होता है । साग सब्जी व विविधतापूर्ण खेती के प्रति उनका आकर्षण इसलिए भी रहता है ताकि उनकी रसोई को कई तरह की सब्जियों, मसाले आदि अपने खेत से ही मिल जाएं। खेती के कार्य से जुड़े रहने के कारण उन्हें इसकी समस्याआें की पहले से ही अच्छी समझ होती है । यदि कोई तसल्ली से इन्हें दूर करने के तौर-तरीके उनकी भाषा में, उनके अपने खेत में या गांव में आकार बताए तो महिला किसानों द्वारा उन पर पूरा ध्यान देना स्वाभाविक हीहै । गोरखपुर जिले के प्रयासों में यह सारी अनुकूल स्थितियां एक दूसरे से मिलकर अच्छी तरह उभरी हैं व टिकाऊ खेती के लिए महिला किसानों का विशेष रूझान भी सामने आया है जो राष्ट्रीय स्तर पर एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है । इससे जहां एक और किसानों का खर्च कम हुआ, वहां दूसरी ओर उनका उत्पादन भी बेहतर हुआ, उसकी गुणवत्ता में सुधार हुआ व मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन भी लौटने लगा । इस तरह के सफल प्रयोगोंसे संकेत मिलते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर जो कृषि संकट है उसे किस प्रकार हल किया जा सकता है । इन प्रयासों में महिला किसानों की हकदारी पर भी ध्यान दिया गया । यह संस्था आरोह नामक व्यापक परियोजना से भी जुड़ी । जिसने महिला किसानों के कार्य के महत्व की उचित पहचान में, भूमि रिकार्ड में किसान पति--पत्नी दोनों के नाम दर्ज होने में, कृषि नीति-निर्धारण व इससे जुड़े सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों में महिलाआें की समुचित भागीदारी पर जोर दिया । आरंभ में यह कार्य गोरखपुर जिले के सरदारनगर व कंपीयरगंज ब्लाकों के कुछ गांवों में केन्द्रित रहा । बाद में धीरे-धीरे कुछ सहयोगी संस्थाआें व संगठनों के सहयोग से अन्य क्षेत्रों में भी इसका प्रचार-प्रसार हुआ । इस क्षेत्र के अनेक गांवों में महिला किसानों से मिलने पर पता चला कि हाल के वर्षोंा में रासायनिक खाद पर उनकी निर्भरता बहुत कम हो गई है । अब वे गोबर, पत्ती आदि के बेहतर उपयोग से कंपोस्ट खाद बनाती हैं । जबकि पहले गोबर का उपयोग होता भी था तो सावधानी से नहीं होता था । केंचुआें की खाद का भी वे अच्छा उपयोग कर रही है । इसी तरह अब औषधि गुणों के स्थानीय पेड़-पौधे जैसे नीम आदि व गोमूत्र का उपयोग कर हानिकारक कीड़ों व बीमारियों से अपनी फसलों का बचाव करती है । कंपीयरगंज में इस संस्था के कार्यकाल में फसलों कें उपचार के नए वैज्ञानिक तौर-तरीके भी उपलब्ध है, मिट्टी के परीक्षण की भी व्यवस्था हैं, पर साथ ही इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि किसी नये ढंग की महंगी निर्भरता से किसान बचें । विभिन्न गांवों में किसान विद्यालयों की स्थापना की गई है जहां प्रति माह एक निर्धारित तिथि को किसानों, विशेषकर महिला किसानों की सभा होती है व उनके प्रश्नों/समस्याआें का समाधान होता है । यदि समस्या अधिक जटिल होती है तो बाहर के विशेषज्ञों की राय प्राप्त् की जाती है । विभिन्न गांवों में कृषि सेवा केन्द्र भी स्थापित किए गए हैं जहां सस्ती दर पर विभिन्न कृषि उपकरण भी किराए पर मिल जाते हैं । स्वयं सहायता समूह बनाकर महिलाआें ने साहूकारों पर निर्भरता समाप्त् की व खेती के लिए अतिरिक्त भूमि प्राप्त् करने, साग-सब्जी की खेती बढ़ाने, सब्जी की दुकान प्रारंभ करने के लिए अपेक्षाकृत सस्ती दर पर कर्ज भी प्राप्त् किए । ऐसे कई समूहों को जोड़कर फेडरेशन व फिर बड़ी फेडरेशन बनाई गई जिससे अनेक महिलाएं अधिक व्यापक सरोकरों से भी जुड़ने लगी । इनमें से अनेक महिलाएं टिकाऊ खेती की अच्छी प्रशिक्षक भी बन चुकी है । अपने क्षेत्र के गांवों के अतिरिक्त उन्हें दूर-दूर के अनेक क्षेत्रों से भी प्रशिक्षण देने के लिए निमंत्रण मिलते रहते हैं । इन विभिन्न कार्योंा से यहां की महिला किसानों में योग्यता व उपलब्धि पर आधारित, कठिनाई में एक-दूसरे की सहायता करने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है । इन गांवों में प्रवासी मजदूरी की अधिक प्रवृत्ति अधिक होने के बावजूद अब महिलाएं अपनी खेती और घर-गृहस्थी दोनों को एक साथ काफी आत्म-विश्वास और कुशलता से संभाल रही है। अवधपुर गांव की उर्मिला के पति बाहर गए हुए हैं, पर वह अपनी घर-गृहस्थी व खेती संभालने के साथ कृषि सेवा केन्द्र की जिम्मेदारी भी संभालती हैं । वह अपनी फेडरेशन के अध्यक्ष भी हैं । जनकपुर गांव की मीरा चौधरी के पति का देहान्त कुछ वर्ष पहले हो गया था । यहां के गांवों में आम सोच है कि विधवा महिला दूसरों पर निर्भर होती है । परंतु मीरा चौधरी तो जैसे पूरे गांव की सहायता करने में समर्थ हैं । कुछ महिलाआें ने कहा कि इतनी सक्रिय व सहायता के लिए तत्पर महिला को तो ग्रामप्रधान के चुनाव में खड़ा होना चाहिए मीरा गांव के लघु सीमान्त कृषक मोर्चे की अध्यक्ष हैं । राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन ने उन्हें मास्टर ट्रेनर के रूप में चुना है । उन्होंने कई स्थानों पर प्रशिक्षण भी दिया है । अवधपुर की घनेश्वरी देवी टिकाऊ खेती, केंचुए की खाद बनाने व संगठन कार्य में आगे रहीं हैं व उन्हें कई पुरस्कार भी मिले हैं । यदि नरेगा के कार्य के बारे में उन्हें शिकायत होती है तो वे सीधे लखनऊ की हेल्प लाईन पर फोन कर देती है । घनेश्वरी देवी एक बड़ी फेडरेशन की सचिव भी हैं । इसी गांव की सोनपति ने बताया कि आरंभ में उन्हें घर से बाहर निकलने में भी संकोच होता था, पर अब तो वह हानिकारक कीड़ों के नियंत्रण की प्रशिक्षक हैं व प्रशिक्षण देेने के लिए दूर-दूर चली जाती है । दूधई गांव की कुसुमवती किसान विद्यालय का संचालन करती हैं, स्थानीय फेडरेशन की कोषाध्यक्ष हैं व आशा स्वास्थ्यकर्मी भी हैं । वह सुबह चार बजे उठकर घर का काम शीघ्रता से निपटाती है व इसके पश्चात गांव की स्वास्थ्य समस्याआें को जानने के लिए गांव का राऊंड लेती है । जैपुर गांव में महिला किसान सरसुति तो ग्राम प्रधान के रूप में निर्वाचित भी हो गई हैं वे उन्होंने विकास कार्य को बहुत योग्यता से आगे बड़ाया है । बिलारी गांव की गायत्री देवी आंगनवाड़ी भी चलाती हैं व फेडरेशन की कोषाध्यक्ष भी हैं । उन्होने बताया कि संस्था के आगमन के बाद हमारे गांव में बहुत सार्थक बदलाव हुआ है । पसराई गांव की कलावती चौबे स्थानीय फेडरेशन की अध्यक्ष हैं व आशा स्वास्थ्य काय्रकर्ता भी हैं । बिन्द्रावती व गंगोत्री टिकाऊ खेती के अच्छे प्रशिक्षण मास्टर ट्रेनर के रूप में काफी सफल रही हैं । सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन महिलाआें ने न केवल अपने यहां की खेती में महत्वपूर्ण सुधार किए हैं, अपितु अब वे प्रशिक्षक के रूप में अपने इस अनुभव को दूसरों के खेतों में भी ले जा रहीं हैं । ***
मुंबई का हर दूसरा व्यक्ति झुग्गी में रहता है
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई का हर दूसरा व्यक्ति झुग्गी में निवास करता है । मानव विकास रिपोर्ट और मुंबई नगर निगम द्वारा बनाई गई रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में हर तीसरा यक्ति झुग्गी में रहता है। लेकिन यह आंकड़ा मुंबई में और अधिक बढ़ जाता है, जहां २००१ की जनगणना के मुताबिक ५४.१ प्रतिशत लोग झुग्गी में रहते हैं । इसका मतलब है कि मुंबई का हर दूसरा व्यक्ति झुग्गी में रहता है । रिपोर्ट में कहा गया है कि मुंबई में यह लोग कुल जमीन के मात्र छह प्रतिशत हिस्से मेंही रहते हैं , जो यहां के डरावने संकुचन को बयान करती है । उल्लेखनीय है कि देश की राजधानी दिल्ली में जहां १८.९ प्रतिशत लोग झुग्गी में निवास करते हैं , वहीं कोलकाता में ११.७२ प्रतिशत और चेन्नई में २५.६० प्रतिशत लोग इन इलाकों में निवास करने को मजबूर हैं।

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